हीनयान और महायान: तुलना

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हीनयान और महायान शब्दों का सूत्रपात प्रज्ञापारमिता (दूरव्यापी सविवेकी सचेतनता) सूत्रों में हुआ| यह शब्द-युग्म किंचित निंदासूचक है जिसमें महायान को महिमामंडित किया गया है और हीनयान को कुछ हेय माना गया है| इनके लिए प्रयुक्त वैकल्पिक शब्दों में अपनी कुछ कमियां हैं और इसलिए मैं इनके लिए यहां अधिक मानक शब्दों का ही प्रयोग करूँगा|

हीनयान में 18 संप्रदाय समाहित हैं| हमारे प्रयोजन के लिए सर्वास्तिवाद और थेरवाद अत्यंत महत्वपूर्ण हैं| आज श्रीलंका एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में थेरवाद विद्यमान है| उत्तरी भारत में, जब तिब्बतवासियों ने भ्रमण किया तो यहां सर्वास्तिवाद व्यापक रूप से फैला हुआ था और इस प्रकार बौद्ध धर्म तिब्बत में जाकर जड़ पकड़ने लगा|

दार्शनिक भेदों के आधार पर सर्वास्तिवाद के दो मुख्य स्कंध थे| जिन हीनयानी पद्धतियों का अध्ययन नालंदा जैसे मठीय विश्वविद्यालयों तथा बाद में तिब्बती महायानियों द्वारा किया गया वे इन दो सम्प्रदायों से निसृत हैं| तिब्बत में जिन मठीय संवरों की परंपरा का पालन किया जाता है वे एक अन्य सर्वास्तिवादी उप-विभाग से संबंधित हैं, जिसे मूल सर्वास्तिवाद कहा जाता है| 

बुद्ध जन एवं अर्हत 

अर्हतों और बौद्ध जनों सम्बन्धी हीनयान तथा महायान की प्रस्तुतियों में पर्याप्त अंतर है| दोनों इस बात पर सहमत हैं कि अर्हत अथवा विमुक्त सत्व बुद्ध जन अथवा बोधि प्राप्त जीवों की तुलना में अधिक सीमित हैं| महायान इस भेद को दो श्रेणियों के क्लेशावरणों में सूत्रबद्ध करता है, भावात्मक जो विमुक्ति में बाधक है तथा बोधात्मक जो सर्वदर्शिता में बाधक होते हैं| अर्हत केवल पहले से मुक्त होते हैं, जबकि बुद्ध जन दोनों से मुक्त होते हैं| यह विभाजन हीनयान में नहीं पाया जाता| यह पूर्णतः महायान का सूत्र है|

हीनयान और महायान, दोनों ही इस बात पर बल देते हैं कि विमुक्ति अथवा ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए असंभव “आत्मा” की अनुपस्थिति विषयक निर्वैचारिक संज्ञान आवश्यक है| इस अभाव को संस्कृत में जो कि सर्वास्तिवाद तथा महायान की प्रमुख धर्मग्रंथीय भाषा है, “अनात्म” कहा जाता है| पालि में जो कि थेरवाद की धर्मग्रंथीय भाषा है, इसे ‘अनत्त्व’ कहा जाता है| हीनयान के सम्प्रदायों का मत है कि यह असंभव ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति से संबंधित है, सभी परिघटनावओं से इसका सम्बन्ध नहीं है| व्यक्तियों में आत्मा का अभाव है जो कि निरंजन है, शरीर एवं चित्त से विलग है तथा जो स्वंय बोध-स्वरुप है| ऐसी “आत्मा” असंभव है| मात्र इस बोधसहित कि व्यक्ति सापेक्ष “आत्मा” जैसी कोई इकाई नहीं है, कोई अर्हत अथवा बुद्ध जन हो सकता है| यह भेद इस बात पर निर्भर है कि हम कितना सकारात्मक बल अथवा तथाकथित “पुण्य” अर्जित कर सकते हैं| बोधिचित्त द्वारा प्राप्त ज्ञानोदय के लक्ष्य को विकसित करने के कारण बुद्ध जन में अर्हतों की तुलना में कहीं अधिक सकारात्मक बल का निर्माण होता है|  

