इस्लामी दृष्टिकोण से बौद्ध धर्म

बुद्ध कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं हैं

बौद्ध धर्म के संस्थापक, शाक्यमुनि आज से ढाई हज़ार वर्ष पहले वर्तमान उत्तरी भारत और नेपाल की सीमा पर स्थित छोटे से राज्य कपिलवस्तु के राजकुमार थे। अपने प्रजाजन के दैहिक और मानसिक संताप को देखकर शाक्यमुनि ने अपने राजसी जीवन का त्याग कर दिया और कई वर्ष इस खोज में ध्यान साधना करते हुए व्यतीत किए कि समस्त जीवों को अपनी समस्याओं से मुक्ति किस प्रकार मिले और उन्हें स्थायी आनन्द की प्राप्ति किस प्रकार से हो। दूसरों के प्रति अपने गहरे करुणा भाव और अपनी बोधग्राहिता के परिणामस्वरूप उन्होंने अपने समस्त दोषों, सीमाबंधनों और दुखों पर विजय प्राप्त करके अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं को साकार किया और वे बुद्ध हो गए। बुद्ध कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं होता है, बल्कि शाब्दिक अर्थ में किसी ऐसे व्यक्ति को बुद्ध कहा जाता है जो “पूर्णतः जागृत” हो ताकि वह अन्य लोगों का अधिकतम सम्भव उपकार कर सके। उसके बाद शाक्यमुनि बुद्ध ने अपना शेष जीवन लोगों को जागृति की उन तकनीकों की शिक्षा देते हुए व्यतीत किया जो उन्हें साधना से ज्ञात हुई थी, ताकि अन्य लोग भी पूर्णतः प्रबुद्ध हो कर स्वयं बुद्ध बन सकें।

कुरान में बुद्ध का उल्लेख

बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान हामिद अब्दुल कादिर ने अपनी रचना बुद्धा द ग्रेट : हिज़ लाइफ एण्ड फिलॉसॉफी (अरबी : बुध अल-अकबर हयातो वा फलसफतोह) में माना है कि पैगम्बर धुल किफ़्ल, जिसका अर्थ “किफ़्ल का वासी” है का कुरान में दो बार (अस अंबिया 85 तथा साद 48) धैर्यशील और भले के रूप में ज़िक्र आता है, जो शाक्यमुनि का ही उल्लेख है। हालाँकि अधिकांश विद्वान धुल किफ़्ल की पहचान पैगम्बर ऐज़कील के रूप में करते हैं, लेकिन कादिर कहते हैं कि किफ़्ल कपिलवस्तु के संक्षिप्त नाम कपिला का ही अरबीकृत स्वरूप है। कादिर यह भी लिखते हैं कि कुरान में वर्णित वटवृक्ष (अत-तिन 1-5) का उल्लेख भी बुद्ध के संदर्भ में ही है क्योंकि बुद्ध को एक ऐसे ही वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। कुछ विद्वान इस मत को स्वीकार करते हैं और इसके समर्थन में तर्क देते हैं कि ग्यारहवीं शताब्दी में भारतीय इतिहास के फारसी मुस्लिम विद्वान अल-बरूनी ने बुद्ध का उल्लेख एक पैगम्बर के रूप में किया है। कुछ अन्य विद्वान इस अन्तिम प्रमाण को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि अल-बरूनी ने अपने वर्णन में केवल यह कहा है कि भारत के लोग बुद्ध को पैगम्बर मानते थे।

कुछ विद्वान प्रेममय या करुणामय मैत्रेय, जिनके बारे में भविष्य के बुद्ध के रूप में भविष्यवाणी की गई थी, को उस करुणाशील के सेवक के रूप में पैगम्बर मुहम्मद के साथ जोड़ कर देखते हैं। हालाँकि वटवृक्ष के नीचे बुद्ध को जिस सत्य का बोध हुआ उसका वर्णन ईश्वरोक्ति के रूप में नहीं किया गया है, लेकिन बाद के महान बौद्ध आचार्यों को ईश्वरोक्ति के माध्यम से पवित्र ग्रंथों की प्राप्ति हुई है, जैसे कि चौथी शताब्दी में असंग को तुषित, अर्थात आनन्द के स्वर्ग में सीधे मैत्रेय से पवित्र ग्रंथों की शिक्षा प्राप्त हुई थी।

