धर्म के चार प्रमाण-चिह्न

परिचय

बौद्ध-धर्मी अध्ययन के किसी भी पहलू की चर्चा में यह देखना सदा सहायक सिद्ध होता है कि चर्चा का विषय बौद्ध शिक्षाओं के व्यापक सन्दर्भ में किस प्रकार सम्बद्ध है | इसका अर्थ है यह समझना कि वह विषय चार आर्य सत्यों तथा चार पुष्टिकारक बिंदुओं की प्रस्तुति से किस प्रकार सम्बद्ध है जिससे एक दृष्टिकोण को शिक्षाप्रद शब्दों (इता-बा बका'-बटागस-ज्ञी फयाग-रग्या-ब्ज़्ही ) से प्रेरित माना जा सके, जिन्हें धर्म के चार प्रमाण-चिह्न (चोस-क्यी स्दोम-पा ब्ज़्ही ) भी कहा जाता है | पारिभाषिक शब्द "चार प्रमाण- चिह्नों" का अर्थ है वे चार विशेषताएँ या लक्षण जो जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण के रूप में परिभाषित करते हैं, जो बुद्ध के कथनों पर आधारित हैं |

यह समझना आवश्यक है कि बौद्ध शिक्षाओं में पाई जाने वाली अधिकतम शिक्षाएँ अनन्य रूप से बौद्ध नहीं हैं | ये अधिकतर अन्य भारतीय दार्शनिक पद्धतियों में पाई जाती हैं | अंततः, बुद्ध भारत में रहे और उन्होंने उसी सांस्कृतिक सन्दर्भ में शिक्षा दी | भारतीय शिक्षण में एकाग्रता तथा इस प्रकार के विषयों पर शिक्षाएँ सामान्य बात हैं | इसके कुछ लक्षण ईसाई धर्म जैसी पाश्चात्य प्रणालियों में भी पाए जाते हैं, जैसे इस जीवन का परित्याग करके एक उत्कृष्ट भावी जीवन की अभिलाषा करना | ये विशेषतः बौद्ध शिक्षाएँ नहीं हैं | किसी शिक्षा की चार आर्य सत्यों तथा चार पुष्टिकारक बिंदुओं के साथ संगति उसे अद्वितीय रूप से बौद्ध बनाती है |

आइए हम इस बात का परीक्षण और विश्लेषण करें कि इन चार बिंदुओं की चर्चा में पाँच स्कंध कैसे ठीक बैठते हैं | ये पाँच स्कंध हैं प्राकृतिक घटनाओं के रूप, सुख अथवा दुःख की भावनाएँ, विवेक-बोध, सचेतनता के प्रकार, और अन्य परिवर्ती कारक | हमारे अनुभवों का प्रत्येक क्षण इन पाँचों स्कन्धों में एक या एक से अधिक कारकों से बना होता है |  

सभी प्रभावकारी कारक अस्थिर होते हैं

इन चार प्रमाण- चिह्नों में से पहला है कि सभी परिवर्ती कारक ('दू-बयद ) अस्थिर होते हैं | कभी-कभी इसका भाषान्तरण इस प्रकार किया जाता है "सभी संचित की गई घटनाएँ अनित्य होती हैं" परन्तु इससे कुछ भ्रम पैदा हो सकता है | "अनित्य" शब्द भ्रामक हो सकता है क्योंकि इससे अनुमान लगाया जा सकता है वह जो केवल बहुत थोड़ी देर के लिए विद्यमान है | पर हम उसकी चर्चा नहीं कर रहे; वास्तव में कुछ वस्तुएँ जो प्रति-क्षण बदलती हैं वे निरंतर विद्यमान रहती हैं, जैसे मानसिक सातत्य | तो, अस्थिर  से अभिप्राय है वह जो परिवर्तनशील है |

