धार्मिक पाखंड से बचना

ईमानदार होना

मिल-जुल कर रहते लोग ─ यही तो समाज है; यही तो समुदाय है। लेकिन ऐसा लगता है कि नेताओं को समाज में नैतिक सिद्धांतों, नैतिक आचरण की ज़्यादा परवाह नहीं होती। समाज केवल धन, सत्ता को लेकर चिन्तित रहता है। फिर ऐसे समाज के लोग स्वतः ही केवल धन और सत्ता को महत्व देने लगते हैं। हम इन लोगों को दोष नहीं दे सकते। हमारा पूरा समाज ही इस तरह से सोचता है।

मैं मानता हूँ कि बहुत से धार्मिक लोग “ईश्वर” या “बुद्ध” के नाम का उच्चारण करके केवल दिखावटी भक्ति करते हैं, जबकि अपने वास्तविक दैनिक जीवन में वे किसी बात की परवाह नहीं करते। हम बौद्ध लोग बुद्ध की पूजा करते हैं, लेकिन अपने वास्तविक दैनिक जीवन में हमें बुद्ध की परवाह नहीं होती है ─ हम सिर्फ़ धन, सत्ता, प्रतिष्ठा की परवाह करते हैं। यह सब क्या है? मुझे लगता है कि हम धार्मिक लोग भी कभी-कभी पाखंड सीख लेते हैं। हम सभी सचेतन जीवधारियों के लिए प्रार्थना करते हैं, लेकिन हमारे वास्तविक कर्म कैसे होते हैं? हमें दूसरों के अधिकारों के मुद्दों की कोई परवाह नहीं होती। हम सिर्फ़ शोषण करते हैं। मुझे लगता है कि दूसरे बहुत से धर्मों के अनुयायी भी प्रार्थना करते हैं, वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं ─ “मैं अपने सिरजनहार ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता हूँ” ─ लेकिन उस सृजनकर्ता की रचना के रूप में हम अपने सृजनकर्ता के आदेश का पालन नहीं करते हैं, उस सृजनकर्ता के दिखाए मार्ग पर नहीं चलते हैं।

मैं अक्सर अपने भारतीय मित्रों से कहता हूँ कि भारत के लोग अपेक्षाकृत अधिक धार्मिक होते हैं। वे शिव, गणेश की आराधना करते हैं ─ मुझे लगता है कि वे गणेश की उपासना मुख्यतः धन-सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए करते हैं। तो वे सचमुच पूजा-अर्चना और प्रार्थना करने के अभ्यस्त होते हैं। मुझे लगता है कि हर घर में किसी न किसी देवता की मूर्तियाँ होती हैं। लेकिन उनके असल जीवन में बड़ा भ्रष्टाचार होता है। ऐसा कैसे है? किसी ईश्वर ने, किसी बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि भ्रष्टाचार उचित है। हमारा आचरण ईमानदार और न्यायसंगत होना चाहिए। किसी महान शिक्षक ने यह नहीं कहा, “आपसे जितना अधिक सम्भव हो सके, आप शोषण कीजिए। मैं आपको आशीष दूँगा।” किसी ईश्वर ने ऐसा करने के लिए नहीं कहा है।

इसलिए, जब हम बुद्ध या ईसा मसीह या मुहम्मद जैसे किसी उच्च सत्व को स्वीकार करते हैं तो हमें ईमानदार, सच्चे लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। ऐसा मार्ग अपनाने से आपको भी आत्मविश्वास मिलता है: “मेरे पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है; मैं किसी को भी अपने मन की बात बता सकता हूँ और किसी भी प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर दे सकता हूँ।” इस प्रकार आपके अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी ईमानदारी और सच्चाई का आचरण आत्मिक बल और आत्मविश्वास का एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्रोत है। यह सच है कि ऐसे लोग भी होते हैं जो बहुत अच्छी तरह से बात करते हैं और मुस्कराते हैं, लेकिन यदि आप उनकी प्रेरणा पर नज़र डालें, तो आपको स्थिति कुछ अलग नज़र आएगी। ऐसे लोगों के लिए आप अपने मन में विश्वास या आदर का भाव कैसे जगा सकते हैं?

