गैर-बौद्ध देशों में बौद्ध धर्म की साधना

हम अक्सर यह सोचते हैं कि हम अपने पूर्वजों की तुलना में कहीं अधिक व्यस्त और तनाव भरा जीवन जीते हैं; गैर-बौद्ध देशों में हम लोग यह भी सोचते हैं कि सांस्कृतिक भिन्नताओं के कारण बौद्ध धर्म के आने से हमारे लिए विशेष प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती हैं। यहाँ हम चर्चा करेंगे कि क्या कुछ बदला है, क्या कुछ जैसे का तैसा है, किस तरह हम समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, और कौन सी ऐसी शाश्वत परम्पराएं हैं जो हर युग और हर संस्कृति के अनुरूप हैं।

क्या आधुनिक युग में बौद्ध साधकों के सामने कोई विशेष कठिनाइयाँ हैं?

क्या आधुनिक विश्व में बौद्ध साधना से जुड़ी कोई ऐसी विशेष बात है जो और कहीं भी किसी भी युग में बौद्ध धर्म की साधना से अलग हो? क्या हम कुछ विशेष हैं? यदि हममें कुछ विशेष है भी तो उसे जानने में हमारी रुचि भला क्यों होनी चाहिए?

इसके कई कारण हो सकते हैं। हो सकता है कि कुछ लोगों के सामने कुछ ऐसी कठिनाइयाँ हों जो उनके विचार से विशेष तौर पर हमारे युग से ही जुड़ी हों, और वे जानना चाहते हैं कि उन कठिनाइयों का मुकाबला कैसे करें। कुछ दूसरे लोग कोई बहाना ढूँढ रहे हो सकते हैं ताकि उन्हें उतनी कठोर साधना न करनी पड़े जैसी लोगों ने दूसरे कालखंडों में की है; ऐसे लोग सौदा करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उन्हें सस्ते में ही ज्ञानोदय की प्राप्ति हो जाए। इस बात को दरकिनार करते हुए अब हम और अधिक गम्भीरता से विचार करें कि क्या हमारे सामने किसी प्रकार की विशेष कठिनाइयाँ हैं।

यदि हम बौद्ध मार्ग से जुड़े हैं तो सबसे बुनियादी बात यह है कि हमें इस बोध को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए कि हम किसी भी दृष्टि से विशेष नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर, हम यह नहीं कह सकते हैं कि आधुनिक विश्व में वर्तमान समय में क्रोध, लोभ या स्वार्थपरायणता दुनिया के दूसरे हिस्सों के लोगों, या पुराने समय के लोगों से अधिक है। दुनिया भर में और हर युग में लोग उन्हीं अशांतकारी मनोभावों से जूझते आए हैं, इसलिए “वर्तमान” समय किसी भी दृष्टि से विशेष नहीं है।

कितना कुछ बदला है?

कुछ लोग तर्क देते हैं कि वर्तमान समय के हालात पहले से अलग हैं। उदाहरण के लिए, हम बहुत तनावपूर्ण जीवन जीते हैं। और हम बहुत व्यस्त रहते हैं। तो फिर क्या मध्य युग में या प्राचीन भारत में अपने खेतों में सोलह घंटे से अधिक समय तक परिश्रम और संघर्ष करने वाला किसान किसी दफ्तर में काम करने वाले हम लोगों से किसी भी दृष्टि से कम व्यस्त हुआ करता था? हो सकता है कि उनका काम अलग तरह का रहा हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि वे भी उतने ही व्यस्त थे। फिर गुफा मानवों के बारे में हम क्या कहें? उनके सामने कई तरह के तनाव और समस्याएं रही होंगी, जंगली जानवरों को लेकर, भोजन की तलाश करने की समस्या आदि। उन्हें भी कई तरह की चीजों का भय बना रहता था, बिजली गिरने का, बादलों के गर्जन-तर्जन का, और दूसरी कई ऐसी चीज़ों का जिन्हें वे समझ नहीं पाते थे। लोग हमेशा से ही भय और तनाव में जीते आए हैं, है न?

और गिल्टी प्लेग की महामारी के बारे में क्या कहा जाए? हम समझते हैं कि वर्तमान समय में हम तनाव और भय में जीते हैं, लेकिन क्या आप उस युग में जीने की कल्पना कर सकते हैं? इसलिए, मुझे नहीं लगता कि हम ऐसा कह सकते हैं कि हम इस दृष्टि से विशेष हैं कि हमारा जीवन बहुत व्यस्त और तनाव भरा है। हाँ, तनाव का स्वरूप अलग हो सकता है, हमारे काम-काज की दृष्टि से व्यस्तता का स्वरूप अलग हो सकता है। लेकिन जहाँ तक तनाव, चिंता, बहुत व्यस्त होने की बात है, यह तो हर समय और हर स्थान का किस्सा रहा है।

फिर आप यह कह सकते हैं कि हमारे समाज और संस्कृति में और बौद्ध धर्म की आपकी मान्यताओं के बीच कोई समानता नहीं है या अधिकांश आधारभूत मान्यताओं के बीच समानता नहीं है। इसलिए बौद्ध धर्म सचमुच हमारी संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है। किन्तु हम बौद्ध धर्म के प्रसार की दृष्टि से चीन के उदाहरण को देख सकते हैं क्योंकि चीन के लोग पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते थे। वे ऐसा सोचते थे कि लोग मृत्यु के बाद किसी तरह की प्रेतात्मा या आत्मा बन जाते हैं, और फिर उन पूर्वजों को पूजा जाता था। यह मान्यता पुनर्जन्म से बहुत अलग है, जिसके अनुसार पूर्वज खत्म हो जाते हैं। इस प्रकार चीनी लोगों को इन बुनियादी बौद्ध अवधारणाओं को समझने में काफी समय लगा। अब जब हमारे सामने इसी प्रकार की चुनौती आती है तो यह कोई नई बात नहीं है।

इस बात का बोध हासिल करना बहुत उपयोगी हो सकता है कि हम “विशेष” नहीं हैं। किशोरों या ऐसे लोगों के बारे में विचार करें जिन्हें किसी प्रकार की समस्या हो, हो सकता है कि उनके माता-मिता शराब पीने के आदी हो सकते हैं या और कोई समस्या हो सकती है। अक्सर उन्हें ऐसा लगता है कि यह समस्या अकेले उनके साथ ही है, और तब वह समस्या उनके लिए सचमुच बहुत बड़ी बन जाती है। यदि वे समझ सकें कि बहुत से ऐसे दूसरे लोग भी हैं जिन्हें उसी प्रकार की समस्या है, तब वे अपने आप को अकेला महसूस नहीं करते हैं। उन्हें ऐसा नहीं लगता कि वे अकेले उस समस्या से जूझ रहे हैं और तब वह समस्या उन्हें एक व्यापक संदर्भ में समझ आती है। इससे एक अलग दृष्टिकोण बनता है जिसके कारण समस्या के बारे में केवल “मैं, मैं, मैं” की दष्टि से सोचने के बजाए इसी प्रकार की समस्या से ग्रस्त दूसरे लोगों के प्रति करुणा भाव विकसित होता है।

