तंत्र में लाम-रिम के मध्यम एवं उन्नत विषय-विस्तार की आवश्यकता

भूमिका

इस श्रृंखला के पहले भाग में प्रेरणा के आरम्भिक स्तर पर विचार किया गया जिसमें हमारा लक्ष्य होता है निम्न पुनर्जन्म से बचकर उच्च पुनर्जन्म प्राप्त करना। विशेषतया हम चाहते हैं कि एक बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म हो ताकि हम अपनी साधना में सुधार कर सकें।
मध्यवर्ती स्तर वह होता है जब हम केवल निम्न पुनर्जन्मों को ही नहीं रोकते अपितु अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म पर भी पूरी तरह रोक लगाते हैं। हमारा लक्ष्य विमुक्ति है।

प्रेरणा के उन्नत स्तर में लक्ष्य होता है बुद्ध की ज्ञानोदय की दशा प्राप्त करना, जहाँ हम दूसरों का पूर्णत: हित कर सकें। यद्यपि हम जीवनकालों में क्रमश: आत्म-सुधार करते जाते हैं, हमारा प्राथमिक हित दूसरों के लिए अधिकतम हितकारी होना होता है।

मध्यवर्ती विषय-विस्तार

पहला आर्यसत्य : दुःख

यहाँ हम सबसे पहले उच्चतर पुनर्जन्म के स्तर पर भी आने वाले दुःख एवं कठिनाइयों पर विचार करते हैं : मनुष्य गति तथा देव गति। पिछले विषय-विस्तार में हमारा लक्ष्य निम्नतर गतियों के घोर कष्टों से मुक्ति पाना था। अब हमें यह समझना होगा कि किस प्रकार हमारे साधारण सुख, दुःख का ही एक अन्य रूप हैं।

मानव जीवन में हम जिस सुख का अनुभव करते हैं और जिस सुख का अनुभव देवतागण अपने जीवन मे करते हैं, वे अविश्वसनीय एवं अस्थायी हैं। वे हमें कभी संतुष्ट नहीं कर पाते और न ही टिकाऊ होते हैं - हम कभी नहीं जानते कि अगले क्षण हमें कैसी अनुभूति होगी। हम सदैव अधिक की कामना करते हैं और यदि वह हमें मिल भी जाए तो हमारा अनुभव दुःखदायी होता है। यह बिलकुल ऐसा ही है कि जैसे थोड़ी सी चाकलेट हमें खुश कर देती है इसलिए हम अधिक से अधिक पाना चाहते हैं जब तक कि हमारा पेट ही क्यों न बिगड़ जाए। दुर्भाग्य से साधारण सुख, कष्ट और दुखों में परिवर्तित हो जाते हैं।

प्रत्येक तांत्रिक साधना में अर्पण के विषय में एक खंड होता है। हम कल्पना करते हैं कि हम दूसरों के लिए कुछ अर्पण कर रहे हैं और उन्हें सुख प्रदान कर रहे हैं अथवा एक विशिष्ट बुद्ध के रूप में स्वयं अपने को कुछ अर्पित कर रहे हैं जिसे हम सुखपूर्वक स्वीकार करके उसका आनन्द उठाते हैं। यह सुख अशांतकारी मनोभावों एवं मानसिक भ्रांतियों से मुक्त होता है- यह साधरण सुख नहीं है जो परिवर्तित हो जाता है और अतृप्त छोड़ देता है।  

जब दुःख के कारण सदा-सदा के लिए दूर कर दिए जाते हैं तो हमें सुख की शाश्वत अनुभूति होती है जिसका कभी क्षय नहीं होता यदि सुख की अनुभूति ऐसी अनुभूति पर आधारित होती है जो टिकाऊ नहीं होती जैसे स्वादिष्ट भोजन मिलना, तब निस्संदेह वह सुख अधिक टिक नहीं पाता। यदि हम अपनी तांत्रिक साधना से साधारण सुख को लक्ष्य बनाते हैं तो हमें दुःख से अस्थायी और सतही पलायन ही प्राप्त होगा। हम ध्यान साधना में बैठकर सोच सकते हैं कि सब कुछ बहुत बढ़िया है परन्तु जब वह पूरी हो जाती है तो हम फिर से दुखी हो जाते हैं।

