सेरकोँग रिंपोछे की मृत्यु और उनका पुनर्जन्म

परम पावन दलाई लामा के जीवन को सम्भावित खतरा

रिंपोछे की मृत्यु की घटना उनके जीवन काल से भी अधिक विलक्षण और उल्लेखनीय है। जुलाई, 1983 में रिंपोछे ने स्‍पीति में स्थित ताबो मठ में परम पावन दलाई लामा द्वारा कालचक्र की दीक्षा दिए जाने के कार्यक्रम की व्यवस्था की थी। बाद में रिंपोछे ने एक स्थानीय वृद्ध भिक्षु कछेन द्रुबग्येल को बताया था कि तिब्बती ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वह वर्ष परम पावन के लिए बाधाओं से भरा बीतने वाला था। परम पावन के जीवन को खतरा था। इसलिए यही बेहतर होगा कि रिंपोछे इन बाधाओं को अपने ऊपर ले लें। रिंपोछे ने उस वृद्ध भिक्षु से कहा कि वह यह बात किसी को भी न बताए।

इसके बाद रिंपोछे ने तीन सप्ताह की कठोर साधना का एकांतवास प्रारम्भ किया। इसके बाद वे नज़दीक ही तिब्बती सेना के एक शिविर में सैनिकों को बोधिसत्व का व्यवहार में उलझाने विषय पर उपदेश देने के लिए गए। रिंपोछे को इस पाठ की शिक्षा अपेक्षाकृत लम्बी अवधि तक देनी थी, लेकिन उन्होंने जल्दी ही अपना कार्यक्रम पूरा कर लिया। अपने निर्धारित कार्यक्रम से कई दिन पहले शिविर से लौटते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्हें अन्यत्र किसी विशेष कार्य से जाना था। इसी दिन, अर्थात 29 अगस्त, 1983 को ही परम पावन उसी समय हवाई यात्रा करके जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड पहुँचने वाले थे जब फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के अध्यक्ष यासर अराफ़ात को भी वहाँ पहुँचना था। पुलिस अधिकारियों को अराफ़ात पर आतंकी हमला किए जाने की आशंका थी। अधिकारियों ने चेतावनी दी थी कि वे परम पावन की सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते थे।

परम पावन दलाई लामा के जीवन की कठिनाइयों को अपने ऊपर लेने के लिए तैयारी करना

रिंपोछे और ङावंग एक जीप में सेना के शिविर से निकल पड़े और रास्ते में कुछ देर के लिए ताबो मठ में ठहरे। रिंपोछे ने कछेन द्रुबग्येल को साथ चलने के लिए कहा, लेकिन उस वृद्ध भिक्षु ने बताया कि उन्होंने कुछ ही देर पहले अपने लबादे को धोया था। रिंपोछे ने कहा कि वे इसकी परवाह न करें और अपने अन्तर्वस्त्र में ही चल पड़ें। अपने चोगे को सुखाने के लिए वे उसे जीप के ऊपर बांध सकते हैं, और उस वृद्ध भिक्षु ने वैसा ही किया।

जब वे स्‍पीति घाटी में और भीतर पहुँचने लगे तो रिंपोछे ने ङावंग से कहा वे उन्हें हमेशा करुणा सम्बंधी मंत्र ऊँ मणि पद्मे हुं का जाप करने के लिए कहते आए हैं लेकिन ङावंग कभी उनकी सलाह को गंभीरता से नहीं लेते। यह उनकी आखिरी सलाह साबित होने वाली थी।

इसके बाद वे लोग क्यी मठ में रुके। यहाँ रिंपोछे आहुतियाँ अर्पित करना चाहते थे। ङावंग ने कहा कि काफ़ी देर हो चुकी थी और वे लोग अगले दिन सुबह रवाना हों को बेहतर होगा, लेकिन रिंपोछे ने उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। अधिकांशतः रिंपोछे धीरे-धीरे चलते थे और उन्हें चलने में कठिनाई होती थी। लेकिन आवश्यकता होने पर रिंपोछे दौड़ भी सकते थे। एक बार एक हवाई अड्डे पर जब हमें पहुँचने में देर हो गई और हमारी उड़ान छूटने ही वाली थी, रिंपोछे इतना तेज़ दौड़े कि हममें से कोई भी उनके बराबर न आ सका। इसी प्रकार एक बार बोध गया में परम पावन जब बुद्ध की शिक्षाओं के तिब्बती अनुवाद (कांग्यूर) के सौ खण्डों के सामूहिक जाप के कार्यक्रम में भाग ले रहे थे, तो रिंपोछे परम पावन के बराबर में बैठे हुए थे और मैं रिंपोछे के ठीक पीछे बैठा हुआ था। तभी परम पावन के सामने रखे हुए खुले पृष्ठों वाले पाठ में से एक पन्ना तेज़ हवा से उड़ गया। रिंपोछे हवा की सी गति से लपके और क्षण भर में उस पृष्ठ को ज़मीन से उठा लिया। सामान्यतया उन्हें उठने के लिए भी सहायता की आवश्यकता होती थी। इस बार क्यी मठ में भी रिंपोछे बिना सहायता के खड़े पहाड़ी ढलान पर तेज़ी से दौड़े थे।

