अस्तित्व एवं कर्म के विभिन्न लोक

मानव या पशु से इतर अन्य जीव रूपों में पुनर्जन्म का बोध होना

एक विषय जो प्रायः छूट जाता है वह है तीन निचले लोकों के दुःखों का, जिसे मैं "तीन अधम लोक" कहना पसंद करता हूँ। तिब्बती में इन्हें "तीन नारकीय लोक" कहते हैं, परन्तु "नारकीय" कुछ भारी लगता है, इसलिए मैं उन्हें अधम कहता हूँ। ऐसा कोई शब्द नहीं है जो इन क्षेत्रों का "निचला" के रूप में उल्लेख करता हो।

कुछ लोग अधम लोकों के ही नहीं अपितु वास्तव में सभी छहों लोकों (षड्गतियों) के प्रति सरलीकृत धर्म के दृष्टिकोण से अपनी-अपनी अवधारणाएँ बनाना पसंद करते हैं। हम इस बात को स्वीकार तो कर लेते हैं कि मनुष्य और पशु अस्तित्वमान हैं, और कुछ लोग यह भी स्वीकार कर लेते हैं कि भूत और प्रेत भी विद्यमान हैं। परन्तु अन्य जीव रूपों को मानना कुछ जटिल-सा है। सरलीकृत धर्म कहता है कि ये सभी लोक वास्तव में मनुष्यों की मनोवैज्ञानिक या मानसिक अवस्थाओं का उल्लेख करते हैं। शिक्षाओं के एक आयाम के अनुसार किसी भी सत्त्व का इनमें से किसी एक लोक में पुनर्जन्म होने के बाद यदि उसका अगला पुनर्जन्म मानव देह में होता है तो पिछले पुनर्जन्म के अनुभवों के कुछ अवशेष उस मानव पुनर्जन्म के अनुभवों में रह जाते हैं। तो वास्तव में मानव जन्म में इसके कुछ समरूप अनुभव होते हैं, परन्तु यह सम्पूर्ण धर्म की षड्गति की अवधारणा नहीं है।

सम्पूर्ण धर्म में सब कुछ उस अनादि-अनंत मानसिक समतान पर आधारित होता है। दृश्य, ध्वनि, भौतिक संवेदना, सुख-दु:ख इत्यादि के अनुभवों की जाँच करने पर हमें यह पता चलता है कि हमारे अनुभव, अभिरुचि, विरूचि, ध्यान तथा उसके अभाव, इत्यादि को प्रभावित करने और विशिष्ट रूप प्रदान करने के कई अलग-अलग मानदंड हैं। और प्रत्येक मानदंड का एक सम्पूर्ण पैमाना है जो पूर्ण अभिरूचि से पूर्ण विरूचि तक, पूर्ण ध्यान से पूर्ण अनवधान तक,  पूर्ण क्रोध से क्रोध के पूर्ण लोप, इत्यादि तक फैला हुआ है। हम सदा इसी तरह के पैमाने पर ही सबकुछ अनुभव करते हैं।

उदाहरण के लिए दृष्टि को ही देख लीजिए, जहाँ प्रकाश का पूरा वर्णक्रम है पर हमारी आँखें उसका केवल एक छोटा-सा अंश ही ग्रहण कर पाती हैं। हम अपनी कोरी आँखों से अवरक्त या पराबैंगनी प्रकाश नहीं देख पाते हैं, अपितु उन्हें देखने के लिए यंत्रसामग्री का उपयोग करना पड़ता है। परन्तु उल्लू को ही ले लीजिए, अपनी यंत्रसामग्री से वह उस अँधेरे में भी वस्तुओं को देख सकता है जहाँ हम नहीं देख पाते।

कुत्ते अपने कानों की यंत्रसामग्री से मानव कान की तुलना में अधिक उच्च आवर्तन संख्या की ध्वनि सुन सकते हैं। कुत्ते की नाक हमारी मानव नाक की तुलना में गंध को जल्दी पहचान लेती है। ये सारी बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। मानव शरीर की ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषयों के सम्पूर्ण सातत्य को आंशिक रूप से ही ग्रहण पर पाती हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि उस सातत्य का मनुष्य द्वारा अग्राह्य भाग किसी और के लिए भी अग्राह्य हो। ठीक वैसे ही जैसे हम पराबैंगनी और अवरक्त नहीं देख सकते हैं, इसका यह अर्थ नहीं होता कि वे विद्यमान नहीं हैं। उनके लिए बस अलग यंत्रसामग्री की आवश्यकता होती है।

हमारी मानव सीमाओं से परे दुःख और सुख के स्तर

हमारा व्यक्तिगत मानसिक समतान किसी विशेष प्रकार की यंत्रसामग्री तक सीमित नहीं है जो एक विशेष प्रकार के शरीर से युक्त हो, और हमारी मानसिक गतिविधि उस वर्णक्रम के किसी भी भाग के किसी भी स्तर के बोध को ग्रहण करने में सक्षम है। यदि यह बात रूप, शब्द, गंध इत्यादि के सातत्यों के लिए सत्य है तो क्या यह सुख दुःख आदि आभ्यंतर विषयों के मामले में भी सत्य नहीं हो सकता? यदि हम कायिक अनुभूतियों की बात करें तो इस मानव शरीर में जब दुःख असहनीय हो जाता है तो हम स्वतः ही मूर्छित हो जाते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि बृहत्तर मात्रा में दुःख अस्तित्व में नहीं है; बात केवल इतनी-सी है कि हमारी इन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण करने की शक्ति नहीं रखतीं। उसका सुरक्षा तंत्र उसे निष्क्रिय कर देता है।

