हम तंत्र के लिए कब तैयार हैं?

तंत्र एक उन्नत साधना है

अपने अंतिम सत्र के लिए, आइए थोड़ी तंत्र पर चर्चा करें | हमें तंत्र को वास्तविक धरातल पर भी उतारने की आवश्यकता है |

प्रायः, पाश्चात्य लोग, तिब्बती बौद्ध-धर्म में तंत्र शिक्षाओं की ओर आकर्षित होते हुए, दो में से एक अतिवाद में पड़ जाते हैं | एक अतिवाद है उसके प्रति भय तथा उसमें न उलझने की इच्छा | दूसरा अतिवाद है तुरंत उसमें कूद पड़ना | दोनों अतिवादों के अपनी कमियाँ हैं |

तंत्र एक अत्यंत उन्नत साधना है | इससे न तो डरना चाहिए और न ही समय से पहले इसमें लिप्त होना चाहिए | बौद्ध-धर्म में हमारी सूत्र स्तर की साधनाओं में, प्रारम्भिक स्तरों में, हम नाना प्रकार के भिन्न-भिन्न गुणों को विकसित करना सीखते हैं जो संसार को सुधारने, मुक्ति प्राप्त करने, या बुद्धजन बनकर दूसरों की अधिकाधिक सहायता करने में हमारी मदद करेंगे | इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हमें एकाग्रता, प्रेम तथा करुणा, अनित्यता, शून्यता, त्याग इत्यादि की सही और गहन समझ विकसित करने की आवश्यकता है | इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कारणों के रूप में ये सब अति आवश्यक हैं | यद्यपि हम तंत्र साधना को विभिन्न रूपों में व्याख्यायित कर सकते हैं, तथापि तंत्र-साधना का एक पक्ष यह है कि इन सब रूपों को एक-साथ लाकर उनका एक ही समय पर अभ्यास किया जा सकता है |

स्पष्ट है कि हम इन सबका एक-साथ अभ्यास नहीं कर सकते यदि हमने इन्हें पहले एक-एक करके विकसित न किया हो | इन गुणों को पहले विकसित न करके तंत्र अभ्यास में कूद पड़ने से तत्त्व अथवा गहनता रहित केवल अनुष्ठान का अभ्यास-भर रह जाएगा | किसी भी अनुष्ठान से गहन लाभ पाने के लिए, उसे ऐसे ढाँचे के रूप में देखना चाहिए जिसमें हमारे द्वारा विकसित सभी गुण समाहित हो सकें |

उदाहरण के लिए, हमें अपने जीवन में शरणागति की सुरक्षित एवं सकारात्मक दिशा सम्मिलित करनी होगी | हम तंत्र विद्या के अभ्यास में क्या कर रहे हैं ? केवल यह: इस विद्या के द्वारा स्वयं को विकसित करके हम एक सुरक्षित दिशा में बढ़ रहे हैं | हम इस विद्या को एक मनोरंजन के तौर पर नहीं कर रहे, जैसे मन बहलाना और अपने साधारण जीवन से बचने के लिए डिज़्नीलैंड जाना | बल्कि, हम तंत्र अभ्यास आत्म-विकास के लिए कर रहे हैं ताकि हम विभिन्न बौद्ध लक्ष्यों को पा सकें | ये लक्ष्य शरणागति के त्रिरत्न हैं: बुद्ध ने जो सिखाया, जो उन्होंने पूर्ण रूप से प्राप्त किया, और जो उच्च कोटि के सिद्ध संघ ने आंशिक रूप में प्राप्त किया है |

त्याग की अनिवार्यता

त्याग किसी भी तंत्र साधना का अत्यंत अनिवार्य अंग है और इसलिए हमारे लिए उसे परिभाषित करना आवश्यक है | त्याग के दो पहलू हैं | एक है अपनी समस्याओं से मुक्त होने का दृढ़ संकल्प | यह पहलू हमें सक्षम बनाता है कि हम तंत्र साधना को एक माध्यम बनाकर ज्ञानोदय प्राप्त करके अपनी समस्याओं से मुक्त हो जाएँ | यदि हमारे भीतर त्याग का यह पहलू नहीं होगा, मुक्त होने का संकल्प, तो हम साधनाओं को अपने आध्यात्मिक मार्ग के अत्यावश्यक अंग के रूप में स्वयं पर लागू नहीं कर पाएँगे |

