मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म अनमोल है
मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म को चिन्तामणि के समान अनमोल क्यों कहा जाता है
हमारा यह मानव शरीर इच्छाओं को पूर्ण करने वाले चिन्तामणि से भी अधिक मूल्यवान है। यह हमारी निवृत्ति का आधार है; किन्तु अपने शरीर के स्तर पर हमें जो निवृत्ति प्राप्त होती है वह इसलिए नहीं है कि हम औषध व्यसनों से उन्मत्त हो जाएं, बल्कि इसलिए है ताकि हम धर्म का आचरण कर सकें। तो हमारा यह बहुमूल्य मानव शरीर इच्छाओं की पूर्ति करने वाले चिन्तामणि से अधिक मूल्यवान क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इच्छाओं की पूर्ति करने वाली मणि हमारे इस जन्म में हमारी भोजन-पानी की आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकते हैं लेकिन हमारे भविष्य के जन्मों में हमारे काम नहीं आ सकते हैं। हमें जो यह मानव शरीर मिला है वह हमें धर्म का आचरण करने का अवसर देता है और इसलिए यह किसी मणि से भी अधिक मूल्यवान है।
हम सभी सदैव और अधिकाधिक समय तक सुख चाहते हैं। किन्तु इस जन्म में हम जो भी सुख हासिल कर लें, वह थोड़े समय तक ही टिकता है और उसकी अवधि इस छोटे से जीवनकाल से अधिक नहीं होती है। इसलिए यदि हम निरन्तर सुख चाहते हैं, तो हमें अपने आगामी जन्मों के बारे में विचार करना चाहिए। इच्छाओं को पूर्ण करने वाली मणि हमें निचली तीन गतियों में पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति नहीं दिला सकती है और न ही हमें अमरत्व प्रदान कर सकती है। इस बहुमूल्य मानव शरीर को एक व्यावहारिक आधार के रूप में प्रयोग करते हुए हम निम्न गति में पुनर्जन्म प्राप्त करने से अपने आप को बचा सकते हैं; और, श्रद्धेय मिलारेपा की ही भांति इसे धर्म की साधना का आधार बना कर इसी जीवन में ज्ञानोदय प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार इच्छाओं की पूर्ति करने वाली मणि हमें यह सब नहीं दे सकती जो हमें अपने बहुमूल्य मानव शरीर से मिल सकता है, और हमारी यह काया किसी चिन्तामणि से अधिक मूल्यवान है।
इसलिए हमें अपने इस बहुमूल्य मानव शरीर का उपयोग धर्म की साधना के लिए करना चाहिए। लेकिन हम प्रायः इसके विपरीत दृष्टिकोण अपनाते हैं ─ हालाँकि हमारा मानव शरीर किसी चिन्तामणि से अधिक मूल्यवान है, फिर भी हम इसका उपयोग अधिक से अधिक सम्पत्ति जुटाने के लिए करते हैं, और यहाँ तक कि हम इस अल्पकालिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने जीवन को भी नष्ट करने के लिए तत्पर रहते हैं। इस दुनिया में हमसे अधिक धनवान और बुद्धिमान लोग बहुत सारे हैं। लेकिन अपने बहुमूल्य मानव शरीर को धर्म की साधना में लगा कर हम उनसे कहीं बहुत अधिक प्रबल गुण हासिल कर सकते हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम मनुष्य के रूप में अपने इस बहुमूल्य पुनर्जन्म को वृथा न गंवाएं, बल्कि इसका उपयोग उन तीन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए करें जिनके लिए यह उपयोगी है: भविष्य के जन्म में बेहतर गति में पुनर्जन्म प्राप्त करना, मुक्ति और ज्ञानोदय की प्राप्ति।
हम कितने ही भौतिक सुख-साधन क्यों न हासिल कर लें, उनसे हमें संतुष्टि नहीं मिलेगी। किसी व्यक्ति को यदि दुनिया भर के भौतिक साधन हासिल हो जाएं, तब भी वह संतुष्ट नहीं हो सकेगा। तो यह बात स्पष्ट है कि सारे चिन्तामणि भी मनुष्य को संतुष्टि नहीं दे सकते हैं। मनुष्य को जितनी अधिक सम्पत्ति मिलती जाती है, उसके साथ ही उसका दुख भी बढ़ता जाता है। हम स्वयं इस बात को अनुभव कर सकते हैं ─ यदि हम बहुत सारे सामान-असबाब के साथ किसी रेल या बस में सफर कर रहे हों तो सफर बहुत कठिन हो जाता है; और यदि हमारे साथ इतना माल-असबाब न होता, तो सफर बहुत आसान होता।
इसलिए हमें धर्म की साधना का अभ्यास करना चाहिए। उदाहरण के लिए, श्रद्धेय मिलारेपा जब एक गुफा में ठहरे हुए थे, तब उनके पास को कोई भौतिक सामान-सम्पत्ति नहीं थी। श्रद्धेय मिलारेपा और शाक्यमुनि बुद्ध ने इस बात को समझ लिया था कि भौतिक वस्तुएं कितनी तुच्छ और अनावश्यक होती हैं और धर्म की साधना के लिए उन्होंने इन वस्तुओं का त्याग कर दिया। और आप लोग भी, जो दुनिया के अनेक धनी देशों में रह चुके हैं, इस बात को जान चुके हैं कि भौतिक सुख-साधन बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं, और इसलिए आप लोग उन्हें पीछे छोड़ कर धर्म की साधना के लिए यहाँ आए हैं।
मनुष्य के रूप में अनमोल पुनर्जन्म प्राप्त करने में कठिनाइयाँ और उनके कारण
हमें यह विचार करना चाहिए कि आखिर इस अनमोल मानव शरीर को प्राप्त करना इतना कठिन क्यों है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसके कारण हेतुओं का निर्माण करना बहुत कठिन है। इन कारण हेतुओं को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