अब हम वर्णक्रम के दूसरे छोर, अर्थात आनंद, की भी बात करते हैं। यदि हम इसका निष्पक्ष रूप से विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि हमारे शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धि की यंत्रसामग्री में एक ऐसा तंत्र है जो हमारे आनंद को एक सीमा के बाद रोक देता है या नष्ट कर देता है। आप यौन सुख को ही ले लीजिए, जब कामोत्तेजना एक निश्चित स्तर तक पहुँच जाती है तो उसे रति-निष्पत्ति से समाप्त कर दिया जाता है। खुजली, जो वेदनादायक नहीं है अपितु उससे अत्यधिक आनंद मिलता है, उसमें भी यही दशा होती है। यह इतना सुखद होता है कि हमें इसे खुजाकर नष्ट करना पड़ता है।

यह कोई चुटकुला नहीं है! कई वर्षों तक एक पुरानी खाज थी जिससे मेरे सिर और माथे की त्वचा में बहुत अधिक खुजली होती थी। डॉक्टर इसके कारण का पता ही नहीं लगा पा रहे थे। तो इसे सहर्ष भोगने का एक ही मार्ग था कि उसे एक सुखद अनुभव मानकर आराम से उसका आनंद लेता रहूँ। यद्यपि इसके लिए अत्यधिक मात्रा की सचेतनता और एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती थी, परन्तु जब मैं उस अवस्था को प्राप्त कर लेता तो मुझे उस खुजली से परेशानी नहीं होती थी। परन्तु प्रायः जब कोई मच्छर काट लेता है तो वह असहनीय हो जाता है और हमें उस अनुभूति को तुरंत मिटाने की तीव्र इच्छा होती है। हमारा शरीर उस अनुभूति को स्वतः ही समाप्त करने का प्रयास करता है।

इसी विश्लेषण क्रम को आगे बढ़ाते हुए हम यह प्रश्न कर सकते हैं कि हमारे शरीर में ऐसी कोई यंत्रसामग्री क्यों नहीं हो सकती जिससे हम सुख या दुःख के सातत्य पर और आगे तक बढ़कर अनुभव कर सकें। क्यों नहीं? ऐसा नहीं होने का कोई तार्किक कारण तो है नहीं। सुख और दु:ख के मानसिक कारक, जो कायिक सुख-दुःख से भिन्न हैं, के सातत्य पर भी यही बात लागू होती है। सुख या दु:ख किसी भी प्रकार के शारीरिक या मानसिक अनुभव से संलग्न हो सकता है। एक ज़ोरदार मालिश की पीड़ा को हम सहर्ष सहन कर लेते हैं क्योंकि वह हमारी मांसपेशियों को आराम पहुँचाती है। पीड़ा होने पर भी हम सुखी हैं क्योंकि, ज़ाहिर है कि बिना कष्ट किए फल नहीं मिलता! मानसिक सुख-दुःख का प्रतिमान शारीरिक सुख-दुःख की तुलना में बिल्कुल भिन्न है, यद्यपि दोनों "सुख-दुःख" ही कहलाते हैं। क्यों? अब देखिए: यदि हम अत्यधिक दुःखी होते हैं, तो अवसादपूर्ण हो जाते हैं। और जब हम अत्यधिक अवसादपूर्ण हो जाते हैं तो क्या करते हैं? हम आत्महत्या कर लेते हैं। अर्थात, हमारे शरीर की यंत्रसामग्री की दुःख वहन करने की एक सीमा होती है। तो प्रश्न यह है कि इस सातत्य पर मानव सहनशक्ति के सीमित विस्तार से अधिक सुख और दुःख हम क्यों नहीं वहन कर पाते?

यदि यह सच है कि सातत्य की अपर सीमाओं को मानसिक गतिविधि द्वारा ग्रहण किया जा सकता है तो उसके लिए उपयुक्त शारीरिक यंत्रसामग्री भी विद्यमान होनी चाहिए ताकि हम उन्हें वास्तव में ग्रहण कर सकें। हमारे मानसिक समतानों की ऐसी क्षमता है जिससे वह उस सातत्य के किसी भी भाग का अनुभव कर सकें तथा उन्हें ग्रहण करने हेतु उपयुक्त शरीर की इन्द्रियों को उत्पन्न भी कर सकें। जैसा कि मैंने पहले कहा था, केवल इसलिए यह कि हमारा मानव शरीर अत्यधिक दुःख या सुख का अनुभव करने में सक्षम नहीं है, यह बात सिद्ध नहीं होती कि उसके लिए उपयुक्त यंत्रसामग्री विद्यमान नहीं हैं या नहीं हो सकतीं। क्या ये सभी लोक और उनके वातावरण यथार्थ में विद्यमान हैं? अवश्य – उनका अस्तित्व उतना ही वास्तविक है जितना कि हमारे मनुष्य लोक का। तो इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि बात इतनी-सी है कि हम उन्हें केवल परख नहीं पा रहे हैं, परन्तु उससे क्या सिद्ध होता है?

