समस्याओं से जूझना

ज्ञान के मार्ग की रुकावटों को दूर करना

जैसे हमने कल चर्चा की थी, हमारा प्रयास है कि हम दूसरों की सहायता करने की इच्छा पैदा करें - बिना किसी रुकावट के दूसरों के साथ सीधा संपर्क स्थापित करें | इन रुकावटों को केवल लोगों के सन्दर्भ में नहीं, अपितु नए ज्ञान की प्राप्ति के सन्दर्भ में भी दूर करना होगा | प्रक्रिया एक जैसी है | इनका रुकावटों का दूर होना आवश्यक है ताकि हम अपने ज्ञान-रूपी अवरोध या अन्य किसी रुकावट से मुक्त होकर, स्वतंत्र हो पाएँ और वैयक्तिक ढंग से प्रत्येक अनुभव कर पाएँ | दूसरे शब्दों में, हो सकता है कि हम इस प्रकट रूप से पुख्ता "मैं" को भीतर ही संरक्षण दें और सोचें, "मैं केवल अपने ज्ञान-वर्धन के लिए प्रवचन सुनूँगा, ताकि मैं कुछ आश्चर्यजनक या रोचक सीख पाऊँ | परन्तु यदि मुझे अपने किसी भीतरी द्वंद्व का सामना करना पड़ेगा, तो मैं इस दीवार के पीछे छिप जाऊँगा |" हमें ऐसी दीवारें गिराने की भी आवश्यकता है |

तो इस प्रकार हम ज्ञान की ओर उन्मुख होने का और एक प्रकार के आत्म-रूपांतरण का प्रयास करते हैं ताकि हम उन लोगों की सहायता कर पाएँ जिनके प्रति हम वैयक्तिक स्तर पर मित्रवत हैं | जैसा हमने कल बताया था, हम इस प्रकार की हृदय की भावना पहले अपने आस-पास के लोगों को देखकर विकसित कर सकते हैं, चाहे वे इस कक्ष में अन्य लोग हों या दीवारों पर टँगे महात्मा बुद्ध के चित्र, और फिर, रुकावटों को दूर करके, एक गहनतर स्तर पर, अपने व दूसरों के साथ अपने संबंधों के रूपांतरण के प्रति प्रेरित हो सकते हैं |

आइए एक क्षण के लिए ऐसा करें | और कृपया, एकाग्रचित्त होकर ध्यान केंद्रित करें | हम यह नहीं चाहते कि हम यहॉं केवल बैठे हों और हमारा चित्त इधर-उधर भटक रहा हो |

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बौद्ध "साधना" का एक रुकावट के रूप में प्रयोग

जब हम बौद्ध-धर्म की ओर बढ़ते हैं, तो वास्तव में हम एक स्तर पर आत्म-रूपांतरण कर रहे होते हैं | आत्म-रूपांतरण भयकारी हो सकता है | कल हमने भय के बारे में थोड़ी चर्चा की थी | बदलाव से बचने के लिए, हम रुकावटें पैदा करते हैं | फिर, इन रुकावटों की आड़ में, हम बौद्ध-धर्म की ओर बढ़ते हैं जैसे वह कोई मन बहलाने का साधन हो, एक प्रकार की क्रीड़ा या मनोरंजन | हम बौद्ध-साधना को कुछ ऐसा मानते हैं जिसका हमारे जीवन से कोई नाता न हो |

एक बहुत रोचक बात है कि जब हम लोगों से पूछते हैं, जो कुछ समय से बौद्ध-धर्म से सम्बद्ध हैं, "आपकी साधना क्या है?" प्रायः वे कहते हैं कि उनकी साधना है हर दिन किसी प्रकार का धार्मिक कृत्य करना, जिसका सम्बन्ध उनके तांत्रिक अभिषेक से है | उन्हें प्रतिदिन जाप करना होता है और यही उनकी साधना है | कदाचित वे इसे ईसाई सन्दर्भ में समझते हैं: "मुझे प्रतिदिन अपनी प्रार्थना करनी है |" और कई लोग तो इन धर्म-विधि संग्रहों को "प्रार्थना" कहते हैं | चूंकि इस सप्ताहांत हमने एक चित्र रंगने की उपमा का प्रयोग किया है, तो इस चित्र के एक ओर, जिसमें "चाहिए" का भाव है, हम कुछ ऐसी रेखाऍं खींचते हैं - "मुझे अपनी प्रार्थना करनी चाहिए, क्योंकि मैं एक भला व्यक्ति हूँ, क्योंकि मैंने ऐसा करने की प्रतिज्ञा की है..." फिर हम ईश्वर और गुरु की कल्पना में लिप्त हो जाते हैं |