इस प्रकार बौद्ध धर्म की दैनिक साधना तय करने की दृष्टि से सभी की समस्या एक जैसी ही है: हम जीवन की समस्याओं को नियंत्रित करने की दृष्टि से बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को किस प्रकार प्रयोग में लाएं? यह “मेरी” विशेष समस्या नहीं है, बल्कि पश्चिम जगत के उन सभी लोगों की समस्या है जो बौद्ध विधियों की अभ्यास साधना करना चाहते हैं।

आवश्यकता से अधिक विकल्पों का उपलब्ध होना

किन्तु हम इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते हैं कि आधुनिक युग में हमारे जीवन के सामने कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं। पुराने समय में लोगों के सामने बहुत कम भोजन और बहुत कम जानकारी उपलब्ध होने के कारण समस्या हुआ करती थी। प्रिंटिंग प्रैस के आविष्कार से पहले के समय में हाथ से लिखकर किसी बौद्ध ग्रंथ की प्रति तैयार करना बहुत ही सकारात्मक और उदारता का कार्य हुआ करता था। अपने इस योगदान से आप किसी ग्रंथ की एक दुर्लभ और बहुमूल्य प्रति उपलब्ध कराते थे ताकि दूसरे लोग उसे पढ़ और समझ सकें। तब केवल कागज़ और स्याही जुटा पाना भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आज हम बड़ी आसानी से किसी टैक्स्ट या लिंक को अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट कर सकते हैं!

हमारे सामने विशिष्ट चुनौती बहुत अधिक भोजन और बहुत अधिक सूचना के उपलब्ध होने की है। जब हमारे सामने बौद्ध धर्म के तीन सौ अलग-अलग “ब्रांड” उपलब्ध हों तो हम उनके बीच फर्क कैसे करें? यह एक बड़ी समस्या है, लेकिन इसका कोई जादुई समाधान नहीं है। यदि गूगल पर खोजने पर कोई चीज़ सबसे ऊपर आती है, तो केवल इतना होने का यह मतलब नहीं है कि वही सर्वश्रेष्ठ है या वह प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुरूप है। यह समझने के लिए कि क्या हमारे लिए सबसे अच्छा है, हमें बुद्धिमत्ता, विवेक और धैर्य से काम लेना चाहिए। हमारे लिए क्या सबसे उपयुक्त है यह तय करने के लिए हमें सभी चीज़ों की आज़माइश करनी चाहिए और फिर फैसला करना चाहिए।

फैशनपरस्त बौद्ध धर्म

मान लीजिए कि कुछ समय तक जाँच-परीक्षा करने के बाद हम अपने लिए किसी बौद्ध परम्परा, केंद्र और शिक्षक का चुनाव कर लेते हैं। फिर हमारे सामने एक दूसरी समस्या आती है: बौद्ध धर्म की अभ्यास साधना करने के अनेक स्तर हैं, और उसे अपने जीवन में लागू करने की भी बहुत सारी पद्धतियाँ हैं। तो फिर शुरुआत कहाँ से की जाए? एक बहुत ही सतही स्तर है जिससे हमारे भीतर कोई विशेष आन्तरिक बदलाव नहीं होता है। फिर एक गूढ़तर स्तर होता है जहाँ हम वास्तव में अपने आप को सुधारने के लिए इस न्यूनतम लक्ष्य के साथ कार्य करते हैं कि हम अपने जीवन को सुधारें और उसे बदतर होने से बचाएं। हम मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित करेंगे या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम स्वयं को कितना विकसित कर पाते हैं। हम सम्भवतः शुरुआत में ही इतने ऊँचे लक्ष्य निर्धारित नहीं कर सकते हैं। हममें से अधिकांश को उस स्तर पर इस बात का अनुमान तक नहीं होता है कि मुक्ति और ज्ञानोदय का क्या अर्थ है।

शुरुआत में बहुत से लोग सतही स्तर की ओर आकर्षित होते हैं, और इसलिए वे बाह्य चीज़ों पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसा कहने से मेरा आशय है कि उन्हें अपने गले या कलाई पर, या दोनों पर पहनने के लिए एक लाल धागा मिल जाएगा! वे माला या सुमिरनी धारण करने लगेंगे, और कभी-कभी कुछ प्रकार के उच्चार करने के लिए उसका उपयोग करेंगे। वे धूप-सुगंध और मोमबत्तियों की अच्छी खासी मात्रा जुटा लेंगे, ध्यानसाधना के लिए आवश्यक गद्दियाँ ले आएंगे, तिब्बती चित्र ले आएँगे, और अन्त में शायद वे किसी प्रकार के तिब्बती वस्त्र भी धारण करना शुरू कर देंगे। वे हॉलीवुड जैसी इस मंचसज्जा के बीच बहुत गम्भीर दृढ़ता के साथ बैठते हैं, किन्तु उन्हें इस बात का कोई इल्म नहीं होता कि उन्हें करना क्या है।

मुझे उस समय की घटनाएं याद हैं जब मैं पहली बार भारत गया था। यह वह दौर था जब हिप्पी संस्कृति अपने चरम पर थी और वहाँ पश्चिम जगत के लोगों की संख्या बहुत कम थी। लेकिन पश्चिम के जितने भी लोग वहाँ थे उनमें से अधिकांश ने पूरी तरह से असाधारण दिखने वाले तिब्बती वस्त्र पहन रखे थे, मेरी स्मृति में यह बात थोड़ी आलोचना की दृष्टि से ही अंकित है। मुझे यह सब तिब्बती लोगों के प्रति थोड़ा अपमानजनक लगा: ये पश्चिमवासी तिब्बतियों की नकल करते हुए ही दिखाई दे रहे थे। बाद में मैंने इसके बारे में उन तिब्बती भिक्षु से पूछा जिनके साथ मैं रह रहा था, कि तिब्बती परिधानों में घूमने वाले इन पश्चिमवासियों के बारे में उनकी क्या राय थी। उन्होंने बड़ा अच्छा जवाब दिया, “हमें लगता है कि उन्हें तिब्बती परिधान पसंद हैं।“ इस उत्तर में किसी तरह की आलोचना नहीं थी।