विभिन्न लोकों में पुनर्जन्म को गंभीरता से लेना

मैंने जिस प्रकार इस विषय को समझा है उसी के अनुसार मैं इसकी व्याख्या कर रहा हूँ। मैंने किसी और को इस प्रकार व्याख्या करते हुए नहीं सुना है, परन्तु मुझे यह व्याख्या पूर्ण रूप से तर्कसंगत लगी और अन्य लोकों को गम्भीरतापूर्वक लेने में मुझे सहायता भी मिली। यह इसलिए तर्कसम्मत लग रही है क्योंकि मैं मानसिक कार्यकलाप के मानसिक समतान एवं उसके रूप, शब्द, कायिक सुख-दुःख, मानसिक सुख-दुःख, इत्यादि के समग्र सातत्य को भी ग्रहण कर पा रहा हूँ। तो इसका तर्कसंगत परिणाम यह हुआ कि हमारे मानसिक समतान को उपयुक्त शारीरिक यंत्रसामग्री की आवश्यकता है जो अनुभवों के इन सातत्यों की उन चरम अनुभूतियों को भी ग्रहण और सहन करने में सक्षम हो। इस बोध के साथ यह बात समझ में आ रही है कि षड्धातुओं की ध्यान-साधना केवल "कल्पना" का उपयोग करना नहीं है ताकि हमें चरम पीड़ा के अनुभव का मानस दर्शन हो सके। हमें उनके अस्तित्व और अनुभव की संभावना को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।

मुझे आशा है कि विभिन्न लोकों की कल्पना करने का यह एक उपयोगी उपाय है। उनके अस्तित्व को समझना और स्वीकार करना पूर्ण शरणागति का ही परिणाम है। यदि हम पूर्ण रूप से मान चुके हैं कि बुद्ध भ्रमित नहीं थे और उन्होंने जो कुछ भी कहा वह सार्थक है और दूसरों को दु:ख से उबरने में सहायता करने के लिए है, न कि किसी मूर्ख का प्रलाप या निरर्थक बातें, तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमें उनकी शिक्षाओं में जो कुछ भी प्राप्त होता है उसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। यदि हमें कुछ समझ में नहीं आता है तो उसका तात्पर्य पता लगाने की चेष्टा करनी चाहिए। ध्यान दें कि जब बुद्ध इन विभिन्न लोकों के बारे में बात कर रहे थे तो वे केवल प्रतीकात्मक रूप से नहीं बोल रहे थे। सम्पूर्ण धर्म के प्रारंभिक विषय-क्षेत्र के संदर्भ में हमें चाहिए कि उन्हें पूर्ण गंभीरता से ग्रहण किया जाए, क्योंकि हम उनमें पुनर्जन्म का फिर से अनुभव नहीं करना चाहते हैं। तो बात यह है कि बहुत कुछ निर्भर करता है वैयक्तिक मानसिक क्रियाकलापों के सातत्य के हमारे बोध पर। पर इस बात को स्वीकार करना उतना आसान नहीं है, मैं जानता हूँ।

श्रेष्ठतर पुनर्जन्म के कारणों का संचयन

यहाँ हम कर्म की चर्चा आरम्भ करते हैं, भले ही इस समय हम इसकी अनेकानेक जटिलताओं में न भी पड़ें। इसके बजाय हम इसके व्यावहारिक स्तर पर विचार करेंगे। मैं अपनेआप को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करूँगा क्योंकि मैंने पहले भी यह बताया है कि मैं इस सामग्री से किस प्रकार जुड़ा हुआ हूँ, और बड़ी बात यह है कि प्रारंभिक विषय-क्षेत्र बड़ा दुष्कर है! मैं धर्म सामग्री की एक विशाल वेबसाइट को बनाने में लगा हुआ हूँ और इसके लिए मेरी आंशिक रूप से प्रेरणा यह है कि उसे पढ़ने वाले लाभान्वित हो सकें। परन्तु यहाँ मुझे इस बात को भी स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मेरी प्रेरणा का एक और अंश मेरा अपना स्वार्थ भी है कि यदि मैं अभी अपनी पूरी ऊर्जा का इसमें निवेश कर देता हूँ तो मेरे भावी जन्मों में मैं बाल-अवस्था से ही इसकी ओर आकृष्ट हो जाऊँ, बशर्ते मुझे दोबारा मानव देह मिलने का सौभाग्य प्राप्त हो। इसलिए मैं कुछ ऐसा करके अपने भावी जन्मों की तैयारी करने का प्रयास कर रहा हूँ जो मुझे अपनी आरम्भिक अवस्था में ही धर्म की ओर ले जाने में सहायता करेगा।

संभवतः जब मुझे अगला बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म प्राप्त हो तो मैं धर्म के साथ शीघ्र ही जुड़ पाऊँ, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मैं कारणों को संचित कर रहा हूँ, परन्तु क्या मैं वास्तव में बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म प्राप्त करने के कारणों को संचित कर रहा हूँ? या फिर मैं अपनेआप को धोखा दे रहा हूँ? क्या मैं सरलीकृत धर्म के केवल प्रारंभिक विषय-क्षेत्र की अवधारणाओं पर ही आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा हूँ? हमें तीनों विषय-क्षेत्रों में सदा अपनेआप को परखते रहना होगा। हम कुछ अंशों को छोड़ तो नहीं रहे? इनमें से किसी भी विषय-क्षेत्र का व्यक्ति होने के लिए आवश्यक है कि वह विषय-क्षेत्र अपने जीवन के प्रति हमारे सम्पूर्ण दृष्टिकोण को प्रभावित करे।

श्रेष्ठतर पुनर्जन्म के कारण: नैतिक आत्म-अनुशासन

शिक्षाएँ अत्यंत स्पष्ट रूप से यह व्यक्त करती हैं कि बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म के कारण क्या-क्या होते हैं। इनमें प्रमुख कारण है नैतिक आत्म-अनुशासन, जो हमें विनाशकारी रूप से काम करने से बचाता है। इसका तात्पर्य रचनात्मक क्रियाकलापों, जैसे ध्यान-साधना, दूसरों की सहायता करना, इत्यादि में संलग्न होना भी सम्मिलित है। यहाँ हम विशेष रूप से विनाशकारी कृत्यों को न करने के बारे में बात करेंगे, क्योंकि हमारे पास दस विनाशकारी कृत्यों की सूची है। ये सूचीबद्ध कृत्य वे हैं जो सबसे महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु स्पष्टतः इनके अतिरिक्त और भी विनाशकारी कृत्य हैं:

  • दूसरों की जान लेना 
  • जो वस्तु हमें न दी गई हो उसे हड़प लेना
  • अनुपयुक्त यौन व्यवहार करना
  • मिथ्याभाषण करना
  • फूट डालने वाली बातें करना
  • कटुवचन बोलना
  • निरर्थक बकवाद करना
  • लोलुपतापूर्ण विचार करना
  • वैमनस्यपूर्ण विचार करना
  • विरोध के भाव के कारण विकृत विचार करना

हमें इन कृत्यों से कितनी गंभीरता से बचना चाहिए? हम कट्टर बनने और इतना वज्र बनने की बात नहीं कर रहे हैं कि हम कभी भी कुछ भी विनाशकारी कार्य नहीं करते हैं और यह मान लें कि हमें तो संत बनना है। हम अभी उस स्तर पर नहीं पहुँचे। परन्तु हमें अपनी कृत्यों पर ध्यान देने की क्षमता को विकसित करने की आवश्यकता है, ताकि जैसे ही हम विनाशकारी कार्य करना आरम्भ करें वैसे ही हम सतर्क हो जाएँ और उसकी हानि को पहचान लें, अर्थात् यह कृत्य "मैं" को मानसिक या शारीरिक दुःख पहुँचाएगा। किसी और पर इसका क्या असर होगा इसका कोई पूरा भरोसा नहीं दिला सकता परन्तु इस बात को तो पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि उस कृत्य के कारण भविष्य में हमें दुःख ही होगा। तो हमें विनाशकारी कार्य करने से इसलिए बचना है क्योंकि हम इस दुःख का अनुभव नहीं करना चाहते।

वह क्या है जो हमें इस संयम को बरतने से रोकता है? मूलतः बात यह है कि जब तक हम एक गहन स्तर पर यह नहीं मान लेते कि मानसिक और शारीरिक दुःख हमारे विनाशकारी व्यवहार का परिणाम है, और यह भी कि वर्तमान काल में हम जिस दुःख का अनुभव कर रहे हैं वह हमारे पिछले विनाशकारी व्यवहार का परिणाम है, तब तक हम परवाह नहीं करेंगे। परन्तु, यदि हम यह नहीं चाहते कि हम इन कठिनाइयों का सामना करते रहें, तो हम अपनेआप को भविष्य में किसी भी प्रकार के विनाशकारी व्यवहार करने से रोकेंगे। इसके लिए हमें विनाशकारी व्यवहार और दुःख, तथा रचनात्मक व्यवहार और सुख के बीच के हेतुक संबंध को मानना होगा। यह कोई आसान काम नहीं है, पर पूर्ण रूप से आरम्भिक विषय-क्षेत्र का व्यक्ति बनने के लिए यह आत्म-विश्वास एक प्रमुख कारक है। और फिर, चाहे हम इस बात को मान भी लें, पर आलस्य जैसे अन्य कारक तो निश्चित रूप से विद्यमान हैं ही जो हमें इस संयम को बरतने से रोकते हैं। परन्तु यह तो अलग बात है।

कर्म के शिक्षण की वैधता

ग्रंथों के अनुसार कर्म के बारे में दृढ़ विश्वास और वैध अनुमान-सिद्ध बोध प्राप्त करने का मार्ग है आधिकारिक सूत्रों पर विश्वास करना। दूसरे शब्दों में, यदि हम एकाग्रता और शून्यता के बोध को विकसित करने की बुद्ध की आज्ञा का पालन करते हैं तो उससे हमारे सभी क्लेश ही समाप्त हो जाएँगे। अपने वैयक्तिक अनुभव के द्वारा भी हम यह देख पाते हैं कि यह व्यावहारिक है। अपने अनुभवों से ही यह बोध प्राप्त हो जाता है कि ये शिक्षाएँ क्लेशों को समाप्त करती हैं। यदि बुद्ध ने जो शिक्षा दी है वह सत्य है, और बुद्ध की ज्ञानोदय प्राप्ति एवं हमें शिक्षा देने का कारण उनकी करुणा एवं परहित की इच्छा थी, तो ऐसा कोई भी कारण नहीं हो सकता कि वे कर्म के बारे में हमसे झूठ बोलेंगे। इसलिए हम बुद्ध को प्रमाण पुरुष (ज्ञान का वैध स्रोत) मानते हैं, और इस प्रकार हम यह अनुमान लगाते हैं कि वे कर्म के भी प्रमाण पुरुष हैं।

मैं आपके बारे में तो नहीं कह सकता, पर यदि मैं इसका तर्क समझ भी लूँ तो भी इस समय अत्यंत गहन स्तर पर मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। मैं इस बात को कुछ बेहतर समझना चाहता हूँ ताकि इसे ग्रन्थ में दी गई पारंपरिक व्याख्या के अनुसार मान सकूँ। यह तो स्पष्ट है कि केवल अनुमान आधारित तर्क से हम यह सिद्ध नहीं कर सकते हैं कि दुःख विनाशकारी व्यवहार का परिणाम है। ग्रंथों में यह बात विशेष रूप से कही गई है। पर चूँकि कोरे अनुभव से हम कर्म के विधान को नहीं समझ सकते, हमें गहन खोज करनी होगी ताकि हम विनाशकारी व्यवहार और दुःख के बीच के सम्बन्ध को समझ सकें। हम इन दोनों को किस प्रकार जोड़ सकते हैं? परम पावन दलाई लामा सदा यह कहते हैं कि हमें इस विषय से वैज्ञानिकों की तरह निपटना होगा।