बौद्ध धर्म के पालन में ईमानदारी बरतना

मैं एक बौद्ध हूँ, और अपने बौद्ध भाइयों और बहनों से कहना चाहता हूँ कि निःसंदेह बुद्ध की शिक्षाएं ढाई हज़ार वर्ष से ज़्यादा पुरानी हैं; लेकिन बुद्ध की शिक्षाएं आज की दुनिया में भी बहुत प्रासंगिक हैं। और अब बहुत से शीर्ष वैज्ञानिक विनाशकारी मनोभावों को नियंत्रित करने के लिए और अधिक जानकारी जुटाने और नए तरीके ईजाद करने में जुटे हैं। शिक्षाएं तो अद्भुत हैं, लेकिन मुझे सचमुच महसूस होता है कि अब ऐसे संकेत मिलते हैं कि ऐसे लामा (आध्यात्मिक आचार्य) और तुल्कू (पुनर्जन्मे लामा) या शिक्षक हैं जिनकी शिक्षा की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है। इस बात को लेकर मैं सचमुच चिन्तित हूँ। यदि स्वयं आपके जीवन में अनुशासन नहीं है तो फिर आप इसकी शिक्षा दूसरों को कैसे दे सकते हैं? दूसरों को सही मार्ग दिखाने के लिए आपको स्वयं सही मार्ग अपनाना होगा।

मुझे लगता है कि सभी सकारात्मक बातें पहले ही कही जा चुकी हैं, इसलिए अब मेरे लिए यही बाकी है कि मैं कुछ और नकारात्मक बातों का उल्लेख करूँ। हमें बहुत संजीदगी से काम लेना चाहिए। मैं स्वयं एक बौद्ध भिक्षु हूँ। मैं सदा अपने आचरण का ध्यान रखता हूँ। प्रतिदिन सुबह जागते ही मैं बुद्ध का स्मरण करता हूँ और बुद्ध की कुछ शिक्षाओं का उच्चार करता हूँ, यह मैं एक प्रकार से अपने चित्त को अनुकूल बनाने के लिए करता हूँ। इसके बाद मुझे दिन भर का अपना समय ईमानदारी, सच्चाई, करुणा, शांति और अहिंसा के सिद्धान्तों के अनुसार बिताना चाहिए। इसलिए, यहाँ उपस्थित मेरे बौद्ध भाइयो तथा बहनो, जब आप बुद्धधर्म (बुद्ध की शिक्षाएं) के बारे में बात करते हैं, बुद्धधर्म के प्रचार-प्रसार की बात करते हैं, तो पहले आप उसका प्रचार-प्रसार यहाँ, अपने हृदय में करें। यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है।

इसमें संदेह नहीं कि विश्व की अन्य प्रमुख धार्मिक परम्पराओं में भी मनोगत शांति विकसित करने और उसके माध्यम से एक बेहतर विश्व का निर्माण करने की उतनी ही क्षमता है। लेकिन व्यक्तियों के महत्व पर बल दिया जाना बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सांख्य परम्परा के एक भाग की अपनी अलग विशेषता है। आत्म-सृजन का सिद्धांत या दृष्टिकोण ही सबसे उत्तम है। हम कारण-कार्य-सिद्धांत में विश्वास करते हैं: यदि आप उचित कर्म करते हैं तो उसके सकारात्मक परिणाम होते हैं। यदि आपके कर्म अनुचित हों तो परिणाम नकारात्मक होते हैं। इसलिए, कारण-कार्य के नियम के अनुसार यदि आप अनुचित कर्म करते हैं तो बुद्ध आपकी रक्षा नहीं कर सकते हैं। अपनी शिक्षा में बुद्ध ने कहा था: “मैं तुम्हें निर्वाण (समस्त दुखों से मुक्ति) का मार्ग दिखाऊँगा, लेकिन तुम उसे प्राप्त कर सकोगे कि नहीं, यह पूरी तरह तुम्हारे अपने ऊपर निर्भर करेगा। मैं आशीष देकर तुम्हारा मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता हूँ।” बुद्ध ने ऐसा कभी नहीं कहा कि वे अपने आशीर्वाद से हमें मुक्ति दिला सकते हैं।

इस प्रकार आप अपने नियन्ता स्वयं हैं। मैं मानता हूँ कि शिक्षा देने का यह तरीका बहुत ही उपयोगी है। सब कुछ व्यक्ति के अपने कर्मों पर निर्भर करता है। कर्म, चाहे सकारात्मक हों या नकारात्मक, पूरी तरह प्रेरणा पर निर्भर करते हैं। मुझे लगता है कि इस प्रकार बुद्धधर्म मनोगत शांति विकसित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है।

विभिन्न बौद्ध परम्पराओं के बीच सामंजस्य

और अब, जैसा कि मैंने कल उल्लेख किया था, जब हमने बर्मा और लाओस के नेताओं तथा कुछ अन्य से मुलाकात की तो मालूम हुआ कि विगत में, तथाकथित नामों “हीनयान”, “महायान” और “तंत्रयान” के कारण लोगों के मन में यह धारण बनी कि ये यान (वाहन) एक-दूसरे से भिन्न और अलग-अलग हैं। यह गलतफहमी है। जैसा कि मैंने आज सुबह संक्षेप में उल्लेख किया था, थेरवाद परम्परा, या पालि परम्परा बुद्धधर्म का आधार है; और विनय [मठ सम्बंधी प्रतिज्ञाओं और अनुशासन] का पालन ही बुद्धधर्म का आधार है।