त्याग का दूसरा पहलू है न केवल अपने कष्टों अपितु अपने कष्टों के कारणों को छोड़ने की इच्छा | यह बहुत महत्त्वपूर्ण है | यदि हम अपने कष्टों के कारणों को त्यागने के लिए तैयार न हों, तो हम कभी भी उन कष्टों से मुक्त नहीं हो पाएँगे, चाहे हमारी मुक्ति की कामना कितनी भी प्रबल क्यों न हो। दुर्भाग्य से, हमारे कष्टों का कोई मामूली कारण नहीं है, जैसे फिल्म देखना या चॉकलेट खाना या सहवास करना | यह हमारे जीवन में सर्वसमावेशी रूप में है | एक स्तर पर, ये हैं हमारे व्यक्तित्व के सभी नकारात्मक लक्षण - हमारा क्रोध, आसक्ति, दंभ, ईर्ष्या, इत्यादि | यदि हम कुछ और गहराई से देखें, तो इनमें हमारी असुरक्षा, व्यग्रता, एवं चिंताएँ शामिल हैं | और यदि हम इससे भी गहनतर स्तर पर जाऍं तो स्वयं अपने विषय में तथा जीवन की सब बातों के बारे में हमारी भ्रांतियाँ और सभी भ्रांत धारणाएँ इसका कारण हैं।

उससे भी गहन स्तर पर, हमें जिसे मिटाने की आवश्यकता है, वह है हमारा साधारण चित्त जो बातों को ऐसे प्रस्तुत करता है जो यथार्थ से मेल नहीं खाता | इन तथा-कथित "अशुद्ध प्रतीतियों" के आधार पर, अपनी अनभिज्ञता के कारण हम इनके मिथ्या और भ्रामक स्वरुप को सत्य मान लेते हैं | हमारी सारी समस्याएँ इसी से उत्पन्न होती हैं |

समस्या केवल चित्त नहीं है; समस्या है यह भ्रामक प्रतीति बनाने वाली गतिविधि या चित्त की कार्यशीलता और हमारा भ्रांत विश्वास कि ये प्रतीतियाँ सत्य हैं। और इसलिए हमारी समस्याओं का कारण केवल ये प्रतीतियाँ नहीं हैं जिन्हें चित्त उत्पन्न करता है। यह सोचना एक बहुत बड़ी भूल है कि समस्या स्वयं प्रतीतियों में ही है। यह भूल तिब्बती शब्द नांगवा  की भ्रांत अवधारणा से उत्पन्न होती है, जिसका अर्थ हो सकता है "प्रतीतियाँ" अथवा "प्रतीति-निर्माण"।

जब हम "साधारण प्रतीतियों" अथवा "दोहरी प्रतीतियों" को दूर करने की बात करते हैं, तब हम किसी संज्ञा की चर्चा नहीं कर रहे; हम उन "सुदूर" प्रतीतियों की चर्चा नहीं कर रहे। हम किसी के प्रति अभिज्ञता की चर्चा कर रहे हैं; हम एक क्रिया की चर्चा कर रहे हैं। विशेष रूप से, हम चित्त की कार्यशीलता की बात कर रहे हैं जिसके कारण बातें ऐसी प्रतीत होती हैं जिनका यथार्थ से कोई मेल नहीं होता। हम इससे मुक्त होने का प्रयास कर रहे हैं; हम इसके सत्य निरोध को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। और दुर्भाग्यवश, जीवन कठिन है - हमारा चित्त निरंतर वस्तुओं को बिना किसी प्रारम्भिक बिंदु के निरंकुश रूपों में प्रस्तुत करता है।

उदाहरण के लिए, यदि हमारे भीतर अनित्यता और मूर्त मैं के अभाव का कुछ बोध है भी, फिर भी जब हम सुबह उठकर स्वयं को दर्पण में देखते हैं, तो हमारा चित्त हमारे प्रतिबिम्ब को ऐसे प्रस्तुत करता है जैसे हम वही व्यक्ति हों, जो हम कल रात थे, उसके ठीक समरूप। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम चिरस्थायी हों। या, हमारे पैर में चोट लग जाती है और हमारा चित्त इसे ऐसे दर्शाता है जैसे हमारे पैर से पृथक कोई "मैं" हो; "मैंने 'अपने' पैर में चोट मार ली।" हमारी भाषा पर टिका हुआ हमारा अवधारणापरक चित्त बातों को इस रूप में प्रस्तुत करता है।

आवश्यकता इस बात की है कि चित्त की इस पूरी प्रक्रिया को, जो बातों को इस प्रकार प्रस्तुत करती है, और उस सारी भ्रान्ति, समस्याओं, चिंताओं, इत्यादि को, जो इससे उद्भूत होती हैं, त्यागने की इच्छा होनी चाहिए - जिससे, दुर्भाग्यवश, हम पूर्णतः परिचित हैं। यदि हम उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं तो हम तंत्र के साथ संभवतः अपने आत्म, अपनी आत्म-छवि, तथा उस प्रकार की अन्य बातों को किस प्रकार आत्मरूपान्तरित कर पाएँगे? 

