आत्मा के विषय में सांख्य, न्याय, तथा बौद्ध-धर्मी उक्तियाँ

अन्य भाषाएँ

पृष्ठभूमि

शास्त्रीय भारतीय दर्शन की छ: प्रणालियाँ थीं जो उस समय शास्त्रार्थों में बौद्ध धर्म के विरोध पक्ष में थीं। इनमें से प्रमुख रूप से न्याय एवं सांख्य दर्शन ही बौद्ध धर्म के विरोध में मुखर या प्रासंगिक थीं। वास्तव में ये दोनों दो विचारधाराएँ हैं:

  • सांख्य और योग दर्शन में प्रमुख अंतर यह है कि योग दर्शन परमात्मा ईश्वर को मानता है जबकि सांख्य ऐसा नहीं मानता। 
  • न्याय दर्शन, जो वैशेषिक से जुड़ा है, उसे प्रायः न्याय-वैशेषिक दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि दोनों में कई समानताएँ हैं। तथापि, उनमें कुछ अंतर भी हैं। न्याय दर्शन तर्क पर अधिक बल देता है।

इन दो दृष्टिकोणों के प्रतिनिधि होने के नाते हम सांख्य और न्याय दर्शनों की चर्चा करेंगे, और वास्तविक प्रश्न यह है कि यदि हम बौद्ध धर्म का अध्ययन कर रहे हैं तो इन दर्शनों का अध्ययन क्यों? इसका उद्देश्य है बौद्ध धर्म के दार्शनिक अभिकथनों में निश्चितता और उनकी वैधता में विश्वास प्राप्त करना। इस विश्वास को प्राप्त करने के लिए हम तथाकथित भारतीय “धार्मिक परंपराओं” की विधि का उपयोग करते हैं जिसमें समस्त सम्प्रदायों, अर्थात्, बौद्ध धर्मी, जैन धर्मी, एवं, जिसे श्रेष्ठतर शब्द के अभाव में हम हिन्दू विचारधारा कहते हैं, जो ग़ैर-बौद्ध एवं ग़ैर-जैन विचारधाराओं को सन्दर्भित करता है, वह भी, सम्मिलित हैं। इस विधि को संस्कृत में पूर्वपक्ष, अर्थात् “दूसरा पक्ष”, कहा जाता है।

पूर्व पक्ष विधि के अनुसार हम जब भी कोई उक्ति प्रस्तुत करते हैं तो उस पर सभी संभावित आपत्तियों को सामने लाते हैं - इसे ही दूसरा पक्ष कहते हैं - और फिर उनका समाधान करते हैं। इसका उपयोग भारत में नालंदा के आचार्यों ने अपने अनेक ग्रंथों में किया और बाद में इसे तिब्बत में भी अपनाया गया। वहाँ इसका उपयोग विभिन्न तिब्बती परंपराओं के बीच तथा एक ही तिब्बती परंपरा के विभिन्न आचार्यों के बीच तर्क-वितर्कों में भी किया गया। यह तिब्बत और मंगोलिया में लिखे गए लगभग सभी दार्शनिक ग्रंथों में पाया जाता है।

एक उपदेशात्मक विधि के रूप में इसका उपयोग वाद-प्रतिवाद में सबसे अधिक फलप्रद होता है, चाहे भारतीय दर्शन के किसी विशेष सम्प्रदाय से हो, चाहे तिब्बत की किसी विशेष बौद्ध-धर्मी परम्परा से हो, या फिर चाहे हमारे अपने ही मठीय समुदाय के सदस्यों से हो। इसका उपयोग ग़ैर-भारतीय विचार प्रणालियों, जैसे पश्चिमी या चीनी दर्शन प्रणालियों, से वाद-प्रतिवाद करते हुए भी किया जा सकता है। यद्यपि परंपरागत रूप से इस विधि का अध्ययन और प्रयोग मठीय परिवेश में किया गया है, इसे ग़ैर-मठीय लौकिक परिवेश, जैसे विद्यालयों आदि, में भी प्रयोग में लाया जा सकता है। यह हमारे अपने विश्लेषणात्मक अध्ययनों के लिए भी उपयोगी है जिससे हम अपने धार्मिक उपदेश की किसी भी वृत्ति पर ध्यान केंद्रित कर उसके वैकल्पिक तर्क प्रस्तुत करते हुए उसकी आलोचना कर सकते हैं या उसमें दोष निकाल सकते हैं, तत्पश्चात उस आलोचना का खंडन कर हमारी पूर्व स्थिति को स्पष्ट कर सकते हैं। यही है पूर्वपक्ष  विधि - अपने उपदेश को दूसरे पक्ष से परखना।

