दीवारों को ढहा देना

आगे बढ़ने का ढंग

मैं इस गोष्ठी का संचालन ऐसे करना चाहूँगा मानो मैं आपको नमूने वाली चॉकलेटों का एक डिब्बा भेंट कर रहा हूँ | इसका अर्थ है कि थोड़ा बौद्ध विषयों का स्वाद हो और थोड़ा कुछ और | इसलिए गोष्ठी इतने सुसंगत रूप से नियोजित नहीं होगी | मेरे मन में क्या है, आइए मैं आपको उसकी एक झलक दिखाऊँ | उदाहरण के लिए, किसी भी बौद्ध-धर्मी शिक्षा के आरम्भ में मानक रूप से हमारी प्रेरणा स्थापित अथवा वर्णित की जाती है | वास्तव में, यह कर पाना सरल नहीं है | मुझे यह सरल नहीं लगता, क्योंकि शब्दों को केवल अपने मन में दोहराने और अपने शरीर व हृदय में उसे वास्तव में अनुभव करने के बीच एक सूक्ष्म संतुलन होता है |

मेरे विचार में हम में से अधिकांश के लिए, स्पष्ट रूप से यह निर्धारित कर पाना अत्यंत कठिन है कि कुछ महसूस करने, विशेषतः प्रेरणा की अनुभूति, का अर्थ क्या है | मेरा अभिप्राय है कि हम उदास महसूस कर सकते हैं - उस अनुभूति की हमें पहचान है | परन्तु प्रेरणा अनुभव कर पाना - यह जानना सरल नहीं है कि उससे क्या अभिप्राय है | मेरे विचार में इस प्रकार के मुद्दों को इस सप्ताहांत समझने का प्रयास करना रोचक सिद्ध होगा | ये जटिल मामले हैं, सरल नहीं | मेरे विचार में यह इससे अधिक लाभकारी सिद्ध होगा कि मैं पूछूँ, "एक बुद्ध में ज्ञानोदय के कितने लक्षण होते हैं?" और मैं आपको अंक दूँ - उस प्रकार का प्रश्न नहीं | परन्तु फिर, जैसे मैंने आरम्भ में कहा, ऐसे मामलों को तर्कसम्मत क्रम में व्यवस्थित करने में मुझे बहुत कठिनाई हुई है | मुझे व्यवस्था पसंद है और यह सरल नहीं रहा है |

इससे एक अत्यंत रोचक बात सामने आती है जो मेरे विचार में शायद कई लोगों के लिए प्रासंगिक है। और वह यह है कि प्रायः हमारी सामान्य पूर्वधारणाएँ तो होती ही हैं, जैसे सबकुछ एक तर्कसम्मत क्रम में होना चाहिए, किन्तु, एक गहनतम स्तर पर, हम सबकुछ अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। जब सबकुछ हमारे नियंत्रण में और "सुव्यवस्थित" होता है अथवा हमें ऐसा लगता है कि हमारे नियंत्रण में है, तब हम थोड़ा-बहुत निश्चिंत महसूस करते हैं। हमें लगता है कि हम भविष्य की जानकारी दे सकते हैं।  परन्तु जीवन ऐसा नहीं होता। हम सदैव सबकुछ नियंत्रित और "सुव्यवस्थित" नहीं रख सकते। इसका दूसरा पक्ष यह है कि हम किसी और को यह नियंत्रण देना उत्तम समझते हैं ताकि वह हमें या हमारी परिस्थिति को नियंत्रण में रख सके। मामला वही नियंत्रण का ही है।

परन्तु जीवन में क्या होगा यह किसी के नियंत्रण में नहीं है - न हमारे और न ही किसी और के। जो होता है उसपर किसी एक व्यक्ति का नहीं अपितु लाखों कारकों का प्रभाव पड़ता है। अतः आवश्यक है कि हम इस रूप में ढील दें कि हम इस मूर्त "मैं" को जकड़कर न रखें, जिसका स्वतंत्र अस्तित्व है, और जो नियंत्रण पाना चाहता है, बिना परवाह किए कि उसके आसपास क्या हो रहा है। यह मूर्त "मैं" सोचता है कि नियंत्रण पाने से वह अपना सुरक्षित अस्तित्व स्थापित कर लेगा। यह ऐसा सोचने के समान है, "यदि मेरे पास नियंत्रण है, तो मैं अस्तित्वमान हूँ। यदि मेरे पास नियंत्रण नहीं है, तो वास्तव में मेरा अस्तित्व नहीं है।" जब हम बौद्ध-धर्मी मार्ग का अनुसरण करते हैं, तो हमें कई प्रकार से "नियंत्रण के अधीन" होने के इस विचार को त्यागना आवश्यक है। इसका अर्थ यह भी है कि हम इस मामले के दूसरे पक्ष को भी त्याग दें, जो है किसी और को यह नियंत्रण देना, विशेषतः गुरु, शिक्षक, ताकि नियंत्रण उनके हाथ में हो। मुद्दा वही है। दोनों प्रकार के नियंत्रण पर विजय पानी होगी।

चूँकि हम मानव-सम्बन्धी मामलों पर चर्चा करेंगे, मेरे विचार में इस सप्ताहांत अत्यंत आवश्यक है कि हम मनुष्यों की भाँति एक दूसरे से बातचीत करें। इसलिए मैं आपसे इस प्रकार बात करूँगा जैसे एक मनुष्य दूसरे से करता है। मेरी आशा है कि मैं सदा इस प्रकार बातचीत करूँ जैसे एक मनुष्य दूसरे से करता है, बजाय इसके कि जैसे कोई आधिकारिक विद्वान मंच-पीठिका के पीछे खड़ा हो जिसके पास सभी उत्तर हों।

मेरे विचार में, बजाय इसके कि सबकुछ अपने नियंत्रण में रखकर पाठ्यक्रम की प्रगति एक तर्कसम्मत क्रम में हो, अच्छा होगा कि इस सप्ताहांत को एक चित्र रंगने की भाँति उभरने दिया जाए। एक अत्यंत व्यवस्थित प्रस्तुति देने की चेष्टा करने की तुलना में हम थोड़ी-सी कूची इधर फेरेंगे और थोड़ी-सी उधर। इस सप्ताहांत हम जिन विषयों पर चर्चा करेंगे उनमें से अनेक विषय परस्पर व्याप्त तथा अन्तःसम्बद्ध होंगे, अतः इस ढंग से आगे बढ़ना सबसे उचित होगा।

प्रेरणा

आइए, हम नमूने वाली चॉकलेटों के डिब्बे में से पहली चॉकलेट पर दृष्टि डालें। मैंने इसे अभी पूरी तरह नहीं चबाया है, तो आप में से कई ने भी नहीं चबाया होगा। प्रश्न यह है कि हम किस प्रकार प्रेरणा अनुभव करते हैं। मेरे विचार में - मुझे इसलिए पता है क्योंकि अपने विकास में मैं इससे गुज़र चुका हूँ - हमें ऐसा लगता है कि भावनाओं के विद्यमान होने के लिए उनका नाटकीय होना आवश्यक है। यदि वे नाटकीय हैं, तब वे भावनाएँ मानी जाएँगी, उनका अस्तित्व होगा; यदि वे नाटकीय नहीं हैं, तो उनकी कोई गिनती नहीं है और वे वास्तव में विद्यमान नहीं हैं। मुझे लगता है कि फिल्मों और टेलीविज़न से भी कुछ हद तक यह बँधी-बँधाई सोच उत्पन्न हुई है। यदि कोई बात बहुत सूक्ष्म ढंग से बताई गई है तो वह फिल्म रोचक नहीं है, है क्या? उसकी पृष्ठभूमि में उद्वेलित करने वाले संगीत के साथ नाटकीयता होना आवश्यक है!

