तंत्र के बारे में सामान्य भ्रांतियाँ

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यह शीघ्र हो जाता है, यह सरल है, यह रहस्यमय है। चतुराईपूर्ण विपणन ने तंत्र के बारे में अनेक भ्रांतियों को जन्म दिया है। लोग "गोपनीय" और उन्नत प्रथाओं में रुचि तो रखते हैं, परन्तु साथ-साथ वे त्वरित प्रभावों के भी इच्छुक हैं। यह लेख इनमें से कुछ अति सामान्य भ्रान्तियों के बारे में चर्चा करता है और तथ्य को कल्पना से पृथक करता है।

तंत्र के बारे में भ्रांतियाँ

यह विचार कि तंत्र या द्ज़ोंग्चेन ज्ञानोदय प्राप्ति का सरल मार्ग है

तंत्र को लेकर कई भ्रांतियाँ हैं। ये भ्रांतियाँ प्रायः चतुराईपूर्ण विपणन की ही उपज हैं। न जाने किन कारणों से, परन्तु कई तिब्बती एवं पश्चिमी शिक्षक तंत्र या द्ज़ोंग्चेन का सरल मार्ग, त्वरित मार्ग, उच्चतम मार्ग आदि के रूप में विपणन करते हैं। इस प्रकार के विपणन के कारण छात्र भ्रमित हो जाते हैं और यह समझ बैठते हैं कि तंत्र या द्ज़ोंग्चेन वास्तव में सरल मार्ग है।

ऐसा क्यों है कि लोग इन प्रथाओं के प्रति आकर्षित होते हैं और यह समझते हैं कि ये त्वरित और सुगम हैं? जैसा कि मेरे एक शिक्षक ने बताया, इसका कारण या तो यह हो सकता है कि लोग आलसी होने के कारण आवश्यक कठोर परिश्रम करने से हिचकिचाते हैं, या फिर यह कि वे किसी प्रकार के लाभ का सौदा पटाना चाहते हैं। यह सस्ते में ज्ञानोदय प्राप्ति करने जैसा है, जैसे हम किसी दुकान में जाकर मोलभाव करने की कोशिश करते हैं। जब हम विभिन्न धर्म विधियों को परखते हैं तब हमारी प्रायः यही मानसिकता होती है: "इस हफ़्ते किस चीज़ पर छूट है?"

यह तथ्य निर्विवाद है कि तंत्र अभ्यास एवं द्ज़ोंग्चेन अत्यधिक सूक्ष्म और जटिल हैं और इसके लिए बहुत कठिन तपस्या की आवश्यकता है। सबसे पहले तो इस प्रकार की साधनाओं के लिए यह निर्दिष्ट है कि इन्हें आरम्भ करने से पहले 1,00,000 या अधिक दण्डवत प्रणाम आदि के आरंभिक साधना, ङ्गोन्द्रो, करने होंगे। और यह कोई सरल कार्य नहीं है - इसमें सालों लग सकते हैं!

100,000 दण्डवत प्रणाम से अद्भुत चमत्कार की आशा 

यदि हम मान भी लें कि हमें दण्डवत प्रणाम आदि जैसी साधनाओं को करना ही होगा, तो भी इनसे किसी प्रकार के चमत्कार की आशा करना तो केवल भ्रम है। हो सकता है कि यह भ्रम विपणन प्रक्रिया का परिणाम हो या फिर हमने इन आरंभिक साधनाओं की शक्ति का मूल्य अधिक आँक लिया है और यह भ्रम उसी का परिणाम है। "मैं बहुत उतावला हो रहा हूँ। मुझे इतना बता दो कि करना क्या है। अच्छा, अपनेआप को 100,000 बार ज़मीन पर पटक देना है, किसी परायी भाषा के कुछ शब्द 100,000 बार दोहरा देने हैं और बस मेरी सारी समस्याएँ उड़न-छू हो जाएँगी। बहुत बढ़िया, लो मैं इसे अभी करता हूँ।" यह भ्रम है। पर आप उतावलेपन में ऐसा करते हैं और यह उम्मीद भी करते हैं कि अंत में कोई चमत्कार होने वाला है। और वह होता नहीं। तब आपका अपनी धर्म साधना से पूरी तरह से मोहभंग हो जाता है और आप उसे ठुकरा कर अपने रास्ते चल देते हैं।

यह तो सच है कि शुद्धिकरण के अभ्यास निश्चित रूप से प्रभावी हो सकते हैं, परन्तु जब आपका चित्त 99.9% समय यहाँ-वहाँ भटक रहा हो और अपनी साधना में न लग रहा हो, और आपको उसकी किसी भी प्रकार की अनुभूति नहीं हो रही हो और न ही आपके मन में कोई भावना बन रही हो, तो वे प्रभावी हो ही नहीं सकते। प्रभावी न होने का एक और कारण यह हो सकता है कि आपकी कोई प्रबल एवं उचित प्रेरणा ही न हो। तो इन अभ्यासों के प्रभावी होने के लिए - और ध्यान रहे कि चाहे वे प्रभावशाली हो भी जाएँ, कोई चमत्कार तो कदापि नहीं होने वाला - उन्हें ठीक से, पूरी तरह एकाग्रचित्त होकर, पूर्ण रूप से, उचित प्रेरणा युक्त होकर, निष्कपट रूप से शरणागति का अनुभव करते हुए, उसके आशय के पूर्ण बोध इत्यादि से करना होगा। और यह कोई आसान काम तो है नहीं, है न?

यह सोचना भी ग़लत है कि 100,000 आवृत्तियों के पूरे होने पर यूँ समझ लें कि "चलो, मेरी देनदारी पूरी हो गई। अब मैं मनमानी कर सकता हूँ।" एक तरह से देखा जाए तो यह इन पूर्व साधनाओं के प्रति दुर्भाव रखने वाली मनोदृष्टि है, मानो हमने एक प्रकार के प्रवेश शुल्क का भुगतान कर दिया हो। आपको केवल खानापूरी करनी थी, बस, और आपको इस बात से कोई मतलब नहीं कि आपके पापों को समाप्त करने और पुण्यों को संचित करने - जैसे बुद्ध, धर्म, और संघ द्वारा इंगित शरणागति को अपने जीवन में धारण करने - में इस साधना का क्या योगदान है। यह चिंतन कि "यही वह दिशा है जिसकी ओर मैं जा रहा हूँ;" या फिर बोधिचित्त को बार-बार उत्पन्न करना। इस प्रकार के पुण्य संचयन के लिए ये आरम्भिक साधनाएँ अत्यंत सहायक होती हैं।

धर्म के मूलभूत बोध के बिना अपरिपक्व अवस्था में ही ङ्गोंद्रो का अभ्यास करना

बौद्ध धर्म के मूलभूत बोध को प्राप्त किए बिना ही ङ्गोंद्रो की इन साधनाओं को करना और उन्हें अपने पापों को धोने की एक प्रक्रिया मात्र के रूप में मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी। पश्चिमी देशों में प्रायः ऐसा होता है कि आप किसी धर्म गुरु के पास जाते हैं और वहाँ जाते ही, बिना किसी शिक्षण या किसी प्रकार के बोध की प्राप्ति से पहले ही, आपसे कहा जाता है, "100,000 दण्डवत प्रणाम करो!" और आश्चर्य की बात यह है कि लोग ऐसा करते भी हैं!

