दो अन्य मुद्दे: बौद्ध-धर्मी बनना और सुख

बौद्ध-धर्म में दीक्षित होना

हमने उन विभिन्न समस्याओं के विषय में चर्चा की है जिनका बौद्ध-धर्म में लोगों को सामना करना पड़ता है | हमने देखा कि एक यथार्थवादी मनोदृष्टि होना अत्यंत आवश्यक है | इस संदर्भ में, परम पावन दलाई लामा पश्चिमी लोगों को सलाह देते हैं कि वे धर्म बदलते हुए अत्यंत सावधान रहें | उनकी सलाह से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब हम बौद्ध-धर्मी मार्ग का अनुसरण करते हैं, तो क्या इसका अर्थ यह है कि हमने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया है और अब, अपने गले में क्रॉस पहनने के बजाय हम लाल धागा पहनेंगे?

मुझे लगता है, कि कई अर्थों में, बौद्ध्-धर्मी मार्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बारे में धर्मान्तरण के रूप में सोचना बहुत सहायक नहीं है | निस्संदेह, यदि हम कहते हैं कि हमने बौद्ध-धर्म अपना लिया है, तो इस बात से हमारी जन्म-परम्परा से जुड़े हुए अन्य लोग हमसे विलग हो जाएँगे, चाहे वे ईसाई हों या यहूदी, और विशेषतः यदि वे इस्लाम धर्म से सम्बंधित हों | अपने जन्मकाल के धर्म को छोड़कर धर्म परिवर्तन कर लेने से हमारे परिवार या हमारे समाज बहुत हुलसित नहीं होते, नहीं क्या? वे इसे व्यक्तिगत बहिष्कार के रूप में देखते हैं | इसलिए परम पावन कहते हैं कि हमें इस पूरे मुद्दे के प्रति बहुत सावधान और संवेदनशील रहना चाहिए, और मेरे विचार में, समाज एवं परिवार के सामाजिक दृष्टिकोण के अतिरिक्त हमें इसे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समझना चाहिए |

जीवन में यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने सम्पूर्ण जीवन को समेकित करें ताकि उसके सभी भाग समरसतापूर्वक आपस में ठीक से जुड़ पाएँ | इस प्रकार हम अपने सम्पूर्ण जीवन के इतिहास के साथ सुखी हो जाते हैं | जीवन के प्रति समेकित दृष्टिकोण हमें जीवन में अधिक संतुलित होने में सहायक होता है | कभी-कभी जब लोग धर्म-परिवर्तन कर लेते हैं, तब अपने पिछले जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण अत्यंत नकारात्मक हो जाता है | इसे मनोविज्ञान में बताई गई एक प्रक्रिया द्वारा समझा जा सकता है | अपनी आत्म-प्रतिष्ठा के लिए लोगों के भीतर एक मूलभूत अपेक्षा होती है कि वे अपने पूर्वजों अथवा अपने परिवार अथवा अपनी पृष्ठभूमि के प्रति निष्ठावान हों | यह अपेक्षा प्रायः अवचेतन रूप में होती है | होता यह है कि यदि हम इस बात को अस्वीकार करते हैं कि हमारे अतीत में कुछ सकारात्मक पहलू थे - जैसे हमारा धर्म या परिवार या राष्ट्रीयता - तब हमारे अवचेतन रूप में उसके प्रति निष्ठावान रहने की इच्छा रहती है और इसलिए, अवचेतन रूप से, हम उसके नकारात्मक पहलुओं के प्रति निष्ठावान हो जाते हैं | यह निष्ठा का एक विनाशकारी रूप है |

निष्ठा के विनाशकारी रूप

निष्ठा के विनाशकारी रूप का एक अच्छा उदाहरण है भूतपूर्व पूर्वी जर्मनी के कुछ लोगों का अनुभव | जब पूर्वी जर्मनी का पश्चिमी जर्मनी के साथ एकीकरण हो रहा था, तब पूर्वी जर्मनी की राजनैतिक संस्कृति को पूर्णतः नकारकर उसे "अनुचित" तथा नकारात्मक ठहराया गया | पिछली प्रणाली की सब बातों को कचरे के ढेर में फेंक दिया गया तथा लोगों के मन में यह भयावह भावना घर कर गई कि वे मूर्ख थे और उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन किसी नकारात्मक आस्था में गँवा दिया - विशेषतः यदि वे  राजनैतिक रूप से सक्रिय होकर शासन का समर्थन करते थे | निस्संदेह, इससे अत्यंत समस्याजनक मनोवैज्ञानिक अवस्था उत्पन्न हुई |