- कठोर आत्मानुशासन बरतना,
- छह व्यापक मनोदृष्टियों (छह पारमिताओं) का अनुशीलन,
- शुद्ध आकांक्षापूर्ण उपासना।
कठोर आत्मानुशासन का अनुशीलन
कठोर नैतिक आत्मानुशासन बनाए रखना बड़ा कठिन होता है, और दूसरों में इसकी पहचान करना और उसका मूल्यांकन करना भी बहुत कठिन होता है। इसके अलावा आत्मानुशासन की दृष्टि से दस विनाशकारी व्यवहार भी होते हैं, और हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि दुनिया में अधिकांश लोग यह तक नहीं जानते कि वे विनाशकारी कार्य कौन से हैं। और जो जानते भी हैं, उनमें से अधिकतर लोग उन विनाशकारी व्यवहारों से दूर रहने का अभ्यास नहीं करते।
शरीर के तीन विनाशकारी कृत्य होते हैं:
- जीव हत्या करना: उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हमें इस बात का ज्ञान हो कि हमें हत्या नहीं करनी चाहिए, लेकिन जब कोई कीड़ा हमें काट लेता है तो हम सहज प्रतिक्रिया के रूप में उसे मार डालते हैं।
- जो दिया न गया हो उसे प्राप्त कर लेना: भले ही हम सीधे-सीधे चोरी न करते हों, लेकिन यदि हम दूसरों की चीज़ें हथियाने के लिए कुटिलता का प्रयोग करते हैं तो बात लगभग वही हुई।
- अनुचित यौन व्यवहार: हम दूसरों के पति /पत्नी के साथ रहने की वासनाओं से घिरे रहते हैं।
शरीर के स्तर पर हमारे ये विनाशकारी कृत्य दिन प्रति दिन उसी प्रकार संचित होते रहते हैं जैसे बरसात में भीगते हुए पानी की बूँदें हमें भिगोती चली जाती हैं।
वाणी के स्तर पर चार विनाशकारी कृत्य:
- मिथ्याभाषण: इसे हम हर समय करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम पहाड़ से नीचे की ओर जाने वाले हों और यदि कोई हमसे पूछे कि हम कहाँ जा रहे हैं, तो हम उसे बताते हैं कि हम पहाड़ के ऊपर जा रहे हैं।
- फूट डालने वाले वचन कहना: मित्रों के बीच शत्रुता उत्पन्न करना और शत्रुओं के बीच शत्रुता को और अधिक बढ़ाना। हम दूसरों की बुराई करके ऐसा करते ही रहते हैं।
- अपमानजनक और कठोर शब्दों का प्रयोग: यह आवश्यक नहीं है कि ऐसे शब्दों का प्रयोग किसी मनुष्य के प्रति ही किया जाए। उदाहरण के लिए, यदि कोई कुत्ता हमारे कमरे में चला आए तो हम चिल्लाते हुए कहेंगे, “भाग! निकल यहाँ से!” अपमानजनक और कठोर भाषा का प्रयोग करना एक बहुत बड़ी भूल है क्योंकि हम जानते हैं कि जब कोई हमें कठोर शब्द कहता है तो आहत होते हैं, इसी प्रकार पशुओं सहित दूसरे भी ऐसा ही अनुभव करते हैं।
- अनर्गल बात करना: व्यावहारिक दृष्टि से हमारे मुँह से निकला हर शब्द निरर्थक प्रलाप ही होता है: “मैंने वह देश देखा है,” “मैंने यह किया है, वह किया है।” यदि आप बहुत ज़्यादा बोलते हैं तो वाणी के इस विनाशकारी व्यवहार की सम्भावना बढ़ जाती है। चूँकि मैं अँग्रेज़ी भाषा नहीं जानता, इसलिए मुझे अँग्रेज़ी में अनर्गल प्रलाप का अवरस नहीं है, और इसलिए मैं केवल तिब्बती भाषा में ही प्रलाप कर सकता हूँ!
चित्त के स्तर पर तीन विनाशकारी कृत्य:
- लोलुपतापूर्ण विचार रखना: किसी के पास कोई बहुत सुन्दर मकान आदि है, और आप उसे अपने लिए पाना चाहते हैं। यह कोई बहुत अच्छी बात नहीं है, लेकिन हम सभी में यह भाव बहुत होता है।
- दुर्भावना रखना: किसी के दुख के लिए कामना करना या उसकी गरदन मरोड़ने की इच्छा रखना। हम केवल अपने शत्रुओं के प्रति ही ऐसे भाव नहीं रखते हैं; यदि हम अपने मित्रों से नाराज़ हों तो उनके प्रति भी हम दुर्भाव रखते हैं।
- दूषित, विरोधी विचार रखना: उदाहरण के लिए, यह सोचना कि भविष्य में पुनर्जन्म नहीं होता है या त्रिरत्नों की शरण में जाने से किसी का कल्याण नहीं हो सकता, या यह विचार करना कि पूजा अनुष्ठान करना समय की बर्बादी है या घी के दीपक जलाना घी की बर्बादी है या तोरमा अर्पण करना त्साम्पा को फेंक कर बर्बाद करने जैसा है।
अपने आप को ऐसा व्यवहार करने से रोकना कठिन होता है। और यदि आप अपने आपको ऐसे विनाशकारी व्यवहार से नहीं रोकते हैं तो आप मनुष्य के रूप में अनमोल पुनर्जन्म नहीं प्राप्त कर सकते हैं। अभी इसके बारे में विस्तार से चर्चा करने के लिए समय नहीं है, लेकिन यदि आप इस सम्बंध में और अधिक जानकारी चाहते हैं तो आपको ला-रिम शिक्षाओं का अध्ययन करना चाहिए।
छह व्यापक मनोदृष्टियों का अनुशीलन
मनुष्य के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त करने का दूसरा कारण हेतु छह व्यापक मनोदृष्टियों (छह पारमिताओं): उदारता, नैतिक आत्मानुशासन, धैर्य, हर्षित मन से तप करना, मानसिक स्थिरता (एकाग्रता), और विवेकी सचेतनता (बोध) की साधना करना है।
