धर्म में आस्था

लाम-रिम के मुख्य बिंदुओं की पुनरीक्षा

लाम-रिम को तीन विषय-क्षेत्रों में विभाजित किया गया है, प्रत्येक में चित्त की अलग-अलग अवस्थाएँ हैं जो हमें ज्ञानोदय तक पहुँचाने वाले मार्ग के रूप में कार्य करती हैं। यह विधान सबसे पहले ग्यारहवीं शताब्दी के महान भारतीय गुरु अतीश द्वारा तैयार किया गया था, जिन्होंने दूसरी बार भारत से तिब्बत में धर्म लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने अपनी शिक्षाओं को बोधिपथप्रदीप  नामक ग्रन्थ में प्रस्तुत किया।

कदम परम्परा का सूत्रपात अतीश से हुआ। कालान्तर में वह बिखर गई और त्सोंगखपा द्वारा पुनःस्थापित किए जाने के बाद वह गेलुग परम्परा बन गई। कदम परम्परा ने अन्य परम्पराओं को भी प्रभावित किया है, क्योंकि लोजोंग, या चित्त प्रशिक्षण शिक्षाएँ, जो व्यापक रूप से सिखाई जाती हैं, मुख्य रूप से कदम परम्परा से आती हैं। कदम के प्रभाव का एक और उदाहरण उस महान गुरु तथा कदम एवं महामुद्रा सरणियों के मिश्रणकर्ता, गम्पोपा, के साथ देखने को मिलता है, जिनसे कई काग्यू परम्पराएँ विकसित हुईं।

अतीश को लाम-रिम पद्धति का सूत्र बोधिसत्त्वचर्यावतार (I.4) की एक पंक्ति से मिला जिसमें शान्तिदेव ने लिखा है,

विश्रांति और संवर्धन युक्त यह शरीर, जिसकी प्राप्ति इतनी कठिन है, जो हर सत्त्व की इच्छाओं की पूर्ति की क्षमता रखता है, यदि इस जीवनकाल में मैं इसके लाभों को साकार नहीं करता हूँ, तो ऐसा विलक्षण सम्पन्नता युक्त शरीर मुझे दोबारा कब मिलेगा? 

"हर सत्त्व," जिसकी अतीश विस्तार से व्याख्या करते हैं, तीन विषय-क्षेत्रों के लोगों के तीन स्तरों का उल्लेख करता है।

आरंभिक विषय-क्षेत्र में अपने आध्यात्मिक शिक्षक के साथ हमारे स्वस्थ संबंध, हमारे अमूल्य मानव पुनर्जन्म, मृत्यु और अनित्यता, तीन अकुशल धातुओं के दुःख, शरणागति, बुद्ध, धर्म और संघ के गुण, एवं कर्म और अकुशल (विनाशकारी) व्यवहार से बचने पर चर्चा समाविष्ट हैं।

मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र तीन कुशल धातुओं (उच्चतर गतियों) के दुःखों एवं संसार (अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म) के दुःखो को प्रस्तुत करता है। इसमें क्लेश, चार आर्य-सत्यों के संदर्भ में चित्त संस्कार, तथा दुःख का समुदयसत्य (वास्तविक कारण) सम्मिलित हैं। इसमें प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वादश निदान तथा किस प्रकार हमारा क्लेश वास्तव में पहले आर्य-सत्य, दुखसत्य, को जन्म देता है, इन बातों का सुनिर्दिष्ट विस्तृत निरूपण भी समाविष्ट है। तदोपरांत संसार से विमुक्ति एवं मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में अधिशीलशिक्षा, अधिसमाधिशिक्षा, और अधिप्रज्ञाशिक्षा की प्रस्तुतियाँ हैं। इसके अतिरिक्त अधिशील (उच्च नैतिक आत्म-अनुशासन) के संदर्भ में मठवासियों और गृहस्थ लोगों के संवरों पर एक चर्चा सम्मिलित है। यह सब त्याग के मानसिक आशय (विमुक्ति का दृढ़ संकल्प) में समाविष्ट हैं और प्रेरणा के मध्यम विषय-क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं।