अपनी साधारण आत्म-छवि त्यागे बिना, जो एक प्रकार की मूर्त पहचान लिए मूर्त "मैं" की आत्म-छवि है, स्वयं को किसी दैविक रूप में उत्पन्न करना हमें मुक्ति के मार्ग पर  ले जाने के बजाय विभक्तमनस्कता (स्किज़ोफ़्रीनिया, एक प्रकार का मानसिक विकार) की ओर ले जाएगा | हमारा तब भी स्वयं के विषय में यह अविवेकी, पूर्णतः क्रोधपूर्ण और आसक्त विचार होगा | फिर हम इसके ऊपर यह आत्म-स्फीति जोड़ लेंगे कि, "मैं देवी/देवता हूँ |" फिर हम आसानी से यह कहने की मूर्खता कर सकते हैं, जैसे, "मैं क्रोधित हूँ: और यह मेरा दैविक कोपकारी पक्ष है |" या हम किसी भी राह-चलते के साथ सहवास करें क्योंकि, "मैं अपने सहचर सहित देवी/देवता हूँ, और किसी के भी साथ सहवास करना उच्च तंत्र साधना है |" यदि हम, मुक्त होने के संकल्प के आधार के बिना - जो है अपनी साधारण आत्म-छवि का त्याग - तंत्र में कूद पड़ते हैं तब हम इन सभी संकटमय स्थितियों में पड़ सकते हैं | 

और उस आत्म-छवि को त्यागने के लिए, शून्यता (खालीपन) का सटीक बोध नितांत आवश्यक है; अन्यथा, हम अपनी स्वयं की अवधारणा का रूपांतरण कैसे कर पाएँगे? सटीक बोध के अभाव में, हम पूर्णतः अविवेकी होकर विचित्र ढंग से सोच सकते हैं, "मेरे आसपास सबकुछ मंडल है और सबकुछ अत्युत्तम है, सब बुद्धजन हैं," और फिर हम सड़क पार करते हुए भी ध्यान नहीं देते और हमारी टक्कर कार से हो जाती है |

इसके अतिरिक्त, प्रेम, करुणा, एवं बोधिचित्त होना नितांत आवश्यक है | हम दूसरों की सहायता करने तथा उनके लिए हमारी चिंता के कारण ये सब साधनाएँ कर रहे हैं | बोधिचित्त हमें प्रेरित करता है कि हम इन सबको लागू करके संसार और दूसरों के साथ बर्ताव करें | इसके बिना, बौद्ध डिज़्नीलैंड में, किसी विचित्र काल्पनिक लोक में खो जाना अत्यंत सरल है |

जब हम तंत्र साधनाएँ करते हैं तब हम कल्पना करते हैं कि हमारी कई बाँहें और टाँगें हैं और हमारे आसपास पंचप्रकाश इत्यादि है | इनमें से प्रत्येक वस्तु विभिन्न बोधों का प्रतीक है, विभिन्न गुण जैसे प्रेम, करुणा, पाँच प्रकार की गहन अभिज्ञता, इत्यादि | इन वस्तुओं की चित्रात्मक रूप में कल्पना करके, जैसे अनेक बाँहें और टाँगें, हमें समानांतर रूप से इनका सृजन करने में सहायता मिलती है | इस अर्थ में तंत्र एक अत्यंत उन्नत साधना है और इसे सही ढंग से करने के लिए बहुत तैयारी चाहिए |

प्राथमिक प्रारम्भिक साधनाओं की आवश्यकता

जब हम अन्य प्रकार की तैयारी की बात करते हैं, जैसे साष्टांग प्रणाम और 100-अक्षरों वाला वज्रसत्त्व पाठ, तो वह इसके अतिरिक्त है जिसकी हमने अभी चर्चा की | वे हमारी तंत्र साधना में सफलता के लिए सकारात्मक संभाव्यता संचित करने में और जो इसे होने से रोकेगी उस नकारात्मक सम्भाव्यता से हमें शुद्ध कराने में हमारी सहायता करती है |  परन्तु केवल इन प्राथमिक प्रारम्भिक साधनाओं को करने से, इनके साथ प्रेम, करुणा, एकाग्रता, शून्यता आदि कारकों के बिना, सफलता पाना संभव नहीं होगा | उदाहरण के लिए, हो सकता है हम अपनी प्रेरणा के रूप में किसी अत्यंत विक्षेपजन्य कारण से 100,000 साष्टांग प्रणाम कर रहे हों | यह अपने गुरु को प्रसन्न करने के लिए हो सकता है; यह "विशेष लोगों" के गुट में शामिल होने के लिए हो सकता है; यह "बुरा" व्यक्ति होने का प्रायश्चित हो सकता है; या ऐसी कोई बात |