विनाशकारी व्यवहार और दुःख के बीच हेतुक संबंध

बौद्ध-धर्म में अभिधर्म (ज्ञान के विशेष विषय) शिक्षाएँ हैं जिन्हें भारतीय बौद्ध-धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में अलग-अलग प्रकार से प्रस्तुत किया गया है। हीनयान परंपरा के वैभाषिक सम्प्रदाय का वसुबंधु द्वारा रचित एक ग्रन्थ है। फिर महायान परंपरा में असंग की एक व्याख्या है, और साथ ही अनुरुद्ध की एक थेरवादी व्याख्या भी है जो हीनयान परंपरा से सम्बंधित है। अब हम इसकी जाँच करते हैं कि इन शाब्दिक परंपराओं में किस प्रकार विनाशकारी व्यवहार को परिभाषित किया गया है।

हमारा दृष्टिकोण यह होगा कि चूँकि प्रत्येक विश्लेषण इस विषय पर प्रकाश डालता है, इसलिए हम इस बारे में कट्टर नहीं होंगे। वे परस्पर-विरोधी नहीं हैं। प्रत्येक व्याख्या में उन चित्त संस्कारों (मानसिक कारकों) की सूची है जो सदा विनाशकारी व्यवहार से युक्त होते हैं। इन चित्त संस्कारों को परखने पर हमें पता चल जाएगा कि इनसे सम्बद्ध मनःस्थिति सुख की है या दु:ख की।

चित्त संस्कार (मानसिक कारक) जो विनाशकारी व्यवहार के संगी होते हैं

अब हम उन विनाशकारी व्यवहार से संलग्न चित्त संस्कारों की सूची की कुछ मुख्य विशेषताओं को संक्षिप्त रूप से देखते हैं जो इस विषय को अधिक स्पष्ट कर देगा। हम केवल विनाशकारी कृत्यों की ही नहीं अपितु उनसे संलग्न मनःस्थिति के बारे में भी बात करेंगे। दूसरे शब्दों में, हम यह देखेंगे कि वह क्या है जो किसी भी कृत्य को विनाशकारी बनाता है। हो सकता है कि एक विशेष कृत्य अपनेआप में विनाशकारी हो, परन्तु वह स्वतः दुःख उत्पन्न नहीं करता। अनेक चित्त संस्कार भी इससे सम्बद्ध होते हैं।

कुछ संलग्न चित्त संस्कार इस प्रकार हैं:

  • मूल्यों के प्रति उपेक्षा भाव - सद्गुणों या उन्हें धारण करने वाले लोगों के प्रति सम्मान की कमी। हम इस बात को आसानी से  समझ सकते हैं, क्योंकि हम सभी ने ऐसे लोगों को देखा है जिनके मन में नियम-क़ानून या किसी भी प्रकार की सकारात्मकता के प्रति कोई सम्मान नहीं होता, या फिर उन लोगों के प्रति जो अच्छा काम करते हैं; वे स्पष्टतः इन बातों को कोई महत्त्व ही नहीं देते।
  • नैतिक संकोच - ढिठाई या खुल्लम-खुल्ला नकारात्मकता प्रकट करने में संयम की कमी। मूलतः इसका अर्थ है "मैं जो चाहूँ वह करूँ, मुझे किसी की कोई परवाह नहीं।" क्या यह मन की सुखदायी स्थिति है या दु:खदायी? यदि हमारा इस प्रकार का रवैया है तो हम संभवतः बहुत सुखी नहीं हैं।
  • मूढ़ता - इस बात को न जानना या न स्वीकार करना कि विनाशकारी कर्मों से घोर दु:ख और पीड़ा होती है। हमें ऐसा लगता है कि हम जैसा चाहें वैसा विनाशकारी कार्य कर सकते हैं और इसका कोई परिणाम नहीं होगा।
  • आसक्ति या शत्रु-भाव, परन्तु ऐसा नहीं है कि उनका विद्यमान होना अनिवार्य है। हम यह जानते हैं कि जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति अत्यधिक आसक्त होते हैं तो यह कोई अत्यंत सुखदायी चित्तावस्था नहीं होती, और न ही तब जब हम क्रोध या विद्वेष के अधीन होते हैं। "मैं इसके बिना नहीं रह सकता!" और "मैं तुमसे घृणा करता हूँ!" इन दोनों स्थितियों में चित्त की अवस्था अत्यधिक सुखद तो नहीं होती।
  • नैतिक आत्म-गरिमा की भावना न होना - आत्म-प्रतिष्ठा की भावना से रहित होना, और इसके स्थान पर आत्महीनता का अनुभव करना। हम इस तथ्य को समाजशास्त्र में भी पाते हैं। यदि आप किसी से भी यह कहें कि वह निकम्मा है और उसकी आत्म-प्रतिष्ठा और आत्म-सम्मान को विकसित होने ही न दें तो उसे ऐसा लगेगा कि वह आत्मघाती हमलावर ही क्यों न बन जाएँ क्योंकि वह स्वयं को कोई महत्त्व ही नहीं देता। उसे यह विश्वास दिलाया गया है कि उसका कोई मोल नहीं है। उत्पीड़ित लोगों के साथ आप जो सबसे बुरा काम कर सकते हैं वह है उनकी आत्म-गरिमा की भावना को उनसे छीन लेना। यह कल्पना करना अत्यंत कठिन बात नहीं है कि यदि हमारे भीतर आत्म-गौरव की भावना नहीं होगी तो हम अपनेआप को अयोग्य समझने लगते हैं, और यह किसी भी दृष्टिकोण से प्रसन्नचित्त मनोदशा नहीं है।
  • इस बात की परवाह न करना कि हमारे कार्य दूसरों की छवि पर कैसा प्रभाव डालते हैं - हो सकता है कि ऐसा सोचना एशियाई मानसिकता हो कि हमारा दुर्व्यवहार हमारे परिवार, हमारी जाति, हमारे लिंग, हमारे समुदाय इत्यादि की कैसी छवि बनाता है। हम इसकी कोई परवाह ही नहीं करते हैं, और यह मनोदृष्टि विनाशकारी कृत्यों से संलग्न है।
  • व्यग्रता - अनुरुद्ध द्वारा जोड़ा गया एक और कारक, जो सन्तुष्टि और तनावमुक्त स्थिति के ठीक विपरीत है। हमारी चित्तावस्था अस्थिर और असहज है। जब हम विनाशकारी व्यवहार में संलग्न होते हैं तो हम सहज नहीं होते।