उन्नत विषय-क्षेत्र में बोधिचित्त लक्ष्य को विकसित करने की  विभिन्न विधियों पर शिक्षाएँ समाविष्ट हैं। इसमें हैं 7-भाग की  कार्य-कारण ध्यान-साधना जो समचित्तता के आधार पर आरम्भ होती है और सबसे पहले इस बात को मानती है कि सभी सत्त्व एक-न-एक बार हमारी माँ रहे होंगे। दूसरा तरीका है आदान-प्रदान के "तोंग्लेन " के अभ्यास सहित परात्मसमता और परात्मपरिवर्तन। त्सोंगखपा ने बोधिचित्त लक्ष्य को विकसित करने के इन दो मार्गों को मिलाकर एक 11-भाग की ध्यान-साधना प्रक्रिया प्रस्तुत की। बोधिसत्व संवर लेने की प्रक्रिया तथा उन संवरों पर एक व्याख्या की भी प्रस्तुति है। शमथ, अर्थात निश्चल और व्यवस्थित चित्तावस्था, की प्राप्ति के माध्यम से किस प्रकार हम व्यापक ध्यान (सम्बोधि) या एकाग्रता प्राप्त कर सकते हैं इसपर भी एक विस्तृत प्रस्तुति है। प्रज्ञापारमिता को विपश्यना, अर्थात असाधारण अनुभूतिक्षम चित्तावस्था, को कैसे विकसित किया जाए, इस पर शिक्षाओं के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। ये सारी बातें उन्नत विषय-क्षेत्र में समाविष्ट हैं।

इस त्वरित सर्वेक्षण से हम यह देख सकते हैं कि लाम-रिम शिक्षाओं में भारी मात्रा में सामग्री समाहित है जो पूर्ण रूपेण सूत्र शिक्षाओं की परिधि में आती हैं यदि हम इसे सूत्र और तंत्र के आधार पर विभाजित करें। सभी तिब्बतवासी इस बात को स्वीकार करते हैं कि तंत्र साधना के लिए इन सभी क्षेत्रों में एक विशेष स्तर की दक्षता पूर्णतया पूर्वाकांक्षित है।

लाम-रिम में समाविष्ट बिंदु सभी तिब्बती परम्पराओं में पाए जाते हैं

मैंने अभी जो बिंदु गिनाए हैं, उनका विस्तृत विवरण देना असंभव है, और कई अन्य ग्रंथ हैं जो इस बात को अलग-अलग विस्तार से प्रस्तुत करते हैं एवं उन शिक्षणों तथा अनुदेशों के समर्थन में अलग-अलग संख्या में भारतीय धर्म ग्रंथों से उद्धरण भी देते हैं। सबसे बड़ा संस्करण, मार्ग के क्रमिक स्तरों की भव्य प्रस्तुति  (लाम-रिम चेन-मो ), त्सोंगखपा द्वारा लिखा गया था जहाँ वे शमथ और विपश्यना पर अत्यंत विस्तार से सटीक विवरण प्रदान करते हैं। पाँचवें दलाई लामा का संस्करण ध्यान-साधना पर अत्यधिक व्यक्तिगत दिशा-निर्देश देता है। इनमें अनेक पाठ-भेद हैं और प्रत्येक ग्रन्थ की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ भी होंगी।

यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि लाम-रिम में सम्मिलित सारी सामग्री तिब्बती बौद्ध धर्म की सभी परम्पराओं में पाई जाती है। अंतर केवल उनकी प्रस्तुति के गठन में है। उदाहरण के लिए गम्पोपा ने अपनी सामग्री को दो ढंग से प्रस्तुत किया है। विमुक्ति का अलंकरण रत्न  में उन्होंने इसे कारण के आधार पर विभाजित किया है, नामतः बुद्ध-धातु पर चर्चा, और फिर अमूल्य मानव जीवन को सहायक आधार के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें हेतु के रूप में आध्यात्मिक गुरु को तथा विधि के रूप में गुरु के निर्देशों को आश्रय माना गया। उन्नत पुनर्जन्म, विमुक्ति, एवं ज्ञानोदय प्राप्ति के लक्ष्य समेत ये सब उन्हीं विषयों की ओर उन्मुख हैं जो लाम-रिम में हैं। इसके बाद गम्पोपा चार बाधाओं पर अंकुश लगाने की विधियों की संरचना करते हैं, जो इसी सामग्री पर शाक्य प्रस्तुति "चार आसक्तियों से विलगाव" की याद दिलाती हैं। सामग्री को प्रतिपादित करने की अपनी दूसरी विधि में गम्पोपा एक प्रस्तुति देते हैं, जिसे "गम्पोपा के चार धर्म" के नाम से उद्धृत किया जाता है।