ईश्वर प्रदत्त धर्म ग्रंथ वालों के रूप में बौद्ध

बुद्ध को प्राप्त हुए बोध और उस बोध को प्राप्त करने के लिए बुद्ध द्वारा दी गई शिक्षाओं और विधियों को संस्कृत भाषा में “धर्म” कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ “निवारक उपाय” होता है। ये ऐसे उपाय या विधियाँ हैं जिनको अपनाने या जिनका पालन करने से हम स्वयं को या अन्य लोगों को दुख पहुँचाने से बच सकते हैं। ईसा की दूसरी शताब्दी तक इन निवारक उपायों के सम्बंध में बुद्ध के जो उपदेश मौखिक परम्परा से उपलब्ध थे, उन्हें धर्मग्रंथों के रूप में लिपिबद्ध कर लिया गया। अरब लोगों का बौद्धों के साथ पहली बार मेल-जोल वर्तमान उज़्बेकिस्तान और उत्तरी अफगानिस्तान क्षेत्र में हुआ था। वहाँ इन ग्रंथों के सर्वाधिक प्रचलित संस्करण प्राचीन तुर्क और सोगदी भाषाओं में अनुवाद के रूप में उपलब्ध थे। इन भाषाओं में धर्म शब्द का अनुवाद नॉम के रूप में किया गया था जोकि यूनानी भाषा से लिया गया है और जिसका अर्थ “विधि” होता है।

कुरान में “ईश्वर प्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायियों”, जिसका आशय ईसाई और यहूदी धर्मानुयायियों से था, के प्रति सहनशीलता का भाव रखने की शिक्षा दी गई थी। हालाँकि बौद्ध धर्म के अनुयायी “ईश्वर प्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायियों” की श्रेणी में नहीं आते थे, लेकिन उन्हें भी अरबों के शासन के अन्तर्गत वही दर्ज़ा और अधिकार दिए गए थे जो ईसाइयों और यहूदियों को हासिल थे। उन्हें अपने धर्म का पालन करने की छूट थी, लेकिन शर्त यह थी कि उनमें से गृहस्थ उपासकों को व्यक्ति-कर का भुगतान करना होता था। इस प्रकार “ईश्वर प्रदत्त धर्मग्रंथ वाले गैर-मुस्लिम धर्मानुयायियों” की इस नियमानुकूल अवधारणा का विस्तार किया गया होगा ताकि ऐसे लोगों को भी उसके दायरे में शामिल किया जा सके जो किसी उच्च शक्ति द्वारा तय किए गए नैतिक सिद्धान्तों का पालन करते थे।

बौद्ध धर्म की आधारभूत शिक्षाएं

चार आर्य सत्य

बुद्ध द्वारा दी गई धर्म की सबसे बुनियादी शिक्षाओं को “चार आर्य सत्यों” के नाम से जाना जाता है ─ चार ऐसे तथ्य जिन्हें सिद्ध जन सत्य मानते हैं। बुद्ध ने पाया कि सभी मनुष्यों के जीवन में (1) दुख का होना एक सत्य है। हालाँकि जीवन में नानाविध आनन्द उपलब्ध हैं, लेकिन इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि जीवन कठिनाइयों से भरा है। मनुष्य के स्वयं के और उसके प्रियजनों के रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु, जीवन की कुंठाएं, अन्य लोगों के साथ हमारे सम्बंधों से उत्पन्न होने वाली निराशाएं आदि अपने आप में बड़े दुख हैं। किन्तु लोग भ्रम पर आधारित अपने व्यवहार से इस स्थिति को और भी पीड़ादायक बना लेते हैं।

