पारम्परिक कथाएं: कर्म तथा शरणागति

विभाजनकारी भाषा के प्रयोग से बचने के सम्बंध में और आगे

कल हम पाँचवें प्रकार के विनाशकारी कृत्य, यानी विभाजनकारी भाषा के प्रयोग के बारे में चर्चा कर रहे थे। हम शरीर के स्तर पर तीन विनाशकारी कृत्यों और वाणी सम्बंधी पहले विनाशकारी कृत्य के बारे में पहले ही बात कर चुके हैं। हम वाणी के दूसरे विनाशकारी कृत्य, यानी फूट डालने वाली भाषा के प्रयोग के बारे में चर्चा कर रहे थे।

फूट डालने वाली भाषा का आधार ऐसे व्यक्तियों का समूह होता है जिनके बीच आपसी समरसता या तो होती है या फिर नहीं होती है। इसके दो आधार इसलिए हैं क्योंकि आप मैत्रीपूर्ण ढंग से रह रहे लोगों के समूह में फूट डालकर समूह के सदस्यों को एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं, और इसी प्रकार किसी ऐसे समूह, जिसमें पहले ही समरसता न हो, उसकी स्थिति और भी बदतर हो सकती है। इससे सम्बंधित संकल्प में एक प्रेरणा, एक अशांतकारी दृष्टिकोण, और एक बोध शामिल होते हैं। बोध दरअसल उन लोगों की स्थिति का ठीक-ठीक ज्ञान है जिनसे आप बात कर रहे होते हैं। अशांतकारी मनोभाव मोह, क्रोध, या बौद्धिक संकीर्णता आधारित अज्ञान हो सकता है। यहाँ प्रेरणा यह होगी कि जिन लोगों के बीच समरसता नहीं है, उनके बीच एकता स्थापित न होने दी जाए, या जिन लोगों के बीच समरसता है, वे एक-दूसरे से अलग-अलग हो जाएं।

कृत्य किसी भी प्रकार की वाणी के रूप में हो सकता है, चाहे वह सत्य हो या असत्य हो। आप कोई अच्छी बात कह सकते हैं या फिर कुछ अप्रिय कह सकते हैं। ऐसा करने के कई तरीके हो सकते हैं। इस कृत्य की परिणति इस रूप में होती है कि आप उन लोगों को आपस में बांट कर एक बड़ी दीवार खड़ी कर देते हैं; उन लोगों के बीच आपस में एक बड़ी दूरी या अन्तर पैदा हो जाता है।

कठोर भाषा के प्रयोग से बचना

वाणी का दूसरा विनाशकारी कृत्य कठोर और अपशब्द वाली भाषा का प्रयोग करना, निष्ठुरतापूर्ण वचन कहना है। इसका भी एक आधार, एक संकल्प, एक कृत्य और एक निष्कर्ष होता है। आधार वह व्यक्ति होता है जिसने आपको या आपके किसी मित्र या सम्बंधी को क्षति पहुँचाई हो, और जिसके बारे में आपको लगता है कि वह भविष्य में पुनः क्षति पहुँचाएगा। इसलिए आप ऐसे व्यक्ति से नाराज़ होते हैं।कोई कठोर बात कहने की प्रेरणा इस सम्बंध में संकल्प होती है। प्रयोग किए जाने वाले शब्द सत्य या असत्य हो सकते हैं। ये किसी भी प्रकार के कठोर वचने हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति को “लंगड़ा” कहना सत्य हो सकता है, किन्तु यह निष्ठुरता है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को “लंगड़ा” कहा जाए जो शारीरिक रूप से विकलांग न हो तो यह ऐसी कठोर वाणी का उदाहरण होगा जो असत्य है। इसमें प्रिय और अप्रिय दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग शामिल हो सकता है। आप किसी को बौना कह कर उसका मज़ाक उड़ा सकते हैं। आप किसी साँवले वर्ण वाले व्यक्ति पर कानों को मधुर लगने वाले शब्द बोलते हुए भी व्यंग्य कर सकते हैं, “आप कितने गोरे हैं!”या, आप किसी निर्धन व्यक्ति को अमीर बताकर उसका मज़ाक उड़ा सकते हैं। जो व्यक्ति बुद्धत्व को प्राप्त न हुआ हो, आप उसे बुद्ध कहकर उस पर व्यंग्य कर सकते हैं। मीठे, कर्णमधुर शब्दों का प्रयोग करते हुए दूसरों से बात करने का यह एक निष्ठुर तरीका है। जब दूसरा व्यक्ति आपके निहितार्थ को समझ जाता है तब यह कृत्य पूर्ण हो जाता है।

निरर्थक बकबक से बचना

निरर्थक बकबक करना, कोई अर्थहीन बातें करना वाणी का दूसरा विनाशकारी कृत्य है। इसका भी एक आधार, एक संकल्प, एक कृत्य और एक निष्कर्ष होता है। किसी भी प्रकार की निरर्थक और निरुद्देश्य बातें करना इसका आधार होता है। निष्कर्ष को छोड़ कर बाकी बातें इस मामले में भी ऊपर की गई चर्चा के समान ही होती हैं। आपकी कही हुई बात को किसी के लिए समझना आवश्यक नहीं होता है। केवल मूढ़ता की कोई बेमतलब बात को कह देने मात्र से ही कृत्य पूरा हो जाता है। उदाहरण के लिए, निरर्थक कल्पित कथाओं को ज़ोर-ज़ोर से पढ़ना निरर्थक बकबक की श्रेणी में आएगा क्योंकि ऐसा करने के पीछे कोई प्रयोजन नहीं होता है।

लालचपूर्ण विचारों से बचना

अगली प्रकार के विनाशकारी कृत्य मानसिक होते हैं। उनमें से पहला है लालचपूर्ण विचार करना, ऐसे विचार करना जहाँ हम किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त करने की लालसा रखते हैं जो किसी दूसरे के पास होता है। कामना की वस्तु किसी दूसरे व्यक्ति की कोई सम्पत्ति होती है, वह उस व्यक्ति का धन हो सकता है, उसकी सम्पत्ति, उसका मकान आदि जैसी कोई भौतिक वस्तु हो सकती है। ऐसी कोई भी वस्तु हो सकती है। इस प्रकार के विचार में आप उन चीज़ों को देखते हैं और वे कामना करते हैं कि वे चीज़ें आपके पास भी हों। कृत्य उस समय पूरा हो जाता है जब आप उस चीज़ को प्राप्त करने के लिए प्रयास करने का निश्चय कर लेते हैं जो किसी दूसरे के पास है।

दुर्भावपूर्ण विचारों से बचना

नौवां विनाशकारी कृत्य दुर्भावपूर्ण विचार करना या दूसरों को क्षति पहुँचाने की इच्छा रखना है। इसका आधार वही होता है जो कठोर और अपशब्द वाली भाषा के प्रयोग के मामले में होता है। यानी, कोई ऐसा व्यक्ति जिसने आपको या आपके किसी सम्बंधी या मित्र को क्षति पहुँचाई हो, जिसके बारे में आप यह मानते हों कि वह दोबारा क्षति पहुँचाएगा, और जिससे आप नाराज़ हों। प्रेरणा यह होगी कि आप उस व्यक्ति पर घूँसे से प्रहार करना चाहेंगे या किसी और प्रकार से उसे क्षति पहुँचाना चाहेंगे। यह कृत्य मानसिक स्तर पर उस समय पूरा हो जाता है जब आप आपने दुर्भावपूर्ण विचार को अमल में लाने का पूरा निश्चय कर लेते हैं। “मैं उस व्यक्ति के पास जाऊँगा और उसके चेहरे पर घूँसे से प्रहार करूँगा,” या “मुझे तब तक अच्छा नहीं लगेगा जब तक कि मैं इस व्यक्ति को जम कर पीट न लूँ।”

विकृत दृष्टिकोण के आधार पर विचार करने से बचना

जहाँ तक विकृत दृष्टिकोण के आधार पर विचार करने का सम्बंध है, इसका आधार कोई ऐसा विचार होगा जो विकृत दृष्टिकोण पर आधारित हो। इसका अर्थ है किसी तथ्य को अस्वीकार करना। उदाहरण के लिए, आग्रहपूर्वक यह कहना कि इस जन्म के बाद अगले जन्म नहीं होते जब कि ऐसा है कि अगला जन्म होता है, या इस बात पर अड़े रहना कि सकारात्मक और रचनात्मक आचरण करने के परिणामस्वरूप खुशी नहीं मिलती। ये सभी विकृत दृष्टिकोण के आधार पर विचार करने, सत्य को अस्वीकार करने के उदाहरण हैं।

आवेग (कर्म) और आवेगों के मार्ग (कार्मिक मार्ग)

ऐसे बहुत से बिन्दु हैं जिनके बारे में आप आगे और अधिक विवेचन कर सकते हैं। शरीर और वाणी के स्तर के सात विनाशकारी कृत्यों में से सभी सात कृत्य किसी प्रकार का आवेग हैं, और साथ ही वे उस आवेग का मार्ग भी हैं। वहीं दूसरी ओर तीन प्रकार के मानसिक विनाशकारी कृत्य उस आवेग का मार्ग हैं, किन्तु वे स्वयं अपने आप में आवेग नहीं हैं। कर्म की वास्तविक परिभाषा यह है कि कर्म कुछ करने की प्रेरणा है। यह आवेग या प्रेरणा एक गौण मानसिक दृष्टिकोण है, किसी आवेग का मार्ग नहीं है। यह एक तकनीकी भेद है जिसके बारे में आगे चलकर विश्लेषण किया जा सकता है।

भविष्य में जब यहाँ आपके पास कोई कुशल गेशे होंगे, तब उनसे पूछने के लिए यह एक अच्छा प्रश्न रहेगा। आकाश में स्थित विभिन्न खगोलीय पिंडों आदि के बारे में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछना कोई बहुत प्रगाढ़ बात नहीं है। यदि आप अभ्यास करते रहें और मंत्रों का उच्चार आदि करें तो इस प्रकार की बातें विद्वानों को पूछे बिना स्वतः ही स्पष्ट हो जाएंगी। चंद्रमा आदि के बारे में प्रश्न पूछने का जहाँ तक सम्बंध है, इन प्रश्नों के उत्तर ग्रंथों का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाएंगे। मैं यहाँ सिर्फ कुछ छोटी-छोटी बातों को विषय से थोड़ा हटकर स्पष्ट कर रहा हूँ। इन सभी बातों के विस्तार में जाने के लिए अभी पर्याप्त समय नहीं है।

कृत्यों का भार

हल्केपन या भारीपन के आधार पर भी कृत्यों के बीच अंतर होता है। जो व्यक्ति आदतन हर समय विनाशकारी कृत्य करता रहता हो, जैसे कोई वधिक हर समय हत्या करता रहता है, तो ऐसे व्यक्ति का किया हुआ छोटा सा विनाशकारी कृत्य भी बहुत भारी होता है। उदाहरण के लिए, निरर्थक बकबक करने को विनाशकारी कृत्यों में सबसे हल्का माना जाता है, लेकिन जब हम हर समय ही व्यर्थ की बकबक करते रहें तो बार-बार किए जाने के कारण से ही यह कृत्य बहुत भारी हो जाता है। जैसे यदि आपके पास बड़ी संख्या में कागज़ के पतले पन्न हों तो संख्या अधिक होने के कारण वे भी भारी हो जाते हैं। इसके अलावा, यदि किसी कृत्य को बड़ी प्रबल प्रेरणा से किया जाए तो वह भारी हो जाता है। इसी तरह यदि आप कोई नकारात्मक या विनाशकारी कृत्य करें और उसके लिए कोई पछतावा महसूस न करें या आत्मशुद्धि के लिए चार शक्तियों में से किसी एक का भी प्रयोग न करें, तो नकारात्मक संभाव्यता बहुत भारी हो जाती है।