महायान का मत है कि बुद्ध जन समग्र दृश्य प्रपंच एवं व्यक्तियों के सन्दर्भ में एक असंभव “आत्मा” के अभाव को समझते हैं| वे इस अभाव को “शून्यता” कहते हैं| महायान के विभिन्न भारतीय सम्प्रदायों में इस बात पर मतभेद है कि अर्हत ज्ञेय यथार्थ को समझते हैं या नहीं| महायान के भीतर ही, प्रासंगिक माध्यमिक यह दावा करते हैं कि वे समझते हैं| यद्यपि, प्रासंगिकों के इस दावे को चार तिब्बती संप्रदाय भिन्न रूप से व्याख्यायित करते हैं| कुछ का कथन है कि अर्हतों द्वारा समझे जाने वाले ज्ञेय यथार्थ को बुद्ध जन भिन्न रूप में समझते हैं, जबकि कुछ का कहना है कि दोनों की शून्यता की अवधारणा समान है| कुछ का कहना है कि ज्ञेय यथार्थ की परिधि विस्तार, जिस पर शून्यता लागू होती है, वह बुद्ध जन की तुलना में अर्हतों के लिए अधिक सीमित है; कुछ का कहना है कि यह एकसमान है| यहां उसके ब्योरे में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है|

बुद्ध जन एवं अर्हतों सम्बन्धी अन्य बिंदु 

अर्हतों एवं बुद्ध जन विषयक हीनयान और महायान के मतों में अनेक अंतर पाए जाते हैं| उदाहरण के लिए, थेरवाद का मत है कि श्रावक अथवा “श्रोता” जो अर्हत जैसी विमुक्ति के लिए प्रयासरत है और एक बोधिसत्व जो बुद्ध के ज्ञानोदय के लिए प्रयत्नशील है, उनके मध्य एक अंतर यह है कि श्रावक जन बौद्ध गुरुओं से अध्ययन प्राप्त करते हैं, जबकि बोधिसत्व ऐसा नहीं करते| उदाहरण के लिए, ऐतिहासिक बुद्ध, शाक्यमुनि ने किसी बुद्ध से शिक्षा प्राप्त नहीं की| उन्होंने केवल गैर-बौद्ध धर्मी गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की, जिनकी पद्धतियों को उन्होंने अंततः अस्वीकार कर दिया| वस्तुतः बुद्ध का बोध एवं सिद्धि किसी बौद्ध गुरु पर निर्भरता का परिणाम नहीं थी| थेरवाद का मत है कि बुद्ध का ज्ञान किसी अर्हत से अधिक उन्नत होता है|

इसके अतिरिक्त बुद्ध जन सार्वभौमिक बौद्ध धर्मी शिक्षक बनने की तैयारी करते हैं, जबकि श्रावक ऐसा नहीं करते, यद्यपि अर्हत के रूप में वे निश्चित रूप से अपने शिष्यों को शिक्षा देते हैं| शरीर छोड़ने से पहले स्वंय बुद्ध ने अपने शिष्य शारिपुत्र को नियुक्त किया कि वे “धर्म चक्र प्रवर्तन” जारी रखें| यद्यपि थेरवाद के अनुसार, अर्हतों की तुलना में बुद्ध जन विमुक्ति के लिए अपनी शिक्षण विधियों में अधिक कुशल एवं उदार होते हैं| किसी बुद्ध के सर्वज्ञ होने का यही तात्पर्य है, यद्यपि, इस प्रस्तुति के अनुसार, किसी बुद्ध को सबका अता-पता नहीं होगा और उसे यह जानकारी दूसरों से प्राप्त करनी होगी|

हीनयान के वैभाषिक संप्रदाय के अनुसार बुद्ध जन बोध एवं जानकारी की दृष्टि से सर्वज्ञ होते हैं, परन्तु एक समय पर उन्हें एक ही बात ज्ञात होती है| महायान के अनुसार, सर्वज्ञ होने का तात्पर्य सब कुछ एक-साथ जानना होता है| यह बात उनके इस दृष्टिकोण पर आधारित है कि सब कुछ परस्पर संबंधित एवं परस्पर निर्भर है; हम किसी जानकारी के एक पक्ष पर, दूसरे पक्षों से नितांत असम्बद्ध होकर चर्चा नहीं कर सकते|