कभी-कभार हम किसी बौद्ध ग्रन्थ में पढ़ते हैं कि, "हमारी करुणा इतनी पराकोटि की होनी चाहिए कि हमारे शरीर के रोम खड़े हो जाएँ और हमारी आँखों से आँसू निकल आएँ।" परन्तु मेरे विचार में निरंतर ऐसा जीवन जी पाना अत्यंत कठिन होगा। जब हम एक प्रेरणा उत्पन्न करने के विषय में सोचते हैं, तो कभी-कभी हमें यह अनुभूति होती है कि "मुझे कुछ महसूस होना चाहिए " - और यह वह प्रसंग है जिसकी ओर हम इस सप्ताहांत कई बार लौटेंगे, यह पूरा शब्द "चाहिए"। हम सोचते हैं कि, "मुझे कोई तीव्र अनुभूति होनी चाहिए। अन्यथा, यदि मैं ऐसा नहीं कर पा रहा तो मैं वास्तव में प्रेरणा उत्पन्न नहीं कर पा रहा हूँ।" परन्तु, जब हम कोई प्रेरणा उत्पन्न करते हैं, तो प्रायः वह नाममात्र की एक अनुभूति होती है, कम-से-कम मेरे अपने अनुभव में। यह प्रायः हमारी बाँहों के रोम खड़े होने से अधिक सूक्ष्म अनुभूति होती है। मुझे लगता है कि शायद आपसे केवल उस प्रकार बातचीत करना अधिक लाभकारी होगा - मंच-पीठिका के पीछे से बोलने के बजाय आपसे यह सांझा करना कि बौद्ध-धर्म में यह सब करने के मेरे अपने अनुभव क्या थे और हम पश्चिम के लोगों में से अधिकांश को प्रायः जो समस्याएँ आती हैं, मैंने उनका सामना कैसे किया। तो चलिए, ऐसा ही करते हैं।

शिक्षाओं में हम हमेशा सुनते हैं कि हमें दूसरों से इस प्रकार जुड़ने की आवश्यकता है जैसे वे हमारी माता हों: "सबको अपनी माता के समान मानो।" परन्तु, कई लोगों के अपनी माता के साथ समस्याजनक सम्बन्ध होते हैं, और इसलिए उस विचार अथवा प्रतिरूप के लिए हम अपने घनिष्ठतम मित्र के विषय में सोच सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहाँ महत्त्व "माता" का नहीं है; महत्त्व ऐसे किसी भी व्यक्ति का है जिसके साथ हमारा सुदृढ़ एवं सकारात्मक भावात्मक नाता है।

प्रेरणा निर्धारित करते समय, जैसे आज रात, मैं यह चेष्टा करता हूँ कि श्रोतागण के सभी सदस्यों के विषय में मैं इस प्रकार सोचूँ जैसे वे मेरे घनिष्ठतम मित्र हों। जब हम अपने अभिन्नतम मित्र, अपने घनिष्ठतम मित्र के साथ होते हैं, तब हम निष्कपट होते हैं। तब हम न तो किसी प्रकार का दिखावा करते हैं और न ही किसी भूमिका अथवा मुखौटे के पीछे छिपते हैं। क्या यह सच नहीं है? और जब हम अपने घनिष्ठतम मित्र के साथ होते हैं, तब उसके प्रति हमारे भीतर निश्छल रूप से भावनाओं का उद्रेक होता है । वे सदा नाटकीय नहीं होतीं, परन्तु वे विद्यमान अवश्य होती हैं।

जब हम इस प्रकार की शिक्षाओं को जैसे, "सबको अपनी माता के रूप में देखो", इस रूप में देखने लगते हैं, "सबको अपने अभिन्नतम मित्र के रूप में देखो", तब हमें वास्तव में कुछ प्रेरणा होने लगती है। हमारी प्रेरणा निश्छल होती है। हम निश्छल भाव से उस व्यक्ति के लिए कुछ लाभकारी करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि उसके साथ बिताया हमारा समय सार्थक हो और उसके लिए लाभप्रद हो - जब तक कि हम उस प्रकार के व्यक्ति हों जो बहुत स्वार्थी हो और केवल अपने लाभ अथवा सुख के लिए दूसरे का शोषण करना चाहता हो।

अपनी आँखें खुली रखने का महत्त्व

इसके अतिरिक्त स्वयं को समरूप करने तथा अपने स्थान पर दूसरों को रखने की विभिन्न बौद्ध-धर्मी साधनाओं का पालन करते हुए मुझे लगता है कि मुझे अपने हृदय में वास्तव में वह उद्वेग महसूस नहीं होता जब मैं अपनी आँखें बंद करके इन साधनाओं का मानस-दर्शन के रूप में अभ्यास करता हूँ। हाँ, मैं अपनी आँखें बंद करके अपने अभिन्नतम मित्र का मानस-दर्शन कर सकता हूँ; परन्तु उसमें वह बात नहीं होगी जो अपने समक्ष बैठे लोगों से जुड़ने में हो या जैसे अभी आप से। मुझे ये साधनाएँ अधिक सार्थक लगती हैं जब मैं आँखें खोलकर और लोगों को देखते हुए इनका अभ्यास करता हूँ।  

परन्तु जब हम अकेले साधना कर रहे हों, तो वह बात अलग है। यदि कल्पना करना कठिन हो तो हम लोगों के चित्र देख सकते हैं। मेरे विचार में यही ठीक है। परन्तु, भले ही हम दूसरों का मानस-दर्शन कर रहे हों, मुझे यह अधिक लाभकारी लगता है कि हम व्यक्ति विशेष का मानस-दर्शन करने की चेष्टा करें, बजाय अमूर्त रूप से "सभी सचेतन प्राणियों" का। मैं आँखें खोलकर ऐसा करने का प्रयास करता हूँ, आँखें बंद करके स्वयं को आसपास के संसार से काटकर नहीं।

जब हम तंत्र साधना के मानस-दर्शन से सम्बंधित अनुदेशों को देखते हैं - उदाहरणार्थ, अनुत्तरयोग तंत्र  के आरंभिक चरण को - तो एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है कि उसे मानसिक चेतना के साथ करना होता है। उसे इन्द्रिय चेतना के साथ नहीं करना होता। इन्द्रिय चेतना के साथ मानस-दर्शन कर पाना केवल समापन चरण के समय संभव होता है। समापन चरण अत्यंत उन्नत है और इसके लिए हमारी संवेदी कोशिकाओं की ऊर्जा-वात को वस्तुतः परिचालन आवश्यक है, ताकि वे मानस-दर्शन के प्रतिरूप रच पाएँ। इसका अर्थ है कि आरंभिक चरण में हम वस्तुओं के प्रति अपना दृष्टिकोण नहीं बदल रहे; हम जो देखते हैं उसकी हमारे मन में बनी धारणा को बदल रहे हैं। जो हम देख रहे हैं उनको उनके सामान्य रूपों में समझने के बजाय हम उन्हें देवी-देवताओं अथवा बुद्ध-प्रतिमाओं के रूप में कल्पित करते हैं।

मुझे विश्वास है कि आप समझ रहे होंगे कि धर्म के साथ किसी भी सार्थक रूप में कार्य करने के लिए हमें वह सब एक साथ प्रयुक्त करना होगा जो हमने आरम्भ से सीखा है। इसका अर्थ है कि जब हम किसी का मानस-दर्शन एक देवी-देवता अथवा, इस उदाहरण विशेष में, अपने अभिन्न मित्र अथवा माता के रूप में कर रहे हों, तब हम आरम्भ से उस व्यक्ति के विषय में अपना दृष्टिकोण नहीं बदल रहे। हम उसे देखने के पश्चात केवल उसके प्रति अपनी अवधारणा बदल रहे हैं।

परन्तु, यदि हम उस व्यक्ति से मिलें और पूछें, "उस व्यक्ति की अवधारणा बनाने से हमारा क्या तात्पर्य है? वैचारिक बोध क्या होता है?", तब हमें लोरिग (चित्त), जानने की विधियाँ, की शिक्षाओं का सहारा लेना होगा। वहाँ हम सीखते हैं कि वैचारिक बोध में हम अपने समक्ष प्रस्तुत वस्तु को - जैसे एक भौतिक वस्तु - एक श्रेणी के विचार के साथ मिलाते हैं। "अभिन्न मित्र" की श्रेणी के विचार के साथ किसी व्यक्ति की मानसिक प्रतिच्छवि मिलाकर सोचने से उसमें उतना गुण नहीं होता जितना इस विचार में होता है जब हम इसके साथ प्रत्यक्ष रूप में किसी को देखें।

इस कारणवश, शक्ति इस बात में है, जब ये सारी ध्यान साधनाएँ आँखें खोलकर लोगों को देखते हुए की जाएँ। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है! विभिन्न साधनाओं की सफलता में इससे बहुत अंतर पड़ता है। तिब्बती महायान शिक्षाओं में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, "अपनी आँखें खोलकर ध्यान-साधनाएँ कीजिए।" कई लोग इसका दृढ़ता से पालन नहीं करते क्योंकि यह करना सरल नहीं है। कुछ लोगों के लिए अकेले आँखें बंद करके ध्यान-साधना करना सुविधाजनक होता है। विशेष रूप से यदि उनका ध्यान आसानी से भंग हो जाता हो, तो आस-पास लोग होने से उनका ध्यान भंग होगा। परन्तु, यदि हम कुछ अधिक सुस्थिर हैं, तो साधनाएँ अधिक सार्थक हो जाती हैं जब हम जीवन में, यथार्थ में, इन्हें लोगों पर प्रयुक्त करते हैं।