अब हम चित्र के कई भागों में छोटी-छोटी रेखाएँ खींचते हैं | यदि हम किसी प्रकार के तांत्रिक कृत्य नहीं भी करते, कदाचित हम साष्टांग प्रणाम अथवा उस प्रकार की कोई अन्य साधना कर रहे हैं | जैसा मैंने कहा, इन साधनाओं को किसी क्रीड़ा या मनोरंजन की भाँति करना बहुत सरल है; जो हमारे आतंरिक सत्य से बिलकुल पृथक है | अन्य शब्दों में, हम कहते हैं कि हम अपनी "साधना" या तो एक कर्तव्य की तरह करते हैं - "मुझे करना चाहिए क्योंकि मैंने इसे करने की प्रतिज्ञा की है" - या किसी क्रीड़ा या मनोरंजन की भाँति जिसका हमारे जीवन से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता - "और यह है मेरी साधना |"

बौद्ध-धर्म की ओर अग्रसर होने में यह सबसे बड़ी भूल है | कई लोग इस स्तर पर कई वर्षों से बौध्द-धर्म से जुड़े हुए हैं और फिर भी, इस भ्रांत दृष्टिकोण के कारण, उन्हें केवल न्यूनतम लाभ मिलता है | मैं मानता हूँ कि कुछ लाभ अवश्य मिलेगा | परन्तु इससे कहीं अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है | जब हम या कोई अन्य - प्रायः कोई अन्य ही - कहता है, "मेरी साधना है करुणा, शून्यता, अनित्यता, इत्यादि," कुछ लोगों की विचित्र प्रतिक्रिया होती है | यदि हम अपनी साधना के रूप में धार्मिक कृत्य कर रहे हों और कोई हम से यह कहे, तो शायद हम सोचेंगे कि यह व्यक्ति ढोंग कर रहा है और बहुत दम्भी है, और, एक प्रकार से, हमें नीचा दिखाने का प्रयत्न कर रहा है और हमारे धार्मिक साधना कृत्यों के लिए हमारी आलोचना कर रहा है | एक प्रकार से, हम इसे भयसूचक दृष्टि से देखते हैं |

तो चर्चा फिर उस ठोस "मैं" की भ्रांत अवधारणा की ओर लौट आती है जो इन दीवारों के पीछे, ये सारे विधि-सूत्र उच्चरित करती हुई, क़ैद है, जिनसे शायद ये दीवारें और सुदृढ़ होती जा रही हैं | हम ऐसा इसलिए कर रहे हैं, ताकि, इन दीवारों के बीच, हमें अपना और अपने जीवन का सामना न करना पड़े | हम इन विधि-विधान में बहुत व्यस्त रहते हैं, ताकि हमें अपना या दूसरों का सामना न करना पड़े | आपने देखा होगा कि किस प्रकार कुछ लोग सुबह उठते ही रेडियो या कोई संगीत लगा लेते हैं और वह पूरे दिन बजता रहता है, या दिनभर घर में टेलीविज़न चलता रहता है | आजकल कई लोग दिनभर इयरफ़ोन पहनकर चलते रहते हैं और एक वॉकमैन से उनके कानों में संगीत बजता रहता है | वे इसके प्रति चेतन नहीं हैं, परन्तु इसका प्रभाव यह है कि उन्हें कभी अकेले सोचने या अपने साथ समय व्यतीत करने का अवसर नहीं मिलता | यह अकेलेपन से जूझने का अनोखा ढंग है, परन्तु पाश्चात्य जीवनशैली से परिचित होने के कारण हम समझते हैं कि इसका अर्थ क्या है | वास्तव में, ये आदतें हमें अपने चित्त और अपने जीवन पर गंभीर दृष्टि डालने से विचलित करती हैं |

बौद्ध-साधना के साथ भी इसी उदाहरण का अनुसरण करना काफ़ी सरल है | हम दिनभर एक धार्मिक विधि का पालन करते हैं या एक जाप करते हैं, जो पूरे दिन संगीत सुनने के समान है | यह हमारे अंतर्तम को नहीं छूता | दूसरे शब्दों में, हम उस साधना का एक और दीवार के रूप में प्रयोग कर रहे हैं; यह हमारे चारों ओर फैली एक बड़ी दीवार की एक और परत है | यदि हम अपनी साधना में अत्यंत परिष्कृत भी हो जाएँ - मान लीजिए कि हम दिनभर मंडलों, प्रतिमाओं आदि की परिकल्पना में व्यस्त हैं - तब भी इसे एक अन्य दीवार की भाँति प्रयोग करना बहुत सरल है ताकि हमें वास्तविक जीवन का सामना न करना पड़े |  मेरे विचार में यह अत्यंत आवश्यक है कि हमारी साधना का मूल ढाँचा हमारे जीवन के परे कोई एक घंटे या उससे अधिक की बाह्य वस्तु न हो जिसका हम प्रतिदिन अभ्यास करें | हमारा जीवन ही हमारी साधना होनी चाहिए |