फिर कुछ ऐसा हुआ कि पूर्वी जर्मनी के कुछ लोगों को अनजाने में ही ऐसा प्रतीत होने लगा कि आत्म-गरिमा बनाए रखने के लिए अपने अतीत के प्रति निष्ठावान रहना परम आवश्यक है, और इसलिए वे निरंकुशतावाद जैसे नकारात्मक पहलुओं के प्रति भी निष्ठावान रहे | इसने धृष्ट गंजे लड़कों एवं नव-नाज़ी जैसे संलक्षणों को जन्म दिया | नव-नाज़ीवाद में विदेशियों के प्रति भीषण वैर तथा अपनी जाति और अपने प्रति भ्रांत गौरव की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है | विदेशियों के प्रति इस प्रकार की असहिष्णुता पूर्वी जर्मनी समाज की विशिष्टता है | दूसरी ओर, यदि लोग अपने अतीत के सकारात्मक पहलुओं को पहचानकर स्वीकार कर लेते हैं, तो वे उसके प्रति निष्ठावान रहते हैं, और इससे अपने पूरे जीवन को वे बेहतर ढंग से समाहित कर पाते हैं | पूर्वी जर्मनी समाज के कई सकारात्मक पहलू थे | एक उदाहरण है कुछ लोगों के बीच के परस्पर हार्दिक आत्मीय सम्बन्ध जिनके कारण वे एक-दूसरे के साथ दुःख-सुख बाँट सकते थे और एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते थे | क्योंकि उन्हें बाह्य रूप से कठोर नियंत्रण में रखा जा रहा था, इसलिए जब वे इन मित्रों के सुरक्षित परिवेश में होते थे, वे ऐसे हार्दिक सम्बन्ध स्थापित कर पाते थे | यह बहुत सकारात्मक बात थी |

जब हम धर्म बदलते हैं, तब भी निष्ठा के विनाशकारी रूप की यही समस्या सामने आती है | यदि हम केवल यह सोचें, "मेरा पुराना धर्म मूर्खतापूर्ण और भयावह था," और किसी नई दिशा में कूद पड़ें, जैसे बौद्ध-धर्म, तब हम पुनः जाने-अनजाने अपने अतीत के प्रति निष्ठावान रहेंगे | ऐसी स्थितियों में, हम सकारात्मकता के बजाय नकारात्मकता के प्रति निष्ठावान रहते हैं | उदाहरण के लिए, यदि हम पहले ईसाई थे, तो हो सकता है कि हम अत्यंत हठधर्मी हो जाएँ अथवा नरक लोक और मुझे क्या करना चाहिए व क्या नहीं करना चाहिए के नाम से काँपने लगें, और कभी-कभी हम साम्प्रदायिक भी हो सकते हैं | इससे बचने के लिए, यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने जन्मकाल के धर्म की सकारात्मक बातों को, तथा हमारी संस्कृति की सकारात्मक बातों को - एक जर्मन अथवा इटलीवासी अथवा अमरीकी या हमारी जो भी पृष्ठभूमि हो उसके सकारात्मक पहलुओं को अंगीकार करें |

ईसाई पृष्ठभूमि में निस्संदेह अत्यधिक सकारात्मक गुण हैं जैसे प्रेम तथा उदारता पर उनका बल, विशेषतः निर्धनों, रोगियों, और ज़रूरतमंदों की सहायता करना। यह अत्यधिक सकारात्मक है। इसके और बौद्ध-धर्मी साधना के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है। हम एक तरह से दोनों ईसाई और बौद्ध-धर्मी हो सकते हैं, क्योंकि हमारी ईसाई पृष्ठभूमि के इन सकारात्मक पक्षों को निकाल फेंकने की आवश्यकता नहीं है। मुझे नहीं लगता कि बौद्ध-धर्म में इस बात पर बहुत बल दिया जाता है कि हम स्वयं को बौद्ध-धर्मी मानते हैं या नहीं। यह कभी भी मुद्दा नहीं रहा है, जैसा मध्यकालीन यूरोप में होता था जहाँ पूछा जाता था "तुम्हारा धर्म क्या है?" और हमें धर्म न्यायाधिकरण के समक्ष अपनी पहचान बतानी होती थी। यह बौद्ध-धर्मी ढंग नहीं है।