यदि हम इन विभिन्न प्रकार के चित्त संस्कारों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं जो विनाशकारी व्यवहार के साथ युक्त हो सकते हैं, तो हम इन चित्त संस्कारों द्वारा अभिव्यक्त विनाशकारी व्यवहार एवं दुःख के बीच के सम्बन्ध को समझ पाएँगे। यद्यपि मैं अभी भी तार्किक दृष्टि से यह अनुमान नहीं लगा पा रहा हूँ कि इसका परिणाम दुःख होता है, इनका संयोजन इस तथ्य को तर्कसंगत बना देता है। तो, इस बात से दृढ़-निश्चय होकर मैं ग्रन्थ में उल्लिखित बात की ओर वापस जाता हूँ कि संबंधों के विषय में बुद्ध प्रमाण पुरुष (ज्ञान के मान्य स्रोत) हैं।

चित्त संस्कार (मानसिक कारक) जो रचनात्मक व्यवहार से युक्त होते हैं

अब हम उन चित्त संस्कारों को देखते हैं जो रचनात्मक व्यवहार से युक्त होते हैं ताकि हम सुख के साथ इनके संबंध को समझ सकें। जब हम तीन अलग-अलग अभिधर्म  स्रोतों की जानकारी को एक साथ रखते हैं तो उसकी सूची उपर्युक्त सूची से लंबी हो जाती है:

  • तथ्यों में विश्वास - यह विश्वास कि सुख विनाशकारी व्यवहार से परहेज़ करने से ही आता है, और यह भी कि दु:ख विनाशकारी व्यवहार और उस ज़िद्दी, कलहप्रिय चित्तावस्था से आता है जिसमें किसी भी बात पर विश्वास नहीं होता चाहे उसे तथ्यों के साथ ही क्यों न प्रस्तुत किया गया हो। जब हमारे सामने कुछ ऐसा प्रस्तुत किया जाता है जो सत्य है तो हम उसे मान लेते हैं।
  • अपने व्यवहार का स्वयं अपने ऊपर और दूसरों के लिए भी क्या परिणाम हो सकते हैं इसकी परवाह करना 
  • स्वस्थचित्तता की भावना - अपनेआप में अच्छा अनुभव करना, ताकि हम दूसरों को दुःखी करने से अपनेआप को रोक सकें, यह एक उदाहरण है। सच तो यह है कि हमारी चित्तावस्था तब सुखमय होती है जब हम आत्मनियंत्रित होते हैं, न कि असंयमित। यह ऐसा है जैसे हमारा पेट भरा हुआ होता है पर फिर भी हम किसी मिठाई के अतिरिक्त टुकड़े को देखकर बेक़ाबू हो जाते हैं और उसे भी खा बैठते हैं। बाद में हम बीमार और दुःखी हो जाते हैं, "मेरा पेट बुरी तरह भर गया है, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा।" परन्तु, यदि हम संयम बनाए रहते और मिठाई के उस अतिरिक्त टुकड़े को न खाते तो हम ठीक-ठाक रहते, “यह हुई न बात! मैंने अपनेआप को नियंत्रित कर लिया, और किसी शूकर की भाँति ठूँसता नहीं गया!"
  • प्रशांत अवस्था - वह अवस्था जो चित्त को चंचलता और नीरसता से मुक्त रखती है। जब हम विनाशकारी कार्य करने और किसी पर चिल्लाने से परहेज़ करते हैं तो हमारा चित्त इधर-उधर नहीं भटकता। यह उतना मंद भी नहीं हो जाता कि हमें यह भी न पता हो कि हम क्या कर रहे हैं। चित्त निर्मल और शांत रहता है, और हम यह भली-भाँति जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं।
  • श्रद्धा और सम्मान की भावना - समादर और श्रद्धा की भावना रखना, उन लोगों के प्रति भी जिनमें सकारात्मक गुण हैं और सामान्यतया स्वयं अपने सकारात्मक गुणों के प्रति भी।
  • नैतिक संकोच - अपने कृत्यों के प्रति सचेत होना, ताकि हम नकारात्मक कार्य करने से बचें।
  • अनासक्ति - अपनी अवांछित सम्मति देने की आतुरता में मूर्खतापूर्ण और निरर्थक बातें कहने, या चिल्लाने या फिर विनाशकारी कृत्यों के प्रति आसक्ति न होना।
  • शत्रु-भाव का अभाव
  • अहिंसा
  • साहसपूर्ण ओज - रचनात्मक रूप से कार्य करने में सबल एवं दृढ़ रहना, जिसका तात्पर्य यह है कि मिठाई के उस अंतिम टुकड़े को न खाने का संकल्प चाहे जितना भी कठिन क्यों न हो, हम डटे रहेंगे कि हम उसे नहीं खाएँगे।

ये सब हमें प्रसन्न चित्तावस्था की एक झलक दिखाते हैं, है न?