जहाँ तक "सभी प्रभावकारी कारक" शब्दावली का प्रश्न है, कारक  वे होते हैं जो बदलते रहते हैं, चाहे उनका सातत्य कितना भी लम्बा क्यों न हो | प्रभावकारी  का अर्थ है कि ये कारक दूसरी वस्तुओं को प्रभावित करते हैं, और अन्य वस्तुओं से स्वयं भी प्रभावित होते हैं | समग्र अस्थिर दृश्य-प्रपंच का यही स्वरूप है |

यहाँ, प्रभावकारी कारकों से अभिप्राय केवल अन्य प्रभावकारी कारकों का स्कंध नहीं है, अपितु पाँच स्कंध हैं | इन पाँच स्कन्धों में वह सब सम्मिलित है जो परिवर्तनशील है और जो हमारे अनुभवों के किसी क्षण का भाग बन सकता है |

वे सब वस्तुएँ जो आविर्भूत होकर परिवर्तित होती हैं, कारणों और परिस्थितियों पर आधारित हैं और दूसरी वस्तुओं को प्रभावित करती हैं | इसमें हमारे माता-पिता, हमारा वातावरण, हमारी भावनाएँ, मौसम, और इतिहास सम्मिलित हैं | सभी कुछ हमारी भावनाओं और जीवन में होने वाले हमारे अनुभवों को प्रभावित करता है, नहीं क्या? हम कैसे जीवन को महसूस करते हैं और उसके विषय में क्या सोचते हैं, यह हमारे भावी अनुभवों को ही नहीं, अपितु हमारे संपर्क में आने वाले अन्य लोगों के अनुभवों को भी प्रभावित करता है |

जैसा पहले पुष्टिकारक बिंदु में बताया गया है, सभी परिवर्ती कारक अस्थिर होते हैं | इसका अर्थ है कि वे प्रति-क्षण बदलते रहते हैं | क्यों? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्हें प्रभावित करने वाले कारण और परिस्थितियाँ प्रति-क्षण बदलती हैं | यह एक अत्यंत सारगर्भित बिंदु है जिसे हमें पहचानना चाहिए | उदाहरण के लिए, जब हम बहुत अच्छी मनःस्थिति में होते हैं, तो हमें लगता है कि परिस्थिति सदा ऐसी ही रहेगी; पर, वास्तव में, वह प्रति-क्षण बदल रही है, जो इसपर निर्भर है कि हम क्या देख रहे हैं, किस पर ध्यान दे रहे हैं, क्या सुन रहे हैं, हमारी दैहिक अनुभूतियाँ, इत्यादि | हम चाहे कैसी भी मनःस्थिति में हों वह प्रति-क्षण बदल रही है | उसमें कुछ भी स्थिर नहीं है |

एक भी क्षण के लिए स्थिर न रहने के इस संलक्षण को हम " सूक्ष्म अस्थिरता " कहते हैं | इससे दो शब्द समूह सामने आते हैं: स्थूल अस्थिरता (मि-रताग-पा राग्स-पा ) और सूक्ष्म अस्थिरता (मि-रताग-पा फ्रा-मो ) |