स्वयं बुद्ध को ही देखें, उनके जीवन की कथा को देखें। उन्होंने अपने केश स्वयं काट लिए और फिर भिक्षु बन गए। यही तो शील [नैतिक आत्मानुशासन] है। फिर उन्होंने छह वर्ष तक साधना की। यह समाधि [तन्मय एकाग्रता], और विपासना [असाधारण रूप से सचेतन चित्त] का व्यवहार है। इस मार्ग को अपनाकर वे अन्ततः प्रबुद्ध हो गए। इस प्रकार तीन अभ्यास हैं शील, समाधि, पन्न [सविवेक बोध, प्रज्ञा] या विपासना। इसलिए बुद्ध के अनुयायियों के रूप में हमें भी इसी मार्ग पर चलना चाहिए। आत्मानुशासन की साधना के बिना, विनय की साधना के बिना हम समता [शांत और स्थिर चित्त] का भाव कैसे विकसित कर सकते हैं और विपासना की साधना कैसे कर सकते हैं? कठिन है। इसलिए, पालि परम्परा बुद्धधर्म का आधार है।

और, मेरे विचार से तीसरे आर्य सत्य निरोध [दुख और उसके कारणों का सच्चे अर्थ में अंत, वास्तविक अंत] पर बल देने वाले संसकृत परम्परा के प्रज्ञापारमिता सूत्रों [प्रज्ञा सूत्रों की सिद्धि] की साधना इससे भी ऊपर है। इसकी और अधिक व्याख्या करना महत्वपूर्ण है। निरोध क्या है? बुद्ध ने हमारे अज्ञान को दूर करने की सम्भावना के बारे में बताया। एक बार जब हम अपने चित्त से अज्ञान को पूरी तरह दूर कर दें तो वही निरोध है, वही मोक्ष [मुक्ति] है। तो यह थोड़ा और विस्तृत स्पष्टिकरण हुआ। और फिर मग्ग [दुख के वास्तविक अंत के लिए मार्ग या ज्ञान, चौथा आर्य सत्य] भी इसकी और अधिक व्याख्या है।

इस प्रकार पालि परम्परा के बाद संस्कृत परम्परा आती है, जैसे किसी भवन का पहला तल। दूसरे शब्दों में कहें तो पहले भूमि तल आता है; जोकि पालि परम्परा है ─ भिक्षु [मठवासी] साधना, आत्मानुशासन, शील । इसके बाद पहला तल आता है, प्रज्ञापारमिता सूत्र और अभिधर्म [ज्ञान के विशेष विषय], एक प्रकार का अभिधर्म─ ज्ञान की शिक्षाएं, छह पारमिताएं [व्यापक दृष्टिकोण, परिपूर्णताएं] या दस पारमिताएं। फिर उसके ऊपर बौद्ध तंत्रयान ─ विपासना, समता, बोधिचित्त [सभी के कल्याण के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति का आकांक्षी चित्त] की साधना के आधार पर देवों का मानसदर्शन ─ आता है। इस प्रकार इनका क्रम भूमि तल, पहला तल, दूसरा तल इत्यादि जैसा है। भूमि तल का निर्माण किए बिना उससे ऊपर वाले तलों का निर्माण नहीं किया जा सकता है। इसलिए यहाँ उपस्थित बौद्ध भाइयों और बहनों को इस बात के महत्व को समझना चाहिए।

निःसंदेह मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ। मैं अपने आप को एक विद्यार्थी ही मानता हूँ। जब भी मुझे समय मिलता है, मैं अध्ययन करता हूँ, पढ़ता हूँ। जहाँ तक तिब्बती बौद्ध धर्म का सम्बंध है, भारतीय भाषाओं ─ पालि, संस्कृत, और कुछ नेपाली भाषाओं से लगभग तीन सौ ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया। तो, मुझे जब भी समय मिलता है, मैं इन तीन सौ ग्रंथों को पढ़ता हूँ, उनके बारे में चिन्तन करता हूँ और उनका अध्ययन करता हूँ। निश्चित तौर पर मेरी जानकारी उन लोगों की तुलना में थोड़ी बेहतर है जिन्होंने इन तीन सौ ग्रंथों को कभी छुआ तक नहीं है। [उस ज्ञान के आधार पर] जब मैं इन ग्रंथों का अध्ययन करता हूँ तो मुझे पूरी दृढ़ता से विश्वास हो जाता है कि इन तीन साधनाओं का अभ्यास बहुत ही आवश्यक है।