प्रेरणा उत्पन्न करने के इस विशिष्ट उदाहरण के सन्दर्भ में इसका अर्थ है - इस कक्ष में मेरे अपने उदाहरण से - कि मैं आपको अपने समक्ष देखता हूँ और अपने मन में आपकी तथा हमारे सम्बन्ध की, जैसे आप मेरे अभिन्नतम मित्र हों, अवधारणा बनाता हूँ। यदि आप वास्तव में मेरे अभिन्नतम मित्र हैं तो मैं आपसे छल नहीं कर सकता। मुझे निश्छल होना ही होगा। और तब मेरे भीतर प्राकृतिक रूप से आपके कल्याण की प्रेरणा होगी। निस्संदेह, हम अपने मन में इस प्रकार के कुछ शब्द दोहरा सकते हैं, "मेरी मनोकामना है कि यह आपके लिए सार्थक और सहायक सिद्ध होगा।" परन्तु, एक स्तर पर, हम अपने आस-पास के लोगों को अपना अभिन्नतम मित्र मानकर जो निर्धारित कर चुके हैं, यह उसी का पुनः पुष्टिकरण है।

जब मैं ऐसा करता हूँ, तब मेरी बाँहों के रोम खड़े नहीं होते | यह सत्य है | परन्तु, फिर भी वहाँ कुछ ऐसा है जो हमारे सम्बन्ध में हमारी सहायता करता है | मेरे विचार में यह एक बहुत सामान्य ढंग है जिसके द्वारा हम इन अति साधारण वस्तुओं के लिए किसी प्रकार की अनुभूति उत्पन्न कर सकते हैं जिन्हें हम प्रायः महत्त्व नहीं देते: "बक बक बक | मैंने अपनी प्रेरणा निर्धारित कर ली |" अधिकांशतः हम तिब्बती भाषा में मन्त्र दोहराते हैं, इसलिए, हम में से अधिकतर लोगों के लिए हमारे द्वारा उच्चरित शब्दों का कोई अर्थ भी नहीं है |

शायद हम इनमें से कुछ बातों का अभ्यास भी कर पाएँ | मैं यह नहीं चाहता कि इस सप्ताहांत केवल मैं ही बोलता रहूँ | क्योंकि हमारा समूह बहुत बड़ा नहीं है, आइए हम एक घेरे में बैठें | जब हम पंक्तियों में एक के पीछे एक बैठते हैं, तब हम बड़ी विचित्र अवस्था में एक दूसरे के सिर अथवा कुर्सी के पीछे का भाग देखते हैं, जो कुछ समय के बाद बहुत असहज प्रतीत होने लगता है | यदि हम घेरे में बैठें, तो हम सब एक दूसरे का चेहरा देख पाएँगे |

अब हम अपनी प्रेरणा निर्धारित करने का प्रयास करते हैं | फिर "प्रेरणा निर्धारित करना" कितना बनावटी लगता है, नहीं क्या? परन्तु, यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए- मैं एक भाषांतरकार हूँ, इसलिए मुझे शब्द बदलना पसंद है - तो हम अपने लिए "समा बाँध रहे हैं" | और वह समा है अपने अभिन्न मित्र का साथ | अपने अभिन्न मित्र के साथ होना कैसा लगता है? जब हम अपने अभिन्न मित्र के साथ होते हैं, तब हम पूर्णतः तनावमुक्त होते हैं | हमें कोई "अभिनय" नहीं करना; हम "मंच पर" नहीं होते; हमें किसी भी प्रकार के ढोंग की आवश्यकता नहीं होती | हमें किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं निभानी होती, नहीं क्या? पाश्चात्य भाषाओं में, जो बहुत ग़ैर-बौद्ध ढंग है, इसे अत्यंत हास्यास्पद ढंग से कहा जाता है, "हम स्वयं हो सकते हैं", जिसका अर्थ जो भी हो |

दीवारों को ढहा देना

सभी दीवारें ढहाई जा सकती हैं | अपने अभिन्न मित्र की संगति में सब प्रतिरोध मिटाए जा सकते हैं | उस व्यक्ति से चिपटे बिना उसके साथ मुक्त रूप से अपनी बात कहना और उसके संग समय बिताना संभव है | इसमें एक विशिष्ट सुख है, नाटकीय सुख नहीं, परन्तु एक ऐसा सुख जो विद्यमान है और हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती | परन्तु हमें इस व्यक्ति की सहायता करने की सच्ची इच्छा भी है | हम इस व्यक्ति को सच्चे मन से, मानवीय ढंग से पसंद करते हैं |

हम इस कक्ष में सबको इसी दृष्टि से देखने का प्रयास करते हैं | हम एक विचार के साथ एक चाक्षुष बोध मिला रहे हैं | आँखें बंद करके ऐसा न करें, क्योंकि इसमें यह संभावना है कि आप कोई भावना महसूस न करें | आँखों का खुला रहना आवश्यक है; हमें एक विशेष दृष्टि से अपने आसपास के लोगों को देखने की आवश्यकता है | इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारा चाक्षुष बोध बदल गया है | हम इस शब्द "मानस-दर्शन" से अत्यंत भ्रमित हो जाते हैं, और सोचते हैं कि हमें अपने चाक्षुष इन्द्रिय बोध को बदलने की आवश्यकता है | हमें ऐसा नहीं करना है | यह सामान्य संज्ञान का प्रश्न है | जब हम उस व्यक्ति को देख रहे हैं तब हमारे विचार क्या हैं या हमारी मनःस्थिति कैसी है?

मुझे लगता है कि आरम्भ में हमारी मनःस्थिति शांत होनी चाहिए | ऐसा कर पाने के लिए, दीवारों का न होना अनिवार्य है, नहीं क्या? जब कोई दीवार नहीं होगी, तब हम सचमुच ईमानदार हो पाएँगे | एक-दूसरे को देखते हुए केवल ऐसा करने का प्रयास करते हैं |

[अभ्यास के लिए रुकें]

इस अनुभूति में हम कुछ और वृद्धि करते हैं, "क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ?" यह सहायता करने की इच्छा की अनुभूति है | यह महत्त्वपूर्ण घटक है | यह इस प्रकार नहीं है, "ओह, मुझे सहायता करनी है, मैं क्या करूँ? मुझे नहीं पता कि मुझे क्या करना चाहिए, मैं असमर्थ हूँ," या ऐसी कोई अनुभूति | इस नकारात्मक अनुभूति के बजाय, हमारी भावना सहयोग और निर्मलता की होगी |

[अभ्यास के लिए रुकें]

शांत रहने का अभ्यास करना

मेरे विचार में यह संकेत है, दिशा-निर्देश, कि हमें किस प्रकार सच्चाई से अनुभव करना चाहिए | पहला निर्देश है कि हमें दीवारों को ढहा देना चाहिए | कभी-कभी हम अपनी भावना को स्वीकार करने से डरते हैं क्योंकि हमें पता नहीं होता कि आगे क्या होगा - कहीं हम नियंत्रण तो नहीं खो बैठेंगे | इन दीवारों के पीछे वह मूर्त "मैं" है | हमें शांत रहने का अभ्यास करना होगा | यह अनिवार्य है |

शांत होने का अर्थ यह नहीं है कि केवल अपनी मांसपेशियों को आराम देना या शारीरिक स्तर पर स्वयं को तनाव-मुक्त करना, यद्यपि वह भी उसका हिस्सा है | बल्कि, इसका अर्थ है अपने चित्त को तनाव-मुक्त रखना; और यह, कुछ हद तक, पैदा होता है शून्यता की शिक्षाओं को समझने से, जिसे प्रायः "रिक्तता" भी कहते हैं | शून्यता का अर्थ है अपने, दूसरों के, तथा हमारे आसपास की गतिविधियों के सन्दर्भ में असम्भव तरीकों से अस्तित्वमान होने की अनुपस्थिति | कोई भी और कुछ भी अपनेआप, अन्य हर वस्तु से स्वतंत्र तथा आसपास की गतिविधियों से असम्पृक्त, "मूर्त" रूप में विद्यमान नहीं रह सकता |

सरलतम स्तर पर, यदि हम अपना आत्म-चेतन भाव, अपना असुरक्षा का भाव, अपना आत्म-तल्लीन भाव, कुछ कम कर पाएँ तो इससे हमें संकेत मिल सकता है कि इस स्तर के बोध का अर्थ क्या है। इसलिए शिक्षाओं में हर चीज़ का आपस में ठीक से तालमेल होना आवश्यक है। चाहे हमने इस विषय में गहनता से अध्ययन न भी किया हो, तब भी हम शून्यता के इस पक्ष को थोड़ा-बहुत समझ सकते हैं क्योंकि इसका कुछ हद तक हम अपने अभिन्न मित्र के साथ अनुभव प्राप्त करते हैं। यदि हम इस प्रकार अपनी प्रेरणा निर्धारित करके जीवन में स्थितियों का सामना करें तो हम सफल हो पाएँगे।