सकारात्मक कृत्यों को करने से जो सकारात्मक संभाव्यता निर्मित की जा सकती है वह भी बहुत भारी या कमज़ोर हो सकती है। यदि आप क्रोध न करें तो सकारात्मक सामर्थ्य दृढ़ रहती है। यदि कोई आध्यात्मिक गुरु, आपके माता-पिता या त्रिरत्न आपके सकारात्मक कृत्य का लक्ष्य हों तो सकारात्मक संभाव्यता का गुरुत्व बहुत बढ़ जाता है। इसी प्रकार यदि आप इनके प्रति कोई नकारात्मक या विनाशकारी कृत्य करते हैं तो निर्मित होने वाली नकारात्मक संभाव्यता बहुत भारी होती है।

जब हम इन बिंदुओं के बारे में विचार करते हैं, तो हमें यह निश्चय करना चाहिए कि हम सबसे दृढ़ और सबसे अधिक भार वाले सकारात्मक, रचनात्मक कृत्य करें और सबसे अधिक भार वाले नकारात्मक कृत्यों से बचें। यदि आपके पास समान मात्रा में सीसा और सोना हो, तो आप सोने की वृद्धि करना चाहेंगे, सीसे की नहीं। इसी प्रकार, इन सकारात्मक और नकारात्मक संभाव्यताओं की दृष्टि से, यदि आपके पास दोनों समान मात्रा में हों, तो आप नकारात्मक संभाव्यताओं को त्याग कर सकारात्मक संभाव्यताओं को अपने पास रखना चाहेंगे।

शरीर के स्तर पर तीन और वाणी के स्तर पर चार नकारात्मक कृत्यों की दृष्टि से इनमें से शरीर के स्तर वाले नकारात्मक कृत्य सबसे अधिक वज़नी होते हैं। प्रकृति की दृष्टि से वाणी के स्तर वाले नकारात्मक कृत्य अपेक्षाकृत हल्के होते हैं। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति को उसका जीवन सबसे अधिक प्रिय होता है, इसलिए किसी की हत्या करना शरीर के स्तर पर सबसे अधिक वज़नदार विनाशकारी कृत्य है, जबकि चोरी करके किसी को उसकी सम्पत्ति से वंचित करना अपेक्षाकृत हल्का विनाशकारी कृत्य है, और यौन दुराचार को इन तीनों में से सबसे कम वज़नी माना जाएगा। वाणी के स्तर पर विनाशाकारी कृत्यों के मामले में भी यही बात लागू होती है। झूठ बोलना सबसे अधिक वज़नदार है और उसके बाद फूट डालने वाली भाषा के प्रयोग की बारी आती है; कठोर वचन कहना और निरर्थक बकबक करना क्रमशः और अधिक हल्के विनाशकारी कृत्य हैं। चित्त के स्तर पर विनाशकारी कृत्यों के मामले में स्थिति एकदम उलट है। पहले उल्लेख किए गए विनाशकारी कृत्य हल्के होते हैं जबकि बाद वाले कृत्य अपेक्षाकृत भारी होते हैं। उन तीन विनाशकारी कृत्यों में से लालचपूर्ण विचार करना सबसे हल्का विनाशकारी कृत्य है, दुर्भावपूर्ण विचार करना उससे अधिक भारी है, और विकृत दृष्टिकोण के आधार पर विचार करना सबसे अधिक भारी विनाशकारी कृत्य है।

इन दस विनाशकारी कृत्यों में से किसी भी विनाशकारी कृत्य को करने से बचना और दस प्रकार के सकारात्मक कृत्यों को करने का अभ्यास करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विगत में मंगोलिया में एक बहुत ही गुणी गेशे हुए। वे एक श्रेष्ठ आचार्य थे जो एक तांत्रिक विद्यापीठ के मठाध्यक्ष हुए। मैंने स्वयं उनसे शिक्षा ग्रहण की थी। एक बार एक कुलीनजन उनके पास आए और उन्होंने इन महान आचार्य से शून्यता के बारे में प्रश्न पूछे। आचार्य ने जवाब दिया, “शून्यता को भूल जाइए, पहले आपको चोर जैसा आचरण बंद कर देना चाहिए।” उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वे जानते थे कि ये कुलीन व्यक्ति लूट और डाकाजनी में लिप्त था। अभिजात वर्ग के कुछ लोग कभी-कभी मठों के सदस्यों को भेंट-चढ़ावा अर्पित कर सकते हैं, लेकिन ये लोग अक्सर अपना पैसा आम जनता का शोषण करके कमाते हैं और उसमें से अधिकांश अपने पास ही रख लेते हैं।

इस प्रकार हमने विभिन्न प्रकार के कृत्यों के भारीपन या हल्केपन के बारे में चर्चा की है।

कृत्यों के परिणाम

इन सभी प्रकार के विनाशकारी कृत्यों का परिपक्व परिणाम एक ही होता है, नरक के किसी जीव, प्रेत या किसी पशु के रूप में पुनर्जन्म। कारणों के आधार पर परिणाम दो प्रकार के होते हैं। ऐसे परिणाम जो आपके अनुभव के अनुसार कारण के अनुरूप होते हैं, और दूसरे वे जो आपके सहज व्यवहार की दृष्टि से कारणों के अनुरूप होते हैं। हत्या के सम्बंध में कल इसके बारे में चर्चा की गई थी। आपके अनुभव में अपने कारण के अनुरूप होने वाला परिणाम यह होगा कि आपका जीवन छोटा होगा और रोग के कष्टों से भरा होगा।

कठोर शब्दों और अपशब्दों वाली भाषा का प्रयोग करने का परिणाम यह होता है कि दूसरे लोग सदैव आप पर चिल्लाते हैं और आपको अप्रिय बातें कहते हैं, और आपको हमेशा अपमानजनक भाषा सुननी पड़ती है। निरर्थक बकबक का परिणाम यह होता है कि कोई भी आपकी बात नहीं सुनेगा। कोई भी आपकी बात पर ध्यान नहीं देगा, और न ही आपकी बात को गम्भीरता से लेगा। यदि लोग हमेशा आपके द्वारा कही हुई बात को सुनते हों, तो यह इस बात का नतीजा है कि आपने निरर्थक बकबक करने की आदत का त्याग कर दिया है। यदि आप बहुत अधिक लालचपूर्ण विचार रखने वाले होंगे तो इसका परिणाम यह होगा कि आप बहुत अधिक मोह और लालसा वाले व्यक्ति बन जाएंगे। द्वेषपूर्ण विचारों के परिणामस्वरूप आप बहुत शत्रुभाव रखने वाले और क्रोधी व्यक्ति बन जाएंगे। विकृत् दृष्टिकोण पर आधारित विचार रखने पर बहुत संकीर्ण बुद्धि वाले और अज्ञानी व्यक्ति बन जाएंगे।

इनमें से प्रत्येक विनाशकारी कृत्य के कारण का परिणाम यह होता है कि बचपन से ही आप सहज रूप से इन विनाशकारी कृत्यों को बार-बार करने के लिए प्रवृत्त होंगे। जैसा कि हमने कल स्पष्ट किया था, किसी की हत्या न करने का व्यापक प्रभाव यह होता है कि जिस भूमि पर आपका जन्म होगा वह धन-धान्य से परिपूर्ण और सामर्थ्यवान होगी। इसी प्रकार वहाँ की औषधियाँ बहुत प्रभावकारी होंगी। चोरी करने, जो दिया न गया हो उसका हरण करने का व्यापक परिणाम यह होता है कि आपके जन्म की भूमि में फसलों की उपज बहुत कम होगी। वर्षा का अभाव होगा और चारों ओर धूल आदि बिखरी होगी। अनुचित यौन व्यवहार का परिणाम यह होता है कि आपके जन्म का देश अस्वच्छता और गंदगी से भरा होगा, वहाँ हर ओर कचरा और गंदगी बिखरी होगी।

झूठ बोलने का परिणाम यह होता है कि जब आप अपने खेतों में रुपाई करते हैं तो नतीजे आपकी योजना और अपेक्षा के अनुरूप नहीं आते हैं। फूट डालने वाली भाषा के प्रयोग का परिणाम यह होता है कि जिस देश में आपका जन्म हुआ है वहाँ की ज़मीन बहुत ऊबड़-खाबड़ होती है;दुर्गम खड्डों और सँकरी घाटियों से भरी होती है। वहाँ कहीं भी पहुँचना बहुत कठिन होगा। कठोर और अपशब्दों वाली भाषा के प्रयोग का परिणाम यह है कि उस देश की ज़मीन काँटों से भरी और पथरीली होगी और वहाँ का वातावरण बहुत कठोर होगा। निरर्थक बकबक के परिणामस्वरूप फसलें अनियमित होंगी। फसलें असमय उगेंगी, या फिर फसल का समय होने के बावजूद कोई उपज नहीं होगी।

लालचपूर्ण विचारों का व्यापक परिणाम यह होता है कि देश में सब कुछ बड़ी तेज़ी के साथ विखंडित होने लगता है, सभी अच्छी चीज़ें नष्ट हो जाती हैं। द्वेष का व्यापक परिणाम यह होता है कि देश में रोगों और महामारियों का बोलबाला रहता है। महान गुरु रिंपोशे, पद्मसंभव ने भविष्यवाणी की थी कि भविष्य में नई किस्म की बहुत सी बीमारियाँ होंगी जिनके नाम पहले नहीं सुने गए होंगे और उनके उपचार के लिए कोई दवाएं या इलाज के तरीके उपलब्ध नहीं होंगे, और यह सब दुर्भाव और घृणा के प्रबल विचारों के परिणामस्वरूप होगा। हम देख रहें हैं कि वह भविष्यवाणी सच साबित हुई है। मानवजाति कई आधुनिक रोगों से पीड़ित है। विकृत दृष्टिकोण के आधार पर विचार करने का व्यापक परिणाम यह होगा कि उस देश के संसाधनों के भंडार खाली हो जाएंगे। हो सकता है कि किसी देश में पानी, पेड़, खानों, सम्पदा, तेल आदि के प्रचुर भंडार रहे हों, लेकिन ये सब संसाधन क्षीण हो जाते हैं।

सकारात्मक कृत्यों के व्यापक परिणाम इन परिणामों के विपरीत होते हैं। हत्या न करने की स्थिति में देश में उत्पन्न होने वाली औषधियाँ बहुत असरदार और प्रभावकारी होंगी, और आहार वस्तुएँ बहुत स्वादिष्ट और पोषक होती हैं। सकारात्मक कृत्यों के शेष व्यापक परिणामों को आप विनाशकारी कृत्यों के व्यापक परिणामों से विपरीत स्थिति की कल्पना करके समझ सकते हैं।

संभाव्यताओं की तीव्रता

विभिन्न तत्वों के चार अलग-अलग मानकों के अनुसार कृत्यों से निर्मित होने वाली संभाव्यताओं की तीव्रता में भी अंतर होता है।एक क्षेत्र होता है, जिसका आशय उस व्यक्ति से होता है जो कृत्य का ध्येय होता है; आधार, जिसका आशय कृत्य को करने वाले व्यक्ति की परिस्थिति से होता है; कृत्य से सम्बंधित विषय; और कृत्य से सम्बंधित मनःस्थिति।

