मूल बोधिसत्व संवर

पृष्ठभूमि

संवर किसी मानसिक सातत्य का सूक्ष्म अदृश्य स्वरूप होता है जो व्यवहार को ढालता है। अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो यह किसी ऐसे “अश्लाघ्य कृत्य” का निग्रह होता है जो या तो स्वभावतः ही विनाशकारी होता है या जिसे कुछ विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए साधना कर रहे लोगों के लिए बुद्ध ने वर्जित किया था। किसी दूसरे के प्राण लेना पहले प्रकार के कृत्य का उदाहरण है; दूसरे प्रकार के कृत्य का उदाहरण दोपहर के बाद भोजन करना है, जिससे मठवासियों को बचना चाहिए ताकि रात्रि के समय और अगली सुबह ध्यानसाधना करते समय उनका चित्त अधिक निर्मल बना रहे।

बोधिचित्त विकसित करने की दोनों अवस्थाओं, प्रवृत्त और व्यवहृत, दोनों में से हम केवल व्यवहृत बोधिचित्त की अवस्था में ही वोधिसत्व संवर लेते हैं।

[दोनों अवस्थाओं के बीच के अन्तर के लिए देखें: संकल्पित बोधिचित्त के लिए अभ्यास]

बोधिसत्व संवर लेने का मतलब होता है उन दो प्रकार के नकारात्मक कृत्यों का निग्रह करने की प्रतिज्ञा लेना जिन्हें बुद्ध ने ज्ञानोदय प्राप्त करने और दूसरों की अधिक से अधिक भलाई करने के योग्य बनने के लिए बोधिसत्व की साधना करने वालों के लिए वर्जित किया था:

  1. अठारह ऐसे कृत्य जिन्हें किए जाने पर उनमें से प्रत्येक को एक मूल पतन कहा जाता है।
  2. छियालीस प्रकार के सदोष व्यवहार

मूल पतन का मतलब सभी बोधिसत्व संवरों का नाश होता है। यह इस अर्थ में “पतन” होता है कि इसके कारण आध्यात्मिक विकास की अवनति होती है और सद्गुणों के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। मूल शब्द यह दर्शाता है कि यह एक ऐसा मूल है जिसे दूर किए जाने की आवश्यकता है। अभिव्यक्ति की सुविधा की दृष्टि से इन दोनों वर्गों को आम तौर पर मूल और गौण बोधिसत्व संवर कहा जाता है। ये संवर इस दृष्टि से बहुत अच्छा मार्गदर्शन प्रदान करते हैं कि यदि हम अधिक से अधिक शुद्ध ढंग से दूसरों की अधिक से अधिक भलाई करना चाहते हैं तो हमें किस-किस प्रकार के व्यवहार से दूर रहना चाहिए।

दसवीं शताब्दी के भारतीय आचार्य अतिश को ये बोधिसत्व संवर उनके सुमात्राई आचार्य सुवर्णद्वीप वासी धर्मकीर्ति (धर्मपाल) से प्राप्त हुए थे जिन्हें अतिश बाद में तिब्बत लेकर गए थे। बोधिसत्व संवरों का यह स्वरूप आकाशगर्भसूत्र से लिया गया है जिसका उल्लेख 8वीं शताब्दी में शांतिदेव द्वारा संकलित शिक्षासमुच्चय में मिलता है। वर्तमान समय में सभी तिब्बती परम्पराओं में इसी संस्करण का पालन किया जाता है, जबकि चीनी बौद्ध परम्पराओं में इसके परिवर्तित स्वरूपों का पालन किया जाता है।

बोधिसत्व संवरों का पालन करने की प्रतिज्ञा केवल इस जन्म में ही लागू नहीं होती है, बल्कि ज्ञानोदय की प्राप्ति होने तक होने वाले प्रत्येक जन्म पर भी लागू होती है। इसलिए ये संवर सूक्ष्म रूप में भविष्य के जन्मों में हमारे मानसिक सातत्य के साथ चलते रहते हैं। यदि हमने संवर अपने किसी पिछले जन्म में लिए हों तब भी, यदि हमने ये संवर अपने वर्तमान जन्म में हाल ही में न लिए हों तो हम अनजाने में कोई पूर्ण उल्लंघन करके इन्हें नष्ट नहीं करते हैं। इस जन्म में पहली बार इन संवरों को लेने से पहली बार संवर लिए जाने के समय से विकसित हो रहे ज्ञानोदय प्राप्ति की दिशा में हमारे प्रयास सुदृढ़ होते हैं। यही कारण है कि महायान के आचार्य मृत्यु के समय बोधिसत्व संवरों को अक्षुण्ण और प्रबल रखने पर बल देते हैं। हमारे मानसिक सातत्य पर इनकी स्थायी उपस्थिति, इन संवरों को दोबारा लिए जाने के माध्यम से पुनर्जीवित किए जाने से पहले से ही हमारे भविष्य के जन्मों में सकारात्मक बल (पुण्य) को संचित करती रहती है।

गेलुग परम्परा के संस्थापक त्सोंग्खापा की 15वीं शताब्दी में बोधिसत्व संवरों पर लिखी गई टीका बोधिसत्वों के नैतिक आत्मानुशासन की व्याख्या: ज्ञानोदय प्राप्ति का मुख्य मार्ग के आधार पर अब हम उन अठारह नकारात्मक कृत्यों की जाँच करेंगे जो मूल पतन का निर्माण करते हैं। इनमें से प्रत्येक की कई पूर्वापेक्षाएं हैं जिन्हें हमें जानना चाहिए।