पहला आर्य सत्यदुःख सत्य

अपने जीवन को ही अपनी साधना बनाने के लिए, हमें महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के मूल ढाँचे की ओर जाना होगा, जो हैं चार आर्य सत्य, जीवन के चार तथ्य | इन्हें अत्यंत गंभीरता से समझना अनिवार्य है | इनमें से पहला सत्य, जो हमने कल रात प्रतिपादित किया, वह है "जीवन कठिन है" | आप कह सकते हैं, "सबकुछ दुखकारी है,"  परन्तु यह शब्द-रचना असहज है | यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा, "जीवन कठिन है |"

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह आवश्यक है कि हम इस तथ्य का सामना करें और स्वीकार करें कि जीवन कठिन है | कभी-कभी हम इस बात को नकारते हैं | या, रुकावटें पैदा करके, हम सैद्धांतिक शब्दों में कहते हैं, " हाँ, बहुत दुःख है," परन्तु हम वास्तव में स्वयं पर यह तथ्य लागू नहीं करते और इसे अपने जीवन में सच उतरता नहीं देखते | हम सुख की खोज में बहुत मग्न हैं | हम, आज बाद में या कल, सुख के इस पूरे विषय पर चर्चा करेंगे और क्या बौद्ध साधक होते हुए सुखी होना ठीक है | पाश्चात्य साधकों के लिए यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जिसके समाधान में हमें काफ़ी समस्या होती है | पर अभी इसे छोड़ देते हैं |

बहुत से लोगों को, विशेषकर महिलाओं, परन्तु केवल महिलाओं को ही नहीं, जीवन में विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जैसे बच्चों की देखभाल, गृहस्थी की देखरेख, और साथ-साथ शायद नौकरी भी | कभी-कभी उन्हें अपने पति या अपने जीवनसाथी के कारण बहुत समस्या होती है, क्योंकि या तो वह सहायता नहीं करता या परिस्थिति की गंभीरता को नहीं समझता | प्रायः, पुरुष स्त्री की स्थिति को नहीं समझ पाता, क्योंकि एक ठेठ पुरुष की प्रतिक्रिया होती है, "समस्या क्या है, मुझे बताओ?" और फिर वह उसे टूटे पाइप की भाँति ठीक करना चाहता है | परन्तु उस परिस्थिति में स्त्री यह उपाय नहीं चाहती | अधिकांशतः वह केवल यह चाहती है कि कोई उसकी परेशानी समझकर उसके साथ सहानुभूति दिखाए, "तुम बेचारी" के रूप में नहीं, परन्तु भावात्मक आसरे और सहमति के रूप में | सदाशयता का, जो है पहली पारमिता या व्यापक मनोदृष्टि, यह असली अभ्यास है |

एक अन्य उदाहरण जो यहाँ बहुत प्रासंगिक है वह भारतीय गुरु शान्तिदेव का है जिन्होंने कहा था, और मैं उसकी संक्षिप्त व्याख्या कर रहा हूँ, "आप सामान्य जन पर कभी भी भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि वे बचकाने और अपरिपक्व हैं और सदा आपको निराश करेंगे |" धन्यवाद, शान्तिदेव | यह कई गृहस्थियों की परिस्थिति के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि प्रायः पति वह आसरा नहीं दे पाते जो स्त्री चाहती है | यह हमारी पहले आर्य सत्य की चर्चा के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि गृहस्थी और बालक संभालती हुई स्त्री की स्थिति "जीवन दूभर है" का एक उदाहरण है | जीवन पुरुषों के लिए भी कठिन होता है, क्योंकि वे गृहस्थी के लिए वित्तीय सुरक्षा प्रदान करने से लेकर सबके और सबकुछ के लिए उत्तरदायित्व अनुभव करते हैं | वह भी कठिन होता है |

जब हम इस पहले आर्य सत्य की बात करते हैं, तब हम किस प्रकार बात करें कि हम खंडन करने की अवस्था में न हों और यह हमें वास्तव में प्रासंगिक प्रतीत हो? मुझे लगता है कि हमें भावात्मक आश्रय पाने और इस तथ्य को समझने की आवश्यकता है कि हमारा जीवन कठिन है और साधारणतः जीवन कठिन ही है |

आश्रय के लिए त्रिरत्नों से सहायता माँगना

प्रश्न यह है कि उस सहारे और सहानुभूतिपूर्ण सहमति के लिए हम किसके पास जाएँ? यदि हम साधारण प्राणियों पर निर्भर करें, तो उनकी अपनी समस्याएँ हैं और उनसे सहारा पाना कठिन है | यह हमें शरणागति के विषय पर लाता है | मैं "शरणागति" शब्द को अधिक पसंद नहीं करता क्योंकि मुझे लगता है कि वह बहुत निष्क्रिय है | मैं सदा से मानता हूँ कि यह हमारे जीवन को एक सुरक्षित और सकारात्मक दिशा देने की अधिक सक्रिय प्रक्रिया है | यदि हम किसी की सहायता लेंगे जो हमें सहानुभूतिपूर्ण आश्रय दे सकता है, तो एक बौद्ध होने के नाते, शरणागति के सन्दर्भ में, हम त्रिरत्नों का सहारा लेंगे - बुद्धजन, उनकी शिक्षाएँ और सिद्धियाँ - अर्थात धर्म- और संघ सम्प्रदाय |