(2) चैतन्य का अभाव या सत्य से अनभिज्ञ होना इन दुखों का वास्तविक कारण है। उदाहरण के लिए, सभी लोग स्वयं को इस सृष्टि का केन्द्र बिन्दु मान कर चलते हैं। जब ये लोग किसी अबोध बालक की तरह अपनी आँखें मूँद लेते हैं तो उन्हें लगता है कि बाकी सभी लोगों का अस्तित्व समाप्त हो गया है। इस दृष्टिभ्रम के कारण उन्हें आभास होता है कि अकेले वे ही महत्वपूर्ण हैं और इसलिए हमेशा उनकी इच्छा का ही सम्मान किया जाना चाहिए। ऐसे आत्मकेन्द्रित और अहंकारी दृष्टिकोण के कारण वे लोग विवाद, झगड़े और यहाँ तक कि युद्ध तक करते हैं। यदि यह बात सत्य होती कि वे सृष्टि का केन्द्र बिन्दु हैं तो हर किसी को उनसे सहमत हो जाना चाहिए था। लेकिन कोई भी उनसे सहमत नहीं होगा क्योंकि हर दूसरा व्यक्ति यही समझता है कि वह स्वयं सृष्टि का केन्द्र बिन्दु है। इस विषय में वे सभी सही नहीं हो सकते।

किन्तु इन दुखों को (3) सही अर्थ में इस प्रकार से रोक पाना सम्भव है कि बाद में हमें फिर कभी दुख का अनुभव न हो। यह तभी हो सकता है जब हम (4) चित्त के सत्य मार्ग को अपनाएं ताकि हमें सत्य का बोध हो सके। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यदि हमें इस सत्य का बोध हो जाए कि समस्त जन परस्पर सम्बद्ध और परस्पर निर्भर हैं, और यह कि कोई भी एक व्यक्ति सृष्टि का केन्द्र बिन्दु नहीं है, तो लोगों के लिए अपने दुखों के ऐसे समाधान खोज पाना सम्भव है कि वे शांति और सौहार्द के साथ आपस में मिलजुल कर रह सकें। इस प्रकार बौद्ध धर्म का मूल दृष्टिकोण वैज्ञानिक है और तर्क पर आधारित है। दुख का निवारण करने के लिए उसके कारणों का पता लगाकर उन कारणों को दूर किया जाना चाहिए। सब कुछ कार्य-कारण के सिद्धान्त से संचालित होता है।

शून्यता और परस्पर निर्भरता

इस प्रकार सत्य का बोध, अर्थात प्रत्येक पदार्थ और जीव की परस्पर सम्बद्धता को समझ पाना और उसके परिणामस्वरूप समस्त जीवों के प्रति समान रूप से प्रेम और करुणा का भाव प्रदर्शित करना बुद्ध की शिक्षाओं का आधार बिन्दु है। समस्त जीवों और पदार्थों को एक करने वाले सर्वोच्च सिद्धान्त को “शून्यता” कहते हैं, जो सभी संज्ञाओं और अवधारणाओं से परे है। शून्यता से यह तथ्य अभिप्रेत है कि किसी भी पदार्थ का अस्तित्व अन्य दूसरे पदार्थों से पूर्णतः स्वतंत्र होने जैसे असम्भव और काल्पनिक रूप में नहीं है, बल्कि समस्त जीवों और पदार्थों की उत्पत्ति परस्पर निर्भरता के आधार पर होती है। चूँकि सभी जीव और उनका परिवेश परस्पर निर्भर हैं, इसलिए हमें सभी के प्रति प्रेम, सहानुभूति और करुणा का भाव रखना चाहिए और सक्रिय रूप सभी की सहायता का उत्तरदायित्व लेना चाहिए। शून्यता और करुणा, जिन्हें प्रज्ञा और पद्धति के रूप में जाना जाता है, के इन दो तत्वों पर केन्द्रित रहने के लिए पूर्ण एकाग्रता और नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है। इन सभी गुणों को विकसित करने के लिए बुद्ध ने अनेक विधियों की शिक्षा दी थी।