अठारह बोधिसत्व मूल पतन

(1) आत्मप्रशंसा करना और/ या दूसरों को नीचा दिखाना

इस पतन का सम्बंध किसी अधीन व्यक्ति के प्रति ऐसे शब्दों का प्रयोग करने से है। इसकी प्रेरणा में सम्बोधित व्यक्ति से लाभ, प्रशंसा, प्रेम, सम्मान आदि पाने की इच्छा, या नीचा दिखाए गए व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या का भाव शामिल होना चाहिए। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हमारे द्वारा कहे गए शब्द सत्य हैं या असत्य हैं। स्वयं को बौद्ध प्रचारित करने वाले व्यावसायिक लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि वे इस पतन का शिकार न हों।

(2) धर्म की शिक्षाओं या सम्पत्ति को दूसरों के साथ न बांटना

यहाँ प्रेरणा स्पष्ट तौर पर आसक्ति और कृपणता की होनी चाहिए। इस नकारात्मक कृत्य में केवल अपने नोट्स या अपना टेपरिकॉर्डर के बारे में स्वत्वात्मक होना ही शामिल नहीं है, बल्कि दूसरों को अपना समय देने में कृपणता दिखाना और आवश्यकता होने पर सहायता करने से मना करने का व्यवहार भी शामिल है।

(3) दूसरों की क्षमायाचना को न सुनना या दूसरों पर प्रहार करना

इन दोनों ही प्रकार के व्यवहारों के लिए क्रोध की प्रेरणा होना आवश्यक है। पहले प्रकार के व्यवहार का सम्बंध किसी ऐसी वास्तविक स्थिति से है जब हम किसी व्यक्ति पर चीखते-चिल्लाते हैं या उसे पीटते हैं और या तो वह व्यक्ति स्वयं क्षमायाचना करता है या कोई दूसरा व्यक्ति हमसे उसे पीटना बंद करने की प्रार्थना करता है किन्तु हम उनकी बात सुनने से इन्कार कर देते हैं। दूसरे प्रकार के व्यवहार का सम्बंध सीधे किसी व्यक्ति पर प्रहार करने से है। कभी-कभी उद्दंड बच्चों को या पालतू पशुओं को, यदि वे हमारा कहा मानने को तैयार न हों, तो सड़क पर दौड़ने से रोकने के लिए चांटा मारने की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन क्रोधित होकर किसी को अनुशासित करना कभी भी लाभकारी नहीं होता है।

(4)
महायान शिक्षाओं को त्याग कर काल्पनिक शिक्षाओं को प्रतिपादित करना

इसका मतलब नैतिक आचरण जैसे बोधिसत्वों से जुड़े किसी विषय के बारे में सही शिक्षा को अस्वीकार करना और उसके स्थान पर उसी विषय पर विश्वसनीय लगने वाली किन्तु भ्रामक शिक्षा गढ़ लेना, उसके प्रामाणिक होने का दावा करना, और फिर दूसरों को अपना अनुयायी बनाने के लिए इन शिक्षाओं का उपदेश देना। इस पतन का एक उदाहरण यह होता है जब शिक्षक सम्भावित छात्रों को घबरा कर छोड़ जाने से रोकने के लिए उदार नैतिक आचरण को माफ कर देते हैं और यह स्पष्टीकरण देते हैं कि किसी भी प्रकार का आचरण तब तक स्वीकार्य है जब तक कि उससे दूसरों को हानि न पहुँचती हो। इस पतित आचरण के लिए हमारा शिक्षक होना आवश्यक नहीं है। दूसरों के साथ सामान्य बातचीत में भी हम इस तरह के पतन के दोषी हो सकते हैं।

(5)
त्रिरत्न के लिए उद्दिष्ट भेंट-चढ़ावे को ग्रहण कर लेना

इस पतन का आशय बुद्ध, धर्म, या संघ के स्वामित्व वाली या उन्हें भेंट की गई किसी चीज़ को या तो स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से चुरा लेना या गबन कर लेना, और फिर ऐसा समझना कि वह वस्तु हमारी ही थी। यहाँ संघ से आशय चार या चार से अधिक मठवासियों के किसी समूह से है। इसके उदाहरणों में किसी बौद्ध स्मारक का निर्माण करने के लिए, धर्म की पुस्तकों का प्रकाशन करने के लिए, या भिक्षुओं या भिक्षुणियों के किसी समूह को भोजन कराने के लिए दान दी गई धनराशि का गबन करना शामिल है।

(6) पवित्र धर्म को त्याग देना

यहाँ पतन का मतलब स्वयं या अपना मत प्रकट करके दूसरों से इस बात का खंडन करवाना कि ग्रंथों में बताई गई श्रावक, प्रत्येकबुद्ध, या बोधिसत्व वाहनों की शिक्षाएं बुद्ध द्वारा कही गई बातें हैं। श्रावक वे होते हैं जो किसी बुद्ध के विद्यमान रहते हुए उनकी शिक्षाओं का श्रवण करते हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध  वे आत्म-विकासशील साधक हैं जो विशेष तौर पर मध्य युग में हुआ करते थे जब धर्म की शिक्षाएं सीधे उपलब्ध नहीं रह गई थीं। आध्यात्मिक प्रगति के लिए ये लोग पिछले जन्मों की किए गए अध्ययन और साधनाओं से प्राप्त किए गए अन्तर्ज्ञान पर निर्भर करते हैं। इन दोनों की शिक्षाएं सामूहिक रूप से हीनयान या “लघुतर वाहन” कहलाती हैं जिनसे संसार से वैयक्तिक मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। महायान में पूर्ण ज्ञानोदय की प्राप्ति कि विधियों को महत्व दिया जाता है। इस बात खंडन करना एक मूल पतन है कि दोनों में से किसी भी वाहन के ग्रंथ बुद्ध से व्युत्पन्न हैं।

[देखें: “हीनयान” और “महायान” शब्द]