आहुतियाँ अर्पित करने के बाद क्यी मठ के भिक्षुओं ने रिंपोछे से आग्रह किया कि वे रात को वहीं ठहर जाएं। रिंपोछे ने यह कहते हुए ठहरने से इंकार कर दिया कि उन्हें उसी रात क्यीबर गाँव पहुँचना था। यदि वे उनसे दुबारा मिलना चाहते थे तो उन्हें उस गाँव तक जाना पड़ेगा। और इस प्रकार आने वाली घटना का परोक्ष संकेत देते हुए वे जल्दी ही वे वहाँ से निकल पड़े।

ऊँचाई पर स्थित क्यीबर गाँव पहुँच कर रिंपोछे अपने साथियों के दल के साथ एक परिचित किसान के घर पहुँचे। वह किसान अभी अपने खेतों में ही काम करने के लिए गया हुआ था क्योंकि उसके पास किसी अतिथि के आने की पूर्व सूचना नहीं थी। रिंपोछे से ने उससे पूछा कि वह अगले एक-दो सप्ताह तक व्यस्त तो नहीं था। किसान ने उन्हें बताया कि वह व्यस्त नहीं था और उसने रिंपोछे को अपने यहाँ ठहरने के लिए आमंत्रित किया।

ध्यान साधना में लीन रहते हुए रिंपोछे के देह-त्याग वाली संध्या

स्नान आदि करने के बाद रिंपोछे ने थोड़ा दही खाया और फिर वे स्मृति से ही चोंखापा द्वारा रचित व्याख्येय तथा निश्चित अर्थों की उत्कृष्ट स्पष्टीकरण का सार का जाप करने लगे। इस प्रक्रिया को करने में उन्हें लगभग दो घंटे का समय लगा। जाप करने के बाद उन्होंने ङावंग को अपने पास बुलाया और बताया कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है। फिर उन्होंने अपना सिर ङावंग के कंधे पर टिका दिया ─ सामान्यतया रिंपोछे ऐसा कभी नहीं करते थे। अब बाद में सोचने पर लगता है कि यह उनका अलविदा कहने का तरीका था। यह सब होने से पहले उन्होंने छोंज़ेला को शिमला भेज दिया था क्योंकि छोंज़ेला आगे आने वाली घटनाओं को देख नहीं पाते। वे छह वर्ष की उम्र से रिंपोछे के साथ रहे थे और रिंपोछे ने उन्हें अपने पुत्र की भांति पाल कर बड़ा किया था।

ङावंग ने किसी डॉक्टर को बुलाने या दवाओं का प्रबंध करने की बात कही, लेकिन रिंपोछे ने इन्कार कर दिया। ङावंग ने पूछा कि क्या उन्हें किसी अन्य प्रकार की सहायता की ज़रूरत तो नहीं है, इस पर रिंपोछे ने उन्हें शौचालय तक जाने में मदद करने के लिए कहा और ङावंग ने वैसा ही किया। इसके बाद रिंपोछे ने ङावंग को उनका बिस्तर तैयार करने के लिए कहा। रिंपोछे सामान्यतया हमेशा पीली चादर पर सोते थे, लेकिन आज उन्होंने ङावंग को सफ़ेद चादर बिछाने के लिए कहा। तंत्र साधना के अनुष्ठानों में पीले रंग का प्रयोग दूसरों की सहायता करने की अपनी क्षमता का विकास करने के लिए किया जाता है जबकि सफ़ेद रंग का प्रयोग बाधाओं को शांत करने के लिए किया जाता है।