भले ही हम इसे आलोचना की दृष्टि से देखें या न देखें, केवल अपने वस्त्र बदलने या जप की माला और अभिमंत्रित धागे धारण करने मात्र से हमारे भीतर बहुत अधिक बदलाव नहीं होता है, क्या ऐसा होता है? आन्तरिक तौर पर इससे वास्तव में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इससे हमें कोई ज़्यादा आशीष नहीं मिल जाता है। हमारी बौद्ध साधना आन्तरिक होनी चाहिए।

आत्म-रूपान्तरण

हम किसी पारम्परिक बौद्ध समाज में रहते हों या किसी गैर-बौद्ध समाज में रहते हों, बौद्ध साधना के लिए अपने आप में सुधार करने की आवश्यकता होती है। हमें अपने आप को बदलना होता है, यह कोई ऐसा काम नहीं है जिसे कर्मकांडों की सहायता से किया जाता हो। किसी अनुष्ठान को सम्पादित करना सीखना या किसी विदेशी भाषा में हमें खुद को समझ में न आने वाले शब्दों को रट कर दोहराना आसान होता है। लेकिन इससे हमारा कायापलट नहीं होता है। हम फिर भी क्रोध करते हैं, हम फिर भी आसक्ति से मुक्त नहीं हो पाते हैं, और फिर भी हम अपने माता-पिता के साथ अच्छे सम्बंध नहीं रख पाते हैं। परम पावन दलाई लामा हमेशा कहते हैं कि ऐसे कर्मकांडों को करने से आप बिल्कुल भी प्रगति नहीं कर सकते हैं जिनके बारे में आपको कुछ मालूम ही न हो कि आप क्या कर रहे हैं।

नागार्जुन, आर्यदेव और भारत के सभी महान आचार्यों ने कहा है कि बौद्ध साधना का निष्कर्ष अपने चित्त को नियंत्रित करना है। इसका मतलब है कि सबसे पहले तो हमें शिक्षाओं को सीखना चाहिए, जिनमें सिखाया गया है कि हम अशांतकारी मनोभावों और समस्यामूलक स्थितियों से कैसे निपटें, और अपनी विभिन्न प्रकार की अनुभूतियों का विश्लेषण किस प्रकार करें। हम सजग बने रहते हैं ताकि हम शिक्षाओं को याद रखें और जब आवश्यकता हो तो उन्हें प्रयोग में ला सकें। इस प्रकार ये शिक्षाएं कम से कम हमें जीवन की सामान्य समस्याओं जैसे क्रोध, चिंता और घबराहट, रुग्णता, वृद्धावस्था और सम्बंधों से जुड़ी समस्याओं आदि को नियंत्रित करने में हमारी सहायता करेंगी।

इसलिए हमें अपने आप को बदलने की दृष्टि से आत्मसुधार और अपने व्यक्तित्व तथा जीवन के प्रति अपने बुनियादी दृष्टिकोणों में सुधार करने की आवश्यकता है। इसके लिए बहुत परिश्रम करने की आवश्यकता होती है और यह कर पाना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए हमें धैर्य, साहस और लगनशीलता की आवश्यकता होती है। आधुनिक समाज के हम लोगों की प्रवृत्ति होती है कि हम चीज़ें सस्ते में, आसानी से और सबसे बढ़कर तुरन्त चाहते हैं। हम सभी शिक्षाओं को झटपट पा लेना चाहते हैं। हम कम से कम परिश्रम से उन सभी अच्छी चीज़ों को पा लेना चाहते हैं जिनके बारे में हमने पढ़ा होता है, या उन सिद्धियों को प्राप्त कर लेना चाहते हैं जो किसी बुद्ध को प्राप्त होती हैं।

शिक्षाओं का आदर करना

आंतरिक परिवर्तन के लिए शिक्षाओं को प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, और गैर-बौद्ध देशों में शिक्षाओं को प्राप्त करने के लिए पैसे की आवश्यकता होती है। यह एक ऐसी कठिनाई है जो बौद्ध इतिहास में बहुत अनूठी है। पारम्परिक तौर पर शिक्षाएं प्राप्त करने के लिए कभी भुगतान करने की आवश्यकता नहीं होती थी। यदि कोई व्यक्ति चाहता तो स्वेच्छा से कुछ राशि दानस्वरूप दे सकता था, लेकिन ऐसी शर्त कभी नहीं रही कि भीतर प्रवेश करने से पहले आपको द्वार पर ही भुगतान करना होगा।

लेकिन, यदि हम गैर-बौद्ध देशों में शिक्षक और दूसरी सुविधाएं चाहते हैं, तो उसके लिए या तो स्वेच्छा से अंशदान करके या फिर प्रवेश शुल्क का भुगतान करके धन जुटाए जाने की आवश्यकता होती है। यह तो व्यावहारिक स्तर की बात हुई। इसका गूढ़तर स्तर यह है कि यदि आप कुछ ऐसा प्राप्त करना चाहते हैं जो बहुमूल्य हो, यानी यदि आप शिक्षाएं प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको उन्हें प्राप्त करने के लिए बहुत परिश्रम करना चाहिए; अन्यथा आप न तो उन्हें समझ पाते हैं और न ही उनकी कद्र कर पाते हैं।

इतिहास बताता है कि शिक्षकों को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित करने के लिए तिब्बतवासियों को न केवल भारत तक की पैदल यात्रा करनी पड़ती थी, बल्कि उन्हें यात्रा के खर्च और भेंटस्वरूप देने के लिए अनेक प्रकार के संसाधन जुटाने पड़ते थे। शिक्षाएं प्राप्त करने के लिए वे लोग अविश्वसनीय रूप से परिश्रम और प्रयास करते थे। शिक्षाओं को पाने के लिए लोगों को बहुत बड़े-बड़े त्याग करने पड़ते थे। देखिए मारपा ने शिक्षाएं पाने की कामना रखने वाले मिलारेपा को किन-किन परीक्षाओं से होकर गुज़ारा था। इसलिए, यदि हम सचमुच शिक्षाओं को प्राप्त करना चाहते हैं तो उसके लिए हमें कुछ प्रयास करने होंगे, उदाहरण के लिए कुछ धन जुटाना होगा, या भारत या किसी ऐसे स्थान तक यात्रा करनी होगी जहाँ वे शिक्षाएं उपलब्ध हों।