सही अर्थों में भिक्षु बनें

इसलिए सबसे पहले तो हम बौद्धों को, चाहे हम थेरवाद या महायान या तंत्रयान के मानने वाले हों ─ हमें बुद्ध के सच्चे अनुयायी बनना चाहिए। यह बहुत महत्वपूर्ण है। बात स्पष्ट है? बुद्ध के अनुयायी बनने के लिए केवल किसी मठवासी का, किसी भिक्षु का चोगा पहन लेना ही काफी नहीं है। इतना मात्र करने वाले लोगों को बौद्ध भिक्षु नहीं कहा जा सकता है। हम यह नहीं कह सकते कि चोगा धारण कर लेने भर से ये मान्य भिक्षु हैं। सिर्फ चोला बदल लेना बहुत आसान है। बुद्ध का सच्चा अनुयायी बनने के लिए हमें यहाँ, अपने हृदय में, अपने चित्त में बदलाव करना होगा। बौद्ध भिक्षु बनने के लिए आपको गम्भीरतापूर्वक आत्मानुशासन का पालन करना चाहिए। कभी-कभी ऐसा लगता है: “अरे, कठोर साधना बुद्ध को करने दीजिए। हम तो ठाठ से जिएं।” लेकिन कैसे? आप ऐसा कैसे कर सकते हैं? यदि आप बौद्ध हैं, तो आपको स्वयं बुद्ध के मार्ग को अपनाना चाहिए ─ छह वर्ष की कठोर साधना। आपको उनके उदाहरण को अपनाना चाहिए।

अब, जैसा कि मैंने कल ज़िक्र किया था, किसी एक मित्र ने पालि परम्परा और संस्कृत परम्परा के बीच एक प्रकार की दरार या दीवार होने की बात कही थी। यह दीवार किसी के भी हित में नहीं है। हमें साथ बैठ कर विचार-विनमय करना चाहिए। हम आपकी परम्पराओं, आपके प्रतिमोक्षों  [मठीय प्रतिज्ञाओं] से बहुत कुछ सीख सकते हैं। आप भी हमारे संस्कृत प्रतिमोक्ष से सीख सकते हैं। इसलिए और अधिक नियमित बैठकों ─ केवल औपचारिकता के लिए नहीं, बल्कि गम्भीर बैठकों, गम्भीर चर्चाओं की बहुत आवश्यकता है। यह एक बात हुई।

भिक्षुणियों की पूर्ण दीक्षा को पुनः प्रचलित किए जाने के विषय में

और अब भिक्षुणियों  [पूर्ण दीक्षा प्राप्त भिक्षुणियों] के सम्बंध में, जैसा कि आप जानते हैं, मैं शुरु से ही मूलसर्वास्तिवाद परम्परा [जिसके हम तिब्बती और मंगोलियाई लोग अनुयायी हैं] में भिक्षुणियों की दीक्षा को पुनः प्रचलित किए जाने का पक्षधर रहा हूँ। किन्तु हमें विनय ग्रंथों का पालन करना होगा। यदि मेरे पास किसी तानाशाह जैसा कोई विशेष अधिकार होता तो मैं कह सकता था, “ठीक है, आप वैसा करो।” लेकिन वैसा हम कर नहीं सकते हैं। हमें विनय ग्रंथों ─ सर्वास्तिवाद ग्रंथों और धर्मगुप्तक ग्रंथों [जिनका पूर्वी एशिया में पालन किया जाता है] और थेरवाद ग्रंथों [जिनका दक्षिण पूर्व एशिया में पालन किया जाता है] के अनुसार चलना होगा।

देखिए, यह एक ऐसा महत्वपूर्ण विषय है जिस पर हमें बहुत गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इसका निर्णय करना मेरे नियंत्रण से परे है। जो निर्णय मैं कर सकता हूँ वह यह है कि तिब्बती समुदाय के सभी भिक्षुणियों के मठों में उसी स्तर का अध्ययन शुरु किया जाए जैसा इन बड़े-बड़े मठ संस्थानों में किया जाता है। और अब तो कुछ भिक्षुणियाँ गेशेमा [बौद्ध दर्शन में डॉक्टर की उपाधि], योग्य विद्वान बनने लगी हैं।

समय-समय पर हमने भिक्षुणियों के विषय पर चर्चा की है और इस अवसर पर भी हम उनके विषय पर चर्चा कर रहे हैं। मैंने अपील का नवीनतम पत्र लाओस के बौद्ध नेता को और बर्मा के बौद्ध नेता को दिखाया था। हम अपनी इस गम्भीर चर्चा को जारी रखेंगे, और मुझे पूर्ण विश्वास है कि अन्ततः हम किसी सहमति पर पहुँचेंगे।

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