पश्चिम में, हम ने "संघ" शब्द का प्रयोग पूर्णतः ग़ैर-बौद्ध ढंग से शुरू किया है, जहाँ वह गिरिजाघर में एकत्रित धार्मिक समूह का पर्याय है | इस शब्द का प्रयोग हम उन लोगों की ओर संकेत करने के लिए करते हैं जो बौद्ध केंद्र में जाते हैं | यह उसका मूलभूत अर्थ नहीं है | फिर भी, यद्यपि बौद्ध सम्प्रदाय के अन्य सदस्य शरणागति के पात्र नहीं हैं, तथापि हमें उनसे ‘जीवन कठिन है’ के सन्दर्भ में कुछ संगति और अभिस्वीकृति मिल सकती है - मेरा जीवन कठिन है, सामान्यतः जीवन कठिन नहीं है |

इसके अतिरिक्त, दूसरे, तीसरे और चौथे आर्य सत्य ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे वे समस्याएँ सुलझाने के ठेठ मर्दाने उपाय हों: "हम कारण का पता लगाकर समस्या का निवारण करेंगे," जैसे टूटे हुए पाइप को ठीक करना | परन्तु हमें यही कार्य एक अधिक स्त्री-सुलभ दृष्टिकोण के साथ करना है, जो है यह स्वीकृति और सहारा कि ‘जीवन कठिन है’ | वह कठिन है | चाहे हम स्त्री हों अथवा पुरुष, हमें दोनों के संयोग की आवश्यकता है | हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि लिंग भेद ही एक अनन्य दृष्टिकोण निर्धारित करता है |

यह सहारा हम कैसे पाएँ? एक स्तर पर अपने बौद्ध समुदाय के अन्य सदस्यों की सहायता लेना अच्छा प्रस्ताव जान पड़ता है | परन्तु हमने प्रायः देखा है कि हमारे समुदाय के लोग बहुत परिपक्व नहीं हैं और इसलिए हम आलोचनात्मक हो जाते हैं; हम एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से नहीं बात कर पाते | कई पाश्चात्य समुदायों में, लोगों की अत्यंत दृढ़ सीमाएँ हैं क्योंकि लोगों को लगता है कि उन्हें स्वयं को बहुत पावन और आध्यात्मिक रूप से उन्नत दिखाने की आवश्यकता है | इसलिए, प्रायः, हम कोई व्याख्यान सुनने या किसी प्रकार की धार्मिक विधि करने या ध्यान-साधना करने एकत्रित होते हैं और फिर चले जाते हैं और हम सोचते हैं कि समूह में साधना करने का यही अर्थ है - केवल साथ बैठना या साथ में मंत्रोच्चार करना, जैसे हम सोचते हैं कि अकेले साधना करने का अर्थ यही है | वास्तव में, एक बौद्ध समूह में साधना करने का असली केंद्र बिंदु है एक-दूसरे के साथ मित्रवत होना, एक-दूसरे की सहायता करना, उदार होना, एवं उन्मुक्त और स्नेहशील होना | यदि समूह साधना में हम इस बात पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, तो फिर 'जीवन कठिन है' की स्थिति में हम एक-दूसरे को एक प्रकार का भावात्मक सहारा दे सकते हैं और इस सत्य की परिधि में हम सब अपने विकास के लिए प्रयत्नशील हो सकते हैं | पर फिर भी, हम सामान्य जीव हैं और कभी-कभी किसी अन्य के लिए उस स्तर का अवलम्ब प्रदान करना बहुत कठिन होता है |

यदि हम वास्तविक संघ शरणागति पर दृष्टि डालें, जिससे अभिप्राय है आर्य सत्व, उन्हें शून्यता का निर्वैचारिक बोध हो चुका है | इससे स्थिति काफ़ी अलग हो जाती है, नहीं क्या? इन लोगों ने अभी तक स्वयं को दुःख से मुक्त नहीं किया है, परन्तु इनका अहम् तुलनात्मक रूप से क्षीण है, इसलिए ये हमें किसी प्रकार का सहारा देने में समर्थ हैं | परन्तु हमारे निकट बहुत आर्य नहीं हैं, हैं क्या?