इस संवर को धारण करने का यह अर्थ नहीं है कि हम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को त्याग दें। लिखित रूप में प्रस्तुत किए जाने से पूर्व बुद्ध की शिक्षाओं का सदियों तक मौखिक रूप से संचरण होता रहा, इसलिए इस बात में संदेह नहीं है कि उनमें अशुद्धियाँ आईं और धोखे से बनावटी बातें भी शामिल की गईं। तिब्बती बौद्ध सिद्धांतों का संकलन करने वाले महान आचार्यों ने निश्चय ही ऐसे ग्रंथों को नकार दिया जो उनकी दृष्टि में प्रामाणिक नहीं थे। किन्तु किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के बजाए उन्होंने किसी भी सामग्री की वैधता तय करने के लिए सातवीं शताब्दी के महान भारतीय आचार्य धर्मकीर्ति की कसौटी का प्रयोग किया – कि वह शिक्षा व्यवहार में लाए जाने पर बेहतर पुनर्जन्म, मुक्ति, या ज्ञानोदय प्राप्ति के बौद्ध लक्ष्यों की प्राप्ति करवा सकती है या नहीं। बौद्ध धर्मग्रंथों के बीच और किसी विशिष्ट ग्रंथ में भी पाए जाने वाले शैलीगत अन्तर अक्सर समय के उस अन्तर को दर्शाते हैं जब शिक्षाओं के अलग-अलग हिस्सों  को लिखा गया या दूसरी भाषाओं में उनका अनुवाद किया गया था। इसलिए, ग्रंथों के विश्लेषण की आधुनिक विधियों के माध्यम से धर्मग्रंथों का अध्ययन करना उपयोगी हो सकता है और यह तरीका इस संवर के विरुद्ध नहीं है।

(7) मठवासियों का चीवर हरण करना या उनके वस्त्रों की चोरी करने जैसे कृत्य करना

इस पतन का सम्बंध किसी एक, दो, या तीन बौद्ध भिक्षुओं या भिक्षुणियों को क्षति पहुँचाने वाला कोई कृत्य करने से है, फिर भले ही उन भिक्षु-भिक्षुणियों का नैतिक स्तर या अध्ययन या साधना का स्तर कुछ भी क्यों न हो। ऐसे कृत्य दुर्भावना या विद्वेष से प्रेरित होने चाहिए, और इनमें मार-पीट करना या अपशब्दों का प्रयोग करना, उनके सामान को ज़ब्त कर लेना, या उन्हें उनके मठों से निष्कासित करने जैसे कृत्य शामिल हैं। किन्तु, उस स्थिति में मठवासियों को निष्कासित करना पतन नहीं माना जाएगा जब उन्होंने अपने चार प्रमुख संवरों में से किसी एक का उल्लंघन किया हो, ये प्रमुख संवर हैं: हत्या न करना, विशेषतः किसी दूसरे मनुष्य की हत्या न करना; चोरी न करना, विशेषतः मठ समुदाय के लोगों की वस्तुओं की चोरी न करना; मिथ्या वचन न कहना, विशेष तौर पर आध्यात्मिक सिद्धियों के बारे में; और पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना।

(8) पाँच जघन्य अपराधों में से किसी अपराध को न करना

पाँच जघन्य अपराध हैं: (क) पितृहत्या करना, (ख) मातृहत्या करना, या (ग) किसी अर्हत (किसी मुक्तिप्राप्त सत्व) की हत्या करना, (घ) दुर्भावना से किसी बुद्ध का रक्त बहाना, या (ड.) मठ समुदाय में फूट डालना। बाद में उल्लिखित जघन्य अपराध का मतलब बुद्ध की शिक्षाओं और मठीय व्यवस्था का खंडन करने, मठवासियों को इन से दूर ले जाने, और फिर उन्हें नए स्थापित किए गए स्वयं अपने धर्म और मठीय परम्परा में शामिल करना है। इसका अर्थ किसी धर्म केंद्र या संगठन को छोड़ना – विशेष तौर पर संगठन में भ्रष्टाचार या उसके आध्यात्मिक शिक्षकों के भ्रष्टाचार के कारण से छोड़ना – और फिर किसी ऐसे केंद्र की स्थापना कर लेना नहीं है जहाँ पर अब भी बुद्ध की शिक्षाओं का पालन किया जाता हो। इसके अलावा, इस जघन्य अपराध में संघ शब्द का प्रयोग विशिष्ट तौर पर मठीय समुदाय के लिए किया गया है। इसका आशय पश्चिम जगत के बौद्धों द्वारा किसी धर्म केंद्र या संगठन के भक्त समूह के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किए जाने वाले “संघ” शब्द के अपारम्परिक प्रयोग से नहीं है।

(9) विकृत, विरोधी दृष्टिकोण अपनाना

इसका मतलब है कि जो वास्तविक है और मूल्यवान है – जैसे व्यवहारगत कारण और प्रभाव का सिद्धांत, जीवन की सुरक्षित और सकारात्मक दिशा, पुनर्जन्म, और पुनर्जन्म से मुक्ति – उसका खंडन करना और इस प्रकार के विचारों और उन विचारों को धारण करने वाले लोगों के प्रति विरोधी दृष्टिकोण अपनाना।

(10) नगरों आदि जैसे स्थानों को नष्ट करना

इस पतन का मतलब है किसी कस्बे, नगर, जनपद, या ग्रामीण क्षेत्र को जानबूझ कर नष्ट करना, वहाँ बमबारी करना, या वहाँ के वातावरण को दूषित करके उसे मनुष्यों या पशुओं के रहने योग्य न छोड़ना।