तो आप अपनेआप से यह पूछें, "वे ऐसा क्यों करते हैं?" इसका कारण प्रायः इससे किसी प्रकार के चमत्कार होने की आशा जनित उतावलापन होता है। या फिर किसी धर्म-गुट का भाग बनने जैसा है जहाँ वे अपने जीवन के प्रति अपने उत्तरदायित्त्वों को त्याग देते हैं और, जैसे सेना में होता है, एक सशक्त शिक्षक की आज्ञा का केवल पालन करते हैं। यह एक भ्रामक विचार है कि अपने गुरु से सम्बन्ध सेना में अपने वरिष्ठ अधिकारी से सम्बन्ध के बराबर है जिनकी आज्ञा का आप बिना प्रश्न किए ही पालन करते हैं।

यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम अपनी आलोचनात्मक क्षमता को कभी न गँवा दें। परम पावन दलाई लामा हमेशा इसपर बल देते हैं। आलोचनात्मक बने रहो। इसका अर्थ यह नहीं कि हम केवल दोष निकालते रहें, यद्यपि अंग्रेज़ी में दोनों के लिए एक ही शब्द है। "आलोचनात्मक" का अर्थ है घटनाओं की छान-बीन करना। परन्तु "आलोचना" का ध्वन्यर्थ है एक प्रकार की नकारात्मक मनोदृष्टि और सोच युक्त आक्रामकता से अहंकारपूर्वक किसी को तुच्छ समझना, "मैं अत्यंत श्रेष्ठ हूँ और तुम निकृष्टतम हो।" इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि ङ्गोंद्रो साधना करने के लिए मूलभूत बौद्ध-धर्मी शिक्षाओं का सुदृढ़ आधार हो और इस बात का बोध भी हो कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों। पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम केवल किसी जटिल मानस दर्शन की विस्तृत जानकारी प्राप्त कर लें, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उस चित्तावस्था के बारे में हम सुस्पष्ट हो जाएँ जिसे हम अपने भीतर उत्पन्न कर आत्मसात करने का प्रयास कर रहे हैं।

अपरिपक्व अवस्था में तांत्रिक साधना

अपरिपक्व अवस्था में ही तांत्रिक साधना आरम्भ करना एक व्यापकतर भ्रांत धारणा को सूचित करती है, चाहे हम ङ्गोंद्रो से ही आरम्भ क्यों न करें। उदाहरण के लिए, उन परंपराओं में, जहाँ ङ्गोंद्रो की प्रारंभिक प्रथाओं पर अत्यधिक बल दिया जाता है, एक सांझा या सबके लिए सामान्य ङ्गोंद्रो है जो वास्तव में चित्त को धर्म की ओर ले जाने वाले चार विचार हैं। इसमें मूल रूप से वही सामग्री समाविष्ट है जो लाम-रिम की (क्रमिक स्तरों वाली) सामग्री में पाई जाती है। उसके बाद ही दण्डवत प्रणाम आदि के असामान्य और एकल आरम्भिक साधनाएँ आती हैं। इन सांझा प्रारंभिक शिक्षाओं (मूल लाम-रिम शिक्षाओं) को छोड़ने, या तुच्छ मानने, या न्यूनतम करने, और सीधे ही दण्डवत प्रणाम आदि की ओर छलांग लगाने से प्रायः दण्डवत प्रणाम, शताक्षरी मन्त्र का उच्चारण, इत्यादि के प्रति अयथार्थवादी मनोदृष्टि बन जाती है। कुछ समय पश्चात आप स्वयं अपनेआप से सवाल करने लगते हैं, " इसमें ऐसा क्या है जो मैं यह सब कर रहा हूँ? इससे क्या लाभ होगा?" परन्तु, इन प्रारम्भिक अभ्यासों को करने से पहले पुण्य संचयन, पाप निवारण (या कम-से-कम पापों का न्यूनीकरण) इत्यादि के बारे में यदि आपको न्यूनतम स्तर तक का स्पष्ट बोध हो जाता है तो आपको ये प्रारम्भिक अभ्यास इसलिए सार्थक लगने लगेंगे क्योंकि आपको विशेष पूर्वनिश्चित आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त करना है।

यहाँ समस्या केवल अपरिपक्व अवस्था में ही ङ्गोंद्रो अभ्यास का प्रारम्भ करना नहीं है, अपितु उस अपरिपक्व अवस्था में ही तंत्र का प्रारम्भ करना है। ऐसा बार-बार क्यों होता है? अब हो सकता है कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि हम अभ्यागत लामाओं से दीक्षा की माँग कर बैठते हैं भले ही हमारा समूह उनका अभ्यास करने के लिए तैयार ही न हो। या फिर अभ्यागत लामा स्वयं दीक्षा दे देते हैं चाहे शिष्य समूह उसके लिए पूर्ण रूप से तैयार हो या न हो। अतः तंत्र पर अनावश्यक रूप से बल देने और, अधिकांश लोगों के लिए, समय से पहले ही इसके अभ्यास को प्रस्तुत करने सम्बन्धी इस भ्रान्ति के लिए हम स्वयं पूरी तरह से उत्तरदायी नहीं हैं।

हम दीक्षा क्यों माँगते हैं? इसके कई कारण हो सकते हैं। हो सकता है कि हम स्वयं उसे उच्च कोटि का मान बैठे हों। अर्थात्, जैसे यही असली चीज़ है। यह अत्यंत अनोखी है। या फिर यह हो सकता है कि धर्म केंद्र चलाने वाले यह सोचते हों कि इससे अधिकाधिक लोग आकृष्ट होंगे और वे अभ्यागत शिक्षकों को वेतन दे सकेंगे और साथ ही अपने केंद्र भी चला पाएँगे। यह वित्तीय कारणों से भी हो सकता है, और यदि ऐसा है तो यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।