  • स्थूल अस्थिरता  वह है जब किसी बात का अंत होता है | उदाहरण के लिए, यदि हम कार अथवा कम्प्यूटर खरीदते हैं, तो वह कभी न कभी टूटते हैं | यह स्थूल अस्थिरता है | हमारा यह वर्तमान जीवन भी कभी न कभी समाप्त होगा | जब यह मृत्यु के साथ समाप्त होगा वह भी स्थूल अस्थिरता होगी |
  • सूक्ष्म अस्थिरता  से अभिप्राय केवल यह तथ्य नहीं है कि हमारी एक दिन मृत्यु होगी; परन्तु हमारी जीवनावधि का प्रत्येक व्यतीत होता पल हमें उसके अंत के एक पल के अधिक निकट ले जाता है | जैसे-जैसे पल-पल करके हमारी जीवनावधि बिना रुके घटती जाती है, वैसे-वैसे हम अपरिहार्य रूप से मृत्यु के समीप होते जाते हैं | क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारा वर्तमान जीवन और जीवनावधि परिवर्ती कारक हैं, जो कारणों और परिस्थितियों से उत्पन्न हुए | इसके अतिरिक्त, हमारे गर्भ में आने और जन्म के कारण और परिस्थितियाँ, वास्तव में, हमारी मृत्यु के भी कारण और परिस्थितियाँ हैं | ऐसा इसलिए है क्योंकि वे कारण और परिस्थितियाँ - हमारे पिता के शुक्राणु और हमारी माता के अंडाणु का मिलन तथा हमारी अंतराभाव चेतना - केवल क्षणिक होती हैं | इन तीनों का मिलान स्थूल रूप से अस्थिर होता है | यह टिकता नहीं है, और हमारे जीवन के प्रत्येक क्रमिक क्षण को जन्म नहीं देता | अपितु, हमारे इस जीवनकाल के अंत का मूल कारण वह मिलन ही है | यदि हमारा गर्भाधान और जन्म न हुआ होता, तो हमारी मृत्यु भी न होती; हमारी मृत्यु होती है क्योंकि गर्भाधान होकर हमारा जन्म हुआ है | इसके कारणवश, हमारे जीवन के प्रत्येक पल हम मृत्यु के अधिक निकट होते जाते हैं, क्योंकि हमारी जीवनावधि अन्य अनित्य कारणों और परिस्थितियों से प्रभावित है जिनमें मूल कारणों की क्षमता नहीं होती जिनसे वह आरम्भ हुई थी |

कुछ विशेष प्रकार के परिवर्ती कारक होते हैं जिनका आरम्भ से ही क्षरण होता है, जैसे हमारी जीवनावधि | कुछ अन्य प्रकार के कारक भी हैं जो निरंतर परिवर्तित होते रहते हैं, परन्तु जिनका क्षरण नहीं होता, जैसे हमारे चित्त की स्वाभाविक प्रवृत्ति | उसका क्षरण नहीं होगा, परन्तु फिर भी वह एक सूक्ष्म अस्थिरता के अधीन है, जिसका न आदि है न अंत | हमारे चित्त की स्पष्टता और सचेतनता से अनुभव करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रति-क्षण इस प्रकार बदलती रहती है कि जो हम अनुभव करते हैं वह प्रति-क्षण बदलता है, तो उसके प्रति हमारा अनुभव भी बदलता रहता है | अन्य शब्दों में, हमारा किसी घटना का अनुभव उन अनेक कारणों और परिस्थितियों पर आधारित होता है जो उस घटना का कारण थे, और यह निरंतर बदलता रहता है | इसलिए हम जो अनुभव कर रहे हैं वह निरंतर बदलता रहता है | किन्तु, संलक्षण के रूप में, परिस्थितियों का अनुभव स्वयं में ह्रासोन्मुख नहीं होता | वह अपने अंत की ओर बढ़ता हुआ अधिक दुर्बल नहीं होता, यद्यपि प्रत्येक विशेष जीवनकाल होता जाता है |

मानसिक सातत्य की एक रेखा के रूप में कल्पना करें, जो बिना आदि और अंत के सदैव विद्यमान है | साधारणतया, वह प्रति-क्षण अपने अंत की ओर नहीं बढ़ रही, क्योंकि कोई अंत है ही नहीं | परन्तु, प्रत्येक जीवनकाल में, वह रेखा गर्भाधान के समय मानो उसमें उछाल सा आता है और फिर एक पहाड़ी के समान उस जीवनकाल के अंत में वह नीचे की ओर आ जाती है | फिर अगले जीवनकाल के आरम्भ में वह पुनः ऊपर की ओर उछलती है और दोबारा नीचे की ओर चली जाती है | इस प्रकार, प्रत्येक जीवनकाल का अंत होता है, परन्तु उस रेखा का सातत्य बना ही रहता है |