अब चीज़ें अपेक्षाकृत आसान हैं। यहाँ लातविया में आप लोग सोवियत संघ के अधीन रहते थे और आपको ज्यादा दूर के स्थानों तक यात्रा करने या वास्तव में कहीं भी जाने की अनुमति नहीं थी। अब शिक्षाएं उपलब्ध हैं और यूरोपीय संघ के सदस्य के रूप में आपको यात्रा करने की पूरी स्वतंत्रता है। इसलिए आप लोगों को इस बदली हुई स्थिति का लाभ उठाना चाहिए और सिर्फ यह शिकायत ही नहीं करते रहना चाहिए, “मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ कुछ भी उपलब्ध नहीं है।“ मैं कोई कठोर बात नहीं कहना चाहता हूँ, लेकिन यदि हम अपने आपको बदलने के लिए गम्भीर हों तो उसके लिए प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। हमें उस काम को अपने जीवन में प्राथमिकता देनी होगी। हमें अध्ययन और साधना की दृष्टि से अनुकूलतम परिस्थितियों का निर्माण करने के लिए हिम्मत, साहस और ऊर्जा का प्रयोग करते हुए जो भी कदम उठाना आवश्यक हो, उन कदमों को उठाना होगा।

धर्म साधना के लिए हमारी प्रतिबद्धता के बारे में ईमानदार और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना

यदि हम इतने अधिक गम्भीर नहीं हो सकते हैं तो ठीक है। लेकिन हम इस बात को स्वीकार तो कर ही सकते हैं: “मैं बौद्ध धर्म के बारे में थोड़ा जानना चाहूँगा। हो सकता है कि मुझे इससे अपने जीवन में फायदा हो, लेकिन मैं जहाँ हूँ वहाँ से किसी दूसरी जगह सिर्फ इसलिए जाने के लिए तैयार नहीं हूँ कि वहाँ की स्थितियाँ बहुत अच्छी नहीं हैं। मैं इसे अपने जीवन में सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं देता हूँ, मेरे लिए और दूसरी चीज़ें ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं।“ यदि हमारी स्थिति ऐसी हो तो इसमें बिल्कुल भी कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन हमें यह अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए कि हमें वैसे ही परिणाम हासिल हों जो हमें पूर्णकालिक और पूरे परिश्रम के साथ साधना करने पर मिल सकते हैं। व्यावहारिक बनें। थोड़ा प्रयास करने पर थोड़े ही परिणाम हासिल होते हैं। ज्यादा प्रयास और समय लगाने पर और अधिक परिणाम मिलते हैं।

उदाहरण के लिए, आजकल ऐसा लगता है कि पश्चिम में अधिकांश लोग भिक्षुओं और भिक्षुणियों की तरह साधना करने के बजाए गृहस्थों के रूप में साधना करना अधिक पसंद करते हैं, जोकि पारम्परिक बौद्ध साधना से थोड़ी अलग होती है। यही कारण है कि आज हमें विहारों और मठों के बजाए धर्म केंद्र दिखाई देते हैं। पश्चिम में बौद्ध धर्म का विकास शुरू होने से पहले ऐसा कुछ नहीं हुआ करता था।

किसी धर्म केंद्र में जाकर हम क्या हासिल करने की उम्मीद कर सकते हैं? यदि हम अपने काम-काज को खत्म करने के बाद सप्ताह में एक बार धर्म केंद्र जाएं, और आधे समय हम बहुत थके हुए हों, वहाँ तिब्बती भाषा में कोई गीत गाएं जिसके बारे में हमें आभास ही न हो कि हो क्या रहा है, तो ऐसी साधना से हम किस प्रकार के परिणाम की अपेक्षा कर सकते हैं? कुछ ज़्यादा नहीं। और वास्तव में दुख की बात यह है कि अधिकांश धर्म केंद्रों का माहौल किसी सामाजिक क्लब जैसा भी नहीं होता है, जैसा कि किसी चर्च में जाने पर आपको महसूस होता है। चाहे ईसाई धर्म हो, यहूदी धर्म हो या इस्लाम धर्म हो, वहाँ किसी किसी धार्मिक समाज या समुदाय में शामिल होने जैसा तो महसूस होता है। यदि कोई बीमार हो या सभा में शामिल होने के लिए न आया हो, तो लोग उसके बारे में पूछते हैं और उससे मिलने के लिए जाते हैं और उसके लिए भोजन का भी प्रबंध करते हैं। धर्म केंद्रों में यह सब नहीं दिखाई देता है। लोग आते हैं, थोड़ी बहुत ध्यानसाधना करते हैं, कोई पूजा अनुष्ठान करते हैं, और बस बात खत्म। मैंने कई लोगों से ऐसी शिकायतें सुनी हैं, “बौद्ध धर्म का क्या मतलब है? मैं बीमार था और अस्पताल में भर्ती था, कोई मुझे देखने या मुझसे मिलने ही नहीं आया; किसी ने परवाह ही नहीं की।“

यदि हमारी दैनिक बौद्ध साधना का मतलब  यही है कि हम अकेले पूजा करने या ध्यानसाधना करने के लिए अपने आप केंद्र पहुँचते हैं, लेकिन हमें केंद्र के दूसरे सदस्य लोगों की कोई परवाह न हो, तो यह क्या है? वहाँ बैठकर तो हम यह कहते हैं, “मैं यह सब सभी सचेतन जीवों की भलाई के लिए कर रहा हूँ; सभी सचेतन जीव सुखी हों...” लेकिन कोई दूसरा बीमार होता है और हमें न तो उसकी परवाह होती है और न ही हम उससे मिलने जाने के लिए समय निकालते हैं। यह उचित नहीं है। यदि हमारी बौद्ध साधना ऐसी ही है, तो उसमें कहीं कुछ गड़बड़ है। हम अपनी पूजा और ध्यानसाधना के अभ्यास को लेकर इतने संकुचित और केंद्रित होते हैं कि अपने समूह के सदस्यों की सहायता के सामाजिक दायित्व को भुला देते हैं। हमारे आधुनिक समाजों में संवादात्मक बौद्ध धर्म, जिसकी शुरुआत थाइलैंड में की गई थी, की सचमुच बहुत आवश्यकता है। उदाहरण के लिए कुछ बौद्ध केंद्रों में पहले से ही कारागारों के साथ संवाद के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। कुछ लोग स्वेच्छा से कारागारों में जाकर वहाँ के बंदियों को धर्म के बारे में शिक्षा देने का काम करते हैं, जोकि बहुत अच्छी बात है। लेकिन वास्तविकता यह है कि केवल इतना करना ही काफी नहीं है कि आप कारागारों में बंदियों से मिलने तो जाएं लेकिन यदि कोई बीमार हो तो उससे मिलने के लिए न जाएं।