अनुरुद्ध कुछ अतिरिक्त चित्त संस्कार भी प्रस्तुत करते हैं:

  • मानसिक संतुलन - भावात्मक परिपक्वता एवं स्थिरता जो हमें राग और द्वेष से मुक्त कराती है।
  • सचेतनता (स्मृति) - वह मानसिक गोंद जो हमें एक निश्चित मनःस्थिति को खोने से बचता है।
  • शांति
  • प्रफुल्लता - धूमिल-चित्तता या निद्रालुता का विलोम।
  • लचीलापन - हठधर्मिता और अहंकार का विलोम, यह अकड़ को दूर करता है। उदाहरण के लिए यह इस प्रकार की सोच को हटाता है, "हो सकता है मेरी बातें आपकी भावनाओं को आहत करें पर मुझे उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मुझे तो यह कहना ही है कि आपका परिधान बहुत भद्दा है।" यह कहने वाले की हठधर्मिता और अक्खड़पन है। लचीलापन इसका विलोम है।
  • सेवा सक्षमता - किसी लाभकारी काम में जुट जाने की योग्यता और तत्परता। यह मानसिक या भावात्मक अवरोध होने का विलोम है। चाहे कुछ भी करना पड़े हम वह सब करने के लिए तैयार हैं, जैसे, "मैं संडास में अपना हाथ डालने के लिए तैयार हूँ, भले ही वह गंदा हो, ताकि उसमें डूब रही मक्खी को बाहर निकाल सकूँ। मुझे इस कार्य के प्रति कोई मानसिक अवरोध नहीं है।" यही है वह सक्षमता जिसकी हम बात कर रहे हैं। जब हमारे भीतर किसी प्रकार का मानसिक या भावात्मक अवरोध नहीं होता तो हमारा चित्त आनंदमय हो जाता है। परन्तु यदि हम किसी प्रकार के अवरोध से ग्रस्त हैं तो हम भयभीत और असुरक्षित अनुभव करते हैं, और यह चित्त की कोई आनंदमय स्थिति नहीं होती। यदि हम सेवा सक्षम हैं तो हम यह सोचेंगे, "संडास का गन्दा होना कौन-सी बड़ी बात है? मैं बाद में अपना हाथ धो भी तो सकता हूँ। इस मक्खी का जीवन उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है।"

मानसिक अवरोध का एक अन्य उदाहरण यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति डूब रहा था और अब हमें उसे मुँह से मुँह लगाकर श्वास देने की आवश्यकता है, परन्तु या तो वह व्यक्ति समलैंगिक है या फिर हमें वह बड़ा ही बदसूरत लगता है, या और कुछ, तो हम उसके लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं। यदि अपने मुँह को उसके मुँह से लगाने के प्रति हमारे भीतर मानसिक अवरोध है तो हम उसकी सहायता नहीं कर पाएँगे। परन्तु यदि किसी प्रकार का मानसिक अवरोध नहीं है तो हम तुरंत उसकी सहायता कर पाएँगे। जिस व्यक्ति को इसकी आवश्यकता है उसे मुँह से मुँह लगाकर श्वास देने के लिए सुयोग्य एवं तत्पर होने की यही अनुभूति होती है। दो अंतिम कारक हैं:

  • दक्षता की अनुभूति - आत्मविश्वास की कमी का विलोम
  • सत्यनिष्ठा - हम ईमानदार हैं पाखंडी नहीं, और हम उन गुणों का दिखावा करने की चेष्टा नहीं करते हैं जो हमारे पास नहीं हैं, और न ही हम अपनी दुर्बलता को छिपाते हैं।

हम यह समझ पाते हैं कि यदि हम शांत, आत्मविश्वास से भरे, योग्य, और मानसिक अवरोधों से रहित होते हैं, अपने कर्मों के प्रति सावधान हैं, और नैतिक मूल्यों का मोल समझते हैं, तो निश्चित रूप से हम प्रसन्नचित्त रहते हैं। और इस बात पर विश्वास करके ही कर्म के मूलभूत नियम के प्रति, अर्थात विनाशकारी (अकुशल) व्यवहार से दुःख होता है और रचनात्मक (कुशल) व्यवहार से सुख, हमारा विश्वास बढ़ता रहेगा। इस हेतुक सम्बन्ध का कारण यह नहीं है कि बुद्ध ने सबकी सृष्टि की और क़ानून भी इसी प्रकार बनाया अपितु यह कि सुख रचनात्मक कृत्यों का पुरस्कार नहीं है, और न ही दुःख विनाशकारी व्यवहार का दंड। इसके स्थान पर, अब हम अपने व्यवहार के प्रकार तथा सुख और दु:ख के हमारे अनुभवों के बीच के संबंध को और अधिक तर्कसंगत ढंग से समझ पाते हैं।

जब हम उस क्रियाविधि को समझ लेते हैं जिसके द्वारा हमारे व्यवहार-जनित कर्म फल, कर्म के बीज, और पाप-पुण्य हमारे साथ आगे के जीवन कालों में भी जाते हैं, तो हम इसे भी समझ पाएँगे कि हमारे वर्तमान जन्म के कर्म भावी जन्मों के अनुभवों को प्रभावित करते हैं।