पिछले जन्मों की हमारी बाध्यकारी कर्मगत एषणाएँ, उन्हें उत्तेजित करने वाले अशांतकारी मनोभाव, और उनका अनुसरण करके हम जो कर्मगत परिणाम अर्जित करते हैं - उन कृत्यों को दोहराने की प्रवृत्ति और लत - इनके आधार पर हमारे मानसिक सातत्य में हमारे वर्तमान अथवा भावी जीवन के पाँच स्कन्धों के अनुभव समाविष्ट होंगे | उस जीवनकाल में हम जो अनुभव करते हैं उसकी अंतर्वस्तु एवं आधार के रूप में ये स्कंध उत्पन्न होते हैं | उस जीवनकाल में, हमारा मानसिक सातत्य उस जीव रूप विशेष और उस प्रकार के अनुभवों से सम्बंधित होगा, जैसे एक कुत्ता, एक तिलचट्टा, मेक्सिको की एक महिला, एक रूसी पुरुष, इत्यादि | हमारे मानसिक सातत्य जिस जीवाकार में स्वयं को ढाल लेते हैं, वह प्रत्येक जीवनकाल में बदल जाता है | ऐसा नहीं है कि हमारा मानसिक सातत्य अन्तर्निहित रूप से एक स्त्री अथवा एक कुत्ते का है | प्रत्येक मानसिक सातत्य वैयक्तिक है, परन्तु उसकी किसी एक जीवनकाल की कोई एक विशिष्ट पहचान नहीं है जो सदैव उसके साथ रहती है | 

स्पष्टतः, इसके सभी निहितार्थों को आत्मस्थ करने में समय लगेगा जैसे हम यह किस प्रकार समझें कि हमारे वर्तमान जीवाकार का संबंध, तिलचट्टों समेत, लगभग सभी से है | चूँकि यह चार प्रमाण-चिह्नों का परिचय मात्र है, आइए आगे बढ़ें |

जो भी विकारयुक्त है वह पीड़ित है

दूसरा पुष्टिकारक बिंदु अथवा प्रमाण-चिह्न है कि जो भी विकारयुक्त है, वह पीड़ित है, अन्य शब्दों में, समस्याग्रस्त है | विकारयुक्त ( ज़ैग-बकास ) का अनुवाद प्रायः किया जाता है दूषित , परन्तु यह कुछ अतिशयोक्ति है | अभिधर्मकोश ( ट्रेज़र हाऊस ऑफ़ स्पेशल टॉपिक्स ऑफ़ क्नॉलेज ) (चोस मंगों-पा' मदज़ोद, संस्कृत- अभिधर्मकोश ) में दी गई वसुबन्धु की परिभाषा के अनुसार विकारयुक्त घटनाएँ वे होती हैं जो विकारयुक्त घटनाओं की "वृद्धि" का कारण बनती हैं | दूसरे शब्दों में, ये वे कारक हैं जो अन्य विकारयुक्त घटनाओं को बढ़ावा देते हैं | इस परिभाषा को समझने के लिए, हमें यह जानने की आवश्यकता है कि "विकारयुक्त" का साधारण अर्थ है वह जिसकी उत्पत्ति अशांतकारी मनोभावों और बाध्यकारी कार्मिक एषणाओं पर आश्रित है |