हीनयान का मत है कि ऐतिहासिक बुद्ध को अपने जीवनकाल में ही ज्ञानोदय की प्राप्ति हो गई थी और एक अर्हत की भांति जब उन्होंने देह-त्याग किया, उनके मानसिक सातत्य का समापन हो गया| अतः, हीनयान के अनुसार बुद्ध जन केवल अपने परवर्ती जीवनकाल में शिक्षा देते हैं जिसमें उन्हें ज्ञानोदय की प्राप्ति होती है| वे असंख्य विश्वप्रणालियों को प्रकाशमान करते हुए आजीवन शिक्षा नहीं देते, जैसाकि महायान का दावा है| केवल महायान का मत है कि ऐतिहासिक बुद्ध को पिछले जन्म में अनेक कल्प पहले, बौद्ध धर्मी शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त करते हुए, ज्ञानोदय की प्राप्ति हो गई थी| वे बोधिवृक्ष के नीचे किसी बुद्ध के 12 ज्ञानोदयकारी कृत्यों के रूप में ज्ञानोदय का निदर्शन कर रहे थे|  हीनयान के महासंघिक सम्प्रदाय में बुद्ध के ऐसे विवरण की पूर्व-ध्वनि मिलती है, जो कि हीनयान के 18 सम्प्रदायों में से एक है, परन्तु यह सर्वास्तिवाद अथवा थेरवाद में नहीं पाया जाता| 

बुद्ध के सम्बन्ध में एक अन्य प्रमुख अंतर यह है कि केवल महायान बुद्ध के त्रिकायिक स्वरुप पर बल देता है, जो हैं- निर्माणकाया, सम्भोग काया तथा धर्मकाया| हीनयान इन पर बल नहीं देता| अतः हीनयान तथा महायान में बुद्ध की अवधारणा के सम्बन्ध में उल्लेखनीय अंतर पाया जाता है|

चित्तमार्गों का विमुक्ति एवं ज्ञानोदय की ओर ले जाना 

हीनयान एवं महायान दोनों का मत है कि परिशुद्ध अवस्था अथवा “बोधि” की ओर अर्हत अथवा बुद्ध के रूप में अग्रसर होते हुए मार्गचित्त के 5 स्तरों अथवा “पंचपथ” विकसित करने होते हैं| ये हैं निर्माणकारी मार्गचित्त अथवा संभार मार्ग, एक अनुप्रयुक्त मार्गचित्त अथवा प्रयोग मार्ग, एक द्रष्टा मार्गचित्त अथवा द्रष्टा मार्ग, एक अनुकूलित मार्ग चित्त अथवा भावना मार्ग तथा एक ऐसा मार्ग जिसमें अतिरिक्त प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं, अथवा अशिक्षा मार्ग| श्रावक तथा बोधिसत्व, जो ये मार्ग चित्त प्राप्त कर लेते हैं, वे उन्नत सिद्ध सत्व बन जाते हैं| दोनों को 4 आर्य सत्यों के 16 पक्षों का निर्वैचारिक बोध हो जाता है|

हीनयान और महायान दोनों इस पर सहमत हैं कि द्रष्टा मार्गचित्त श्रावकों तथा आर्य बोधिसत्वों को सैधांतिक रूप से आधारित अशांतकारी मनोभावों से मुक्ति दिलाता है, जबकि एक अनुकूलित मार्गचित्त उन्हें स्वमेव अशांतकारी मनोभावों से मुक्त कराता है| पूर्ववर्ती स्थिति गैर बौद्ध धर्मी भारतीय सम्प्रदायों में से एक के अभिकथन समुच्चय के अध्ययन पर आधारित है, जबकि परवर्ती स्थिति अपने आप सब में, पशुओं सहित जागृत हो जाती है| श्रावक और बोधिसत्व आर्य जिन अशांतकारी मनोभावों से स्वंय को मुक्त करते हैं, उनकी सूची मानसिक कारकों की एक विस्तृत सूची का भाग है| हीनयान के प्रत्येक संप्रदाय में मानसिक कारकों की अपनी एक सूची है, जबकि महायान का दावा है कि एक सूची और भी है| प्रत्येक सूची में अनेक मानसिक कारकों की भिन्न-भिन्न परिभाषा दी गई है|  