पारम्परिक भारतीय समाज में गृहस्थ बौद्ध-धर्मियों का स्थान

मेरे विचार में हम यह प्राचीन भारत के उदाहरण का देख सकते हैं। प्राचीन भारत में जहाँ बौद्ध-धर्म का विकास हुआ, हिन्दुओं और बौद्ध-धर्मियों के बीच में बहुत स्पष्ट विभेद नहीं था। हमें यह भ्रान्ति है कि भारत में बौद्ध-धर्म में कोई जातियाँ नहीं थीं और बुद्ध जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। परन्तु ऐसा केवल अभिषेक-प्रदत्त समुदाय में था। भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए जातियाँ नहीं थी, परन्तु बुद्ध के गृहस्थ अनुयायियों के साथ ऐसा नहीं था। प्राचीन बौद्ध मठों की दीवारों के अवशेषों में पाए जाने वाले अभिलेखों में हम देखते हैं "यह राशि मठ को अमुक ब्राह्मण द्वारा दान की गई थी।" इन अभिलेखों में उस गृहस्थ व्यक्ति की जाति, जो संरक्षक था, हमेशा लिखी होती थी। यह स्पष्ट संकेत है कि गृहस्थ बौद्ध-धर्मी हिन्दुओं से अलग समुदाय नहीं बनाते थे; वे हिन्दू समाज का अंग थे। इसका अर्थ है कि भारत में अलग बौद्ध-धर्मी विवाह-विधियाँ इत्यादि नहीं थीं। गृहस्थ भारतीय बौद्ध-धर्मी इन सबके लिए हिन्दू रीति-रिवाज मानते थे।

इसके लाभ भी थे और हानियाँ भी। लाभ यह था कि भारत में सभी एक समेकित समाज का अंग थे और प्रत्येक व्यक्ति अपने सम्प्रदाय तथा आध्यात्मिक गुरु का अनुसरण करता था। इसलिए, चाहे आप बौद्ध-दर्शन के अनुयायी थे या हिन्दू धर्म के, इससे विशेष अंतर नहीं पड़ता था, क्योंकि समाज में सभी समरस भाव से सम्मिलित थे और कोई भी रूढ़िवादी ढंग से नहीं कहता था, "मैं हिन्दू हूँ" या "मैं बौद्ध हूँ"। निस्संदेह यदि आप भिक्षु अथवा भिक्षुणी बन जाते थे तब आप एक अलग समुदाय का अंग बनने के लिए दृढ़तापूर्वक वचनबद्ध थे। वह अलग बात थी। हम पारम्परिक भारत में गृहस्थ लोगों की स्थिति के विषय में चर्चा कर रहे हैं।

हानि यह थी कि जब भारत में बौद्ध मठ नहीं चल पाए, तब अधिकांश बौद्ध लोगों को हिन्दू धर्म ने अपना लिया, विशेषतः इसलिए क्योंकि हिन्दू धर्म में बुद्ध को विष्णु, हिन्दू देवता, का रूप माना जाता है। इसलिए बुद्ध के प्रति समर्पित रहते हुए भी आदर्श रूप से एक अच्छा हिन्दू होना बहुत सरल था।

बौद्ध धर्म का पालन करते हुए गिरजाघर भी जाना

प्रश्न यह उठता है कि क्या हम बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं का पालन करते हुए एक अच्छे ईसाई भी हो सकते हैं? निस्संदेह हमें एक संतुलन बनाकर रखना होगा ताकि हम इनमें से किसी भी अतिवाद की ओर न जाएँ जहाँ या तो हम बौद्ध धर्म को तुच्छ बना दें अथवा दूसरा अतिवाद कि "मैंने अपना धर्म बदलकर बौद्ध-धर्म अपना लिया है और अब सदा के लिए मेरा गिरजाघर जाना निषिद्ध है।" असली प्रश्न यह है, "एक धार्मिक संस्कार के रूप में शरणागति में जाने का क्या अर्थ है और क्या इसका अर्थ यह है कि अब मैं उस रूप में बौद्ध हो गया हूँ जैसे ईसाई धर्मान्तरण के समय दीक्षा दी जाती है?" मेरे विचार में यह ईसाई दीक्षा के समकक्ष नहीं है। मुझे नहीं लगता कि इसे इस दृष्टि से देखने से कोई लाभ होगा।

मेरा मत है कि जिस आध्यात्मिक मार्ग का हम अनुसरण करते हैं वह अत्यंत निजी होना चाहिए। गले में मलिन लाल धागे पहनकर, विशेषतः यदि उनकी संख्या 30 हो, यहाँ वहाँ भटकने से हम बहुत अजीब प्रतीत होते हैं - थोड़े उन उबांगी अफ्रीकियों की तरह जो गले में धातु के लच्छे पहनते हैं। यदि हम इन धागों को रखना भी चाहते हैं, तो हम इन्हें अपने लिए निजी रूप से रख सकते हैं, जैसे अपने बटुओं इत्यादि में। जो हम कर रहे हैं उसका विज्ञापन देना आवश्यक नहीं है। यह सोचने का कोई कारण नहीं है कि हमारे लिए गिरजाघर जाना निषिद्ध है अथवा इससे बौद्ध-धर्म के प्रति हमारी वचनबद्धता पर किसी भी प्रकार का संकट आएगा।