इनमें से पहले मानक यानी ध्येय की दृष्टि से किए जाने वाले कृत्य उस स्थिति में बहुत प्रबल हो जाते हैं जब वे त्रिरत्नों की ओर या आध्यात्मिक गुरुओं की ओर लक्षित होते हैं। कृत्य उस स्थिति में भी प्रबल हो जाते हैं जब वे उन लोगों की ओर लक्षित होते हैं जो दर्जे में आध्यात्मिक गुरुओं या लामाओं के समकक्ष होते हैं, और इसका आशय उन लोगों से होता है जो हमें यह शिक्षा देते हैं कि कौन से कृत्य लाभकारी हैं और कौन से हानिकारक हैं। आपको अच्छी सलाह देने वाला कोई भी व्यक्ति किसी आध्यात्मिक गुरु या लामा के समान होता है। इसी प्रकार माता या पिता भी कृत्य का बहुत प्रबल क्षेत्र होते हैं क्योंकि उनके प्रति आप किसी भी प्रकार का सकारात्मक या नकारात्मक प्रत्यक्ष कृत्य करते हैं, तो वह बहुत प्रबल हो जाता है। यदि आप इन लोगों की थोड़ी सी भी सहायता करते हैं तो उससे बड़ी प्रबल सकारात्मक संभाव्यता निर्मित होती है। और यदि आप उनके प्रति थोड़ा सा भी नकारात्मक या विनाशकारी कृत्य करते हैं, तो उससे बहुत प्रबल नकारात्मक संभाव्यता निर्मित होती है।

आधार की दृष्टि से, यदि किसी व्यक्ति ने प्रतिज्ञाएं धारण की हों, तो फिर उसके कृत्य बहुत प्रबल हो जाते हैं। किसी गृहस्थ, नवदीक्षित साधक, या पूर्ण दीक्षा प्राप्त भिक्षु या भिक्षुणी के रूप में धारण की गई प्रतिज्ञाओं के आधार पर सकारात्मक या नकारात्मक कृत्य प्रबल होते हैं। विशेष तौर पर यदि आप बोधिचित्त के समर्पित हृदय से, दूसरों के प्रति समर्पित हृदय से और ज्ञानोदय की प्राप्ति की दृष्टि से किसी प्रकार का सकारात्मक कृत्य करते हैं, तो वह कृत्य बेहद प्रबल और प्रभावकारी हो जाता है। यदि आप अपने दिन की शुरुआत यह सोचते हुए करें, “कितनी अच्छी बात है कि रात के समय मेरी मृत्यु नहीं हो गई। और अब जब मैं जाग गया हूँ, तो आज की इस सुबह मैं अपने आप को दूसरों की भलाई और ज्ञानोदय की प्राप्ति के लिए समर्पित करूँगा। मुझसे जितना अधिक सम्भव हो सके, मैं अपने आप को सकारात्मक और रचनात्मक बनाने का प्रयत्न करूँगा,” तो फिर आप दिन भर जो भी कार्य करेंगे, भले ही दिन भर आप इस बात के प्रति सचेत हों या न हों, उसके पीछे बहुत प्रबल प्रेरणा होगी। इसलिए दिन की शुरुआत इस प्रकार की सकारात्मक प्रेरणा के साथ करना बहुत महत्वपूर्ण है। प्रेरणा से संभाव्यताएं प्रबल होती हैं।

आखिरी उदाहरण चौथे बिंदु का एक उदाहरण था। यहाँ से पीछे लौटें तो तीसरे बिंदु के उदाहरण में सम्बंधित विषय निम्नानुसार है: उदारता की दृष्टि से, यदि आप दूसरों को उपदेश और आध्यात्मिक उपाय बताते हैं तो वैसा करना उन लोगों को कोई भौतिक वस्तु देने से कहीं अधिक प्रबल है। चौथे बिंदु, जो संभाव्यता की तीव्रता के सम्बंधित मनःस्थिति से बारे में है, का अभी उल्लेख किया गया। उदाहरण के लिए यदि आप असंख्य जीवों की भलाई के उद्देश्य से एक फूल भी अर्पित करते हैं तो उससे निर्मित होने वाली सकारात्मक संभाव्यता आनुपातिक रूप में बहुत व्यापक हो जाती है। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि आप जो कुछ भी करें, उसकी शुरुआत में ही एक बहुत प्रबल सकारात्मक प्रेरणा निर्धारित करें। यानी, किसी भी कृत्य के प्रारम्भ में ही बोधिचित्त हृदय के भाव को धारण करना और यह कामना करना कि आप जो भी करें वह सभी जीवों के लिए हितकारी हो, बहुत महत्वपूर्ण होता है। अन्ततः, यह बहुत आवश्यक है कि आप दिन भर में अर्जित की गई सकारात्मक संभाव्यता को सभी की भलाई के लिए ज्ञानोदय की प्राप्ति के उद्देश्य के लिए समर्पित कर दें।

इस प्रकार दिन की शुरुआत में सुबह आप जो संकल्प लेते हैं और रात को आप जो समर्पण करते हैं वह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यदि आप सोने से पहले रात को सकारात्मक और रचनात्मक व्यवहार करने का संकल्प लें और अगले दिन दूसरों की भलाई के लिए अधिक से अधिक प्रयास करें तो आपकी पूरी रात बहुत सकारात्मक होगी क्योंकि वह समय इस दृढ़ संकल्प के साथ बीतेगा। यदि आप अपने दिन-रात इस तरह लाभकारी और सकारात्मक ढंग से व्यतीत करें तो आप सचमुच अपनी आध्यात्मिक साधना को पूर्ण कर सकेंगे और एक परिपूर्ण जीवन जी सकेंगे।

एक बहुमूल्य मानव जीवन के आठ परिपक्व सद्गुण

जब आप अपने आप को इन दस विनाशकारी कृत्यों से विरत रखने के बारे में सोचते हैं तो आपको विचार करना चाहिए कि आपको यह बहुमूल्य मानव जीवन विगत में इन विनाशकारी कृत्यों से दूर रहने के परिणामस्वरूप हासिल हुआ है। सबसे अधिक प्रभावशाली और आसान तरीके से ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए एक ऐसे मानवीय आधार, ऐसे मानव शरीर का होना आवश्यक है जो आठ प्रकार के पूर्ण परिपक्व सद्गुणों से सम्पन्न हो। ये आठ गुण हैं – दीर्घायु जीवन; आकर्षक देहयष्टि; उत्तम पारिवारिक पृष्ठभूमि या वर्ण जिसमें आपका जन्म हुआ हो; सुसम्पन्नता; विश्वसनीय वाणी, ताकि आपकी बात पर विश्वास किया जा सके; बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली होना; और मज़बूत शरीर होना;गजब की सहनशक्ति और आत्मबल या इच्छा शक्ति। अंतिम गुण पुरुष होना है, क्योंकि पुरुष या महिला होने की दृष्टि से अक्सर परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि पुरुष अपने आप को धर्म की साधना के लिए ज़्यादा आसानी से समर्पित कर पाते हैं – कम से पारम्परिक रूप से यही स्थिति रही है।

इनमें से प्रत्येक का अपना महत्व है। दीर्घायु होने की स्थिति में आप अपने सभी प्रकार के अध्ययन और साधनाओं को पूरा कर सकेंगे। यदि आप सुंदर दिखते हैं तो लोग आपकी ओर आकर्षित होंगे और आपकी बात को सुनने के लिए आएंगे। यदि आप किसी शाही परिवार से हों तो स्वाभाविक है कि लोग आपकी कही हुई बातों को सुनेंगे; आपकी सलाह पर अमल करेंगे। यदि आप धन-सम्पत्ति से सम्पन्न होंगे, तो दूसरे लोग आपकी ओर आकर्षित होंगे, और आप बहुत से सकारात्मक कार्यों को करने के लिए संसाधन और सामर्थ्य से युक्त होंगे। यदि आपकी वाणी में विश्वसनीयता हो तो दूसरे लोग आपकी कही हुई बातों को ध्यान से सुनेंगे और आपकी बातों पर विश्वास करेंगे। यदि आपका पुनर्जन्म पुरुष के रूप में हुआ हो तो आपकी साधना में व्यवधान और बाधाएं कम होंगी। यदि आप बलशाली हों, तो आपके पास बड़े-बड़े कार्यों को करने की क्षमता होगी, वैसे ही जैसे मिलारेपा ने अपनी नौ मंज़िला मीनार का निर्माण किया था।

इनमें से प्रत्येक सद्गुण का कोई न कोई कारण होता है। दीर्घायु की प्राप्ति हत्या न करने, जीवों की रक्षा करने, रोगियों की सेवा करने और ज़रूरतमंदों को औषधि उपलब्ध कराने के कारण से होती है। त्रिरत्नों को घी के दीपों का अर्पण करने, दूसरों को वस्त्रदान, जवाहरात और आभूषणों का दान करने और क्रोध और ईर्ष्या भाव से विरत रहने से सुदर्शन काया के साथ जन्म होता है। आध्यात्मिक गुरुजन और माता-पिता के प्रति आदर भाव रखने, और ज्ञानवान तथा महानता के गुणों से सम्पन्न व्यक्तियों के प्रति आदर भाव रखने के कारण अच्छे कुल या सामाजिक वर्ग में जन्म होता है। इसका एक और कारण यह है कि व्यक्ति आडंबर से मुक्त हो और विनम्रता तथा आदरभाव से युक्त हो। धन से समृद्ध होने का कारण यह है कि ज़रूरतमंदों की, चाहे वे इसकी मांग न भी करें, भोजन, वस्त्र, धन आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। वाणी की विश्वसनीयता का कारण झूठ बोलने, कठोर वचन कहने, फूट डालने वाले वचन बोलने, या निरर्थक बकबक जैसे वाणी सम्बंधी विनाशकारी कृत्यों से विरत रहना है। बहुत प्रभावशाली और बलशाली होने का कारण त्रिरत्नों से प्रार्थना करना, सभी सद्गुणों से सम्पन्न होना और प्रभावशाली होना है। पुरुष के रूप में पुनर्जन्म प्राप्त करने का कारण पशुयों का बधियाकरण न करना, निर्बाध साधना कर सकने की पुरुषों की क्षमता और सामर्थ्यों के लिए आनन्दित होना, और मंजुश्री तथा मैत्रेय जैसे बोधिसत्वों के नाम और प्रशंसा का गान करना है। विलक्षण शारीरिक और मानसिक शक्ति और क्षमता का कारण ऐसे कार्यों को सम्पादित करना है जिन्हें अन्य लोग न कर सकते हों या कर पाने में अक्षम महसूस करते हों।