द्रिगुंग काग्यू परम्परा की प्रस्तुतियाँ सारी सामग्री को आलय, मार्ग, और फल के आधार पर व्यवस्थित करती हैं, और शाक्य परम्परा की "तीन दृष्टियाँ" में कुछ ऐसी ही बातें मिलती हैं। ये तीन प्रकार की दृष्टियाँ हैं: अशुद्ध दृष्टि, अनुभव-आधारित दृष्टि, और शुद्ध दृष्टि। कुछ प्रस्तुतियाँ गम्पोपा के चार धर्मों को तीन विषय-क्षेत्रों के साथ जोड़ती हैं, और अन्य इसे चार आसक्तियों के साथ जोड़ती हैं। एक अन्य उदाहरण है पात्रुल का ग्रन्थ, मेरे सद्गुरु की वाणी, जिसमें वे बाह्य आरंभिक क्रियाओं और आतंरिक आरंभिक क्रियाओं  की बात करते हैं। ये सब एक ही विषय की बात करते हैं इसलिए हमें कोई सम्प्रदायवादी दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए कि हम जिस संस्करण का अध्ययन कर रहे हैं एकमात्र वही सर्वोत्कृष्ट है। हो सकता है कि भारतीय स्रोतों के कुछ उद्धरण और ध्यान के कुछ व्यक्तिगत अनुदेश किंचित भिन्न हों। परन्तु मुख्य रूप से यह सब अभिन्न हैं।

तथ्यों में तीन प्रकार के विश्वास

हमने यह देखा कि लाम-रिम को चार आर्य-सत्यों के संदर्भ में समझा जा सकता है और, यदि हम सम्पूर्ण धर्म के अनुसार अपना विकास करना चाहते हैं तो अपने लक्ष्यों पर सुदृढ़ विश्वास होना अनिवार्य है। हम इस निश्चितता को दो रूपों में प्राप्त कर सकते हैं। एक है वह जो तीन प्रकार का होता है और जिसे प्रायः "श्रद्धा" के रूप में अनूदित किया जाता है। मुझे लगता है कि एक बेहतर अनुवाद होगा "तत्त्व में विश्वास," क्योंकि हम उस विश्वास की बात नहीं कर रहे हैं कि शेयर बाज़ार कल उठेगा, इत्यादि, जिसकी हमें कोई जानकारी ही नहीं है। हम उस बात में विश्वास की बात कर रहे हैं जो वास्तव में सत्य है, न कि किसी ऐसी बात में विश्वास रखने की जिसको हम समझते ही नहीं।

सबसे पहले तो शोधन करने वाला विश्वास होता है जो चित्त को किसी भी प्रकार के उपादान से निर्मल या शांत करता है। उदाहरण के लिए, वह अनिर्णय, संदेह, और भय से पीड़ित चित्त को शांत करता है। भय ज्ञानोदय से संबंधित हो सकता है, जब हमें लगता है, "वह कौन है जो ऐसा कर सकता है?" या हमें आसक्ति के कारण ऐसा लग सकता है कि, "वाह, यह अद्भुत है, मुझे यह अपने लिए चाहिए, अपने लिए, अपने लिए!" शोधन करने वाला विश्वास इन सबको शांत करता है, और इसे दूसरे प्रकार के विश्वास,अर्थात तर्कसंगत आत्मविश्वास, के आधार पर प्राप्त किया जाता है। दूसरे शब्दों में, विमुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्त करने का लक्ष्य युक्तिसंगत है। यह तर्कसंगत है और समझ में भी आता है और यह तर्कहीन या असंभव नहीं है। तीसरा प्रकार है आकांक्षा युक्त विश्वास, जहाँ हम यह मानते हैं कि यह संभव है और हम इसे प्राप्त कर सकते हैं, और इसलिए हम इसे प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं।

इन तीन प्रकार के विश्वासों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बात पर सुदृढ़ विश्वास होना अनिवार्य है कि लक्ष्य तर्कसंगत हैं, वे प्राप्य हैं, और हम सब व्यक्तिगत रूप से उन्हें प्राप्त करने में सक्षम हैं। इस आत्मविश्वास को प्राप्त करने से हमारा चित्त शांत हो जाता है और हमारे भीतर कोई भय या संदेह या अतिशयोक्तियों से भरी धारणाएँ नहीं रहतीं, और हम उन लोगों से ईर्ष्या नहीं करते जिन्होंने लक्ष्य प्राप्त कर लिए हैं, और न ही अपनी उपलब्धियों पर दम्भ करते हैं।

चार आर्य सत्यों के सोलह आयाम 

शिक्षाओं का एक अन्य पहलू जो सुदृढ़ विश्वास के महत्त्व को रेखांकित करता है, वह है चार आर्य सत्यों के सोलह आयामों का अध्ययन। हम पहले ही आर्य, या एक "अभिजात सत्त्व," के बारे में बात कर चुके हैं, जो शून्यता (रिक्तता) के निर्वैचारिक बोध से युक्त व्यक्ति है। वास्तव में वह केवल शून्यता का नहीं है, अपितु चार आर्य सत्यों के सोलह आयामों के निर्वैचारिक बोध से भी युक्त है। मैं उन्हें यहाँ सूचीबद्ध नहीं करूँगा, प्रत्येक आर्य सत्य के चार-चार आयाम हैं, परन्तु उनका अध्ययन करके उनमें सुदृढ़ विश्वास होना अनिवार्य है। हमें इस तथ्य में सुदृढ़ विश्वास होना होगा कि सत्यनिरोध संभव है, दु:ख का समुदयसत्य अज्ञानता है, और सत्यमार्ग दु:ख के कारणों को सदा के लिए समाप्त कर देगा। ये सोलह आयाम इन सबको व्याख्यायित करते हैं और हमें अपना आत्मविश्वास बढ़ाने में सहायता करते हैं।