इन प्रारम्भिक साधनाओं को केवल धर्म के इन विभिन्न पहलुओं के आधार पर ही नहीं किया जाना चाहिए, जैसे प्रेम और करुणा, बल्कि इनका ध्येय होना चाहिए हमारे भीतर उन पहलुओं का विकास | यह हमारी उस चर्चा के समरूप है जिसमें हमने अपने शून्यता के बोध में उन्नति की बात की थी, और यह भी, कि उसके लिए कुछ मानसिक रुकावटों को दूर करना और बहुत-सी सकारात्मक संभाव्यता विकसित करना आवश्यक है | साष्टांग प्रणाम जैसी साधनाओं से हम सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न कर पाते हैं ताकि हम धर्म के सभी पहलुओं को एक-साथ संजो पाएँ | जिन पहलुओं को संजोने की आवश्यकता है यदि हमारे भीतर उनका अभाव होगा, तो केवल प्रारम्भिक साधनाओं की सकारात्मक ऊर्जा अपनेआप में पर्याप्त नहीं होगी |

रुकावटों को दूर करने और सकारात्मक सम्भाव्यता में वृद्धि करने का ढंग पारम्परिक रूप से संरचित हो सकता है, परन्तु यह अनिवार्य नहीं है | यह हमारे बच्चों की देखरेख हो सकता है; यह चिकित्सालय में सेवा हो सकती है - कुछ भी रचनात्मक अथवा सकारात्मक जो हम बार-बार करते हों | यह एक पारम्परिक उदाहरण है: बुद्ध के एक अत्यंत हठी अनुयायी थे जिनकी बौद्धिक क्षमता सामान्य थी | इस व्यक्ति की प्रारम्भिक साधना के लिए, बुद्ध ने कई वर्षों तक उनसे मठ में यह उच्चार करते हुए झाड़ू लगवाई, "धूल दूर हो जा; धूल दूर हो जा |" यह इस व्यक्ति की प्रारम्भिक साधना थी | बुद्ध ने इससे साष्टांग प्रणाम नहीं करवाए | इसलिए हमें स्थिति के अनुरूप थोड़ा बदलने की आवश्यकता है और यह समझने की कि महत्त्व शुद्धिकरण और तैयारी करने की प्रक्रिया का है | इस प्रक्रिया की रचना प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप ढाली जा सकती है |

आध्यात्मिक गुरु और संवर ग्रहण करना

दूसरी ओर, तंत्र से डरने और यह महसूस करने की आवश्यकता नहीं है, "मैं इसमें नहीं उलझना चाहता |" परन्तु हमें इसे ठीक से समझकर करना चाहिए | उसके लिए, आध्यात्मिक गुरु के साथ सम्बन्ध अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि, जैसा हम कह रहे थे, जब हम गुरु को इन प्रतिमाओं के रूप में देखते हैं, इन बुद्ध-रूपों में, तब इसका विपरीत भी सत्य है: यह हमें इन बुद्ध-रूपों को मानवीय रूप में देखने में सक्षम बनाता है | अन्य शब्दों में, हम सीखते हैं कि इस तंत्र साधना को मानव जीवन में परिवर्तित करने का असली अर्थ क्या है | यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है | अन्यथा, पूरे दिन इन रूपों में अपना मानसदर्शन करने का अर्थ हम कुछ बहुत विचित्र भी समझ सकते हैं |

तंत्र की एक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है, कुछ विशिष्ट संवर धारण करना - गृहस्थ संवर, बोधिसत्त्व संवर, और, तंत्र की दो उच्चतम श्रेणियों में, तंत्र संवर | परन्तु हमें इसके प्रति सतर्क रहना चाहिए कि हम इस दृष्टिकोण से संवर ग्रहण न करें कि हम एक मूर्त "मैं" के रूप में विद्यमान हैं और "मुझे यह करना चाहिए तथा मुझे वह नहीं करना चाहिए।" इसलिए शून्यता का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है ताकि हम अविक्षिप्त ढंग से संवर ग्रहण कर पाएँ, ताकि हम अपने विगत अथवा भावी कर्मों को लेकर अपराध-बोध महसूस न करें, या ऐसी भावना कि इन संवरों को ग्रहण करने के कारण हम नियंत्रण खो रहे हैं, अथवा "अब मैंने किसी अन्य को नियंत्रण दे दिया है और अब मैं इस गुरु का दास बन गया हूँ।" नियंत्रण के सन्दर्भ में यदि हम इस प्रकार सोचेंगे तो हो सकता है कि हम संवर ग्रहण करने से इतने भयभीत हो जाएँ कि हम तंत्र से कोई सम्बन्ध ही न रखें।