लेकिन उदारता का अभ्यास करने के बजाए हम कृपणता का अभ्यास करते हैं और दूसरों के साथ कृपणता का व्यवहार करते हैं। धैर्य धारण करने के बजाए हम क्रोध करते हैं। सहर्ष तप, जिससे हमें धर्म की साधना में आनन्द की प्राप्ति होती है, के बजाए हम आलस्य का व्यवहार करते हैं और हर समय निद्रामग्न रहना चाहते हैं। मानसिक स्थिरता के बजाए हम मानसिक भटकन में उलझे रहते हैं ─ उदाहरण के लिए, किसी मंत्र का जाप करते समय हमारा चित्त चारों ओर भटक रहा होता है ─ और हम इस भटकन को और बढ़ाने वाला आचरण करते चले जाते हैं।
एक शिक्षक थे जिन्हें अपनी साधना के बीच में याद आया कि वे अपने शिष्य को कोई कार्य करने के लिए बताना भूल गए हैं। जैसे ही उन्हें यह बात याद आई, उन्होंने अपनी साधना बीच में ही छोड़ दी, उठे और शिष्य को वह कार्य करने के लिए कह आए। यह उनके चित्त की भटकन थी। हम जब मंत्रोच्चार की साधना कर रहे होते हैं, हमारा चित्त कहीं और भटक रहा होता है।
व्यापक विवेकी सचेतनता की दृष्टि से हमें शून्यता का बोध कराने वाली विवेकी सचेतनता को विकसित करना चाहिए। लेकिन ऐसा करने के बजाए हम चित्रकारी जैसे सांसारिक विषयों के अध्ययन में लीन हो जाते हैं, और इसलिए हम उपयुक्त ज्ञान या बोध विकसित नहीं कर पाते हैं।
संक्षेप में, मनुष्य के रूप में अनमोल पुनर्जन्म के निमित्त उत्पन्न करना बड़ा ही कठिन कार्य है। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि मानव शरीर प्राप्त करना कितना विलक्षण है, हमें यह समझना चाहिए कि हमें यह शरीर केवल इस जन्म में ही प्राप्त हुआ है और यह बहुत जल्दी नष्ट भी हो सकता है। यदि हम इस बेशकीमती मानव शरीर का सदुपयोग करके लाभ नहीं उठाएंगे तो हमें भविष्य के जन्मों में इसे हासिल करने में बड़ी कठिनाई होगी।
अवकाश न होने की आठ स्थितियों से मुक्ति
मनुष्य के रूप में इस अनमोल पुनर्जन्म की प्रकृति ऐसी है कि यह अवकाश न होने की आठ अस्थायी अवस्थाओं से मुक्त है। अवकाश न होने की स्थिति वह स्थिति है जिसमें धर्म की साधना करने के लिए अवकाश नहीं होता है।
अवकाश न होने की चार अमानुषिक अवस्थाएं होती हैं:
- नरक गतियों में साधना करने के लिए अवसर नहीं होता है क्योंकि शरीर हर समय आग में झुलसता रहता है।
- यदि क्षुधार्त प्रेत के रूप में जन्म हो, तो अनवरत भूख और भोजन के विचार विचलित करते रहते हैं।
यदि सुबह जागने के बाद हमें नाश्ता न मिले तो हमारी धर्म साधना करने की इच्छा न होगी। जागने के बाद यदि हमें सिरदर्द अनुभव हो तो हमारी धर्म साधना करने की इच्छा नहीं होती है। इसी प्रकार हमारे अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि यदि हमारा जन्म किसी क्षुधार्त प्रेत के रूप में हो और हमें साठ वर्षों तक भोजन के बिना रहना पड़े तो धर्म की साधना करने में हमारी रुचि नहीं रहेगी।
इसलिए हमें इस बात की कद्र करनी चाहिए कि हमें नरक गति में या प्रेत गति में पुनर्जन्म नहीं मिला है।
- पशु गति में पुनर्जन्म : परम पावन दलाई लामा के कुत्ते के रूप में पुनर्जन्म प्राप्त करके भी हम इस योग्य नहीं बन सकते कि शरण की प्रार्थना का जाप कर सकें।
अच्छी बात यह है कि हमारा जन्म नरक, प्रेत या पशु गति में नहीं हुआ है।
- हमारा जन्म दीर्घायु देव के रूप में नहीं हुआ है : उन्हें इतना आनन्द, सांसारिक सुख प्राप्त होता है कि धर्म की साधना में उनकी कोई रुचि नहीं होती है।
शारिपुत्र के एक शिष्य हुए जो अपने गुरु के प्रति गहरा भक्ति भाव रखते थे। शिष्य की मृत्यु के बाद उन्हें देव गति में पुनर्जन्म प्राप्त हुआ। शारिपुत्र ने अपनी अतिसंवेदी शक्तियों का प्रयोग करते हुए यह जान लिया कि उनके शिष्य ने देव गति में जन्म लिया है। इसलिए उन्होंने वहाँ जाकर अपने भक्त शिष्य से भेंट करने का निश्चय किया। जब वे देवलोक में पहुँचे, तो उन्हें देखकर उनके शिष्य ने हाथ हिला कर केवल उनका अभिवादन भर किया। चूँकि वह इतने सुखों को भोग रहा था कि धर्म की साधना में उसकी कोई रुचि नहीं रह गई थी। यह वास्तविकता है, कोई काल्पनिक घटना नहीं है।
हम अपने अनुभव से इस बात को समझ सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति निर्धन हो तो वह धर्म की साधना के लिए प्रवृत्त होता है। लेकिन यदि वह धनवान हो जाए और उसे बड़े सुख-साधन प्राप्त हो जाएं, तो उसकी रुचि जाती रहती है। इस प्रकार हम भाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म दीर्घायु देव गति में नहीं हुआ है।
अवकाश न होने की चार मानुषिक अवस्थाएं होती हैं:
- अवकाश न होने की पहली अवस्था वह है, उदाहरण के तौर पर पर, कुछ लोगों का जन्म ऐसे देश या काल में होता है जहाँ धर्म शब्द की चर्चा तक सुनने के लिए नहीं मिलती। हम लोग वैसी स्थिति में नहीं हैं।
- कुछ लोगों का जन्म ऐसे बर्बर समाजों में होता है जहाँ लोग रोटी-कपड़ा जुटाने के अलावा और किसी बात में रुचि नहीं रखते। हमारी वैसी स्थिति नहीं है।