प्रायः जब लोग बौद्ध-धर्म अपनाते हैं, तब वे आरम्भ में उसके प्रति रक्षात्मक हो जाते हैं | ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे असुरक्षित महसूस करते हैं और अभी इसे लेकर आश्वस्त नहीं हुए होते | इसलिए, अपने आध्यात्मिक मार्ग के चयन को उचित ठहराने के लिए, मनोविज्ञानिक रूप से हमें लगता है कि, "मैं गिरजाघर नहीं जा सकता और मैं अपने अतीत के बारे में कुछ भी सकारात्मक नहीं सोच पा रहा |" यह बहुत बड़ी भूल है | निस्संदेह, यदि हम निष्ठा से बौद्ध-धर्मी मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं, तो  उसमें अपनी सारी ऊर्जा लगा देनी चाहिए | परन्तु, इससे इस बात का विरोध नहीं कि हम ईसाई धर्म की प्रेम-भावना का पालन करें और मदर टेरेसा जैसी महान ईसाई हस्तियों से प्रेरित हों तथा उनकी भाँति निर्धनों की सहायता करें | यह बौद्ध-धर्मी मार्ग के बिलकुल भी विरुद्ध नहीं है | ऐसा कैसे हो सकता है?

यदि हम अपने जीवन में ध्यान-साधना और विभिन्न प्रकार की बौद्ध शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं, तो हमें आवश्यकता पड़ने पर गिरजाघर जाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए | इसमें कोई समस्या नहीं है | और जब हम ऐसी स्थिति में गिरजाघर जाएँ भी, तो वहाँ बैठकर आशंकित होकर हमें वहाँ पूरे समय मंत्रोच्चार करने की भी आवश्यकता नहीं है | यदि हम एक बौद्ध साधक के रूप में गिरजाघर जाते हैं, तो वहाँ भाग लेने में कोई हानि नहीं है | महत्त्व इस बात का है कि गिरजाघर में उपस्थिति के दौरान हमारी मनोदृष्टि क्या है |

अब, निस्संदेह, हमें धर्म संगठन के किसी भी रूप में ऐसी बातें देखने को मिलेंगी जो आकर्षक होंगी और कुछ जो आकर्षक नहीं होंगी | तो यदि हम उस स्थिति में हैं जहाँ हमारा परिवार कहता है, "आज ख़ास छुट्टी है; आओ गिरजाघर चलें - आज बड़ा दिन (क्रिसमस) है," या और कुछ, तब यह कहने से, "मैं तुम्हारे साथ गिरजाघर नहीं जाऊँगा, मैं बौद्ध हूँ, " उन्हें ठेंस पहुँचेगी |  वे इसे व्यक्तिगत बहिष्कार मानेंगे | इसलिए अपने परिवारों के साथ क्रिसमस की प्रार्थना-सभा में जाना बेहतर है | हो सकता है कि अतीत में हमें ईसाई धर्म की कुछ बातें पसंद न आई हों और हमने उनकी आलोचना भी की हो, परन्तु उनपर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, सकारात्मक पक्षों पर केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि सकारात्मक पक्ष हैं | इस प्रकार, आतंरिक रूप से मनोवैज्ञानिक स्तर पर परिणाम यह होता है कि हम एक अधिक समेकित व्यक्ति बन पाएँगे। हमने अपने व्यक्तिगत इतिहास से समझौता कर लिया है। यह सचमुच बहुत लाभकारी होता है।

सुख

स्वयं से समझौता हमें इस विषय की ओर लाता है कि "बौद्ध-धर्म में सुख का क्या स्थान है?" मेरे विचार में बौद्ध-धर्म की ओर उन्मुख अनेक नवसाधकों के लिए यह बहुत बड़ा मुद्दा है कि, "क्या मुझे सुखी होने की अनुमति है?", विशेषतः यदि वे ऐसे धर्म से आए हों जहाँ इस बात पर बल दिया जाता है कि हम सब पापी हैं। बौद्ध शिक्षाओं में हम सुनते हैं कि सबकुछ कष्टप्रद है और हमारी किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है, इसलिए समय नष्ट मत कीजिए। और इसलिए, हमें प्रायः यह अनुभूति होती है कि हमें आनंद उठाने अथवा विश्राम करने अथवा फिल्म देखने की अनुमति नहीं है। यह बहुत बड़ी गलतफ़हमी है। हमें पहले सुख की परिभाषा देखनी चाहिए और समझना चाहिए कि सुख क्या है। कुछ लोगों को यह भी पता नहीं होता कि वे सुखी हैं अथवा सुख क्या है। उन्हें किसी और से पूछना पड़ता है, "तुम क्या सोचते हो, क्या मैं तुम्हें सुखी लगता हूँ?"

