प्राथमिक चित्त और 51 मानसिक कारक

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मानसिक गतिविधि के रूप में चित्त

बौद्ध परिभाषा के अनुसार, चित्त से अभिप्राय है केवल स्पष्टता और सचेतनता एवं आलम्बनों का अनुभव करने की व्यक्तिगत, व्यक्तिपरक मानसिक गतिविधि। स्पष्टता  का अर्थ है आलम्बनों की संज्ञानात्मक प्रतीतियों को जन्म देना, जैसे मानसिक होलोग्राम, और सचेतनता  का अर्थ है उनके साथ संज्ञानात्मक रूप से सम्बद्ध होना। केवल  से तात्पर्य है कि यह एक अलग, अप्रभावित, अखंड "मैं" के बिना होता है जो इस गतिविधि को या तो नियंत्रित कर रहा है या फिर परख रहा है। "मैं" अस्तित्वमान है, परन्तु केवल एक सूचक के रूप में, जो परिवर्तनशील आलम्बनों के अनुभव के परिवर्तनशील क्षणों के सातत्य पर आधारित है।

किसी आलम्बन के बोध होने की विधियाँ

किसी आलम्बन के बोध होने की विधियों में सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियाँ समाविष्ट हैं। उनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं:

  • प्राथमिक विज्ञान
  • मानसिक कारक (अतिरिक्त बोध)

सौत्रान्तिका और चित्तमात्र सिद्धांत प्रणालियाँ एक तीसरे प्रकार को जोड़ती हैं,

  • स्वसंवेदना

स्वसंवेदना  किसी आलम्बन के निर्वैचारिक और वैचारिक बोध के प्रत्येक क्षण के साथ होती है, यद्यपि वह स्वयं सदैव निर्वैचारिक रहती है। यह केवल बोध की अन्य सचेतनता पर ही ध्यान केंद्रित करती है और उसे ग्रहण करती है - नामतः, प्राथमिक विज्ञान तथा मानसिक कारक- और साथ ही उनकी प्रामाणिकता। यह प्राथमिक विज्ञान के उन आलम्बनों तथा उन चित्त संस्कारों को ग्रहण नहीं करती जिनपर यह ध्यान केंद्रित करती है। यह जिस अनुभूति की वासना के विप्रयुक्त संस्कार को ग्रहण करती है, उसे स्थापित करती है, जो तदनन्तर अनुभूति (सचेतनता) को स्मरण करने में सहायक बनता है। इसका स्मरण एक मानसिक स्वरुप के वैचारिक बोध के द्वारा, जो पहले से ज्ञात वस्तु से मिलता-जुलता है, और एक श्रेणी (सार्वभौमिक) के द्वारा किया जाता है, जो मानसिक रूप से उस वस्तु से व्युत्पन्न होता है और जिसमें उस वस्तु के सभी सदृश मानसिक पहलू सही बैठते हैं।

गेलुग परंपरा के अनुसार, मध्यमक प्रणाली के भीतर, केवल योगाचार स्वातंत्रिक-मध्यमक उपखंड ही स्वसंवेदना को स्वीकार करता है। सौत्रान्तिक-स्वातंत्रिक मध्यमक एवं प्रासंगिक-मध्यमक इसके पारंपरिक अस्तित्व को भी अस्वीकार करते हैं। ग़ैर-गेलुग विचारधारा के अनुसार, मध्यमक के सभी विभाग स्वसंवेदना के पारंपरिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।

प्राथमिक विज्ञान

सभी बौद्ध प्रणालियाँ यह स्वीकार करती हैं कि प्राथमिक विज्ञान कम से कम छः प्रकार का होता है:

  1. चक्षुर्विज्ञान 
  2. श्रोत्रविज्ञान 
  3. घ्राणविज्ञान 
  4. जिह्वाविज्ञान 
  5. कायाविज्ञान 
  6. मनोविज्ञान

पश्चिमी दृष्टिकोण में विज्ञान एक सामान्य संकाय है जो सभी इन्द्रियजन्य तथा मानसिक आलम्बनों को ग्रहण कर सकता है, परन्तु इसके विपरीत बौद्ध धर्म छः प्रकार के विज्ञान का विभेद करता है, जिनमें से प्रत्येक एक विशिष्ट इन्द्रियग्राह्य अथवा मानसिक क्षेत्र से सम्बंधित है।

प्राथमिक विज्ञान  किसी आलम्बन के मूलभूत भाव को ही पहचानता है, अर्थात उस परिघटना की श्रेणी को जिससे वह संबंधित है। उदाहरण के लिए, चक्षुर्विज्ञान दृष्टि को केवल एक दृष्टि के रूप में पहचानता है।

चित्तमात्र विचारधारा अपने प्राथमिक विज्ञान के अष्टांग समूह की सूची बनाने के लिए दो और प्रकार के प्राथमिक विज्ञान जोड़ती है:

  1. क्लिष्ट-मनोविज्ञान 
  2. अलय-विज्ञान (सर्वव्यापी मौलिक विज्ञान, भण्डार विज्ञान)

अलयविज्ञान  एक व्यक्तिगत विज्ञान है, सार्वभौमिक नहीं, जो बोध के सभी क्षणों में अंतर्निहित है। यह उन्हीं आलम्बनों को ग्रहण करता है जो अपनी अनुभूतियों के अंतर्गत होते हैं, परन्तु वह उस आलम्बन का निर्वैचारिक बोध है जो उसे प्रतीत होता है (अस्पष्ट बोध) और इसमें स्पष्टता का अभाव है। इसमें कर्म के बीज तथा संस्कार की वासनाएँ युक्त हैं, इस अर्थ में कि दोनों ही अलयविज्ञान पर गढ़े अनित्य अमूर्तीकरण हैं। ज्ञानोदय प्राप्ति के साथ ही व्यक्तिगत अलयविज्ञान का सातत्य समाप्त हो जाता है।

क्लिष्ट-मनोविज्ञान  अलयविज्ञान को लक्षित करता है और इसके विपाक कारक को एक मिथ्या "मैं" के रूप में ग्रहण करता है। यह स्थूल स्तर पर, इसे एक "मैं" के रूप में ग्रहण करता है जो अपने स्कंध से स्वतंत्र रूप से अचल, अखंड इयत्ता के रूप में अस्तित्वमान है। स्कंध उन पाँच स्कंध कारकों को उद्घृत करते हैं जिनसे हमारे अनुभवों का प्रत्येक क्षण बना है। ये (काया सहित) पाँच भौतिक परिघटनाओं के रूप हैं, सुख के स्तर को अनुभव करना, भेद करना, अन्य प्रभावित करने वाले परिवर्ती आलम्बन (भावनाएँ इत्यादि), तथा प्राथमिक विज्ञान।

एक सूक्ष्म स्तर पर, क्लिष्ट-मनोविज्ञान अलयविज्ञान  के परिपक्वता-कारक को "मैं" के रूप में ग्रहण करता है जो अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम एक स्वावलम्बी ज्ञेय इयत्ता है। 

ग़ैर-गेलुग विचारधारा के अनुसार, सभी मध्यमक प्रणालियाँ अलयविज्ञान के पारंपरिक अस्तित्व तथा क्लिष्ट-मनोविज्ञान को स्वीकार करती हैं। गेलुग विचारधारा के अनुसार, कोई भी मध्यमक प्रणाली उनके पारंपरिक अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करती।

मानसिक कारकों की सामान्य चर्चा

प्राथमिक विज्ञान की तरह, मानसिक कारक भी किसी आलम्बन के प्रति सजग होने के मार्ग मात्र हैं। वे विशेष विधियों से अपने आलम्बनों से अभिज्ञ रहते हैं, परन्तु बिना अध्यारोपण (किसी अविद्यमान आलम्बन को जोड़ना) या निराकरण (किसी विद्यमान आलम्बन को नकारना) के। कुछ मानसिक कारक ऐसे कार्य करते हैं जो किसी आलम्बन को संज्ञानात्मक रूप से धारण करने में प्राथमिक विज्ञान की सहायता करते हैं। अन्य संस्कार उस आलम्बन में रागात्मक रस घोलते हैं।

प्राथमिक विज्ञान के प्रत्येक क्षण के साथ एक मानसिक कारक का समूह होता है और सभी मानसिक कारक अपने संलग्न प्राथमिक विज्ञान के साथ पाँच-पाँच सर्वांगसम विशेषताएँ सांझा करते हैं, जैसे सभी का एक ही आलम्बन पर केंद्रित होना।

प्रधानचित्त

आलम्बन के प्रति सचेत होने के कुछ मार्ग प्राथमिक विज्ञान या मानसिक कारक की श्रेणियों में ठीक नहीं बैठते। एक अति सामान्य उदाहरण है प्रधानचित्त। किसी अनुभूति में प्रधानचित्त वह सचेतनता है जिसमें प्राथमिक विज्ञान और उसके संलग्न मानसिक कारकों का संयोजन होता है, जो अनुभूति के आलम्बन का बोध होने का एक प्रमुख मार्ग है। यह घटित हो रही अनुभूति के प्रकार को चिह्नित करता है।

प्रधानचित्त का एक उदाहरण है बोधिचित्त। बोधिचित्त चित्त विज्ञान का एक सम्मिश्रण है जो केंद्रित है अपने व्यक्तिगत भविष्य ज्ञानोदय तथा ऐसे मानसिक कारकों पर जैसे उस ज्ञानोदय को प्राप्त करने एवं उस प्राप्ति के द्वारा अन्य लोगों को लाभान्वित करने का निश्चय। गेलुग प्रस्तुति के अनुसार, पाँच प्रकार के ज्ञान – दर्पण-सम, समकारी, वैयक्तिक, सिद्ध, तथा धर्मधातु - अन्य उदाहरण हैं।

मानसिक कारकों की गणना

अभिधर्म  (विद्या के विशिष्ट विषय) की कई अलग-अलग प्रणालियाँ हैं, और प्रत्येक प्रणाली की अपनी व्यक्तिगत गणना एवं चित्त संस्कारों की सूची है। प्रायः, वे जिन स्मृतियों का सामान्य रूप से अभिकथन करती हैं, उनकी परिभाषाएँ भी पृथक होती हैं।

