धर्म की साधना में अहम को मिलाने से कैसे बचें

यदि हम स्वयं को एक मिथ्या मूर्तिमान “मैं” समझने वाले अहितकारी अहम के प्रभाव में आकर व्यवहार करते हैं तो हमारा अहम या तो स्फीत हो सकता है या अपस्फीत हो सकता है। दोनों ही प्रकार के अहम के प्रभाव से हमारी बौद्ध साधना के मार्ग में अनेक बाधाएं उत्पन्न होती हैं। किन्तु धर्म की उचित विधियों का प्रयोग करके हम इन समस्याओं को नियंत्रित कर सकते हैं, और हितकारी अहम की सहायता से व्यावहारिक ढंग से साधना कर सकते हैं।

हितकारी और अहितकारी अहम के बीच अंतर

बौद्ध धर्म में पारम्परिक “मैं” और मिथ्या “मैं” के बीच अन्तर को बताया गया है। पारम्परिक “मैं” वह “मैं” है जिसे किसी व्यक्ति के हर क्षण परिवर्तनशील अनुभूतियों के सातत्य पर आरोपित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हमारे अलग-अलग अनुभवों के क्षण व्यवहारगत कारण और प्रभाव के नियमों (कर्म) के अनुसार एक के बाद एक घटित होते चले जाते हैं। हम इन क्षणों के सातत्य के आधार पर “मैं” को लेबल कर सकते हैं। इस पारम्परिक “मैं” का अपना अस्तित्व है और इस “मैं” के आधार पर ही हम कह सकते हैं कि “मैं बैठा हूँ; मैं खा रहा हूँ; मैं ध्यान साधना कर रहा हूँ।“ किन्तु हमारे इस पारम्परिक “मैं” को केवल हमारे मानसिक सातत्य पर ही आरोपित किया जा सकता है: पारम्परिक “मैं” को परिभाषित करने वाला ऐसा कुछ नहीं है जो अपने आप में मुझे “मैं” के रूप में अस्तित्वमान बनाता हो। ऐसे किसी “मैं” का अस्तित्व सम्भव नहीं है जो वास्तव में अपने भीतर खोजे जाने योग्य किसी ऐसे गुण से युक्त हो जो उसके अस्तित्व को सिद्ध करता हो। सचमुच खोजे जाने योग्य ऐसे किसी “मैं” का अस्तित्व होता ही नहीं है; वह तो मिथ्या “मैं” है, “मैं” जिसका खंडन किया जाना चाहिए।

वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य जगत में हितकारी अहम और अहितकारी अहम की बात की जाती है। हितकारी अहम पारम्परिक “मैं” पर आधारित “मैं” का भाव है; जबकि अहितकारी अहम मिथ्या “मैं” पर आधारित “मैं” का भाव होता है। अहितकारी अहम या तो स्फीत रूप में या फिर अपस्फीत रूप में हो सकता है। स्फीत अहम एक वास्तव में अस्तित्वमान खोजे जाने योग्य “मैं” पर विश्वास पर आधारित होता है; जबकि अपस्फीत अहम या तो इस विश्वास पर आधारित होता है कि पारम्परिक “मैं” का भी अस्तित्व नहीं होता है, या फिर पारम्परिक “मैं” के बहुत कम दृढ़ता से स्थापित भाव पर आधारित होता है।

गुणकारी धर्म साधना के लिए हमें हितकारी अहम की आवश्यकता होती है ताकि हम अपने जीवन के अनुभवों की जिम्मेदारी ले सकें। यह जिम्मेदारी लेकर हम अपने जीवन को एक सुरक्षित दिशा दे सकते हैं (शरणागति ले सकते हैं), मुक्ति और/ या ज्ञानोदय प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं, और अपनी बुद्ध-धातु तथा कार्मिक कारण और प्रभाव के सिद्धांतों पर अपने विश्वास के आधार पर उन लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में साधना कर सकते हैं। लेकिन यदि हम मुक्ति प्राप्त अर्हत न हों तो हमें फिर भी खोजे जाने योग्य वास्तविक “मैं” की लालसा बनी रहेगी। इसके कारण हमारी धर्म साधना में आवश्यक रूप से अहितकारी अहम मिल ही जाएगा। यदि हमें यह बोध हो कि ऐसा किस प्रकार होता है तो हम तात्कालिक उपायों की साधना करके इससे होने वाले नुकसान को कम करने का प्रयास कर सकते हैं। किन्तु  इसका अन्तिम उपाय तो आत्म की शून्यता का बोध ही है।