बौद्ध-धर्म में सुख की अनेक परिभाषाएँ हैं। पर प्रमुख परिभाषा है कि सुख वह अनुभूति है जो सकारात्मक रचनात्मक कृत्यों से परिपक्व होती है। यह सकारात्मक कर्म का परिपक्व रूप है। यदि सुख की परिभाषा यह है, तो निस्संदेह बौद्ध-धर्म में हम रचनात्मक होना चाहेंगे ताकि इसके परिणामस्वरूप हम सुख का अनुभव कर सकें। बौद्ध साधना द्वारा हम विशेष रूप से सकारात्मक एवं रचनात्मक होने का प्रयास करते हैं; अतः, निस्संदेह, इसके परिणामस्वरूप हम सुख का अनुभव करेंगे और हमें इसका अनुभव करने की "अनुमति" है। यदि बौद्ध-धर्म में सुख की अनुमति न होती, तो बौद्ध-धर्मी हर समय सब ओर विनाश करते घूमते, क्योंकि इससे यह सुनिश्चित हो जाता कि वे कभी सुखी नहीं होंगे!

इसके अतिरिक्त, बौद्ध-धर्म में एक मूलभूत शिक्षा है कि सभी सुखी होना चाहते हैं और कोई भी दुखी नहीं होना चाहता। यदि ऐसा है और, प्रेम सहित, हम सबके सुख की कामना कर रहे हैं, और हम सबको सुख प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं, तो निस्संदेह हम अपने सुख की भी कामना कर रहे हैं और हम स्वयं को भी सुखी बनाने का प्रयास कर रहे हैं।

सुख को इस अनुभूति के रूप में भी परिभाषित किया जाता है कि जब वह उत्पन्न होती है, तब हम चाहते हैं कि वह बनी रहे; और जब वह छिन जाती है, तो हम उसे वापस पाना चाहते हैं, परन्तु उससे चिपके रहने वाले ढंग में नहीं। मूलतः, सुख की भावना अच्छी लगती है।

सुख के सन्दर्भ में भ्रांतियाँ

सुख के मुद्दे को लेकर दो कारणों से भ्रान्ति उत्पन्न होती है। एक है कि हम प्रायः सोचते हैं कि सुख अनुभव करने के लिए उसकी अनुभूति नाटकीय होनी चाहिए। दूसरी भ्रान्ति यह है कि सुख के किस रूप को सही अर्थों में सुख माना जाए। दूसरी बात का सम्बन्ध इस प्रश्न से है कि वास्तव में सुख का स्रोत क्या है।

सर्वप्रथम, सुख को सुख मानने के लिए उसका नाटकीय होना आवश्यक नहीं है। हम प्रायः सोचते हैं कि किसी अनुभूति को वास्तव में विद्यमान होने के लिए उसका अत्यंत प्रबल होना आवश्यक है। इन बातों के प्रति हमारी हॉलीवुड जैसी मनोदृष्टि है। यदि एक सकारात्मक मनोभाव की तीव्रता कम स्तर की है, तो उससे अच्छी फिल्म नहीं बन सकती; उससे अच्छा प्रदर्शन नहीं हो सकता। इसलिए उसका अत्यंत प्रबल होना अनिवार्य है, हो सके तो पृष्ठभूमि में नाटकीय संगीत के साथ। ऐसा नहीं है। जैसा मैंने कहा, सुख वह अनुभूति है जो हमें अच्छा महसूस कराती है और जिसका हम सातत्य चाहते हैं - यह बहुत सुखद है। सुख का अनिवार्य रूप से ऐसा होना आवश्यक नहीं है "शाबाश! वाह! बहुत अच्छे!" जैसा पिटे-पिटाए ढंग से लैटिन अमरीकी अथवा इतालवी शैली में दिखावे वाले, जोशीले रूप से होता है | यह ब्रिटेन के अधिक सादे ढंग का भी हो सकता है |

जहाँ तक दूसरे कारण का सवाल है, याद रखें, जब हम एक स्तर के दुःख अथवा सुख के अनुभव की बात करते हैं, तो वह अनुभव है हमारे कर्म का परिपक्व होने का ढंग - वह है जीवन में घटनाओं को अनुभव करने का हमारा ढंग | तब प्रश्न यह उठता है कि हम किस रूप में उस सुख का अनुभव करेंगे? क्या हमारे सुख के रूप का सम्बन्ध इस बात से है कि हम किस प्रकार मनोरंजन ढूंढ़ते हैं या अपने नीरस जीवन में कैसे आनद, मनोरंजन और मन बहलाव पाते हैं? क्या सुख की ठीक परिभाषा केवल आनंद उठाना है? और, इससे भी अधिक मूल स्तर पर, क्या कोई दिलचस्प कार्य करना ही सुख का असली स्रोत है?