(11) जिनका चित्त शोधन न हुआ हो उन्हें शून्यता की शिक्षा देना

इस पतन के मुख्य लक्ष्य ऐसे बोधिचित्त प्रेरणा से युक्त व्यक्ति होते हैं जो अभी शून्यता का बोध हासिल करने के लिए उद्यत न हों। ऐसे व्यक्ति इस शिक्षा से भ्रमित हो जाएंगे या घबरा जाएंगे और परिणामतः वैयक्तिक मुक्ति के लिए बोधिसत्व मार्ग का त्याग कर देंगे। ऐसा इस सोच के परिणामस्वरूप हो सकता है कि यदि सभी विषय वस्तुएं अन्तर्निहित, ढूँढे जाने योग्य अस्तित्व से रहित हैं, तो फिर किसी का भी अस्तित्व नहीं है, फिर किसी भी दूसरे के लाभ के लिए प्रयास करने से क्या लाभ? इस कृत्य में किसी ऐसे व्यक्ति को शून्यता की शिक्षा देना भी शामिल है जो इसे गलत समझ सकता है और इस कारण से पूरी तरह से धर्म का त्याग कर सकता है, जैसे वह यह सोच सकता है कि बौद्ध धर्म यह सिखाता है कि किसी भी चीज़ का अस्तित्व नहीं है और इसलिए यह कोरी बकवास है। अतिरिक्त संवेदी बोध के अभाव में यह जान पाना कठिन है कि किसी दूसरे व्यक्ति का चित्त पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित है कि नहीं ताकि वह सभी विषय वस्तुओं की शून्यता की शिक्षाओं का गलत अर्थ न निकाले। इसलिए यह महत्वपूर्ण होता है कि दूसरे लोगों को इन शिक्षाओं का ज्ञान क्रमिक स्तरों पर दिया जाए और समय-समय पर उनके बोध की जाँच की जाए।

(12) दूसरों को पूर्ण ज्ञानोदय से विमुख कर देना

इस कृत्य के लक्ष्य वे लोग होते हैं जो बोधिचित्त प्रेरणा विकसित कर चुके हैं और ज्ञानोयदय प्राप्ति की दिशा में प्रयासरत हैं। इसमें उनसे यह कहना पतन है कि वे इतने योग्य नहीं हैं कि हर समय उदारता, धैर्य आदि का व्यवहार करते रह सकें – यह कहना कि वे सम्भवतः बुद्ध नहीं बन सकते हैं और इसलिए यही बेहतर हो कि वे केवल अपनी मुक्ति के लिए ही प्रयास करें। किन्तु, जब तक ऐसे लोग ज्ञानोदय के अपने लक्ष्य से विमुख नहीं हो जाते हैं तब तक यह पतन पूर्ण नहीं होता है।

(13) दूसरों को उनके प्रतिमोक्ष संवरों से विमुख करना

प्रतिमोक्ष, या व्यक्तिगत मुक्ति के संवरों में गृहस्थजन, परिवीक्षाधीन भिक्षुणियों, नवदीक्षित भिक्षुओं, भिक्षुणियों, पूर्ण दीक्षित भिक्षुओं और भिक्षुणियों के संवर शामिल होते हैं। यहाँ लक्ष्य वे व्यक्ति होते हैं जो इनमें से किसी प्रकार के प्रतिमोक्ष संवरों का पालन कर रहे हों। उनसे यह कहना पतन है कि प्रतिमोक्ष संवर रखने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि बोधिसत्वों के लिए तो सभी कृत्य शुद्ध या निर्मल होते हैं। इस पतन के पूर्ण होने के लिए उन व्यक्तियों द्वारा वास्तव में अपने संवरों का त्याग कर दिया जाना आवश्यक है।

(14) श्रावक यान को नीचा दिखाना

छठा मूल पतन इस बात का खंडन करना है कि श्रावक या प्रत्येकबुद्ध यानों के ग्रंथ बुद्ध के प्रामाणिक वचन हैं। यहाँ हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे प्रामाणिक हैं, किन्तु उनकी शिक्षाओं की प्रभावशीलता को मानने से इन्कार करते हैं और कहते हैं कि इनकी शिक्षाओं, उदाहरण के लिए विपश्यना सम्बंधी शिक्षाओं, के माध्यम से अशांतकारी मनोभावों से मुक्त होना असम्भव है।

(15) शून्यता की सिद्धि हासिल कर लेने की झूठी घोषणा करना

हम इस पतन के दोषी होते हैं यदि हम महान आचार्यों के प्रति ईर्ष्याभाव के कारण पूरी तरह शून्यता का बोध हासिल किए बिना ही इसका झूठा दिखावा करते हुए शून्यता के बारे में उपदेश देना या लिखना शुरू कर देते हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई छात्र या पाठक हमारे इस पाखंड से धोखा खाता है या नहीं। फिर भी, हमारे द्वारा दिए जाने वाले स्पष्टीकरण उन्हें समझ आने चाहिए। यदि उन्हें हमारे द्वारा कही जाने वाली बातें समझ नहीं आती हैं तो यह पतन पूरा नहीं होता है। हालाँकि इस संवर का सम्बंध झूठी सिद्धियों, विशिष्टतः शून्यता की सिद्धियों की घोषणा करने से होता है, किन्तु यह बात स्पष्ट है कि हमें बोधिचित्त की शिक्षाएं देते समय या धर्म सम्बंधी दूसरे विषयों को स्पष्ट करते समय भी ऐसी झूठी घोषणाएं करने से बचना चाहिए। शून्यता की पूर्ण सिद्धि प्राप्त किए बिना उसकी शिक्षा देने में कोई दोष नहीं है, लेकिन,  ऐसा करते समय हमें स्पष्ट तौर पर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम केवल अपने अनन्तिम ज्ञान के वर्तमान स्तर के आधार पर ही इसकी शिक्षा दे रहे हैं।