शिक्षक भी स्वयं इस विचार से प्रेरित हो सकते हैं, "ठीक है, वे इसका अभ्यास अभी नहीं करेंगे, पर यह उनके भावी जीवनकालों के लिए एक प्रकार से बीजारोपण तो हो जाएगा।" वैसे भी, अधिकांश पश्चिमी लोग पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते हैं, और वह भी निस्संदेह एक भ्रम ही है। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि शिक्षक स्वयं इस बात से अनभिज्ञ हैं कि पश्चिमी देशों के लोगों के पास तंत्र का प्रभावी ढंग से अभ्यास करने लायक पृष्ठभूमि नहीं है। या फिर यह भी हो सकता है कि उन पर अपने मठों और भिक्षुओं की सहायता हेतु धन इकट्ठा करने की कोई बाध्यता हो।

दीक्षा के निवेदन के या शिक्षक द्वारा दीक्षा के सुझाव के कई कारण हो सकते हैं। पर परामर्श तो सदा यह दिया जाता है कि अभ्यागत शिक्षक से केवल मूलभूत शिक्षा का ही निवेदन करें। और यदि हमें और अधिक उन्नत शिक्षा की आवश्यकता हो तो निवेदन केवल बोधिचित्त या शून्यता (रिक्तता) सम्बन्धी उन्नत सूत्र शिक्षाओं के विषय में ही करें।

यह सोचना कि यदि अपरिपक्व अवस्था में ही तांत्रिक दीक्षा मिल गई है, तो हम उसकी साधना करने के लिए बाध्य हैं

बात यह है कि कई लोग तांत्रिक साधना के लिए पर्याप्त रूप से तैयार होने से पहले ही उसकी दीक्षा प्राप्त कर लेते हैं। पर कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि यदि वे इस साधना को छोड़ देते हैं तो वे विधर्मी हो जाएँगे और परिणामस्वरूप उन्हें नरकवास प्राप्त होगा। फलस्वरूप, ऐसे लोग इस बात को बिना जाने कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों, इस साधना में लगे रहते हैं और शीघ्र ही उस साधना के प्रति वैमनस्य जाग्रत हो जाता है। परन्तु यह मिथ्या विचार है कि या तो यातनादायक साधना या फिर नरक की यातना, केवल ये ही दो विकल्प हैं ।

ऐसे लोगों के लिए सरकाँग रिन्पोचे का एक अत्यंत उपयोगी परामर्श है। उन्होंने कहा कि ऐसे में आपको यह मान लेना चाहिए कि आपकी यह दीक्षा आपके भावी जीवनकालों के लिए आपके मानसिक समतान में एक प्रकार का बीजारोपण है। इसकी निष्कपट रूप से जाँच करने के बाद यदि आपको ऐसा लगता है कि आप इस साधना के लिए तैयार नहीं हैं तो आप इस दीक्षा को अपने चित्त के सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कर दीजिए। परन्तु स्मरण रहे कि आप इसे पूरे सम्मान एवं ऐसी निश्छल धारणा से युक्त होकर करें कि जब आप इसके लिए तैयार हो जाएँगे तो, इसे उस स्थान से उतारकर साधना आरम्भ कर देंगे।

जैविक विज्ञान, विशेषतः अपनी कामासक्ति, पर विजय प्राप्त किए बिना मोक्ष या ज्ञानोदय प्राप्ति का विचार

यह एक मिथ्या धारणा है कि हम अपनी जैविक अवस्था, विशेष रूप से अपनी कामासक्ति, को दूर किए बिना ही मोक्ष एवं ज्ञानोदय प्राप्ति कर सकते हैं। ध्यान दें कि यह एक विशेष रूप से जटिल बिंदु है। यद्यपि यह सत्य है कि तंत्र की उन्नत अवस्था में पहुँचने पर हम कामना तथा विषयवासना को स्वयं कामना तथा विषयवासना से ही समाप्त कर सकते हैं, परन्तु यह केवल तभी संभव हो सकता है जब हम उस अत्यधिक उन्नत अवस्था तक पहुँच जाएँ जहाँ हमारी सूक्ष्म ऊर्जा प्रणाली पूर्ण रूप से हमारे नियंत्रणाधीन हो जाए। तंत्र को एक प्रकार की अनोखी विषयभोग की विधि के रूप में मानना एक भयंकर भूल होगी। हम मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य रखते हैं। मोक्ष का अर्थ है हर प्रकार की कामवासनाओं आदि से युक्त इस सांसारिक भौतिक शरीर से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा पाना। हमारा लक्ष्य है विमुक्त या ज्ञानोदय प्राप्त सत्त्वों के शरीर जैसा शरीर पाना: जो प्रकाश का बना होता है जो इन भौतिक सीमाओं के अधीन नहीं होता। यद्यपि प्रायः हम बौद्ध-धर्मी साधनाओं में किसी प्रकार की सौदेबाज़ी की तलाश में रहते हैं। हम शारीरिक सुखों को त्यागे बिना ही सस्ते में मोक्ष और ज्ञानोदय को प्राप्त करना चाहते हैं। यह अत्यंत मिथ्या धारणा है।

यह विचार कि तंत्र साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग सभी विवरणों का सही मानसदर्शन है

एक और बात यह है कि तंत्र के लिए साधना के निर्देशों के इच्छुक होने पर एक मिथ्या धारणा यह हो सकती है कि साधना का मुख्य बल मानसदर्शन पर है और इसलिए सभी छोटी-छोटी बारीक़ियों को सही रूप से जानना अत्यावश्यक है। इस पश्चिमी बोध के सन्दर्भ में मेरे गुरु सरकाँग रिन्पोचे एक उदाहरण देते थे कि, "लोग मुझसे यह पूछते हैं कि क्या यमांतक या वज्रयोगिनी की नाभि है? यह हास्यास्पद है। ऐसे लोग इन साधनाओं के कई महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को समझ नहीं रहे।"

तंत्र मानसदर्शन के अभ्यास द्वारा जब आप एकाग्र संकेन्द्रण प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको निश्चित ही सभी बारीक़ियों को जानने की आवश्यकता होगी, परन्तु आरम्भ में आपको उसपर अपना ध्यान केंद्रित नहीं करना है, बल नहीं देना है। आपको चाहिए कि एक मूलभूत बोध पर अपना ध्यान केंद्रित करें, जिसे त्सोंगखपा "तीन मुख्य मार्ग" (निःसरण, बोधिचित्त, और शून्यता का बोध) कहते हैं, और किस प्रकार ये तीन आयाम चेनरेज़िग या तारा जैसे बुद्ध रूपों में स्वयं अपना मानसदर्शन करने वाली तंत्र साधना से जुड़े होते हैं। ये तीन आयाम इस प्रकार हैं:

  • निःसरण - मोक्ष का संकल्प - अपने सामान्य रूप एवं अपने इस विश्वास के प्रति अपनी आसक्ति को त्याग देना कि हम, और सभी आलम्बन, सत्यसिद्ध हैं। 
  • बोधिचित्त - हम ज्ञानोदय प्राप्ति को लक्षित करते हैं। ये बुद्ध रूप (बुद्ध के रूपावतार) हमारे अपने उस ज्ञानोदय का प्रतीक हैं जिसे हम प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हैं। तो, उसे और अधिक शीघ्रता से प्राप्त करने के लिए हमें यह कल्पना करनी होगी कि हमने उस गति को प्राप्त कर लिया है। बोधिचित्त के बिना ही अपनी इस रूप में भला क्यों कल्पना करें, और ऊपर से परहित की गतिविधियाँ करने की भी कल्पना करें? यह इसलिए ताकि हम अपनेआप को अभी से परहित में रमा सकें।
  • शून्यता (रिक्तता) - हमें इस बात का बोध है कि हमारा वर्तमान अस्तित्व यथार्थ नहीं हैं, अपितु हमारे भीतर बुद्धजन बनने की वह शक्ति है, और ये बुद्ध रूप उस शक्ति के प्रतीक होते हैं। परन्तु हम इस बात को भी समझते हैं कि ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए हमें परिश्रम करना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में, हम इस बात को समझते हैं कि शून्यता तथा कार्य-कारण की कार्यात्मकता एवं प्रतीत्यसमुत्पाद किस प्रकार परस्पर जुड़े हुए हैं। हम यह सोचकर अपनेआप को धोखा नहीं देते हैं कि हम तारा - नहीं तो क्लियोपैट्रा ही सही -  हैं।

तो यदि हम तंत्र की शिक्षा का आग्रह करते हैं तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वे इसी स्तर पर होंगे। हमें इस बात पर बल देने की आवश्यकता है कि तंत्र साधना आदि का उद्देश्य क्या है और हम इससे क्या प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। यही कारण है कि हमें पहले से तैयारी करने की आवश्यकता है न कि मानसदर्शन की छोटी-छोटी बारीक़ियों पर माथापच्ची करने की, जैसे आभूषण कैसे दीखते हैं, आदि। यद्यपि उन्हें कैसा दिखना है इस के बारे में तो अनुदेश हैं, परन्तु हमें उसपर बल नहीं देना है, विशेष रूप से आरम्भिक अवस्था में।

यह रोचक बात है कि 2004 में टोरॉन्टो, कनाडा, में हुए कालचक्र अभिषेक में परम पावन दलाई लामा ने शून्यता पर नागार्जुन के ग्रंथ, मूलमध्यमककारिका, नामतः "प्रज्ञापारमिता", पर तीन दिन का परिचयात्मक प्रवचन दिया था। तत्पश्चात उन्होंने दीक्षा दी थी। यह ध्यान देने योग्य बात थी कि शून्यता के प्रवचन के लिए जितने लोग नहीं थे, उससे कहीं अधिक भीड़ दीक्षा प्राप्त करने के लिए जमा हो गई थी। परम पावन ने भरी सभा में कहा कि वे वास्तव में उन लोगों की प्रशंसा करते हैं जो केवल नागार्जुन की शिक्षाओं के लिए आए थे और दीक्षा के लिए नहीं रुके, न कि उन लोगों की जिन्होंने इसके विपरीत कार्य किया, अर्थात वे जो परिचयात्मक प्रवचन को छोड़कर केवल दीक्षा-दान के लिए प्रस्तुत हुए। यह अत्यंत सारगर्भित है।

बुद्ध रूपों को संत मानकर उनके आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करना

बुद्ध रूपों, यिदमों, को संत मानना, जैसे संत तारा, संत चेनरेज़िग, इत्यादि, उनकी पूजा करना, और उनसे सहायता की प्रार्थना करना तंत्र की एक और मिथ्या धारणा है। यह मिथ्या धारणा केवल पश्चिमी लोगों तक ही सीमित नहीं है। कई पारंपरिक बौद्ध-धर्मी भी यही विचार रखते हैं, यद्यपि ये लोग संतों को ईसाई धर्म में जिस प्रकार देखते हैं वैसे नहीं देखते। ये बुद्ध रूप हमें वैसे ही प्रेरित कर सकते है जैसे बुद्धजन और वंश-परंपरा के गुरु कर सकते हैं, पर ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए तो हमें ही मेहनत करनी पड़ेगी।

इस मिथ्या धारणा में से कुछ भूल तो अनुवाद के कारण होती हैं जब हम विभिन्न गुरुओं एवं बुद्ध रूपों से अध्येषणा (निवेदन) करते हैं। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि "प्रार्थना" शब्द का हमारे लिए ध्वन्यार्थ है ईश्वर से प्रार्थना करना: "हे भगवान मेरी प्रार्थनाओं को सुन लो।" या फिर यह किसी संत से याचना करने की ओर भी संकेत करता है कि वे भगवान से हमारी मध्यस्थता करें ताकि भगवान हमें कुछ दे दें। यह ईसाई धर्म से लिया गया है, और हमारे लिए उपयुक्त नहीं है।

इन तथाकथित "प्रार्थनाओं" में हम जो अध्येषणा करते हैं उसे तिब्बती में चिन-गि-लब  (ब्यिन-ग्यिस्रलब्स ) कहा जाता है और इसे प्रायः "आशीर्वाद" के रूप में अनूदित किया जाता है। हम अनुवाद के द्वारा इस प्रकार अध्येषणा करते हैं, "मुझे आशीर्वाद दें कि मैं ऐसा कर सकूँ। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं वैसा कर सकूँ," मानो हमें बुद्ध रूपों का आशीर्वाद ही चाहिए और बस पलक झपकते ही हमें सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाएँगी। यह सब बौद्ध धर्म नहीं है।

यदि हम "आशीर्वाद" के रूप में अनुवाद करते हैं तो उससे अध्येषणा का लक्ष्यार्थ पूर्णतः भ्रामक हो जाएगा और उसके मूल अर्थ से बिल्कुल पृथक होगा। इसके लिए प्रयुक्त तिब्बती पद का शाब्दिक अर्थ है स्वयं को अपने वर्तमान स्तर से ऊपर उठाना और प्रकाश से उद्दीप्त करना। मूल संस्कृत शब्द, अधिष्ठान, का अर्थ है किसी व्यक्ति या वस्तु को अपने वर्तमान स्तर से ऊपर उठाना, उसका उदात्तीकरण करना। मैं इस शब्द का अनुवाद "प्रेरित करना" के रूप में करना पसंद करता हूँ। हम बुद्ध, गुरु, बुद्ध रूपों, से यह आग्रह करते हैं कि हमें इस या उस सिद्धि को प्राप्त करने की प्रेरणा दें। परन्तु ऐसा नहीं है कि ये बुद्ध रूप, अपनी ओर से, अपने ही बल से, हमारी याचनाओं की पूर्ति कर दें, हमारे लिए सबकुछ कर दें, और हम बस इतना ही करें कि उनके आगे समर्पित हो जाएँ। यह भी एक प्रकार का क्षेपक है, इस पश्चिमी विचार या अवधारणा को बौद्ध धर्म पर प्रक्षेपित किया गया है। मुख्य बात हमेशा यही रहेगी कि हमें वह काम स्वयं करना होगा। बुद्धजन, गुरु, हमें प्रेरित कर सकते हैं, वे हमें सिखा सकते हैं, वे हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं, परन्तु वे हमारे लिए काम नहीं कर सकते। काम तो हमें अपनेआप ही करना होगा।