तिब्बत में त्सारी नाम का एक पर्वत है। हर बारह वर्ष में एक बार तिब्बती लोग वहाँ जाते हैं। वहाँ रहने वाले लोबा कबीले के लोग बड़े असभ्य हैं, और उनके इलाके से गुज़रने के लिए एक प्रकार के कर का भुगतान करना पड़ता था। कर के रूप में एक याक देना पड़ता था, और लोबा कबीले के लोगों को जैसे ही याक मिलता, वे तुरन्त ही उसे मार कर खा जाते और उसका खून पी जाते थे। इस दृष्टि से हम भाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म वैसी स्थिति में नहीं हुआ है।
- हमारा जन्म दृष्टिहीन, बधिर, विक्षिप्त, या गूँगे व्यक्ति के रूप में नहीं हुआ है। इसलिए हम ज्ञान और साधना के मार्ग की इन बाधाओं से मुक्त हैं।
- इसके अलावा, हमारा जन्म किसी ऐसे स्थान पर भी नहीं हुआ है जहाँ लोगों का दृष्टिकोण बहुत अधार्मिक हो, जहाँ धर्म को महत्वहीन समझा जाता हो और केवल धनार्जन को ही महत्व दिया जाता हो।
इस प्रकार, जब हमें अवकाश न होने की इन सभी अवस्थाओं से मुक्त मानुषिक पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है, और हम यह भी समझते हैं कि अवकाश न होने के क्या कारण हैं, तो हम दोनों ही प्रकार से भाग्यशाली हैं। मनुष्य के रूप में ऐसा अनमोल पुनर्जन्म प्राप्त करने के बाद भी बहुत से लोग यह नहीं जान पाते हैं कि बार-बार पुनर्जन्म प्राप्त करते रहने के क्या कारण हैं।
उपमाएं
इस अनमोल मानव शरीर को प्राप्त करने में होने वाली कठिनाइयों को हम उपमाओं के माध्यम से समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए, मानव शरीर मिलना उतना ही असाधारण है जितना यह कि यदि रेत को किसी दर्पण पर फैंका जाए, तो उसका शायद ही कोई कण दर्पण पर टिकेगा।
यदि हम इन विषयों पर विचार करें, तो हम जान पाएंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा यह पुनर्जन्म कितनी मूल्यवान उपलब्धि है, और हमें यह विचार करना चाहिए कि हमें यह जन्म केवल एक बार के लिए ही मिला है। हमें यह विचार करना चाहिए कि भारत में करोड़ों लोग हैं और उनमें से बहुत थोड़े लोग ही धर्म की साधना करते हैं। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि यह सब कितना दुर्लभ है।
एक बार एक लामा मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म प्राप्त करने की कठिनाइयों के बारे में उपदेश दे रहे थे। श्रोताओं में उपस्थित किसी मंगोलियाई व्यक्ति ने कहा, “यदि आपको लगता है कि मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेना इतना ही कठिन है, तो आपको चीन में जा कर देखना चाहिए कि वहाँ कितने सारे लोग हैं!” यह तो वैसे ही हुआ जैसे आप मुझसे कहें कि मुझे सोवियत संघ में जा कर देखना चाहिए।
ये विषय ध्यान साधना के दौरान चिन्तन करने के लिए बड़े उपयुक्त हैं।
इस अनमोल मानव शरीर का उपयोग सार्थक जीवन जीने के लिए करना
यदि हम यह विचार करें कि हमने इस अनमोल मानव शरीर को पाने के लिए पिछले जन्मों में कितना कठोर श्रम किया है, तो हमारे भीतर इस जन्म को सार्थक और उपयोगी बनाने की इच्छा उत्कट हो जाएगी। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी भारी वस्तु को परिश्रम करके किसी पहाड़ की आधी ऊँचाई तक ले जाएं, और फिर उसे बीच में ही छोड़ दें तो वह लुढ़क कर वापस नीचे जा पहुँचेगी। मनुष्य के रूप में दुर्लभ पुनर्जन्म प्राप्त करने के लिए हमने जो परिश्रम किया है वह किसी भारी बोझ को पहाड़ की आधी ऊँचाई तक ढो कर ले जाने, और फिर उसे वापस नीचे लुढ़कने के लिए छोड़ देने जैसा ही है; यदि हमने उसे छोड़ दिया, तो सारी मेहनत बेकार चली जाएगी।
इसलिए जब हमें दुर्लभ मानव शरीर मिल ही गया है, तो फिर हमें भविष्य में एक और मानव शरीर की कामना नहीं रखनी चाहिए। अभी जब हम मानव शरीर धारण किए हुए हैं, हमें इसका उपयोग पूर्ण बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए करना चाहिए। यदि हम वैसा नहीं करते हैं, तो यह वही मिसाल होगी कि हमारे पास चावल की भरी हुई बोरी हो और हम उसमें से खाने के बजाए बैठ कर यह प्रार्थना कर रहे हों कि हमें अगले जन्म के लिए एक और बोरी मिल जाए। अतः हमें अपने इस मानव जन्म का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए।
मृत्यु के प्रति सचेत रहना
मृत्यु अवश्यंभावी है
यदि हम विचार करें कि हमारा दुर्लभ मानव शरीर कैसा है, तो हम पाएंगे कि यह पत्थर अथवा धातु से निर्मित नहीं है। यदि ऐसा होता, तो इसका अस्तित्व ज़्यादा लम्बी अवधि तक बना रहता। दरअसल, यदि हम अपने शरीर को काट कर उसके अन्दर देखें तो हम पाएंगे कि हमारे शरीर में बहुत सा रक्त और अंतड़ियाँ होती हैं, ठीक पशुओं के जैसी जिन्हें लोग बाज़ार में मांस खरीदने के बाद अपने घरों में टांगते हैं। हमारे शरीर का भीतरी भाग किसी दीवार घड़ी की ही भांति नाज़ुक और जटिल होता है।
यदि हम मृत्यु के बारे में सोचें और विचार करें कि कितने लोग काल-कवलित हो चुके हैं, तो हम प्रत्येक मनके पर एक व्यक्ति को गिनते हुए अपनी जप की माला को अनेकानेक बार फिरा चुके होंगे। यदि मैं यह सोचूँ कि मेरे धर्मशाला में आने के समय से अब तक कितने लोग काल के गाल में समा गए, तो मैं अपनी जपमाला पर गिनता ही रहूँगा।