हीनयान और महायान दोनों इस बात पर सहमत हैं कि पंचमार्ग चित्त पर आगे बढ़ते हुए 37 कारकों की साधना की जाती है जो परिशुद्ध अवस्था तक ले जाते हैं| “परिशुद्ध अवस्था” अथवा “बोधि” अर्हत अवस्था अथवा बुद्धत्व की ओर इंगित करती है| इन 37 कारकों में सचेतनता का स्मृत्युप्रस्थान सम्मिलित है, आर्यमार्ग चित्त (अष्टांग आर्य मार्ग), आदि| ये अत्यंत महत्वपूर्ण हैं| अनुत्तरयोगतंत्र में ये 37 कारक यमान्तक के 34 बाहुओं तथा उसकी काया, वाक् तथा चित्त एवं वज्रयोगिनी के कायामंडल में स्थित डाकिनी के रूप में प्रतिच्छवित होते हैं| ये 37 कारक साधनाओं का मानक समुच्चय हैं यद्यपि, प्रत्येक साधना की विशिष्टताएं प्रायः हीनयान एवं महायान में भिन्न पायी जाती हैं|    

हीनयान एवं महायान का अभिकथन है कि स्त्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी एवं अर्हत का अभिप्राय श्रावक पथ पर किसी आर्य द्वारा पार की गई अवस्थाओं की योजना है, परन्तु यहां आर्य बोधिसत्व का पथ अभिप्रेत नहीं है| अतः स्त्रोतापन्न जन को चार आर्य सत्यों के 16 पक्षों का निर्वैचारिक संज्ञान प्राप्त होता है, जिसमें किसी व्यक्ति के असंभव “आत्मा” से विरहित होने का निर्वैचारिक बोध सम्मिलित है| हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि स्त्रोतापन्न कोई आरंभिक स्तर है| अतः यदि कोई दावा करता है कि वह इस अवस्था को प्राप्त कर चुका है, तो आपको उसे संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए|

हीनयान में बोधिसत्व चित्तमार्गों का विस्तृत ब्यौरा प्राप्त नहीं होता| यद्यपि महायान में यह स्पष्ट किया गया है कि बोधिसत्व द्वारा ज्ञानोदय के पथ पर भूमिचित्त के 10 स्तरों से होकर गुजरना पड़ता है| ये चित्त के स्तर श्रावक के पथ से संबंधित नहीं हैं|

हीनयान और महायान दोनों इस बात पर सहमत हैं कि ज्ञानोदय के बोधिसत्व मार्ग को पार करने में, श्रावक द्वारा अर्हत की अवस्था प्राप्त करने की तुलना में अधिक संमय लगता है| यद्यपि केवल महायान ज्ञानोदय-निर्माण संजाल - दो समुच्चयों के असंख्य कल्पों के लिए निर्माण करने की बात करता है, अर्थात एक परिमित अंक, यद्यपि हम उसे गिनने में असमर्थ होंगे| दूसरी ओर श्रावक जन तीन जीवनकालों में ही अर्हत बन सकते हैं| पहले जीवनकाल में, वे स्त्रोतापन्न बनते हैं, अगले जीवन काल में सकृदागामी, और तीसरे जीवन काल में वे अनागामी बनकर विमुक्ति प्राप्त करते हैं और अर्हत बन जाते हैं| अनेक लोगों के लिए यह अत्यंत प्रलोभनकारी हो सकता है|