तंत्र की उच्चतम श्रेणी में हम शून्यता पर भी ध्यान केन्द्रित करते हैं, आनंदप्रद सचेतनता सहित, परन्तु इसका अभिप्राय क्या है? इसके अतिरिक्त यह भी महत्वपूर्ण है कि इसे अच्छा भोजन अथवा मालिश जैसे साधरण सुखों के समकक्ष न रखा जाए अपितु यह अशांतकारी मनोभावों एवं भ्रांतियों से पूर्णत: मुक्त आनंद के समतुल्य हो। हमारे साधारण सुखों के ठीक विपरीत जो किसी न किसी आलंबन पर आधारित होते हैं यह आसक्ति से मुक्त अनुभूति होनी चाहिए।

कभी-कभी भ्रान्तिवश लोग बुद्ध-छवि को “परम प्रभु” अथवा संत समझ लेते हैं। अत: यह  याद रखना महत्वपूर्ण है कि देव गतियों में भी दुःख रहता है। जब हम अपने सामने बुद्ध छवि पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो हमें समझना चाहिए कि वे देव श्रेणी से बहुत आगे निकल गए हैं। बहुत सी लम्बी साधनाओं में विभिन्न देवी- देवताओं की स्तुतियाँ होती हैं और इस बात की संभावना रहती है कि हम भ्रान्तिवश यह सोच लें कि इस स्तुति-गान का उद्देश्य कामनाओं की पूर्ति करवाना है। इन स्तुतियों का वास्तविक उद्देश्य यह याद रखना है कि उनकी विशेषताएँ क्या हैं और उनसे प्रेरित होकर हम भी उसी अवस्था तक पहुंचे। बुद्धजन में पूर्ण समचित्तता की विशेषता होती है और इसलिए यदि हम बुद्ध की सहायता के लिए ग्रहणशील हैं तो हम उसे अवश्य ग्रहण करेंगें चाहे हमने चढ़ावे चढ़ाए हो या नहीं।

दूसरा आर्यसत्य : अशांतकारी मनोभाव तथा सचेतनता का अभाव

एक बार जब हमने छ: गतियों में दुःख पर मनन कर लिया है तब हम दूसरे आर्यसत्य : अशांतकारी मनोभावों की दृष्टि से इनके कारणों को देखते हैं।

अशांतकारी मनोभाव हमारे कष्टों का कारण होते हैं क्योंकि उनके वशीभूत होकर हम विनाशकारी व्यवहार करते हैं, नकारात्मक संभाव्यताओं का निर्माण करते हैं जो निम्नतर पुनर्जन्म का कारक बनते हैं। इसके विपरीत, रचनात्मक व्यवहार जनित सकारात्मक कार्मिक सम्भाव्यताएँ संसार में बेहतर पुनर्जन्म का कारक बनती हैं।

हम अशांतकारी मनोभावों के कारण विनाशकारी व्यवहार करते हैं जो यथार्थ तथा इनके कारण और परिणामों के बोध के अभाव पर आधारित होते हैं। जब हम संसार के भीतर रचनात्मक कृत्य भी कर रहे होते हैं तब भी हमें इस बात का भान नहीं होता कि हम किस प्रकार अस्तित्वमान हैं और यह अशांतकारी मनोभावों सहित अथवा उनके अभाव में भी संभव है। मृत्यु के समय, हमारी सचेतनता का अभाव सकारात्मक अथवा नकारात्मक कार्मिक संभाव्यताओं को सक्रिय कर देता है जिसके परिणामस्वरुप संसार में पुनर्जन्म होता है। इस स्तर पर, हमें अपने अशांतकारी मनोभावों और उसके मूल में स्थित सचेतनता के अभाव पर विचार करना चाहिए।

इससे पहले कि हम तंत्र में पदार्पण करें, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने अशांतकारी मनोभावों को क्षीण करें। इसका अभिप्राय यह नहीं कि हम क्रोध अथवा आसक्ति से पूर्ण रूप से मुक्त हो जायेंगे अपितु हम अपने मनोभावों में किंचित सुधार कर पायेंगें। जब हम अपने अशांतकारी मनोभावों – इच्छा, क्रोध, मूढ़ता, अहंकार – को अपने पथ के अंग के रूप में प्रयोग करते हैं और यदि हम उन पर विजय पाने में प्रगति नहीं कर पाए हैं तो इस बात का खतरा है कि उनके वशीभूत होकर भावात्मक रूप से अशांत होकर विनाशकारी कृत्य करें और इस प्रकार अधिक नकारात्मक कार्मिक संभाव्यता निर्मित करें।