ऐसा कोई नहीं जिसने मानव शरीर धारण किया हो और उसकी मृत्यु न हुई हो। और यदि आप विचार करें कि पेड़-पौधे कैसे खत्म हो जाते हैं, तो आप जान पाएंगे कि यह तो होना ही है। जन्म की सहज परिणति मृत्यु है। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। यहाँ हमारे एकत्र होने का अन्तिम परिणाम यह होगा कि हम यहाँ से उठकर अलग-अलग हो जाएंगे, ऊँचा उठने का अन्तिम परिणाम नीचे गिरना है। इस बात को समझते हुए कि हमारी मृत्यु निश्चित है, हमें मृत्यु की घड़ी के आने से पहले का अधिक से अधिक समय धर्म की साधना में व्यतीत करने का प्रयास करना चाहिए।
इसलिए हमें विचार करना चाहिए कि हमारी मृत्यु किस प्रकार होगी। कल्पना करें कि आपकी तबियत बहुत खराब है, और आपका शरीर बदरंग हो गया है, आप बहुत कमज़ोर हो चुके हैं, और आपके सगे-सम्बंधी आपकी दशा को देखकर विलाप कर रहे हैं, और डॉक्टर आ कर आपको दवा देता है, लेकिन अफसोस ज़ाहिर करते हुए कहता है कि स्थिति बहुत नाज़ुक है।
हमारी मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है
इसके अलावा, यह भी निश्चित नहीं है कि हमारी मृत्यु किस क्षण होगी। ऐसा देखा जाता है कि सफेद बालों वाले बुज़ुर्ग माता-पिता अपने बच्चों का अन्तिम संस्कार करते हैं। और बहुत से लोगों की इहलीला सामान्य भोजन करते समय दम घुटने के कारण समाप्त हो जाती है।
उदाहरण के लिए, आप तिब्बत के एक व्यक्ति से जुड़ी घटना को देख सकते हैं। एक व्यक्ति ने मांस के कुछ बड़े-बड़े टुकड़े यह सोच कर बचा कर रख दिए कि वह उन्हें अगले दिन सुबह खाएगा, लेकिन मांस के वे टुकड़े रखे रह गए और वह व्यक्ति उन्हें खाने के लिए जीवित ही न रहा। एक अन्य उदाहरण देखें: मैं शिमला में रहने वाले एक किसान को जानता था जो अपने दोपहर के भोजन के ले परांठे बना रहा था, लेकिन परांठे अभी बन ही रहे थे कि उसकी मौत हो गई।
इसलिए नश्वरता और मृत्यु का बोध हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका यह नहीं है कि इनके बारे में किताबी ज्ञान हासिल किया जाए, बल्कि यह है कि हम उन लोगों के बारे में विचार करें जो जीवित नहीं रहे।
मृत्यु की घड़ी में केवल धर्म ही हमारा सहायक हो सकता है
मृत्यु के क्षणों में ध्यान साधना करने का क्या महत्व है? इससे यह प्रदर्शित होता है कि धर्म की साधना ही एकमात्र सार्थक कर्म है।
यदि भौतिक धन-सम्पत्ति आदि की दृष्टि से देखा जाए, तो आप पाएंगे कि हम अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप कोई बड़े सम्पन्न व्यापारी हैं जो ढेरों धन कमा चुका हो, तो उस धन से बस इतना ही किया जा सकता है कि अन्तिम संस्कार के लिए मृत शरीर को ढंकने के लिए कीमती कपड़ा खरीदा जा सके। इस सम्पत्ति को अर्जित करने के लिए इस व्यापारी द्वारा देश-विदेश में जा-जा कर किए गए विनाशकारी कृत्यों के आधार पर यह सम्पत्ति विपुल हो सकती है।
भले ही आपके अनेकानेक सेवक या अनुचर हों, या भले ही आप हज़ारों सैनिकों का नेतृत्व करने वाले सेनानायक हों, मृत्यु की घड़ी में कोई भी आपके साथ नहीं जा सकता है। भले ही देश भर के लोग आपके सगे सम्बंधी हों, वे आपके काम नहीं आ सकते: वे केवल मृत्यु की घड़ी में मरणासन्न व्यक्ति के इर्द-गिर्द खड़े भर ही हो सकते हैं, मरने वाले की तकलीफ को ही बढ़ा सकते हैं, और उसकी मृत्यु और पुनर्जन्म की प्रक्रिया में बाधक ही बन सकते हैं।
मृत्यु के क्षणों में केवल धर्म की साधना ही व्यक्ति के काम आ सकती है, क्योंकि यदि आपने अपने सकारात्मक कर्मों के फलस्वरूप पर्याप्त सकारात्मक कर्मों की शक्ति संचित कर ली हो, तो वह आपके भविष्य के पुनर्जन्मों के लिए बड़ी उपयोगी हो सकती है; लेकिन नकारात्मक कर्म भविष्य के पुनर्जन्मों की प्रक्रिया में बाधक होंगे। इस बात को मृत्यु के बारे में विचार किए बिना भी समझा जा सकता है। तिब्बत में रहने वाले बहुत से तिब्बत वासी बड़े सम्पन्न हुआ करते थे, लेकिन उन्हें अपने ज्ञान और वैयक्तिक गुणों के साथ ही अपना देश छोड़ कर निकलना पड़ा। इसलिए हमें अपने जीवनकाल में निर्मल मन से धर्म की साधना करनी चाहिए और सांसारिक पचड़ों में अपना समय नहीं गवाँना चाहिए।
हमें इस जीवन के सभी सांसारिक कार्यकलापों को गेहूँ के भूसे के समान निस्सार समझना चाहिए। सांसारिक प्रपंच तत्वहीन होते हैं। सांसारिक कार्यकलापों को हमें ऐसे मानना चाहिए जैसे बच्चों द्वारा बनाई गई मिट्टी की रोटियाँ ─ जिन्हें बना लेने के बाद उनकी उपयोगिता उन्हें फेंक देने में ही होती है। बच्चे रेत के किले बनाते हैं; लेकिन खेल खत्म हो जाने के बाद वे उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं। दुनियावी कामकाज को हमें ऐसा ही समझना चाहिए।