हमारे अनुभव के पाँच स्कन्धों के रूप में विकारयुक्त दृश्य-प्रपंच परिपक्व होते हैं जो हमारे मानसिक सातत्य पर पड़ने वाले कर्मजनित परिणाम से उत्पन्न होते हैं। वे बाध्यकारी कर्मगत एषणाएँ, जो यह परिणाम दिखाती हैं, हमारे अशांतकारी मनोभावों से उत्पन्न होती हैं | हम कैसे अस्तित्वमान हैं इस ज्ञान के प्रति अनभिज्ञता अथवा अज्ञान से हमारे अशांतकारी मनोभाव, बाध्यकारी कर्मगत एषणाएँ तथा हमारे पाँच स्कंध जन्म लेते हैं | यदि हमारे विकारकारी स्कंधों को अनभिज्ञता का साथ मिल जाए, तो वे अविरत भाव से अन्य विकारकारी स्कन्धों को जन्म देते हैं | यह चक्र अदम्य रूप से चलता रहेगा जब तक हम अपनी अनभिज्ञता का सत्य निरोध प्राप्त न कर लें | तब तक हमारे पाँच स्कंध समस्याजनक रहेंगे और दुःख का रूप धारण करे रहेंगे क्योंकि वे विकारयुक्त दृश्य-प्रपंच हैं |

दुःख के प्रकार

तीन प्रकार के दुःख या समस्याजनक अनुभव होते हैं:

  • पहला है वेदना या दुःख की पीड़ा
  • दूसरा है निरंतर बदलाव की समस्या | इससे अभिप्राय है हमारा सामान्य सुख जो सदा के लिए नहीं है, पर्याप्त नहीं है, संतोषजनक नहीं है, और हमें कोई अनुमान नहीं है कि भविष्य में क्या होगा | यह बहुत आशंकित करने वाली स्थिति है |
  • तीसरे प्रकार की समस्या है सर्वव्यापी समस्या | इससे अभिप्राय है हमारे क्षण प्रति-क्षण के अनुभव, जिनमें आवर्ती रूप से विकारयुक्त स्कंध सम्मिलित हैं | यदि हमारे अनुभव हमारे अशांतकारी मनोभावों और बाध्यकारी कर्मगत एषणाओं से उत्पन्न हो रहे हैं, और यदि, अर्हत (मुक्त सत्त्व ) न होने के कारण, हमारे अशांतकारी मनोभावों से और अधिक कार्मिक परिणाम सामने आ रहे हैं, तो हम अशांतकारी मनोभावों और बाध्यकारी कर्मगत एषणाओं के और अधिक क्षण उत्पन्न करते रहेंगे | इस कार्मिक परिणाम से जो विकारकारी स्कंध परिपक्व होंगे, वे पहले दो दुःखों को अनुभव करने का आधार बनेंगे, जो हैं पीड़ा और दुःख अथवा असंतोषकारी, सामान्य सुख | यह एक सर्वव्यापी समस्या है |

यह बहुत सारगर्भित भी है | हम जो समस्याएँ आदि प्रत्येक क्षण अनुभव कर रहे हैं वे हमारे अशांतकारी मनोभावों और पूर्व-कालीन बाध्यकारी व्यवहार से उत्पन्न हुई हैं | हम भ्रमित हैं और अपने अनुभवों के प्रति हमारे अस्तित्व की अनभिज्ञता और अधिक समस्याओं को जन्म देती है | ये समस्याएँ एक के बाद एक, एक जीवनकाल के बाद दूसरे जीवनकाल में निरंतर होती रहेंगी | चाहे हमारे साथ कुछ भी हो, हमारे भीतर अशांतकारी मनोभाव बने रहेंगे, और उन अज्ञानपूर्ण, बाध्यकारी तीव्र इच्छाओं का पालन करके हम और झंझट पैदा कर देंगे | इस प्रकार हम अनियंत्रित रूप से और अधिक समस्याओं का सामना करते जाते हैं | यह सर्वव्यापी कष्ट हैं |

सब दृश्य-प्रपंच असंभव आत्मा से विरहित एवं वंचित हैं

तीसरा पुष्टिकारक बिंदु यह है कि सभी दृश्य-प्रपंच असंभव आत्मा से विरहित एवं वंचित हैं (बडाग-मेड ) | सामान्यतः इस शब्दावली का अनुवाद होता है "शून्यता और आत्मरहित" परन्तु शून्यता  के स्थान पर मैं यह शब्दावली अधिक पसंद करता हूँ "असंभव आत्म से वंचित" क्योंकि संस्कृत में शब्द अनात्मन  है, जिसका अर्थ वह आत्मन नहीं है जिसका ग़ैर-बौद्ध भारतीय प्रणालियों द्वारा दावा किया गया है |