(16) त्रिरत्न से चुराई गई वस्तु को स्वीकार करना

इस पतन का मतलब किसी ऐसे उपहार, भेंट, वेतन, पुरस्कार, दंड की राशि, या घूस या किसी ऐसी वस्तु को स्वीकार करना जिसे किसी दूसरे व्यक्ति ने या तो स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से बुद्धजनों, धर्म, या संघ से चुराया हो, इन वस्तुओं में वे वस्तुएं भी शामिल हैं जो किसी एक, दो, या तीन भिक्षुओं या भिक्षुणियों की रही हो।

(17) अन्यायपूर्ण नीतियाँ निर्धारित करना

इसका मतलब क्रोधवश या शत्रुता के कारण गम्भीर साधकों के विरुद्ध पक्षपात करना और निम्नतर सिद्धियों वाले या सिद्धिहीन साधकों के प्रति लगाव के कारण उनका पक्ष लेना होता है। शिक्षक के तौर पर ऐसे अनियमित छात्रों को अपना अधिक से अधिक समय देना जो अधिक शुल्क का भुगतान करने की स्थिति में हों और किसी भी प्रकार का भुगतान न कर पाने वाले गम्भीर छात्रों की अनदेखी करना इस पतन का एक उदाहरण है।

(18) बोधिचित्त का त्याग कर देना

इसका अर्थ सभी की भलाई के लिए ज्ञानोदय प्राप्त करने की कामना का त्याग कर देना है। बोधिचित्त के प्रवृत्त और व्यवहृत, दोनों स्तरों में से इसका सम्बंध विशिष्टतः पहले प्रकार के बोधिचित्त का त्याग करना होता है। जब हम ऐसा करते हैं तो दूसरे प्रकार का त्याग भी स्वतः हो जाता है।

कभी-कभी एक उन्नीसवें मूल पतन का भी उल्लेख किया जाता है:

(19) व्यंग्यपूर्ण छंदों या वचनों से दूसरों को नीचा दिखाना

इसे पहले बोधिसत्व मूल पतन में शामिल किया जा सकता है।

संवरों का निर्वाह करना

जब लोगों को इस प्रकार के संवरों के बारे में पता चलता है तो कभी-कभी उन्हें ऐसा लगता है कि इनका पालन करना कठिन है और इसलिए वे ऐसे संवरों को लेने से डरते हैं। लेकिन, यदि हम स्पष्ट तौर पर जान सकें कि ये संवर क्या हैं तो हम उनके इस भय से बच सकते हैं। संवरों के बारे में दो तरीकों से बताया जा सकता है। पहला तरीका यह है कि संवर एक तरह का दृष्टिकोण हैं जिन्हें हम कुछ प्रकार के नकारात्मक आचरण को नियंत्रित रखने के लिए अपने जीवन के प्रति अपनाते हैं। दूसरा तरीका यह है कि ये वह सूक्ष्म आकार या स्वरूप हैं जिसमें हम अपने जीवन को ढालते हैं। दोनों ही स्थितियों में संवरों को कायम रखने के लिए सचेतनता, सतर्कता और आत्मनियंत्रण की आवश्यकता होती है। सचेतनता की सहायता से हम अपने संवरों को दिन भर अपने चित्त में धारण किए रहते हैं। सतर्कता की सहायता से हम अपने व्यवहार पर नज़र रख सकते हैं और यह जाँच कर सकते हैं कि हमारा आचरण संवरों के अनुरूप है या नहीं। यदि हमें पता चलता है कि हम संवरों का उल्लंघन कर रहे हैं, या उल्लंघन करने वाले हैं, तो हम आत्मनियंत्रण की सहायता से अपने व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार हम अपने जीवन को एक निश्चित आकार देते हैं और उसे एक नैतिक स्वरूप प्रदान करते हैं।

संवरों का निर्वाह करना और उनके बारे में सचेतन बने रहना इतना अधिक भिन्न स्वभाव का या कठिन काम भी नहीं है। जब हम कार ड्राइव करते हैं तो हम दुर्घटनाओं को कम करने और सुरक्षा को बढ़ाने की दृष्टि से कुछ निश्चित नियमों का पालन करना स्वीकार करते हैं। ये नियम हमारी ड्राइविंग को एक निश्चित आकार देते हैं – हम निर्धारित गति से ज्यादा तेज़ कार चलाने से बचते हैं और अपनी कार को सड़क पर निर्धारित स्थान पर ही चलाते हैं – और इस प्रकार हम किसी गंतव्य तक पहुँचने की दृष्टि से एक सबसे व्यावहारिक और यथार्थवादी रूपरेखा का पालन करते हैं। कुछ समय के अभ्यास और अनुभव के बाद नियमों का पालन करना इतना सहज कार्य हो जाता है कि हमें उन नियमों के प्रति सचेत बने रहने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है और ऐसा करना हमें कभी बोझ नहीं लगता है। बोधिसत्व या किसी दूसरे प्रकार के नैतिक संवरों का पालन करते समय भी ऐसा ही होता है।

संवरों के विनष्ट होने के लिए चार आबद्धकारी कारक

जब हम अपने जीवन में संवरों के ढांचे को पूरी तरह से त्याग देते हैं या उसे बरकरार रखने के लिए प्रयास करना बंद कर देते हैं तो हमारे संवर नष्ट हो जाते हैं। इसे मूल पतन कहा जाता है। जब यह पतन होता है तो इस नैतिक ढांचे को पुनः प्राप्त करने का एकमात्र तरीका यही है कि हम अपने दृष्टिकोणों को सुधारें, प्रेम और करुणा की ध्यानसाधना जैसी कोई शुद्धि की प्रक्रिया को अपनाएं और संवरों को पुनः ग्रहण करें। अठारह बोधिसत्व पतनों में से जैसे ही हमारे चित्त में नौवें या अठारहवें पतन – विकृत, विरोधी दृष्टिकोण अपनाना या बोधिचित्त का त्याग कर देना – की मनोदशा विकसित होती है, केवल हमारे चित्त के परिवर्तन मात्र से ही बोधिसत्व संवरों द्वारा हमारे जीवन को दिया गया नैतिक आकार नष्ट हो जाता है, और हम उसे बनाए रखने के लिए सभी प्रकार के प्रयास करना बंद कर देते हैं। परिणामतः हमारे सभी बोधिसत्व संवर नष्ट हो जाते हैं, केवल वही संवर नष्ट नहीं होता है जिसका हमने विशिष्टतः त्याग किया हो।