इसके बाद रिंपोछे ने ङावंग और कछेन द्रुबग्येल को अपने कमरे में आने के लिए कहा। जब वे दोनों आ गए तो रिंपोछे बुद्ध की शयन मुद्रा में दाहिनी करवट से लेट गए। सामान्यतया सोने के लिए तैयार होते समय वे अपना बायां हाथ बगल में और दाहिना हाथ अपने चेहरे के नीचे रखते थे। लेकिन इस बार उन्होंने अपने हाथ तांत्रिक आलिंगन की मुद्रा में एक दूसरे पर मोड़ लिए। फिर उन्होंने लम्बे-लम्बे श्वास लेना शुरु किया और “बाहर जाते हुए श्वास के साथ दूसरों को प्रसन्नता देने और भीतर आते श्वास के साथ सभी के दुख अपने ऊपर लेने” (तोंग-लेन) की साधना की प्रक्रिया की सहायता से उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उस समय उनकी आयु उनहत्तर वर्ष की थी और उनका स्वास्थ्य एकदम अच्छा था। दो महीने पहले ही मैं उन्हें दिल्ली में सम्पूर्ण चिकित्सा जाँच कराने के लिए ले गया था।

ठीक उसी समय, जब परम पावन जिस विमान में सवार थे वह जिनेवा की ओर उड़ा जा रहा था, चेयरमेन अराफ़ात ने अचानक अपना विचार बदल लिया और स्विट्ज़रलैंड की अपनी यात्रा स्थगित करने का फैसला ले लिया। इस प्रकार हवाई अड्डे पर किसी प्रकार की आतंकी घटना का खतरा टल गया। हालाँकि परम पावन के जीवन पर मंडराने वाला खतरा टल चुका था, लेकिन परम पावन के वाहनों का काफ़िला हवाई अड्डे से होटल जाते समय अपने रास्ते से भटक गया। लेकिन परम पावन को कोई हानि नहीं पहुँची। सेरकोँग रिंपोछे ने अपनी जीवन-ऊर्जा को उत्सर्ग करके परम पावन के जीवन की बाधा को सफलतापूर्वक अपने ऊपर ले लिया था।

बाधाओं का सामना करने के लिए रिंपोछे द्वारा प्रयोग की जाने वाली आदान-प्रदान की ध्यान साधना

दूसरों को प्रसन्नता देने और उनके दुख अपने ऊपर लेने की प्रक्रिया बुद्ध के समान आचरण की एक उन्नत तकनीक है जिसमें साधक दूसरों की बाधाओं को अपने ऊपर ले लेता है और बदले में उन्हें प्रसन्नता देता है। जब भी रिंपोछे इस साधना का अभ्यास कराते थे, वे कहते कि हमें अपने प्राणों के बलिदान की कीमत पर भी दूसरों की विपत्तियों को अपने ऊपर लेने के लिए तैयार रहना चाहिए। वे हमेशा खुनु लामा रिंपोछे द्वारा दिए जाने वाले उस व्यक्ति के उदाहरण का उल्लेख करते जिसने किसी अन्य व्यक्ति के सिर की चोट को अपने ऊपर ले लिया था जिसके परिणामस्वरूप उसकी जान चली गई थी। जब हम रिंपोछे से पूछते कि यदि वे ऐसा करते हैं तो क्या ऐसा करना वृथा नहीं होगा, तो वे जवाब देते कि यह वृथा नहीं होगा। वे बताते कि यह उस अंतरिक्ष यात्री के त्याग जैसा होगा जो विश्व समुदाय की प्रगति के लिए अपने जीवन को दांव पर लगाता है। जिस प्रकार उस अंतरिक्ष यात्री के साहस के उदाहरण और यश का प्रभाव सरकार की ओर से उसके परिजन के भरण-पोषण के लिए पेंशन लाभ सुनिश्चित करेगा उसी प्रकार उस साहसी लामा के उदाहरण से लामा के पीछे छूटने वाले शिष्यों को आध्यात्मिक पोषण प्राप्त होगा।