फिर हम शायद बुद्ध शरणागति में इस प्रकार का सहारा ढूंढ़ सकते हैं | हमें लगता है, "बुद्ध मुझे समझते हैं; बुद्ध मेरे जीवन की समस्याओं को समझते हैं |" इससे हमें निश्चित रूप से सांत्वना मिलती है | यह ईसाई धर्म की उस उक्ति की याद दिलाता है, "यीशु मुझसे प्यार करते हैं |" यदि यीशु मुझसे प्यार करते हैं, तो मैं इतना बुरा तो नहीं हो सकता | हम जितना इस बात पर विश्वास करते जाते हैं कि यीशु मुझसे प्यार करते हैं, उतना हमारे मानव जीवन के मूल्य की पुष्टि होती जाती है, जिसके परिणामस्वरूप हमें जीवन संघर्ष की शक्ति मिलती है | इसलिए, केवल यह पर्याप्त नहीं है कि मेरा कुत्ता मुझे चाहता है |

हम इस प्रकार की ईसाई मनोदृष्टि को बुद्ध के लिए भी प्रयुक्त कर सकते हैं, "बुद्ध मुझे चाहते हैं, बुद्ध मुझे समझते हैं |" इससे हमें एक प्रकार की राहत और सहारा मिलता है | अब हम आध्यात्मिक गुरु का जो चित्र यहाँ बना रहे हैं उसके एक ओर हम एक और रेखा बना सकते हैं - वह भी एक योग्य आध्यात्मिक गुरु, कोई ऐसा-वैसा नहीं | मुझे अपने मुख्य गुरु सरकॉन्ग रिन्पोचे अच्छी तरह याद हैं | उनका एक अद्भुत गुण था कि वे सबके प्रति गंभीर रवैया अपनाते थे | चाहे लोगों की विनती कितनी भी अटपटी हो - जैसे कोई राह-चलता उनसे आकर कहे, "मुझे नरोपा के छह योग सिखाइए" - चाहे वह व्यक्ति कितना भी विचित्र क्यों न हो, रिन्पोचे उनकी बात गंभीरता से सुनते थे | वे कहते थे, "ओह, यह तो बहुत अच्छा है ! आपकी इस अद्भुत शिक्षा में रूचि है और यदि आप इसे वास्तव में सीखना चाहते हैं, तो आपको अपने भीतर इसकी तैयारी करनी होगी |" फिर ऐसे व्यक्ति को वे उसके स्तर की कोई उचित शिक्षा देते थे | ऐसा व्यवहार उस व्यक्ति के साथ बिलकुल सही बैठता था, क्योंकि यदि गुरु उसे गंभीरता से लेगा, तो वह स्वयं को गंभीरता से लेना आरम्भ करेंगे |

हम देख सकते हैं कि "मेरे गुरु मुझे समझते हैं और मुझसे प्यार करते हैं" "बुद्ध मुझे समझते हैं और मुझसे प्यार करते हैं" के समानांतर है | परन्तु हम सदा गुरु के निकट वैयक्तिक संसर्ग में नहीं होते - और वैसा ही बुद्ध के साथ है | इसके अतिरिक्त, कभी-कभी जिन गुरुओं के साथ हमारी निकटता नहीं होती वे आदर्श रूप से योग्य नहीं होते | हम फिर भी उनपर निर्भर करते हैं क्योंकि यह कहना कुछ सैद्धांतिक और दूरस्थ लगता है कि "बुद्ध मुझे समझते हैं" या "बुद्ध मुझसे प्यार करते हैं |"

इसलिए हमें एक अन्य कोटि की शरणागति का सहारा लेना होगा | हम न केवल बुद्ध, धर्म और संघ से सुरक्षित दिशा पा सकते हैं जो हमें आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करे; उस मार्ग पर चलकर हम जिस अवस्था को प्राप्त करेंगे उससे भी हम सुरक्षित दिशा और शरणागति को पा सकते हैं | इसका अर्थ है कि अंततः हमें स्वयं ही यह राहत और बोध प्राप्त करना होगा, क्योंकि बुद्ध-स्वरुप के सन्दर्भ में हम सब में बुद्ध, धर्म और संघ की मुक्ति और ज्ञानोदय की अवस्था प्राप्त करने की सम्पूर्ण संभाव्यताएँ और क्षमताऍं हैं | न केवल दूसरों को, अपितु स्वयं को भी, यह राहत और बोध प्रदान करने के लिए हमारे भीतर वे सारी संभाव्यताएँ हैं | मेरे विचार में यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है | मेरे अपने विकास में मुझे यह बहुत महत्त्वपूर्ण लगा |

शान्तिदेव ने कहा था - और मेरी माँ ने भी, "यदि आप कुछ करना चाहते हैं, तो उसे स्वयं करें | यदि आप किसी और से उसे करने के लिए कहेंगे, तो वे उसे आपकी इच्छानुसार नहीं करेंगे |" जीवन कठिन है, इस तथ्य का सामना करने के लिए जिस सहारे की आवश्यकता है, उस बोध, उस स्वीकृति और राहत की प्राप्ति के सन्दर्भ में भी यह बात सत्य है | जो सबसे विश्वसनीय है वह है अपने विषय में अपने बोध के द्वारा स्वयं को वह सहारा देना, अपने जीवन की परिस्थिति को स्वीकार करना, और उन परिस्थितियों के संदर्भ में अपने प्रति दयालु रहना - और इस पूरी प्रक्रिया में ग़ैर-आलोचनात्मक रहना |