इसका एक उदाहरण इच्छा है। ऐसे बहुत से तांत्रिक प्रतीक हैं जो अपनी प्रकृति में यौन सम्बन्धी लगते हैं और प्राय: हम साधना के दौरान स्वयं को संभोगरत युग्म कल्पित कर लेते हैं। यहाँ युग्म सामान्य नर-नारी नहीं हैं। इसके स्थान पर, यह बिम्ब माता और पिता का है – माता शून्यता के बोध का प्रतिनिधित्व करती हैं जबकि पिता पद्धति का प्रतिनिधित्व करते हैं। माता(ज्ञान) एवं पिता(पद्धति) का योग बालक को जन्म देता है जो बुद्धत्व का परिचायक है। तांत्रिक ग्रथों में कहा गया है कि हमें इच्छा के माध्यम से इच्छा से मुक्त होने का प्रयोग करना चाहिए। अत: यदि अब हम इच्छा के वशीभूत होने की घातक स्थिति में नहीं हैं तो हम इसका उपयोग एक आनंदमय चित्त का सृजन करने में कर सकते हैं। शून्यता के बोध के साथ हम इच्छा को पूर्णत: समाप्त कर सकते हैं। यह अत्यंत नाजुक है – यदि अनुभव को लेश मात्र भी मूर्त मान लिया गया तो शून्यता के बोध का अवसर समाप्त हो जाएगा।

दूसरा उदाहरण है क्रोध। अनेक तांत्रिक साधनाओं में हम स्वयं को एक बलशाली रूप में कल्पित करते हैं जहाँ हम स्वयं अपने क्रोध को अपनी नकारात्मक मनोदृष्टियों का विनाश करने के लिए एक शस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। यह विशेषतया सहायक है उस मनोदृष्टि पर विजय पाने में जहाँ हम अपने प्रति अत्यन्त मृदु रहते हैं अथवा यह सोचते हैं कि हम ज्ञानोदय प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं। इसके अतिरिक्त इन साधनाओं को आरम्भ करने से पहले यदि हम क्रोध पर विजय पाने में विशेष प्रगति नहीं कर पाए हैं तो हम अपनी मानसिक प्रताड़ना करेंगे तथा औरों के अशांतकारी मनोभावों के प्रति भी धैर्यशील नहीं होंगें।

तीसरा आर्यसत्य : नैषकाम्य

एक बार जब हमें दुःख और दुःख के कारणों का बोध हो जाता है तो हमें यह समझना होगा कि इनका सत्य अवरोधन संभव है। यदि हम यह समझ जाते हैं तो हमें नैषकाम्य प्राप्त होगा : दुःख से मुक्ति पाने का संकल्प जो इस विश्वास पर आधारित है कि यह संभव है। यदि हमारे भीतर यह नहीं है तो सब कुछ इच्छित विश्वास बनकर रह जाता है।

हमें अपनी सामान्य प्रतीतियों का त्याग करने का संकल्प भी करना होगा जहाँ हम सब चीज़ों को स्वतंत्र आलम्बन के रूप में देखते हैं मानो वे किसी प्लास्टिक में लिपटे हुए सब चीज़ों से बिल्कुल अलग-थलग हों। हमारा चित्त इन प्रतीतियों से भ्रामक रूप से सम्बन्ध स्थापित करता है; यह सोचते हुए कि ये उसी रूप में अस्तित्वमान है जिस रूप में हमें दिखाई दे रहें हैं। हम कुछ के प्रति आकर्षित होते हैं, कुछ के प्रति विकर्षित होते हैं तथा कुछ के प्रति तटस्थ रहते हैं। वास्तव में इस संसार का जो बोध हमें होता है उससे मुक्त हो पाना वास्तव में अत्यंत कठिन है परन्तु इन प्रतीतियों से चिपक कर रह जाना हमारे लिए दुःख का कारण बनता है। अत: हमें संकल्पबद्ध होना चाहिए कि हम इनसे मुक्त हो सकें।