धर्मपाल (संरक्षकों) के बारे में मिथ्या धारणा 

इसी प्रकार, धर्मपाल (संरक्षक) साधना को अधिक तूल देने की धारणा भी मिथ्या है। यह प्रायः उन धर्म-केंद्रों में होता है जहाँ वे हर सप्ताह या हर महीने एक सामूहिक धर्मपाल साधना करते हैं। यहाँ तक कि नवसाधकों को भी सामूहिक पाठ में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है, भले ही वे इस विषय में पूर्ण रूपेण अनभिज्ञ हों। जो लोग इस स्थिति में हैं वे धर्मपाल को सभी बाधाओं और संकटों से बचाने वाले के रूप में मानते हैं (धर्मपाल शब्द से यही अभिप्रेत है)। वे इस बात को भूल जाते हैं, या फिर बिल्कुल जानते ही नहीं, कि हमें तो शरणागति और कर्म के आधार पर ही अपनी रक्षा करनी होगी।

शरणागति के सम्बन्ध में एक बात बता दूँ कि यदि निकृष्ट पुनर्जन्म से बचना हो तो बुद्ध, धर्म, और संघ की शरणागति करनी होगी। यह लाम-रिम का आरम्भिक विषयक्षेत्र (अधमपुरुष स्तर) है। ऐसा नहीं कि हम निकृष्टतर पुनर्जन्मों से बचने के लिए धर्मपाल के पास जाते हैं। यह बात शिक्षाओं में कहीं नहीं कही गई है, है न? हम उसके लिए बुद्ध, धर्म, और संघ से सहायता की कामना करते हैं, परन्तु वे भी हमें बचाने के अर्थ में हमारी रक्षा नहीं करते। वे हमें सिखाते हैं कि इस प्रकार के विनाशकारी पुनर्जन्मों से बचने के लिए हमें क्या करना होगा, पर अंततः हमें उस कार्य को स्वयं ही करना होगा। वे हमारे लिए केवल आदर्श प्रस्तुत करते हैं। और जहाँ तक कर्म का प्रश्न है, हम अकुशल व्यवहार से दूर रहकर ही निकृष्टतर पुनर्जन्मों से अपनेआप को सुरक्षित रख पाऍंगे।

बुद्ध, धर्म, और संघ की शरणागति को स्वीकार करने का अर्थ क्या है? शरणागति मुख्य रूप से धर्म द्वारा इंगित होती है, नामतः गहनतम धर्म रत्नालंकार, जो तीसरे और चौथे आर्य सत्य का उल्लेख करता है। तीसरा आर्य सत्य है दुःख का सत्य निरोध और उसके द्वारा दु:ख-सत्य का सत्य निरोध। चौथा आर्य सत्य है सत्य मार्ग जो हमें सत्य निरोध तक ले जाएगा, नामतः शून्यता के बोध की समझ, एवं उससे जनित वास्तविक बोध। ये दो आर्य सत्य बुद्धजनों के मानसिक समतान में पूर्ण रूप से विद्यमान हैं, और आर्य संघ के मानसिक समतान में आंशिक रूप से। यही वह दिशा है जिसमें हम जा रहे हैं, अर्थात्, उनके जैसा बनने और उन्होंने जो प्राप्त किया उसे प्राप्त करने की दिशा में। यदि हम ऐसा करते हैं तो अपनेआप को दु:खों से बचाते हैं। धर्म एक संस्कृत शब्द है जिसका मूल है धृ अर्थात् संयम रखना। धर्म उस निवारक उपाय को संदर्भित करता है जो हमारे भीतर संयम जाग्रत कर हमें दु:खी होने से रोकता है।

धर्मपाल हमारे लिए ऐसा कुछ नहीं कर सकते। धर्मपाल मुख्य साधनाओं के अनुपूरक की भाँति हैं। वस्तुतः धर्मपालों को समझने के कई मार्ग हैं। सरकाँग रिन्पोचे कहते हैं कि वे विशालकाय क्रूर कुत्तों की भाँति हैं। उन्होंने कहा कि यदि आप एक बुद्ध रूप के रूप में मंडल प्रासाद के केंद्र में हैं तो अपनी सेवा कराने हेतु मंडल में आह्वान किए गए इन धर्मपालों को नियंत्रित करने के लिए आपको यमांतक की भाँति बलशाली एवं सशक्त होना होगा। उदाहरण के लिए, यद्यपि आप फाटक पर खड़े होकर लुटेरों को भगा सकते हैं, पर आप ऐसा करेंगे ही क्यों जब आप वही काम एक कुत्ते से करवा सकते हैं? किन्तु आपको इस बात को हमेशा ध्यान में रखना होगा कि आप ही स्वामी हैं और लगाम को अपने ही हाथ में रखना है। अतः व्यवधानों, लुटेरों, इत्यादि को दूर रखने की दृष्टि से हम धर्मपालों को भले ही अपने सहायक के रूप में समझें, परिस्थितियों पर लगाम लगाकर रखने का उत्तरदायित्त्व तो पूर्णतया हमारा ही रहेगा।

यदि हम धर्मपालों को वास्तविक सत्त्वों के रूप में मानते हैं - जैसे प्रेतात्माएँ आदि - जैसा कि तिब्बती लोग मानते हैं, तो वे केवल हमारे कर्मफल के विपाक होने की परिस्थितियाँ संजोकर दे सकते हैं और इससे अधिक वे कुछ भी नहीं कर सकते। यदि हमने विपाक होने लायक कर्मफल संचित ही नहीं किए हों तो धर्मपाल हमारी सहायता नहीं कर सकते। यह वही क्रियाविधि है जिसे हम भैषज्य गुरु पूजा और दीर्घायु की पूजा के लिए प्रयोग करते हैं। धर्मपाल हमारी उन्नति के कारण नहीं हैं, अपितु हमारे पुण्य कर्मों का विपाक होने का संयोग मात्र हैं। कभी-कभी तो धर्मपालों के लिए कुछ अलग ही कार्यविधि होती है। यहाँ वे भविष्य में सफलता पाने के हमारे मार्ग में आने वाले अधिक गंभीर अवरोधों को भस्मीभूत करने हेतु हमारे पापों का क्षुद्र तीव्रता से विपाक करने की परिस्थितियाँ बनाकर हमारी सहायता करते हैं। इस प्रकार धर्मपाल अनुष्ठान कई प्रकार से काम करता है।