प्रेरणा के प्रारंभिक विषय-क्षेत्र का सारांश

हम अब यह समझ गए हैं कि प्रारंभिक विषय-क्षेत्र के व्यक्ति के रूप में बदल जाना कोई क्षुद्र उपलब्धि नहीं है। इस उपलब्धि के साथ ही हमें इस बात पर भी पूरा विश्वास हो जाएगा कि हमारा मानसिक समतान अनंतकाल तक हमारे प्रत्येक जीवनकाल में हमारे साथ ही रहेगा। हमें इस बात पर भी पूरा विश्वास हो जाएगा कि हमारे वर्तमान जन्म के कर्म हमारे भावी जन्मों के अनुभवों को प्रभावित करते हैं। हम यह समझ गए हैं कि हमारे इस बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म में हमारा व्यवहार पूरी तरह से सहज ज्ञान द्वारा नियंत्रित नहीं है, जैसे कि एक मांसाहारी पशु में जो मारने के लिए तैयार हो जाता है, या किसी कामोत्तेजित कुत्ते में जो किसी कुतिया पर चढ़ जाता है। क्या लाभकारक है और क्या हानिकारक, इस विभेद को समझने और साथ ही उस पर कार्य करने की भी हमारी मानवीय क्षमता है। हमें यह भी पता है कि यह अवसर हमारे पास सदा के लिए नहीं रहेगा अपितु वह हमारी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाएगा।

मृत्यु के बाद भी हमारा अस्तित्व बना रहेगा। अब, ऐसा हो सकता है कि हम विनाशकारी व्यवहार के परिणामस्वरूप उन जीव-रूपों में अस्तित्वमान हो सकते हैं जिनमें हितकर और अहितकर के बीच अंतर करने की क्षमता ही नहीं होगी, और बार-बार सहज बुद्धि के कारण विनाशकारी कृत्य ही करते रहेंगे। यह परिणामतः और अधिक मानसिक और शारीरिक दु:ख उत्पन्न करेगा। इसके स्थान पर यह देखिए कि शरणागति सत्यनिरोध तथा सत्यमार्ग से युक्त है, और सारे दुःखों एवं उसके कारणों को समाप्त कर देती है। इसलिए, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमें बार-बार बहुमूल्य मानव जीवन ही मिलता रहे।

यद्यपि हमारा लक्ष्य है क्लेश और अविद्या को समाप्त करना, तथापि हमारी इस वर्तमान स्थिति में लोभ, क्रोध, इत्यादि से पूर्ण रूप से छुटकारा नहीं मिल पाएगा, परन्तु हम यह आरम्भिक कदम तो उठा ही सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम क्रोधित हो जाते हैं और किसी पर चिल्लाने का तीव्र विकार मन में उठता है, तो उस समय हम यह विभेद कर सकते हैं कि क्या हितकारी है और क्या नहीं, और यह भी समझ सकते हैं कि वह हमारे दुःख का कारण बनेगा। और इस तरह हम इसपर अमल करने से बच सकते हैं।

आरम्भिक विषय-क्षेत्र के व्यक्ति की यही मूल मनोदशा है। यदि हम बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म की शर्तों को पूरा करने के विभिन्न कारणों को भी इसके साथ संलग्न करना चाहते हैं, जैसा कि विभिन्न ग्रंथों में कहा गया है, तो हमें उदार, धैर्यवान (क्षान्ति युक्त), दृढ़ इत्यादि होने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जब हमें सौभाग्यवश बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म प्राप्त होगा तो आध्यात्मिक गुरुओं तथा धर्म के साथ हमारा दृढ़ संबंध इसके विपाक एवं पुनः घटित होने की प्रवृत्ति उत्पन्न करेगा।

इसके अतिरिक्त है प्रार्थना। यह है उस सकारात्मक शक्ति का समर्पण जिसे हम बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म की प्राप्ति की ओर मोड़ना चाहेंगे। वैसे प्रार्थनाएँ तो कई हैं, जैसे: "ऐसा हो कि मैं अपने सारे जीवनकालों में अपने बहुमूल्य गुरुओं द्वारा संरक्षित रहूँ।" यहीं पर ये सब ठीक बैठते हैं।

यदि इस जीवनकाल में हम आरम्भिक विषय-क्षेत्र के व्यक्ति बनने में सफल हो जाते हैं, तो वह बौद्ध-धर्म के पथ पर हमारी महान आध्यात्मिक प्रगति होगी। हमें यह सोचने की भूल नहीं करनी चाहिए कि वह एक नगण्य, सरल काम है, क्योंकि यह निष्कपट, हार्दिक बोध तथा दृढ़ विश्वास की बात है। यह एक बड़ी उपलब्धि है और, जैसा कि हमने पहले देखा है, हम ही वह एक व्यक्ति हैं जो इस बात का न्याय एवं मूल्यांकन कर सकते हैं कि क्या हम वस्तुतः इसी तरह हैं, या फिर यह सोचना केवल हमारा भोलापन है।

सारांश

विभिन्न लोकों की धारणा को एक प्रकार की कल्पना के रूप में उड़ा देना सरल है, परन्तु यदि हमें बौद्ध-धर्म के पथ पर प्रगति करनी है, तो हमारे लिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम उसे गंभीरता से लें। हम सरल तर्क के प्रयोग से यह समझ सकते हैं कि ऐसे भी सत्त्व हैं जो हमसे कहीं अधिक दूर देख सकते हैं और हमसे कहीं बेहतर सुन सकते हैं, तो फिर ऐसा कोई कारण तो नहीं हो सकता कि इस प्रकार के सत्त्व विद्यमान ही न हों जो हमसे कहीं अधिक आनंद अनुभव कर सकते हों और हमसे कहीं अधिक दुःख भी सह सकते हों।

एक बार जब हम इसे समझ लेते हैं और कर्म की वैधता पर भी पूर्ण विश्वास कर लेते हैं, तो हम अनिवार्य रूप से और स्वभावतः विनाशकारी कृत्यों से बचेंगे। इतना ही नहीं, हम उन रचनात्मक कार्यों में संलग्न होने में हर्ष का अनुभव भी करेंगे जो हमें आनंद दे सकें तथा श्रेष्ठतर पुनर्जन्म भी दिला सकें।

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