यह महत्वपूर्ण है कि इन सभी गुणों से पूरी तरह युक्त मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म पाने के लिए पार्थना की जाए, और इन गुणों को विकसित करने वाले विभिन्न प्रकार के लाभकारी और सकारात्मक कृत्य किए जाएं। यह भी महत्वपूर्ण है कि ऐसे गुणसम्पन्न शरीर और जीवन का उपयोग सकारात्मक ढंग से किया जाए क्योंकि यदि आप अपने जीवन को विनाशकारी या नकारात्मक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के रूप में जीते हैं तो जीवन और भी खराब हो जाता है। यह आवशयक है कि पूरी और पूर्ण प्रार्थना की जाए ताकि आप वैसा मानव जीवन प्राप्त कर सकें जिसका उपयोग सकारात्मक कार्यों के लिए किया जा सके। यदि आप चित्त के सद्गुणों को विकसित करने के लिए ध्यान साधना करना चाहते हैं तो अपने विभिन्न गुणों के बारे में विचार कीजिए और खुशी मनाइए कि आपके व्यक्तित्व में वे गुण हैं। और इस जीवन के सार तत्व को लेकर इन गुणों की सहायता से जीवन को सार्थक बनाइए। जीवन को व्यर्थ न गवाँए; इस जीवन का उपयोग इस तरह से करें कि आने वाले जन्म सफल हो सकें। जब आपको इस तरह का बोध होता है, तब वह प्रेरणा की प्रारम्भिक अवस्था होती है।

आप सभी यहाँ एकत्र हुए हैं यह बात सिद्ध करती है कि आपने यह जान लिया है कि जीवन में हर समय काम करते रहना ही काफी नहीं है। आप लोगों ने यहाँ आने और आध्यात्मिक उपदेशों को सुनने के लिए समय निकाला है। यह संकेत है कि आपको थोड़ा सा बोध पहले ही हो चुका है। यहाँ आना ही किसी बोध के कारण है। ऐसा न समझ लें कि इस बोध या अन्तर्दृष्टि से ही आप हवा में उड़ने लगेंगे, या चट्टान पर अपने पदचिह्न छोड़ने की योग्यता हासिल कर लेंगे। यदि ऐसा होता तो मुझ जैसे लोग जो साठ सालों से भी अधिक समय से साधना कर रहे हैं, वे सभी उन सभी शक्तियों या सिद्धियों को हासिल कर चुके होते। और यह भी न समझें कि इस तरह की चीज़ें कर पाना अपने आप में कोई बहुत बड़े अचरज की बात है। ऐसे भी लोग हैं जो श्वास की ऊर्जा की विभिन्न साधनाएं करते हैं और श्वास सम्बंधी अभ्यास करते हैं और हवा में ऊपर उठ सकते हैं और हवा में उड़ सकते हैं। ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है। दस विनाशकारी कृत्यों से अपने आप को सच्चे अर्थों में दूर रखना इससे कहीँ ज़्यादा बड़ी उपलब्धि है।

तंत्र के लिए तैयारी के रूप में विनाशकारी कृत्यों से बचने की आवश्यकता

जब अतिश को तिब्बत में आमंत्रित किया गया, तो वहाँ के आध्यात्मिक राजा जाँग्चुब वो ने उनसे अनुरोध किया कि वे उन्हें कारण और प्रभाव के बारे में उपदेश दें। राजा ने कहा, “कृपा करके हमें तंत्र के बारे में बहुत गूढ़ और जटिल उपदेश न दें।” यह सुन कर अतिश बहुत प्रसन्न हुए। तांत्रिक उपदेश सुनने या दीक्षाएं आदि प्राप्त करने से ही उत्तम वृत्तियाँ और संस्कार प्राप्त नहीं हो जाते हैं। यदि आपके पास अवसर हो तो ऐसा करना बहुत उपयोगी है। ऐसा करने का अवसर मिलना बड़े सौभाग्य की बात है। लेकिन, इसे करने का तरीका यह है कि प्रारम्भिक स्तर की साधनाओं को विभिन्न प्रकार के विनाशकारी कृत्यों से दूर रहते हुए भली प्रकार से किया जाए। और फिर उस साधना के आधार पर आपको प्रेरणा के और अधिक व्यापक स्तरों की साधना शुरू करनी चाहिए और अंततः आप एक समर्पित बोधिचित्त हृदय विकसित कर सकते हैं – एक ऐसा हृदय जो पूरी तरह दूसरों के साथ जुड़ा हो और दूसरों की भलाई करने की दृष्टि से ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए समर्पित हो। यदि आप इस प्रकार से तंत्र की साधना में प्रवेश करते हैं तो यह ज्ञानोदय तक शीघ्रता से पहुँचने का एक प्रभावी साधन है।

चित्त की रक्षा के लिए गुप्त उपाय, यानी तंत्र साधना के ऐसे उपाय हैं जो परिणामों से सम्बंधित होते हैं। सूत्र की शिक्षाएं, जो साधना की सामान्य विषयवस्तु होती हैं, कारणों से सम्बंधित होती हैं। परिणामों से सम्बंधित उपायों की चर्चा तब तक नहीं की जा सकती है जब तक कि कारणों से सम्बंधित उपायों की चर्चा न की जाए; कारणों के बिना परिणाम नहीं हो सकते हैं। यदि आप अपनी साधना की शुरुआत कारण सम्बंधी साधन से करें, और फिर उसके बाद परिणाम सम्बंधी साधन का अभ्यास करें, तो तंत्र का यह मज़बूत साधन ज्ञानोदय की प्राप्ति का द्रुत परिणामदायी और प्रभावकारी साधन बन जाता है।

यदि आप यह सुनकर ही सोचने लगें कि आप जल्दी से अभिषेक प्राप्त करें और उसका अभ्यास प्रारम्भ कर दें कि ये तांत्रिक विधियाँ बहुत जल्दी ज्ञानोदय प्राप्ति का मार्ग हैं, तो फिर आप कहीं भी नहीं पहुँच पाएंगे। उदाहरण के लिए, हालाँकि हवाई जहाज़ आकाश में बहुत तेज़ गति से उड़ता है, लेकिन आप उड़ान के बीच में हवाई जहाज़ में नहीं चढ़ सकते हैं। तेज़ रफ्तार वाले हवाई जहाज़ में सवार होने का एकमात्र तरीका यह है कि आप टिकट खरीदने, सीमाशुल्क जाँच कराने, हवाई अड्डे तक पहुँचने, सीढ़ियाँ चढ़ने आदि जैसी शुरुआती प्रक्रियाओं से होकर गुज़रें। आप क्रमवार इस प्रक्रिया के चरणों से होकर गुज़रते हैं। उसी तरह यदि आप शीघ्र ज्ञानोदय प्राप्ति के किसी साधन का लाभ लेना चाहते हैं तो आपको उस साधन तक पहुँचने के इन शुरुआती चरणों से होकर गुज़रना पड़ेगा। यानी, यह महत्वपूर्ण है कि दस विनाशकारी कृत्यों से दूर रहा जाए। फिर आपके लिए उस त्वरित साधन तक पहुँचने का मार्ग सुगम हो जाएगा।

यदि मंजुश्री, शेनरेज़िग और मैत्रेय के ये चित्र जीवंत हो जाएं और आपसे बातें करने लगें, तो वे आपको इसी प्रकार की शिक्षाएं देंगे। यदि आप पहले ही साधना कर चुके हों और अच्छी तरह साधना कर चुके हों, तो ये गहन और गंभीर शिक्षाएं उद्घोषणा के लिए तैयार मिलेंगी। यदि आप अपनी शुरुआत विनाशकारी व्यवहार से बचने की शिक्षा के साथ नहीं करेंगे, तो आपको मंजुश्री और मैत्रेय से शिक्षाएं तो हासिल होंगी ही नहीं, साथ ही हम उन्हें देख भी नहीं सकेंगे और हमें सही ढंग से उनके दर्शन भी नहीं होंगे। यदि आप सचमुच इन सबका भली प्रकार से अभ्यास कर लें तो एक ऐसा समय आएगा जब आप इन महान सत्वों से प्रत्यक्ष तौर पर मिल सकेंगे।

एक बार तीन भाई थे, और वे अतिश और उनके शिष्य द्रोम्टोन्पा के अनुयायी थे। इन तीन भाइयों में से एक का नाम पुचुंग्वा था। वह हमेशा बड़ी गहन साधना के अभ्यास में लीन रहता था। उसने नौ वर्षों तक बहुत कठोर तप किया, यहाँ तक कि उसने मनुष्यों के सामान्य भोजन को भी त्याग दिया। वह पहाड़ों पर रहता था जहाँ वह पशुओं के रेवड़ों के गोबर को बीन कर इकट्ठा करता था। इस गोबर में बिना पचे हुए जौ के दाने होते थे। वह उन्हें पकाता था और अपने लिए झोल तैयार करता था। एक बार वह अपनी गहन साधना को छोड़कर पहाड़ों से नीचे आया और ल्हासा के मुख्य मंदिरों में स्थापित बड़ी-बड़ी और प्रसिद्ध मूर्तियों को देखने के लिए गया। जब वह शहर के भीतर प्रवेश कर रहा था, तो उसने देखा कि 21 तारा उसके साथ चल रही थीं। उसने उनसे कहा, “मैं एक भिक्षु हूँ और यह कोई अच्छी बात नहीं है कि आप सभी महिलाएं मेरे साथ शहर में प्रवेश करती दिखाई दें।” ताराओं ने जवाब दिया, “तुम्हें इसकी फिक्र करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे अलावा और कोई हमें नहीं देख सकता है।” जब ल्हासा में पहुँचा और जब उसने मंदिरों में विशाल मूर्तियों को देखा, तो वे मूर्तियाँ सचमुच उससे बातें करने लगीं।

जब वह पहले-पहल पहाड़ पर एकांतवास के लिए गया तो वह मैदानों में उगने वाली घास को लपेट कर उसे धूप-सुगंध के रूप में जलाता था। अपने प्रारम्भिक जीवन में उसने सच्चे मन से जो चीज़ें अर्पित कीं  उसके बदले में बाद में उसे औषधीय गुणों वाली बहुमूल्य धूप का अर्पण करने का अवसर मिला। एक सुगंधित बत्ती का मूल्य लगभग छह सौ डॉलर रहा होगा।

कृत्यों को विकसित करना और उन्हें करना

कर्म या व्यवहार की विभिन्न श्रेणियाँ हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिन्हें करने की तैयारी की जाती है और फिर वास्तव में उन्हें किया जाता है; कुछ ऐसे होते हैं जिनकी तैयारी नहीं की जाती है, किन्तु व्यवहार में उन्हें किया जाता है; कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें करने की तैयारी तो की जाती है किन्तु किया नहीं जाता है; और कुछ कृत्यों को करने की न तो तैयारी की जाती है, और न ही उन्हें किया जाता है। ये कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें आपको लिख लेना चाहिए। ये कुछ ऐसे रोचक और महत्वपूर्ण विषय हैं जिनके बारे में आपको भविष्य में यहाँ आने वाले शिक्षकों से और अधिक जानकारी हासिल करनी चाहिए। अभी इन विषयों के विस्तार में जाने से बहुत अधिक समय लग जाएगा।

संकल्प और कृत्य

यह संभव है कि किसी व्यक्ति का संकल्प हितकारी हो किन्तु कृत्य अहितकारी हो, संकल्प अहितकारी हो किन्तु कृत्य हितकारी हो, संकल्प और कृत्य दोनों ही अहितकारी हों, और संकल्प और कृत्य दोनों ही हितकारी हों। यदि हो सके तो आपका संकल्प और कृत्य दोनों को ही हितकारी या श्रेष्ठ होना चाहिए। हितकारी संकल्प रखने और अहितकारी कृत्य करने का उदाहरण यह है कि जब आप किसी व्यक्ति को कोई बात सिखाना चाहते हैं और वह उसे सीखता नहीं है, तो हालांकि आपका संकल्प उस व्यक्ति की सहायता करने का है, लेकिन आपका कृत्य यह हो सकता है कि आप उस व्यक्ति को पीट कर दंडित करें या डाँटें। अहितकर संकल्प और हितकर कृत्य का उदाहरण वह होगा जहाँ किसी व्यक्ति का ध्यान भंग करके उसे कोई कार्य सिद्ध करने से रोका जाए – उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को किसी पिकनिक पर या भ्रमण के लिए या कोई और मनोरंजक कार्य करने के लिए ले जाया जाए जिससे कि उसका समय यूँ ही बीत जाए और वह उस कार्य को न कर सके जिसे वह करना चाहता है। यहाँ संकल्प अहितकर था, किन्तु कृत्य हितकर है। ऐसे ही उस स्थिति के लिए भी उदाहरण दिए जा सकते हैं जहाँ संकल्प और कृत्य दोनों ही हितकर होते हैं।