शरणागति के आधार: सत्यनिरोध तथा सत्यमार्ग में दृढ़ विश्वास

धर्म की शिक्षाओं के आयामों का अपने जीवन में समावेश करने के महत्त्व और लाभ को स्पष्ट करने के लिए मैं इन सभी विवरणों का उल्लेख कर रहा हूँ। ऐसा करने से धर्म के प्रत्येक बिंदु का हमारा बोध और अधिक सुदृढ़ और गहन होता जाएगा। यदि हम वास्तव में शरणागत होना चाहते हैं – अर्थात, यदि हम वास्तव में त्रिरत्नों, अर्थात बुद्ध, धर्म, एवं संघ की शरण में जाना चाहते हैं - तो हम इसी दिशा में जाना चाहेंगे।

धर्म रत्न की शरणागति क्या है? यह तीसरा और चौथा आर्य सत्य है, अथवा एक आर्य के मानसिक समतान (सातत्य) पर सत्यनिरोध एवं सत्यमार्ग। हमें इस परिभाषा को याद रखना होगा। तीसरे और चौथे आर्य सत्य अपनेआप हवा में नहीं टिके होते, वे वास्तव में हमारे मानसिक समतान के आधार पर ही अस्तित्वमान हैं। यह निरोध है, मानसिक समतान से दु:ख और उसके कारणों का सदा के लिए समाप्त करना, यथासंभव अपने मानसिक समतान से। इसे साकार करने वाला बोध है सत्यमार्ग। बुद्धजन (बुद्ध रत्न) वे हैं जिन्होंने इन सत्यनिरोध एवं सत्यमार्ग को पूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया है। आर्य संघ (संघ रत्न) ने इन्हें आंशिक रूप से प्राप्त किया है, पूर्ण रूप से नहीं।

हम शरणागति को वास्तव में कितनी गंभीरता से लेते हैं? क्या यह केवल आडम्बर है, जहाँ हम अपने बालों की एक लट को काटकर अपने लिए एक तिब्बती नाम रख लेते हैं? अथवा हम किसके शरणागत रहे हैं, ईस्टर बन्नी के? शरणागति एक सुरक्षित दिशा है, इसलिए हमें उसकी शरण लेनी चाहिए जिसके अस्तित्व को हम मानते हैं। हमें दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि सत्यनिरोध तथा सत्यमार्ग यथार्थ हैं एवं ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने इन्हें प्राप्त कर लिया है, और हम भी उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। हमें इस बात का भी दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि उन्हें प्राप्त करने के क्रमिक स्तर हैं और बुद्ध ने ही यह सिखाया है। हम किसी के शरणागत होने का निर्णय तब लेते हैं जब हमें यह विश्वास हो जाता है कि वह वास्तव में अस्तित्वमान है। फिर, जब हम बोधिचित्त को भी सम्मिलित कर लेते हैं तो बुद्धजन बनने के मार्ग पर हम अंत तक जाने का लक्ष्य बना लेते हैं ताकि हम सब लोगों को लाभान्वित कर सकें।

प्रारंभ में, शरणागति विमुक्ति के सन्दर्भ में होती है। जब हम प्रेरणा के एक तिब्बती छंद को दोहराते हैं तब हम पहले विमुक्ति पर्यन्त बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाते हैं; और फिर, दान आदि के पुण्यसम्भार (सकारात्मक शक्ति) द्वारा परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्त करते हैं। पहले भाग का संबंध मुक्ति के लक्ष्य से है। दूसरे भाग, बोधिचित्त, का लक्ष्य ज्ञानोदय प्राप्ति है। हमें इन चरणों से गुज़रना होगा।

तो, आरम्भिक, फिर मध्यवर्ती, तदुपरांत उन्नत क्षेत्रों में प्रवेश उस अति उच्च आत्मविश्वास पर निर्भर है कि इन लक्ष्यों को प्राप्त करना संभव है। यह वह मार्ग है जो हमें उस आत्मविश्वास तक ले जाएगा। विमुक्ति या ज्ञानोदय प्राप्ति के लक्ष्य के सन्दर्भ में ही लाम-रिम के सूत्रों को समझना होगा। यही है जो किसी भी साधना को शरणागति के संदर्भ में बौद्ध साधना बनाता है, क्योंकि जो बौद्ध धर्म को ग़ैर-बौद्ध धर्म से अलग करती है वह है शरणागति। यदि हम उसे छोड़ देते हैं तो आरम्भिक विषय-क्षेत्र लगभग किसी अन्य धर्म जैसा ही दिखता है। या तो हम श्रेष्ठतर पुनर्जन्म प्राप्त करना चाहते हैं, या फिर स्वर्ग। यह बौद्ध-धर्म की विशिष्टता नहीं है!