उदाहरण के लिए, अनिरुद्ध के अभिधम्मथ-संग्रह  में प्रस्तुत थेरवाद प्रणाली में बावन चित्त संस्कारों की रूपरेखा दी गई है। इस विषय का प्रमाणित बॉन निरूपण, जो शेनरब मिवो द्वारा रचित ज्ञान के विषयों का अन्तरतम सार  (Innermost Core of Topics of Knowledge) में पाया गया है, और जिसे शेनचेन लूगा ने एक बहुमूल्य ग्रन्थ के रूप में खोज निकाला है, इक्यावन संस्कारों की सूची देता है।

अपने अभिधर्मकोश-भाष्य  में वसुबंधु ने छियालीस चित्त संस्कारों को निर्दिष्ट किया है; जबकि उनके पंचस्कन्धप्रकरण  में उन्होंने इक्यावन संस्कारों को सूचीबद्ध किया है। वसुबंधु की इक्यावन की सूची समान संख्या वाले बॉन संस्करण से महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न है। असंग ने भी अपने अभिधर्मसमुच्चय  में इक्यावन चित्त संस्कारों को प्रस्तुत किया है। यह सूची वसुबंधु के इक्यावन की सूची को दोहराती है, परन्तु इसमें कई संस्कारों की परिभाषाएँ पृथक हैं, और कुछ स्थानों पर उनके क्रम को बदला गया है।

मध्यमक विचारधारा का सम्प्रदाय असंग की व्याख्या का अनुसरण करते हैं। यहाँ हम सत्रहवीं शताब्दी के गेलुग आचार्य येशे-ग्येल्त्सेन के प्राथमिक और मानसिक कारकों के प्रकार को स्पष्ट रूप से इंगित करना  (Clearly Indicating the Manner of Primary and Mental factors) में दिए गए स्पष्टीकरण के आधार पर उनकी प्रणाली प्रस्तुत करेंगे। हम वसुबंधु के अभिधर्मकोष  से केवल कुछ मूलभूत भिन्नताओं को इंगित करेंगे, क्योंकि तिब्बती सामान्य रूप से इस ग्रन्थ का भी अध्ययन करते हैं।

असंग ने निम्नलिखित चित्त संस्कारों को सूचीबद्ध किया है:

  • पाँच सदैव क्रियाशील मानसिक कारक
  • पाँच निर्धारक 
  • ग्यारह रचनात्मक भावनाएँ 
  • छह मूल अशांतकारी मनोभाव एवं मनोदृष्टियाँ 
  • बीस सहायक अशांतकारी मनोभाव 
  • चार परिवर्तनशील मानसिक कारक

चित्त संस्कारों की यह सूची परिपूर्ण नहीं है। ये इक्यावन से भी कहीं अधिक हैं। बौद्ध पथ पर विकसित किए गए कई सद्गुण अलग-अलग रूप से सूचीबद्ध नहीं हैं - उदाहरण के लिए, उदारता, नैतिक अनुशासन, धैर्य, प्रेम, और करुणा। ये विभिन्न सूचियाँ चित्त संस्कारों की केवल कुछ महत्त्वपूर्ण श्रेणी-सम्बन्धी ही हैं।

पाँच सदैव क्रियाशील चित्त संस्कार

अनुभूति के प्रत्येक क्षण के साथ पाँच सदैव क्रियाशील मानसिक कारक होते हैं।

(1) एक विशिष्ट स्तर के सुख की अनुभूति  से हमें अपने कर्मों के परिपक्व होने का अनुभव होता है। परिपक्वता में निम्नलिखित सम्मिलित हैं: 

  • हमारे जन्मजात स्कंध
  • हमारा परिवेश 
  • हमारे साथ घट रही हमारे अतीत के कर्मों के अनुरूप घटनाएँ 
  • अपने अतीत व्यवहार प्रतिरूप को दोहराने की हमारी कामनाएँ

सुख का स्तर वह है जिसे हम अपने रचनात्मक कर्म की परिपक्वता पर अनुभव करते हैं, तथा दुःख का स्तर वह है जिसे हम अपने विनाशकारी कर्म की परिपक्वता पर अनुभव करते हैं। सुख, तटस्थता, तथा दुख एक अविच्छिन्न वर्णक्रम बनाते हैं। इनमें से प्रत्येक या तो शारीरिक या फिर मानसिक हो सकते हैं।

सुख वह अनुभूति है जिसकी समाप्ति पर हम फिर से उसे पाने की इच्छा रखते हैं। दुःख या पीड़ा वह अनुभूति है जिसके आरम्भ होने पर हम उससे अलग होना चाहते हैं। तटस्थ भावना वह है जो उपर्युक्त दोनों भावों में से कोई नहीं है।

सुख के स्तर की भावनाएँ अस्तव्यस्त कर भी सकती हैं और नहीं भी। वे तब अस्तव्यस्त करती हैं जब उनमें हमारे साश्रव - अर्थात भ्रम से मिश्रित - एवं संसार को चलायमान रखने वाले स्कंध के लिए तृष्णा (पिपासा) के साथ पाँच सहवर्ती विशेषताएँ भी संलग्न होती हैं। वे तब अस्तव्यस्त नहीं होतीं जब वे किसी आर्य द्वारा शून्यता सम्बन्धी पाँच सहवर्ती विशेषताओं से युक्त होती हैं। किसी आर्य द्वारा पूर्णतः आत्मसात किए गए बोध के साथ ही व्यवस्थित सुख या व्यवस्थित तटस्थ भावनाएँ संयुक्त हो सकती हैं। 

(2) संज्ञा  अथवा विभेदकारी अभिज्ञान एक निर्वैचारिक अनुभूति के प्रतिभासविषय अथवा वैचारिक बोध के प्रतिभासविषय की विचित्र विशेषता के एक असाधारण अभिलक्षणिक विशेषता को ग्रहण करती है, और उस पर एक पारम्परिक महत्त्व आरोपित करती है। तथापि यह अनिवार्य रूप से अपने आलम्बन पर कोई नाम या प्रज्ञप्ति आरोपित नहीं करती, और न ही उसकी तुलना पहले से ग्रहण किए हुए आलम्बन के साथ करती है। शब्दों और नामों की प्रज्ञप्ति एक अत्यंत जटिल वैचारिक प्रक्रिया है। इस प्रकार, संज्ञा "अभिज्ञान" से बहुत भिन्न होती है।

उदाहरण के लिए, निर्वैचारिक चाक्षुष बोध के द्वारा हम दृष्टि क्षेत्र में रंगीन आकृतियों को पहचान सकते हैं, जैसे एक पीली आकृति। गेलुग के अनुसार, हम सामान्य ज्ञान के आलम्बनों को निर्वैचारिक चाक्षुष बोध से भी पहचान सकते हैं, जैसे कि एक चम्मच। ऐसे में, संज्ञा पीला  या चम्मच  के नामों को आरोपित नहीं करती। वस्तुतः, यहाँ संज्ञा यह भी नहीं जानती कि रंग पीला है या आलम्बन चम्मच है। यह इसे केवल एक पारंपरिक वस्तु के रूप में पहचानती है। यथा, एक नवजात शिशु भी प्रकाश या अंधेरे, गर्म या ठण्डे में अंतर कर सकता है। इसे ही संज्ञा कहते हैं जो किसी आलम्बन की अभिलाक्षणिक विशेषता को ग्रहण करती है।

वैचारिक बोध में संज्ञा अपने आलम्बन - विज्ञान का प्रतिभासविषय नामतः, श्रव्य श्रेणी अथवा अर्थ श्रेणी - पर, अन्य को हटाने के रूप में, एक व्यावहारिक शब्दावली अथवा अर्थ आरोपित करती है, यद्यपि यह वैकल्पिक सम्भाव्यताओं को मिटाने की प्रक्रिया नहीं है। न ही उन वैकल्पिक सम्भाव्यताओं को मिटाने के लिए उनकी उपस्थिति अनिवार्य है। इस प्रकार, अपने आलम्बन पर एक नाम आरोपित करते हुए, जैसे कि "पीला" या "चम्मच", यह "पीला" की श्रेणी को उन सभी आलम्बनों से अलग करती है जो उस श्रेणी के नहीं हैं, जैसे कि "काला" अथवा "चम्मच" की श्रेणी से वह सब कुछ जो उस श्रेणी के नहीं हैं, जैसे "काँटा" की श्रेणी। यही वह संज्ञा है जो एक व्यवहार से सम्बंधित अभिलाक्षणिक विशेषता ग्रहण करती है। निर्वैचारिक बोध में इस संज्ञा का अभाव होता है।

(3) चेतना  चित्त को किसी आलम्बन का सामना कराने या उसकी दिशा में जाने का कारण बनती है। साधारणतः यह एक समतान को संज्ञानात्मक रूप से किसी आलम्बन को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करती है। समतान (चित्त सरणि) चित्त के क्षणों का स्थायी वैयक्तिक अनंत क्रम है।

मनःकर्म मानसिक चेतना के बराबर है। सौत्रान्तिक, चित्तमात्र, स्वतंत्रिका-माध्यमिक और गैर-गेलुग प्रासंगिक-माध्यमिक विचारधाराओं के अनुसार कायाकर्म तथा वाक्कर्म भी मानसिक चेतना हैं।

(4) स्पर्श बोध  आलम्बन का प्रीतिकर, अप्रिय, या तटस्थ, के रूप में विभेद करता है और इस प्रकार उसे सुख, दुःख, या तटस्थ भावना से अनुभव करने का आधार बन जाता है।

(5) मनसिकार या ध्यान देने का कार्य  आलम्बन के साथ मनःकर्म में संलग्न होना है। हो सकता है कि यह संज्ञानात्मक प्रयोज्यता आलम्बन पर एक विशेष स्तर के मनसिकार मात्र के लिए हो, बहुत कम से लेकर अत्यधिक तक। यह भी हो सकता है कि यह आलम्बन पर एक विशेष प्रकार के मनसिकार के लिए हो। उदाहरण के लिए, किसी आलम्बन पर मनसिकार श्रमसाध्य रूप से, पुनर्नियोजन हेतु, विघ्नरहित होकर, अथवा अनायास ही हो सकता है।