आनंद

"आनंद" एक अत्यंत रोचक शब्द है | इसे परिभाषित करना बहुत कठिन है | एक बार मैं अपने गुरु सरकॉंग रिन्पोचे के साथ हॉलैण्ड में था और जिन लोगों के साथ हम ठहरे हुए थे उनकी एक बहुत विशाल नाव थी - एक यंत्र-चलित नौका | एक दिन, उन्होंने हमारे "मनोरंजन" के लिए हमें उस नाव में घुमाने का प्रस्ताव रखा | नाव एक बहुत ही छोटी झील में थी - एक बहुत विशाल नाव एक बहुत छोटी झील में | इस छोटी झील में और कई बड़ी व छोटी नावें भी थीं | हम इस नाव में निकले और अन्य नावों के साथ उस झील का एक चक्कर लगाया, जिससे मुझे एक मनोरंजन पार्क की याद आई जहाँ बच्चों के लिए एक सवारी होती है जिसमें कई छोटी कारें चक्कर लगा रही होती हैं | हमारी सैर वैसी थी | कुछ समय के बाद सरकॉंग रिन्पोचे ने मुझसे तिब्बती भाषा में पूछा, "क्या इसी को ये लोग 'आनंद' कहते हैं?"

मेरा यह कहना है कि यदि हम सुख को कारण व प्रभाव की दृष्टि से देखें, तो सुखी होने का कारण क्या है? बौद्ध दृष्टिकोण से, सुख का कारण है रचनात्मक व्यवहार | बाहर निकलकर "आनंद" के लिए कुछ छिछोरापन करना, हमें सुख नहीं देगा | हो सकता है कि जिसे समाज "आनंद" समझता है, जैसे इस नाव में घूमना या फिल्म देखने या पार्टी में जाना या कोई और ऐसा कार्य करना, वह करके भी हम अत्यंत दुखी हों | दूसरी ओर, हो सकता है कि हम अपने कार्यालय में अपना कार्य करते हुए अत्यंत सुखी और संतुष्ट अनुभव करें | इसलिए यदि हमने सुख के कारण संजो लिए है, जो है रचनात्मक व्यवहार, तब हम किसी भी स्थिति में सुख अनुभव करेंगे और अनिवार्य रूप से उन स्थितियों में नहीं जिन्हें पारम्परिक रूप से "आनंद" कहा जाता है |

जब हमारे पास यह चयन करने की छूट होती है कि हम क्या करेंगे और कैसे अपना समय व्यतीत करेंगे, तब हम कुछ भी कर सकते हैं जैसे काम करना, विश्राम करना, खेल-कूद में भाग लेना, तैरना या और कुछ | परन्तु मेरे विचार में हमारे मन में यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि उस गतिविधि में हमारे सुख का स्रोत क्या होगा | हम तैरने जा सकते हैं अथवा इस कसौटी के अनुसार कार्य कर सकते हैं कि "सुखी होने के लिए मैं यह करना चाहता हूँ," परन्तु मुझे लगता है कि हम अन्य कसौटियों का भी प्रयोग कर सकते हैं। अन्य कसौटियाँ इस प्रकार होंगी "मैंने बहुत कठिन परिश्रम किया है। मैं बहुत थका हुआ हूँ और, अपने जीवन में स्वयं तथा दूसरों के प्रति अधिक सहायक होने के लिए, अधिक उपयोगी होगा कि मैं अब विश्राम करूँ। अब और काम करते रहना उपयोगी सिद्ध नहीं होगा।" यदि हम इस रूपक का प्रयोग करें तो, घोड़े को चरागाह में जाकर चरना भी चाहिए; वह सदा दौड़ता नहीं रह सकता।