त्रिरत्नों में शरणागति बौद्ध धर्म को भिन्नता प्रदान करती है

ऐसी कई बौद्ध-धर्मी साधनाएँ हैं जो ग़ैर-बौद्ध परम्पराओं से मिलती-जुलती हैं। त्याग, अर्थात सांसारिक अस्तित्व से मुक्त होने का दृढ़ संकल्प, विभिन्न परम्पराओं में पाया जाता है, और कई भारतीय ग़ैर-बौद्ध परम्पराओं में शमथ और विपश्यना प्राप्त करने के संपूर्ण अनुदेश हैं। हो सकता है कि उनका ध्यान शून्यता पर न हो, परन्तु उनके पास निश्चित रूप से चित्त की उन अवस्थाओं को प्राप्त करने की विधियाँ हैं। फिर तंत्र के हिन्दू संस्करण भी हैं जहाँ बौद्ध धर्म की भाँति चक्रों, नाड़ियों, और ऊर्जाओं से काम लिया जाता है।

वह क्या है जो इनमें से किसी को बौद्ध-धर्मी साधना बनाता है? क्या वह प्रेम और करुणा है? नहीं, क्योंकि हम इसे लगभग हर दूसरे धर्म में पाते हैं। क्या वह किसी आध्यात्मिक गुरु पर निर्भर करने की बात है? नहीं, क्योंकि यह बात कई अन्य परम्पराओं में भी पाई जाती है। क्या वह नैतिक अनुशासन का पालन करना है? नहीं। क्या वह भिक्षु या भिक्षुणी बनने की बात है? नहीं। क्या वह अनुष्ठान या पूजा करने की बात है? नहीं, हम इन सबको अन्य धार्मिक प्रणालियों में पाते हैं।

तो, वह क्या है जो इसे बौद्ध-धर्मी बनाता है? हम हर ग्रन्थ में इसका उत्तर पढ़ सकते हैं - वह है शरणागति। यह कोई क्षुद्र कथन नहीं है। इसमें यह बात नहीं है कि "मेरे बुद्ध तुम्हारे भगवान से श्रेष्ठ हैं," यह शरणागति तथा तीसरे और चौथे आर्य सत्य की बात है, दुःख के कारणों को सदा के लिए समाप्त करने के सत्यनिरोध की बात है, और सत्यमार्ग की बात है जो हमें उस अवस्था तक पहुँचाएगा। दूसरे शब्दों में, वास्तविक मुक्ति।

अन्य भारतीय धर्म विमुक्ति के बारे में बात तो करते हैं परन्तु बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण से वह पूर्ण विमुक्ति नहीं है क्योंकि इन प्रणालियों के साधक उस विमुक्ति को प्राप्त करने पर भी क्लेशों और समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं जिन्हें उनका ज्ञान दूर नहीं कर सकता। हमारा विश्वास कि बुद्ध ने जो सिखाया वह सत्य है जो केवल इस बात पर तो आधारित नहीं हो सकता कि हम बुद्ध पर विश्वास करते हैं: बुद्ध ने कहा कि वह सत्य है, तो वह सत्य है, बस। हमारा विश्वास इस तर्कसंगत सुदृढ़ निश्चय पर आधारित होना चाहिए कि बुद्ध ने जिस विमुक्ति का संकेत दिया है वही वास्तविक विमुक्ति है। यह दृढ़ विश्वास इस प्रकार तर्क युक्त होना चाहिए कि हमारा मन अपनी ओर आने वाले क्लेशों के प्रभाव से निर्मल रहे। ऐसा नहीं है कि हमारी विमुक्ति उनकी विमुक्ति से श्रेष्ठ है। इस विषय में हम न तो मदान्ध हैं और न ही आसक्त। हम इस विषय में संशयात्मा भी नहीं हैं, और न ही जिद्दी और संकीर्ण विचारों से युक्त, परन्तु हम सम्प्रदायवादी या ईर्ष्यालु भी नहीं हैं, और न ही दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने की चेष्टा कर रहे हैं। हमारे पास तीसरे प्रकार का विश्वास है, जो है ऐसी महत्त्वाकांक्षा से युक्त होकर इस तथ्य में विश्वास करना कि यह संभव है और हम इसे कर लेंगे। तब जाकर लाम-रिम की बातें अर्थवान लगने लगती हैं।

स्वयं अपनी प्रेरणा को परखना

हमें अपनी प्रेरणा को ही परखना चाहिए कि क्या हम सरलीकृत धर्म (धर्म-लाइट) का अनुसरण कर रहे हैं। धर्म की विधियों से क्या हम केवल इसी जन्म को सुधारने का प्रयास कर रहे हैं, या फिर हम भविष्य के जन्मों के बारे में भी सोच रहे हैं? क्या हमें कोई बोध है कि ज्ञानोदय वास्तव में क्या है और क्या उसकी प्राप्ति संभव है?