वैकल्पिक रूप से, इसके साथ-साथ, मनसिकार किसी आलम्बन को एक विशेष प्रकार से परख सकता है। यह अपने आलम्बन को सदृश रूप से (शुद्ध रूप से) परख सकता है कि यह वास्तव में क्या है या असदृश रूप से (अशुद्ध रूप से) कि यह क्या नहीं है। हमारे अनुभव के पाँच स्कन्धों की ओर असदृश रूप से मनसिकार होने के जो चार भेद हैं, वे हैं उन्हें अनित्य के बजाय नित्य, समस्यात्मक (क्लेश) के बजाय सुखी, अस्वच्छ के बजाय स्वच्छ, तथा एक सत्यसिद्ध आत्म को धारण करना, बजाय इसके कि इसका अभाव हो। सदृश रूप से उनकी ओर मनसिकार होने के जो चार भेद हैं वे इनके विलोम हैं।

सभी पाँचों क्रियाशील मानसिक कारक किसी भी आलम्बन के संज्ञान के प्रत्येक क्षण में अनिवार्य रूप से उपस्थित हैं। अन्यथा, उस आलम्बन को ज्ञान प्रमेय के रूप में उपयोग करना अपूर्ण होगा।

असंग ने व्याख्यायित किया:

  • हम किसी आलम्बन का वास्तव में अनुभव नहीं करते, जब तक हम सुख से तटस्थ और वहाँ से दुःख के वर्णक्रम पर सुख का अनुभव नहीं कर लेते। 
  • हम संज्ञानात्मक रूप से किसी आयतन में आलम्बन को ज्ञान प्रमेय के रूप में ग्रहण नहीं करते जब तक कि हम उसके किसी विशिष्ट लक्षण का भेद नहीं कर लेते।
  • हम किसी ज्ञान प्रमेय के सम्मुख नहीं होते और न ही उसकी दिशा में जाते हैं जब तक उस ओर हमारी चेतना नहीं होती।
  • जब तक हमारे पास आलम्बन को सुखद, अप्रिय या तटस्थ के रूप में भेद करने का स्पर्श बोध नहीं होता, तब तक हमारे पास उस आलम्बन को वेदना-युक्त होकर अनुभव करने का कोई आधार नहीं होता। 
  • हम तब तक उस विशिष्ट आलम्बन से वस्तुतः संलग्न नहीं होते जब तक हम उससे किसी स्तर से मनसिकार नहीं होते, भले ही वह अत्यंत तुच्छ हो।

पाँच विषयनियत चित्त संस्कार

वसुबंधु ने निम्नलिखित पाँच चित्त संस्कारों को सामान्य रूप से परिभाषित किया और बलपूर्वक कहा कि वे अनुभूति के हर क्षण के संग भी होते हैं। असंग ने उन्हें विषयनियत मानसिक कारक कहा और उन्हें ऐसी परिभाषाएँ दीं जो अधिक विशिष्ट हैं। असंग के अनुसार, वे केवल उन रचनात्मक संज्ञानों के संग होते हैं जो अपने आलम्बनों को ग्रहण करते हैं और इस प्रकार वे उसकी उपश्रेणियाँ हैं जिसे वसुबंधु ने परिभाषित किया था। वे अपने विषय को नियत करने में चित्त की सहायता करते हैं, जिसका अर्थ है उसे निश्चितता से ग्रहण करना।

(1) छन्दः  केवल किसी आलम्बन को प्राप्त करने, किसी लक्ष्य को प्राप्त करने, या एक बार प्राप्त करने के बाद उस आलम्बन या लक्ष्य के साथ कुछ करने की प्रेरणा मात्र नहीं है। यह एक वांछित रचनात्मक आलम्बन को प्राप्त करने की, उसके साथ कुछ करने की, या एक वांछित रचनात्मक लक्ष्य को प्राप्त करने की इच्छा है। उसका ध्येय हो सकता है पहले से ग्रहण किए हुए रचनात्मक आलम्बन से मिलने की इच्छा, वर्तमान में ग्रहण किए हुए रचनात्मक आलम्बन से अलग नहीं होने की इच्छा, या भविष्य में ग्रहण होने वाले रचनात्मक आलम्बन में उत्कट रूचि। पुण्य ध्येय वांछित आलम्बन अथवा वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने के आनंदमय वीर्य की ओर ले जाता है।

(2) अधिमोक्ष  उस तथ्य पर केंद्रित है जिसे हमने ऐसा होने और वैसा न होने को मान्य रूप से नियत किया है। उसका काम है किसी भी तथ्य का सत्य होने के हमारे विश्वास को इतना दृढ़ बनाना है कि दूसरों के तर्क या उनकी मान्यताएँ हमें विचलित न कर सकें। वसुबंधु के लिए, इस मानसिक कारक का अर्थ है अधिमोक्ष । यह सद्गुणों के अभाव से सद्गुणों के बाहुल्य के वर्णक्रम पर सद्गुणों के एक विशेष स्तर को प्राप्त करने के लिए ही अपने आलम्बन को ग्रहण करता है, और यह या तो सटीक हो सकता है या विकृत।

(3) स्मृति  किसी ज्ञान प्रमेय को, केवल उसे केंद्रित आलम्बन के रूप में खोए बिना, ध्यान में रखना ही नहीं है। यहाँ, यह चित्त को उस पुण्यालम्बन को भूलने या खोने से रोकता है जिससे वह परिचित है। इसकी तीन विशेषताएँ हैं:

  • उसका कार्य मानसिक भटकाव को रोकना है।
  • उसका स्वरुप यह होना चाहिए कि वह इस आलम्बन पर केंद्रित हो और उसे भूले या खोए नहीं
  • वह आलम्बन पुण्य होना चाहिए जिससे हम सुपरिचित हों 

इस प्रकार, सचेतनता एक प्रकार की स्मृति के बराबर है जो अपने केंद्रित आलम्बन को बिना जाने दिए बांधे रहता है। उसकी शक्ति अशक्त से सशक्त के वर्णक्रम में व्याप्त रहती है।

(4) समाधि  केवल, इन्द्रियजन्य अनुभूति सहित, किस भी प्रकार की अनुभूति से ग्रहण किए गए ज्ञान प्रमेय पर ध्यान केंद्रित करना ही नहीं है। यहाँ, यह चित्त को किसी लक्षित पुण्यालम्बन पर सतत रूप से केंद्रीकृत रखता है। दूसरे शब्दों में, यह आवश्यक है कि यह केंद्रीकृत आलम्बन बुद्ध द्वारा पुण्य निर्धारित किया गया हो। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि उस आलम्बन को मनोवैज्ञानिक रूप से ग्रहण किया जाए। ऐसा इसलिए है क्योंकि मानसिक लक्ष्यीकरण वैचारिक अनुभूति तक सीमित क्रिया है, जो अनन्य रूप से चित्त सम्बन्धी है। किसी आलम्बन से मानसिक साहचर्य ही केन्द्रीकरण है और उसकी शक्ति प्रबल से निर्बल के वर्णक्रम पर बदलती रहती है। यह प्रज्ञापारमिता के आधार के रूप में काम करता है।

कर्म काग्यू और शाक्य परंपराएँ, शमथ  (मन की शांत एवं स्थिर अवस्था) प्राप्त करने की एक विधि के रूप में, एक चाक्षुष आलम्बन पर ध्यान केंद्रित करना सिखाती हैं, जैसे कि बुद्ध की प्रतिमा। यह असंग के मानसिक केन्द्रीकरण की परिभाषा का खंडन नहीं करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन परंपराओं का मानना है कि बुद्ध की प्रतिमा को सामान्य ज्ञान का आलम्बन समझकर उसपर ध्यान केंद्रित करना है। उनके अभिकथनों के अनुसार, चाक्षुष बोध का आलम्बन रंगीन आकृतियों के दर्शन के क्षण मात्र हैं। सामान्य ज्ञान के आलम्बन, जैसे कि बुद्ध की प्रतिमा, केवल वैचारिक मानसिक बोध द्वारा ही ग्रहण किए जाते हैं। इसका कारण यह है कि सामान्य ज्ञान के आलम्बन जो अधिक समय तक रहते हैं तथा जो अन्य इंद्रियों द्वारा ग्राह्य आलम्बनों में समाविष्ट हैं, उन्हें यहाँ चाक्षुष रूप से ग्रहण की हुई रंगीन आकृतियों के ग्राह्य क्षणों के आधार पर मानसिक रूप से लक्षित किया गया है।

(5) प्रज्ञा  ("ज्ञान") विश्लेषण के लिए एक आलम्बन पर ध्यान केंद्रित करती है और उसकी शक्तियों को उसकी निर्बलताओं से, या उसके सदगुणों को उसके दोषों से अलग करती है। यह इन्हें चार स्वयंसिद्धों के आधार पर अलग करती है: निर्भरता, व्यावहारिकता, कारण सहित सत्यापन, और आलम्बनों का स्वाभाव। इस प्रकार, अन्य चित्त संस्कारों की भाँति, प्रज्ञा अपने उद्देश्य को समझती है – उदाहरण के लिए, वह कुशल है, अकुशल है, या बुद्ध द्वारा अनिर्दिष्ट है। यह इस विषय के बारे में विचिकित्सा को दूर करने का कार्य करती है।

वसुबंधु ने इस मानसिक कारक को कुशल बोध  कहा और उसे उस मानसिक कारक के रूप में परिभाषित किया जो सुनिश्चित रूप से यह विवेचित करता है कि आलम्बन उपयुक्य अथवा अनुपयुक्त, कुशल अथवा अकुशल, इत्यादि है। यह किसी भी ज्ञान प्रमेय की संज्ञा को निश्चितता का स्तर प्रदान करता है - चाहे अत्यंत अशक्त ही हो - और वह सटीक भी हो सकता है और त्रुटिपूर्ण भी। अतः, कुशल बोध अपने आलम्बन को अनिवार्य रूप से ठीक-ठीक समझता नहीं है।

ग्यारह कुशल मनोभाव

  1. श्रद्धा  किसी अस्तित्वमान एवं ज्ञेय आलम्बन पर ध्यान केंद्रित करती है जो सद्गुणों से युक्त है, अथवा एक सिद्ध शक्ति है, और उसे या तो अस्तित्वमान या सत्य मानती है, या फिर उसके बारे में किसी तथ्य को सत्य मानती है। अतः, इसका तात्पर्य वास्तविकता को स्वीकार करना है।