यह अभिकथन कि अर्हत स्वार्थी होते हैं बोधिसत्त्वों का प्रचार लगता है| मूलतः इसका अभिप्राय किसी अतिवादी स्थिति से बचना है| सूत्रों में यह दर्ज है कि बुद्ध ने अपने साठ अर्हत शिष्यों से कहा था कि वे शिक्षा दें| यदि वे वास्तव में स्वार्थी होते तो वे इस बात पर कभी राजी न होते| यद्यपि, अर्हत, बुद्ध जन की तुलना में अधिक सीमित रूप में ही सहायक हो सकते हैं| यद्यपि, दोनों ही केवल उनकी सहायता कर सकते हैं जिनके कर्म ऐसे हैं कि उनकी सहायता की जा सके| 

बोधिसत्व जन 

यह समझना आवश्यक है कि हीनयान संप्रदाय इस बात पर बल देता है कि बुद्ध बनने से पहले, किसी को बुद्धत्व के मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है| हीनयान एवं महायान के यहां जातक कथाओं के ऐसे वृतांत हैं जिनमें बुद्ध शाक्यमुनि के बोधिसत्व रूप के पूर्व जीवन कालों का वर्णन मिलता है| ईसा की तीसरी शताब्दी के नरेश सीरीसंघबोधि से आरम्भ होकर, श्री लंका के अनेक नरेश स्वंय को बोधिसत्व कहलाया करते थे| निस्संदेह इस गुत्थी को सुलझाना कठिन है कि उस समय श्री लंका में महायान था| यह कहना कठिन है कि महायान के प्रभाव से पहले बोधिसत्व नरेशों की अवधारणा पहले से चली आ रही थी, परन्तु ऐसा अवश्य था| इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि ईसा की पांचवीं शताब्दी में श्री लंका की राजधानी अनुराधापुर में वहां के सयानों ने बुद्धघोष, एक महान थेरवादी अभिधर्म आचार्य को बोधिसत्व मैत्रेय का अवतार माना|

महायान का अभिकथन है कि इस “भाग्यशाली कल्प” में सहस्त्र बुद्ध जन हैं जो सार्वभौमिक धर्मों की स्थापना करेंगे तथा यह भी कि विगत में भी बुद्ध जन होते आए हैं और आगामी युगों में भी अनेक बुद्ध जन होंगे| महायान का यह भी मत है कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध बन सकता है क्योंकि हर व्यक्ति में वे बुद्ध-धातु कारक हैं जो इस सिद्धि को प्राप्त करने में सहायक होते हैं| हीनयान में बुद्ध–धातु की चर्चा नहीं है| तथापि थेरवाद में विगत में हुए सैकड़ों बुद्ध जन का उल्लेख मिलता है| एक थेरवादी सुत्त में ऐसे 27 नामों की सूची दी गई है| ये सभी बोधिसत्व बनने से पहले बुद्ध जन थे| थेरवाद का दृढ़ मत है कि भविष्य में भी असंख्य बुद्ध जन होंगे जिनमें अगले मैत्रेय होंगे, तथा यह कि कोई भी बुद्ध बन सकता है यदि वह दस-पारमिताओं की साधना करे|

10 पारमिताएं 

महायान में कहा गया है कि इन दस पारमिताओं का साधन केवल बोधिसत्व करते हैं, श्रावक नहीं करते| ऐसा इसलिए है क्योंकि महायान इन दूरव्यापी मनोदृष्टियों या “पारमिताओं” को इस रूप में व्याख्यायित करता है कि कोई बोधिचित्त इसे अपने लक्ष्य के रूप में धारण करता है|

यद्यपि, थेरवाद के अनुसार जब तक ये दस मनोदृष्टियां नैष्यकाम में मुक्त होने के संकल्प के बल पर धारण की जाती हैं, तब तक बोधिचित्त के लिए इनका दूरव्यापी होना और विमुक्ति का कारण होना आवश्यक नहीं| अतः, थेरवाद इस बात पर बल देता है कि बोधिसत्व और श्रावक इन दस पारमिताओं की साधना करते हैं| पहला भेद तो यह है कि उनके लक्ष्य की प्रेरणा अलग-अलग होती है और दूसरा मुख्य अंतर उन दोनों के बीच यह है कि इन दस पारमिताओं की साधना की तीव्रता की मात्रा में अंतर होता है| अतः इन सभी दस पारमिताओं के तीन स्तर होते हैं: सामान्य, मध्यम, और उच्चतम| उदाहरण के लिए, उदारता की उच्चतम साधना होगी किसी भूखी शेरनी को अपना शरीर अर्पित कर दें जैसाकि बुद्ध ने पूर्व जीवनकाल में बोधिसत्व के रूप में किया था|    