हानिकारक तथा लाभकारी परिणाम

इन चारों का एक और प्रकार से विभाजन इस तरह हो सकता है: कुछ ऐसे कृत्य होते हैं जो सतही तौर पर लाभकारी दिखाई देते हैं किन्तु दीर्घ अवधि में हानिकारक होते हैं; कुछ ऐसे होते हैं जो ऊपरी तौर पर हानिकारक दिखाई देते हैं लेकिन दीर्घ अवधि में लाभदायक होते हैं; कुछ ऐसे होते हैं जो सतही तौर पर भी और दीर्घ अवधि में भी दोनों ही प्रकार से लाभदायक होते हैं, और ऐसे कृत्य जो सतही तौर पर और दीर्घ अवधि में यानी दोनों ही स्थितियों में हानिकारक होते हैं। यदि कोई कृत्य सतही तौर पर और दीर्घ अवधि दोनों ही स्थितियों में लाभकारी हो तो आपको उसे करना चाहिए। यदि कोई कृत्य सतही तौर पर हानिकारक हो लेकिन दीर्घ अवधि में लाभकारी हो, तो ऐसे कृत्य को भी आप कर सकते हैं। यदि कोई कृत्य शुरुआत में लाभकारी दिखाई दे लेकिन दीर्घ अवधि में हानिकारक हो, तो ऐसे कृत्य को न करना बेहतर है। यदि कोई कृत्य अल्प अवधि में और दीर्घ अवधि दोनों ही स्थिति में किसी भी प्रकार से लाभकारी न हो, तो उसे बिल्कुल नहीं करना चाहिए। आप सभी बुद्धिमान और सयाने लोग हैं, इसलिए आप इस तरह की चीज़ों को तुरन्त समझ सकते हैं।

कृत्यों के चार सिद्धांत

एक और दृष्टि से कृत्यों को चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: कृत्यों से सम्बंधित निश्चितता; कृत्यों और उनके परिणामों में वृद्धि की स्थिति; यदि आपने कोई कृत्य नहीं किया है तो फिर आपको उसके परिणामों का सामना नहीं करना पड़ेगा; और यदि आपने कोई कृत्य किया है तो वह अकारथ नहीं जाएगा, उसका परिणाम सामने आएगा।

निश्चितता की बात यह है कि यदि आपने कोई लाभकारी कृत्य किया है तो उसका परिणाम निश्चित तौर पर सुख के रूप में प्राप्त होगा। और यदि आपने कोई नकारात्मक या विनाशकारी कृत्य किया है तो फिर उसका परिणाम निश्चित रूप से कष्ट, समस्या और दुख के रूप में सामने आएगा। उदाहरण के लिए, यदि आप धान रोपते हैं तो आपको मटर की फसल नहीं मिलती है। वृद्धि के तथ्य को इस बात से समझा जा सकता है कि जब आप मक्के का एक बीज बोते हैं तो आपको बदले में ढेर सारी मक्का प्राप्त होती है। छोटे से एक सकारात्मक कृत्य से ढेर सारे सुख की प्राप्ति हो सकती है, उसी तरह एक छोटा सा विनाशकारी कृत्य बड़ी मुसीबतों का कारण बन सकता है।

निश्चितता के तर्क एक उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है। कुछ लोग एक स्तूप का निर्माण कर रहे थे। काम करने वाले मजदूरों में से एक को अपना काम करने में बड़ी कठिनाई हो रही थी, और वह बार-बार शिकायत कर रहा था। जब निर्माण का काम पूरा हुआ तो उसने स्तूप को देखा और बोला, “खैर, जो भी हो, यह बहुत अच्छा रहा,” और बहुत आनन्दित हुआ। उसने अपनी मजदूरी के पैसों से स्तूप के ऊपर लगाने के लिए एक घंटी खरीदी। बुद्ध के समय में उसका पुनर्जन्म मंजु-घोष के नाम से हुआ। उसकी वाणी बहुत मधुर थी, किन्तु उसका शरीर की बनावट बहुत घृणा उत्पन्न करने वाली थी, उसका कद बहुत छोटा था और शरीर विकृत था। लेकिन उसका स्वर इतना सुमधुर था कि जब वह गाता तो आस-पास के जानवर भी उसका गायन सुनने के लिए रुक जाते थे। एक बार वहाँ के राजा बुद्ध से मिलने के लिए आए। उन्होंने जब इस भिक्षु का स्वर सुना तो उससे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। बुद्ध ने कहा, “बेहतर होगा कि आप उससे न मिलें।” लेकिन जब राजा ने बहुत आग्रह किया तो बुद्ध राजा को उस भिक्षु से मिलाने के लिए ले गए। जब राजा ने उसकी कुरूप और विकृत शारीरिक बनावट को देखा तो प्रश्न पूछा कि ऐसा क्यों है कि वह व्यक्ति इतना कुरूप है लेकिन उसकी आवाज़ इतनी सुरीली क्यों है, तब बुद्ध ने राजा को उस व्यक्ति के पिछले जन्म के बारे में बताया।

वृद्धि वाले तर्क के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। किसी व्यक्ति ने एक भिक्षु से कहा, “तुम्हारी आवाज़ तो किसी कुत्ते के जैसी है!” परिणाम यह हुआ कि पाँच सौ बार उस व्यक्ति का पुनर्जन्म एक कुत्ते के रूप में हुआ। आपको इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि आप लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग न करें, या उनके प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग न करें, क्योंकि आपकी ज़ुबान की एक चूक बहुत भीषण गलती का कारण बन सकती है।

शारिपुत्र बुद्ध के एक ऐसे शिष्य थे जो अपने ज्ञान और बुद्धिमत्ता के लिए विख्यात थे। उससे कई जन्मों पूर्व वे एक डाकिए के रूप में जन्म ले चुके थे। एक बार उन्होंने एक ऐसे मंदिर में रात्रि-विश्राम किया जिसकी दीवारों पर बुद्धों के सुंदर चित्र बनाए गए थे। जब उन्होंने अपने जूतों की मरम्मत करने के लिए उजाला करने के उद्देश्य से दीपक जलाया तो उन्हें सभी बुद्धों की आकृतियाँ दिखाई दीं। इसी का परिणाम था कि उनका जन्म इतने ज्ञानवान व्यक्ति के रूप में हुआ।

कर्म के बारे में अगली बात यह है कि यदि आपने कोई कृत्य किया ही नहीं है, तो फिर आपको उसका परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा। लेकिन, यदि आपने कोई कृत्य किया हो, तो फिर देर-सबेर आपको उसके परिणाम का सामना करना ही पड़ेगा। किन्तु, यदि आपने कोई सकारात्मक कृत्य किया हो, तब भी क्रोध आपके उस कृत्य द्वारा निर्मित सकारात्मक संभाव्यता को नष्ट कर सकता है, और यदि आपने कोई नकारात्मक कृत्य किया हो, और यदि आप ईमानदारीपूर्वक स्वीकार कर लें कि वैसा करना गलत था और चार प्रतिसंतुलनकारी शक्तियों का प्रयोग करें तो आप स्वयं को उस नकारात्मक संभाव्यता से शुद्ध कर सकते हैं। इसके अलावा, आपको अपने किए हुए के परिणामों से होकर गुज़रना ही पड़ता है। क्रोध आपकी सकारात्मक संभाव्यता की सुख के मूल के रूप में काम करने की क्षमता को पूरी तरह नष्ट कर सकता है। यह वैसा ही है जैसे किसी हवाई अड्डे पर किसी फिल्म को एक्स-रे मशीन से होकर गुज़ारने पर उस फिल्म पर खींचा हुआ चित्र पूरी तरह से नष्ट हो जाता है और मिट जाता है।

त्सुन्मो सांग्मो नास की एक रानी एक बार अपनी सेविकाओं के साथ वनविहार के लिए गई। वे लोग वनविहार के लिए जिस स्थान पर रुके वहाँ एक छोटी झाड़ी में तीतर पक्षियों का एक घोंसला था। रानी और उसकी परिचारिकाओं ने हँसी-खेल में झाड़ी में आग लगा दी और सभी पक्षियों को मार डाला, लेकिन एक सेविका ऐसी थी जो आग बुझाने के लिए पानी लाने के लिए दौड़ी और इस कृत्य में शामिल नहीं हुई। बाद में बुद्ध के समय में उस रानी का जन्म एक ऐसे व्यक्ति के रूप में हुआ जिसने सभावस्त्र धारण किए और जो विभिन्न प्रकार की चमत्कारी शक्तियों से युक्त एक अर्हत के स्तर तक पहुँचा। उस सेविका का भी उसी समय में पुनर्जन्म हुआ और वह भी एक भिक्षु बनी किन्तु वह अर्हत होने के स्तर तक नहीं पहुँच सकी। एक दिन ऐसा हुआ कि जिस मकान में वे रहते थे उस मकान में पिछले कृत्यों के परिणामस्वरूप निर्मित संभाव्यताओं के परिणामस्वरूप आग लग गई। पूर्व के जन्म में रानी रह चुके अर्हत के कुछ नकारात्मक कृत्यों के कारण उत्पन्न नकारात्मक संभाव्यता का कुछ प्रभाव अभी शेष था, और इसलिए वह अपनी रक्षा करने के उद्देश्य से उड़ जाने की अपनी चमत्कारी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सका। वहीं आग में जल कर उसकी मृत्यु हो गई। यह इस बात का उदाहरण है कि यदि आपने किसी प्रकार की संभाव्यताएं निर्मित की हैं तो वे अकारथ नहीं जाएंगी, आपको उनके परिणामों को भोगना पड़ेगा। पूर्व जन्म में परिचारिका रह चुका भिक्षु पानी के निकास मार्ग से होकर निकल गया और उसने अपने प्राण बचा लिए। यह उदाहरण बताता है कि यदि आपने कोई कृत्य नहीं किया है तो फिर आपको उसके परिणामों का सामना नहीं करना पड़ेगा।

अब प्रश्न यह उठता है: किसी व्यक्ति के अर्हत हो जाने के बाद भी उसके कृत्यों की नकारात्मक संभाव्यता कैसे बची रह सकती है? इस बात को इस दृष्टि से समझा जा सकता है कि आप आत्मशुद्धि के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतिसंतुलनकारी शक्तियों का किस तरह से प्रयोग करते हैं। यदि इनका प्रयोग पूरी तरह और सही ढंग से किया जाए तो सभी प्रकार नकारात्मक संभाव्यताओं से अपने आपको पूरी तरह शुद्ध करना सम्भव है। किन्तु यदि ऐसा न किया जाए, तो फिर थोड़ी बहुत नकारात्मक संभाव्यता या अशुद्धता के बचे रह जाने की संभावना बनी रहती है।