    उसके तीन प्रकार हैं:
    • किसी आलम्बन के तथ्य के बारे में दुविधाविहीन भाव से विश्वास करना, एक तथ्य के बारे में सुस्पष्ट है और जल शोधक यंत्र की तरह, चित्त को साफ़ करता है। वसुबंधु ने यह स्पष्ट रूप से बताया है कि यह चित्त को आलम्बन के क्लेशों से मुक्त करती है।
    • आप्त श्रद्धा किसी आलम्बन के तथ्य को उसे सिद्ध करने वाले कारणों के आधार पर सत्य मानती है। 
    • किसी तथ्य और उससे सम्बंधित अधिमोक्ष का मानना यह निर्णय कर लेता है कि किसी आलम्बन के तथ्य एवं हमारी उस आलम्बन के प्रति अभिलाषा सत्य है, जैसे हम किसी सकारात्मक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं एवं हम उसे अवश्य प्राप्त कर लेंगे।
  1. ह्री  (लाज रखना) नकारात्मक व्यवहार से दूर रहने की समझ है क्योंकि हमें इस बात की परवाह होनी चाहिए कि हम जो कार्य करते हैं वे किस प्रकार हमें प्रतिबिंबित करते हैं। वसुबंधु के अनुसार इस मानसिक कारक का अर्थ है मूल्यों का बोध होना । यह सकारात्मक गुणों या उनसे संपन्न व्यक्तियों के लिए सम्मान की भावना होना है।
  2. अपत्राप्य  नकारात्मक व्यवहार से दूर रहने की भावना है क्योंकि हमें इस बात की परवाह है कि हम जो कार्य करते हैं वह हमारे साथ जुड़े लोगों को किस प्रकार प्रतिबिंबित करते हैं। हमारे साथ जुड़े हुए लोगों के उदाहरण हैं हमारा परिवार, शिक्षकगण, सामाजिक समूह, जातीय समूह, धार्मिक व्यवस्था या देशवासी। वसुबंधु के लिए, इस मानसिक कारक का अर्थ है नैतिक संकोच  का होना, जो हमें निर्लज्ज रूप से नकारात्मक होने से रोकता है। यह और इससे पिछला मानसिक कारक चित्त की सभी कुशल अवस्थाओं के साथ होते हैं।
  3. अलोभा  विरक्त वितृष्णा है और इसलिए उसमें बाध्यकारी अस्तित्व और बाध्यकारी अस्तित्व के आलम्बनों की कामना का अभाव होता है। फिर भी यह अनिवार्य रूप से सभी कामनाओं से पूर्ण स्वतंत्रता को सूचित नहीं करती, अपितु केवल एक आंशिक मुक्ति की ओर संकेत करती है। हो सकता है अलोभा इस जीवन की बाध्यकारी गतिविधियों से हो, सामान्य रूप से किसी भी जीवन में बाध्यकारी गतिविधियों से, या बाध्यकारी अस्तित्व से मुक्ति की प्रशांति (संस्कृत – निर्वाण ) से हो। यह दोषपूर्ण व्यवहार में लिप्त न होने के आधार के रूप में कार्य करता है।
  4. अद्वेष  है सचेतन जीवों के कृत्यों, हमारे अपने दुःखों, उपर्युक्त दोनों कारणों में से एक या दोनों कारणों से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों, या दुःख पहुँचाने वाली किसी भी परिस्थिति की प्रतिक्रिया के भाव से हानि न पहुँचाने की इच्छा। इसका अर्थ यह नहीं है कि क्रोध से पूर्ण मुक्ति मिल जाएगी; अपितु यह भी दोषपूर्ण व्यवहार में लिप्त न होने के आधार के रूप में कार्य करती है।
  5. अमोह  वह प्रज्ञा है जो स्वभावजन्य कार्य कारणों या वास्तविकताओं से सम्बद्ध वैयक्तिक लक्षणों के बारे में अभिज्ञ है तथा जो उनके विषय में मोह के विरोधी के रूप में काम करती है। अमोह कर्म के परिपक्व होने के कारण जन्म के समय प्राप्त हो सकता है। वैकल्पिक रूप से, यह शास्त्रीय ग्रंथों को सुनने या पढ़ने से, उनके अर्थ पर विचार करने से, या उनके शुद्धार्थ पर चिंतन करने से हो सकता है। ऐसा नहीं है कि इससे मोह से पूर्ण रूप से मुक्ति मिल जाएगी; अपितु यह भी दोषपूर्ण व्यवहार में लिप्त न होने के आधार के रूप में कार्य करता है।
  6. वीर्य  कुशलता के लिए उत्तेजक उत्साह है। असंग ने पाँच पहलुओं या खण्डों की व्याख्या की:
    • समस्याओं को सहने के लिए कवच जैसा साहस, जिसे हमने जो भी किया उसे करने की ख़ुशी की याद में पाया। 
    • कार्य के लिए निरंतर और विनीत रूप से जुटे रहना 
    • कभी भी निराश न होना या पीछे न हटना 
    • कभी हाथ न खींचना 
    • कभी भी आत्मतुष्ट न होना
  1. प्रश्रब्धि  (लचीलापन) शरीर और चित्त के लचीलेपन या सेवा की भावना है जो मानसिक कारक को किसी पुण्यालम्बन के साथ जब तक हम चाहे तब तक संलग्न रहने देती है। यह शरीर और चित्त की क्षतिकारक मुद्रा जैसे मानसिक भटकाव या चंचलता को अपनाने की निरंतरता को काटने से प्राप्त होती है। स्वस्थ होने की अनुभूति शारीरिक और मानसिक आनंद की विक्षोभ रहित आह्लादक अनुभूति को प्रेरित करती है।
  2. अप्रमाद  (अनासक्त भाव) एक मानसिक कारक है, जो असंग, अद्वेष, अमोह, तथा वीर्य के भावों में रहते हुए हमें पुण्यालम्बनों की ध्यान-साधना करने के लिए प्रेरित करता है एवं आस्रव (नकारात्मक) आलम्बनों की ओर न झुक जाएँ इसके लिए संरक्षण प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में, बाध्यकारी अस्तित्व की तीव्र इच्छा के प्रति वितृष्णा, उसके कष्टों के प्रत्युत्तर के भाव से उसे हानि पहुँचाने की कामना न रखना, अपने व्यवहार के प्रभावों के बारे में सरलमति न होना, और कुशलता से कार्य करने में आनंद अनुभव करना, इन सबके द्वारा अप्रमाद हमें कुशलतापूर्वक कार्य करने के लिए प्रेरित करता है तथा अकुशल व्यवहार करने से रोकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम दूसरों की और अपनी परिस्थितियों तथा अपने कृत्यों के इन दोनों पर प्रभाव के बारे में चिन्ताशील हैं; हम उन्हें गंभीर विषय मानते हैं।
  3. उपेक्षा  अथवा प्रशांति  एक मानसिक कारक है जो असंग, अद्वेष, अमोह, तथा वीर्य के भावों में रहते हुए चित्त को निरायास अविचलित, औद्धत्य या विमोह रहित, स्वाभाविक स्वतः-स्फूर्त एवं उदार अवस्था में रहने देता है।
  4. अहिंसा  दुःखी सचेतन जीवों को हानि न पहुँचाने अथवा उन्हें खिजाने या चिढ़ाने से विरति का कोरा निर्विकार भाव मात्र नहीं है। इसके अतिरिक्त इसमें उनके प्रति करुणा तथा यह अभिलाषा भी सम्मिलित है की वे अपने दुःखों एवं उन दुःखों के कारणों से मुक्ति पा लें।

छः मूलक्लेश

क्लेशकारी मनोभाव या मनोवृत्ति (कष्टप्रद मनोविकार) उत्पन्न होकर हमारे मन की शांति को समाप्त कर देते हैं और हमें इतना अक्षम कर देते हैं कि हम आत्म-नियंत्रण खो बैठते हैं। ये मूलतः छः हैं, जो उनके सहायक क्लेशकारी मनोभावों एवं मनोवृत्तियों की जड़ हैं। वसुबंधु ने छः में से पाँच को उस वर्ग में डाला है जिसमें जीवन के प्रति कोई भी दृष्टि ही नहीं है। इस प्रकार, वे अशांतकारी मनोभाव या चित्तावस्थाएँ हैं। छठा पाँच मनोभावों का एक समूह है जिसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण है और इस प्रकार उसमें पाँच अशांतकारी मनोवृत्तियाँ सम्मिलित हैं। असंग ने पाँच के इस समूह को "क्लेशकारी मनोभाव" कहा। हम उन्हें संक्षेप में "भ्रमित दृष्टिकोण" कहेंगे।

वैभाषिक विचारधारा को छोड़कर अन्य सभी भारतीय बौद्ध सिद्धांत प्रणालियों का अभिकथन यह है कि, कुछ अपवादों के अतिरिक्त, सभी क्लेशों के दो स्तर होते हैं: सिद्धांत पर आधारित और सहज रूप से उत्पन्न। सैद्धांतिक क्लेश जीवन के क्लेश-युक्त दृष्टिकोण के प्रत्यात्मक ढाँचे से उत्पन्न होते हैं। सहज रूप से उत्पन्न क्लेश ऐसे आधार के बिना होते हैं।

जीवन के प्रति बिना किसी दृष्टिकोण वाले क्लेशकारी मनोभावों में विचिकित्सा अपवाद है, और दृष्टिकोण वाले क्लेशकारी मनोभावों में अपवाद है भ्रमित दृष्टिकोण को सर्वोच्च मानना, भ्रमित नैतिकता या आचरण को सर्वोच्च मानना, तथा मिथ्यादृष्टि। इन अपवादों का कोई सहज रूप से प्रकट होने वाला रूप नहीं है और ये केवल सिद्धांत पर आधारित हैं। सौत्रान्तिक सिद्धांत प्रणाली भी अंतग्राहदृष्टि के सहज रूप से प्रकट होने वाले रूप का अभिकथन नहीं करती। वैभाषिक सिद्धांत प्रणाली किसी भी क्लिष्ट मनोदृष्टि (भ्रमित मनोदृष्टि) के किसी सहजता से प्रकट होने वाले रूप का अभिकथन नहीं करती। उसके अभिकथनों के अनुसार, सभी पाँच भ्रमित दृष्टिकोण अनन्य रूप से सिद्धांत पर आधारित हैं।