स्वयं को वास्तव में अस्तित्वमान “मैं” समझने के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याएं

कुछ लोग किसी ऐसे कार्मिक कारण से धर्म के साथ जुड़ते हैं जिसकी वजह से उनके भीतर धर्म के बारे में जिज्ञासा और रुचि जागृत होती है। यह रुचि किसी परिस्थिति के कारण जागृत होती है। लेकिन कुछ दूसरे लोग स्फीत अहम के आधार पर अस्थिर कारणों से धर्म के साथ जुड़ते हैं। साधारणतया इस संलक्षण के तीन स्वरूप होते हैं। अपने आप को एक वास्तव में अस्तित्वमान और खोजे जाने योग्य “मैं” समझते हुए हम इन कारणों से धर्म की ओर मुड़ सकते हैं:

  • मित्रों के एक विशेष समूह में स्वीकार्य बनने के लिए, क्योंकि बौद्ध धर्म फैशन में है और सिनेमा के बहुत से सितारे और रॉकस्टार धर्म के अनुयायी हैं;
  • किसी ऐसी गम्भीर भावनात्मक या शारीरिक समस्या का जादुई समाधान पाने के लिए जिसका इलाज किसी और समाधान से न हो सका हो; या
  • विदेशी और असाधारण चीज़ों में अपनी रुचि को संतुष्ट करने के लिए।

सामान्य तौर पर इनमें से किसी भी कारण से धर्म से जुड़ने के खतरे से बचने के लिए हमें अपनी प्रेरणा को देखना और सुधारना होगा। लेकिन, स्फीत अहम के इन तीन स्वरूपों में से प्रत्येक के साथ जुड़े सामान्य “दंभ प्रदर्शन” को नियंत्रित करने के लिए ऐसे विशिष्ट उपाय उपलब्ध हैं जिन्हें हम उठा सकते हैं।

“विशिष्ट समूह” का हिस्सा बनने की लालसा

“मैं” के महत्व को बढ़ाचढ़ा कर देखने के भाव के साथ हमें यह अहंकार हो सकता है कि हम “विशिष्ट समूह” का हिस्सा हैं। इस भाव को नियंत्रित करने के लिए हम इस बात पर अहंकार करने के बजाए इस बात से खुश हो सकते हैं कि हमने धर्म को पा लिया है। हम उन लोगों के प्रति करुणा के लिए ध्यानसाधना कर सकते हैं जो अभी भी भटक रहे हैं। इसके अलावा, यदि हम उन लोगों के साथ तुलना करें जो धर्म के मार्ग पर काफी आगे निकल चुके हैं, तो हमें यह बोध होता है कि हम तो केवल धर्म शिशु ही हैं। इसलिए अहंकार करने का कोई कारण नहीं है।

करिश्माई इलाज पाने की इच्छा

अक्सर अपने दुख का कोई करिश्माई इलाज पाने की इच्छा अपने आपको अत्यधिक महत्वपूर्ण समझने के भाव का कारण बनती है। हम अपने आप में और अपनी समस्याओं में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि हम लगातार अपने प्रश्न पूछ-पूछ कर अपने शिक्षक और कक्षावर्ग के समय पर हावी हो जाना जाहते हैं। हम चाहते हैं कि दूसरों का ध्यान लगातार हमारे ऊपर ही रहे। इस स्थिति से उबरने के लिए हमें सोचना चाहिए कि हम स्वयं और दूसरे लोग एक समान ही हैं। कोई भी दुख भोगना नहीं चाहता और सभी चाहते हैं कि उनके रोग ठीक हो जाएं।

जब हम “मैं” के भाव को बढ़ाचढ़ा कर देखते हैं तो हमें ऐसा भी लग सकता है कि हम मिलारेपा की तरह इतने परिपक्व साधक हैं कि हमें कुछ ही वर्षों में निश्चित तौर पर ज्ञानोदय की प्राप्ति हो जाएगी। नतीजा यह होता है कि हम अपने शिक्षकों से विशेष ध्यान की अपेक्षा करते हैं। स्फीत अहम की इस समस्या को हल करने के लिए हमें महान बौद्धाचार्यों की जीवनियों को पढ़ना चाहिए और यह सीखना चाहिए कि सच्चे साधक कैसे होते हैं।