कर्म सम्बंधी शिक्षाओं की सत्यता के बारे में दृढ़ विश्वास में वृद्धि

कर्म, व्यवहार सिद्धान्त और उसके परिणाम, यह एक बहुत अच्छा विषय है। आप इसके बारे में दमामुको नाम सूत्र नाम के सूत्र में और अधिक विस्तार से पढ़ सकते हैं। इस ग्रंथ में दिए गए विभिन्न वर्णन बहुत रुचिकर हैं। आप शास्त्रीय प्रमाण के आधार पर कारण और प्रभाव सम्बंधी इन विषयों के बारे में और अधिक विश्वास हासिल कर सकते हैं। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे आप केवल तर्क के आधार पर सिद्ध कर सकें।

यदि आप यह पूछें कि हम बुद्ध के धर्मग्रंथ प्रमाण के बारे में विश्वास कैसे हासिल कर सकते हैं, तो यह बात पर आधारित है कि बुद्ध ने शून्यता या वास्तविकता के बारे में क्या कहा है। वे शिक्षाएं बिल्कुल सही हैं। यदि आप इसके बारे में विचार करें, तो आप उनके द्वारा कही गई हर बात को तर्क से सिद्ध कर सकते हैं। यदि आप तर्क के आधार पर यह विश्वास हासिल कर सकें कि बुद्ध ने वास्तविकता के बारे में जो कहा है वह सही है, तो फिर उसके आधार पर आप यह विश्वास भी हासिल कर सकते हैं कि उन्होंने कारण और प्रभाव के बारे में जो कहा है वह भी उसी प्रकार सत्य है।

यदि आप बुद्ध की शिक्षा के अनुसार आचरण करें: हृदय में उदारता और स्नेह का भाव विकसित कर लें, अपने आपको दूसरों की भलाई और ज्ञानोदय की प्राप्ति के लिए समर्पित करें, और बोधिचित्त का भाव विकसित करें तो फिर आपके साथ सब कुछ अच्छा होगा। यदि आप शून्यता के बारे में बुद्ध के विचारों के बारे में सोचें और तर्क बुद्धि से सोचें तो आप पाएंगे कि उनके द्वारा कही गई सारी बातें तर्क संगत हैं और तर्क की कसौटी पर खरी हैं। इन बातों के आघार पर आप बुद्ध द्वारा कही गई दूसरी बातों के बारे में भी यकीन हासिल कर सकेंगे। अन्यथा, यदि आप इन प्रक्रियाओं से होकर न गुज़रें तो फिर आप को बुद्ध की कही हुई बातों पर यकीन हासिल करने में कठिनाई होगी। यदि आप दमामुको नाम सूत्र जैसे ग्रंथों को पढ़ें तो आपको लग सकता है कि ये तो केवल परीकथाएं या दंत कथाएं हैं। कर्म के सिद्धान्तों, व्यवहार सिद्धांत और उसके परिणामों का पालन करना बहुत महत्वपूर्ण है।

शरणागत होना – बुद्ध जन

अपने जीवन को व्यवहार सिद्धान्त और उसके प्रभावों के अनुसार यापन करने के पीछे का मुख्य कारण यह है कि आपको शरणागति के लिए अभ्यास कराया जाए, यानी आपको उस स्थिति के लिए तैयार किया जाए जब आप अपने जीवन को एक सुरक्षित और सही दिशा में मोड़ते हैं। सही दिशा के तीन स्रोत हैं। वे स्रोत क्या हैं?

बुद्ध, धर्म और संघ

बुद्ध किसे कहते हैं?

मैं नहीं जानता।

बुद्ध कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो पूरी तरह निर्मल-चित्त हो और हर दृष्टि से विकसित हो। बुद्ध के लिए तिब्बती भाषा में प्रयोग किए जाने वाले शब्द की पहली उच्चारण इकाई का अर्थ निर्मल चित्त होना होता है। इसका अर्थ है कि ऐसा व्यक्ति अपने चित्त को सभी प्रकार की अशांति और अशांत करने वाले मनोभावों से मुक्त कर चुका होता है। पूर्णतः विकसित उस शब्द की दूसरी उच्चारण इकाई है। इसका अर्थ यह होता है कि वह व्यक्ति पूरी तरह से सभी सद्गुणों को हासिल कर चुका है और पूर्ण बोध को विकसित कर चुका है जिसके कारण वह अधिकतम सीमा तक विकसित हो चुका होता है।

इस दुनिया में बुद्धजन का आगमन

प्रारम्भ में, बुद्धजनों ने अपने आपको पूरी तरह दूसरों की भलाई करने के लिए समर्पित किया। उन्होनें दृढ़ संकल्प लिया कि वे इस कार्य को करने योग्य बनने के लिए पूर्णतः निर्मल चित्त और पूरी तरह विकसित बनेंगे। इस प्रकार उन्होंने बोधिचित्त की प्राप्ति के लिए समर्पण के भाव को अपने हृदय में विकसित किया। उन्होंने अपने हृदय को ही इस कार्य के लिए समर्पित नहीं किया, बल्कि इस अवस्था को प्राप्त करने में सहायक सकारात्मक संभाव्यता को विकसित करने के लिए असंख्य युगों तक परिश्रम किया।

किसी युग के प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु असंख्य वर्षों की होती है। तिब्बती भाषा में इसके लिए जो शब्द प्रयोग किया जाता है उसका शाब्दिक अर्थ “अनगिनत” है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह असीमित है; वह सीमित है, लेकिन उसे गिना नहीं जा सकता है। हर शताब्दी के बाद जीवनकाल एक वर्ष घट जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अन्ततः जीवनकाल दस वर्ष रह जाता है। उसके बाद वह हर एक शताब्दी के बाद एक वर्ष बढ़ जाता है और तब तक बढ़ता रहता है जब तक जीवनकाल बढ़ कर अस्सी हज़ार वर्ष नहीं हो जाता है। उसके बाद वह फिर घट कर दस वर्ष हो जाता है। घटने और बढ़ने का यह चक्र अठारह बार चलता है और यह अवधि एक मध्यम युग के बराबर होती है। जब वह इन चरणों की एक अवधि से होकर गुज़रता है उन्हें बीस मध्यम युग कहा जाता है, यह वह अवधि है जब तक ब्रह्मांड स्थिर रहता है, या एक निश्चित अवस्था में रहता है। उसके बाद बीस मध्यम युगों की एक और अवधि गुजरती है, जो विनाश का युग होता है जब ब्रह्मांड नष्ट या ढह जाता है। यह घटना, उदाहरण के लिए, सात सूर्यों के प्रकट होने पर होती है जो सात दिनों तक जलते हैं और दुनिया में जो कुछ होता है उसे जला कर नष्ट कर देते हैं। उसके बाद अगले बीस मध्यवर्ती युगों का समय आता है जब ब्रह्मांड पूरी तरह खाली रहता है, उसके बाद के अगले बीस मध्यवर्ती युगों में वायु मंडल से शुरू होते हुए ब्रह्मांड की उत्पत्ति का प्रारम्भ होता है। यह पूरी प्रक्रिया अस्सी मध्यवर्ती युगों की अवधि तक चलती है, जो एक महा युग के बराबर होती है। यदि आप इसे एक असंख्य राशि से गुणा करें तो असंख्य महा युगों की संख्या प्राप्त होती है। पूरी तरह से निर्मल चित्त और पूर्ण विकसित बनने के लिए एक बुद्ध को ऐसे तीन महायुगों तक सकारात्मक संभाव्यता को संचित करना पड़ता है।
किसी बुद्ध के वास्तव में इस ब्रह्मांड में अवतरण से पहले अंधकार और प्रकाश के कई महा युग बीतते हैं। हम जिस महायुग में जी रहे हैं वह प्रकाश का युग है जिसे “सौभाग्यपूर्ण युग” कहा जाता है। इस सौभाग्यपूर्ण युग में विश्व शिक्षकों के रूप में एक हज़ार बुद्ध अवतरित होंगे। पहले तीन विश्व शिक्षक बुद्ध उस समय अवतरित हुए जब मनुष्य का जीवनकाल क्रमशः साठ हज़ार वर्ष, चालीस हज़ार वर्ष और बीस हज़ार वर्ष का हुआ करता था। मैं इस संख्या के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ, मुझे किसी ग्रंथ में इसकी जाँच करनी पड़ेगी। अब वह समय है जब मनुष्य का जीवनकाल सौ वर्ष के स्तर पर आ चुका है जब चौथे विश्व शिक्षक, अर्थात शाक्यमुनि बुद्ध अवतरित हुए। उनका आगमन उस समय हुआ जब जीवनकाल घट रहा था।

जब जीवनकाल दस वर्ष से अस्सी हज़ार की ओर बढ़ रहा होगा, तब विश्व सम्राट अवतरित होंगे जो आज्ञा चक्र धारण किए होंगे, जो चक्रवर्ती सम्राट होंगे। चार प्रकार के विश्व सम्राट होते हैं: जो सोने, चाँदी, तांबे या लोहे के आज्ञा चक्र को धारण किए होते हैं। जिस समय बुद्ध का आगमन हुआ, उस समय कुछ लोग सौ वर्ष तक जीते थे। अब बहुत कम लोग ही सौ वर्ष से अधिक समय तक जीवित रहते हैं। जीवनकाल धीरे-धीरे घट रहा है। घटते-घटते वह दस वर्ष तक पहुँचेगा, और फिर उसके बाद जीवनकाल फिर धीरे-धीरे बढ़ता चला जाएगा। जब जीवनकाल बढ़ कर अस्सी हज़ार वर्ष हो जाएगा, तब मैत्रेय बुद्ध का आगमन होगा।

किसी बुद्ध के शरीर के गुण

ऐसे सत्वों को हम पूरी तरह निर्मल चित्त और पूर्णतः विकसित बुद्धों के उदाहरण के रूप में शाक्यमुनि और मैत्रेय के नाम से जानते हैं। बुद्धों के विभिन्न काय या शरीर होते हैं। एक तो सर्वव्यापी गहरे बोध वाला काय (ज्ञानधर्मकाय) होता है। फिर बुद्ध के विभिन्न प्रकार के रूप काय होते हैं। इनमें पूर्ण उपयोग के शरीर (संभोगकाय) और निर्गम शरीर (निर्माणकाय) शामिल होते हैं। गहरे बोध वाले शरीरों में वे सब बातें शामिल होती हैं जिनके बारे में केवल बुद्धों को ही आपस में बोध होता है। केवल आर्य बोधिसत्व और उससे उच्चतर ही वास्तव में पूर्ण उपयोग वाले शरीरों को देख सकते हैं। उससे कम सिद्धि वाला कोई भी व्यक्ति उनसे नहीं मिल सकता है।

जहाँ तक निर्गम शरीर या निर्माणकायों का सम्बंध है, उसमें एक उच्चतम निर्गम शरीर होता है, किसी कलाकार के रूप में निर्गम शरीर के तौर पर, और एक निर्गम शरीर किसी व्यक्ति के रूप में होता है। उच्चतम निर्गम शरीर ऐसा शरीर है जिसे सामान्य जीव देख सकते हैं और उससे मिल सकते हैं। हालाँकि सामान्य जीव उच्चतम निर्गम काय को देख सकते हैं, लेकिन उसे वास्तव में देखने के लिए यह आवश्यक है कि उनके कर्म, कृत्य और संभाव्यताएं बहुत शुद्ध हों। इसी प्रकार हमारे जैसे सामान्य जन भी किसी निर्गम काय को वास्तव में उसके बत्तीस प्रमुख लक्षणों और अस्सी आदर्श गुणों के साथ नहीं देख सकते हिं। इसलिए क्योंकि उच्चतम निर्गम काय अंतिम मुक्ति, परिनिर्वाण के मार्ग को प्रदर्शित कर चुके होते हैं, इसलिए उनमें से कोई हमारे आस-पास नहीं है जिसे हम देख सकें।