थेरवाद तथा महायान में पारमिताओं की सूची में भी थोड़ा अंतर मिलता है| महायान की सूची इस प्रकार है:

  • दान 
  • शील 
  • क्षान्ति 
  • वीर्य 
  • ध्यान (एकाग्रता)
  • प्रज्ञा (ज्ञान)
  • उपाय कौशल्य 
  • प्राणिधान
  • बल 
  • ज्ञान 

थेरवाद की सूची में ध्यान, उपाय कौशल्य, प्राणिधान, बल तथा ज्ञान को सूची से निकाल दिया गया है| उनके स्थान पर निम्नलिखित को जोड़ा गया है:

  • नैष्यकाम
  • सत्य 
  • अधिष्ठान  
  • नेत्री   
  • समचित्तता 

चार अप्रमाण 

हीनयान तथा महायान दोनों में ही नेत्री, करुणा, आनंद तथा समचित्तता संबंधी अप्रमाण साधना की शिक्षा दी जाती है| दोनों में ही नेत्री को इस कामना के रूप में व्याख्यायित किया गया है कि अन्य सकारण सुखी हों तथा करुणा का अर्थ है यह कामना कि अन्य कष्ट तथा अन्य दुःख के कारणों से मुक्त हों| यद्यपि हीनयान में इस तर्क प्रणाली से अप्रमाण को विकसित नहीं किया जाता जिसमें सभी प्राणी हमारी माता रह चुके हैं आदि| इसके स्थान पर यह आरम्भ होता है उनके प्रति प्रेम विकसित करके जिन्हें हम पहले से ही प्रेम करते हैं, और फिर अन्य लोगों की परिधि को विस्तृत करते हुए उसे चरणबद्ध रूप से विस्तृत करते हैं|

हीनयान तथा महायान में अपरिमित आनंद तथा समचित्तता की परिभाषाएं भिन्न हैं| हीनयान में अपरिमित आनंद से अभिप्राय है बिना किसी ईर्ष्या भाव के तथा उस आनंद के वर्धन की कामना सहित दूसरों के सुख में सुखी होना| महायान में, अपरिमित आनंद उस कामना को कहते हैं जिसमें अन्य अनंत ज्ञानोदय के आनंद की प्राप्ति करें|

समचित्तता वह मनोदशा है जो स्नेह, घृणा तथा उदासीनता से मुक्त है| थेरवाद में समचित्तता हमारी नेत्री, करुणा तथा अनुमोदन का परिणाम होती है| अन्य लोगों की सहायता करने के हमारे प्रयासों का फल अन्य लोगों के कर्मों और उनके अपने प्रयासों पर निर्भर होता है; यद्यपि महायान की भांति थेरवाद सकारात्मक बल, “पुण्य” को अन्य लोगों तक अंतरित करने की सम्भावना को स्वीकार करता है| हम कामना करते हैं कि वे सुखी हों और दुःख से मुक्त हों, परन्तु उसके वास्तविक परिणाम के प्रति समचित्तता का भाव बनाए रखते हैं| ऐसा इसलिए क्योंकि हम जानते हैं कि उन्हें यह प्रयास स्वंय करना होगा| महायान में, अप्रमाण समचित्तता से आशय है ऐसी कामना करना कि अन्य स्नेह, घृणा तथा उदासीनता से मुक्त हों क्योंकि ये अशांतकारी मनोभाव और मनोदृष्टियां उनके दुःख का कारण होती हैं|

