संकल्पित बोधिचित्त के लिए अभ्यास

प्रवृत्त और व्यवहृत बोधिचित्त

बोधिसत्व वे होते हैं जो बोधिचित्त युक्त होते हैं – जिनका हृदय पूरी तरह दूसरों के प्रति और जितना अधिक हो सके दूसरों की भलाई करने के उद्देश्य से ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए समर्पित होता है। बोधिचित्त के दो स्तर होते हैं:

  1. प्रवृत्त
  2. व्यवहृत

प्रवृत्त बोधिचित्त में अपने दोषों पर विजय पाने और सभी की भलाई करने के लिए अपनी क्षमताओं को विकसित करने की प्रबल इच्छा होती है। व्यवहृत बोधिचित्त का अर्थ होता है इस उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक अभ्यासों को करना और उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक कर्मों को करने से बचने के लिए बोधिसत्व संवर धारण करना। इन दोनों स्तरों के बीच का अंतर डॉक्टर बनने की इच्छा रखने और डॉक्टर बनने के लिए किसी चिकित्सा विद्यालय में वास्तव में दाखिला लेने जैसा होता है।

केवलमात्र प्रवृत्त और संकल्पित बोधिचित्त

हम किसी विशेष समारोह में शामिल होने के परिणामस्वरूप बोधिचित्त की अवस्था को प्राप्त करने के लिए के लिए प्रवृत्त हो सकते हैं। लेकिन इस प्रकार प्रवृत्त होने का मतलब अनिवार्य रूप से बोधिसत्व संवर लेना नहीं है।

प्रवृत्त बोधिचित्त के दो स्तर होते हैं:

  1. दूसरों की भलाई के लिए बुद्धत्व प्राप्त करने की केवलमात्र इच्छा रखना।
  2. यह संकल्प लेना कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने तक हम इस इच्छा को नहीं त्यागेंगे।

संकल्पित बोधिचित्त की अवस्था में हम उन पाँच कृत्यों का अभ्यास करने का व्रत लेते हैं जो किसी भी स्थिति में हमारे संकल्प को विचलित न होने देने में सहायक होते हैं। केवल उस अवस्था को प्राप्त करने की इच्छा विकसित करने में यह प्रतिज्ञा शामिल नहीं होती है। इनमें से पहले चार अभ्यास इस जीवनकाल में हमारे बोधिचित्त संकल्प को क्षीण न होने देने में सहायक होते हैं। पाँचवां अभ्यास इस बात में सहायता करता है कि भविष्य के जन्मों में हमारा संकल्प कमज़ोर न हो।

इस जन्म में बोधिचित्त लक्ष्य को क्षीण न होने देने में सहायक चार अभ्यास

  1. हर दिन और हर रात बोधिचित्त की प्रेरणा से होने वाले लाभों को स्मरण करते रहना। जिस प्रकार अपने बच्चों की देखभाल करने की आवश्यकता होने पर हम तुरन्त अपनी थकान को भूल जाते हैं और अपनी पूरी ऊर्जा को एकजुट कर लेते हैं, वैसे ही जब बोधिचित्त ही हमारे जीवन की मूल प्रेरणा हो तो हम अपनी सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करके अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करते हैं।
  2. प्रतिदिन तीन बार और हर रात को तीन बार अपने हृदय को ज्ञानोदय प्राप्ति और दूसरों की भलाई की ओर पुनःलक्षित करके इस प्रेरणा को दोहराना और उसे पुष्ट करना।
  3. ज्ञानोदय प्राप्ति के लक्ष्य को पुष्ट करना – सकारात्मक बल और गहन बोध के नेटवर्क को विकसित करना ( पुण्य और गहन बोध संचित करना)। यानी, जितना अधिक प्रभावी ढंग से सम्भव हो सके, दूसरों की सहायता करना, और जितना अधिक सम्भव हो सके, यथार्थ के गहन बोध के साथ दूसरों की सहायता करना।
  4. किसी की भी सहायता करने का प्रयास करने से कभी विमुख न होना, या कम से कम सहायता कर पाने की इच्छा रखना, भले ही उस व्यक्ति का स्वभाव कितना ही बुरा क्यों न हो।

भविष्य के जन्मों में बोधिचित्त लक्ष्य को अपनी दृष्टि से ओझल न होने देने के लिए अभ्यास

अभ्यास के पाँचवें बिन्दु का सम्बंध चार प्रकार के बुरे व्यवहार (चार “कलंक” कृत्यों) से अपने आप को मुक्त करना और उसके स्थान पर चार प्रकार के अच्छे व्यवहार (चार “शुद्ध” कृत्यों) को करने से होता है। नीचे बताए गए चार जोड़ों में पहले प्रकार का व्यवहार बुरे प्रकार का व्यवहार है जिसे हम करना बन्द करने का प्रयास करते हैं और दूसरा व्यवहार अच्छा व्यवहार है जिसे हम अपनाने का प्रयास करते हैं।

  1. कभी भी अपने आध्यात्मिक गुरुजन, माता-पिता, या त्रिरत्नों के साथ छल के व्यवहार को बन्द करना। बल्कि हमेशा उनके साथ ईमानदारी का व्यवहार करना, विशेष तौर पर हमारी प्रेरणा और दूसरों की सहायता करने के हमारे प्रयासों की दृष्टि से ईमानदारी का व्यवहार करना।
  2. कभी भी बोधिसत्वों में दोष ढूँढने या उनका तिरस्कार करने को बन्द करना। बल्कि, चूँकि केवल बुद्धजन ही वास्तव में निश्चयपूर्वक बता सकते हैं कि कौन वास्तव में बोधिसत्व हैं और कौन नहीं, इसलिए सभी के प्रति शुद्धता का भाव रखना और उन्हें अपने गुरुओं के समान सम्मान देना। यदि कुछ लोग असभ्य और अरुचिकर व्यवहार करते हैं तो वे भी हमें इस बात की शिक्षा देते हैं कि हम वैसा व्यवहार न करें।
  3. ऐसे व्यवहार को बन्द करना जिसके कारण दूसरों को अपने किए हुए किसी सकारात्मक कार्य के लिए पश्चाताप करना पड़े। यदि कोई व्यक्ति हमारे लिए कोई पत्र टाइप करते समय बहुत सारी त्रुटियाँ करे और हम उस पर क्रोधित होकर उसे डाँटें तो हो सकता है कि वह व्यक्ति फिर कभी हमारी सहायता करने के लिए तैयार न हो। बल्कि दूसरों को सकारात्मक कर्म करने के लिए प्रेरित करना, और यदि वे हमारी बात सुनने के लिए तत्पर हों, तो उन्हें अपने दोषों को दूर करने और कभी की और अधिक भलाई करने की दृष्टि से अपनी क्षमताओं को विकसित करने के लिए प्रेरित करना।
  4. दूसरों के साथ अपने व्यवहार में पाखंड और दिखावटीपन के व्यवहार को बन्द करना, यानी, अपने दोषों को छिपा कर ऐसे गुणों को प्रदर्शित करना जो हमारे भीतर नहीं हैं। बल्कि दूसरों की सहायता करने का उत्तरदायित्व लेना, हमेशा अपनी कमियों और योग्यताओं को ईमानदारी और स्पष्टता से प्रस्तुत करना। हम वास्तव में जितना कर पाएं उससे अधिक करने का वादा करके दूसरों के मन में झूठी आशा जगाना एक बहुत ही क्रूर व्यवहार है।
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