बुनियादी मानवीय करुणा प्रदर्शित करना

बौद्ध होने का मतलब केवल करुणावान व्यक्ति होना ही नहीं होता है। हमें दयावान तो होना ही चाहिए, वह तो आधारभूत बात है, और ऐसा भी नहीं है कि इसके बारे में केवल बौद्ध शिक्षाओं में ही बताया गया हो। आपको यह समझने के लिए धार्मिक व्यक्ति होना आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति का करुणावान होना महत्वपूर्ण होता है। इसलिए हमें अपने दैनिक जीवन में दूसरों की सहायता करने का प्रयास करते रहना चाहिए। यदि हम उनकी सहायता न कर सकते हों, तो कम से कम हमें इतना तो करना ही चाहिए कि हम दूसरों को चोट न पहुँचाएं; यह न्यूनतम आधारभूत अपेक्षा है। यदि हम ऐसा कहना चाहते हैं कि यही हमारी बौद्ध साधना है, तो ठीक है। लेकिन हमें इस बात को समझना होगा कि यह तो बौद्ध धर्म की साधना का बहुत ही साधारण स्वरूप है।

हालाँकि यह स्वरूप बहुत ही हल्का-फुल्का है, किन्तु यह नितांत आवश्यक है। हम प्रयास करते हैं कि हम दूसरों पर क्रोधित न हों, और यदि हम ऐसा करें, तो जितना जल्दी हो सके इसके लिए क्षमा मांग लें। हम प्रयास करते हैं कि हम कम स्वार्थी हों और दूसरों की आवश्यकताओं तथा दूसरों पर हमारे व्यवहार के प्रभाव के प्रति अधिक संवेदनशील हों। यदि हम कोई व्यापार करते हैं तो हम उसमें ईमानदारी बरतने का प्रयास करते हैं। यदि हमें ग्राहकों के साथ संवाद करना हो तो हम यह याद रखने का प्रयास करते हैं कि वे भी हमारी ही तरह मनुष्य हैं और उन्हें भी यह अच्छा लगता है कि हम उनके साथ अच्छा बर्ताव करें, उनके साथ हड़बड़ी में अभद्रता का व्यवहार न करें। दिन के अन्तिम ग्राहक पर भी उतना ही ध्यान देने, उसका खयाल रखने और मधुर व्यवहार करने की आवश्यकता होती है जितना खयाल हम दिन के पहले-पहले ग्राहक का रखते हैं।

परम पावन दलाई लामा इन्हीं सब चीज़ों को “आधारभूत मानव मूल्य” कहते हैं, ये ऐसे सिद्धांत हैं जो किसी विशेष दर्शन या धर्म पर आधारित नहीं हैं। हमें अजनबियों के साथ तो इन मूल्यों पर आधारित व्यवहार करना ही चाहिए, जहाँ इन्हें प्रयोग में लाना अपेक्षाकृत आसान होता है क्योंकि अजनबियों से तो हम कुछ मिनटों के लिए ही मिलते हैं और फिर बाद में हमें उनसे कुछ लेना-देना नहीं रहता। इन सिद्धांतों को लागू करने की असली चुनौती तब होती है जब हम अपने परिवार के लोगों के साथ होते हैं या ऐसे लोगों के बीच होते हैं जिनके साथ हम रहते हैं या जो हमारे साथ काम करते हैं। जो हमारे सबसे नज़दीकी होते हैं उन्हें हम अनदेखा नहीं करते हैं।

मैं अपने अनुभव से एक उदाहरण देता हूँ। बात उन दिनों की है जब मेरी माँ जीवित थीं और मैं उनसे मिलने के लिए जाया करता था, वे चाहती थीं कि शाम के समय मैं उनके साथ टेलीविजन देखूँ। उन्हें प्रश्नोत्तरी पर आधारित शो खास तौर पर पसंद थे और वे मुझे प्रोत्साहित करती थीं कि मैं इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करूं जैसे, “इस रेफ्रिजरेटर की कीमत कितनी है?” ऐसी स्थितियों में हमें धैर्य और उदारता से काम लेने की आवश्यकता होती है, ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम ऊबते हुए बैठे रहें, धीमी आवाज में मंत्रों का जाप करते रहें और जवाब में कहें, “कितना मूर्खतापूर्ण सवाल है! कौन परवाह करता है कि इसकी क्या कीमत होगी?” प्रश्न चाहे जितना भी नासमझीभरा लगता हो, उसका उत्तर देने का प्रयास कीजिए। इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देकर वे बुढ़ापे में अपने दिमाग को सक्रिय बनाए रखने का प्रयास करती थीं, और उनके इस प्रयास में उनकी सहायता करना आधारभूत मानवीय करुणा का कार्य था।

बौद्ध धर्म को अपनी जीवन शैली का अंग कैसे बनाएं

यदि हम अपने आधुनिक समाजों में रहते हुए बौद्ध साधना का अभ्यास करना चाहते हैं तो हमें केवल अपने आप को अधिक करुणाशील व्यक्ति बनाने के लिए प्रयास करने से कहीं अधिक गहराई में जाने की आवश्यकता है। ऐसा करने के लिए बौद्ध धर्म में विभिन्न प्रकार की मानसिकताओं और योग्यताओं के अनुरूप अनेक प्रकार के अभ्यास उपलब्ध हैं। इसमें अध्ययन और ध्यानसाधना दोनों प्रकार के अभ्यास शामिल हैं। इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो केवल एशियाई या केवल पाश्चात्य समाज के लिए ही लागू होता हो। लेकिन इसमें मुख्य बात यह है कि हम जो कुछ भी अध्ययन करें या जिस किसी भी विषय की ध्यानसाधना करें, उसे अपने जीवन के व्यवहार में शामिल करें। हमें अपनी बौद्ध साधना को अपनी जीवन शैली में शामिल करना चाहिए।

जब हम सुबह उठते हैं तो दिन की शुरुआत एक संकल्प के साथ करते हैं। हमारी प्रेरणा क्या है? हम याद करते हैं कि हमारा ध्येय क्या है और हम अपने जीवन को किस दिशा में ले जा रहे हैं, और फिर हम वास्तव में उस ध्येय को प्राप्त करने की दिशा में काम करने का संकल्प लेते हैं। सुबह जब हम जागते हैं तब आदर्शतः हमें यह कहना चाहिए, “ईश्वर को धन्यवाद है कि सोते समय नींद में मेरी मृत्यु नहीं हुई, और यह कितनी अच्छी बात है कि मेरे आगे पूरा एक दिन है जब मैं बौद्ध मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कार्य कर सकता हूँ।“ जागने पर इस तरह के विचार रखना कहीं बेहतर है बजाए यह कहने के, “ओह, नहीं, फिर एक और दिन!”