परन्तु यहाँ हम जो भूल बैठते हैं, हमारी जो भ्रान्ति है, वह है बुद्ध, धर्म, और संघ के स्थान पर धर्मपाल साधनाओं को अपना मुख्य विषय बनाकर उसपर अनावश्यक बल देना। इससे एक ख़तरा जुड़ा हुआ होता है धर्मपाल साधना का एक प्रकार की प्रेतात्मा भक्ति बनने का। इससे कई ऐसी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं जो तिब्बत-वासियों के बीच विद्यमान विवादास्पद धर्मपाल मसले के उदाहरण से स्पष्ट होता है। इसलिए हमें अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है।

मेरे विचार में किसी भी धर्म केंद्र के लिए यह कोई बड़ी समझदारी की बात नहीं है कि प्रतिदिन, प्रति सप्ताह, या प्रति मास भी ऐसी सार्वजनिक धर्मपाल साधना आयोजित की जाए जिसमें कोई भी, विशेष रूप से नवसाधक, भाग ले सके। विशेष रूप से जब ये धर्मपाल पूजा मन्त्र अनूदित होकर आपकी अपनी भाषा में पढ़े जाते हैं तो वे बहुत भारी-भरकम हो जाते हैं - "मेरे दुश्मनों को कुचल दो" आदि। उन्हें आसानी से गलत समझा जा सकता है।

अभिषेक के विषय में भ्रांत धारणाएँ

गुरु या साधना को परखे बिना एवं साधना में संलग्न होने का निश्चय किए बिना तंत्राभिषेक स्वीकार करना

तांत्रिक अभिषेक के संबंध में यह समझना आवश्यक है कि गुरु या साधना को परखे बिना ही अभिषेक स्वीकार करना एक बहुत बड़ी भूल होगी। और फिर मान लीजिए कि हमने उन्हें परख भी लिया, परन्तु यदि हम साधना में संलग्न होने का कोई इरादा नहीं रखते हैं और अभिषेक को स्वीकार कर लेते हैं, तो वह भी एक बहुत बड़ी भूल होगी। आखिरकार हमारी बुद्ध-धातु को सक्रिय, सुदृढ़, तथा उन्नत करना ही तो अभिषेक का उद्देश्य है, ताकि हम एक विशिष्ट तंत्र प्रणाली की साधना में संलग्न हो सकें। यही है इसका असली उद्देश्य। हमारी “बुद्ध-धातु” हमारी उन शक्तियों की ओर संकेत करती है जो पूर्ण रूपेण विकसित होने पर हमें स्वयं बुद्ध बनने में सक्षम बनाती हैं। अभिषेक समारोह के दौरान किए जाने वाले विभिन्न अनुष्ठान और मानस दर्शन की क्रियाएँ हमारी शक्ति के बुद्ध-धातु क्षमता के बीजों को सक्रिय करती हैं और साथ ही अधिक बीजों को भी रोपती हैं, ताकि हम किसी विशिष्ट साधना में संलग्न हो सकें। वस्तुतः यह उस साधना को आरम्भ करने का अभिषेक है।

जब हम इसे ग़लत तरीक़े से समझते हैं तो हम या तो किसी तथाकथित "आशीर्वाद" के लिए या फिर सामूहिक दबाव के कारण किसी भी लामा के किसी भी अभिषेक समारोह में बिना सोचे समझे पहुँच जाते हैं। परन्तु अभिषेक समारोह एक सशक्तिकरण प्रक्रिया है और यह एक अत्यंत गंभीर बात है। हमें अपने गुरु की पूरी तरह से जाँच करनी होगी, "क्या मैं इस गुरु से अपने तांत्रिक गुरु के रूप में एक विशेष नाता स्थापित करना चाहता हूँ?" हममें से अधिकांश लोगों को यह भी नहीं पता कि यह है क्या चीज़। "क्या मैं इस विशिष्ट देवता की ही साधना करना चाहता हूँ, किसी अन्य देवता की नहीं?" "क्या मैं इस समय उसकी दैनिक साधना करने के बारे में गंभीर हूँ? यदि अभी तत्काल नहीं तो क्या मैं बाद में इस साधना में संलग्न होने का इरादा रखता हूँ?"

अब यह बात तो स्पष्ट है कि हम अभिषेक को एक प्रकार का मानवशास्त्रीय आयोजन मानकर उसमें जा सकते हैं, जैसे कोई मानववैज्ञानिक किसी देश के रहस्यमय मूल निवासियों के किसी गूढ़ अनुष्ठान को देखने जाता है। परम पावन दलाई लामा कहते हैं कि यदि आप किसी तटस्थ प्रेक्षक के रूप में जाना चाहते हैं तो उसमें कोई समस्या नहीं पर बिना सोचे समझे आँखें मूँदकर उसमें कूद पड़ने से अभिषेक की प्रक्रिया का मिथ्याबोध होने का ख़तरा हो सकता है।

यह सोचना कि “आशीर्वाद” पाने के लिए अभिषेक समारोह में जाने मात्र से हम संवर एवं प्रतिश्रुतियाँ ग्रहण कर लेंगे 

यदि हम यह मान लेते हैं कि किसी भी अभिषेक समारोह को एक प्रकार का मानवशास्त्रीय कार्यक्रम मानकर, अथवा केवल आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए या सामूहिक दबाव में आकर उसमें भाग लेने मात्र से हमें संवर एवं प्रतिश्रुतियाँ प्राप्त हो जाएँगी क्योंकि आप उस समारोह में प्रस्तुत थे, तो यह विचार भी एक मिथ्या-धारणा है। आपको संवर तभी प्राप्त होंगे जब आप उन्हें पूरी जानकारी से युक्त होकर एवं इच्छा-पूर्वक ग्रहण करते हैं। उस समारोह में प्रस्तुत होने मात्र से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि आपने संवरों को ग्रहण कर लिया है या दीक्षा प्राप्त कर ली है। तिब्बती लोग अपने कुत्तों को अपने साथ अभिषेक समारोह में ले जाते हैं। अब इसका यह मतलब तो नहीं हुआ कि वे कुत्ते संवरों से युक्त हो गए हैं या साधना के लिए दीक्षा प्राप्त कर ली है। पर क्या हम कुत्ते की तरह दीक्षा समारोह में भाग लेना चाहते हैं? बात बस इतनी है। या फिर क्या हम उन्मादग्रस्त होने के लिए जाते हैं, जैसे किसी मादक पदार्थ के सेवन से होते हैं?