असंभव आत्मा से क्या अभिप्राय है? सभी बौद्ध सिद्धांत प्रणालियों में व्यक्तियों के असंभव आत्मा का खंडन किया गया है, परन्तु केवल महायान सिद्धांत दृश्य-प्रपंच के असंभव आत्म का खंडन करते हैं | चूँकि इन चार प्रमाण- चिह्नों का सम्बन्ध सभी बौद्ध सिद्धांत प्रणालियों से है, तो इस सन्दर्भ में, तीसरा प्रमाण-चिह्न केवल इस बात का खंडन करता है कि हमारे स्कन्धों का असंभव आत्म व्यक्तियों का होता है | जहाँ तक सभी दृश्य-प्रपंचों का प्रश्न है, वह केवल इस बात का खंडन करता है कि सभी दृश्य-प्रपंच व्यक्तियों की असंभव आत्मा के उपयोग अथवा बोध की सम्भाव्य वस्तु हो सकते हैं।

अधिकांश सिद्धांत प्रणालियों में, व्यक्ति की असंभव आत्मा के दो स्तर हैं |

  • स्थूल असंभव आत्मा  एक ऐसी आत्मा है जिसे हम वास्तविक "मैं" के रूप में पहचानते हैं - वह जो स्थिर है, बिना भागों वाला एक अखंड सम्पूर्ण, और जो शरीर व चित्त के बिना स्वतः अस्तित्वमान रह सकता है, अन्य शब्दों में, पांच स्कन्धों से स्वतंत्र | यह ऐसा है मानो हमारे अनुभवों से स्वतंत्र कोई पृथक "आत्मा" है, एक पृथक "मैं" जो अनुभव प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर व "चित्त" का प्रयोग एक मशीन की भाँति कर रही है और जो हमारे मस्तिष्क की आवाज़ की वक्ता है |
  • सूक्ष्म असंभव आत्म  एक "मैं" है, एक व्यक्ति जो आत्म-निर्भर ज्ञेय है | आत्म-निर्भर ज्ञेय होने का अर्थ है एक ऐसी "आत्मा", "मैं" जिसकी स्कन्धों से स्वतंत्र स्वयं की पहचान हो |

असंभव आत्मा का यही अर्थ है | ऐसी आत्मा असंभव है; ऐसी कोई पृथक आत्मा नहीं है जो स्वयं जानी जाए, जिसे ढूंढ़कर हम कह सकें, "यह मैं हूँ" | पृथक रूप से विद्यमान, विलग रूप से ज्ञेय आत्मा जैसा कुछ नहीं है |

इस तीसरे पुष्टिकारक बिंदु में दो शब्द हैं: "विरहित" और "असंभव आत्मा से वंचित" | कुछ प्रस्तुतियों के अनुसार, "विरहित" का अर्थ है कि हमारे स्कंध, हमारे अनुभव,एक व्यक्ति, एक "मैं" से विरहित हैं जो एक स्थूल असंभव आत्मा के रूप में अस्तित्वमान रहता है | "असंभव आत्म से वंचित" से अभिप्राय है स्कंध जो एक सूक्ष्म असंभव आत्म से वंचित हैं | एक अन्य प्रस्तुति के अनुसार, "विरहित" से अभिप्राय है कि हमारे स्कंध एक व्यक्ति, एक "मैं" से विरहित हैं, जो स्कन्धों से पूर्णतः विलग अथवा उनसे तद्रूप एक असंभव आत्मा के रूप में अस्तित्वमान हैं | "असंभव आत्म से वंचित" शब्दावली तर्कसंगत परिणाम है | हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सभी ज्ञेय संघटनों में व्यक्ति के असंभव आत्म जैसा कुछ नहीं है | प्रासंगिक प्रस्तुति में, इस तीसरे पुष्टिकारक बिंदु से अभिप्राय है एक ऐसा व्यक्ति, "मैं ", जो स्वतः सिद्ध अन्तर्जात पहचान से विरहित और वंचित है |