(1) राग  किसी बहिरंग अथवा अंतरंग साश्रव आलम्बन (भ्रम से जुड़ा) - चेतन या जड़ - के प्रति होता है और उसे प्राप्त करना चाहता है क्योंकि वह उसे स्वाभाविक रूप से आकर्षक मानता है। यह हमें कष्ट पहुँचाने का कार्य करता है। यद्यपि राग या लोभ इन्द्रियजन्य या मानसिक बोध से होता है, यह पहले से हुए वैचारिक अंतर्स्थापन पर आधारित है। ध्यान दें कि इन्द्रियजन्य बोध सदैव निर्वैचारिक ही होता है, जबकि मानसिक बोध निर्वैचारिक अथवा वैचारिक दोनों हो सकता है। पूर्ववर्ती अंतर्स्थापन या तो अभीष्ट वस्तु के सद्गुणों की अतिशयोक्ति करता है या फिर अनुपस्थित सद्गुणों को जोड़ता है। इस प्रकार, वैचारिक अध्यारोपण अभीष्ट वस्तु पर एक विसंगत रूप से (मिथ्या विवेचन) ध्यान देता है - उदाहरण के लिए, अशुद्ध वस्तु (मल-मूत्र से भरा शरीर) को शुद्ध मानना।

पश्चिमी दृष्टिकोण से, हम यह भी कह सकते हैं कि जब राग किसी अन्य व्यक्ति या समूह को लक्षित करता है, तो वह उस व्यक्ति या समूह पर स्वामित्व स्थापित करना चाहता है जैसे वह हमसे सम्बंधित है, या हम उस व्यक्ति या समूह से संबंधित हैं। यह भी प्रतीत होता है कि राग प्रायः उसके आलम्बन के नकारात्मक गुणों के वैचारिक खंडन या पूर्वकृत निषेध द्वारा समर्थित होता है।

वसुबंधु ने इस मूलक्लेश को आसक्ति  या स्वत्वात्मकता के रूप में परिभाषित किया। यह ज्ञानेन्द्रिय के पाँच प्रकार के अभीष्ट विषयों (रूप, शब्द, गंध, रस, या स्पर्श) या हमारे अपने बाध्यकारी अस्तित्व से बंधनमुक्त न होने की इच्छा है। यह साश्रव आलम्बन पर ध्यान देने के विसंगत या अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके पर भी आधारित है। अभीष्ट ज्ञानेन्द्रिय आलम्बनों के प्रति आसक्ति अभीष्ट ज्ञानेन्द्रिय आलम्बनों के लोक (कामधातु) के प्रति आसक्ति है। बाध्यकारी अस्तित्व के प्रति आसक्ति बाध्यकारी अस्तित्व के लोक (रूपधातु) अथवा निराकार जीवों के लोक (अरूपधातु)  के प्रति आसक्ति है। इसका अर्थ है कि उन लोकों में सिद्ध की गई गहन ध्यान समाधि के प्रति आसक्ति।

(2) प्रतिघ  लक्षित करता है सीमित सत्वों और हमारे अपने कष्टों को, या ऐसी परिस्थितियों को जो कष्ट का कारण बनती हैं, और जो दोनों में से किसी एक से उत्पन्न हो सकती हैं, या केवल ऐसी परिस्थितियों को जिनके कारण कष्ट होते हैं। यह उनसे तंग आ चुका है और उनसे छुटकारा पाना चाहता है, जैसे कि उन्हें वैमनस्य से हानि या चोट पहुँचाकर या उनके विरुद्ध आक्रामक भाव अपनाकर। इसका आधार है अपने आलम्बन को अपने स्वभाव से ही अनाकर्षक या घृणास्पद मानना, और यह हमें कष्ट पहुँचाने का कार्य करता है। शत्रुता क्रोध की एक उपश्रेणी है और मुख्यतः, यद्यपि अनन्य रूप से नहीं, सीमित सत्त्वों को ही लक्षित करती है।

यद्यपि राग की तरह क्रोध या तो इन्द्रियजन्य या मानसिक अनुभूति के साथ घटित हो सकता है, यह पहले से घटित वैचारिक अध्यारोपण पर आधारित होता है। अध्यारोपण या तो आलम्बन के नकारात्मक गुणों की अतिशयोक्ति करता है या फिर अनुपस्थित नकारात्मक गुणों को जोड़ता है। इस प्रकार, वैचारिक अध्यारोपण आलम्बन पर विसंगत रूप से ध्यान देता है - उदाहरण के लिए, अनुचित रूप से निर्दोष को दोषी मान लेना।

पश्चिमी दृष्टिकोण से, हम यह भी कह सकते हैं कि जब क्रोध या शत्रुता से किसी अन्य व्यक्ति या समूह को लक्षित किया जाता है, तो वह उस व्यक्ति या समूह को अस्वीकार करने का रूप ले सकता है। वैकल्पिक रूप से, उस व्यक्ति या समूह द्वारा अस्वीकार किए जाने के डर से, हम क्रोध को अपने ऊपर केंद्रित कर सकते हैं। यह भी प्रतीत होता है कि क्रोध प्रायः अतिरिक्त रूप से अपने आलम्बन के सद्गुणों के वैचारिक खंडन या पूर्वकृत निषेध द्वारा समर्थित होता है।

(3) मान  (घमंड) एक अहंकार भरा मन है जो एक क्षणभंगुर पुंज के प्रति भ्रमित दृष्टिकोण (सत्कायदृष्टि) पर आधारित है। जैसा कि नीचे स्पष्ट किया गया है, यह भ्रमित दृष्टिकोण हमारे पाँच स्कन्धों के कुछ पहलुओं या पहलुओं के पुंज पर एकाग्र होता है तथा उसे एक अप्रभावित, अखंड "मैं" के रूप में स्कन्धों से अलग सूरत देता है और उनपर नियंत्रण रखता है। यह इस सत्कायदृष्टि के विभिन्न रूपों एवं स्तरों में से "मैं" के लिए विशेष रूप से स्वतः उत्पन्न “आत्मग्राह” पर आधारित है। यह हमें दूसरों को सराहने, या दूसरों के सद्गुणों के लिए उनका आदर करने, एवं हमें कुछ भी सीखने से रोकने का कार्य करता है। इसके सात प्रकार हैं:

  • अधिमान वह अहंकार भरा चित्त है जो यह अनुभव करता है कि मैं स्वयं से न्यून व्यक्ति से किसी विशेष गुण के कारण श्रेष्ठतर हूँ। 
  • अतिशय मान वह अहंकार से भरा चित्त है जो यह अनुभव करता है कि मैं किसी विशेष गुण के कारण अपने समकक्ष व्यक्ति से श्रेष्ठतर हूँ। 
  • मान-अतिमान वह अहंकार से भरा चित्त है जो यह अनुभव करता है कि मैं किसी विशेष गुण के कारण अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति से श्रेष्ठतर हूँ।
  • अस्मि-मान वह अहंकार से भरा चित्त है जो अपने संसार को बनाए रखने वाले स्कन्धों (उपादान-कारण) पर ध्यान केंद्रित करते हुए "मैं" का चिंतन करता है।
  • मिथ्या या प्रत्याशित मान वह अहंकार से भरा चित्त है जो यह अनुभव करता है कि मैंने कोई गुण अर्जित कर लिया है जो मैंने वस्तुतः अर्जित नहीं किया है अथवा अब तक अर्जित नहीं किया है।
  • विनीत मान वह अहंकार से भरा चित्त है जो यह अनुभव करता है कि मैं उस व्यक्ति से किंचित मात्र न्यून हूँ, जबकि वह मुझसे अपरिमित मात्रा में श्रेष्ठ है, परन्तु फिर भी मैं लगभग अन्य सभी लोगों से श्रेष्ठतर हूँ।
  • विकृत मान वह अहंकार से भरा चित्त है जो यह अनुभव करता है कि मैं जिस पथभ्रष्ट अवस्था में पड़ गया हूँ वह वास्तव में एक सद्गुण है जिसे मैंने अर्जित किया है - उदाहरण के लिए, एक अच्छा शिकारी होना।

वसुबंधु ने उल्लेख किया कि कुछ बौद्ध ग्रंथों में नौ प्रकार के मान को सूचीबद्ध किया गया है, परन्तु उन्हें उपरोक्त तीन श्रेणियों में सम्मिलित किया जा सकता है - अधिमान, अतिशय मान, एवं विनीत मान। ये नौ वे अहंकार से भरे चित्त हैं जो यह अनुभव करते हैं कि:

  • मैं दूसरों से श्रेष्ठ हूँ 
  • मैं दूसरों के समकक्ष हूँ 
  • मैं दूसरों से न्यून हूँ 
  • अन्य लोग मुझसे श्रेष्ठ हैं
  • अन्य लोग मेरे समकक्ष हैं
  • अन्य लोग मुझसे न्यून हैं
  • मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है
  • मेरे समकक्ष कोई नहीं है
  • मुझसे न्यून कोई नहीं है

(4) अविद्या  (अज्ञान), असंग एवं वसुबंधु दोनों के अनुसार, धर्म तत्त्व के स्वभावजन्य कार्य-कारण या उसकी प्रकृति के बारे अनभिज्ञ होने के कारण उत्पन्न विभ्रांति अथवा अवाक रह जाने की अवस्था है। चित्त और काया का भारीपन विभ्रांति है। तो, अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्मों (संसार) को उत्पन्न करने तथा बनाए रखने वाली अशांतकारी मानसिक स्थिति के जिस रूप में अनभिज्ञता है, उसमें किसी के नाम को नहीं जानना सम्मिलित नहीं है। अनभिज्ञता अड़ियल निश्चितता, विचिकित्सा, एवं सम्पूर्ण विभ्रांति को जन्म देती है। दूसरे शब्दों में, अनभिज्ञता हमें गलत और असुरक्षित वस्तु के बारे में हठीला बना देती है, और साथ ही स्वयं के बारे में अनिश्चित, और तनावपूर्ण भी।

धर्मकीर्ति द्वारा रचित प्रमाणवर्त्तिका  के अनुसार, अनभिज्ञता किसी आलम्बन को विपरीत प्रकार से समझने की भ्रमित चित्तावस्था भी है।