उच्चतम निर्गम कायों के शीष पर मुकुट के आकार वाला उभार होता है जिसे ऊष्णीष कहा जाता है। उनकी हथेलियों पर धर्म चक्र की स्पष्ट छाप होती है। उनके कंधे किसी सिंह की भांति उन्नत होते हैं। वर्तमान समय में वर्दीधारी अधिकारियों के कंधों पर स्कंधिकाएं होती हैं, है न? सम्भवतः वही उच्चतम निर्गम काय होते हों, कौन जाने? उनके नाखून ताम्रवर्ण के होते हैं, यह रंग नाखूनों पर नेल-पॉलिश लगाने के कारण उत्पन्न नहीं होता है। उनके होंठ लिपस्टिक के प्रयोग के बिना ही लाल होते हैं। उनकी भृकुटियों के बीच सफेद बालों की एक लट होती है जिसे यदि खींचा जाए तो वह कभी खत्म नहीं होती है; वह लम्बी और लम्बी होती जाती है। यदि आप महान ग्रंथों का अध्ययन करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि उनके प्रमुख और गौण लक्षण कौन-कौन से हैं। इसके अलावा, उनका शरीर प्रकाश की एक आभा में लिपटा होता है। यह ऐसी आभा होती है जो दूसरे किसी भी प्रकार के प्रकाश को कितनी भी दूरी से फीका कर सकती है। उदाहरण के लिए, देवताओं का आभामंडल बहुत प्रकाशमान होता है, लेकिन यदि उसकी तुलना किसी बुद्ध से की जाए तो वे किसी फॉस्फोरेन्ट बल्ब के सामने मामूली मोमबत्तियों जैसे दिखाई देते हैं।

किसी बुद्ध की वाणी के गुण

जहाँ तक किसी बुद्ध की कोविद वाणी का सम्बंध है, उसके साठ विशेष गुण होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई बुद्ध बोल रहे हों, तो उनके श्रोताओं में सामने बैठे लोगों को उनकी वाणी बहुत तेज़ स्वर में नहीं सुनाई देगी, और पीछे बैठे लोगों को उनकी वाणी बहुत धीमी नहीं सुनाई देगी। सभी को उनकी वाणी एक समान स्वर में सुनाई देगी। इसी प्रकार, यदि विभिन्न देशों के श्रोताओं का बड़ा समूह बैठा हो, तो बुद्ध केवल एक ही भाषा में अपना उपदेश देंगे, और श्रोताओं में से प्रत्येक उनके उपदेश को अपनी-अपनी भाषाओं में समझ सकेगा। उन्हें अनुवादकों की आवश्यकता नहीं होती है।

किसी बुद्ध के चित्त के गुण

जहाँ तक किसी बुद्ध के प्रबुद्ध चित्त का सम्बंध है, उनके ज्ञान और बोध की इक्कीस श्रेणियाँ होती हैं जो किसी भी प्रकार के भ्रम से पूर्णतया मुक्त होती हैं (निर्मल ज्ञान)। यह विषय बहुत व्यापक है। एक श्रेणी निर्मल चित्त की अवस्था तक पहुँचाने वाले 37 कारकों से सम्बंधित है। इसके अलावा 18 अन्य गुण होते हैं जिनका ज्ञान निम्नतर अर्हतों आदि को नहीं दिया जाता है। कुल मिलाकर 21 श्रेणियाँ होती हैं जिनमें से प्रत्येक की विभिन्न उप-श्रेणियाँ होती हैं।

किसी बुद्ध की प्रमुख शारीरिक विशेषताओं जैसे ये सभी गुण तीन असंख्य युगों की अवधि में संचित विपुल सकारात्मक संभाव्यता के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। यदि कोई उच्चतम निर्गम काय वाले बुद्ध भी हमारे सामने प्रकट हो जाएं, तब भी हम उन्हें उनके वास्तविक रूप में नहीं देख सकेंगे क्योंकि हमारे कर्म शुद्ध नहीं हैं, संभाव्यताएं शुद्ध नहीं हैं। जहाँ तक निर्गम कायों को व्यक्तियों के रूप में देखने की बात है, तो उस रूप को हम वास्तव में देख सकते हैं और उनसे मिल सकते हैं। उदाहरण के लिए, परम पावन दलाई लामा हैं, जो अवलोकितेश्वर हैं।वे किसी किसी व्यक्ति के रूप में किसी बुद्ध का निर्गम काय हैं। इसके बावजूद, कुछ गेशे ऐसे थे जो सिंहासन पर बैठे हुए दलाई लामा को नहीं देख सके। हमारे लिए यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हम परम पावन को देख पाए हैं।

अब हम किसी कलाकार के रूप में किसी निर्गम काय के एक उदाहरण को देखें। स्वर्ग के संगीतज्ञों का एक राजा था जो अपने आप को ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ मानता था। वह बड़ा अभिमानी और अहंकारी था। वह एक हज़ार तारों वाले वीणा वाद्य को बजा सकता था। बुद्ध एक कलाकार, एक संगीतज्ञ के रूप में प्रकट हुए और उस राजा को एक संगीत स्पर्धा के लिए चुनौती दी। उन्हें अपनी-अपनी वीणा से एक-एक करके तार कम करने थे और यह देखना था कि कौन वाद्य को फिर भी बजाता रह सकता है। आखिर में उन दोनों के वाद्य में एक-एक तार ही शेष रहा। उसके बाद बुद्ध ने अपने वाद्य से आखिरी तार को भी निकाल दिया और फिर भी वे सुंदर संगीत बजाते रहे। जब राजा ने अपने वाद्य का आखिरी तार निकाल दिया तो फिर वह संगीत उत्पन्न नहीं कर सका, इस प्रकार उसका अभिमान खत्म हुआ। यह कलाकार के रूप में निर्गम काय का एक उदाहरण है।

बुद्ध रत्न

जब हम बुद्ध की शरणागति की बात करते हैं, तो हमें इन कायों में से किसी के बारे में एक निर्मल विकसित सत्व के रूप में विचार करना चाहिए। हमारी साधना की दृष्टि से, यह महत्वपूर्ण है कि बुद्ध के विभिन्न प्रतिरूप, जैसे यहाँ लगे इन चित्रों को वास्तव में बुद्ध के रूप में देखा जाना चाहिए। हमारी साधना के समय चित्त के पाँच मार्ग होते हैं। पहले मार्ग को चित्त का संचयी मार्ग कहा जाता है। इसके तीन स्तर होते हैं: लघु, मध्यम और विराट। जब आप सचमुच चित्त के विराट संचयी मार्ग को हासिल कर लेते हैं तो आप बुद्ध जनों के इन विभिन्न प्रतिरूपों को सुन सकेंगे और उनसे उपदेश प्राप्त कर सकेंगे। ऐसा कहा जाता है कि जब हमें बुद्ध के इन चित्रों और विभिन्न प्रकार के प्रतिरूपों के दर्शन होते हैं, और यदि हम उचित ढंग से उनके दर्शन करें, तो ये दर्शन वास्तविक बुद्ध के दर्शन होने से भी अधिक गुणकारी होते हैं। इसलिए सावधानी बरतना बहुत आवश्यक होता है। आजकल हमें बुद्ध और ज्ञानोदय प्राप्त सत्वों के चित्र सब जगह, समाचार पत्रों आदि में, छपे हुए दिखाई देते हैं, और यदि आप बुद्ध के उन प्रतिरूपों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के प्रति सचेत न रहें तो कठिनाइयाँ हो सकती हैं।

धर्म रत्न

धर्म रत्न से हमारा आशय किसी बुद्ध के प्रबुद्ध चित्त के सभी गुणों से होता है। यही वास्तविक धर्म शरणागति है। अपनी साधना के समय हमें इस बात को समझना चाहिए कि सभी धर्म ग्रंथ ही वास्तविक धर्म रत्न हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम धर्म को व्यक्त करने वाले विभिन्न पाठों और लेखों, चाहे वे किसी भी लिपि में लिखे गए हों, को सम्मान की दृष्टि से देखें। अखबार में कचरा न लपेटें। ऐसा करना बहुत असम्मानजनक और नकारात्मक होता है। मुद्रित सामग्री के प्रति सम्मान का भाव रखना महत्वपूर्ण है।

इसी प्रकार यदि आपके पास कोई धर्म ग्रंथ हो जो खुले पन्नों के रूप में हो और तेज़ हवा चल रही हो, और यदि आप पन्नों को हवा में उड़ने से बचाना चाहते हों, तो आपको इस बात की अनुमति है कि आप उन पन्नों के ऊपर कोई मनकों वाली माला रख सकते हैं। अन्यथा ग्रंथों के ऊपर कुछ न रखें। इसी प्रकार पन्नों को पलटने के उद्देश्य से अपनी उँगली को मुँह में डाल कर गीला न करें। यदि पन्नों को पलटने के लिए उँगलियों को गीला करना ही हो, तो अपने पास स्वच्छ जल का एक पात्र रखें और अपनी उँगलियों को उसमें डुबो कर गीला करें। पुस्तकों के ऊपर कवर चढ़ाना आवश्यक होता है ताकि वे खुली सतहों के सम्पर्क में न आएं। इसी प्रकार ग्रंथों पर पैर न रखें और न ही उन्हें लांघ कर जाएं। पुस्तकों को मूर्तियों के ऊपर बनी शेल्फ या तख्ती पर तो रखा जा सकता है लेकिन मूर्तियों को पुस्तकों के ऊपर नहीं रखा जाना चाहिए।

संघ रत्न

निष्ठ समुदाय (संघ) का रत्न कोई ऊँचा सिद्ध या आर्य, कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो शून्यता या वास्तविकता का निर्वैचारिक बोध हासिल कर चुका हो। सामान्यतया चार पूर्ण दीक्षा प्राप्त भिक्षुओं से संघ बनता है। केवल एक, दो या तीन भिक्षुओं से संघ नहीं बनता। जब हम साधना करते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि जिस किसी ने भी बौद्ध व्यवस्था के वस्त्र पहन रखे हों वही वास्तविक संघ है। 

बुद्ध रत्न वह है जो वास्तविक उपदेश देता है, और जीवन में सुरक्षित मार्ग की ओर इंगित करता है। धर्म रत्न ही सुरक्षित मार्ग का वास्तविक स्रोत है, वही वास्तविक शरणागति है; जब आप इन सभी आध्यात्मिक उपायों को अपनी साधना में शामिल कर लेते हैं तो उससे जीवन को सचमुच एक सुरक्षित और उचित दिशा मिलती है। संघ रत्न वे लोग होते हैं जो आपके सहायक होते हैं और सही दिशा में जीवन को जीने की राह पर आपके साथी होते हैं। मैं आपको एक वृत्तांत सुनाता हूँ जिससे इसे समझने में आसानी होगी।