इन सब पर काबू पाने तथा अपने संवरों को अविक्षिप्त ढंग से ग्रहण करने एवं उनका पालन करने के लिए हमें पुनः शून्यता के बोध की आवश्यकता है। तंत्र की साधना के लिए बार-बार हमें त्याग, बोधिचित्त, एवं शून्यता के बोध की आवश्यकता है। यदि हम पूरी तरह तैयार हैं, तो तंत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सबकुछ सम्मिलित करने में हमारी सहायता करता है। सतर्क और सावधान रहना अच्छा है और पूरी तैयारी से पहले हमें इसमें लिप्त नहीं होना चाहिए, परन्तु हमें ऐसा सोचने से भी बचना चाहिए कि, "मैं कभी भी तैयार नहीं होऊँगा और इसलिए मैं इसमें कभी भी लिप्त नहीं होना चाहता।" अपने दृष्टिकोण में हमें एक प्रकार के मध्यम मार्ग की आवश्यकता है।

हमारा बोध कब पर्याप्त है?

हमें यह कब पता चलता है कि, "अब मेरे पास तंत्र में प्रवेश करने के लिए शून्यता का पर्याप्त बोध, पर्याप्त बोधिचित्त, एवं पर्याप्त त्याग है?" यह इतना आसान नहीं है। सबसे पहले, हम अन्य सभी से अधिक स्वयं को बेहतर जानते हैं। यह कहना, "ओह, गुरु जानते हैं," इत्यादि, वास्तव में पूरी स्थिति को इस प्रकार साधारण में असाधारण की कल्पना करना है। अपने जीवन के उत्तरदायित्व से बचने के लिए यह एक मार्ग बन जाता है, जो अत्यंत बचकाना व्यवहार है। निस्संदेह, यदि हमारा आध्यात्मिक गुरु के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, तो गुरु के साथ चर्चा आदि सहायक सिद्ध हो सकती है। हमें दम्भ के साथ यह सोचने से बचना चाहिए कि, "मुझे अपने गुरु के परामर्श की आवश्यकता नहीं है।" परन्तु हम सभी का अपने गुरु के साथ घनिष्ठ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए यह आसान नहीं है। मेरे विचार में हमें अपने भीतर झाँककर देखना चाहिए और स्वयं के प्रति सच्चा होना चाहिए तथा अपने से इस प्रकार छल नहीं करना चाहिए; "मैं कितना महान हूँ," इत्यादि।

मुझे लगता है कि अपने भीतर ध्यान केंद्रित करना मुख्य बात है - और मेरे विचार में केवल हम ही इसका निर्णय कर सकते हैं - कि हमारी करुणा कितनी प्रबल है, जिससे यह निश्चित होगा कि हमारा बोधिचित्त कितना सुदृढ़ है। दूसरे शब्दों में, मैं अन्य लोगों से कितना जुड़ा हुआ हूँ और उनकी कितनी सहायता कर पा रहा हूँ? यदि यह सुदृढ़ है, तो इससे प्रबल त्याग और बोधिचित्त विकसित होंगे। "मुझे उन सब कारणों से पीछा छुड़ाना होगा जो मुझे दूसरों की सहायता करने से रोक रहे हैं, तथा मुझे वे सब सद्गुण विकसित करने होंगे ताकि मैं उनकी अधिकाधिक सहायता कर सकूँ।"

अपनी कमियों के कारणों को संभवतः दूर करने तथा अपने सद्गुणों का विकास करने का एक ही मार्ग है और वह है शून्यता का सही और सम्पूर्ण बोध प्राप्त करना तथा मूर्त रूप "मैं" की अवधारणा को न पकड़े रहना - "मैं कितना बुरा हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता" अथवा "मैं कितना अद्भुत हूँ, मैं संसार के लिए भगवान का वरदान हूँ, मुझे कुछ भी सीखने की आवश्यकता नहीं है।" बल्कि, हम कारण और प्रभाव को समझते हैं।