साथ ही, अपने आप में बहुत तल्लीन रहने के कारण हम इतने ज्यादा उत्सुक होते हैं कि हम अपने शिक्षक की बताई हुई किसी भी चीज़ को करने के लिए तत्पर रहते हैं। हमें लगता है: “बस मुझे बता दीजिए कि मुझे कौन से जादुई शब्दों का उच्चार करना है या कौन सी साधना करनी है, और मैं उसे करने के लिए तैयार हूँ।“ इस तरह की भावना के साथ हम 100,000 बार साष्टांग प्रणाम कर लेते हैं या वज्रसत्व मंत्र का जाप कर लेते हैं, और फिर जब इसके परिणामस्वरूप कोई चमत्कार नहीं होता है तो हम गहरे अवसाद में चले जाते हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए हमें विचार करना चाहिए कि किसी परिणाम के उत्पन्न होने में बहुत सारे कारणों का योगदान होता है।

यह भी हो सकता है कि हम दिए जाने वाले हर अभिषेक को प्राप्त करने के लिए दौड़भाग करने लगें, क्योंकि एक आभासिक तौर पर वास्तव में अस्तित्वमान “मैं” के बारे में अत्यधिक चिंतित होने के कारण हम कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते हैं। हमारी यह भागदौड़ अपने समूह में स्वीकार्यता पाने के लिए भी हो सकती है, या विदेशी और असाधारण चीज़ों के प्रति आकर्षण के कारण भी हो सकती है। लेकिन इसके पीछे जो भी अनुचित कारण हो, हमें यह याद रखना चाहिए कि किसी देवता से सम्बंधित तांत्रिक अभिषेक उन्हीं लोगों के लिए होता है जो आधारभूत सूत्र साधनाओं में स्थिर आधार के साथ अच्छी तरह तैयार हों, जो विशेष तौर पर उस बुद्ध-रूप की साधना करना चाहते हों, और जिनके पास उस साधना को करने के लिए पर्याप्त समय हो। हमें दैनिक साधना के लिए अपने पास उपलब्ध समय के बारे में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। जो लोग हर शिक्षक के पास जा-जा कर भ्रमित हो जाते हैं, या जो यह विचारे बिना ही व्रत ले लेते हैं कि वे दरअसल उनका पालन कर पाएंगे या नहीं, ऐसे लोगों के लिए भी यही सलाह दी जाती है।

विदेशी और असाधारण चीज़ों के प्रति आकर्षण

हो सकता है कि हम विदेशी और असाधारण चीज़ों के प्रति आकर्षण के कारण ढेरों धर्म साधना सम्बंधी उपकरण, थांका चित्र आदि जमा कर लें और अपने घर में एक ध्यानसाधना कक्ष सजा लें जैसे कोई हॉलीवुड या डिज़्नीलैंड का दृश्य हो। उसके बाद हम हर दिन वज्र, घंटियों, ढोलों, मक्खन के दीपों, और धूप-सुगंध की सहायता से पूजा करने का दिखावा करने लगते हैं। अहम के इस स्फीत स्वरूप से बचने के लिए हमें याद रखना चाहिए कि धर्म की साधना का वास्तविक लक्ष्य असाधारण चीज़ों की नुमाइश करना नहीं होता है, बल्कि अपने चित्त की दशा को बदलना होता है।

अपस्फीत अहम के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याएं

हम पारम्परिक “मैं” के सुस्थापित भाव के अभाव के कारण उत्पन्न अपस्फीत अहम के प्रभाव के कारण भी धर्म से जुड़ सकते हैं। “मैं” के भाव के अपुष्ट होने की स्थिति में हम किसी ऐसे करिश्माई मार्गदर्शक के प्रभाव में आकर बौद्ध सम्प्रदायों की ओर आकर्षित हो सकते हैं जो यह दावा करता हो कि:

  • वह जिस गुरु परम्परा की शिक्षा देता है और उस परम्परा का संस्थापक गुरु ही सर्वश्रेष्ठ हैं, और दूसरी सभी आध्यात्मिक पद्धतियाँ किसी काम की नहीं हैं,
  • गुरु के रूप में वही सर्वश्रेष्ठ है, और बाकी सभी बेकार हैं,
  • यदि हम अपनी खराब, त्रुटिपूर्ण विचारपद्धति का त्याग कर दें और अपने शिक्षक के रूप में उसकी आज्ञा का पालन करें और उसके द्वारा बताई गई धर्म की व्याख्या, जो कभी गलत नहीं हो सकती, को मानें तो हम सबल और सुदृढ़ हो जाएंगे, और
  • यदि हम इस मजबूत आध्यात्मिक रक्षक का पालन करें तो यह असाधारण व्यक्ति अपने संप्रदाय के सभी शत्रुओं का नाश कर देगा, क्योंकि दूसरी सभी परम्पराएं और दूसरे सभी शिक्षक शत्रु हैं।