नैतिक और कर्म

बुद्ध इस बात पर विशेष बल देते थे कि मनुष्य को सदाचार के कड़े सिद्धान्तों का पालन करते हुए नैतिक जीवन व्यतीत करना चाहिए। वे कहते थे कि दूसरों की सहायता करने का यत्न करना चाहिए, और यदि ऐसा कर पाना सम्भव न हो तो कम से कम दूसरों को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए। उन्होंने कर्म या व्यवहारजन्य कार्य-कारण के वैज्ञानिक सिद्धान्त की दृष्टि से नीति शास्त्र की व्याख्या की। “कर्म” का अर्थ भाग्य नहीं है, बल्कि कर्म से हमारा आशय उन मनोवेगों से होता है जो व्यक्ति की दैहिक, शाब्दिक और मानसिक क्रियाओं के प्रेरक होते हैं और उन क्रियाओं के साथ संलग्न होते हैं। सकारात्मक अथवा नकारात्मक क्रियाएं करने के लिए प्रवृत्त करने वाले मनोवेगों की उत्पत्ति हमारी वृत्ति का अनुकूलन करने वाले पिछले अनुभवों के कारण होती है और इन मनोवेगों के वशीभूत की जाने वाली क्रियाएं व्यक्ति के लिए एक निश्चित सुख या पीड़ा का कारण बनती हैं। सुख अथवा पीड़ा की ये स्थितियाँ इस जन्म में या अगले जन्मों में कर्ता के समक्ष उपस्थित होंगी।

पुनर्जन्म

अन्य भारतीय धर्मों की ही भांति बौद्ध धर्म में भी पुनर्जन्म या अवतार की मान्यता है। व्यक्ति की वृत्ति, गुण आदि सहित उसका मनोगत सातत्य उसके पिछले जन्मों से भविष्य के जन्मों तक चलता रहता है। किसी व्यक्ति की क्रियाओं और प्रवृत्तियों के आधार पर उसका पुनर्जन्म स्वर्ग अथवा नरक में, या किसी पशु के रूप में, मनुष्य के रूप में अथवा अनेक प्रकार के प्रेतों में से किसी प्रेत के रूप में या भूत के रूप में हो सकता है। समस्त जीव आसक्ति, क्रोध और मूढ़ता जैसी अशांत करने वाली मनोवृत्तियों और उनके कारण उद्भूत मनोवेगों के वशीभूत पुनर्जन्म की नियंत्रणातीत प्रक्रिया और अनिवार्यतः क्रिया करने की प्रक्रिया से होकर गुज़रते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपनी पिछली व्यवहारजन्य प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप नकारात्मक मनोवेगों से प्रेरित होकर विनाशकारी कर्म करता है तो उसे कष्ट और दुख के कर्मफल की प्राप्ति होगी। वहीं, दूसरी ओर, यदि वह सकारात्मक कर्म करता है तो उसे सुख के फल की प्राप्ति होगी। इस प्रकार, प्रत्येक मनुष्य का सुख आ दुख उसे पुरस्कार या दण्डस्वरूप प्राप्त नहीं होता है, बल्कि इसका निश्चय व्यवहारजन्य कार्य-कारण के सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति के पिछले कर्मों के आधार पर होता है।

दस विशेष रूप से विनाशकारी कर्मों का निग्रह करना बौद्ध नीति शास्त्र का आधार स्तम्भ है। इन दस कर्मों में हत्या, चोरी, और अनुचित यौन व्यवहार के दैहिक कर्म; मिथ्याकथन, फूट डालने वाले वचन कहना, कठोर और क्रूर वचन कहना और निरर्थक वचन कहना जैसे वाचिक कर्म; और लोलुप विचार रखना, द्वेषपूर्ण विचार रखना, और हर सकारात्मक बात के महत्व को नकारने के लिए प्रेरित करने वाले विकृत तथा विरोधपूर्ण विचार रखना जैसे आत्मिक कर्म शामिल हैं। बुद्ध ने शरीया जैसे किसी विधिक नियमसंग्रह की शिक्षा नहीं दी थी जिसकी सहायता से नकारात्मक कर्मों के लिए दण्डों का निर्धारण किया जा सके। विनाशकारी कर्म करने वालों को मनुष्य चाहे दण्डित करें या न करें, जो भी नकारात्मक कर्म करेगा उसे अपने कर्मों के फलस्वरूप दुख भोगना ही पड़ेगा।