जब हम शून्यता समझ लेते हैं, तब हम स्वाभाविक रूप से कारण और प्रभाव का आदर करते हैं - दूसरों की सहायता करने के गुणों को किस प्रकार विकसित करें। दूसरों की सहायता करने के इस दृढ़ संकलप के साथ, "मुझे अपने कष्टों के कारण त्यागने ही होंगे। मैं ऐसा करना चाहता हूँ। ऐसा नहीं है कि मुझे उन्हें त्यागना 'चाहिए', अपितु मैं वास्तव में यह चाहता हूँ और मुझे ऐसा करने की आवश्यकता है," हम ऐसा करने के लिए सर्वहितकारी रूप से प्रेरित अथवा प्रोत्साहित होते हैं। और हम यह समझ लेते हैं कि वास्तव में दूसरों की सहायता कर पाने के लिए हमें कारण तथा प्रभाव का अनुसरण करने की आवश्यकता है। दूसरों की अधिकतम सहायता कर पाने के लिए हमें सब गुणों को विकसित करने की आवश्यकता है, और यह केवल कारण तथा प्रभाव की प्रक्रिया के द्वारा संभव है, जो केवल शून्यता के आधार पर कार्यान्वित हो सकती है।

उस प्रेरणा और ज्ञान के आधार पर फिर हमें यह जाँचने की आवश्यकता है कि तंत्र साधना में क्या हो रहा है, उसकी विषयवस्तु क्या है? हमारे भीतर यह भरोसा होना चाहिए कि तंत्र हमें दूसरों की अधिकाधिक सहायता करने के लिए गुणों के विकास तथा दूसरों की सहायता से हमें रोकने वाले कारणों को दूर करने के सबसे सशक्त उपाय देता है। दूसरे शब्दों में, हमें यह भरोसा होना चाहिए कि तंत्र साधना दूसरों की अत्युत्तम सहायता और ज्ञानोदय के लक्ष्यों की प्राप्ति का सबसे सक्षम उपाय है।

जब हमारे भीतर उचित प्रेरणा और शून्यता का कुछ बोध, एवं तंत्र साधना की प्रक्रिया की समझ तथा उसके मूल्य का बोध होता है, ताकि हमारे भीतर उसपर भरोसा हो और यह समझ हो कि हम उसमें क्या कर रहे हैं, तब हम तंत्र साधना में भाग लेने के लिए तैयार होते हैं। तब हम उसकी ओर एक सकारात्मक, रचनात्मक रूप में आकर्षित होते हैं और उसका प्रयोग रचनात्मक एवं सकारात्मक ढंग से कर पाएँगे।

तंत्र में पदार्पण करने से पहले याद रखने वाले बिंदु

संक्षेप में, मेरे विचार में हम स्वयं अपने सर्वोत्तम निर्णायक हैं कि दूसरों की सहायता करने की हमारी चाह कितनी सच्ची है या क्या वे केवल खोखले शब्द हैं? यदि हम पूरी तैयारी से पहले तंत्र साधना करते हैं तो इसमें अनेक संकट हैं। यदि हम किसी विक्षेपजन्य कारण से खोखले अनुष्ठान करते हैं तो हम मनोवैज्ञानिक रूप से अव्यवस्थित हो सकते हैं। ऐसी अनुचित साधना एक ओर आसानी से हमारे भीतर विचित्र कल्पनाओं, दम्भ, इत्यादि का आधार बन सकती है, और दूसरी ओर मोहभंग उत्पन्न कर सकती है क्योंकि अनुष्ठान साधना से वास्तव में कुछ भी हाथ नहीं आ रहा। जब हम प्रतिदिन एक अनुष्ठान विशेष की साधना करने के प्रण की पूर्ति मात्र करते हैं, और क्योंकि हम उसे अपने जीवन में लागू नहीं कर पाते, इसलिए हमारा मोहभंग हो जाता है, तब हमारी दैनिक साधना पूर्णतः एक कठिन परिक्षा बनकर रह जाती है जो हमें एक कर्त्तव्य, एक बाध्यता लगती है: "मुझे यह करना ही पड़ेगा।" हम शीघ्र ही इससे कुढ़ने लगते हैं और यह अप्रियकर हो जाती है। यदि हम सही प्रकार तैयार हैं और तंत्र के प्रति हमारी उचित मनोदृष्टि है, तब तंत्र साधना अत्यंत लाभकारी होती है। परन्तु इसके लिए सबकुछ धर्म के लिए समर्पित करने की आवश्यकता है।