ऐसे शिक्षक अपेक्षा करते हैं कि उनके प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखा जाए और वे नरक का भय दिखाते हैं कि यदि हमने उनकी आज्ञाओं का पालन नहीं किया तो हम नरक में जा गिरेंगे। ऐसे शिक्षकों की ओर आकृष्ट होने वाले शिष्य आम तौर पर कमज़ोर अहम वाले होते हैं, आत्वविश्वास से रहित होते हैं, और वे संख्याबल हासिल होने और अपने शिक्षक, शिक्षाओं, गुरु परम्परा और संस्थापक गुरु, और रक्षक से शक्ति प्राप्त होने के दावे के कारण आकर्षिक होते हैं। ऐसे शिष्य पूरे समूह को ही अपने अहम की पहचान मान लेते हैं।

यह स्थिति धार्मिक कट्टरता का कारण बनती है जो भय, स्वयं को अच्छा बनाने और बुरा न बनने की इच्छा, दूसरों को खुश करके स्वीकार्यता प्राप्त करने और अपने शिक्षक और समूह का प्रेम हासिल करने, और पूरी तरह ठीक ढंग से साधना न कर पाने की स्थिति में होने वाले अपराध बोध से उत्पन्न होती है। यह सब वैयक्तिक पारम्परिक “मैं” का भाव न होने या दुर्बल भाव होने और “सामूहिक मैं” के भाव से चिपके रहने की प्रवृत्ति के कारण होता है। एक प्रकार से इसे “आध्यात्मिक फासीवाद” कहा जा सकता है। हमारे शिक्षक के कपटी होने या न होने, और हमारे किसी धर्म सम्प्रदाय से जुड़े होने या न होने की स्थिति में भी ऐसा हो सकता है।

इस स्थिति को दर्शाने वाले कई लक्षण होते हैं। उदाहरण के लिए, हम अड़ियल रवैया अपनाते हैं और अपनी साधना में बदलाव के लिए तैयार नहीं होते हैं। या ऐसा इसलिए हो सकता है कि हमने अपनी दैनिक साधना का समय बहुत अधिक बढ़ा लिया हो जिसके कारण वह बोझ बन गई हो और उसमें कोई आनन्द न रहा हो। हमें याद रखना चाहिए कि तप का आनन्द तभी तक रहता है जब हम यह समझ सकें कि हमें कब विराम लेकर विश्राम करना चाहिए – और साथ ही जब हमें ऐसा करने पर अपराध बोध न हो। यदि हम बहुत ज़्यादा परिश्रम करते हैं तो वह अवस्था उत्पन्न होती है जिसे तिब्बती लोग “लंग” (शरीर में उत्पन्न होने वाला कुंठित ऊर्जा का विकार) कहते हैं और यह प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली अवस्था होती है। एक और लक्षण यह है कि हम साधना की विभिन्न विधियों या शैलियों के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं। इससे बचने के लिए हमें यह समझना चाहिए कि बुद्ध ने अलग-अलग लोगों की आवश्यकता के अनुरूप कुशल उपायों का उपयोग करते हुए साधना की कई अलग-अलग शैलियों की शिक्षा दी थी। यदि हम उन्हें नकारते हैं या अस्वीकार करते हैं तो हम धर्म का त्याग करते हैं।

अहम को धर्म की साधना से अधिक उदार ढंग से मिलाने के उदाहरण

हो सकता है कि हम ऊपर बताए गए लक्षणों के जितना अधिक गम्भीर रूप से अशांत न हुए हों, लेकिन फिर भी हो सकता है कि हममें से बहुत से लोग अपेक्षाकृत अधिक उदार ढंग से अहम को धर्म की साधना के साथ मिलाते हों। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हम “पुण्य कमाने” के लिए इस प्रकार प्रयास करते हों जैसे हम दूसरे धर्म साधकों के साथ मुकाबला कर रहे हों और मुकाबले को जीतना चाहते हों। या हो सकता है कि हम “पुण्य संचित” करके मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति की कीमत चुका रहे हों, या कठिन समय में अपने आप को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे हों जैसे कोई गिलहरी सर्दियाँ आने से पहले अखरोट आदि जमा करके रखती है।