इसका अर्थ है कि हम स्वांग करने के बजाय स्थितियों का सच्चाई से सामना करें। हम अपना प्रचार करने का प्रयास नहीं कर रहे जैसे हम नौकरी के आवेदन के समय करते हैं। हम किसी प्रकार का ढोंग नहीं कर रहे। बल्कि हम किसी के भी अथवा सभी के साथ पूर्णतः सुख से हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मूलतः हम अपनेआप चैन से हैं। स्पष्टतः यह सब हमारे आत्म-बोध पर निर्भर करता है। इसका नाता हमारे आत्म की उपस्थिति के बोध से है - अन्य शब्दों में, शून्यता से। यह आत्म असंभव रूपों से रहित विद्यमान होता है। "मैं" असंभव रूपों से रहित विद्यमान हूँ। और आप भी।

यह आपत्ति उठाई जा सकती है, "यदि मैं अपने सभी सुरक्षा कवच हटा दूँ, तो क्या मैं आघात के सन्दर्भ में सुभेद्य नहीं हो जाऊँगा?" मेरे विचार में ऐसा नहीं होगा। यदि युद्ध-कौशल कला से एक उदाहरण लें तो, यदि हम तनावग्रस्त हों और कोई हमपर हमला करे तो हम फुर्ती से प्रतिक्रिया नहीं कर पाएँगे। परन्तु, यदि आत्म-अभिज्ञ भाव की रुकावट न हो, तो हम अपने आस-पास की गतिविधियों के प्रति पूर्णतः सजग होंगे। फिर जो भी हो रहा हो, उसके प्रति बहुत फुर्ती से प्रतिक्रिया करना संभव हो पाएगा।

तो फिर मामला है भय के इस कारक का सामना करना, नहीं क्या? हमें भय को हराना है, क्योंकि यह भय ही है जो हमें इन दीवारों को ढहाने से रोक रहा है। हमें डर है कि, "यदि मैं ये दीवारें ढहा दूँगा तो मुझे क्षति पहुँचेगी।" ऐसा इसलिए है क्योंकि ये दीवारें हमने ही बनाई हैं और ऐसा करने से वास्तव में हम स्वयं को ही क्षति पहुँचा रहे हैं। परन्तु हमें इन तथ्यों का बोध व्यक्तिगत अनुभव एवं प्रज्ञा से ही होगा। यह हमें एक पूर्णतः अन्य महत्त्वपूर्ण विषय की ओर ले जाता है, जो है "बोध" का विषय।

आनुमानिक बोध पर आधारित मनोभाव उत्पन्न करना

बौद्ध-धर्म में, विशेषतः तिब्बती बौद्ध-धर्म - और विशेषतः गेलुगपा तिब्बती बौद्ध-धर्म में पाए जाने वाले कुछ दृष्टिकोणों से बहुत से लोग विरक्त हो जाते हैं। यहाँ मैं तर्क-शास्त्र और आनुमानिक बोध को दिए गए महत्त्व का उल्लेख कर रहा हूँ। परन्तु इसमें डरने की कोई बात नहीं है, क्योंकि हम अधिकांशतः इस प्रकार के बोध से सम्बद्ध हैं। बोध अनिवार्य रूप से एक गरिष्ठ बौद्धिक प्रक्रिया नहीं है। सुबह हमारी अलार्म घड़ी सुनकर हम समझ जाते हैं कि उठने का समय हो गया है। उठने का समय क्यों है? क्योंकि अलार्म घड़ी बजने लगी है। यह एक सचेत तर्क-पद्धति है और हमारा मस्तिष्क भी अचेतन रूप से इसी पद्धति के अनुसार कार्य करता है। यह समझने के लिए कि उठने का समय हो गया है, तर्क-सम्मत विचार इस प्रकार है: "यदि अलार्म घड़ी बजती है, तो उठने का समय हो गया है। अलार्म घड़ी बज गई। अतः, उठने का समय है।" हम इसे इस प्रकार तार्किक न्याय-वाक्य में सूत्र-बद्ध कर सकते हैं। हमें गरिष्ठ बौद्धिक क्रिया से होकर इस संकेत - तिब्बती भाषा में हम इसी शब्द का प्रयोग करते हैं - को देखने की आवश्यकता नहीं है, यह संकेत अथवा लक्षण, कि उठने का समय हो गया है। अलार्म घड़ी का बजना ही वह संकेत है जिसपर हम यह समझने के लिए भरोसा करते हैं कि उठने का समय हो गया है।

इसी प्रकार, किसी को अपने अभिन्न मित्र के रूप में देख पाना एक विश्वसनीय संकेत अथवा लक्षण है जो हमें यह समझने में सहायता करता है कि हमें किसी भी आड़ की आवश्यकता नहीं है | ऐसा इसलिए है क्योंकि हमें डरने की और इस व्यक्ति के समक्ष किसी प्रकार के ढोंग की कोई आवश्यकता नहीं है | यह हमें कैसे पता चलता है? ऐसे कि हमने एक संकेत देखा है और उससे तर्क के आधार पर अनुमान लगाया है | संकेत यह है कि हम इस व्यक्ति को अपने अभिन्न मित्र के रूप में देखते हैं | इसलिए गहन तर्क प्रक्रिया के बजाय, हम साधारण आनुमानिक प्रक्रिया से अपने आनुमानिक बोध द्वारा इसका पता लगाते हैं |

भावनाओं को उजागर कर पाने का सम्बन्ध बोध से है | कई लोग इस बात से उलझन में पड़ जाते हैं कि आध्यात्मिक मनःस्थिति से भावात्मक मनःस्थिति की ओर कैसे जाएँ | हम पाश्चात्य लोगों के लिए, जिनके सोचने के ढंग के अनुसार हम बुद्धि और भावना को पृथक, असम्बद्ध मानते हैं, यह समझ पाना एक बड़ी समस्या है |

इस समस्या को सुलझाने के लिए पहले यह समझना होगा कि किसी अनुभूति के दो पक्ष होते हैं - किसी बात की सच्चाई को महसूस करना, दूसरे शब्दों में उसे सच मानना, और फिर उस विश्वास के आधार पर एक मनोभाव का होना | किसी बात को समझना, उसे सच समझते हुए, और उसके विषय में भावना की अनुभूति एक दूसरे से सम्बद्ध हैं | एक-दूसरे से पृथक होकर ये तीनों विद्यमान नहीं रह सकते |

उदाहरण के लिए, किसी वस्तु की समझ के लिए हम किसी प्रकार के संकेत पर निर्भर करते हैं | इस प्रक्रिया को हम तर्क-सम्मत रूप में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं: "यदि मैं अपने अभिन्न मित्र के साथ हूँ, तो मुझे अपनी रक्षा के प्रति आत्म-रक्षक भाव अपनाने की आवश्यकता नहीं है | यह व्यक्ति मेरा घनिष्ठतम मित्र है | इसलिए, मुझे सतर्क रहने की आवश्यकता नहीं है |" क्योंकि यह समझ एक तर्क आधारित न्याय वाक्य पर आधारित है, हम संभवतः इसे बौद्धिक प्रज्ञा कह सकते हैं, परन्तु यहाँ हम चूक रहे हैं | महत्त्व की बात यह है कि, इस बोध के आधार पर, हम मानते हैं कि हमें उस व्यक्ति के साथ सतर्क रहने की आवश्यकता नहीं है | इस विश्वास के आधार पर, हम दीवारों को ढहा देते हैं और अधिक शांत अनुभव करते हैं | यदि हम दीवारें नहीं ढहाते और शांत अनुभव नहीं करते, तो इसमें प्रायः दोष हमारी बोध और विश्वास का होता है | किन्तु, निस्संदेह, हमें प्रभावित करने वाले इसमें अन्य बाह्य कारक भी हो सकते हैं, जैसे उस समय हमारे जीवन की अन्य घटनाओं से उत्पन्न हो रहा तनाव | परन्तु मुझे लगता है कि आप मेरी बात समझ गए होंगे |

हमें यह पहचानने की आवश्यकता है कि किसी बात को समझने का अर्थ क्या होता है | जब हम यह समझ लेंगे, तब यह कड़ी जोड़ना आसान हो जाएगा कि किसी तथ्य को सच मानना और उस तथ्य पर विश्वास करके किसी मनोभाव को महसूस करने की बीच क्या नाता होता है | एक उदाहरण देखते हैं | एक उदाहरण है अलार्म घड़ी का बजना | हम आनुमानिक प्रक्रिया के द्वारा "बौद्धिक" रूप से समझते हैं कि इसका अर्थ है कि उठने का समय हो गया है |

अब, इस बात पर ध्यान दें कि यह समझने का अर्थ क्या होता है कि उठने का समय हो गया है | यहाँ आप कौन-से गुण पहचान पा रहे हैं?