हमें सावधानी बरतनी चाहिए कि हम उस अतिवाद तक न पहुँच जायें चूँकि सामान्य रूप से हमारा चित्त जिस प्रकार चीज़ों को देखता है वह भ्रामक है और इसलिए कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। इस प्रकार का शून्यवाद घातक है क्योंकि इसके परिणामस्वरुप हम उनकी अनदेखी कर सकते हैं जो दुःख उठा रहे हैं, यह सोचकर कि वे यथार्थ नहीं हैं।

चौथा आर्यसत्य : तीन उच्चतर साधनाएँ

नैषकाम्य को अपनी प्रेरणा बनाकर हम तीन उच्चतर साधनाओं का अभ्यास करते हैं :

  • नैतिक अनुशासन, जिसके आभाव में हम साधना जारी नहीं रख सकते
  • एकाग्रता, जिसके अभाव में हम जटिल मानस दर्शन का अभ्यास नहीं कर सकते
  • सविवेकी सचेतनता, यथार्थ एवं कल्पना के भेद को समझने के लिए।

अनुशासन का आरम्भ होता है अपने कृत्यों तथा वाणी, तत्पश्चात अपने चित्त पर दृष्टि रखने के साथ। एकाग्रता से अभिप्राय है एक ऐसा चित्त जो मानसिक भटकाव, चंचल चित्तता, मानसिक शिथिलता इत्यादि से मुक्त हो – यह हम तांत्रिक साधना से विकसित कर सकते हैं परन्तु आरम्भ में इसे कर पाना कठिन हो जाता है। आदर्श रूप में हमारे भीतर वह आनंद, पूर्णत: एकाग्र मनोदशा जागृत हो जानी चाहिए जिसे शमथ कहते हैं, जिसे बिना किसी व्यवधान अथवा ह्रास के चार घंटे तक जारी रखा जा सकता है।

सृजन स्तर पर जब हम अपनी कल्पना में सुधार कर रहे होते हैं, हमें बहुत अधिक मात्रा में ब्यौरों पर ध्यान केन्द्रित करना होता है; हमें ब्रह्माण्ड के आकार के समग्र मंडल की आकृतियों और लक्षणों की कल्पना करने में समर्थ होना होगा और फिर उस समग्र को अपनी नाक की नोंक पर एक लघु बिंदु में समाहित देखना होगा, पूर्ण रूप से चार घंटे के लिए। जब हमने इस पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया हो, तब हम सम्पूर्ण स्तर का अभ्यास आरम्भ कर सकते हैं, अपनी वास्तविक सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली के साथ यदि हम सटीक रूप से मंडल के प्रत्येक भाग के  विविक्त ब्यौरों का मानस दर्शन कर सकते हैं तो उस स्थिति में अपनी नाड़ियों की वायु और ऊर्जा के परिचालन का प्रयास बिल्कुल व्यर्थ है। यदि हम लेज़र जैसी एकाग्रता के अभाव में अपनी ऊर्जा को नियंत्रित करने की चेष्टा करेंगे तो उनमें गड़बड़ी पैदा हो सकती है और उससे हमारे स्नायु तंत्र तथा चित्त को भयानक क्षति हो सकती है। इस बात पर ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह नहीं सोचना चाहिए कि यह कोई ऐसी चीज़ है कि कोई भी इसे अपने आप कर सकता है। यथार्थ एवं कल्पना में भेद करने के लिए सविवेकी सचेतनता आवश्यक है। शून्यता के बोध के अभाव में इस बात का खतरा है कि आप पूरी तरह विभक्त मनस्व हो जायें और स्वयं को देव स्वरुप मानने लगें। यह देव के रूप में प्रेत बनकर पुनर्जन्म लेने का कारण बन जाएगा।

उन्नत स्तर : समचित्तता, प्रेम तथा बोधिचित्त

उन्नत स्तर पर, हम सर्वप्रथम सभी सत्वों के प्रति समचित्तता विकसित करते हैं। साधना का यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है जब हम कल्पना करते हैं कि सभी सत्वों के हित के लिए प्रकाश की किरणें उद्भासित हो रही हैं, ये सचमुच पूर्ण रूप से प्रत्येक सत्व के लिए हैं। जिस प्रकार सूर्य की किरणें बिना किसी पक्षपात के सबके लिए विकीर्ण होती हैं।