यदि सरलीकृत धर्म हमारा लक्ष्य है, तो उसमें कोई अपराध-बोध या उचित-अनुचित निर्णय शेष नहीं रह जाता। वह बिल्कुल ठीक है। अधिकांश पश्चिमवासी यहीं से आरम्भ करते हैं, और करना पड़ेगा, क्योंकि हमारी पृष्ठभूमि ही वैसी है। परन्तु, यदि हमने सरलीकृत धर्म को अपनाया है तो यह जानना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि सम्पूर्ण धर्म बिल्कुल अलग है, और हमें उसका सम्मान करना चाहिए। हमें यह आशा रखनी चाहिए कि भविष्य में हम सम्पूर्ण धर्म को अपना सकेंगे। यदि हम प्रेरणा के अपने विश्लेषण की ओर वापस चलते हैं, तो हमें सम्पूर्ण धर्म के तीन लक्ष्यों के बारे में निश्चित होना होगा।

एक अतिरिक्त बात यह है कि हमारी कुछ वास्तविक भावात्मक अनुभूतियाँ है जो हमें इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं। हम इस बात को स्वीकार भी कर लें कि बेहतर पुनर्जन्म, विमुक्ति, तथा ज्ञानोदय प्राप्ति संभव हैं, परन्तु इनमें से किसी की भी प्राप्ति के लिए कुछ करने के लिए सोचते ही भीतर से भयंकर प्रतिरोध की भावना उत्पन्न होती है। इसलिए एक बार जब इस बात का बोध हो जाता है कि इन तीनों की प्राप्ति संभव है, तो हमें अपने भावनात्मक प्रेरक बल को बढ़ाकर इनकी प्राप्ति के लिए लग जाना चाहिए। सरलीकृत धर्म से सम्पूर्ण धर्म में अंतरित होने के लिए हमें दो आयामों पर काम करना होगा। एक है बोधवान होना और दूसरा है उसका भावात्मक आयाम, और इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं।

हम कौन हैं और क्या चाहते हैं?

जब हम "व्यक्तियों" की बात करते हैं तो लाम-रिम में प्रयुक्त शब्दावली महत्त्वपूर्ण हो जाती है। हम किस तरह के व्यक्ति हैं? क्या हम ऐसे व्यक्ति हैं जो केवल इस जीवनकाल के लिए ही धन, प्रेम आदि की चिंता करते हैं? क्या हम ऐसे व्यक्ति हैं जो भावी जीवन के बारे में सोचते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि वह निकृष्टतर न हो और हमें अपने आध्यात्मिक विकास को बनाए रखने के अवसर मिलें? क्या हम दुःख निवृत्ति और विमुक्ति प्राप्ति के लिए काम करने वाले व्यक्ति हैं?

याद रखें कि संसार से नित्य विमुक्ति ही वास्तविक विमुक्ति है, जबकि सरलीकृत धर्म के अनुसार विमुक्ति का तात्पर्य केवल इस जीवनकाल में संसार से विमुक्त होने से है। क्या हमारे ज्ञानोदय का लक्ष्य इस पूरे ब्रह्माण्ड के प्रत्येक सत्त्व को लाभान्वित करना है? इसमें सभी कीड़े-मकौड़े भी समान रूप से सम्मिलित हैं! तो हमारा लक्ष्य अत्यंत व्यापक है। इसी को हम "महायान" कहते हैं, अर्थात चित्त का बृहत् वाहन। ये लक्ष्य इसे परिभाषित करते हैं कि हम किस तरह के व्यक्ति हैं, और यह महत्त्वपूर्ण बात है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति की चेष्टा ही हमारे जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती है, न कि हमारी राष्ट्रीयता, व्यवसाय, या लिंग। लाम-रिम इस बात पर ध्यान देता है कि हम किस प्रकार के व्यक्ति हैं।

इसलिए यह जानने के लिए हमें अपनेआप से पूछना होगा कि वह क्या है जो हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। यदि हम ऐसा नहीं करते तो धर्म का हमारा अध्ययन किसी भी अन्य विषय के अध्ययन की भाँति होकर रह जाएगा, कुछ रोचक, कुछ उपयोगी, जैसे गाड़ी को ठीक करने का प्रशिक्षण। हो सकता है वह कुछ समय के लिए मनोरंजक और उपयोगी भी हो, परन्तु हमारे जीवन को पूर्णता की ओर ले जाने में असमर्थ होगा। हमारे जीवन को जो सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है वह है इन तीन प्रकार के व्यक्तित्वों को श्रेणीबद्ध रीति से प्राप्त करना।