किसी प्रकार मैं सीख गया हूँ कि यदि अलार्म घड़ी बजे तो मुझे उठना है और यदि मैं जल्दी उठ जाऊँ, तो मैं आसानी से अपने कार्यस्थल पर पहुँच सकता हूँ; अन्यथा, मुझे देर हो जाएगी |

बिलकुल सही, पर अब और गहराई से सोचिए | यह केवल हमारे व्यवसाय के प्रति हमारी निष्ठा का प्रश्न नहीं है | वह गौण है |  पर, हमें दो प्रमुख भावात्मक मुद्दों को समझना होगा जिनका सम्बन्ध उस धारणा से है जो हमें अलार्म घड़ी के बजने की समझ से प्राप्त हुई है | पहला यह कि हम जो सुनते और समझते हैं उसे स्वीकार न करना - कि हमें सचमुच उठना है | यह पहला प्रमुख मुद्दा है | दूसरा है सच को स्वीकार करने का निर्णय और यथार्थ में बिस्तर से उठना | फिर इस निर्णय के अन्य गौण पक्ष हो सकते हैं - कर्तव्य भावना, अपराध-बोध, या और कुछ | हम कई कारणों से यह निर्णय ले सकते हैं और फिर आपके द्वारा कही गई बात इसके बाद आती है |

मैं केवल कर्तव्य की भावना महसूस नहीं करता | अपितु, अनुभव के आधार पर, मुझे पता है कि यदि मैं जल्दी उठूँगा, तो मुझे शान्ति के कुछ पल मिलेंगे और मैं आराम से अपना दिन आरम्भ कर पाऊँगा | और इसलिए बिस्तर से उठते समय मेरी भावना अधिक सकारात्मक होती है |

यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ समझ के आधार पर हम यह तर्क स्वीकार कर रहे हैं कि जब अलार्म घड़ी बजती है तो हमें उठना है और हम उठने का निर्णय करते हैं | हम समझते हैं कि यदि हम उठ जाएँगे तो आराम से घर से निकल पाएँगे, बजाय इसके कि हम हड़बड़ा जाएँ क्योंकि सब काम करके भगदड़ में निकलने के लिए हमारे पास केवल दो मिनट हैं | इसलिए, क्योंकि थोड़ा जल्दी उठने के कुछ लाभ हैं और हम ये लाभ समझते हैं, तो हम खुशी से जल्दी उठते हैं | हर हाल में, सच यह है कि हमें उठना ही है - चाहे इसके प्रति हमें क्रोध आए या खुशी हो | हमें क्रोध तब आता है जब हम जल्दी उठने की हानियों के बारे में सोचते हैं - हम अपने गर्म, आरामदेह बिस्तर में और नहीं लेटे रह सकते | और हमें खुशी होती है जब हम शीघ्र उठने के लाभ के विषय में सोचते हैं |

जब हम बौद्ध शिक्षाओं की संरचना को देखते हैं, तो वे प्रत्येक शिक्षा के लाभ बताती हैं | रुकावटों को दूर करने के लाभ हैं; सबको अपनी माता के रूप में देखने के, बहुमूल्य मानव जीवन पाने के प्रति सजग होने के, अनित्यता के प्रति सजग होने के, इत्यादि, और इन सबके लाभ हैं | हमें किसी बात की सच्चाई पर विश्वास करने और उसे स्वीकार करने के लाभ समझने की आवश्यकता है | एक बार जब हम किसी बात को समझ लेते हैं, तब भी हमें उसे स्वीकार करने में समय लगता है | हम जो मनोभाव महसूस करते हैं उनपर इस बात का प्रभाव पड़ता है कि हमारे बोध की सच्चाई को हम स्वीकार करते हैं अथवा नहीं, और यदि करते हैं तो किस प्रकार |

जो हम समझते हैं उसे स्वीकार करना

स्वीकार करना वास्तव में एक जटिल मुद्दा है | हमारी अलार्म घड़ी का उदाहरण लें तो, हमें यह स्वीकार करने में कठिनाई हो सकती है कि हमें हर सुबह जल्दी उठना है | हम अपने जीवन के अन्य उदाहरणों से भी इस कठिनाई को पहचानते हैं, जैसे चॉकलेट का एक टुकड़ा खाने की इच्छा | हम घर में ढूँढ़ते हैं परन्तु हमें चॉकलेट नहीं मिलती | अतः, तर्कसम्मत निष्कर्ष यही है कि घर में चॉकलेट नहीं है | अब यह स्वीकार करने में हमें कठिनाई हो सकती है |

उदाहरण के लिए, यदि हम अपने घर के बाहर खड़े हों और अपनी जेबों और अपने बैग में चाबी ढूँढ़ रहे हों, तो निस्संदेह वह वहीं कहीं होगी | परन्तु यदि वह कहीं भी नहीं है, तो हम तार्किक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि वह खो गई है या हम उसे अपने साथ बाहर लाना भूल गए हैं | हम घर के बाहर बंद हैं | यह स्वीकार करना बहुत कठिन है, नहीं क्या? हम व्यग्रता से उसे बार-बार ढूँढ़ेंगे | ये काफ़ी सरल उदाहरण हैं | परन्तु जब हमें यह स्वीकार करना पड़े कि कोई मूर्त  "मैं" नहीं है क्योंकि हमने उसे हर स्थान पर ढूँढ़ा है परन्तु नहीं पाया - यह सरल नहीं है |

किसी बात को समझने और उसे वास्तव में भावात्मक रूप से महसूस करने के बीच की यात्रा बहुत कठिन है क्योंकि हम उस प्रक्रिया की इस प्रकार कल्पना करते हैं | हम उसे इस प्रकार देखते हैं जैसे हम किसी बौद्धिक स्तर से किसी भावात्मक स्तर की ओर जा रहे हों, और ये दोनों परस्पर पूर्णतः असम्बद्ध हैं | परन्तु इस प्रक्रिया की कल्पना करना भी सरल नहीं है कि हम बोध से, जो मेरे विचार में इसे समझने का एक अधिक रचनात्मक ढंग है, अनुभूति की ओर जा रहे हैं, क्योंकि हमें इस बोध को स्वीकार कर पाना कठिन होता है |

दीवारें ढहाने का उत्साह जुटाना

तो अब, प्रश्न यह उठता है कि स्वीकार करना कैसे सीखें? अपने सरल उदाहरण की ओर लौटते हैं | आप दीवारों को ढहाना किस प्रकार स्वीकार करते हैं? कोई बताएगा?

जब हम समझ लेते हैं कि यह लाभकारी है, तो उसे स्वीकार करना आसान हो जाता है | हम जितना उसके लाभ समझते हैं, उसे स्वीकार करना उतना ही आसान हो जाता है |

बहुत अच्छी बात है | हम स्वीकार करते हैं कि हमें दीवारों को ढहाना है और जब हम इसके लाभ समझकर स्वीकार कर लेते हैं तो वास्तव में ऐसा करने का प्रयास करते हैं | और कोई?