विनाशकारी व्यवहार व्यावहारिक कार्य-कारण की अनभिज्ञता से उत्पन्न होता है तथा उसके साथ बराबर बना रहता है। यथा, असंग ने समझाया कि इस प्रकार की अनभिज्ञता के कारण हम कर्म संचित करते हैं जिसके कारण हमें पुनर्जन्म की निकृष्टतर अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है। यथार्थ की वास्तविक प्रकृति की अनभिज्ञता किसी भी प्रकार की गतिविधि - कुशल, अकुशल, या अव्यकृत - को जन्म देती है और उसका साथ देती है। केवल कुशल व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करते हुए, असंग ने समझाया कि हम सांसारिक पुनर्जन्म की श्रेष्ठतर अवस्थाओं का अनुभव करने के लिए इस प्रकार की अनभिज्ञता से कर्म संचित करते हैं।

वसुबंधु और सभी हीनयान सिद्धांत प्रणालियों (वैभाषिक एवं सौत्रंतिका) के अनुसार, यथार्थ की वास्तविक प्रकृति की अनभिज्ञता केवल इस बात की अनभिज्ञता को सूचित करती है कि किस प्रकार लोग अस्तित्वमान हैं, हम भी और अन्य लोग भी। इसका कारण यह है कि हीनयान विचारधारा धर्म की असंभव छवि (धर्मनैरात्म्य, धर्म की निस्वार्थता, धर्म की पहचानहीनता) का अभिकथन नहीं करती।

प्रासंगिक की शाक्य और न्यिंग्मा व्याख्याओं और सभी चार तिब्बती परंपराओं की स्वातंत्रिक-मध्यमक और चित्तमात्र विचारों की व्याख्याओं के अनुसार, असंग द्वारा उल्लिखित तत्त्व की वास्तविक प्रकृति की अनभिज्ञता में भी धर्म के अस्तित्व की अनभिज्ञता सम्मिलित नहीं है। इसका कारण यह है कि वे इस बात पर बल देते हैं कि धर्म के अस्तित्व की अनभिज्ञता चित्त की अशांतकारी स्थिति नहीं है और मोक्ष को नहीं रोकती। वे इस मानसिक कारक को ज्ञेयावरण में, दूसरे शब्दों में ज्ञेय आलम्बनों के विषय में धुंधलापन जो सर्वज्ञता को प्रतिबंधित करता है, सम्मिलित करते हैं ।

प्रासंगिक-मध्यमक दृष्टिकोण की गेलुग और कर्म काग्यू व्याख्याओं में अशांतकारी चित्त वाली अनभिज्ञता के रूप में सभी धर्मों के अस्तित्व की वास्तविक प्रकृति की अनभिज्ञता सम्मिलित है। इस प्रकार, वे इसे असंग के उल्लेख एवं क्लेशावरणों, अर्थात क्लेश एवं उपादान रूपी एवं मोक्ष को प्रतिबंधित करने वाले आवरणों में सम्मिलित करते हैं।

मोह  अनभिज्ञता की एक उपश्रेणी है और, जब इसका अपने विशुद्ध अर्थ में प्रयोग किया जाता है तो यह केवल उस अनभिज्ञता को इंगित करता है जो अकुशल चित्त की अवस्था के साथ होता है - व्यावहारिक कार्य-कारण और यथार्थ का वास्तविक प्रभाव, दोनों की अनभिज्ञता।

राग (या आसक्ति, परिभाषा पर निर्भर), शत्रुता, और मोह तीन विषाक्त मनोभाव हैं।

(5) विचिकित्सा  सत्य के विषय में अस्थिरमति होना है - दूसरे शब्दों में, सत्य को स्वीकार या अस्वीकार काने में हिचकिचाहट। सत्य उन तथ्यों की ओर संकेत करता है जैसे चार आर्य सत्य तथा व्यावहारिक कार्य-कारण। इसके अतिरिक्त यह हिचकिचाहट का रुझान सत्य अथवा असत्य के पक्ष में अधिक हो सकता है, या फिर दोनों के बीच समान रूप से विभाजित हो सकता है। विचिकित्सा कुशलता के साथ संलग्न न होने के आधार के रूप में कार्य करती है।

असंग ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि समस्याओं का मुख्य कारण है विक्षुब्ध, भ्रमित विचिकित्सा। यह उस हिचकिचाहट की ओर संकेत करता है जिसका रुझान सत्य के विषय में अयथार्थ निर्णय लेने की ओर अधिक है। यह उपद्रवी है क्योंकि यदि यह अनिश्चितता का रुझान यथार्थ की ओर होता, तो वह रचनात्मक कार्यों में संलग्न होने में परिणत हो सकता था।

(6) क्लिष्ट दृष्टि  अपने आलम्बनों को एक विशेष प्रकार से देखती है। वह अपने आलम्बनों की तलाश करती है और, बिना स्वयं जाँचे, परखे, या सोच विचार किए, उन्हें बहुमूल्य संपत्ति की भाँति पकड़े रखती है। दूसरे शब्दों में, उसकी केवल अपने आलम्बनों के प्रति एक मनोदृष्टि है। वह वैचारिक बोध के दौरान ही, और या तो अध्यारोपण या फिर खंडन के साथ, प्रकट होती है। तथापि, चित्त संस्कारों के रूप में वह स्वयं कुछ भी अध्यारोपित या खंडित नहीं करती।

पाँच प्रकार की क्लिष्ट दृष्टियाँ होती हैं। असंग ने समझाया कि प्रत्येक दृष्टि अशांतकारी, भ्रमित वैचारिक बोध है। वे उस वैचारिक बोध की उपश्रेणियाँ नहीं हैं जो विषयनियत मानसिक कारक है। इसका कारण यह है कि वे असंग के निर्धारक मानसिक कारक के मानदंड पर खरा नहीं उतरता कि वे अपने आलम्बनों को उचित रूप से समझते हैं।

इसके अतिरिक्त, असंग ने समझाया कि इन पाँचों भ्रमित दृष्टिकोणों में से प्रत्येक में निम्नलिखित सम्मिलित हैं:

  • भ्रमित दृष्टिकोण के लिए सहनशीलता, क्योंकि इसमें यह विवेक नहीं है कि यह दुःखदायी है
  • उसके प्रति आसक्ति, क्योंकि वह इस बात को नहीं मानता कि वह भ्रमित है 
  • इसे विवेकशील समझना
  • एक वैचारिक ढाँचा जिसे वह मज़बूती से धारण करता है
  • अनुमान कि यह सही है।

पाँच क्लिष्ट-दृष्टियाँ

(1) सत्कायदृष्टि  (अनित्य संग्रह का भ्रामक दृश्य) हमारे अपने संसार को विरामहीन रखने के पाँच स्कन्धों में से किसी अनित्य संग्रह का अनुसरण करके मज़बूती से जकड़े हुए किसी संलग्न वैचारिक संग्रह (मनोदृष्टि) को अध्यारोपित (प्रक्षेपित) करने के आधार के रूप में उसे बाँध लेता है। वैचारिक संग्रह "मैं" या "मेरा" का है। यह किसी और के स्कन्धों पर सकेंद्रित नहीं होता। यहाँ "मैं" या "मेरा" यद्यपि पारंपरिक रूप से विद्यमान किसी आलम्बन का नहीं, अपितु उन मिथ्या "मैं" या "मेरा" का उल्लेख करता है जो किसी भी यथार्थ आलम्बन के अनुरूप नहीं है। यह मिथ्या "मैं" या तो अपरिवर्ती एकाश्मी हो सकता है जिसका स्कन्धों से पृथक एक अस्तित्व है, या फिर वह एक स्वावलम्बी रूप से ज्ञेय "मैं" हो सकता है। इस प्रकार, सत्कायदृष्टि पारम्परिक "मैं" के अस्तित्व की अनभिज्ञता पर आधारित है और वह आत्मग्राह का सहवर्ती है। यह आत्मग्राह ही है जो मिथ्या "मैं" या "मेरा" को प्रक्षेपित करता है, न कि स्वयं सत्कायदृष्टि को।

कुछ अधिक विस्तार से यदि कहा जाए तो, सत्कायदृष्टि एक अशांतकारी, क्लिष्ट वैचारिक बोध है जो स्कन्धों के संग्रह  को "मैं", अर्थात मिथ्या "मैं", के समरूप मानकर उसे अपनाने का प्रयास करता है। या फिर यह उन्हें "मेरा" के रूप में अपना लेता है, अर्थात मिथ्या "मैं" से पूर्ण रूप से पृथक, जैसे उनके धारक, नियामक, अथवा उनके भोक्ता के रूप में। यहाँ "अपनाने" का अर्थ है एक या अधिक अध्यारोपित श्रेणियों के द्वारा अपने आलम्बन को वैचारिक रूप से ग्रहण करना तथा इन श्रेणियों के अध्यारोपण को सही मानना। ये वैचारिक श्रेणियाँ उस वैचारिक संग्रह को गठित करती हैं जिसे यह भ्रमित दृष्टिकोण दृढ़तापूर्वक ग्रहण करता है। यहाँ, अध्यारोपित श्रेणियों में असंभव मिथ्या "मैं" एवं "सम्पूर्ण रूप से समरूप (एक)" या "सम्पूर्ण रूप से पृथक (अनेक)" दोनों ही समाविष्ट हैं।

इसके अतिरिक्त, सत्कायदृष्टि हमारे एक या अधिक स्कन्धों को शेष सभी स्कन्धों से पृथक करके, उनका अनुसरण कर उन्हें दृढ़तापूर्वक जकड़ लेती है। अशांतकारी, क्लिष्ट वैचारिक बोध के रूप  में यह इस पृथक्करण को एक निश्चितता प्रदान करती है। अनुचित विवेचन (विसंगतिपूर्वक ध्यान देना) भी इस भ्रमित दृष्टिकोण का सहचर होता है और यह वह मानसिक कारक है जो वास्तव में स्कंध या स्कन्धों को अध्यारोपित श्रेणियों पर संकेंद्रित मानता (विचार करता) है।

त्सोंगखपा के अनुसार, सत्कायदृष्टि वास्तव में स्कन्धों पर ध्यान केंद्रित नहीं करती, जैसा कि वसुबंधु और असंग बताते हैं। उनकी गेलुग प्रासंगिक प्रणाली के अनुसार, यह पारंपरिक "मैं" पर केंद्रित है, जो हमारे अनित्य संग्रह पर आरोपित है। इसके अलावा, उस मिथ्या "मैं" का भी, जिसे वह दृढ़तापूर्वक जकड़ती है, एक सही अर्थों में स्थापित अस्तित्व है।