तीन दिन तक मृत्यु-संधि ध्यान साधना में लीन रहना

सेरकोँग रिंपोछे तीन दिन तक निर्मल प्रकाश पर ही मृत्यु-योग साधना में रहे। जो साधक अपने पुनर्जन्म को संचालित करने की क्षमता रखते हैं वे या तो पुनर्जन्मे लामाओं की श्रृंखला को प्रारम्भ करने के लिए या उसे जारी रखने के लिए इस प्रकार की साधना को करते हैं। साधना के दौरान उनका श्वास बंद हो जाने पर भी उनका हृदय सजीव बना रहता है और शरीर गलना शुरू नहीं होता है। सामान्यतः महान लामा कई दिनों तक इसी अवस्था में रहते हैं और फिर उनका सिर एक ओर लुढ़क जाता है और नथुनों से रक्त बाहर आ जाता है जो दर्शाता है कि चेतना उनके शरीर से जा चुकी है।

जब सेरकोँग रिंपोछे के शरीर में ये लक्षण दिखाई दिए तो उनकी अंत्येष्टि के लिए चुनी गई बंजर पहाड़ी के ऊपर आकाश में इंद्रधनुष चमकने लगे और आश्चर्यजनक रूप से प्रकाश दिखाई देने लगा। हालाँकि परम पावन के नामग्याल मठ को सूचना भेज दी गई थी ताकि भिक्षु गण अंत्येष्टि क्रिया में शामिल होने के लिए पहुँच सकें, लेकिन वे लोग समय पर नहीं पहुँच सके। और अन्त में स्‍पीति के भिक्षुओं ने ही सादगीपूर्वक दाह संस्कार सम्पन्न किया, जैसी कि सम्भवतः रिंपोछे की भी इच्छा रही होगी। कुछ समय बाद ही अंत्येष्टि स्थल से आरोग्यकर गुणों वाला एक झरना बह निकला। यह झरना आज भी बहता है और एक तीर्थ स्थल बन चुका है। ठीक नौ महीने बाद, 29 मई, 1984 को रिंपोछे का स्‍पीति के ही एक सीधे-सादे परिवार में पुनर्जन्म हुआ।

अपने पुनर्जन्म को निर्देशित करना

कई वर्ष पूर्व रिंपोछे की मुलाकात त्सेरिंग छोद्रग और कुंज़ांग छोद्रोन नाम के पति-पत्नी से हुई थी जिन्होंने रिंपोछे को बहुत प्रभावित किया था। धर्म में गहरी आस्था रखने वाले इन पति-पत्नी ने रिंपोछे से भिक्षु और भिक्षुणी बनने की हार्दिक इच्छा ज़ाहिर की थी। स्थानीय गाँवों के मुखिया ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी थी क्योंकि नव निर्मित परिवार वाले वयस्कों को मठ के जीवन का निर्वाह करने में बड़ी समस्याएं होंगी। उसकी सलाह थी कि वे पहले अपने बच्चों की देखभाल करें। रिंपोछे ने मुखिया की सलाह का समर्थन किया। ये वही माता-पिता थे जिनके घर में रिंपोछे ने उनके चौथे बच्चे के रूप में जन्म लिया।

शिष्य गण मृत्यु-योग साधना की महारथ हासिल करने वाले महान लामा के पुनर्जन्म का पता लगाने के लिए अनेक विधियों का प्रयोग करते हैं। इन विधियों में भविष्यवक्ताओं से परामर्श करने और श्रेष्ठ आचार्यों के स्वप्नों के निर्वचन की विधियाँ शामिल होती हैं। इस प्रकार अन्तिम रूप से चुने गए उम्मीदवार को बहुत सी मिलती-जुलती चीज़ों में से दिवंगत लामा द्वारा प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं को ठीक-ठीक पहचानना होता है। किन्तु परम पावन आगाह करते हैं कि इस प्रकार की विधियों पर पूरी तरह से आश्रित नहीं हुआ जा सकता है। एक गम्भीर उम्मीदवार के रुप में चुने जाने से पहले उस बच्चे को अपनी पहचान के स्पष्ट संकेत देने चाहिए।

रिंपोछे के नए अवतरण की पहचान करना

स्‍पीति के लोग सेरकोँग रिंपोछे को एक संत के समान मानते हैं ─ लगभग हर घर में उनका चित्र रखा जाता है। जैसे ही नन्हे सेरकोँग रिंपोछे ने बोलना शुरू किया, उन्होंने अपने माता-पिता के घर में दीवार पर टंगे रिंपोछे के चित्र को देखकर कहा, “यह तो मैं हूँ!” बाद में जब ङावंग उस बच्चे की जाँच के लिए गए तो वह बालक दौड़ कर उनकी बाँहों में आ गया। वह उनके साथ वापस अपने मठ जाना चाहता था।