किसी बात को स्वीकार करने से पहले उसे अनुभव करने आवश्यक है | तो पहले केवल अनुभव करें | हो सकता है आप पानी में कूदें और डूब जाएँ, परन्तु डूबने के अनुभव के लिए आप के भीतर पहले इसे अनुभव करने का साहस होना चाहिए |

यह सच है | अपनी आशंकाओं को दूर करने के लिए, हमें बहुत साहस की आवश्यकता होती है | परन्तु केवल इस ज्ञान के लिए कि दीवारों को ढहा पाना संभव है, हमें आरम्भ में भी प्रज्ञा की आवश्यकता होती है | वह समझ हमें अपने उन अनुभवों से मिलती है जब हम दीवारों को न ढहा पाने के कारण अपने संबंधों में आहत हुए थे | उस अनुभव के आधार पर, और दूसरों के कहने से तथा उनके अनुभव देखकर, हमें स्वयं ऐसा करने का साहस मिलता है |

तो अब हम चित्र के उस भाग में थोड़ा रंग भर सकते हैं जो यहाँ गुरु है, क्योंकि हमें यह प्रेरणा उनके उदाहरण को देखने से मिलती है जिन्होंने दीवारों को ढहा दिया हो, जो एक योग्य गुरु ही हो सकता है - याद रहे, ऐसे बहुत हैं जो योग्य गुरु नहीं हैं | एक योग्य हुरु हमें साक्षात दिखाएँगे कि दीवारों को ढहाना क्या होता है | वह हमें उसे स्वयं करने के लिए प्रेरित करते हैं और साहस देते हैं |

दीवारों को ढहाने का अभ्यास करना

बाल्यावस्था में आपकी ये दीवारें नहीं होतीं, परन्तु प्रतिकूल अनुभवों के कारण, आपके साथ हुए दुर्व्यवहार के कारण, आप इन्हें बना लेते हैं और इसलिए अब, यदि आपको इन्हें खंडित करना हो, तब भी वह भय वहीं रहता है | परन्तु, अब चूंकि मेरा बौद्ध-धर्म से संपर्क हुआ है, मैं इन दीवारों को ढहाने का प्रयास करता हूँ, परन्तु मेरे मन में अब भी वह भय है कि दूसरा व्यक्ति मेरे खुलेपन का दुरूपयोग कर सकता है |

मैं इसी विषय पर चर्चा करना चाहता था | हम कैसे जानें कि दीवारें ढहाना हितकारी है? हम इसे महसूस करना या उत्पन्न करना कैसे सीखें? यह इस बात से जन्म लेता है कि जब हम दीवारें ढहाते हैं, तब हम प्रत्यक्ष रूप में इसके लाभों को अनुभव कर सकते हैं | हम इस प्रकार पता लगा सकते हैं | परन्तु, ये त्वरित लाभ नहीं हैं | तो, सीखने की यह पहली विधि सरल नहीं है |

सीखने का दूसरा रास्ता हैं, कभी-कभी हम दीवारें ढहाते हैं और आहत होते हैं | यह हमारे पूर्व अनुभव से भी मिलता है | कभी हम आहत हुए थे; किसी ने हमारा फ़ायदा उठाया था | फिर हमें यह समझने की आवश्यकता है कि कहाँ गड़बड़ हुई थी | कई बार जब हम समझ लेते हैं कि भूल कहाँ हुई थी, तो हम उसे सुधार सकते हैं | एक पूर्वनिर्धारित स्थिति में, क्या समस्या यह थी कि हम असुरक्षित थे, या यह कि हमारी अपने विषय में जो कल्पना थी जिससे हम समस्या का सामना कर रहे थे उसमें त्रुटि थी?

एक उदाहरण लेते हैं | हम किसी के साथ हैं और वह हम से नाराज़ हो जाता है | अब हम दो प्रकार से इस स्थिति को देख सकते हैं, दीवारों के साथ या उनके बिना | हम सोच सकते हैं, "मेरी दीवार नहीं थी, मैं निरुपाय था और उन्होंने क्रोध में मुझसे ऐसे बात की जिससे मैं आहत हुआ |" हम यह भी सोच सकते हैं, "यदि मैंने दीवार न ढहाई होती, तो मैं आहत न हुआ होता |"

हमें इस विषय में बहुत स्पष्ट होने की आवश्यकता है, क्योंकि जिस प्रकार हमने इसे सूत्रबद्ध किया है वह विचित्र है | यदि हमारी दीवार होती तो हम आहत होने से किस प्रकार बचते? वह परिदृश्य कैसा होता?

वास्तव में, चाहे हमारी दीवार होती या नहीं, हम आहत होते | सबकुछ इसपर निर्भर करता है कि हम स्वयं को किस दृष्टि से देखते हैं | यदि हमारे ऊपर कोई मिट्टी का एक बड़ा ढेला फेंके और हम वहीं खड़े रहें और अपने मुँह पर चोट खाएँ, तो वह स्वयं को बहुत मूर्त रूप में देखने जैसा है | परन्तु यदि हम बहुत चुस्त हैं, और हम थोड़ा-सा सरक जाएँ तो हम मुँह पर चोट खाने से बच जाएँगे | वे कटु शब्द हमें छू नहीं पाएँगे | वह व्यक्ति परेशान था, हम उस बात को व्यक्तिगत रूप से नहीं लेते |

उपाय यही है, स्थिति के अनुरूप स्वयं को ढाल लेना और कटु शब्दों को व्यक्तिगत रूप से न लेना, उनसे स्वयं को आहत न होने देना | परन्तु यदि हम अपने को इस अत्यंत मूर्त दृष्टि से देखते हैं और हम हठी हैं और हर बात व्यक्तिगत रूप से लेते हैं, तब जब हमारी दीवार नहीं होगी, हम अत्यंत निरुपाय होंगे और हर बात से आहत होंगे |

परन्तु यदि हमारे भीतर वह मूर्त "मैं" का भाव है हो सबकुछ व्यक्तिगत रूप से लेता है, तो दीवार होने से भी कोई लाभ नहीं होगा | हम फिर भी सबकुछ व्यक्तिगत रूप से लेंगे | या हम उस दीवार की आड़ में अपने भय और असुरक्षा के पीछे छिप रहे हैं | हम अनजाने में आहत होते हैं या स्वयं को आहत होने से बचाते हैं, परन्तु भीतर आहत महसूस करते हैं | हम नकारने की अवस्था में होते हैं, परन्तु वास्तव में हम अत्यंत आहत महसूस करते हैं | यह अमूर्त "मैं" होता है जो दीवार के पीछे भय से काँप रहा है | इसलिए हमें स्पष्टता से समझना चाहिए कि क्या हो रहा है | आहत होने का कारण क्या है? आहत होने का कारण दीवार का अभाव नहीं है | हम जिससे आहत होते हैं वह है मूर्त "मैं" की भ्रांत अवधारणा |

कदाचित मैं बौद्धिक स्तर पर यह समस्या समझ पाऊँ और बौद्ध लोग मूर्त "मैं" की शून्यता की बात करते हैं | परन्तु यदि ऐसी स्थिति है, आहत होने की भावना है, तो मैं इसे भावना पर लागू नहीं कर सकता और इस बोध को अपनी भावनाओं के साथ समाहित नहीं कर सकता | उदाहरण के लिए, यदि मैं आहत होता हूँ, तो हो सकता है कि मुझे पता हो, "ठीक है, अहं नहीं है, " पर फिर भी, मुझे दुःख होता है | इसलिए चाहे मैं इस दुःख को अहं के अभाव के सन्दर्भ में भी देखूँ, तब भी यह दुःख दूर नहीं होता |

यह सच है | इस मार्ग में पड़ाव हैं | कष्ट और दुःख और इस प्रकार की भावनाएँ तुरंत दूर नहीं हो जातीं | यदि हमारे भीतर शून्यता का ईमानदार निर्वैचारिक बोध हो भी, उसका अर्थ हमारे दुखों का अंत नहीं है | वह निर्वैचारिक बोध धीरे-धीरे हमारे भीतर समाता है; इसमें बहुत समय तथा अनुभव की आवश्यकता होती है, इससे पहले कि वह पूरी तरह दुःख निवारण कर सके | एक आर्य - वह व्यक्ति जिसके भीतर शून्यता का निर्वैचारिक बोध है - और एक अर्हत, वह व्यक्ति जो सदा के लिए दुःख से पूर्णतः मुक्त है, के बीच बहुत अंतर होता है | जैसे-जैसे प्रत्येक व्यक्ति मुक्ति की ओर अग्रसर होता है तो उस स्वाभाविक प्रक्रिया से अधिक की उसे आशा नहीं करनी चाहिए | यह कई चरणों से होकर जाता है; यह एक क्रमिक प्रक्रिया है |

यहाँ, हमें पहले आर्य सत्य को याद करना चाहिए | जीवन कठिन है! यह पहला आर्य सत्य है | यदि हम शून्यता समझ भी जाएँ, तब भी हमारी समस्याएँ तत्काल दूर नहीं होंगी | जीवन कठिन है! कष्ट तत्काल दूर नहीं होते | यह एक लम्बी क्रमिक प्रक्रिया है | आरम्भ में हमें दुःख होगा, परन्तु अंतर यह होगा कि हम उस अनुभूति से चिपके नहीं रहेंगे | यदि हम ऐसा कर पाएँ, तो हमारा दुःख शीघ्र समाप्त हो जाएगा | प्रत्यक्ष भेद यही है | फिर हम उतने ही परिणाम से संतुष्ट हो जाएँगे, और अंततः, अधिक अभ्यास के साथ, यह प्रभाव बेहतर होता जाता है | हमें इतने से निरुत्साहित नहीं होना चहिए; हमें उत्साहित होना चाहिए |

"नहीं" कहना

दीवारों को ढहाने के सन्दर्भ में एक और प्रसंग है जिसपर मैं बात करना चाहता हूँ | कई लोगों को यह अनुभव होता है जब वे अपने दीवारें ढहा देते हैं, उन्हें लगता है कि उनके लिए "हाँ" कहना अनिवार्य है और वे किसी से "नहीं" नहीं कह सकते | दूसरे व्यक्ति द्वारा आहत होने के बजाय, वे अनजाने में अपनी आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखते क्योंकि वे कभी "नहीं" नहीं कहते | वे अप्रत्यक्ष रूप से आहत होते हैं | क्या आप इसे पहचानते हैं?