अपने प्रति ईमानदार होना

मुझे लोजोंग  शिक्षण के सप्तांग चित्त प्रशिक्षण  की एक पंक्ति याद आ रही है, जहाँ गेशे चेकवा ने अपने चित्त को प्रशिक्षित करने की हमारी सफलता को आँकने के मार्गों को सूचीबद्ध किया है, जिनमें से एक है, "यदि दो साक्षियों में से मैं प्रमुख को ले लेता हूँ..." इसका अर्थ यह है कि जो लोग हमारी प्रेरणा और आध्यात्मिक विकास के स्तर को देख सकते हैं और उनका मूल्यांकन कर सकते हैं, नामतः दूसरे या हम स्वयं, उनमें से इस विषय में सही बोध रखने वाले तो हम स्वयं ही होंगे। हम यह निश्चित रूप से जान सकते हैं कि हम अपने बारे में ईमानदार हैं या नहीं। हम तो बड़ी आसानी से बोल लेते हैं, "ऐसा हो कि मैं सभी सचेतन सत्त्वों के लाभ हेतु ज्ञानोदय प्राप्त करूँ", पर क्या हम वास्तव में ब्रह्मांड के हर कीट-पतंगे को विमुक्ति दिलाने का उद्देश्य रखते हैं? हम किसे धोखा दे रहे है? क्या कोई भी वास्तव में उस बात को मानता भी है, या उसके बारे में सोचता भी है? हम ही वह श्रेष्ठतम व्यक्ति हैं जो अपना सही ढंग से मूल्यांकन कर सकते हैं। एक ओर तो हमें बिना किसी प्रकार के अपराधबोध या उचित-अनुचित निर्णय के इसे करना होगा, और दूसरी ओर बिना किसी प्रकार की आत्मतुष्टि के, जहाँ हम यह सोचते हैं, "ठीक है, मैं जहाँ हूँ वहीं ठीक हूँ। मैं क्रोधी हूँ और बेहतर यह होगा कि सब लोग इसे अपनी आदत बना लें।" इसके स्थान पर हमें इस मनोदृष्टि को विकसित करने का प्रयास करना है कि, "मैं यहाँ हूँ, पर मैं और आगे बढ़ने की कोशिश करना चाहता हूँ।"

परन्तु यदि हमारे मन में ऐसा प्रश्न उठता है जैसे, "क्या मैं इस प्रकार का अभ्यास करने के लिए तैयार हूँ," तो हमें क्या करना चाहिए? क्या अपने गुरुओं से पूछना उपयुक्त होगा, या फिर क्या हम स्वयं ही इसका आकलन कर सकते हैं? निःसंदेह हम अपने गुरुओं का परामर्श ले सकते हैं, कोई यह नहीं कहेगा कि हम उनसे परामर्श नहीं ले सकते। परन्तु "क्या मैं अपने स्वार्थ से उबर पाया हूँ?" क्या इस प्रश्न को किसी और से पूछें या फिर हम स्वयं ही इसका आकलन कर लें?

फिर यह कुछ और जटिल हो जाता है। कभी-कभी हमें यह पता नहीं चलता कि हम दूसरों के साथ किस प्रकार व्यवहार कर रहे हैं, इसलिए हमें प्रतिपुष्टि की आवश्यकता होती है, भले ही किसी निष्पक्ष व्यक्ति को ढूँढ़ना मुश्किल हो। हम यह पूछ सकते हैं कि, "क्या अपने इस रिश्ते में मैं स्वार्थवत व्यवहार कर रहा हूँ?" और हो सकता है कि दूसरे व्यक्ति का अपना ही कोई भावात्मक षड्यंत्र हो। मूलभूत रूप से ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो हमसे बेहतर ढंग से इस बात को तय कर सके कि हम स्वार्थी हैं या नहीं। फिर, हमारी अपनी भावनाओं या दूसरों की प्रतिपुष्टि के आधार पर हम अपना आकलन करते हैं। दूसरों की तुलना में अपने बारे में वस्तुपरक होना अधिक सरल है क्योंकि केवल हम अपनेआप को बेहतर पहचानते हैं।