इस बालक की पहचान को लेकर किसी के मन में कोई शंका नहीं थी। कुछ ही वर्ष पहले स्‍पीति की कुछ प्रख्यात महिलाओं ने रिंपोछे से अनुरोध किया था कि वे स्‍पीति में ही पुनर्जन्म लें। इन लोगों के दूरदराज़ के इस सीमावर्ती ज़िले में जाने के लिए भारत सरकार से अनुमति लेना हमेशा मुश्किल होता था। इस पुनर्जन्म से ये सभी मुश्किलें आसान हो जाने वाली थीं। इस सम्मान से पूरी तरह अभिभूत माता-पिता ने अपनी सहमति दे दी, और चार वर्ष की उम्र के नन्हे रिंपोछे धर्मशाला के लिए निकल पड़े। हालाँकि उनके माता-पिता समय समय पर उनसे मिलने के लिए आते रहते हैं, लेकिन इस बालक ने कभी उनके बारे में पूछा नहीं है और न ही ऐसा आभास दिया है कि उसे उनकी याद आती है। शुरुआत से ही वे अपने पुराने घर के सदस्यों से पूरी तरह घुल-मिल गए। हृदय से वे उन्हीं लोगों को अपना परिवार मानते हैं।

नए अवतरण द्वारा पहली ही मुलाकात में मुझे पहचान लिया जाना

जब रिंपोशे पहली बार धर्मशाला पधारे तब मैं एक व्याख्यान दौरे पर भारत से बाहर गया हुआ था। कुछ महीने बाद वापस लौटने पर जब मैं उनसे मिलने के लिए गया तो मैं प्रयास कर रहा था कि मैं बहुत ज़्यादा उत्सुक या संशय में न लगूँ। जैसे ही मैंने रिंपोशे के कमरे में प्रवेश किया, न्गवांग ने उस बालक से पूछा कि क्या वह मुझे पहचानता है। बालक ने जवाब दिया, "नासमझ मत बनो। बेशक, मैं जानता हूँ कि ये कौन हैं!" चूँकि पुराने सरकांग रिंपोशे और परम पावन पोप के बीच वेटिकन में हुई एक मुलाकात के समय अनुवाद करते हुए मेरा एक चित्र उनके बैठक कक्ष में प्रमुखता से टंगा हुआ था, इसलिए मुझे लगा कि शायद उन्होंने मुझे उस चित्र से पहचान लिया है। लेकिन फिर भी, जिस क्षण हमारी मुलाकात हुई, तभी से नन्हे रिंपोशे ने मेरे साथ परिवार के किसी सदस्य जैसा पूरे परिचय और सहजता का व्यवहार किया। कोई चार साल का बालक इस तरह का दिखावा नहीं कर सकता है। दूसरी सभी बातों से ज़्यादा इस बात ने मुझे यकीन दिलाया है कि वे कौन हैं।

वर्ष 1998 में चौदह वर्षीय रिंपोछे

अब, 1998 में नए सेरकोँग रिंपोछे चौदह वर्ष के हो चुके हैं। अधिकांशतः वे अपने मुंडगोड के मठ में ही रहते हैं और जब परम पावन कोई प्रमुख उपदेश देते हैं तो वे साल में एक-दो बार धर्मशाला आते हैं। छोंज़ेला और रिंपोछे के बूढ़े रसोइए की मृत्यु हो चुकी है और ङावंग ने भिक्षु का चोला त्याग कर विवाह कर लिया है और अब वे नेपाल में रहते हैं। रिंपोछे की देखभाल करने के लिए उनके पास भिक्षुओं का एक नया परिवार है जिन्हें उन्होंने अपने पिछले जन्म में चुना था। उदाहरण के लिए, उन्होंने अपने परिवार में शामिल करने और अपने जीवन काल के आखिरी कुछ महीनों में अपनी देखरेख करने के लिए स्‍पीति और किन्नौर से दस वर्ष की उम्र के दो बालकों का चुनाव स्वयं किया था।