यह सोचना कि आशीर्वाद पाने के लिए अभिषेक समारोह में जाने मात्र से हम संवर एवं प्रतिश्रुतियाँ ग्रहण कर लेंगे 

दूसरी ओर यह धारणा भी उतनी ही भ्रांत है कि हम संवरों के बिना ही अभिषेक ग्रहण कर साधना में संलग्न हो सकते हैं। संवर अभिषेक के सबसे महत्त्वपूर्ण आयामों में से एक है। यह बात कई ग्रंथों में अत्यंत स्पष्ट रूप से कही गई है: "संवरों के बिना कोई अभिषेक नहीं होता।" द्ज़ोंग्चेन सहित सभी तंत्र श्रेणियों के अभिषेक समारोहों में न्यूनतम स्तर पर भी बोधिसत्व संवर तो होते ही हैं।

त्सोंगखपा और अतीश इस बात पर बल देते हैं कि बोधिसत्व संवरों के लिए सामान्य नीतिशास्त्र में आधारभूत ज्ञान होना चाहिए। इसलिए, वैयक्तिक मोक्ष के लिए प्रतिमोक्ष संवर के एक विशेष स्तर की आवश्यकता है, भले ही वे केवल लौकिक संवर ही क्यों न हों। यह अनिवार्य नहीं है कि हम सभी पाँच के पाँच संवरों - हत्या, चोरी, झूठ बोलना, अनुचित यौन व्यवहार, तथा मादक द्रव्यों का सेवन, इन पाँचों से बचना - को एक साथ ग्रहण करें। हम उनमें से जितने चाहें ग्रहण कर सकते हैं, यहाँ तक कि केवल एक भी। इसके अतिरिक्त यदि हम तंत्र की दो उच्च श्रेणियों, अर्थात् योग तंत्र और अनुत्तरयोगतंत्र, में दीक्षा लेते हैं तो हमें तांत्रिक संवरों को ग्रहण करना ही पड़ेगा। यह पूर्णतया अनिवार्य है। और हमें संवरों के इन समूहों को बहुत ही गंभीरता से लेना होगा, परन्तु उससे पहले हमें इस बात को भली-भाँति जाँचना होगा कि क्या हम इनका पालन कर भी पाएँगे या नहीं।

अभिषेक से लघुतर साधना प्रतिश्रुति के लिए गुरु से सौदा करने की बात सोचना

यदि अभिषेक में एक विशेष साधना प्रतिश्रुति का प्रावधान है तो यह एक भ्रम है कि इस प्रतिश्रुति को लघुतर करने के लिए हम गुरु से सौदेबाज़ी कर सकते हैं, जैसे पूर्वी देशों की मंडियों में सस्ता माल ख़रीदने के लिए हम दुकानदारों से मोलभाव करते हैं। मैंने कई बार पश्चिमवासियों को ऐसा करते देखा है। जब परम पावन दलाई लामा धर्मशाला में अभिषेक देते हैं तो सामान्य प्रतिश्रुति यह है कि आप जीवन के प्रत्येक दिन उसकी साधना करें। पश्चिमवासी इसमें जाना तो चाहते हैं पर वे सौदेबाज़ी करने से बाज़ नहीं आते, "हमारा जीवन व्यस्त है; क्या यह करना अनिवार्य है? क्या ऐसा हो सकता है कि हम इसे कभी-कभी करें जब हमारे पास समय हो?" वे अभिषेक को सस्ते दामों पर पाना चाहते हैं। यहाँ तक कि जब परम पावन प्रतिश्रुतियों के कई स्तर निर्धारित करते हैं तब भी कई पश्चिमवासी न्यूनतम प्रतिश्रुतियों को लेना चाहते हैं, वह भी सस्ते में।

विशेष रूप से जब हम किसी तांत्रिक साधना पर अनुदेश और उपदेश प्राप्त करने जाते हैं तो हमारा मुख्य उद्देश्य यही होता है कि हमें साधना करनी है। और हम अपनी साधना को लेकर गंभीर हैं। नहीं तो हम शिक्षा लेते ही क्यों? केवल जिज्ञासावश? यह बात तो सही नहीं है। ये शिक्षाएँ इतनी बहुमूल्य और पुनीत मानी जाती हैं कि आप इन्हें केवल इस आधार पर ग्रहण करते हैं कि आप साधना करना चाहते हैं और उसके लिए आपके भीतर उचित समुत्थान हैं (अर्थात्, आप यथोचित रूप से प्रेरित हैं)। यह इस इंटरनेट-काल में निस्संदेह एक कठिन समस्या बन जाती है क्योंकि इंटरनेट पर तंत्र साधना की कई पुस्तकें आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। इसलिए, परम पावन दलाई लामा कहते हैं कि तंत्र पर इतनी अधिक जानकारी वैसे भी उपलब्ध है और इनमें से बहुत-सी ग़लत भी है, तो बेहतर यही होगा कि आप केवल सही जानकारी ही प्राप्त करें।

जैसा कि परम पावन कभी-कभी विनोदवश कहते हैं, "यदि नरक ही जाना हो तो ग़लत समझ की अपेक्षा सही समझ से युक्त होकर जाना बेहतर है। यदि बोध सही हो तो आप वहाँ से तुरंत उछलकर बाहर निकल सकते हैं।" मुझे यह पता नहीं कि इस बात का शाब्दिक अर्थ लिया जाए या केवल एक चुटकुले के रूप में मान लिया जाए, परन्तु यह हमें चिंतन की सामग्री अवश्य देता है। पते की बात यह है कि सारा ज्ञान इन्टरनेट पर उपलब्ध होने के कारण हमारे पास अब यह बहाना नहीं रहता कि हम साधना न करें तो भी चलेगा। अर्थात्, यदि हम साधना के लिए दीक्षा एवं शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं तो हमें साधना में संलग्न होने की प्रतिश्रुति को गंभीरता से लेना ही होगा।

दैनिक साधना प्रतिश्रुति का कार्यक्रम सुनिश्चित कर लेने के बाद यह सोचना कि चलो एक दिन की साधना छोड़ने से कुछ नहीं होता, या फिर अत्यधिक दैनिक साधना प्रतिश्रुतियाँ ग्रहण कर लेना

यदि हमारी दीक्षा में दैनिक पाठसाधना की प्रतिश्रुति है तो उसे गंभीर रूप से न लेकर यह सोचना कि मन नहीं कर रहा - "हम तभी करेंगे जब हमारा मन होगा" - तो चलो एक दिन की चूक से कुछ नहीं बिगड़ता, एक भ्रामक धारणा है। साथ ही अपनी क्षमता से अधिक प्रतिश्रुतियों को ग्रहण कर लेना यह सोचे बिना कि हम उन्हें निभा पाएँगे भी या नहीं, उतना ही भ्रामक है।