यद्यपि अर्हत की विमुक्त अवस्था तक पहुँचने के लिए स्नेह और करुणा को विकसित करना आवश्यक है, परन्तु उसके साथ-साथ एक अनन्य संकल्प अथवा बोधिचित्त लक्ष्य विकसित करना आवश्यक नहीं होता| यह अनन्य संकल्प एक ऐसी मनोदशा है जिसमें अन्य सभी को विमुक्ति तथा ज्ञानोदय तक पहुँचने में सहायक होने के लिए पूर्ण संकल्पबद्ध हुआ जाता है| बोधिचित्त लक्ष्य एक ऐसी मनोदशा है जिसमें स्वंय ज्ञानोदय सिद्धि का संकल्प किया जाता है ताकि उस अनन्य संकल्प के लक्ष्य को पूरा किया जा सके| चूँकि हीनयान में बोधिसत्व मार्ग पर विस्तार से चर्चा कम मिलती है, इसलिए उसमें इन दो मनोदृष्टियों की व्याख्या नहीं मिलती| महायान में इन्हें विकसित करने के लिए अत्यंत विस्तार से ध्यान साधना की रुपरेखा दी गई है|

इसके पश्चात, हीनयान अपने भीतर व्याप्त विरोधी अशांतकारी मनोभावों पर विजय प्राप्त करने के लिए चार अप्रमाणों को विकसित करने पर बल देता है| स्नेह बैर का विलोम है, यह स्थायी रूप से शत्रुता, आक्रोश अथवा रोष, तथा व्यपदा अथवा भय के विचारों से मुक्ति प्रदान करता है| करुणा क्रूर अथवा घातक मनोदृष्टि का विलोम है| आनंद अथवा अनुमोदन ईर्ष्या का विलोम है, तथा समचित्तता प्रत्याशा, चिंता अथवा निराशा, एवं उदासीनता का विलोम है| इसके अतिरिक्त थेरवाद में हम इन चार अप्रमाणों को दूसरों के प्रति केन्द्रित करने से पहले स्वंय अपने भीतर विकसित करते हैं| महायान में इस बात पर बल दिया गया है कि बजाय हम यह देखें कि हम उनके प्रति क्या अनुभव करते हैं, वे स्वंय देखें कि वे क्या अनुभव करते हैं|

दो सत्य   

यद्यपि हीनयान में धर्मानात्मन अर्थात किसी ज्ञेय यथार्थ की अति असंभव “आत्मा” के अभाव अथवा शून्यता पर बल नहीं दिया गया है, परन्तु ऐसा नहीं है कि हीनयान में सामान्य रूप से समग्र ज्ञेय यथार्थ की प्रकृति पर चर्चा न हुई हो| हीनयान समग्र ज्ञेय यथार्थ सम्बन्धी दो सत्यों की प्रस्तुति के माध्यम से यह चर्चा करता है कि ज्ञेय यथार्थ की शून्यता के बोध की प्राप्ति की पूर्वपीठिका के रूप में दो सत्यों का बोध आता है| महायान में, उसी ज्ञेय यथार्थ के सम्बन्ध में दो सत्यों को तथ्य माना गया है| हीनयान में, दो ज्ञेय यथार्थों का समुच्चय दो सत्य हैं| ये हैं संवृत्त अथवा रूढ़िवादी सत्य ज्ञेय यथार्थ एवं गहनतम अथवा परम सत्य ज्ञेय यथार्थ|

सर्वास्तिवाद के भीतर वैभाषिकों का कथन है कि संवृत्ति सत्य ज्ञेय यथार्थ वे भौतिक तथा मानसिक ज्ञेय पदार्थ हैं जो अपनी रूढ़िवादी पहचान खो देते हैं, जब हम उनका खंड रूप में विश्लेषण करते हैं| उदाहरण के लिए, जब हम अपने हाथ का विश्लेषण उसके अणुओं के रूप में अथवा अपनी विचार सरणि को प्रत्येक क्षण के रूप में विश्लेषित करते हैं, तो हम किसी अणु को अपने हाथ के रूप में नहीं पाते अथवा अपनी विचार सरणि के किसी क्षण को नहीं देख पाते| गहनतम सत्य ज्ञेय यथार्थ वे वस्तुएं हैं जिनका जब हम विश्लेषण करते हैं, तब भी हमें उनकी रुढ़िवादी पहचान का संज्ञान होता है| वैभाषिक का अभिकथन है कि भौतिक वस्तुओं का निर्माण करने वाले सभी अणु तथा संज्ञान के लघुतम पल अखंड होते हैं; वे अंततः लघुतम पदार्थ होते हैं| हम चाहे उनका कितना भी विश्लेषण करते जाएं, वे अपनी पहचान बनाए रखते हैं| यह समझना आवश्यक है कि हम जो देख पाते हैं वह संवृत रूप से सत्य ज्ञेय यथार्थ है, परन्तु गहनतम स्तर पर, पदार्थ अणुओं एवं क्षणों की निर्मिति होते हैं| हम देख सकते हैं कि किस प्रकार यह बोध जाग्रत करता है कि संवृत्त स्तर पर यह एक छलावे की भांति होता है|