अपने प्रति ग़ैर-आलोचनात्मक रहना

यदि हम आलोचनात्मक होते हैं, तो हम चित्र पर एक और रेखा खींचते हैं कि "मुझे ऐसा करना चाहिए और मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए और मैं अच्छा बनना चाहता हूँ, मैं बुरा नहीं बनना चाहता |" यदि हमारी यह मनोदृष्टि है, तो हम स्वयं को देखकर यह कह रहे हैं, "मेरा जीवन कठिन है | ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं 'बुरा' हूँ | मुझ में कोई दोष है |"  यदि हम अपने जीवन को इस आलोचनात्मक ढंग से देखेंगे "मैं अच्छा बनना चाहता हूँ, मैं बुरा नहीं बनना चाहता," तो हम स्वयं को अपने जीवन के सन्दर्भ में आँकेंगे: "मेरा जीवन कठिन है | मैं अवश्य कोई भूल कर रहा हूँ | मैं बुरा हूँ |" स्वयं को भावात्मक सहारा देने के बजाय, हम अपने को डाँटते हैं और आलोचनात्मक ढंग से अपने ऊपर उँगली उठाते हैं | इससे हमें कोई सहायता नहीं मिलती, हम और बदतर अनुभव करते हैं |

स्वयं से सहानुभूति पाने के लिए, ऐसा नहीं है कि हम अपने से एक शिशु की भाँति व्यवहार करें और फिर अपनी परिस्थिति के बारे में कुछ न करें | स्पष्ट है कि जब एक स्त्री अपने पति से सहानुभूति और सहमति चाहती है, तो वह केवल यही नहीं चाहती | यदि वह बर्तन धो दे तो वह भी अच्छा होगा ! इसी प्रकार, हो सकता है कि हम चाहें कि कुत्ते की भाँति कोई हमारा सिर थपथपा दे, पर हमें वास्तविक सहायता की भी आवश्यकता है | यही बात हमारे लिए भी सच है | एक ओर हमें अपने प्रति स्नेही और सहनशील होने की आवश्यकता है, परन्तु फिर हमें स्वयं टूटे पाइप को ठीक करना और अपनी गहनतर आवश्यकताओं को पूरा करना होगा |

यह पूरा विषय काफ़ी जटिल है | यह एक संवेदनशील विषय है | उदाहरण के लिए मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूँ जिनका बचपन बहुत अच्छा नहीं था या जिनके माता-पिता बहुत संवेदनशील नहीं थे | ऐसे लोग प्रायः स्थानापन्न माता या पिता खोजते रहते हैं | वे सम्बन्ध स्थापित करते हैं और अनजाने में अपने साथी पर माता या पिता प्रक्षेपित करते हैं और अनुरोध करते हैं कि उनका साथी उन्हें उस प्रकार का सहारा दे जो उन्हें बचपन में नहीं मिला |

ऐसी समस्या से ग्रस्त व्यक्ति का हम कैसे उपचार करें? ये बहुत विक्षेपग्रस्त सम्बंध होते हैं | हम कह सकते हैं, "अपने कृत्यों के अचेतन स्वरुप को देखो और समझो कि तुम कितने मूर्ख हो और तुम अपने लिए कितनी समस्याएँ पैदा कर रहे हो और ऐसा करना बंद करो !" यह उस प्रकार है कि यदि कुत्ता ज़मीन पर गंदगी कर देता है, तो कुछ लोग उसकी नाक वहाँ ले जाकर कहते हैं, "देखो तुमने क्या गंदगी फैलाई है! ऐसा मत करो !" पर इसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ता | उस कुत्ते पर प्रभाव पड़ सकता है, परन्तु हम पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि यह केवल इस बात की पुष्टि करता है कि मैं एक बुरा व्यक्ति हूँ और इससे अपराध-बोध तथा लालसा की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, "मैं अच्छी लड़की बनना चाहती हूँ; मैं अच्छा लड़का बनना चाहता हूँ |" ये सभी आलोचनात्मक बातें इस पुख्ता ‘मैं’ के विचार के आसपास घूमती हैं |