स्थिरमति नाम का एक देव बालक था। वह 33 देवताओं वाले स्वर्ग का एक देव था। वहाँ सब कुछ बहुत सुंदर है। वहाँ की हर चीज़ बहुमूल्य रत्नों से बनी है। कहीं कोई गंदगी या अशुद्धता नहीं है। सब कुछ स्वच्छ और बेदाग है। इस देवता का जीवन वहाँ बहुत खुशी से बीत रहा था और उसे कभी कोई क्लेश या कठिनाई नहीं हुई। जब उसकी मृत्यु निकट आ गई तो उसके द्वारा पहनी गई पुष्प मालाएं मुरझा कर सूख गईं, और उसके शरीर से बड़ी दुर्गंध आने लगी। उसके सभी देव मित्र अब उससे दूर रहने लगे। उसके मित्रों में से केवल वे ही उसके साथ सम्पर्क रखते थे जो बहुत स्थिर और अविचल प्रकृति वाले थे। वे भी थोड़ी दूरी पर खड़े होकर उसे देख भर लेते थे। इस देव के पास यह योग्यता थी कि वह देख सकता था कि उसके द्वारा संचित की गई सभी सकारात्मक संभाव्यताएं निःशेष हो चुकी थीं, और अब उसकी जो नकारात्मक संभाव्यताएं बाकी बची थीं, उनके परिणामस्वरूप उसका पुनर्जन्म किसी निम्नतर योनि में होगा। उसने देखा कि उसका पुनर्जन्म तो निम्नतर योनि में होगा ही, उसके बाद उसका पुनर्जन्म एक सूअर के रूप में होगा। ऐसा सोचने मात्र से ही उसे घोर मानसिक पीड़ा हुई। ऐसे देवता द्वारा भुगती गई मानसिक पीड़ा से बढ़कर कोई और मानसिक पीड़ा नहीं होती है।

वह देवताओं के राजा इंद्र के पास पहुँचा और उनसे याचना की कि वे उसकी सहायता करें और उसे कोई उपाय सुझाएं ताकि वह इस नियति से बच सके। इंद्र ने कहा, “मुझे खेद है; किन्तु मुझे किसी ऐसे साधन के बारे में मालूम नहीं है जिसकी सहायता से आप इस नियति से बच सकें। किन्तु मैं आपको बुद्ध से मिलाने के लिए ले चलूँगा। उन्हें सबसे अच्छी युक्तियों का ज्ञान है।” वे बुद्ध के पास गए और बुद्ध ने उन्हें देवी ऊष्णीष विजया के बारे में शिक्षा दी। वे तीन चिरकालिक देवियों में से एक हैं। जब स्थिरमति की मृत्यु हुई तो उनका जन्म तो निम्न योनि में हुआ ही नहीं, साथ ही उनका अगला जन्म भी उनके पिछले जन्म के स्वर्ग की तुलना में उच्चतर स्वर्ग तुषित में हुआ जिसे आनन्द के स्वर्ग के रूप में जाना जाता है। इंद्र उन्हें नहीं देख सकते थे क्योंकि वे तो केवल अपने स्तर वाले या उससे निम्नतर स्वर्गों को ही देख सकते हैं। जब उन्होंने बुद्ध से पूछा कि उस देव का पुनर्जन्म कहाँ हुआ, तब बुद्ध ने उन्हें बताया कि उनका जन्म तुषित स्वर्ग में हुआ है।

इस उदाहरण से हम यह समझ सकते हैं कि बुद्ध ही वह शिक्षक हैं जिन्होंने सुरक्षित मार्ग दिखाया। वास्तव में सुरक्षित मार्ग उन्हें ऊष्णीष विजया की तपस्या करने के कारण प्राप्त हुआ। धर्म रत्न का यह एक उदाहरण है। जिन्होंने उन्हें इस दिशा की ओर अग्रसर किया वे देवताओं के राजा इंद्र थे। इस प्रकार इंद्र संघ रत्न के उदाहरण हैं।

समापन मंत्रणा

यदि आप किसी चीज़ पर ध्यान लगाना चाहते हैं, चित्त के सद्गुणों को विकसित करना चाहते हैं, तो फिर आपको अपने समक्ष परम पावन दलाई लामा का मानस दर्शन करना चाहिए, और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वे आपको प्रेरणा प्रदान करें। ऊँ मणि पद्मे हुं का उच्चार करना चाहिए, और कल्पना करनी चाहिए कि उनमें से प्रकाश निःसृत हो रहा है और आपको नकारात्मक संभाव्यताओं से मुक्त करके शुद्ध बना रहा है।

जहाँ तक दैनिक व्यवहार में अपनाई जाने वाली साधना के लिए व्यावहारिक सुझावों का प्रश्न है, मुख्य सुझाव यह है कि सुबह के समय जब आप जागें तो आपको एक दृढ़ सकारात्मक उद्देश्य तय करना चाहिए: “आज मैं एक सकारात्मक और रचनात्मक व्यक्ति के रूप में व्यवहार करूँगा और दूसरों की भलाई करने का प्रयत्न करूँगा।” दिन की समाप्ति होने पर आपको यह ध्यान करना चाहिए कि आपने कौन-कौन से सकारात्मक कार्य किए और फिर उनसे निर्मित संभाव्यता को सभी की भलाई के लिए, और सभी की भलाई के योग्य बनने की दृष्टि से पूर्ण निर्मलचित्तता और पूरी तरह से विकसित होने की योग्यता हासिल करने के लिए समर्पित कर देना चाहिए। शरणागति में जाने सम्बंधी यह पूरा विषय बहुत महत्वपूर्ण है। कल मैं इसके बारे में आपके साथ और अधिक चर्चा करूँगा।

आज मैंने जो बातें कहीं, क्या आप उनके बारे में कोई प्रश्न पूछना चाहते हैं?

प्रशन

धर्मकाय क्या है?

धर्मकाय किसी बुद्ध का सर्वदर्शी चित्त है जो सर्वव्यापी होता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, किसी भी प्रकार के भ्रम से मुक्त विशेष प्रकार की गहन चेतनता की इक्कीस श्रेणियाँ होती हैं। इसमें दस शक्तियाँ, भय से मुक्ति की चार अवस्थाएं आदि शामिल होती हैं। यदि हम इनके बारे में विस्तार से चर्चा करने लगे तो बहुत अधिक समय लग जाएगा। यह विषय बहुत व्यापक है। लेकिन उदाहरण के तौर पर किसी बुद्ध की दस शक्तियाँ हैं विभिन्न कृत्यों के उचित और अनुचित परिणामों का बोध, सभी प्रकार के कृत्यों के परिणामों का बोध, सभी को उनके लक्ष्यों तक पहुँचाने वाले आध्यात्मिक मार्गों का ज्ञान होना आदि।

जहाँ तक उन चार चीज़ों की बात है जिनके भय से बुद्ध पूरी तरह मुक्त होते हैं: उन्हें यह घोषणा करते हुए कोई भय नहीं होता कि वे सभी दोषों का त्याग कर चुके हैं, कि वे उन सभी सकारात्मक गुणों को प्राप्त कर चुके हैं जो वांछनीय हैं, आदि। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी बुद्ध के सामने श्रोताओं का कितना बड़ा समूह बैठा है। वे बिना किसी भय के, पूरे विश्वास के साथ यह घोषणा कर सकते हैं कि वे सर्वज्ञानी हैं। कपिल नाम के एक ब्राह्मण ने आस-पास के गाँवों में घूम-घूम कर प्रत्येक गाँव से चावल का एक-एक दाना जमा किया और उनमें से प्रत्येक दाने पर एक विशेष निशानी लगाई। वे इन चावलों को एक बड़ी सी टोकरी में रख कर बुद्ध के सामने ले गए और बुद्ध से बोले, “आप तो सर्वज्ञाननी हैं। क्या आप बता सकते हैं कि चावल के ये दाने कहाँ-कहाँ से लाए गए हैं?” बुद्ध ने जवाब दिया, “हाँ, मैं बता सकता हूँ।” जैसे-जैसे एक-एक करके प्रत्येक दाना उठाकर बुद्ध को दिखाया गया, बुद्ध ने टोकरी में लाए गए प्रत्येक दाने के बारे में बता दिया कि उसे कहाँ से लाया गया था।

बुद्ध के समय में बहुत बड़े-बड़े पेड़ हुआ करते थे। एक अन्य ब्राह्मण ने बुद्ध की परीक्षा लेने की ठानी, इसलिए वह एक पेड़ के पास गया और उसने पेड़ की सभी पत्तियों को गिन लिया। ऐसा करने में उसे दो महीने का समय लगा। इसके बाद वह बुद्ध के पास गया और बोला, “आप बड़े तीव्रबुद्धि हैं। आप सब कुछ जानते हैं। आप बताएं कि इस पेड़ पर लगे पत्तों की संख्या क्या है?” बुद्ध ने तत्काल ही उसे पत्तों की सही-सही संख्या बता दी।
आपके लिए यह बहुत मुश्किल काम है कि आप मेरे मन को पढ़ सकें, और इसी प्रकार मेरे लिए आपके मन को पढ़ पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन किसी बुद्ध के चित्त और उसकी प्रकृति को जान पाना असम्भव होता है। यहाँ तक कि बोधिसत्व, जो चित्त के दसवें स्तर पर होते हैं, जो दसों अवस्थाओं में सबसे ऊपर होता है, वे भी किसी बुद्ध के चित्त को नहीं जान सकते हैं। यदि आप सचमुच किसी बुद्ध की सर्वव्यापक गहन सचेतनता वाले शरीर यानी ज्ञानधर्मकाय के विभिन्न गुणों और पक्षों को समझना चाहते हैं तो उसके लिए आपको मैत्रेय द्वारा रचित ग्रंथ अभिसमय अलंकार का अध्ययन करना चाहिए। इस ग्रंथ के आठवें अध्याय में इस विषय के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। यदि आप किसी बुद्ध के सभी सद्गुणों से परिचित न हों तो फिर उन पर विश्वासपूर्वक यकीन करना कठिन होता है। तिब्बत का एक वृत्तांत मुझे याद आता है। 

तिब्बत में गांदेन मठ के मठाधीश का पद बहुत ऊँचा माना जाता है। इस सिंहासन पर आसीन व्यक्ति को बहुत महत्वपूर्ण लामा समझा जाता है। वे जहाँ भी जाते हैं, उनके सिर पर एक सुनहरी छतरी रहती है। मैंने रिंपोशे से पूछा कि क्या आप जहाँ भी जाते हैं वहाँ यह छतरी आपके साथ रहती है, और रिंपोशे ने जवाब दिया कि मुझे इतनी मूढ़ता का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए, ज़ाहिर है कि शौचालय में यह छतरी उनके साथ नहीं होती है। एक दिन एक बुज़ुर्ग महिला गांदेन मठ देखने के लिए आई थीं, तभी गांदेन के मठाधीश अपने आनुष्ठानिक जुलूस के साथ वहाँ से होकर गुज़रे। उस महिला के पास खड़े किसी भिक्षु ने कहा, “देखिए, वे गांदेन के मठाधीश हैं।” महिला ने समझा कि वह छतरी ही गांदेन की मठाधीश थी, और इसलिए उस महिला ने दोनों हाथ जोड़ लिए और सम्मानपूर्वक बोली, “मैं गांदेन के मठाधीश की शरणागत होती हूँ।” जब जुलूस गुज़र गया तो बुज़ुर्ग महिला उस भिक्षु की ओर मुड़ीं और बोलीं, “आपने देखा, गांदेन मठाधीश के नीचे चल रहे बुज़ुर्ग भिक्षु कितने अच्छे लग रहे थे?”

इसलिए, हमारे भीतर यह योग्यता होनी चाहिए कि हम निश्चित तौर पर पहचान पाएं कि बुद्ध वास्तव में कैसे होते हैं।

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