रात को सोने से पहले भी हम यही अभ्यास दोहराते हैं। यह सोचने के बजाए कि, “ईश्वर का शुक्र है कि दिन पूरा हुआ। मैं बेसुध होकर सोने का इंतजार नहीं कर सकता,” हम यह सोचते हैं, “मुझे कल सुबह जागने की बेसब्री से प्रतीक्षा है।“ वास्तव में इस सब का निष्कर्ष “शरणागति” लेना है। मैं इस शब्द का अधिक प्रयोग इसलिए नहीं करता हूँ क्योंकि मेरे विचार से वास्तव में इसमें अपने जीवन को एक दिशा देने की बात कही गई है। यह दिशा बुद्ध जन द्वारा, उनकी शिक्षाओं और उनकी निजी उपलब्धियों द्वारा दिखाई गई दिशा है, और उनके बाद आने वाले आध्यात्मिक समुदाय द्वारा दिखाई गई दिशा है। यह एक ऐसी दिशा है जो सुरक्षित है और दुखों से हमारी रक्षा करने वाली है।

यदि हमारे जीवन में कोई सार्थक और उद्देश्यपूर्ण दिशा हो तो उससे बहुत लाभ मिलता है। हम अपने आप को सभी प्रकार के भ्रम और अपने चित्त के अशांतकारी मनोभावों से मुक्त करने और अपनी सभी सकारात्मक क्षमताओं को विकसित करने के उद्देश्य से कार्य करते हैं। अपने जीवन को यह दिशा देने का मतलब होता है कि हम बुद्ध जन और उनके आध्यात्मिक समुदाय के पदचिह्नों पर चलने के लिए प्रयास कर रहे हैं। हमें मालूम होगा कि इस दिशा में एक छोटा सा कदम उठाना भी बहुत लाभप्रद होता है। लेकिन इसकी पुष्टि हमें स्वयं सावधानीपूर्वक विश्लेषण और प्रयोग करके करनी होगी। बुद्ध ने कहा था कि किसी भी बात को केवल आस्था के कारण स्वीकार मत करो। गैर-बौद्ध समाजों के साधकों के रूप में सम्भवतः हम लोग बुद्ध द्वारा सिखाए गए इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ज़्यादा आसानी से समझ सकते हैं। हमें हमेशा एक गुणदोष विवेचक का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

अपने जीवन की इस दिशा को हमें अपने भीतर गहराई तक आत्मसात करने की आवश्यकता है। ऐसा करना ही दरअसल हमें बौद्ध बनाता है। केवल एक अच्छा व्यक्ति होने से ही आप बौद्ध नहीं हो जाते हैं। इसके लिए पूर्ण विश्वास चाहिए होता है कि हम जिस उद्देश्य हासिल करना चाहते हैं उसे हासिल कर पाना सम्भव है। यदि हम ऐसा नहीं मानते हैं कि हमारे लिए अपनी त्रुटियों पर विजय पाना और अपनी सकारात्मक क्षमताओं को हासिल करना सम्भव है, तो फिर किसी काल्पनिक लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास करने का क्या फायदा?

यह बात तय है कि शुरुआत में हमें इस बात पर यकीन नहीं होगा कि बौद्ध धर्म के आध्यात्मिक लक्ष्यों में से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना सम्भव है। हो सकता है कि हम किसी करिश्माई शिक्षक से प्रभावित होकर या इच्छित विश्वास के कारण श्रद्धा रखते हों। इस बात के प्रति दृढ़ विश्वास हासिल करने के लिए कि इन लक्ष्यों को हासिल कर पाना सम्भव है, क्रमबद्ध ढंग से परिश्रम करने की आवश्यकता होती है, और एक बार जब आप ऐसा करके देखेंगे तो फिर आप अपना पूर्ण मनोयोग और पूरी ऊर्जा उन लक्ष्यों को हासिल करने में लगा देंगे।

एक बौद्ध के रूप में यह हमारे काम का हिस्सा है। ये लक्ष्य बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और हमें अपने मार्ग पर स्थिर रहने में सहायक होते हैं। इसलिए हम अपने दिन की शुरुआत इस संकल्प तो दोहराते हुए करते हैं। और हम दिन की समाप्ति एक समर्पण और इस बात की समीक्षा करते हुए करते हैं कि दिन भर में हमने क्या-क्या किया, हमने कैसा व्यवहार किया। यदि हमने क्रोध किया हो या कुछ और किया हो, तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं, उसके लिए खेद प्रकट करते हैं, और उसकी शुद्धि करते हैं। हमने जो भी सकारात्मक कार्य किए होते हैं उन्हें हम अपने सकारात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समर्पित करते हैं। तिब्बत के महान आचार्य त्सोंग्खापा ने कहा ता कि हमें अपने संकल्प का पालन केवल दिन की शुरुआत और अंत में नहीं, बल्कि पूरे दिन भर करना चाहिए। इसका मतलब है कि हमें दिन भर के दौरान स्वयं को अपने संकल्प का स्मरण कराते रहना चाहिए।

वियतनाम के आधुनिक आचार्य थिक नात हान इसके लिए एक बहुत ही सुंदर तरीका अपनाते हैं। वे एक “सचेतनता घंटी” रखते हैं जो दिन में अनियमित ढंग से अलग-अलग समय पर बजती है। उस समय प्रत्येक व्यक्ति कुछ क्षणों के लिए अपने काम को रोक कर अपने संकल्प की सचेतनता को फिर से हासिल करता है। मेरे एक शिष्य ने अपने सेल-फोन को इस तरह प्रोग्राम कर रखा है कि वह दिन भर में कई बार बीप की ध्वनि उत्पन्न करता है। इस प्रकार यदि हमें स्वतः अपनी प्रेरणा का स्मरण न होता हो तो उसे याद रखने में हमारी सहायता करने के कई तरीके उपलब्ध हैं।