पहला आर्य सत्य है कि जीवन कठिन है। ऐसा शरीर होना कठिन है जिसमें प्रतिदिन, 24 घंटे काम करने की क्षमता हो । हमें विश्राम चाहिए; हमें सोने की भी आवश्यकता है; हमें भोजन चाहिए। इस विषय में हमें अपराध-बोध से ग्रस्त होने की आवश्यकता नहीं है। जब हमने इस तथ्य को स्वीकार करने की चर्चा की थी कि जीवन कठिन है, तब हम अपराध-बोध के मुद्दे पर बात कर चुके हैं। यह एक तथ्य है कि जीवन अनेक प्रकार की समस्याओं से घिरा हुआ है। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें, तो हम इसके विषय में अपराध-बोध अनुभव नहीं करते। परन्तु यदि हम सोचें कि "अब मुझे आनंद चाहिए," और हम सुख एवं आनंद के लिए स्वयं को ठेलें, तो प्रायः यह संभव नहीं होता। यदि हमारे भीतर यह अभिलाषा न हो कि फिल्म देखने अथवा तैराकी करने अथवा रेस्टोरेंट जाने से हम प्रसन्न होंगे अथवा यह अभिलाषा न हो कि इस प्रकार के मनोरंजन का अर्थ है कि हम सुखी हैं, तो हम निराश नहीं होंगे। परन्तु यह भी संभव है कि इस प्रकार की गतिविधियों से हम पुनः स्फूर्तिवान हो जाएँ, हमारे भीतर विश्राम करने से अधिक ऊर्जा इत्यादि उत्पन्न हो जाए। ऐसा हो सकता है - परन्तु केवल संभावना है, कोई आश्वासन नहीं है। ये सब करते हुए हम प्रसन्न हैं अथवा नहीं यह एक अलग प्रश्न है। और इसके अतिरिक्त, ऐसी गतिविधि के दौरान यदि हम किसी स्तर का सुख अनुभव करते भी हैं, तो इसका प्रचंड रूप से तीक्ष्ण, उत्तप्त लैटिन अनुभव होना आवश्यक नहीं है।

यह बात केवल फिल्म देखने अथवा तैराकी करने के लिए सत्य नहीं है, अपितु दूसरे लोगों के साथ हमारे संबंधों के सन्दर्भ में भी यह बात याद रखना बहुत सहायक सिद्ध होता है - मित्रता में और दूसरों के साथ समय बिताने में | कुछ लोग सोचते हैं कि जब वे किसी मित्र से मिलने जाएँ, तो उन्हें साथ में "कुछ करना" चाहिए: उन्हें बाहर जाकर कुछ करके आमोद-प्रमोद करना आवश्यक है | वे कम उत्तेजक स्तर के सुख एवं मित्र की संगति के संतोष को सराह नहीं पाते, जहाँ कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे क्या कर रहे हैं | वे साथ-साथ सुपरमार्किट जा सकते हैं और राशन खरीद सकते हैं, या कपड़े धो सकते हैं | मुझे यह बात अत्यंत उपयोगी लगती है और मेरे विचार में सुख क्या है जैसी विचित्र अपेक्षाओं या उसके बारे में अपराध-बोध से मुक्त होने में यह अत्यंत सहायक होती है |

हम जिस स्तर का सुख अनुभव कर रहे हैं उसे समझना

आइए कुछ आत्म-निरीक्षण करें | यहाँ बैठकर केवल अपनी उपस्थिति को अनुभव करें और अपनी अनुभूति पर ध्यान दें | यहाँ "अनुभूति" शब्द की परिभाषा पाँच में से दूसरे स्कंध की बौद्ध परिभाषा के अनुसार की गई है - अर्थात, अनुभूति वह ढंग है जिसके द्वारा हम देखना, सुनना, सोचना इत्यादि सुखी, दुखी अथवा तटस्थ भाव से अनुभव करते हैं | केवल उसे पहचानिए | हम गर्मी या ठण्ड, अथवा भोग-विलास जन्य सुख या पीड़ा जैसे शारीरिक संवेदन की बात नहीं कर रहे | यह केवल सुख या दुःख का वह स्तर है जो किसी भी शारीरिक अथवा मानसिक क्रिया के साथ सम्बद्ध है, प्रिय या अप्रिय रूप में |

उदाहरण के लिए, मुझे फूलदान में फूलों को देखना अच्छा लगता है | इन फूलों को देखिए | आपको कैसा लगता है? आप उसका कैसे अनुभव करते हैं? हम यह बात नहीं कर रहे कि आपको फूल पसंद हैं या नहीं, परन्तु यह कि जब आप उन्हें देखते हैं तो आप कैसा अनुभव करते हैं | उस खुशी के स्तर को पहचानने का प्रयास कीजिए जो आप फूल या दीवार पर टँगे चित्र, या बाहर पेड़ देखकर अनुभव करते हैं - आप किस स्तर का सुख अनुभव करते हैं? हम उसे पहचानने का प्रयास करते हैं, बल्कि, हमारे पास बहुत सुख है | यह कोई परम ब्राज़ीली अनुभव नहीं है, परन्तु विद्यमान है |