सौत्रारान्तिक के अनुसार, संवृत्त सत्य ज्ञेय यथार्थ दुर्बोध इकाइयाँ हैं, हम उन वस्तुओं पर अध्यारोपण करते हैं; जबकि गहनतम सत्य ज्ञेय यथार्थ वास्तव में अपने आप में वस्तुगत होते हैं| यहां, हम समझना आरम्भ कर देते हैं कि हमारा अध्यारोपण माया है| यदि हम इस अध्यारोपण से मुक्ति पा लें तो हम यथार्थ को वस्तुपरक ढ़ंग से देख सकते हैं| हमारा  अध्यारोपण भ्रम के समान है|

थेरवाद के अनुसार संवृत ज्ञेय यथार्थ अध्यारोपित ज्ञेय यथार्थ हैं| यहां व्यक्ति तथा भौतिक वस्तुएँ दोनों अभिप्रेत हैं चाहे वे शरीर के भीतर हों अथवा बाहर| गहनतम सत्य ज्ञेय यथार्थ वह है जिसपर उसे अध्यारोपित किया जाता है| शरीर एवं भौतिक वस्तुएँ तत्वों पर तथा गोचर इन्द्रियों पर अध्यारोपित होती हैं| संतरा क्या है? क्या वह दृश्य है, गंध है, स्वाद है, अथवा भौतिक संवेदन है? संतरा वही है जो उस पर अध्यारोपित किया जाता है| इसी प्रकार एक व्यक्ति वही है जो उसकी काया एवं चित्त के उन कारकों पर अध्यारोपित किया जा सकता है| 6 प्रकार की प्राथमिक चेतना तथा मानसिक कारक गहनतम सत्य ज्ञेय यथार्थ हैं, क्योंकि कोई व्यक्ति उन पर अध्यारोपित किया गया है|

यद्यपि हीनयान की किसी भी शाखा में ज्ञेय यथार्थ की शून्यता के विषय में चर्चा नहीं की गई है, तथापि वे यह अवश्य कहते हैं कि गहनतम सत्य ज्ञेय यथार्थ को निर्वैचारिक रूप से समझना विमुक्ति के लिए आवश्यक है| इसका आस्वादन महायान में की गई चर्चा से बहुत मिलता –जुलता है|

थेरवाद में कर्म की भी अत्यंत भिन्न व्याख्या की गई है, जो कि सर्वास्तिवाद अथवा उस की कुछ शाखाओं अथवा महायान में नहीं पायी जाती, परन्तु अभी हम उस पर चर्चा नहीं करेंगे|

सारांश  

इस भूमिका के साथ हम यह समझने लगेंगे कि किस प्रकार हीनयान की थेरवाद और सर्वास्तिवाद शाखाओं में बौद्ध धर्मी शिक्षाओं का पूर्ण प्रभाव देखा जा सकता है| इसकी सहायता से हम धर्म के परित्याग की भूल से बच सकते हैं जिसके वशीभूत होकर हम कहें कि बुद्ध की कुछ शिक्षाएं वास्तव में बौद्ध धर्मी शिक्षाएं नहीं हैं| जब हम विभिन्न मतों को उनके दृष्टिकोण के अनुसार सही ढ़ंग से समझते हैं तो हम बुद्ध की समग्र शिक्षाओं के प्रति गहन सम्मान विकसित करते हैं| यह अत्यंत महत्वपूर्ण है|    

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