भक्तिपरक साधना और ध्यान साधना

बुद्ध ने पाया कि अपनी सभी समस्याओं को हल करने और बुद्धत्व प्राप्त करने की दृष्टि से सभी मनुष्यों की क्षमता समान नहीं होती है। और यह भी कि सभी मनुष्यों की प्राथमिकताएं, रुचियाँ और योग्यताएं अलग-अलग होती हैं। इन भिन्नताओं का सम्मान करते हुए बुद्ध ने अपने सीमा-बंधनों पर विजय पाने और अपनी सामर्थ्य को साकार करने के उद्देश्य से आत्मसुधार करने के लिए अनेक प्रकार की विधियों की शिक्षा दी। इन विधियों में अध्ययन, प्रार्थना करने से पहले तीन बार साष्टांग प्रणाम करने, ज़रूरतमंद लोगों और आध्यात्मिक जीवन के लिए समर्पित लोगों को उदारतापूर्वक दान देने, बुद्ध के नामों और मंत्रों की माला जपने, तीर्थयात्रा करने और पवित्र स्थलों की परिक्रमा करने, और विशेषतः ध्यान साधना की विधियाँ शामिल हैं। ध्यान साधना से आशय हितकारी स्वभाव विकसित करने का अभ्यास करने से हैं जिसे बार बार प्रेम, धैर्य, सचेतनता, एकाग्रता और सत्य को पहचानने जैसे सकारात्मक भाव विकसित करने का अभ्यास करके, और फिर अपने निजी जीवन की स्थितियों में इनका आचरण करके विकसित किया जा सकता है।

इसके अलावा, बुद्ध ने लोगों से कहा कि वे उनकी बताई हुई बातों पर केवल श्रद्धावश यकीन न करें, बल्कि हर बात इस प्रकार परखें जैसे वे सोना खरीद रहे हों। यदि लोगों को अपने व्यक्तिगत अनुभव से ऐसा महसूस हो कि बुद्ध की शिक्षाएं किसी दृष्टि से हितकारी हैं, केवल तभी वे उन शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाएं। बुद्ध ने लोगों से कहा कि उन्हें अपनी संस्कृति या अपने धर्म को बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि किसी को वे शिक्षाएं किसी भी दृष्टि से उपयोगी लगें, तो वह उन्हें सहर्ष स्वीकार कर सकता है।

बौद्ध धर्म में प्रार्थना करने के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया है, और न ही गृहस्थ अनुयायियों के लिए पुरोहितों द्वारा कराई जाने वाली धार्मिक पूजा आदि का या विश्राम दिवस का प्रावधान है। लोग कभी भी और कहीं भी पूजा अर्चना कर सकते हैं। किन्तु पूजा अर्चना और ध्यान साधना अधिकांशतः बौद्ध मंदिरों में या उपासकों के घरों में बने मंदिरों में ही की जाती है। इन मंदिरों में अक्सर बुद्धों तथा दूसरों की सहायता करने और स्वयं बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए पूर्णतः प्रवृत्त बोधिसत्वों के चित्र लगाए जाते हैं। लोग इन मूर्तियों की पूजा-उपासना नहीं करते हैं, वरन इन मूर्तियों का प्रयोग उन महान हस्तियों की महानता पर ध्यान केन्द्रित करने लिए किया जाता है जिन्हें इन मूर्तियों के माध्यम से दर्शाया जाता है। अब चूँकि बुद्ध और बोधिसत्व सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं होते हैं, इसलिए इन मूर्तियों से प्रेरणा ग्रहण करने और अपने सद्प्रयोजनों को स्वयं साकार करने की मार्गदर्शक शक्ति पाने के लिए प्रार्थना की जाती है। किन्तु अज्ञानी लोग केवन अपनी मनौतियाँ स्वीकार किए जाने के लिए अनुरोध करते हैं। बुद्धजन की सिद्धियों को सम्मान देने की दृष्टि से लोग इन मूर्तियों और चित्रों को लोबान, मोमबत्तियाँ, जल से भरे कटोरे और भोजन आदि अर्पित करते हैं।