हमें यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि जब हम तंत्र साधना से जुड़ते हैं, तब हमारी साधना विकसित होती है। हमें अपनी साधना के इर्दगिर्द एक ठोस घेरा बनाने और यह सोचने से बचना चाहिए कि हमारी साधना दिन-प्रतिदिन बस एक लीक पर चलनी चाहिए, "मैं इस अनुष्ठान का पाठ कर रहा हूँ और मैं पूर्ण रूप से भली प्रकार इसका पाठ कर सकता हूँ।" समय के साथ साधना विकसित होती है। यह एक प्रक्रिया है, न कि एक ही अनुष्ठान का अनंतकाल तक पाठ करने की उबाऊ क्रिया। यद्यपि हम नीति-शास्त्र, त्याग, बोधिचित्त, एकाग्रता, तथा शून्यता का बोध सदा के लिए पाना चाहते हैं, तथापि हम जैसे-जैसे इन्हें समेकित करने के लिए अनुष्ठान साधना का प्रयोग करेंगे, वैसे-वैसे उनके प्रति हमारे बोध का स्तर विकसित होगा।

परन्तु सदा याद रखें कि जिस प्रकार संसार में उतार-चढ़ाव उसका एक लक्षण है, इसी प्रकार हमारी तंत्र-साधना भी इन उतार-चढ़ावों से होकर गुज़रती है। यह कभी भी रेखाकार रूप में विकसित नहीं होती, यह दिन-प्रतिदिन उन्नत होती जाती है। हमें धैर्य और लगन की आवश्यकता है। 

आपके प्रश्न क्या हैं?

दीक्षा

पश्चिम में, प्रायः ऐसा होता है कि आप दीक्षा ग्रहण करते हैं और फिर बिना समझे आपको अनुष्ठान करने होते हैं; और दीक्षा ग्रहण करने से पहले आपको यह तथ्य नहीं समझाया जाता कि आपको इस ज्ञान की आवश्यकता है।

हाँ, दुर्भाग्य से अधिकांशतः ऐसा होता है। देखिए, एक समस्या यह है कि ये सब दीक्षाएँ दी जा रही हैं और हम पश्चिमी लोग इन्हें इस दृष्टि से ग्रहण करते हैं, "अब मुझे ऐसा करना चाहिए और ऐसा नहीं करना चाहिए।" एक तिब्बती इन्हें इस प्रकार नहीं देखता। जब ये दीक्षाएँ दी जाती हैं, तो सबसे साधारण तिब्बतियों का दृष्टिकोण होता है, "मैं भावी जन्मों के मानसिक सातत्य के बीजों या प्रवृत्तियों के लिए उपस्थित हूँ।" उनमें से अधिकांश की इस जीवनकाल में तंत्र-साधना करने की कोई नीयत नहीं होती।

ध्यान दें, मैं साधारण गृहस्थ तिब्बती लोगों की बात कर रहा हूँ। वे दीक्षा समारोह में अपने शिशुओं और अपने कुत्तों तक को ले आते हैं। वे मानते हैं कि दीक्षा समारोह में उपस्थित होने से किसी के भी, शिशु और कुत्ते समेत, मानसिक सातत्य पर भावी जन्मों के बीज बोए जाते हैं। वे इसे इस दृष्टि से देखते हैं। परन्तु हम, पश्चिमी लोग, ऐसा नहीं सोचते। हम दीक्षा समारोहों में जाते हैं और यदि हमें संस्कार समझ न भी आया हो और दीक्षा की प्रक्रिया के प्रति हम पूर्णतः अनभिज्ञ भी रहे हों, तब भी हम बाद में कहते हैं, "हे भगवान! मैंने यह वचनबद्धता ग्रहण की है और अब मुझे ऐसा करना चाहिए और यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो मैं वज्र नरक में जाऊँगा!"

यह शून्यता एवं प्रतीत्यसमुत्पाद की भ्रांत अवधारणा है। कुछ भी एक-पक्षीय रूप में नहीं होता। दीक्षा ग्रहण करना इन दोनों बातों पर निर्भर करता है कि दीक्षा देने वाला व्यक्ति और उसे ग्रहण करने वाला व्यक्ति क्या कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, वास्तव में दीक्षा ग्रहण करने के लिए हमें अपने कृत्य के प्रति पूर्ण सचेतनता के साथ संवरों को जागृत अवस्था में ग्रहण करने की आवश्यकता है। यदि हम ऐसा नहीं करते, तो हमारे और वहाँ उपस्थित कुत्ते के भीतर कोई अंतर नहीं है।