(2) अंतग्राहदृष्टि  (अतिवादी दृष्टिकोण) हमारे संसार को विरामहीन रखने के पाँच स्कन्धों को एक शाश्वतवादी या शून्यवादी दृष्टिकोण से परखता है। त्सोंगखपा ने अपने ग्रन्थ मार्गक्रम की भव्य प्रस्तुति  (Grand Presentation of the Graded Stages of the Path) में यह स्पष्ट करते हुए समझाया कि अंतग्राहदृष्टि एक अशांतकारी, क्लिष्ट वैचारिक बोध है जो पारंपरिक "मैं" पर केंद्रित है, जिसका पिछली क्लिष्ट-दृष्टि ने अनित्य-संग्रह के साथ तादात्म्य स्थापित किया था। यह मानता है कि पारंपरिक "मैं" के पास यह तादात्म्य या तो स्थायी रूप में रहेगा, या फिर हमारे आने वाले जन्मों में उसकी कोई निरंतरता नहीं रहेगी। वसुबंधु के अनुसार, अंतग्राहदृष्टि  यह मानती है कि संसार को विरामहीन  रखने के पाँच स्कन्ध या तो सर्वकालिक हैं या फिर मरणोपरांत पूर्णतया समाप्त होने वाले हैं, जिनकी हमारे आगामी जीवन में कोई निरंतरता नहीं रहेगी।

(3) किसी भी क्लिष्ट-दृष्टिकोण को सर्वोच्च मानना  (मिथ्या सर्वोच्चता का दृष्टिकोण) हमारी किसी भी क्लिष्ट-दृष्टि एवं उसके उस संसार को विरामहीन रखने वाले स्कन्धों को सर्वोच्च मानता है जिससे वह क्लिष्ट-दृष्टिकोण उत्पन्न होता है। त्सोंगखपा ने निर्दिष्ट किया कि हो सकता है कि जिस दृष्टिकोण को यह अशांतकारी, क्लिष्ट वैचारिक बोध लक्षित करता है, वह सत्कायदृष्टि, अंतग्राहदृष्टि, अथवा मिथ्यादृष्टि हो। वसुबंधु के अनुसार, हो सकता है यह क्लिष्ट अभिवृत्ति संसार को विरामहीन रखने वाले स्कंधों को इस आधार पर, कि उपरोक्त तीन क्लिष्ट-दृष्टियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं, विसंगत भाव से परखती हो कि वे स्वरूपतया सम्पूर्ण रूप से शुद्ध हैं या वास्तविक आनंद के स्रोत हैं।

(4) क्लिष्ट नैतिकता अथवा आचरण को सर्वोच्च मानने वाला दृष्टिकोण  किंचित क्लिष्ट नैतिकता, किंचित क्लिष्ट आचरण तथा इन क्लिष्ट नैतिकता एवं आचरणों को जन्म देने वाले संसार को विरामहीन रखने वाले स्कन्धों को शुद्ध, मुक्त, और निर्णायक रूप से निष्पादित मानता है। यह क्लिष्ट दृष्टिकोण सत्कायदृष्टि, अंतग्राहदृष्टि, अथवा विकृत दृष्टिकोण को धारण करने से व्युत्पन्न होती है। वह क्लिष्ट नैतिकता एवं आचरण को एक ऐसा मार्ग मानती है जो नकारात्मक कार्मिक शक्ति (नकारात्मक सम्भाव्यताओं) के प्रभाव से हमें शुद्ध करती है, अशांतकारी मनोभावों से विनिर्मुक्त करती है, तथा निश्चित रूप से संसार (अनियंत्रित ढंग से होने वाले पुनर्जन्मों) से छुटकारा दिलाती है। यह उनके द्वारा अनुशासन-बद्ध किए गए संसार बढ़ाने वाले स्कन्धों को शुद्ध, विनिर्मुक्त, एवं क्लिष्ट नैतिकता और आचरण के द्वारा निश्चित रूप से निष्पादित किया गया मानती है।

त्सोंगखपा ने समझाया कि क्लिष्ट नैतिकता नगण्य आचरण शैलियों को त्यागना है, जो त्याग सरासर निरर्थक है, जैसे अपनी दोनों टाँगों पर खड़ा होना। क्लिष्ट आचरण है किन्हीं सतही कोटि की वेशभूषा एवं शैली इत्यादि को अपनाना, जिन शैलियों को धारण करना सरासर निरर्थक है, यथा संन्यासियों द्वारा कड़ी धूप में एक पैर पर वस्त्र-विहीन खड़े होने का कठोर अभ्यास।

(5) मिथ्यादृष्टि  (अवास्तविक धारणा) यथार्थ कारण, यथार्थ कार्य, यथार्थ क्रियापद्धति, अथवा विद्यमान परिघटना को अयथार्थ या अविद्यमान मानती है। तो, यह तथ्य के प्रत्याख्यान से युक्त है, जैसे, रचनात्मक व्यवहार और विनाशकारी व्यवहार सुख एवं दुःख के अनुभवों के वास्तविक कारण हैं। यह प्रत्याख्यान या तो इस तथ्य का हो सकता है कि सुख और दुःख सकारात्मक एवं नकारात्मक कार्मिक शक्तियों के विपाक होने के कार्य या परिणाम हैं। यह इस तथ्य का हो सकता है कि पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म की धारणा यथार्थ है; या यह इस तथ्य का हो सकता है कि मोक्ष एवं ज्ञानोदय की प्राप्ति विद्यमान है।

त्सोंखपा और गेलुग-प्रासंगिक विचारधारा के अनुसार, मिथ्यादृष्टि अयथार्थ कारण, अयथार्थ कार्य, अयथार्थ क्रियापद्धति, अथवा अविद्यमान परिघटना को यथार्थ या विद्यमान भी मानती है। तो इस प्रकार वह इस अध्यारोपण से युक्त हो सकती है कि, उदाहरण के लिए, प्रधान अथवा हिंदू भगवान ईश्वर सीमित जीवों के कारण या सृजनकर्ता हैं।