ऐसे स्थिति में, हमें यह समझने का प्रयास करना होगा कि जब हम "नहीं" कहते हैं और जब हम अपनी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं तो वह वापस दीवारें उठाने के समकक्ष नहीं है | निस्संदेह, हम दोबारा दीवारें उठा सकते हैं, पर यह अनिवार्य नहीं है | हम तब भी पूर्णतः उन्मुक्त, पूर्णतः ग्रहणशील होते हुए कह सकते हैं, "मुझे बहुत खेद है, परन्तु मैं यह नहीं कर सकता" या "अब मुझे विश्राम करना है" और फिर भी उन्मुक्त रह सकते हैं |  परन्तु, जब हमारे भीतर इस मूर्त "मैं" की धारणा होती है तब "मैं बेचारा, मेरा शोषण हो रहा है" का विचार प्रकट होता है और हम बहुत दुखी हो जाते हैं | या हम महसूस करते हैं, "यदि मैं 'नहीं' कहूँगा तो यह व्यक्ति मुझे छोड़ देगा, इसलिए मुझे अपना मुँह बंद रखना चाहिए |" और फिर हम यह सारा विद्वेष, अपराध बोध और क्रोध अपनी ओर लक्षित कर लेते हैं, इस "मैं" की ओर | फिर से, यह सारी बात इस मूर्त "मैं" के विचार के आसपास घूम रही है - और इसी भ्रांत अवधारणा को दूर करना है |

दूसरों के प्रति आपकी प्रतिक्रिया जिनकी दीवारें यथास्थान हैं

मैंने अपने जीवन में निरंतर एक बात का सामना किया है | मुझे अपेक्षाएँ होती हैं जैसे, "यदि मेरी दीवारें नहीं हैं, तो दूसरे व्यक्ति की भी न हों | डरने की कोई बात नहीं है, तो ये अपनी दीवारें क्यों नहीं ढहाते?" और यदि वे ऐसा नहीं करते, तो मुझे बहुत क्रोध आता है |

जब आप यह कहते हैं तो मेरे मन में दो बातें आती हैं | पहला है एक वार्तालाप जो मेरा एक महिला के साथ हाल ही में एक ट्रेन में हुआ था | जब मैंने बताया कि मैं बौद्ध-धर्म पढ़ाता हूँ और यह पढ़ा रहा हूँ कि किस प्रकार स्वार्थ की भावना से उबरना चाहिए, तो वह बोली, "स्वार्थी होने में क्या बुराई है? यदि सब स्वार्थी हैं और मैं स्वार्थी नहीं हूँ, तो मैं मूर्ख हूँ |" आप यहाँ वही बात कह रहे हैं: "यदि सब ने दीवारें बना रखी हैं और मैंने नहीं, तो मैं मूर्ख हूँ |" मैंने उसे उत्तर दिया, "उस तर्क के अनुसार, यदि सब यहाँ-वहाँ लोगों को गोली मारते घूम रहे हैं, और आप ऐसा नहीं कर रहीं, तो आप मूर्ख हैं |" तो, निस्संदेह, हमें लोगों को गोली मारने और दीवारें होने के लाभों और हानियों के बारे में थोड़ा निष्पक्ष होना पड़ेगा |

जो दूसरी बात याद आती है वह है मेरी माता का उदाहरण | मेरी माँ टीवी पर समाचार सुनकर बहुत द्रवित हो जाया करती थीं | वे समाचार देखतीं और सारी हत्याओं, डकैतियों और बलात्कारों के विषय में सुनतीं जो उस दिन हुए थे, और वे क्रोधित हो जातीं, "लोग ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?"

मुझे लगता है कि यहाँ पर मुद्दा दम्भी होने का है | हम बहुत बड़बोले ढंग से दम्भी हो सकते हैं | मेरी माता ऐसी नहीं थीं | परन्तु हम सूक्ष्म स्तर पर भी दम्भी हो सकते हैं | मेरी माता शायद ऐसी ही थीं, "मैं कितनी अद्भुत हूँ और बाकी सब कितने बुरे हैं," का एक सूक्ष्म रूप | मेरे विचार में बात वही मूर्त "मैं" की भ्रांत अवधारणा की है | दूसरे शब्दों में, हम एक लाभकारी ढंग से कार्य करने के आदी हैं, जैसे दीवारें न होना या लोगों को न लूटना और हत्या न करना | हम एक मूर्त "मैं" का उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं | उसका प्रयोग करके हम अपनी पहचान को सुदृढ़ करते हैं ताकि हम इस "मैं" को सुरक्षित कर सकें | फिर जो लोग हमारी तरह कार्य नहीं करते उनकी कड़ी अस्वीकृति की पूरी प्रक्रिया का प्रयोग करके हम इस "मैं" को कम असुरक्षित और अधिक सुरक्षित बनाने का प्रयास करते हैं।

हमारी प्रतिक्रिया भिन्न कैसे हो सकती है यह हम नीचे बताए गए उदाहरण से समझ सकते हैं। हम इस प्रकार एक गिलास से पानी पीते हैं। हमारा कुत्ता ऐसे पानी नहीं पीता। तो यदि बहुत से कुत्ते हों और वे धरती पर पड़े कटोरों में से अपनी जीभ से चाटकर पानी पी रहे हों, तो क्या इससे हमें दम्भ महसूस होगा कि हम सही ढंग से पी रहे हैं और वे सब बुरे हैं क्योंकि वे गलत ढंग से पी रहे हैं? नहीं। हम इससे तनावग्रस्त क्यों नहीं होते?

दूसरी और, हम तनावग्रस्त क्यों नहीं होते यदि हम उन्मुक्त हैं और हमारे आस-पास के लोग उन्मुक्त नहीं हैं? इसके और एक पशु की तुलना में हमारे पानी पीने के अलग ढंग के बीच क्या अंतर है? मेरे विचार में एक विशिष्ट दृष्टिकोण के साथ एक मूर्त "मैं" के जुड़े होने के सन्दर्भ का अंतर है। हम किस प्रकार पीते हैं, वह नगण्य बात है। तो हम इसपर ध्यान नहीं देते कि कुत्ता कैसे पीता है। पर यह मूर्त "मैं" - "मैं उन्मुक्त होने और 'अच्छा' होने का अथक प्रयास कर रहा हूँ..."

अब हमारे चित्र के एक और भाग में हमें कूची फेरनी है जिसका सम्बन्ध इससे है कि जब दूसरे लोग हमारी तरह व्यवहार नहीं करते तो हम दुखी हो जाते हैं। यह रंग की वही लकीर है जिसका सम्बन्ध "चाहिए" - "मुझे ऐसा करना चाहिए," के पूरे प्रश्न से है।

दूसरों की बातों और उनके व्यवहार पर ध्यान न देना

मेरे विचार में एक और उपाय है | यदि आप एक सम्मानित व्यक्ति बनना चाहते हैं और कोई आप से कहे, "आप मूर्ख हैं," तो आप क्रोधित हो जाते हैं | परन्तु यदि आप एक सम्मानित व्यक्ति नहीं बनना चाहते और कोई आप से कहे, "आप मूर्ख हैं," तो आप पर कोई असर नहीं होता | यदि कोई आपकी पत्नी को किसी कारणवश छीनना चाहे और आप उसे रखना चाहते हैं, तो आप लड़ने लगेंगे | परन्तु यदि आप सोचते हैं, "ठीक है, यदि मेरी पत्नी जाना चाहती है, तो कोई बात नहीं | मैं इसे स्वीकार करता हूँ," तब, क्योंकि आपको उसे रखने की इच्छा नहीं है, आप झगड़ा नहीं करते |

यहाँ हमें दो सत्यों के बीच भेद करना होगा | हम इन्हें गहनतम और पारम्परिक सत्य कहते हैं | गहनतम सत्य के दृष्टिकोण से, हाँ, चूंकि वस्तुओं का मूर्त अस्तित्व नहीं है, इसलिए हम चेष्टा करते हैं कि उनसे आसक्त न हों | परन्तु, पारम्परिक सत्य के दृष्टिकोण से, "कुछ बातें ग्रहण करने योग्य होती हैं और कुछ त्यागने के योग्य |" पारम्परिक दृष्टिकोण से, संकुचित होने से उन्मुक्त होना अधिक हितकारी है, और अपनी पत्नी की रक्षा करना उसका शील भंग होने और अपहरण होने से अधिक हितकारी है | यह इस गहनतर सत्य का खंडन नहीं करता कि हम आसक्त नहीं हैं | इन दोनों सत्यों के विषय में हमें एक को दूसरा समझने से बचना है |