परिवर्तन के प्रति भावात्मक प्रतिरोध पार करना

परन्तु, जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है, भले ही हम अपनेआप को बदलना और सुधारना चाहें, हम प्रायः भावात्मक प्रतिरोध का सामना करते हैं। इससे ऊपर उठने के लिए हमें इस प्रतिरोध के कारण रूपी भ्रम का गहनतर विश्लेषण करने की आवश्यकता है, और उस भ्रम की प्रेरणा का पता लगाना चाहिए। यदि हम इस विश्लेषण को उस स्तर पर छोड़ दें जो बौद्ध धर्म के सभी भारतीय सम्प्रदायों में सामान्य है तो यह भ्रम है स्वावलम्बी रूप से ज्ञेय "मैं" में हमारा विश्वास। यह भ्रम ही है जो प्रतिरोध करता है, और इसलिए हमें इस "मैं" को विखंडित करना होगा। यह "मैं" अपनेआप में ज्ञेय है जैसे, "मैं ज्ञानोदय प्राप्त नहीं करना चाहता; मैं दूसरों की सहायता नहीं करना चाहता।" ऐसा लगता है जैसे कोई स्वछन्द रूप से अस्तित्वमान "मैं" है जो साधना नहीं करना चाहता।

क्या यह ऐसा चित्त है जो साधना नहीं करना चाहता? या यह केवल आलस्य है? आख़िर यह क्या है? हम "मैं" को "मैं साधना नहीं करना चाहता" वाले "मैं" के रूप में देखते हैं, परन्तु इस "मैं" को उस चित्त पर आरोपित किया गया है जिसमें आलस्य, भय, असुरक्षा तथा अन्य संस्कार पहले से ही विद्यमान हैं। चित्त, उसके संस्कार, भावनाओं, और असुरक्षाओं की इस समष्टि का "मैं" के रूप में उल्लेख कर सकते हैं। वस्तुतः ऐसा लगता है जैसे "मैं" साधना नहीं करना चाहता।

परन्तु यह "मैं" स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान नहीं है, अपितु इसे केवल इन अन्य पदार्थों के सम्बन्ध में ही जाना जा सकता है। यदि हम अपनेआप को स्वावलम्बी रूप से ज्ञेय "मैं" के रूप में देखते हैं तो इस स्थिति को बदलने और साधना के प्रति अपने प्रतिरोध को दूर करने के लिए हमें किसी न किसी प्रकार से उस "मैं" के विरोध को समाप्त करना ही होगा। यह कुछ ऐसा है जैसे हम अपने ऊपर चिल्ला रहे हों, "बंद करो इस तरह से काम करना", या अपनेआप को दंडित कर साधना करने के लिए बाध्य कर रहे हों। परन्तु यह प्रयास सरासर असफल ही होगा। यह "मैं" की भ्रांत धारणा पर आधारित है।

इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने प्रतिकारकों को सही ढंग से लक्षित करें, न कि स्वावलम्बी रूप से ज्ञेय "मैं" पर, क्योंकि यह "मैं" तो अस्तित्व में है ही नहीं। हमें अपने प्रतिकारकों को उन चित्त संस्कारों तथा क्लेशों पर लक्षित करना होगा जिनपर "मैं" की पर्ची लगी हुई है। इसलिए हमें उचित धार्मिक विधियों का प्रयोग करना होगा ताकि हम अपने भय, आलस्य, असुरक्षा इत्यादि को हटा सकें जो साधना नहीं करना चाहने वाले "मैं" की इस पर्ची के आधार हैं। एक बार जब हम उन्हें दूर कर देते हैं तो हम उस आधार को प्राप्त कर लेते हैं जिसपर उस "मैं" की पर्ची लग जाती है जो उत्साह के साथ साधना करना चाहता है, आदि। शून्यता विश्लेषण को प्रयोग में लाने का यही मार्ग है। यह इतनी गहन या कठिन बात नहीं है; यह केवल इतना समझने की बात है कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं और इसे व्यावहारिक रूप से किस प्रकार लागू किया जा सकता है।

सारांश

हम कौन हैं और हम क्या चाहते हैं? यह प्रश्न वास्तव में उतना सरल नहीं है और इसके लिए हमें अपनेआप को निष्कपट रूप से जाँचना होगा। हम चाहे सरलीकृत धर्म से संतुष्ट हो जाएँ, या प्रेरणा के आरंभिक, मध्यवर्ती, तथा उन्नत विषय-क्षेत्रों की प्राप्ति का प्रयास करें, कम से कम हमें यह पता तो चल जाएगा कि हम कहाँ हैं। अंततः हम ही तो अपने सबसे अच्छे प्रेक्षक हैं।

जैसा कि हमने देखा, शरणागति ही वास्तव में बौद्ध धर्म को अन्य आध्यात्मिक परम्पराओं से पृथक करती है। शरणागति ही सभी बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं का प्रवेश द्वार है, और क्लेशों को दूर करने, आत्म-सुधार में संलग्न होने, तथा बुद्धत्व के मार्ग पर अग्रसर होने की यात्रा का आरम्भ भी। 

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