यदि आप इन बिन्दुओं के बारे में विचार करें, तो आपको अपनी धर्म साधना में बड़ी सहायता मिलेगी।
प्रेरणा के निम्न स्तर
आरम्भिक स्तर
यदि हम यह मानते हैं कि समस्त सांसारिक कार्य-व्यापार अनावश्यक और महत्वहीन है, तो हम यह समझ पाते हैं कि धर्म की साधना ही एकमात्र महत्वपूर्ण कार्य है। धर्म का अनुशीलन करने से आपको अपने अगले पुनर्जन्मों में लाभ होगा। उदाहरण के लिए, ऐसा विचार करना: “अब चूँकि मुझे मनुष्य के रूप में दुर्लभ पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है, मैं इसका उपयोग इस प्रकार करूँगा ताकि मुझे भविष्य के जन्मों में निम्न गतियों में जन्म न लेना पड़े” यह हमारे दुर्लभ जीवन के निम्नतम लाभ का स्तर है।
कठोर नैतिक आत्मानुशासन हमें तीन निम्नतर लोकों में गिरने से बचा सकता है। लेकिन यदि हम नैतिक आत्मानुशासन बनाए रखने के लिए दृढ़ इच्छा भी रखें, तो वह इच्छा भी धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है। इसलिए निम्नतर गतियों में पुनर्जन्म से बचने के लिए हमें अपने अशांतकारी मनोभावों से मुक्त होना होगा। यह प्रक्रिया एक बेहद गंदे कपड़े को धोकर साफ करने के समान है ─ शुरुआत में आप कम ताकत लगा कर रगड़ते हैं, और फिर धीरे-धीरे ताकत को बढ़ाते जाते हैं। अशांतकारी मनोभावों से मुक्ति पाने के लिए आप आप धीरे-धीरे और नरमी से शुरुआत करते हैं और फिर क्रमशः वृद्धि करते हुए अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। इसी प्रकार नैतिक आत्मानुशासन बनाए रखने के लिए आपको इसे नरमी के साथ लागू करना चाहिए, और फिर उत्तरोत्तर अभ्यास के माध्यम से आप अपने अशांतकारी मनोभावों से मुक्त हो सकते हैं; यदि ऐसा न किया जाए तो आपके प्रयास जल्दी ही क्षीण होकर नष्ट हो सकते हैं।
यदि आप निचले तीन लोकों में पुनर्जन्म से बचने के लिए नैतिक आत्मानुशासन का पालन कर सकें, तो यह धर्म की साधना का न्यूनतम स्तर होगा।
मध्यवर्ती स्तर
यदि हम स्वयं को तीन निचले लोकों में जन्म प्राप्त करने से बचा सकें और अगले जन्म में देव लोकों के आनन्द और सुखों में, या मनुष्य गति में भी जन्म प्राप्त कर लें, तब भी हमें यह समझना चाहिए कि संसार में समस्त प्रकार के पुनर्जन्म दुखमूलक हैं। ला-रिम की शिक्षाओं में इसके बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है, किन्तु इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है: आप बाहर धूप में खड़े हैं और गर्मी बहुत बढ़ जाती है, और इसलिए आप अन्दर चले जाते हैं। इस स्थिति में आप गर्मी के कष्ट से बच जाते हैं, लेकिन आप सर्दी की तकलीफ से घिर जाते हैं। इस संसार में कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ आप दुख से मुक्त हो सकें।
अशांतकारी मनोभाव हमें संसार के चक्र से बांधे रखते हैं। किसी वृक्ष के मूल की भांति इसका मूल यह है कि सही मायने में स्वतंत्र पहचान को समझना चाहिए। संसार के चक्र में हमारा घूमते रहना वैसे ही है जैसे हम किसी हिंडोले पर बैठे गोल-गोल घूम रहे हों, और पहुँचें कहीं भी नहीं। इस हिंडोले से उतरने का एकमात्र तरीका यही है कि हम स्वयं को ऊँचा उठाएं, इससे ऊपर उठें। पहचानहीनता या असम्भव “आत्मा” के अभाव को मान्यता देने वाली सविवेकी चेतनता युक्त आर्य की यही संकल्पना है।
शून्यता या अपने मानसिक सातत्यों के इस बोध को विकसित करने के लिए चित्त की शांत और स्थिरता की शमथ अवस्था को प्राप्त करना आवश्यक है; और इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए नैतिक आत्मानुशासन होना चाहिए। इस प्रकार तीन उच्चतर साधनाएं ─ नैतिक आत्मानुशासन, समाधि, और विवेकी सचेतनता ─ हमें संसार के चक्र से ऊपर उठने में सहायता करती हैं। यदि हम इनकी साधना करें, तो हम संसार के चक्र से छूट सकते हैं।
भवचक्र से स्वयं को ऊपर उठा चुके जीवधारियों की तीन श्रेणियाँ हैं:
- वे जो दर्शन मार्ग चित्त की अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं।
- वे जो भावना मार्ग चित्त की अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं
- वे जो अशैक्ष की अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं, और जिन्हें आगे और साधना करने की आवश्यकता नहीं है।
दर्शन मार्ग चित्त की अवस्था को प्राप्त जीवधारी शून्यता को निर्वैचारिक सरल अनुभूति की दृष्टि से देखते हैं। जो भावना मार्ग चित्त की अवस्था को प्राप्त होते हैं वे उत्तरोत्तर ध्यान साधना के माध्यम से स्वयं को शून्यता की इस निर्वैचारिक अनुभूति के प्रति अभ्यस्त करते हैं। जब आप ध्यान साधना करते करते अपने चित्त को शून्यता की इस अनुभूति के लिए पूर्णतः अभ्यस्त कर लेते हैं और विमुक्ति को बाधित करने वाले भावनात्मक तमाच्छादनों को पूरी तरह अपने चित्त से बहिष्कृत कर देते हैं, तो आप एक विमुक्त योगी, एक अर्हत हो जाते हैं।
प्रेरणा का उन्नत स्तर
प्रेम और करुणा