रोचक प्रश्न यह है कि क्या वहाँ उपस्थित होने से कुत्ते के भीतर प्रवृत्तियाँ स्थापित हुईं या नहीं? प्राचीन साहित्य के अनुसार तो ऐसा प्रतीत होता है कि ये कुत्ते में स्थापित होती हैं, क्योंकि कुत्ता वहाँ अपनी उपस्थिति अनुभव करता है। तो इसलिए उसके मानसिक सातत्य पर एक प्रकार का प्रभाव पड़ता है चाहे वह बहुत प्रबल न हो। हम भी वहाँ उपस्थित होकर कुछ हद तक प्रभावित हो सकते हैं। पश्चिम में हम इस दीक्षा को एक "आशीर्वाद" के रूप में ग्रहण करते हैं। परन्तु ऐसा करने का अर्थ यह नहीं है कि हमने वास्तव में दीक्षा ग्रहण कर ली है और अब उससे सम्बंधित सभी वचन और संवर हमने धारण कर लिए हैं। जब तक हम पूरे तन-मन से वचन और संवर धारण नहीं करते, तब तक वे हमें नहीं मिलते।

एक साधारण तिब्बती की भाँति दीक्षा ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है - एक प्रकार की प्रेरणादायक घटना के रूप में जिसके प्रभाव को कभी भविष्य में हम अपने और दूसरों के लाभ के लिए प्रयोग कर सकते हैं। हमें धूर्त होकर यह सोचने से बचना चाहिए, "अब मैं इतना महान व्यक्ति हूँ। अब मैं एक सच्चा तंत्र-साधक हूँ," जबकि हमने दीक्षा समारोह में केवल सतही स्तर पर भाग लिया था और हमने जानते बूझते किसी भी प्रकार की प्रतिज्ञा नहीं की थी। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि, "मैं एक कुत्ते के स्तर पर वहाँ गया था और इसमें कोई बुराई नहीं है।"

फिर भी, एक कुत्ते के स्तर पर भी दीक्षा समारोह में जाना अत्यंत प्रेरणादायक और लाभकारी हो सकता है - कोई समस्या नहीं है। परन्तु, हमारा अभिमान ही हमें यह स्वीकार करने से रोकता है कि इस स्तर पर केवल इतना ही लाभ मिल सकता है। निस्संदेह, हम भ्रमित होकर सोच सकते हैं, "यदि मैं यहाँ वहाँ जाकर अधिकाधिक दीक्षाएँ एकत्रित कर लूँ, तो मैं कितना महान व्यक्ति हो जाऊँगा।" यह भी थोड़ी मूर्खतापूर्ण बात है, नहीं क्या? भले ही हम बाध्यकारी रूप से दीक्षाएँ एकत्रित करते हों क्योंकि वे हमें प्रेरणादायक और लाभकारी लगती हैं, तब भी यह महत्त्वपूर्ण है कि हम अपनेआप को महान तंत्र-साधक न मानें। धर्म साधना के सभी पहलुओं के साथ विनम्रता का होना अनिवार्य है।

सारांश

बुद्ध ने हमें जो भी शिक्षा दी उसका ध्येय था लोगों के जीवन में आने वाली समस्याओं पर विजय पाने में उनकी सहायता करना। यह याद रखते हुए जब हमें शिक्षाओं में ऐसी बातें देखने को मिलती हैं जो समझ से परे हों अथवा हमारे आध्यात्मिक मार्ग के लिए अप्रासंगिक लगें, तो हमें सावधान रहने की आवश्यकता है कि हम उन्हें ठुकरा न दें। हमारे वर्तमान स्तर के लिए इन बातों के प्रति पारम्परिक दृष्टिकोण अत्यंत उन्नत हो सकता है, अथवा यह भी संभव है कि इनके प्रति हमारे विचारों का निशाना चूक गया हो।

जब हम इन शिक्षाओं में हमारे सामने आने वाली समस्याओं और भ्रान्ति को पहचान लेते हैं, तब हम इन शिक्षाओं को समझने के लिए व्यावहारिक विधियाँ अपना सकते हैं। जब हम अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अयथार्थवादी विधियाँ अपनाते हैं जिन्हें हम नहीं समझते, तब हम भ्रान्ति में खो जाते हैं और हो सकता है कि अंततः हम हार मान लें। परन्तु हमारे वर्तमान स्तर के अनुसार व्यावहारिक, यथार्थवादी विधियाँ अपनाने से हम यथार्थवादी परिणाम पा सकते हैं। ऐसा करने के लिए हमें बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं के प्रति अपने सपनों के महल को ध्वस्त करके उन्हें धरती पर उतारना होगा।

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