बीस उपक्लेश

काम, द्वेष, तथा मोह की तीन विषाक्त मनोदशाएँ इन बीस उपक्लेशों की जननी हैं।  

  1. क्रोध  द्वेष का अंग है तथा हानि पहुँचाने की कटु प्रेरणा है।
  2. उपनाह  द्वेष का भाग है और उसका अर्थ है दुर्भावना बनाए रखना। यह प्रतिशोध की भावना तथा हमें या हमारे प्रियजनों को पहुँचे नुकसान के लिए प्रतिकार करने के उद्देश्य को बनाए रखता है।
  3. म्रक्ष  मोह का भाग है और यह हमारे अवद्य कर्मों को दूसरों से या स्वयं अपने ही छिपाना एवं स्वीकार न करना है। ये स्वाभाविक अवद्य कर्म हो सकते हैं, जैसे मच्छर को मारने का विनाशकारी कर्म। विकल्पतः, वे निषिद्ध अवद्य कर्म हो सकते हैं - वे तटस्थ कर्म जिन्हें बुद्ध ने कुछ लोगों के लिए वर्जित किया था और जिन्हें नहीं करने का हमने संकल्प लिया था, जैसे पूर्णाभिषिक्त भिक्षु या भिक्षुणियों का दोपहर बाद भोजन करना।
  4. प्रदाश  क्रोध का एक भाग है और घृणा और विद्वेष के आधार पर अपमानजनक बातें करने के ध्येय का नाम है।
  5. तृष्य  क्रोध का अंग है और वह अशांतकारी मनोभाव है, स्वयं को प्राप्त लाभ अथवा आदर के प्रति अति-आसक्ति के कारण दूसरों के सद्गुणों या श्रेय को सहन करने में असमर्थ होना। अतः, तृष्य अंग्रेज़ी शब्द envy के समान नहीं है। Envy में इन सद्गुणों और श्रेय प्राप्त करने के अतिरिक्त प्रायः दूसरों को इनसे वंचित रखने की इच्छा भी संयुक्त है।
  6. मात्सर्य  कामना का अंग है और भौतिक लाभ या सम्मान के प्रति आसक्त होना तथा किसी भी संपत्ति पर अपनी सम्प्रभुता को न छोड़ना, उससे चिपक जाना और दूसरों के साथ न बाँटने और न ही स्वयं उपयोग करने की इच्छा रखने का नाम है। अतः, मात्सर्य अंग्रेज़ी शब्द stinginess से कुछ अधिक है। Stinginess केवल हमारे पास जो वस्तु है उसे किसी के साथ बाँटने या उसका स्वयं उपयोग करने की इच्छा न होना ही है। इसमें लोलुपता का भाव नहीं है जो मात्सर्य में है।
  7. माया  कामना एवं मोह दोनों ही श्रेणियों में आती है। माया वह है जो हमारे भौतिक लाभ और हमें प्राप्त सम्मान के प्रति अत्यधिक आसक्ति, तथा दूसरों को धोखा देने की इच्छा से उत्प्रेरित होकर उन सद्गुणों का दिखावा करना या उनसे युक्त होने का दावा करना है जो वास्तव में हमारे पास नहीं है।
  8. शाठ्य  कामना तथा मोह दोनों का ही अंग है। शाठ्य हमारे भौतिक लाभ और हमें प्राप्त सम्मान के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण दूसरों से अपने दोष एवं कमियों को छिपाने की मनोदशा है।  
  9. मद  कामना का अंग है। मद चित्त की वह अवस्था है जिससे वह लम्बे जीवनकाल, अथवा स्वस्थ, युवा, धनी आदि होने के अन्य सांसारिक वैभव के लक्षणों से संतुष्ट या आमोदित होता है।
  10. विहिंसा  क्रोध का अंग है और इसके तीन स्वरुप हैं:
    • उपद्रव्यता  करुणा का क्रूर अभाव है जिससे हम दूसरों को अनिष्ट या हानि पहुँचाना चाहते हैं।
    • आत्महनन  आत्म-प्रेम का निर्दयी अभाव है जिससे हम स्वयं को अनिष्ट या हानि पहुँचाना चाहते हैं।
    • विकृत आनंद का अनुभव करना  दूसरों के दुःख को देखकर या सुनकर एक प्रकार के दया-विहीन सुख का अनुभव करना है।
  1. आह्रीक्य  (गौरव की भावना न होना) इन तीनों विषाक्त भावनाओं का अंग हो सकता है। यह विनाशकारी व्यवहार से स्वयं को रोकने का प्रयास न करने की भावना है जिसके कारण हमारे कर्म स्वयं हमारे ऊपर किस प्रकार प्रतिबिंबित होते हैं, इस बात पर हम ध्यान नहीं देते। वसुबंधु के अनुसार इस मानसिक कारक का अर्थ है मूल्यों के बोध का अभाव। यह सकारात्मक गुणों या उनसे संपन्न लोगों के प्रति सम्मान का अभाव है।
  2. अनपत्राप्य  इन तीनों विषाक्त मनोभावों में से किसी का भी अंग हो सकता है। हमारे कर्म दूसरे व्यक्तियों पर जिस प्रकार प्रतिबिंबित होते हैं, इस बात का ध्यान न होने के कारण हमारे भीतर विनाशकारी व्यवहार करने से स्वयं को रोकने की समझ के अभाव को अनपत्राप्य कहते हैं। ऐसे व्यक्तियों में हमारा परिवार, शिक्षक, सामाजिक समूह, जातीय समूह, धार्मिक व्यवस्था, या देशवासी सम्मिलित हो सकते हैं। वसुबंधु के लिए, इस मानसिक कारक का अर्थ है नैतिकता का अभाव, और यह ढिठाई से नकारात्मक होने से स्वयं को न रोकना है। यह और पिछला मानसिक कारक दोनों ही चित्त के सभी विनाशकारी मानसिक स्थितियों के सहचर हैं।
  3. स्त्यान  मोह का अंग है। यह काया एवं चित्त में भारीपन अनुभव कराता है, जो चित्त को धूमिल, अनुपयोगी बना देता है, और यह अपने आलम्बन के संज्ञानात्मक स्वरूप को उत्पन्न करने में या उस आलम्बन को उचित रूप से ग्रहण करने में असमर्थ होता है। जब चित्त धुंध जैसी दशा के कारण वास्तव में स्पष्ट रूप से सोच नहीं पाता यह मानसिक गतिमन्दता है।
  4. औद्धत्य  कामना का अंग है। यह वह मानसिक कारक है जिसके कारण हमारा ध्यान अपने आलम्बन से दूर चला जाता है और कुछ ऐसे आकर्षक विषयों को याद करने या उनके बारे में सोचने लगता है जिन्हें हमने पहले अनुभव किया है। इस प्रकार, यह हमारे मन की शांति को नष्ट करने का कारण बनता है।
  5. आश्रद्ध्य  मोह का अंग है और इसके तीन रूप हैं जो किसी तथ्य को सत्य मानने के तीन रूपों के विपरीत हैं।
    • किसी ऐसे तथ्य पर अविश्वास करना जो कारण पर आधारित हो, जैसे स्वभावजन्य कार्य-कारण पर अविश्वास करना। 
    • किसी ऐसे तथ्य पर अविश्वास करना, जैसे शरणागति के त्रिरत्नों के सद्गुण, जो हमारे मन को अशांतकारी मनोभावों और मनोवृत्तियों से अव्यवस्थित और दुःखी कर दे। 
    • किसी ऐसे तथ्य पर अविश्वास करना, जैसे हमारी मोक्ष-प्राप्ति की संभाव्यता के अस्तित्व पर, ताकि हमें इसमें कोई रूचि ही न रहे और न ही उसे प्राप्त करने की आकांक्षा।
  1. कौसीद्य  मोह का अंग है। आलस्य के कारण, निद्रा, शयन, विश्राम करने आदि के सुखों से चिपके रहने के कारण मन बहिर्मुखी होकर किसी भी रचनात्मक आलम्बन में संलग्न नहीं होता है। इसके तीन प्रकार हैं:
    • मंदता एवं टाल-मटोल में समय बिताना, तत्काल कुछ रचनात्मक करने का मन न करना और उसे बाद के लिए टाल देना क्योंकि संसार की अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाली समस्याओं के प्रति उदासीनता, निष्क्रिय रहने के सुख से बंध जाने, या भागकर बच निकलने के एक बहाने के रूप में निद्रा की उत्कट इच्छा होने के कारण। 
    • नकारात्मक या तुच्छ गतिविधियों या आलम्बनों के प्रति लगाव, जैसे द्यूत, मद्यपान, मित्र जो हम पर बुरा प्रभाव डालते हैं, पार्टियों में जाना, इत्यादि। 
    • निराशा और अपर्याप्तता की भावनाएँ
  1. प्रमाद  (असावधानी, दुस्साहस)। यह काम, क्रोध, मोह, अथवा कौसीद्य पर आधारित प्रमाद, चित्त की ऐसी अवस्था है जिसमें वह किसी भी रचनात्मक कार्य में प्रवृत नहीं होना चाहता और न ही भ्रम से दूषित गतिविधियों से बचना चाहता है। यह कार्यों को गंभीरता से न लेने और हमारे व्यवहार के परिणामों पर ध्यान न देने वाली स्थिति है।  
  2. मुषितस्मृतिता । उस आलम्बन के स्मरण पर आधारित जिसके प्रति हमारे अशांतकारी मनोभाव या मनोवृत्ति है, मुषितस्मृतिता हमारे ध्यान के आलम्बन को खो देना है जिससे वह उस अशांतकारी वस्तु की ओर भटक जाए। ध्यान के आलम्बन की विस्मृति अथवा भुलक्कड़पन मानसिक विचलन का आधार है।
  3. असम्प्रजन्य  एक अशांतकारी क्लिष्ट वैचारिक बोध है जो काम, क्रोध, या मोह से सम्बंधित है जो, उचित और अनुचित के सटीक ज्ञान के अभाव में, हमें कायिक, वाचिक, अथवा मानसिक कार्यों में संलग्न कराने का कारण बनता है। अतः हम अपने अनुचित व्यवहार को ठीक करने या उससे बचने की योजना नहीं बनाते।
  4. विक्षेप  काम, क्रोध, या मोह का अंग है। यह वह मानसिक कारक है जो, इन तीन विषाक्त मनोभावों में से किसी के भी कारण हमारे चित्त को अपने ध्यान के आलम्बन से विचलित कराता है। यदि हम कामना के कारण विचलित हो जाते हैं, तो यह अनिवार्य नहीं है कि हमारे कामालम्बन से हम पहले से ही अभिज्ञ हों, जैसे औदित्य की स्थिति में होता है।

चार अनियत चित्त संस्कार

असंग ने चार प्रकार के मानसिक कारकों को सूचीबद्ध किया है जिनकी नैतिक स्थिति परिवर्तनशील है। वे कुशल, अकुशल, या अव्यकृत हो सकते हैं, जो उस बोध की नैतिक स्थिति पर निर्भर करता है जिसके साथ वे पाँच समनुरूप विशेषताएँ सांझा करते हैं।

  1. सुप्ति  या निद्रा  मोह का अंग है। इन्द्रियजन्य बोध से परे होना ही निद्रा है, जिसमें मान्द्यता, दुर्बलता, थकान, और मानसिक अंधकार की कायिक भावनाएँ संलक्षित होती हैं। यह हमारे क्रिया-कलापों पर विराम डालती है। 
  2. विप्रतिसार  मोह का अंग है। यह वह मानसिक स्थिति है जिसमें हम किसी भी कार्य को दोहराना नहीं चाहते, चाहे वह उचित हो या अनुचित, जिसे हमने पहले किया हो अथवा किसी और ने हमसे कराया हो। 
  3. वितर्क  वह मानसिक कारक है जो किसी भी वस्तु को स्थूलतः जाँचता है, जैसे कि यह पता लगाना कि क्या किसी भी पृष्ठ पर त्रुटियाँ हैं।
  4. विचार  वह मानसिक कारक है जो विशिष्ट विस्तृत सूचना की बारीकी से छानबीन करता है।

मानसिक कारक जो उपरोक्त श्रेणियों में नहीं आते

क्योंकि सत्यग्राह  अपने आलम्बन पर अस्तित्व की असंभव विधा को अध्यारोपित करता है, यह न तो मूलभूत है और न ही मानसिक कारक है, यद्यपि यह उन दोनों का सहवर्ती हो सकता है। इसके अतिरिक्त, चूँकि यह मानसिक कारक नहीं है, यह क्लिष्ट मनोभाव या अभिवृत्ति भी नहीं है।

गेलुग-प्रासंगिक व्याख्या के अनुसार, एक आर्य की शून्यता के निर्वैचारिक बोध को छोड़कर, सत्यग्राह वैचारिक तथा निर्वैचारिक बोध के सारे क्षणों से संलग्न होता है। इसके अतिरिक्त, यह उस क्षण से संलग्न नहीं होता है जब प्रयोग-मार्ग के व्यक्ति, शून्यता के निर्वैचारिक बोध-युक्त दृश्य-मार्ग को प्राप्त करने के पहले, शून्यता के वैचारिक बोध को प्राप्त कर लेता है। निर्वैचारिक इन्द्रियजन्य एवं मानसिक बोध के दौरान सत्यग्राह प्रकट नहीं होता। जेत्सुनपा ग्रंथों के अनुसार, वह एक अवचेतन बोध के रूप में विद्यमान रहता है, जो तथापि एक प्रकार से अस्तित्व के बारे में बोधवान होने का स्वरुप है। पाँचेन ग्रंथों के अनुसार वह केवल एक वासना के रूप में ही विद्यमान है, जो किसी आलम्बन के बोध का स्वरुप नहीं है अपितु एक विप्रयुक्तसंस्कार है। ग़ैर-गेलुग मध्यमक प्रस्तुतियों के अनुसार, यद्यपि सत्यग्राह के अभ्यास निर्वैचारिक इन्द्रियजन्य एवं मानसिक बोध के दौरान विद्यमान होते हैं, परन्तु उपादान विद्यमान नहीं होता। कर्म काग्यू अभिकथनों के अनुसार, वैचारिक बोध के पहले क्षण के दौरान भी सत्यग्राह विद्यमान नहीं होता।

इसी तरह, शून्यता में पूर्ण रूप से समाहित होने का ज्ञान  एवं अनुप्राप्तवन्ति ज्ञान  न तो प्राथमिक है और न ही चित्त संस्कार, यद्यपि वे दोनों के सहवर्ती हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे केवल अपने आलम्बनों के प्रति सचेतन ही नहीं हैं, अपितु, वे उनके सत्यसिद्ध होने का खंडन भी करते हैं।

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