समचित्तता के आधार पर हम प्रेम विकसित करते हैं जिसका अभिप्राय है कि यह कामना करना कि सब सुखी हों तथा सकारण सुखी हों; तथा यह कामना कि सब प्राणी दुःख तथा उसके कारणों से मुक्त हो जायें। हम कल्पना करते हैं कि प्रकाश की किरणें उद्भासित होकर सबके दुःख दूर कर रहीं हैं तथा उन्हें सुख प्रदान कर रहीं हैं। यह एक असाधारण रूप से सारगर्भित साधना है जिसमें उद्भासित प्रकाश हमारी ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है जो दूसरों को लाभान्वित कर रहा है और वे प्रकाश की किरणें जो वापस लौट रही हैं वे प्रतिनिधित्व करती हैं केन्द्रीय नाड़ी में विलय होती ऊर्जा एवं वायु का। परन्तु एक प्रेमी चित्त एवं करुणा के साथ न होने पर केवल प्रकाश की किरणें उद्भासित होने तथा पलटकर विलय होने की कल्पना करने में कोई सार नहीं है।

अंत में, हम बोधिचित्त विकसित करते हैं। हमारा लक्ष्य होता है स्वयं ज्ञानोदय प्राप्त करना तथा यथासंभव असंख्य जीवित प्राणियों का हित करना। अभी तक हमें ज्ञानोदय प्राप्ति नहीं हुई है परन्तु तांत्रिक साधना हमारी सहायता करती है स्वयं का “बुद्ध छवि” के रूप में मानस-दर्शन जो प्रतिनिधित्व करता है उस ज्ञानोदय प्राप्त अवस्था का जो हमारा लक्ष्य है। अथवा स्वयं के ऐसे मानस-दर्शन का अर्थ ही क्या है? परन्तु ऐसे मानस-दर्शन का अभ्यास करने के बाद अपनी सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली तथा सूक्ष्म चित्त की ऐसी साधना की जाती है कि कालांतर में हम एक ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध का रूप ग्रहण कर सकें।

सारांश

तंत्र की प्रभावी साधना के लिए हमें प्रेरणा के तीन चरणों की आधारशिला चाहिए जिसका उल्लेख इस दो भागों वाली श्रृंखला में किया गया है। आरम्भिक विषय विस्तार में हम निर्भर करते हैं एक आध्यात्मिक गुरु पर जो हमारे मर्म का स्पर्श करता है और जिसके प्रति गहरा सम्मान जागृत होता है हमारे बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म हेतु जो कि तंत्र साधना का आधार है। मृत्यु एवं अनित्यता का बोध तांत्रिक साधना में मृत्यु, अंतराभाव एवं पुनर्जन्म प्रक्रिया का आधार होता है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम इस अवसर से लाभान्वित हों।

मध्यवर्ती विषय विस्तार में हम पुनर्जन्म के सम्पूर्ण परित्याग की कामना करते हैं और शुद्ध आनंद की ओर अग्रसर होने की कामना करते हैं जो चार आर्यसत्यों के गहन बोध पर आधारित होता है। इस स्तर पर हम यह भी सीखते हैं कि अपने अशांतकारी मनोभावों को क्षीण करके अपनी तंत्र साधना को कैसे सुदृढ़ करें और अपने साधारण बोध का परित्याग करें। नैषकाम्य के साथ हम अनुशासन, एकाग्रता और सविवेकी सचेतनता की तीन उच्चतर साधनाओं का अभ्यास करते हैं। इस प्रकार हम अपने साधना अधिवेशनों में मानस-दर्शन के वास्तविक यथार्थ पर, भ्रमित हुए बिना, ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं।

अंत में उच्चतम स्तर पर हम सभी सत्वों के प्रति समचित्तता विकसित करते हैं और उसके बाद सबके प्रति प्रेम और करुणा विकसित करते हैं ताकि वे सुखी हों और कष्ट न पायें; और इसके बाद बोधिचित्त का अर्थात सबके हित के लिए ज्ञानोदय का लक्ष्य साधन करते हैं। अपने मानस दर्शनों में हम इन सबका उपयोग करते हैं यह कल्पना करते हुए हम अभी से बुद्ध के रूप में, सबके लिए समान भाव से अप्रमाद का प्रसार कर रहे हैं।

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