दैनिक आहार तथा मदिरा का परिवर्जन

बौद्ध धर्म में दैनिक आहार के सम्बंध में भी कोई नियम तय नहीं किए गए हैं। बौद्ध धर्मानुयायियों को जहाँ तक सम्भव हो सके शाकाहारी रहने की प्रेरणा दी जाती है, किन्तु यदि केवल वनस्पतियों का ही भोजन किया जाए तब भी कृषि कर्म में किसी न किसी कारण से कीट मारे जाते हैं। ऐसी स्थिति में बौद्ध अनुयायी अपनी भोजन सम्बंधी आवश्यकताओं को नियंत्रित करके पशुओं और कीटों को होने वाली हानि सो कम से कम करने का यत्न करता है। कभी कभी, उदाहरण के लिए, चिकित्सीय कारणों से, या आतिथेय को ठेस न पहुँचाने की दृष्टि से, या फिर भोजन के रूप में कोई और सामग्री उपलब्ध न होने की स्थिति में मांस का सेवन आवश्यक हो सकता है। ऐसी स्थिति में मांस का भोजन करने वाला व्यक्ति उसके लिए प्राणों का त्याग करने वाले पशु को धन्यवाद ज्ञापित करता है और प्रार्थना करता है कि उस पशु का बेहतर योनि में पुनर्जन्म हो।

बुद्ध ने अपने अनुयायियों को यह भी शिक्षा दी कि वे बूँद भर भी मदिरा का सेवन न करें। बौद्ध शिक्षा का उद्देश्य चैतन्यभाव, अनुशासन और आत्म-नियंत्रण के गुणों का विकास करना है। मदिरापान करने से ये सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। फिर भी, बुद्ध के कुछ अनुयायी उनकी इस शिक्षा का पालन नहीं करते हैं।

मठ परम्परा

बौद्ध धर्म में मठवासी जीवन और गृहस्थ जीवन, दोनों प्रकार की परम्पराएं हैं। भिक्षु और भिक्षुणियाँ पूर्ण ब्रह्मचर्य सहित सैकड़ों प्रकार के व्रतों का पालन करते हैं। वे अपना सिर मुंडवाते हैं, विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करते हैं और मठों में समुदायों में रहते हैं। उनका जीवन ध्यान-साधना, पूजा-पाठ, और गृहस्थों के लिए अनुष्ठान सम्पादित कराने के कार्य को समर्पित होता है। बदले में गृहस्थ लोग या तो सीधे मठों को या प्रतिदिन सुबह उनके घर भिक्षाटन के लिए आने वाले भिक्षुओं को भोजन अर्पित करके मठवासियों की सहायता करते हैं।

समानता

हालाँकि बुद्ध के समय में भारतीय हिन्दू समाज जातियों में बँटा हुआ था, जहाँ कुछ निम्न जातियों को अन्य जातियाँ अस्पृश्य मानती थीं, किन्तु बुद्ध ने घोषणा की कि उनके मठ समुदायों में सभी लोग बराबर होंगे। इस प्रकार बुद्ध ने समाज का त्याग करके भिक्षुओं और भिक्षुणियों के मठों में आध्यात्मिक साधना के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले लोगों के बीच जातीय भेद-भाव को खत्म किया। मठीय संस्थाओं में पुरोहिताधिपत्य पहले दीक्षा प्राप्त करने और सबसे अधिक लम्बे समय तक व्रतों का पालन करने वाले व्यक्तियों को दिए जाने वाले सम्मान के आधार पर तय किया जाता था। इस प्रकार किसी अधिक उम्र वाले व्यक्ति से पहले दीक्षा प्राप्त करने वाले कम उम्र के व्यक्ति को प्रार्थना सभाओं में आगे बैठने का स्थान दिया जाता था और भोजन तथा चाय पहले परोसी जाती थी। जब प्रार्थना सभाओं में पुरुष तथा महिलाएं एक साथ हिस्सा लेते थे, तो एशियाई परम्परा के अनुरूप उनके अलग-अलग बैठने की व्यवस्था की जाती थी और पुरुष आगे के स्थानों पर बैठते थे।

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