हालाँकि उनका हास्य-बोध अपने पूर्ववर्ती के जैसा ही है और उन्ही के जैसा व्यावहारिक दृष्टिकोण भी रखते हैं, फिर भी युवा सेरकोँग रिंपोछे का अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व है। एक जीवन काल से दूसरे जीवन काल में जो बातें जारी हैं वे हैं उनकी प्रतिभाएं, उनके रुझान और उनके कर्म सम्बंध। उनके साथ मेरे अपने सम्बंध के बारे में मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मैं कैप्टन कर्क की मूल फिल्म स्टार ट्रैक के चालक दल का सदस्य हूँ जो अब स्टार ट्रैक : द नेक्स्ट जनरेशन के कैप्टन पिकार्ड के दल में शामिल हो गया है। सब कुछ बदल चुका है, लेकिन एक निश्चित नैरन्तर्य कायम है।

रिंपोछे के पालन-पोषण में पृष्ठभूमि में रहकर भूमिका निभाना

अभी तक मैं रिंपोछे के लालन-पालन में गौण भूमिका निभाता आया हूँ। मुझे महसूस होता है कि पुराने रिंपोछे मुख्यतः अपने लोगों की ही सेवा करना चाहते। बहुत से ऐसे महान लामा हुए हैं जिन्होंने इस बात के तिब्बती लोगों के हित के विरुद्ध होते हुए भी अपनी सेवाओं को पश्चिम में या एशिया में अपने परम्परागत सांस्कृतिक क्षेत्र के दायरे से बाहर समर्पित किया है। यदि तिब्बती बौद्ध धर्म को उसके पूर्ण विकसित रूप में जीवित बनाए रखना है तो भविष्य की तिब्बतियों की पीढ़ियों को उसके बारे में प्रशिक्षित करना आवश्यक है। ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि बौद्ध धर्म की सम्पूर्ण शिक्षाएं केवल तिब्बती भाषा में ही उपलब्ध हैं। रिंपोछे ने मेरे प्रशिक्षण और आत्म-विकास के लिए यथासंभव श्रेष्ठ परिस्थितियाँ उपलब्ध करवाईं। उनके इस उपकार को सार्थक बनाने के लिए मैंने भी उनके लिए कुछ वैसा ही करने का यत्न किया है।

सांस्कृतिक टकराव की स्थिति को टालने के उद्देश्य से मैं उनकी आधुनिक शिक्षा के कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ हूँ। वस्तुतः मैं जानबूझ कर उनसे बहुत अधिक सम्पर्क में रहने से बचता रहा हूँ ─ हालाँकि जब भी हम मिलते हैं, हमारे बीच का आपसी लगाव साफ़ ज़ाहिर होता है। बल्कि मैंने भारत में चलाए जा रहे तिब्बती विद्यालयों में अपनाई जा रही पाठ्यचर्या के अनुसार उन्हें अंग्रेज़ी, विज्ञान, और सामाजिक अध्ययन के विषयों का ज्ञान देने के लिए स्थानीय तिब्बती शिक्षकों की व्यवस्था करने में सहायता की है। इसके परिणामस्वरूप रिंपोछे अपने लोगों से पूरी तरह से जुड़ सकेंगे। न मैं उन्हें पश्चिम की ओर ले गया हूँ और न ही उनके लिए मैने कभी कोई कम्प्यूटर या वीडियो प्लेयर लाकर दिया है, और दूसरों को भी मैं ऐसा करने से रोकता हूँ। कितने ही युवा पुनर्जन्मे लामा मठ के पारम्परिक अध्ययन से अधिक कम्प्यूटर गेम्स और एक्शन वीडियोज़ की ओर आकर्षित होते हैं।

एक बार पुनः उनका शिष्य बनने के लिए प्रार्थना

मैं नहीं कह सकता कि मेरे इस प्रकार के निर्देशन का कितना योगदान रहा है, लेकिन रिंपोछे अपनी संस्कृति में स्वयं को सुरक्षित और आरामदेह स्थिति में अनुभव करते हैं। इससे स्वयं उन्हें और भविष्य में उनके साथ जुड़ने वाले लोगों को लाभ ही होगा। परिपक्व हो जाने के बाद वे स्वयं अपने अनुभव से पश्चिम के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी हासिल कर सकेंगे। मेरी यही प्रार्थना है कि अपने अगले जन्म में मैं एक बार फिर उनका शिष्य बन सकूँ।

[वर्ष 1988 में सेरकोँग रिंपोछे के अधिष्ठापन का वीडियो जर्मन भाषा में उपलब्ध है और उसे Edition Ruine der Kuenste Berlin के पते पर ऑर्डर करके प्राप्त किया जा सकता है।]

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