लेकिन केवल अपने लिए मुक्ति पा लेना ही काफी नहीं है, क्योंकि सभी सीमित जीवधारी (सचेतन जीव) इस कठिन परिस्थिति में हैं। सभी सचेतन जीवों के बीच समानता यह है कि वे सभी दुख भोग रहे हैं और वे सभी दुख से मुक्ति चाहते हैं। यदि हम चित्त की ऐसी अवस्था को विकसित करें जहाँ सभी सचेतन जीवों के दुख से मुक्त होने की कामना की गई हो, तो इसे ही “करुणा” कहते हैं। किन्तु सभी सचेतन जीवों के दुख से मुक्ति की कामना का भाव विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि हम लम्बे समय तक स्वयं अपने दुख के बारे में चिन्तन करें, और उसकी भयावहता को समझकर हम निवृत्ति ─ मुक्त होने की इच्छा के दृढ़ संकल्प को विकसित कर सकते हैं। जब आप दुख की भयावहता को देख-समझ लेते हैं और उससे मुक्त होने की कामना करते हैं, तो फिर आप उसी विचार को दूसरे सभी जीवों पर भी लागू करते हैं। यही करुणा है।
इस प्रकार विरति मेरी दुख से मुक्ति की कामना है, जबकि करुणा सभी जीवधारियों की दुख से मुक्ति की कामना होती है। करुणा और प्रेम के बीच अन्तर यह है कि करुणावश हम यह विचार करते हैं, “यदि सभी सीमित क्षमता वाले जीवधारी दुख और दुख की उत्पत्ति के कारणों से मुक्त हो जाएं तो कितना अच्छा हो”; जबकि प्रेम सभी जीवधारियों के लिए आनन्द और आनन्द के कारणों की प्राप्ति की कामना है।
समभाव और बोधिचित्त किस प्रकार विकसित करें
क्या कारण है कि हम प्रेम और करुणा के भावों से वंचित हैं? हम यह कामना क्यों नहीं करते कि सभी दुख से मुक्त हों और सभी को सुख की प्राप्ति हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे चित्त समतल नहीं हैं ─ हमारे चित्त ऊबड़-खाबड़ हैं; उनमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। हमारे चित्त में यह असमतलता क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमें अपने सगे-सम्बंधियों और मित्रों से बड़ा लगाव होता है, और जब हम अपने शत्रुओं को देखते हैं तो हमें बड़ी घृणा होती है।
तो, हम इस गड्ढेदार मार्ग को समतल किस प्रकार बना सकते हैं? इस बात को हम एक उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं: मान लीजिए कि किसी व्यक्ति ने कल आपको सौ रुपए दिए, और एक अन्य व्यक्ति ने आज आपको सौ रुपए दिए। जिस व्यक्ति ने कल आपको सौ रुपए दिए थे उसने आज सुबह आपको चेहरे पर मुक्का जड़ दिया, और जिस व्यक्ति ने आज आपको सौ रुपए दिए थे उसने कल आपके चेहरे पर मुक्का मारा था। आप इनमें से किसे पसन्द करेंग और किसे नापसन्द करेंगे?
इसलिए, हमें समझना चाहिए कि हमारे शत्रु किस प्रकार विगत में हमारी सहायता कर चुके हैं, और भविष्य में भी हमारे काम आ सकते हैं। इसी प्रकार हमारे मित्र भी हमें नुकसान पहुँचा चुके हैं और भविष्य में भी हमें नुकसान पहुँचा सकते हैं। इसमें समय लग सकता है, किन्तु होता यही है।
एक और उदाहरण देखें: बहुत से लोग होते हैं जो नरभक्षी होते हैं, या भेड़ियामानव या नरपिशाच होते हैं। हो सकता है कि वे हमें बड़े आकर्षक लगें और हम उनमें से किसी से विवाह कर लें, लेकिन फिर किसी रात उनके नुकीले दाँत बाहर आ ही जाएंगे और वे हमें खा जाएंगे।
यदि हम किसी कुत्ते को मारें, तो वह भौंकता है और हमें काट लेता है। इसी प्रकार यदि हम किसी शत्रु पर क्रोधित होते हैं, तो हमारी प्रतिक्रिया किसी कुत्ते के समान ही होती है। इसलिए हमें चित्त की इस असमतलता को दूर करना चाहिए, इस आसक्ति और विकर्षण के भाव को दूर करना चाहिए, और चित्त के समभाव की अवस्था को प्राप्त करना चाहिए। समभाव की उस अवस्था को प्राप्त करने के अलावा हमें प्रेम और करुणा के भाव विकसित करने चाहिए ─ ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गड्ढेदार सड़क को समतल करके उसे इस योग्य बनाया जाता है कि उस पर वाहन चल सकें।
हमारे विचार ठीक वैसे ही शक्तिशाली होने चाहिए जैसे डाइनामाइट विस्फोट से किसी सड़क को समतल बना देता है। हमारे विचार कैसे हों? हम दूसरे सचेतन जीवों की करुणा के बारे में विचार करें। उदाहरण के लिए, हम जो दूध पीते हैं वह हमें गायों और भैंसों से मिलता है। वे घास चरती हैं, पानी पीती हैं, और हम उनका दूध हासिल कर लेते हैं। चिकित्सीय प्रयोगों में खरगोशों और चूहों पर परीक्षण किए जाते हैं, इस प्रकार जिन दवाओं का प्रयोग हम करते हैं वे हमें उन चूहों और खरगोशों की बदौलत मिलती हैं जो प्रयोगशालाओं में अपनी जान गवाँते हैं।