बाकी के दूसरे सोलह बोधिसत्व संवरों के उल्लंघन से मूल पतन तब तक नहीं होता है जब तक कि उल्लंघन के कृत्य से सम्बंधित मनोदशा में चार आबद्धकारी कारक शामिल न हों। ये कारक किसी संवर का उल्लंघन करने की प्रेरणा के विकसित होने के तुरन्त बाद से लेकर उल्लंघन के कृत्य के पूरा होने के तुरन्त बाद के क्षण तक धारित और बरकरार होना चाहिए।

चार आबद्धकारी कारक निम्नानुसार हैं:

  1. नकारात्मक कृत्य को अहितकर न मानना, उसमें केवल अच्छाइयाँ ही देखना, और कृत्य को    करने के बाद कोई पछतावा न होना
  2. पहले से उल्लंघन करने का अभ्यस्त होने के कारण वर्तमान समय में या भविष्य में उसे दोहराने से बचने की कोई इच्छा या इरादा न होना
  3. नकारात्मक कृत्य को करने में आनन्द उठाना और उसे करके खुश होना
  4. बिल्कुल भी नैतिक आत्म-सम्मान न होना और इस बात की बिल्कुल भी परवाह न होना कि हमारे कृत्यों से दूसरे लोगों, जैसे हमारे हमारे गुरुजन और माता-पिता की कैसी छवि बनेगी, और इस प्रकार स्वयं को पहुँचाई गई इस क्षति को सुधारने का कोई इरादा न रखना।

यदि सोलह संवरों में से किसी संवर के उल्लंघन में चारों दृष्टिकोण शामिल न हों, तो हमारे जीवन का बोधिसत्व स्वरूप फिर भी कायम बना रहता है और उसे बरकरार रखने का प्रयास भी बना रहता है, किन्तु स्वरूप और प्रयास दोनों ही कमज़ोर पड़ जाते हैं। इन सोलह संवरों का केवल उल्लंघन होने और उनके नष्ट होने के बीच बड़ा अन्तर होता है।

उदाहरण के लिए मान लें कि हम अपनी पुस्तकों से लगाव और कृपणता के कारण किसी को अपनी कोई पुस्तक उधार देने से मना कर देते हैं। हमें इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई देती – आखिर यह भी तो हो सकता है कि वह व्यक्ति पुस्तक पर कॉफी फैला दे या किताब को वापस ही न लौटाए। हमने पहले किसी को वह पुस्तक उधार नहीं दी है और आगे भी अपनी इस नीति को बदलने का हमारा कोई इरादा नहीं है। इसके अलावा, जब हम इन्कार करते हैं, तो हम अपने इस निर्णय से खुश हैं। नैतिक आत्म-गरिमा के अभाव में हम मना करते हुए शर्मिंदगी महसूस नहीं करते हैं। इसके बावजूद कि सभी को ज्ञानोदय प्राप्त करने में सहायता करने के इच्छुक व्यक्ति होने के नाते हम अपने पास उपलब्ध ज्ञान के किसी साधन को दूसरों के साथ साझा करने के लिए कैसे अनिच्छुक हो सकते हैं? बेपरवाह रहते हुए हम यह भी नहीं सोचते कि हमारे इन्कार कर देने से हमारे आध्यात्मिक गुरुओं या सामान्य तौर पर बौद्ध धर्म की छवि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। और अपने इस स्वार्थी कृत्य के प्रभाव को खत्म करने के लिए हम कुछ करने का भी इरादा नहीं रखते हैं।

यदि अपनी पुस्तक को उधार देने को लेकर हमारे मन में ऐसे दृष्टिकोण होते हैं तो समझना चाहिए कि हम अपने जीवन के बोधिसत्व स्वरूप को निश्चित तौर पर गँवा चुके हैं। हम अपनी महायान साधना से पूरी तरह च्युत हो चुके हैं और हमारे सभी बोधिसत्व संवर नष्ट हो चुके हैं। वहीं दूसरी ओर, यदि हमारे भीतर इनमें से कुछ दृष्टिकोण न हों और हम अपनी पुस्तक उधार देने से मना कर दें, तो इसका मतलब होगा कि अपने जीवन के बोधिसत्व स्वरूप को बनाए रखने के हमारे प्रयास ही कमज़ोर हुए हैं। हमारे संवर अभी भी शेष हैं, किन्तु उनका स्वरूप क्षीण हो गया है।

संवरों का क्षीण होना

चार आबद्धकारी कारकों में से सभी  के अनुपस्थित रहते हुए सोलह संवरों में से किसी एक संवर का उल्लंघन करना दरअसल हमारे बोधिसत्व संवरों को कमज़ोर नहीं करता है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति द्वारा मांगे जाने पर हम अपनी पुस्तक उसे उधार नहीं देते हैं, लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा करना मूलतः गलत है। हम किसी नीति के तहत ऐसा नहीं करना चाहते हैं, इन्कार करते हुए हमें दुख होता है, और हमें इस बात की चिंता होती है कि मना करने पर स्वयं हमारी छवि पर और हमारे गुरुजन की छवि पर क्या प्रभाव पड़ेगा। हमारे पास पुस्तक उधार देने से मना करने का कोई मान्य कारण होता है, जैसे हमें स्वयं उस पुस्तक की बहुत अधिक आवश्यकता है या फिर हम पहले ही उस पुस्तक को किसी और व्यक्ति को देने का वादा कर चुके होते हैं। इन्कार करने के पीछे हमारी प्रेरणा उस पुस्तक के प्रति हमारा लगाव या कृपणता नहीं होती है। हम उस समय पुस्तक को उधार न दे पाने के लिए उस व्यक्ति से क्षमा मांगते हैं और उसे इन्कार का कारण बताते हैं, साथ ही उस व्यक्ति को आश्वस्त करते हैं कि जितनी जल्दी सम्भव हो सकेगा, हम वह पुस्तक उस व्यक्ति को दे देंगे। पुस्तक की कमी को पूरा करने के लिए हम उस व्यक्ति को अपने नोट्स देने का प्रस्ताव करते हैं। इस प्रकार हम अपने जीवन के बोधिसत्व स्वरूप को पूरी तरह बरकरार रखते हैं।

