नैतिकता के तीन प्रमुख आधार: विनाशकारी आचरण से दूर रहना, अनुशासन, दूसरों की सहायता करना
आज का विषय “नैतिक आचरण के मूलाधार” है और यह एक बड़ा ही व्यापक विषय है। जब हम बौद्ध धर्म में नैतिकता या नैतिक आचरण की बात करते हैं तो हमारा आशय व्यवहार के तीन अलग-अलग क्षेत्रों से होता है। पहला विषय विनाशकारी व्यवहार से दूर रहने से सम्बंधित है, इसका अर्थ यह है कि चाहे हमारी मंशा किसी को नुकसान पहुँचाने की हो या न हो, हम क्रोध या लालच या स्वार्थ के वशीभूत हो कर आचरण न करें। आप जानते हैं कि कभी-कभी हम स्वार्थपूर्ण व्यवहार करते हैं और हमें इसका आभास तक नहीं होता कि हम स्वार्थी हो रहे हैं, जब कि वास्तव में हमारा उद्देश्य किसी को चोट पहुँचाना नहीं होता है, फिर भी हमारे ऐसे व्यवहार से बड़ा नुकसान हो जाता है और बड़ी परेशानियाँ खड़ी हो जाती हैं।
यदि हम सिर्फ “अपनी मर्ज़ी” चलाना चाहते हैं और कहते हैं कि “जो मुझे चाहिए वह मुझे मिलना ही चाहिए” तब हम ऐसा व्यवहार इसलिए करते हैं क्योंकि हम स्वार्थ के वशीभूत होते हैं ─ हम केवल अपने बारे में ही सोच रहे होते हैं ─ उस स्थिति में हम दूसरों की अनदेखी करते हैं और, न चाहते हुए भी दूसरों को बहुत दुख पहुँचाते हैं। और जब हम क्रोधित होते हैं तो हम अपना आपा खो देते हैं, ऐसा होता है न? और फिर हम न जाने क्या-क्या करते और कहते हैं जिसके बारे में बाद में हमें अफसोस होता है और उन बातों से हमें बड़ा दुख पहुँचता है। इसलिए नैतिकता का पहला आधार यह है कि हम विनाशकारी व्यवहार करने से बचें।
लेकिन, आप जानते हैं कि जब हम नैतिकता की बात करते हैं तो हमारा आशय अनुशासित होने से होता है। और अनुशासित होने का मतलब होता है कि अपने जीवन पर हमारा नियंत्रण हो और हम आलस्य या अन्य प्रकार की ऐसी अशांत करने वाली चित्त की दशाओं के प्रभाव में न आएं जो हमें अपने जीवन के लक्ष्यों को हासिल करने से रोकती हैं।
इस तरह दूसरे प्रकार का नैतिक आचरण दरअसल रचनात्मक कार्यों में संलग्न होना है। कड़ी मेहनत करके अध्ययन करते हुए अच्छी शिक्षा हासिल करना इसका एक उदाहरण है। इसके लिए बड़े अनुशासन की आवश्यकता होती है ─ अध्ययन करने, ज्ञानार्जन करने के लिए आत्मानुशासन। लेकिन यदि हम अपने जीवन में कुछ सकारात्मक हासिल करना चाहते हैं, तो उसके लिए हमें योग्यताएं हासिल करनी चाहिए; हमें अभ्यास करना चाहिए, और इसके लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है। और यह नीतिशास्त्र का क्षेत्र है।
यह नैतिकता से क्यों जुड़ा है? क्योंकि हम सचमुच एक चतुर चोर, एक चतुर अपराधी बनने के लिए भी अभ्यास कर सकते हैं, या फिर हम एक ऐसा व्यक्ति बनने के लिए भी अभ्यास कर सकते हैं जो हमारे समाज की प्रगति के लिए सकारात्मक योगदान कर सकता है।
इसलिए जब हम किसी कार्य के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करने वाले हों, तो हमें अपनी विशेष योग्यताओं और प्रतिभा के आधार पर यह तय करना चाहिए कि क्या करना सबसे उपयोगी रहेगा। और अंशतः यह इस बात पर निर्भर करेगा कि मुझे क्या करना पसंद है और मुझे किस कार्य को करने से आनन्द मिलता है। और जब हम इस दृष्टि से विचार करते हैं कि मुझे क्या करना अच्छा लगता है, तो ज़ाहिर है कि मेरी रुचि इस बात में होगी कि मैं टेलीविज़न देखता रहूँ और अपने मित्रों के साथ खेलता रहूँ, लेकिन हम जीवन भर तो ऐसा नहीं कर सकते हैं, क्या हम ऐसा कर सकते हैं? इसलिए जब हम सोचते हैं कि मुझे क्या पसंद है, तो हम सिर्फ यह नहीं सोचते हैं कि मुझे फिलहाल क्या पसंद है, बल्कि यह कि वह कौन सी चीज़ या कार्य है जो हमारे जीवन की दृष्टि से लम्बे समय तक हमें खुशी दे सकती है।
तीसरे प्रकार की नैतिकता यह है कि हम वास्तव में दूसरों की सहायता करने के कार्यों से जुड़ें। सिर्फ अच्छे गुणों को विकसित करने का अभ्यास करना ही काफी नहीं है, क्योंकि हम एक समाज में रहते हैं और समाज में अपने सद्गुणों और प्रतिभाओं और योग्यताओं को दूसरों के साथ बांटना बहुत महत्वपूर्ण होता है। हमारे पास जो भी क्षमताएं हों, हम उनका उपयोग दूसरों की सहायता करने के लिए कर सकते हैं। आखिरकार समाज में रहते हुए हमारी खुशी पूरे समाज की खुशियों पर ही तो निर्भर करती है। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि जब हम नैतिकता की बात करते हैं तो हम बड़ा व्यापक दृष्टिकोण अपनाएं, संकीर्णता के छोटे दायरे में न सोचें। अर्थात हम सिर्फ अपने और अपने परिवार के बारे में ही न सोचें बल्कि व्यापक समाज की दृष्टि से सोचें। और केवल इसी पल के बारे में न सोचें, बल्कि भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपने कार्यों के आगामी परिणामों की दृष्टि से विचार करें।