दूसरी ओर, यह भी हो सकता है कि हम इस डर के कारण धर्म के साथ बहुत अधिक गहराई से न जुड़ना चाहते हों क्योंकि तब हमें अपनी बहुत सी सामान्य आदतों को छोड़ना पड़ सकता है – ये आदतें हितकारी अहम से सम्बंधित हो सकती हैं या फिर अहितकारी अहम से भी जुड़ी हो सकती हैं। इसलिए हम व्रत धारण करने या अभिषेक प्राप्त करने से डरे हुए हो सकते हैं। इस स्थिति का सामना करने के लिए हमें सविवेक बोध विकसित करना चाहिए ताकि हम भेद कर सकें कि हमारे कौन-कौन से क्रियाकलाप और रुचियाँ हितकर और उपयोगी हैं, और कौन-कौन से क्रियाकलाप अहितकर और नुकसानदेह हैं।

इसके अलावा हम धर्म के प्रति बौद्धिक, भावनात्मक या भक्ति सम्बंधी दृष्टिकोणों को लेकर भी मानसिक अवरोधों से ग्रसित हो सकते हैं। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब हम अपने आपको इनमें से किसी एक या अधिक दृष्टिकोणों के साथ अनन्य रूप से जोड़ लेते हैं, या जब हम मान लेते हैं कि हमारा इनमें से कोई एक या उससे अधिक प्रकार का दृष्टिकोण नहीं हो सकता है। इस समस्या से निपटने के लिए हमें इन तीनों दृष्टिकोणों से होने वाले लाभों को समझना होगा और अधिक से अधिक संतुलित धर्म साधना का अभ्यास विकसित करना होगा।

कुछ अन्य प्रकार की समस्याएं इसलिए उत्पन्न हो सकती हैं क्योंकि हम धर्म को पर्याप्त प्राथमिकता नहीं देते हैं। इसके कारण हम प्रतिदिन अभ्यास साधना नहीं करते हैं या फिर अपनी दैनिक अभ्यास साधना और प्रतिबद्धताओं को गम्भीरता से नहीं लेते हैं। यदि हमारा मन न हो तो हम साधना करने में नागा कर देते हैं, और जब हमारी इच्छा न हो, या उसी समय किसी का जन्मदिन मनाने के लिए जाना हो या कोई अच्छी फिल्म दिखाई जा रही हो या कोई संगीत कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा हो तो हम अपनी कक्षा से अनुपस्थित हो जाते हैं। ऐसा इस कारण से हो सकता है क्योंकि हमें लगता है कि साधना करने या कक्षा में जाने का मतलब अपने जीवन के किसी महत्वपूर्ण हिस्से को नकारना है। इसे नियंत्रित करने के लिए हमें यह भेद करना चाहिए कि जीवन में कौन सी बातें महत्वपूर्ण हैं और कौन सी ऐसी चीज़ें हैं जो इतनी अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं, और यह कि किन स्थितियों में हम सचमुच ध्यानसाधना नहीं कर सकते हैं या कक्षा में नहीं जा सकते हैं और कब हम केवल आलस्य और आसक्ति के कारण न जाने के बहाने बना रहे होते हैं। हमें अपने बहुमूल्य मानव जीवन के महत्व को दोहराना चाहिए और मृत्यु तथा नश्वरता के बारे में विचार करना चाहिए।

यदि हम इन विभिन्न तरीकों का उपयोग करें तो हम अपनी धर्म साधना के साथ अहम को मिलाने की प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न होने वाली कुछ समस्याओं से बच सकते हैं।

सारांश

अपनी धर्म साधना के मार्ग में आने वाली समस्याओं से बचने के लिए हमें आत्मनिरीक्षण करके पता लगाना चाहिए कि हम धर्म के प्रति हितकर दृष्टिकोण रखते हैं या हमारा दृष्टिकोण अहितकर है। यदि हमारा दृष्टिकोण अहितकर है, और जब हम उसके स्वरूप को पहचान लेते हैं तो हम उसे निष्प्रभावी बनाने वाले विचारों की सहायता से बौद्ध मार्ग में हमारी प्रगति को बाधित करने वाली बहुत सी बाधाओं से बच सकते हैं।

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