अपनी अधिकार-भावना  की भावना को स्वीकार करना

यदि हम कुछ और अधिक परिष्कृत मनोवैज्ञानिक विधियों को देखें, तो ऐसे व्यक्ति को यह बताना अत्यंत लाभकारी होता है कि एक स्नेही और सहानुभूतिपूर्ण माता-पिता का होना उनका अधिकार था | यह सबका अधिकार है और यह बहुत अन्याय की बात है कि उन्हें यह नहीं मिला | मनोविज्ञानविद इस बात को स्वीकार करता है, ताकि वह व्यक्ति भी स्वयं इस बात को मानकर स्वीकार कर ले | इसके समानांतर अपने भीतर यह स्वीकार करना कि जीवन कठिन है, विशेषतः, हमारा जीवन कठिन है और सुखी रहना हमारा अधिकार है | बुद्धजन बनना हमारा अधिकार है, क्योंकि हमारे भीतर बुद्ध-धातु विद्यमान है |

इस अभिस्वीकृति के आधार पर, हम प्रायः देखते हैं कि अच्छे माता-पिता होने की भूतपूर्व आवश्यकता रूपांतरित हो जाती है | इसकी पूर्ति वैयक्तिक तौर पर किसी के लिए अच्छे माता-पिता बनने से होती है | मैंने अपने अनुभव से देखा है कि ऐसा सच में होता है | यह स्वीकार करके कि हमारा जीवन कठिन है और इसके द्वारा स्वयं को एक प्रकार का भावात्मक सहारा देने से, जीवन की कठिनाइयों से जूझने की इस पूरी प्रक्रिया में सबसे अधिक उपचारात्मक होता है दूसरों को वह स्वीकृति और सहानुभूति देना | हम जितने शुद्ध मन से दूसरों के लिए ऐसा करेंगे, अपने जीवन की कठिनाइयों से हम उतना ही जूझ पाएँगे और, वास्तव में, हम देखते हैं कि वे समस्याऍं कम भीषण हो जाती हैं | यह उस बाध्यकारी परोपकारी समाज-सेवक से बहुत भिन्न है जो सदा बाहर जाकर दूसरों के हित के लिए कार्य करता है, परन्तु अपने जीवन का कभी सामना नहीं करता | प्रायः उनका अपना जीवन समस्याओं से भरा होता है | इसका सार यही है कि, अंततः, हम स्वयं को कैसे शरणागति देते हैं |

आइए हम अपने जीवन की कठिनाइयों को स्वीकार करने में कुछ क्षण बिताएँ - और आलोचनात्मक हुए बिना | केवल उसे स्वीकार करने का प्रयास करें | उसे स्वीकार करने का अर्थ है उसका सामना करना | बिना किसी रूकावट के | किसी बाह्य साधना के बिना जिसके बारे में हम कहते हैं, "यह मेरा बौद्ध-धर्म है |" इसका अर्थ यह भी है कि ऐसा इस प्रकार करें कि हमें आत्मदया अनुभव न हो | ठीक उस प्रकार जैसे काम के बोझ से दबी महिला यह नहीं चाहती कि उसका पति उसपर तरस खाकर कहे, "तुम बेचारी", हम अपने लिए भी ऐसा नहीं चाहते |

यहाँ हम जिस स्वीकृति की बात कर रहे हैं वह अत्यंत विनीत है | यह लगभग "उपस्थिति" के समान है - यदि हम यह विचित्र वैचारिकरण समझ पाएँ - अपने साथ केवल "उपस्थित" रहना | यदि हम बहुत बीमार हों, तो हम नहीं चाहते कि कोई आकर कहे, "ओह, बेचारा," और हम पर इस प्रकार तरस खाए | वास्तव में लाभकारी होता है कि वह हमारी बीमारी से भयभीत न हो और उसमें हमारे पास बैठकर, हमारा हाथ पकड़कर, हमारा साथ देने की क्षमता हो | यद्यपि शून्यता का वैचारिकरण उसके बोध का पूर्णतः विरोधी है, भावात्मक स्तर पर आवश्यकता है कि हम अपना हाथ स्वयं पकड़ें, बिना किसी भय के और बिना यह महसूस करे कि हमें अपनी करुणा या आत्मदया की भावना का कोई नाटकीय दिखावा करना है | आइए यह प्रयास करें |

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भय के दानव को पोषित करना

हो सकता है कि जैसा हम ने अभी किया यह साधना हमारे लिए अमूर्त रूप से करना थोड़ा कठिन हो, और इसलिए हम यह साधना "दानव को पोषित करने" के रूप में कर सकते हैं | हमारी विभिन्न समस्याओं को हम अपने भीतर एक दानव के रूप में देख सकते हैं | फिर हम इस दानव के रूप और उसके गुणों की कल्पना कर सकते हैं - यह दानव जो कुछ सहानुभूति चाहता है, उदाहरण के लिए: "मेरा जीवन कितना कठिन है | मुझपर कितने उत्तरदायित्व हैं | मुझे कितने काम करने हैं | मेरे पास पर्याप्त समय नहीं है; मुझ में पर्याप्त ऊर्जा नहीं है; मेरे पास पर्याप्त सहयोग नहीं है..." |