परम पावन दलाई लामा हमेशा “विश्लेषणात्मक ध्यानसाधना” पर बल देते हैं, जिसका मतलब शिक्षाओं के बारे में चिंतन करना, उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन और अनुभव से जोड़कर देखना होता है। इसका एक उदाहरण यह विश्लेषण हो सकता है कि कार्यस्थल पर किसी विशेष सहकर्मी के साथ काम करने में हमें समस्या क्यों आ रही है। इस समस्या से कैसे उबरा जा सकता है? इसके लिए हमें धैर्य विकसित करना होगा। धैर्य के बारे में शिक्षाओं में क्या बताया गया है? इसकी क्या विधि है? फिर हम शांतचित्त हो कर बैठते हैं और उस व्यक्ति के बारे में सोचते हुए धैर्यशील बनने का अभ्यास करते हैं। यही बौद्ध अभ्यास है – इसके लिए “अभ्यास” शब्द का ही प्रयोग किया गया है। हम अभ्यास कर रहे हैं कि हम वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में धैर्यशील बने रह सकें।

दिन की समाप्ति पर हम अपने किए हुए कार्यों की समीक्षा करते हैं। यदि हम अपने अच्छे संकल्प की अपेक्षाओं पर खरे न उतर पाए हों तो इसमें अपराधबोध से ग्रस्त होने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि हम इस बात को याद रखते हैं कि जीवन की बुनियादी विशेषता ही यह है कि उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। प्रगति कभी किसी रेखा की तरह सीधी नहीं होती है। हम लाख कोशिश कर लें, किसी दिन हमें अपनी साधना में अच्छी सफलता मिलेगी तो कभी कुछ दिन खराब भी जाएंगे। इसलिए जब हम कोई गलती कर बैठते हैं या दूसरों को चोट पहुँचाने वाला कोई कार्य कर देते हैं, तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं और संकल्प लेते हैं कि हम भरसक प्रयत्न करेंगे कि हमसे वह भूल दोबारा न हो।

जब तक हम मुक्त नहीं हो जाते तब तक ये उतार-चढ़ाव चलते ही रहेंगे। वह लक्ष्य अभी बहुत दूर है। वहाँ पहुँचने तक हम लोभ और क्रोध आदि से ग्रस्त बने रहेंगे। इससे स्वयं को संयत रखने में बहुत मदद मिलती है! ऐसी स्थिति से निबटने के लिए “समवृत्ति” का भाव सबसे लाभदायक होता है। जब हम थक जाते हैं, तो हम विश्राम करते हैं। ठीक है, इसमें कोई समस्या नहीं है। जब हम फिर काम पर लगना चाहते हैं, तो वैसा करते हैं। यह भी ठीक है, इसमें भी कोई समस्या नहीं है। हमें अपने आप से बहुत ज्यादा परिश्रम करवाने या अपने आप को किसी छोटे बच्चे की तरह समझने की दोनों अतिशय स्थितियों से बचना चाहिए। जो भी हो, हम आगे बढ़ते जाते हैं। हम इसे “कवच जैसी लगनशीलता” कहते हैं। यह किसी भी स्थिति से आपकी रक्षा करती है।

एक व्यावहारिक उदाहरण: जीत का अवसर दूसरों को देना

अब मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ कि हम एक बौद्ध निर्देश का पालन करके किस प्रकार स्वयं को हतोत्साहित होने से बचा सकते हैं। मैं बर्लिन में एक व्यस्त नुक्कड़ पर रहता हूँ। दो साल पहले मेरे घर के नीचे भूमि तल पर एक कैफे खोला गया जो बहुत ही लोकप्रिय है। यह कैफे हफ्ते के सातों दिन सुबह सात बजे से लेकर अगले दिन सुबह तीन बजे तक खुला रहता है। गर्मियों के दिनों में हर रात वहाँ लोग बाहर बैठ कर बीयर पीते हैं और ऊँची आवाज़ में बातें करते हुए ठहाके लगाते हैं। कुछ समय तक बिस्तर पर लेटे-लेटे नींद लेने की कोशिश करते हुए मध्ययुगीन ढंग से उन लोगों के ऊपर खौलते हुए तारकोल के कड़ाहे उँडेलने की कल्पना करते-करते मुझे उस शिक्षा का स्मरण हो आता है: “विजय का श्रेय दूसरों को दे दो, अपने लिए हार स्वीकार कर लो।“

मेरी रसोई ही घर का अकेला ऐसा कमरा है जो सड़क की ओर नहीं पड़ता है, इसलिए मैंने अपना गद्दा वहाँ बिछा लिया है। पूरी गर्मियों भर मैं रसोई में फर्श पर ही सोता हूँ। वहाँ बड़ा सुकून और आराम है और मैं बहुत खुश हूँ, और जीत का अवसर मैं दूसरों को दे देता हूँ। इस शिक्षा का यह एक व्यावहारिक प्रयोग है। दरअसल रसोई में सोना कोई बड़ी समस्या नहीं है।

इसी तरह हमें शिक्षाओं के प्रयोग के नए और रचनात्मक तरीके खोजते रहना चाहिए। फिर हमें उन तरीकों को वास्तव में लागू करना चाहिए। ज़ाहिर है कि ऐसा करने के लिए हमें शिक्षाओं की जानकारी होनी चाहिए, और यदि हम कठिन स्थितियों से निपटने सम्बंधी निर्देश प्रदान करने वाले किसी शास्त्रीय ग्रंथ का प्रतिदिन अध्ययन करें तो इससे बड़ा लाभ होता है। उदाहरण के लिए 37 बोधिसत्व अभ्यास, बोधिसत्वमण्यावली और अष्ट-छंद चित्तसाधना में इस सम्बंध में बहुत सारे व्यावहारिक निर्देश दिए गए हैं। यदि आप इन्हें नियमित रूप से पढ़ते रहें तो आप इनके प्रति सजग तो बने ही रहते हैं, जैसे-जैसे आप इन ग्रंथों को पढ़ते जाते हैं ये आपके जीवन के अनुभवों की स्थितियों के बारे में आपको उपयुक्त समाधान भी सुझा सकते हैं।

ये कुछ बातें आधुनिक समाजों में बौद्धों के दैनिक अभ्यासों से सम्बंधित हैं। और जैसाकि मैं पहले कह चुका हूँ, इनसे किसी प्रकार का परिणाम हासिल करने के लिए हमें बहुत कड़ा परिश्रम करने की आवश्यकता होती है, और परिणाम हमें सस्ते में नहीं मिलने वाले हैं।

क्या बौद्ध शिक्षाओं को सुलभ बनाया जाना प्रयोजन सिद्धि में बाधक बन रहा है?