कुछ ऐसे सचेतन जीव होते हैं जो हमें नुकसान पहुँचाते हैं और जिन्हें हम अपना शत्रु मानते हैं। लेकिन यदि हम उनके कारण हमें पहुँची हानि की तुलना उनकी करुणा के साथ करें तो उनकी करुणा उनके द्वारा पहुँची हानि से कहीं अधिक होगी। और उनके कारण होने वाली हानि बड़ी उपयोगी साबित हो सकती है। बुद्धत्व को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम धैर्य का भाव विकसित करें, और इसके लिए अप्रिय व्यक्तियों का होना बहुत आवश्यक है। यदि सभी बहुत अच्छे होते तो हम धैर्य का भाव विकसित न कर पाते। जो हम पर क्रोधित होते हैं वे सीमित क्षमता वाले जीवधारी हैं, बुद्धजन नहीं हैं; यही वे लोग हैं जो हमें धैर्य धारण करना सिखाते हैं। उदाहरण के लिए, जब अतिश तिब्बत आए तो वे अपने साथ एक बहुत ही उत्पाती प्रकृति के भारतीय व्यक्ति को साथ में लेकर आए, जो बात-बेबात उनके धैर्य की परीक्षा लेता रहता था। जब उनसे पूछा गया कि वे उस व्यक्ति को लेकर ही क्यों आए, तो उन्होंने जवाब दिया कि उसे वे धैर्य का अभ्यास करने के लिए लाए थे। इस प्रकार सीमित क्षमता वाले जीवधारियों और बुद्धजनों का हमारे ऊपर समान उपकार है। शान्तिदेव कृत बोधिचर्यावतार, बोधिसत्व के आचरण का अनुशीलन में इस बात की पुष्टि की गई है।
बुद्धजन को क्रोध क्यों नहीं आता, इसके पीछे एक कारण है। कारण यह है कि बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति एकचित्त एकाग्रता से काम लेता है और समस्त प्रकार के अशान्तकारी मनोभावों से मुक्त होता है। अपनी एकचित्त एकाग्रता के कारण बुद्धजन को क्रोध नहीं आता। इसलिए हमें इस एकाग्रता को विकसित करना चाहिए। सुबह हमारी नींद इन दो विचारों के साथ खुलनी चाहिए:
- आज के दिन मैं दूसरों को क्रोधित करने वाला कोई कार्य नहीं करूँगा।
- मैं दूसरों को ऐसा मौका नहीं दूँगा कि वे मुझे क्रोधित कर सकें।
यदि हम अपने आप को ऐसा करने के लिए अभ्यस्त कर लें, तो हम अपने अशांतकारी मनोभावों को नियंत्रित कर सकेंगे और कालांतर में अशांतकारी मनोभावों से सदा के लिए मुक्त होकर बुद्धत्व को प्राप्त कर सकेंगे।
यदि यह प्रश्न पूछा जाए कि हम ऐसा क्या करें जिससे बुद्धजन प्रसन्न होंगे, तो वह कार्य यह होगा कि हम सचेतन जीवधारियों की सहायता करें और उनके प्रति करुणा का भाव रखें। बुद्धजन सचमुच इससे प्रसन्न होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किन्हीं माता-पिता के बच्चे हों, तो हम केवल उन माता-पिता के साथ विनम्र व्यवहार करके उन्हें इतना प्रसन्न नहीं कर सकते जितने प्रसन्न वे तब होंगे जब हम उनके बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करें। इसी प्रकार बुद्ध तब प्रसन्न होते हैं जब हम बुद्धजन के साथ-साथ सचेतन जीवों के प्रति भी करुणा का भाव रखें। इस प्रकार इन सभी बातों के आधार पर हमें बोधिचित्त विकसित करने का प्रयास करना चाहिए: “मैं सभी सचेतन जीवों के कल्याण के लिए बुद्धत्व को प्राप्त करूँगा।”
इस जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्त करना
इससे भी कहीं अधिक, हमें इसी जीवनकाल में, अभी, सभी सचेतन जीवधारियों के कल्याण के लिए बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए पक्का इरादा रखना चाहिए। बुद्ध ने कहा था कि इस जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्त करने का मार्ग है। और वह मार्ग क्या है? ऐसा तांत्रिक मार्ग का अनुसरण करके किया जा सकता है। यदि आप इस मार्ग का अनुसरण करें, तो इस जन्म में ज्ञानोदय प्राप्त करना सम्भव है।
फिर भले ही इस जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए हमारा इरादा बहुत मज़बूत हो, हमें इस काम को आसान नहीं समझना चाहिए, क्योंकि हम अनादिकाल से ढेरों विनाशकारी कर्म भी संचित कर चुके हैं। तंत्र शीघ्र फलदायी हो सकता है, लेकिन यह बड़ा कठिन मार्ग है। हमें ऐसा नहीं समझना चाहिए कि तांत्रिक मार्ग की साधना तेज़ हवाई यात्रा करने के समान है ─ यह साधना इतनी आसान नहीं है। उदाहरण के लिए जेतसन मिलारेपा को अपने गुरु मारपा के साथ मीनारों का निर्माण करने, पराजित होने जैसी अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। इस कड़ी साधना के कारण ही वे अपने उस जन्म में ज्ञानोदय को प्राप्त कर सके। लेकिन हम लोग तो मिलारेपा द्वारा उठाई गई कठिनाइयों के एक अंश बराबर भी कठिनाई उठाने के लिए तैयार नहीं होते हैं।
यदि इस जीवनकाल में ज्ञानोदय प्राप्त करने का हमारा इरादा मज़बूत हो और हम बड़ी-बड़ी मुश्किलें उठाने के लिए तैयार हों, तो इस बात की सम्भावना है कि हम अपनी सतत साधना की बदौलत बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं।
सारांश
एक बहुमूल्य मानव शरीर के साथ जन्म लेने के कारण हम इसका उपयोग धर्म की साधना करने और बेहतर पुनर्जन्म, मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए हमें एक क्रमिक मार्ग को अपनाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए दस विनाशकारी कृत्यों से बचने की आवश्यकता होती है, अशांतकारी मनोभावों से मुक्त होने, और कृत संकल्प होकर संसार से मुक्त होने और बोधिचित्त लक्ष्य अपनाने, शुद्ध एकाग्रता हासिल करने और शून्यता का निर्वैचारिक बोध हासिल करने की आवश्यकता होती है।