कृपया अपने भीतर इस अनुभूति का अवलोकन करें | और याद रखें कि सुख वह अनुभूति है, कि जब उसका उद्रेक होता है, तब हम चाहते हैं कि वह बनी रहे, और यदि वह समाप्त हो जाती है, तो हम उसे वापस पाना चाहते हैं | तथा दुःख वह अनुभूति है जिसका अनुभव करने पर हम चाहते हैं कि वह समाप्त हो जाए; वह चली जाए |

[अभ्यास के लिए रुकें ]

मुझे लगता है कि इस प्रकार की साधना का एक औपचारिक ध्यान-साधना अभ्यास होना आवश्यक नहीं है | बल्कि, हम इसे कभी भी कर सकते हैं, ताकि हम अधिक सचेतन होकर वास्तव में सुखी हो पाएँ | जैसा हम में से कुछ सोच सकते हैं, यह "मेरे भीतर कोई भावनाएँ नहीं हैं" का मामला नहीं है |

क्या कोई टिप्पणियाँ हैं?

आपको सुनने के बाद, जिसमें बराबर अत्यंत सजग-भाव बना रहा, अचानक यह अनुभव कर पाना कि क्या हो रहा है काफ़ी कठिन था | इस प्रेक्षण के लिए मानो मैं तैयार नहीं था | आज सुबह जब मैं पार्क में था, तब मुझे एक अत्यंत स्वच्छंद अनुभूति हुई; ऐसी अनुभूति कि "हाँ, सबकुछ ठीक है और मैं काफ़ी प्रसन्न हूँ" और यह स्वाभाविक रूप से हुआ |

मुझे लगता है कि यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम निरंतर अपने मनोभाव पहचानते रहें, चाहे हम कोई आनंदप्रद कार्य कर रहे हों अथवा कोई सघन एकाग्रता वाला कार्य | कभी-कभी हम स्वयं में खोए हुए होते हैं और यह नहीं पहचानते कि हमारे सब अनुभवों की एक गुणवत्ता होती है और यह गुणवत्ता ही सुख अथवा दुःख का परिमाण है | यह निरंतर होता रहता है | इसका महत्त्व यह है कि हम प्रायः इस अतिवाद तक पहुँच जाते हैं "मैं बेचारा" और "मैं सुखी नहीं हूँ और मैं आमोद-प्रमोद करना चाहता हूँ | मैं इस उबाऊ कार्यालय में नहीं रहना चाहता" और हमारी इस प्रकार की शिकायतें होती हैं | परन्तु, हम एक भयंकर यातायात जाम में फँसकर भी सुख और संतोष की आतंरिक, शांत अनुभूति अनुभव कर सकते हैं | याद रखिए, सुख का नाटकीय होना अनिवार्य नहीं है |

आपके मस्तिष्क और आपके हृदय में जो हो रहा है, क्या उसके बीच अंतर नहीं है? तिब्बती लोग भावनाओं के लिए सदा यहाँ हृदय की ओर संकेत करते हैं |

तिब्बती सोचने के लिए भी वहाँ संकेत करते हैं | तिब्बती दृष्टिकोण के अनुसार, हमारे अनुभवों के मानसिक, भावात्मक, एवं संवेदनात्मक पहलू एक ही स्थान से उत्पन्न होते हैं और वह मानते हैं कि वे हृदय में स्थापित है | वास्तव में कोई अंतर नहीं पड़ता कि वे कहाँ स्थापित हैं | उन्हें एक समग्र रूप में देखा जाता है, न कि पश्चिम की भाँति शरीर तथा चित्त, अथवा बुद्धि तथा भावनाओं के बीच द्विभाजन या एक फाँक के रूप में | इसलिए मानसिक रूप से किसी कार्य में अत्यंत लिप्त होते हुए भी हम सुखी हो सकते हैं | जैसे मैं कहता हूँ, इसे पहचानना अत्यंत आवश्यक है, विशेषतः दूसरों के साथ हमारे संबंधों में | कभी-कभी हम सोचते हैं, "सुखी होने के लिए कोई प्रेम-सम्बन्ध होना आवश्यक है" - जैसे किशोरावस्था का अनुभव होता है | बल्कि, किसी के साथ प्रेम-सम्बन्ध से मिला सुख निम्न स्तर की तीव्रता का होते हुए भी, अत्यंत संतुष्टिदायक हो सकता है | 

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