जैसे-जैसे आसक्ति और कृपणता का प्रभाव हमारे ऊपर बढ़ता जाता है, हमारा बोधिसत्व स्वरूप क्षीण होता चला जाता है और अपने संवरों पर हमारी पकड़ शिथिल होती चली जाती है। कृपया ध्यान दें कि धर्म की शिक्षाओं या ज्ञान के किसी दूसरे साधन को साझा न करने की प्रवृत्ति से दूर रहने के संवर का पालन करने से हम आसक्ति या पुस्तकों को लेकर कृपणता के दोषों से मुक्त नहीं हो जाते हैं। इससे बस हम इन दोषों के प्रभाव में व्यवहार करने से बचे रहते हैं। हो सकता है कि हम अपनी पुस्तक उधार दे दें, या किसी तात्कालिक आवश्यकता के कारण उस समय पुस्तक उधार न दें, लेकिन तब भी पुस्तक के प्रति अनुरक्त हो सकते हैं और मूलतः कृपण ही बने रह सकते हैं। किन्तु, संवर इन अशांतकारी मनोभावों को समाप्त करने और इनके कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं और दुखों से मुक्ति पाने में सहायक होते हैं। ये मुश्किल पैदा करने वाले मनोभाव जितने अधिक प्रबल होंगे, इन्हें हमारे व्यवहार को प्रभावित करने से रोकने के लिए आत्म-नियंत्रण का प्रयोग करना उतना ही अधिक कठिन होगा।

उस स्थिति में आसक्ति और कृपणता के भाव धीरे-धीरे हमारे ऊपर हावी होते चले जाते हैं – और हमारे संवर कमज़ोर होते चले जाते हैं – जब पुस्तक को उधार न देने पर हमें यह मालूम होता है कि ऐसा करना अनुचित है, किन्तु फिर भी हम बाकी के बाध्यकारी कारकों में से किसी एक, दो या तीनों कारकों को पकड़े रहते हैं। यही हमारे संवरों के अप्रधान विकार का लघु, मध्यवर्ती, और मुख्य स्तर होता है। उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि अपनी पुस्तक देने से मना करना गलत है, लेकिन हम इसी नीति का पालन करते हैं और इसमें कोई रियायत नहीं करते हैं। यदि इसके बाद हमें अफसोस होता है और शर्मिंदगी होती है कि हमारे इन्कार करने से स्वयं हमारे बारे में और हमारे गुरुओं के बारे में कैसी छवि बनेगी, तो हम अपने जीवन में जिस बोधिसत्व स्वरूप को अपनाने का प्रयास कर रहे होते हैं वह अभी भी बहुत कमज़ोर नहीं हुआ होता है। लेकिन, इसके साथ ही साथ यदि हम अपनी नीति को लेकर खुश होते हैं और इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि दूसरे लोग स्वयं हमारे बारे में और हमारे शिक्षकों के बारे में कैसी राय रखते हैं, तो हम और अधिक पतित होते चले जाते हैं और अपनी आसक्ति और कृपणता के अधिक शिकार होते चले जाते हैं।

हमारे जीवन के इस स्वरूप के और भी अधिक कमज़ोर स्तर की शुरुआत वहाँ से होती है जब हम यह मानने से इन्कार कर देते हैं कि पुस्तक उधार देने से मना करने में कोई बुराई नहीं है। मध्यवर्ती विकार का यह लघु स्तर होता है। जब हम किसी एक या दो आबद्धकारी कारकों को इसमें जोड़ देते हैं तो हम क्रमशः प्रमुख मध्यवर्ती विकार और प्रमुख विकार से इस स्वरूप को और भी कमज़ोर कर देते हैं। जब चारों आबद्धकारी कारक मौजूद होते हैं तो हम मूल पतन के दोषी बन जाते हैं और हमारे बोधिसत्व संवर पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं। इस स्तर पर हम पूरी तरह आसक्ति और कृपणता के प्रभाव में आ चुके होते हैं, यानी हम इन मनोभावों को नियंत्रित करने या दूसरों की भलाई करने के उद्देश्य से अपनी क्षमताओं को विकसित करने की दिशा में प्रयासों को पूरी तरह बंद कर चुके होते हैं। बोधिचित्त की सम्बंधित अवस्था का त्याग करके हम उस अवस्था को स्वरूप प्रदान करने वाले बोधिचित्त संवरों को नष्ट कर लेते हैं।

क्षीण पड़ चुके संवरों को सुदृढ़ करना

यदि हमने अपने आचरण से अपने बोधिसत्व संवरों को क्षीण या नष्ट कर लिया हो तो उन्हें सुधारने की दिशा में पहला कदम यह है कि हम स्वीकार करें कि हमारे द्वारा किया गया उल्लंघन एक भूल थी। इसके सुधार के लिए हम कोई प्रायश्चित अनुष्ठान कर सकते हैं। ऐसे अनुष्ठान को करने के लिए हमें किसी दूसरे व्यक्ति के समक्ष अपराध-स्वीकार करने या बुद्ध जन से क्षमाप्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं होती है। हमें स्वयं अपने प्रति और अपनी प्रतिबद्धता के प्रति ईमानदार रहने की आवश्यकता होती है। यदि हमें पहले से ही लगता है कि जब हमने वास्तव में किसी विशिष्ट संवर का उल्लंघन किया था वह गलत था, तो हम अपनी गलती को स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद हम उन चार कारकों को विकसित करते हैं जो प्रतिबल के रूप में कार्य करते हैं। ये चार कारक हैं:

  1. अपने कृत्य के लिए पश्चाताप करना। पश्चाताप, भले ही उसे किसी संवर का उल्लंघन करते समय किया गया हो या बाद में किया गया हो, वह अपराधबोध का समानार्थी नहीं होता है। पश्चाताप का अर्थ यह कामना करना होता है कि हम जिस कृत्य को कर रहे हैं या जिसे हम कर चुके हैं, उसे हमें नहीं करना चाहिए था। यह अपने कृत्य के बारे में आनन्दित होने या बाद में खुश होने के विपरीत होता है। वहीं दूसरी ओर अपराधबोध एक ऐसा प्रबल भाव होता है कि हमारा कृत्य सचमुच बहुत खराब है या था और इसलिए हम सचमुच एक बहुत बुरे व्यक्ति हैं। अपनी इन पहचानों को अन्तर्जात और चिरकालिक मानते हुए हम उनके बारे में विचार करके दुखी होते रहते हैं और इन भावों को छोड़ना नहीं चाहते हैं। किन्तु अपराधबोध कभी भी हमारी गलतियों के प्रति उपयुक्त या उपयोगी प्रतिक्रिया नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी तरह का भोजन करते हैं जिसके कारण हम बीमार हो जाते हैं तो हम अपने कृत्य पर पछताते हैं – यह एक गलती थी। लेकिन, चूँकि हमने उस भोजन को खाया था इसके कारण हम अन्तर्जात रूप से बुरे नहीं बन जाते हैं। हम अपने कृत्यों और उनके परिणामों के लिए जिम्मेदार तो हैं, लेकिन इस प्रकार से दोषी नहीं हैं कि हम अपने प्रति आत्मसम्मान या गरिमा के भाव से ही वंचित हो जाएं।
  2. अपनी भूल को न दोहराने के लिए भरसक प्रयास करने की प्रतिज्ञा करना। यदि संवर का उल्लंघन करते समय भी हमारी ऐसी मंशा रही हो तो हम सजगतापूर्वक अपने संकल्प को एक बार फिर दोहराते हैं।
  3. अपने मूल आधार की ओर लौटना। इसका मतलब अपने जीवन की सुरक्षित और सकारात्मक दिशा को पुनः पुष्ट करना और अपने हृदय को सभी की भलाई के लिए पुनः समर्पित करना होता है – यानी अपनी शरणागति और बोधिचित्त के प्रवृत्त स्तर को पुनर्जीवित और सुदृढ़ करना होता है।
  4. अपने द्वारा किए गए उल्लंघन को प्रतिसंतुलित करने के लिए सुधार के उपाय करना। इस प्रकार के उपायों में प्रेम और उदारशीलता की ध्यानसाधना करना, अपने दयाहीन व्यवहार के लिए क्षमाप्रार्थना करने, और अन्य प्रकार के सकारात्मक कृत्य करना शामिल होता है। चूँकि सकारात्मक व्यवहार करने के लिए नैतिक आत्म गौरव की आवश्यकता होती है और इस बात की परवाह की करने की आवश्यकता होती है कि हमारे कृत्य उन लोगों की कैसी छवि प्रस्तुत करेंगे जिनका हम सम्मान करते हैं, इसलिए वह हमारे नकारात्मक कृत्यों के कारण उत्पन्न होने वाले इन अभावों को पूरा करती है। यदि हमें संवर के उल्लंघन के समय शर्मिंदगी और असहजता महसूस हुई हो तब भी ये सकारात्मक कदम हमारे आत्मसम्मान और हमारे शिक्षकों के बारे में दूसरों की राय को सुदृढ़ करते हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि बोधिसत्व संवरों का पूरी तरह से नष्ट हो जाना आसान नहीं होता है। जब तक हम ईमानदारी से इनका सम्मान करते रहते हैं और उन्हें अपना दिशानिर्देश मानते रहते हैं, तो हमसे कभी वे नष्ट नहीं होंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि यदि हमारे अशांतकारी मनोभावों के कारण हम किसी संवर को नष्ट भी कर दें तब भी उससे जुड़े चार आबद्धकारी कारक कभी भी पूर्ण नहीं होते हैं। और विकृत, विरोधी दृष्टिकोण होते हुए भी या बोधिचित्त को त्याग देने के बाद भी यदि हम अपनी गलती को स्वीकार कर लेते हैं, प्रायश्चित आदि के प्रतिसंतुलनकारी बलों का प्रयोग करते हैं, और पुनः संवरों को ग्रहण करते हैं तो हम अपनी स्थिति को सुधार कर अपने मार्ग पर पुनः आगे बढ़ सकते हैं।

इसलिए यह तय करते समय कि हम संवर लें या न लें, यह अधिक युक्तिसंगत होगा कि हम अपना निर्णय अपने प्रयत्न को सतत जारी की क्षमता के मूल्यांकन के आधार पर लें, हमें यह निर्णय संवरों का पूरी तरह पालन करने की अपनी योग्यता के आधार पर नहीं लेना चाहिए। लेकिन सबसे अच्छा यही है कि हम अपने संवरों को कभी क्षीण या नष्ट न होने दें। हालाँकि एक टांग टूट जाने के बाद भी हम दोबारा चल सकते हैं, लेकिन हमारी चाल में लंगड़ापन तो रह ही जाएगा।

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