पहले, हम स्वयं से प्रश्न करते हैं, यह दानव कैसा दीखता है? जब उसके रूप की कल्पना कर लेते हैं, तो हम उसे अपने से बाहर निकाल देते हैं और उसे अपने सामने एक गद्दी पर बिठा देते हैं | फिर हम उस दानव से पूछते हैं, "तुम्हें क्या चाहिए?" हम उस गद्दी पर बैठकर उस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं या हम अपनी कल्पना में ऐसा कर सकते हैं: "मुझे सहानुभूति चाहिए; मुझे सहयोग चाहिए; मुझे अपने जीवन की कठिनाइयों की स्वीकृति चाहिए |" फिर जिस स्थान पर हम बैठे हैं, हम वहीं से दानव को पोषित करने की कल्पना करेंगे | हम उसे सहयोग देते हैं; हम उसे सहानुभूति देते हैं; हम उसे ग़ैर-आलोचनात्मक स्वीकृति देते हैं - वह जो भी चाहे |

ऐसा करने से हमें समझ में आता है कि स्वयं को सहारा देने का यह एक कहीं अधिक प्रभावी ढंग है बजाय इसके कि हम बैठ-बैठे इसे अमूर्त रूप से करने का प्रयास करें | दानव को पोषित करना हमारे लिए लाभकारी सिद्ध होता है क्योंकि इससे हमें दूसरों को यह सहयोग देने का अभ्यास मिलता है | धीरे-धीरे हम समझने लगते हैं कि कैसे दूसरों को यह उपचारात्मक सहयोग देने से, किसी के लिए अच्छा माता-पिता बनने से, यह किस प्रकार हमारे लिए भी उपचार की प्रक्रिया होती है | इसका एक जैसा प्रभाव होता है | जैसे दानव को समझने से हम स्वस्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार किसी और को सहारा देने से भी हम स्वस्थ हो जाते हैं |

आइए हम कुछ क्षणों के लिए इस दानव को वह सहारा और स्वीकृति दें - दानव के लिए भी वह जीवन कठिन है और यही बात मुझे भीतर से खाए जा रही है | आरम्भ से यह प्रक्रिया शुरू करें, अपने भीतर यह आवश्यकता देखें, और फिर इसे मूर्त रूप देकर पोषित करें | अपने भीतर के दानव की आवश्यकता पहचानकर उसे पूरा करें |

[अभ्यास के लिए रुकें]

अब अपने जीवन में विद्यमान कुछ लोगों पर ध्यान दें और उन्हें वही सहयोग और 'जीवन कठिन है' की स्वीकृति दें | चाहे वे बीमार हों या बूढ़े हों या उनके पास बहुत काम हो, जो भी हो, उसे समझें, स्वीकार करें, और उन्हें जो चाहिए वह सहारा दें | इसमें वे लोग शामिल हैं जिन्हें भावात्मक समस्याऍं होती हैं - कुछ सदा क्रोधित रहते हैं या दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं | समझें कि उनका जीवन भी कठिन है | उस व्यक्ति को अपनी स्वीकृति और सहयोग से पोषित करें, जैसे दानव को पोषित किया था | कल्पना करें कि जो दूसरों को चाहिए उसका हमारे पास अथाह भण्डार है, जिस प्रकार हमारे पास दानव की इच्छित वस्तु का अथाह भण्डार है |

सहयोग और स्वीकृति के अथाह भण्डार को अपनी से होते हुए दूसरे व्यक्ति तक जाने देने से हम एक शांत रूप में उदारता का अनुभव कर सकते हैं | यदि हम इसको लेकर अशांत हैं, तो हमें लगता है, "ओह, मुझे इस दुःसाध्य स्थिति में कुछ करना चाहिए, पर मैं असल में कुछ नहीं कर सकता | मैं अशक्त हूँ; मैं हताश हूँ | यह पूरी स्थिति कितनी भयावह है..." और फिर हम इस पूरे प्रकरण से भावात्मक रूप से बहुत व्यग्र हो जाते हैं | इससे अच्छा है, हम उदारता को शुद्ध जल की अथाह धारा की भाँति अपने भीतर बहने दें |

इन मानसदर्शनों में यह प्रतीक स्वरुप घटित होता है जब हम यह कल्पना करते हैं कि बुद्धजनों के माध्यम से हमारे भीतर अमृत-धारा प्रवाहित हो रही है | यह उसी प्रकार का अनुभव है, परन्तु एक अधिक सामान्य स्तर पर | हम इस धारा को अधिक से अधिक बाँट सकते हैं | यह धारा कभी सूखेगी नहीं; यह दूसरों की ओर एक बहुत स्फूर्तिदायक और प्रेरक ढंग से बहती रहती है | यह सहज है; यह बस बहती है | हम कैसे इसे बहता रहने दें? रुकावटें हटाकर ! डरने की कोई बात नहीं है और खोने के लिए कुछ भी नहीं है |

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