वीडियो: खान्द्रो रिन्पोचे — क्या बौद्ध धर्म अति सुगम्य है?
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आजकल शिक्षाएं बहुत आसानी से उपलब्ध हैं। हमने पहले भी देखा है कि पश्चिम में बहुत से धर्म केंद्रों में या आयोजनों में शामिल होने के लिए प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है, जबकि धर्म से सम्बंधित बहुत सारी सामग्री (जैसे इस वैबसाइट पर) निःशुल्क उपलब्ध है। यदि आपके पास कम्प्यूटर हो और आपको इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध हो तो आपको न तो ज्यादा कहीं की यात्रा करने की ज़रूरत है और न ही कोई भुगतान करना है। और इसमें संदेह नहीं है कि जो सामग्री अभी उपलब्ध है उसकी मात्रा भविष्य में बढ़ने ही वाली है।

हम यह तर्क दे सकते हैं कि शिक्षाओं को पुस्तकालयों में छुपा कर रखना लाभदायक होगा ताकि उन तक पहुँचने के लिए परिश्रम करना पड़े, या यह सुनिश्चित किया जाए कि उन्हें प्राप्त करने के लिए आपको भुगतान करना पड़े, क्योंकि उस स्थिति में जानकारी तक पहुँचने के लिए आपको अतिरिक्त प्रयास करना पड़ेगा। वहीं दूसरी ओर, हालाँकि शिक्षाएं सब जगह आसानी से उपलब्ध हैं, फिर भी उन्हें पढ़ने और समझने के लिए आपको मेहनत तो करनी ही होगी, और वास्तव में उनका अनुशीलन करने के लिए तो और भी अधिक परिश्रम करना होगा।

आधुनिक समय में शिक्षाओं की सुलभता की दृष्टि से हमें कितनी ही सुविधाएं क्यों न हों, फिर भी हमें स्वयं बहुत कड़ा परिश्रम करने की आवश्यकता है। शिक्षाओं को समझने और आत्मसात करने में समय लगता है: यह एक ऐसी स्थिति है जो कभी बदलने वाली नहीं है। कम समय में इस कार्य को करने का कोई सस्ता और कम समय लेने वाला साधन नहीं है, अबौद्ध समाजों में साधना करने वाले हम लोग किसी भी दृष्टि से विशेष नहीं हैं। इसलिए हमें जो भी सुविधाएं प्राप्त हैं, हमें करुणावान व्यक्ति के रूप में उनका फायदा उठाना ही चाहिए, किन्तु साथ ही बौद्ध लक्ष्यों: अपने सभी दोषों और कठिनाइयों से मुक्ति और अपनी सभी सकारात्मक क्षमताओं को पूरी तरह विकसित करके ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए।

बौद्ध धर्म के सर्वोच्च लक्ष्यों को किस प्रकार समझें

हम मुक्ति और ज्ञानोदय को प्राप्त करने के लिए यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ तभी कार्य कर सकते हैं जब सचमुच आश्वस्त हों कि इन लक्ष्यों को प्राप्त करना सम्भव है। लेकिन यह विश्वास कैसे प्राप्त किया जाए? यह दृढ़ विश्वास हमें “चित्त”, जिसे मानसिक सातत्य कहते हैं, को समझने से प्राप्त होता है। इस मानसिक क्रियाकलाप की बुनियादी विशेषताएं क्या हैं? यह एक क्षण से दूसरे क्षण की ओर हर क्षण एक नए लक्ष्य के साथ आगे बढ़ती रहती है। उसकी निर्धारक विशेषता वही बनी रहती है, हालाँकि भ्रम, क्रोध और दूसरे मनोभाव किसी बादल की तरह आते-जाते रहते हैं। इन बादलों को हटाकर दूर किया जा सकता है क्योंकि ये चित्त का अभिन्न हिस्सा नहीं होते हैं।

इसके लिए केवल चित्त की प्रकृति के गहन अध्ययन की ही आवश्यकता नहीं होती है, केवल यही अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं होती है कि प्रतीतियाँ क्या हैं और वे किस प्रकार उत्पन्न होती हैं, बल्कि क्षण-प्रति-क्षण हमारे चित्त में चल रही गतिविधियों के वास्तविक अनुभव को गौर से देखने  की भी आवश्यकता होती है। और फिर हमें यह अध्ययन करने और जानने की भी आवश्यकता होती है कि मुक्ति पाने और ज्ञानोदय प्राप्ति का वास्तविक अर्थ क्या है। यदि हम इन्हें केवल शब्द मात्र समझते हैं तो यह स्थिति बहुत अस्पष्ट है।

यह जानना भी आसान नहीं है कि ज्ञानोदय का वास्तविक अर्थ क्या है, क्योंकि इसके स्पष्टीकरण बहुत ही सूक्ष्म हैं। शुरुआत में हम “संदेह का लाभ” देते हैं। हमें पक्के तौर पर यकीन नहीं होता है, किन्तु हम मान लेते हैं कि ऐसा सम्भव है। हम आगे और अधिक अध्ययन और साधना करते हैं ताकि हम उसके बारे में आश्वस्त हो सकें। शुरुआत करने के लिए यह एक अच्छा तरीका है।

मेरे एक मित्र कहते हैं, “मैं यकीनी तौर पर नहीं जानता कि मुक्ति या ज्ञानोदय सम्भव है या नहीं। मुझे नहीं मालूम कि परम पावन दलाई लामा वास्तव में ज्ञानोदय प्राप्त हैं या नहीं। लेकिन, यदि मैं उनके जैसा बन सकूँ, दलाई लामा के जैसा बन सकूँ, जिस तरह वे आचरण करते हैं और बड़ी-बड़ी समस्याओं से निबटते हैं, तो इतना कर पाना पर्याप्त होगा।“

सारांश

गुफाओं में रहने से लेकर मैदानों तक, और वहाँ से लेकर दफ्तरों तक, हमारी बुनियादी समस्याओं में बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आया है; वातावरण भले ही बदला हो, लोग हमेशा तनावग्रस्त और व्यस्त रहे हैं। यदि हम इस बात को जान लें, तो हम यह समझ सकते हैं कि एक सहस्राब्दी से भी अधिक पुरानी बौद्ध विधियाँ आज भी पूरी तरह प्रासंगिक हैं।

पुराने समय में लोगों ने बौद्ध शिक्षाओं को प्राप्त करने के लिए असाधारण प्रयास किए, उस दृष्टि से हम लोग सचमुच भाग्यशाली हैं कि आज हमें बहुत सारी शिक्षाएं केवल इंटरनेट पर ही नहीं बल्कि दुनिया भर के बहुत से शहरों में भी उपल्बध हैं। हमें इन सुविधाओं का लाभ उठाना चाहिए, लेकिन साथ ही हमें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमें अपने स्तर पर जितने प्रयास करने की आवश्यकता है उसमें बदलाव नहीं हुआ है, और कभी होगा भी नहीं।

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