भारत में 70 के दशक में यह एक बहुत ही सामान्य रूप से हो जाने वाली ग़लती थी। उन दिनों, पूर्ण साधना प्रतिश्रुतियों के साथ पूर्ण दीक्षा बहुत ही सरलता से दी जाती थी और हम पश्चिमवासी उन्हें ग्रहण भी कर लेते थे। हम इन दीक्षाओं और प्रतिश्रुतियों को इस आशा से ग्रहण कर लेते थे कि हम उन्हें सदा के लिए निभा पाएँगे। पर मात्र दस साल बाद - बीस, तीस, चालीस साल की कौन कहे - के दृश्य को देखें तो ऐसे कितने लोग टिके हुए थे जिन्होंने अपनी प्रतिश्रुतियों को निभाया और जो निभा रहे थे? केवल कुछ मुट्ठी-भर लोग ही ऐसे थे। और इन प्रतिश्रुतियों को ग्रहण करने के कुछ ही दिन बाद बहुत-से लोग ऐसे निकले जिन्हें दैनिक साधना एक संघर्ष लगने लगी थी। वे कहते थे कि प्रातःकाल बहुत ही व्यस्त था। "मेरे लिए प्रातःकाल का समय ठीक नहीं है।" यह सोचकर वे साधना को शाम के लिए टाल देते थे कि उस समय उनके पास दो या तीन घंटे निकल आएँगे। पर शाम होते-होते वे इतना थक चुके होते थे कि साधना में बैठे-बैठे ही ऊँघने लग जाते। वे साधने करते-करते ही लुढ़कने लगते और फिर अचानक झटके से जाग जाते, और इस तरह अपनी साधना करते-करते आधी रात बीत जाती। इस प्रकार उनकी साधना यातना बन जाती। यह एक बहुत बड़ी समस्या थी।

यदि आप साधना प्रतिश्रुतियों को ग्रहण करने का इरादा रखते हैं तो आपको अपनी क्षमताओं के बारे में यथार्थवादी बनना होगा कि आप वास्तव में क्या कर सकते हैं। ये साधना प्रतिश्रुतियाँ बहुत ही गम्भीर होती हैं क्योंकि इनके तहत आप अपनी साधना को प्रतिदिन और आजीवन करने की प्रतिज्ञा करते हैं। अब प्रश्न यह है कि आप अपने जीवन के प्रत्येक दिन किसी कार्य को अनवरत करने की प्रतिज्ञा क्यों करने लगे भला? इसका केवल एक ही कारण है और वह यह है कि आप मोक्ष एवं ज्ञानोदय प्राप्ति को लेकर अत्यंत गंभीर हैं और आप तंत्र की मूल विधि को समझते हैं तथा आपका यह दृढ़ निश्चय है कि अपनी साधना को सटीक रूप से करने पर आपको अपना साध्य प्राप्त हो ही जाएगा। यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है।

परम पावन हमेशा इस बात पर बल देते हैं कि यदि आपको तंत्र में संलग्न होना है तो तंत्र का पूर्ण ज्ञान तथा उसकी विधि में पूर्ण विश्वास ही उसका आधार होना चाहिए। नहीं तो आप भला इसे क्यों कर रहे हैं? विशेष रूप से यदि आपको ऐसा लगता है कि ये सब बस कुछ एक विचित्र मानसदर्शन और कुछ मन्त्रों का बुदबुदाना ही है, तो कुछ समय बाद आपको यह सब भी बड़ा ही ऊटपटांग लगने लगेगा: "मैं ये सब क्यों कर रहा हूँ?" और आप इन सबको छोड़-छाड़कर अपने रास्ते चल पड़ेंगे। इसलिए इस बात पर भली-भाँति विचार करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम इन प्रतिश्रुतियों को पूरी तरह निभा पाएँगे या नहीं।

यह सोचना कि तंत्र साधना केवल अनुष्ठान और मंत्रों का पाठ है

अंत में, इसे केवल एक अनुष्ठान का पाठ या मंत्रोच्चार करने की प्रक्रिया मात्र समझना मिथ्या धारणा होगी। बोधिचित्त और शून्यता (रिक्तता) पर गहन रूप से ध्यान-साधना के बिना हम केवल निरर्थक उच्चार ही करते रहेंगे और यदि हम मानसदर्शन करने का प्रयास करें भी, तो वह प्रायः दुस्साध्य ही होगा क्योंकि वह अत्यंत जटिल होता है। इन सबसे बचने के लिए हम साधनाओं के सरलतम रूप को ही अपनाना चाहते हैं, तिसपर तुर्रा यह कि उसके आधार पर कुछ अत्यंत अद्भुत होने वाला है। फिर कई बार तो हमारी साधना सारी शिक्षाओं को संजोने की एक प्रभावशाली विधि होने के बजाय कल्पना लोक में पलायन करने का साधन मात्र बनकर रह जाती है।

तंत्र सभी शिक्षाओं को एक साथ संजोने की विधि है। उदाहरण के लिए, अनुष्ठान के आलेख में एक स्थान पर आपको चार अगाध मनोदृष्टियों (चत्वारि अप्रमाणानि) को उत्पन्न करना होगा; फिर एक स्थान पर शरणागति करनी होगी; यहाँ बोधिचित्त; वहाँ अपने संवरों की पुनःपुष्टि; फिर आगे जाकर आपको शून्यता पर ध्यान-साधना करनी होगी। आलेख के अलग-अलग बिंदुओं पर आप भिन्न-भिन्न धर्म-बोध एवं संकल्पों को जाग्रत करते हैं। यदि आप ने पहले से इन विधियों का अभ्यास नहीं किया हो तो अनुष्ठान में जब ये शब्द आएँगे, "अब मुझे शून्यता का बोध है" तो आप क्या करेंगे? आप केवल शब्दों का पाठ करेंगे। परन्तु शब्दों को पढ़ने मात्र से कुछ नहीं होता। इसलिए तंत्र साधना के लिए बहुत अधिक पृष्ठभूमि अध्ययन एवं अभ्यास की आवश्यकता है। यह सोच लेना ग़लत है कि यहाँ हम केवल किसी पाठ को अनर्गल स्वरों में बड़बड़ाते हैं - फिर चाहे चित्त बेलगाम भटकता रहे।

सारांश

स्पष्टतः तंत्र के बारे में कई भ्रांतियाँ हैं। कुछ तो तंत्र के प्रचार से उत्पन्न होती हैं और कुछ हमारी अपनी इच्छा से: हम सभी ज्ञानोदय प्राप्ति का त्वरित और सरल मार्ग चाहते हैं। यदि हम तंत्र साधना की वास्तविकता को समझ लेंगे तो पहली ही बाधा आने पर उसे छोड़ चम्पत हो जाने के बजाय उसके साथ टिके रहकर उन्नति करने की हमारी संभावना बढ़ जाएगी।  

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