समापन अभ्यास

हमारे इस शाम के सत्र के समापन का समय आ गया है | आइए इसका एक अनुभवजन्य साधना से अंत करते हैं, और इसे भी हम उन्मुक्त होकर अपने आसपास देखते हुए करेंगे | हम उन्मुक्त होना चाहते हैं, पर उस मूर्त "मैं" के रूप में नहीं जिसके दीवारें ढह गई हैं और मेरे ऊपर सीधे मेरे मुँह पर - छपाक! - कोई मिट्टी फ़ेंक दे | परन्तु, इस रूप में कि मेरे आसपास कोई दीवार नहीं है और ऐसा कोई अहं नहीं हैं, हमें जिसके आहत होने का डर हो | पर प्रत्यक्ष रूप से हम यहाँ हैं | हम हर गतिविधि के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं परन्तु बिना भय, बिना ज़ोर से चिपकने वाले ढंग से रक्षात्मक होकर | यह भय कहाँ से उत्पन्न होता है? भय यह सोचने से जन्मता है कि एक मूर्त "मैं" है जो आहत हो सकता है | फिर, स्पष्टतः, हमें डर लगता है |

पारम्परिक सत्य यह है कि, यदि कोई हमपर कुछ फेंकता है तो हम हट जाते हैं | यदि कोई हमसे बहुत अधिक की माँग करता है, तो हम "नहीं" कहते हैं | पारम्परिक रूप से, हम सविवेकी सचेतनता अथवा निष्पक्ष विभेद करने की क्षमता से ऐसी स्थितियों का सामना करते हैं, न कि आत्मनिष्ठ दम्भ-प्रेरित निर्णयों से |

यदि आप दीवारें ढहा दें, तो क्या इसका सम्बन्ध नमनशीलता से है, ताकि चाहे हम अच्छी बातें सुनें या बुरी, हम फिर भी सहायता करना चाहते हैं? क्या ऐसे कर पाने का यह अर्थ है कि हम नमनशील हैं?

बिलकुल सही | जब दीवारें नहीं होंगी तभी हम सही मायने में नमनशील, सहज आदि हो पाएँगे | यदि दीवारें होंगी, तो हम स्वतंत्र रूप से प्रतिक्रिया नहीं दिखा पाएँगे | तब हम बहुत कठोर होते हैं | हम अपने इर्द-गिर्द ये दीवारें बनाकर चलते हैं |

दीवारें न होने का अर्थ है बहुत हद तक नमनशील होना | पर इसका केवल यही अर्थ नहीं है, है क्या? दीवारें न होने का अर्थ केवल नमनशील होना नहीं है?

बिलकुल ठीक | इसका अर्थ केवल यही नहीं है | इसका अर्थ उपयुक्त ढंग से सम्बन्ध बना पाना भी है | इसके कई अर्थ हैं | सबकुछ परस्पर सम्बंधित है | जब हम दीवारें ढहाते हैं तब हम अधिक संवेदनशील भी हो सकते हैं | यदि हम अधिक संवेदनशील होंगे, तो हम अधिक नमनशील भी होंगे | यदि हम अधिक निश्छल होंगे, तो दूसरा व्यक्ति हमारे साथ अधिक शांत महसूस करेगा | इसके कई अर्थ हैं | वे सब परस्पर सम्बंधित हैं | यदि दीवारें न हों और हम देख पाएँ कि दूसरों के साथ क्या घटित हो रहा है, तो हमारे लिए सविवेकी सचेतनता द्वारा देख पाना अधिक सरल हो जाता है कि हमें क्या करना है | जब दीवारें नहीं होतीं तब सविवेकी सचेतनता और कुशल उपाय स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाते हैं |

भले ही हम शून्यता की समझ के आधार पर दीवारें न होने की अनुभूति उत्पन्न न कर पाएँ, हम सबको अपना अभिन्न मित्र मानकर उस आधार पर इसे उत्पन्न कर सकते हैं | क्यों? इसलिए क्योंकि कई प्रकार के वाहनों से एक ही गंतव्य स्थान तक पहुँचा जा सकता है, कई कारणों से हम अपना इच्छित लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं, जैसे दीवारें ढहाना | यह कारण और प्रभाव की शून्यता-विषयक शिक्षाओं से उद्भूत होता है | इसलिए, बोध प्राप्ति के कई मार्ग हो सकते हैं और बोध के कई विभिन्न स्तर, और वे सभी उपयोगी हो सकते हैं |

तो, सभी को अपना अभिन्न मित्र मानते हुए, इस उन्मुक्त भाव को करुणा की दृष्टि से उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं | और फिर, यदि हम इस उन्मुक्त भाव को शून्यता के सही बोध की दृष्टि से उत्पन्न कर पाएँ, तो यह और भी सहायक सिद्ध होगा | ये दोनों सदा संयुक्त होते हैं - करुणा और विवेक | याद है? यह दो पंखों का बिम्ब है |

दूसरों का उत्तरदायित्व निभाना

परन्तु यदि आप दूसरे को अपना अभिन्न मित्र मानते हैं, तो इसका अर्थ है कि आपको उसका पूरा उत्तरदायित्व लेना होगा और इसलिए, इस दृष्टिकोण से, मैं भयभीत हूँ |

हम भयभीत क्यों होते हैं? इस मूर्त "मैं" के कारण - "मैं हार जाऊँगा |" तो इसका अर्थ है कि हमें अपने चित्र पर एक और बार कूची फेरनी होगी, कारण और प्रभाव की शून्यता के बगल में | बुद्ध ने जो आदर्श उदाहरण दिया था वह था कि पानी की बाल्टी पहली या अंतिम बूँद से नहीं भरती; यह भरती है सभी बूँदों के समुच्चय से | जब हम कष्ट से उबरने में किसी की सहायता करते हैं, तो वह 100% हमारे प्रयास पर निर्भर नहीं होता | यह "मैं" की अति-स्फीति है | परिणाम अनेक, अनेक, अनेक कारणों के मिश्रण से मिलता है |

एक ओर, हम यह नहीं कहते कि हम इस प्रसंग में पूरी तरह से उत्तरदायी हैं कि यदि उनमें सुधार नहीं हुआ तो हम स्वयं पर असफल होने का दोष लगाएँगे | परन्तु, दूसरी ओर, हम दूसरे छोर तक भी नहीं जाते, कि हम कुछ भी न करें | हम अपनी क्षमतानुसार पूरा योगदान देते हैं | परन्तु वे अपने कष्टों से उबर पाएँगे या नहीं, इसका अधिकांश दायित्व उनके कर्मों पर ही होता है |

यह, पुनः, ऐसा विषय है जो हमारे द्वारा बनाए जा रहे चित्र पर हमें छोटी-छोटी लकीरें बनाने का अवसर देता है | परन्तु हम कल इसमें गहराई तक जाएँगे - यह "मुझे चाहिए" का पूरा विचार | "मुझे यह करना चाहिए | मुझे उनकी सहायता करनी चाहिए | मुझे उनकी सभी समस्याएँ सुलझानी चाहिए, इत्यादि | और यदि मैं सफल नहीं होता और उनकी समस्याएँ नहीं सुलझा पाता, तो मैंने कोई अपराध किया है |"

और यह स्वाभाविक रूप से ईश्वर की चर्चा की ओर ले जाता है, जहाँ से हमारा यह पूरा "चाहिए" का सोचने का ढंग उपजता है | हम कल्पना करते हैं, कि ईश्वर की भाँति, हमें भी सर्वशक्तिमान होना चाहिए और हमारे भीतर केवल अपनी शक्ति के दम पर सबकुछ सिद्ध करने की क्षमता होनी चाहिए | हम कल इसपर चर्चा करेंगे |

तो, आइए, हम उन्मुक्त भाव से, बिना भय के, और इस कामना के साथ समाप्त करें, "कितना अच्छा होता यदि सभी बिना भय के उन्मुक्त भाव से रह पाते | सब ऐसे हो पाएँ | मैं सबकी ऐसा बनने में सहायता कर पाऊँ |"

याद रखें, हमें सदा स्वयं से पूछना है कि हम किस से डरते हैं, क्यों डरते हैं और, निस्संदेह, कौन है जो डरता है?

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