इस तीसरे प्रमाण-चिह्न को समझना आवश्यक है | जिन स्कन्धों से हमारे अनुभव बने होते हैं उनकी अपने अस्तित्व से जानी जाने वाली पृथक आत्मा नहीं होती, या ऐसी आत्मा जो इनमें से एक अथवा सभी से तद्रूप हो | यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | इस बात की समझ न होने से भ्रम और समस्याएँ उत्पन्न होती हैं | उदाहरण के लिए, हम सोच सकते हैं कि, "मैं वास्तविक मैं को पाने और जानने का प्रयास कर रहा हूँ," मानो हमारे अनुभव से परे वास्तविक "मैं" को जान पाना संभव हो | ऐसा कोई आत्म अथवा आत्मा नहीं जो अचल और अपरिवर्तनीय, अखंड, और स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान हो, तथा जिसको "पाया" और सबसे स्वतंत्र "वास्तविक मैं" के रूप में जाना जा सके |

निर्वाण शांति है

चौथा पुष्टिकारक बिंदु है कि निर्वाण शांति है | इसका अर्थ है कि विकारयुक्त स्कन्धों से मुक्त होना और विमुक्ति पाना संभव है | अन्य शब्दों में, यदि हम तीसरे बिंदु को समझ लें, कि ये स्कंध पृथक, आत्म-निर्भर ज्ञेय आत्म से वंचित हैं और ऐसी कोई इकाई नहीं होती, तो हम विमुक्ति पा लेंगे | यह निर्वाण है; और यह शांति है क्योंकि यह सर्व-व्यापी दुःख का अंत है |

हम देख सकते हैं कि यह कैसे चार आर्य सत्यों की शिक्षाओं के अनुरूप है | पहले दो प्रमाण-चिह्न - सभी प्रभावकारी कारक अस्थिर होते हैं और सभी विकारयुक्त दृश्य-प्रपंच पीड़ाकारी हैं - पहले दो आर्य सत्यों को व्याख्यायित करते हैं: दुःख सत्य और दुःख के वास्तविक स्रोत | तीसरे और चौथे प्रमाण-चिह्नों - सभी दृश्य-प्रपंच असंभव आत्मा से वंचित एवं विरहित हैं तथा निर्वाण शांति है - से अभिप्राय है तीसरा आर्य सत्य, दुःखों और उनके कारणों का सत्य निरोध | वे अप्रत्यक्ष रूप से चौथे आर्य सत्य की ओर भी संकेत करते हैं, सत्य चित्त मार्ग अथवा एक असंभव आत्मा से वंचित होने का निर्वैचारिक बोध, जो सत्य निरोध तक ले जाता है |

तो हमारे पाँच स्कंध, प्रभावकारी कारकों के रूप में, अस्थिर हैं | चूँकि ये अज्ञान से उत्पन्न और अज्ञानमय होते हैं, ये विकारकारी होते हैं; और अनभिज्ञता से विकारयुक्त होने के कारण, ये दुःख को स्थायी बनाते हैं, बल्कि ये स्वयं दुःख हैं | किन्तु, हमारे स्कंध एक असंभव आत्म से विरहित और वंचित होते हैं | उस असंभव आत्मा के अभाव के निर्वैचारिक बोध के द्वारा हम निर्वाण प्राप्त करते हैं, जो इस अर्थ में शान्ति है कि हमारे स्कंध वास्तविक दुःख और दुःख के वास्तविक स्रोतों की बाधा से मुक्त हो जाते हैं |

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