हम जब भी धर्म का अध्ययन करते हैं तो हमें यह पूछना चाहिए कि “इसका प्रतिवाद क्या हो सकता है?” उन सभी प्रतिवादों का समाधान करने में सक्षम होना बहुत महत्त्वपूर्ण है ताकि हमें अपने उपदेशों के किसी भी विषय के सटीक बोध के साथ-साथ, उसके तात्पर्य के विषय में सम्पूर्ण रूप से निश्चय हो सके, और इस बात पर भी दृढ़ विश्वास हो सके कि वह विषय यथार्थ से मेल खाता है। यह विधि धार्मिक उपदेशों पर सटीक एवं प्रभावी ढंग से ध्यान करने के लिए निर्णायक होती है। यदि धार्मिक उपदेश के किसी भी आयाम, जैसे अनात्मा, या बोधिसत्त्व जैसी मनःस्थिति, पर हम अपनी समाहितचित्त अवस्था को विकसित करने का लक्ष्य रखते हैं तो अपने ध्यान के आलम्बन की हमारी पहचान सटीक और निर्णायक होनी चाहिए। इसपर किसी भी प्रकार की दुविधा नहीं होनी चाहिए, जैसे: “क्या यह ऐसा ही है?” “मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता”, “मुझे इसके बारे में कुछ संदेह है।” हम ऐसे अस्पष्ट नहीं हो सकते। हमें सटीक, अचूक और निर्णायक होना पड़ेगा।

इन विभिन्न विचारधाराओं के अध्ययन का उद्देश्य

अतः, इन सभी पूर्वपक्ष प्रतिवादों को प्रस्तुत करने और विभिन्न प्रकार की ग़ैर-बौद्ध विचारधाराओं, तथा बौद्ध धर्म की ही अपनी विभिन्न सिद्धांत प्रणालियों का भी, अध्ययन करने का उद्देश्य है ध्यान-साधना के अत्यंत स्पष्ट और निर्णायक ध्येय को प्राप्त करना, ताकि हम और अधिक गहराई में जाकर मोक्ष तथा ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु आवश्यक सिद्धिकरण एवं प्रत्यक्षीकरण प्राप्त कर सकें। यही है इसका उद्देश्य। इसका उद्देश्य यह नहीं है कि हम किसी प्रकार का वाद-विवाद क्लब बनाकर क़ानूनी बहस आदि करते रहें।

निस्संदेह हम उस संपूर्ण सामाजिक और आर्थिक तत्व को भी यहाँ ला सकते हैं जो भारत में नालंदा जैसे मठीय विश्वविद्यालयों में आयोजित शास्त्रीय शास्त्रार्थों में प्रस्तुत होता था। कुछ विद्वानों के अनुसार - और मुझे लगता है कि उनका कहना ठीक भी है - ये शास्त्रार्थ अलग-अलग दलों के बीच हो रही फुटबॉल प्रतियोगिताओं की भाँति हुआ करते थे। मठ विराट हुआ करते थे और भिक्षुओं के आहार-विहार एवं अन्यान्य खर्चों के लिए उन्हें राजसी प्रश्रय की आवश्यकता होती थी। जो मठ इन शास्त्रार्थों में विजयी होता उसे राजकीय प्रश्रय प्राप्त होता; इस अर्थ में ये प्रतियोगिताएँ ही होती थीं। इस प्रकार, जैसा मैंने कहा, इन शास्त्रार्थों का एक अन्य आयाम भी होता था – एक सामाजिक-आर्थिक आयाम। तथापि, दूसरे पक्ष को परखने के लिए प्रयुक्त पूर्वपक्ष  की विधि व्यावहारिक ध्यान-साधना के स्तर पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

अब सांख्य और न्याय दर्शनों के विषय में मुझे ऐसा नहीं लगता था कि उनकी सारी युक्तियों का उस प्रकार अध्ययन करने की आवश्यकता है जिस प्रकार विश्वविद्यालय में तुलनात्मक धर्म मीमांसा की कक्षा में करते हैं। अपितु, मुझे लगता था कि एक ही विषय पर ध्यान केंद्रित करना उचित होगा। वह विषय अत्यंत निर्णायक है, और वह है आत्म या आत्मा का विषय। मोक्ष एवं ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु हमें जिस विषय को सटीक रूप से समझना है यह उसका सार है।

समस्त धार्मिक परंपराओं की समान विशेषताएँ

मुझे लगता है कि इस बात को समझना अत्यंत आवश्यक है कि ये सभी भारतीय परम्पराएँ - चाहे बौद्ध धर्म हो, जैन धर्म हो, या, जैसा कि मैंने पहले कहा है, श्रेष्ठतर शब्द के अभाव में हिन्दू धर्म - समान विषयों पर चर्चा करती हैं। इन सबको “धार्मिक परम्पराएँ” कहा जा सकता है। यह हमारी “अब्राहमी परंपराओं”, जिस शब्दावली का तुलनात्मक धर्ममीमांसा में तात्पर्य यहूदी, ईसाई, और इस्लाम धर्मों से है, के अनुरूप है। सभी अब्राहमी परम्पराएँ समान विषयों पर ही बात करती हैं - ईश्वर, सृष्टि, न्याय, मरणोपरांत जीवन, इत्यादि - इस प्रकार के विषय ही इन परम्पराओं का सामान्य आधार हैं। इसी प्रकार, धार्मिक परम्पराएँ, जो अब्राहमी परम्पराओं से सर्वथा पृथक हैं, कुछ विषयों को समान रूप से साझा करती हैं।

सभी धार्मिक परम्पराएँ पुनर्जन्म की बात करती हैं, जिसमें एक अपवाद है चार्वाक, जो पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करता। अन्य सभी धर्म यही कहते हैं कि पुनर्जन्म कर्म के अनुसार होता है। वे इस प्रकार के पुनर्जन्म को “संसार” कहते हैं। यद्यपि हो सकता है कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं के अनुसार कर्म की अलग-अलग परिभाषाएँ हों, परन्तु वे सभी इस बात पर एकमत हैं कि कर्म अज्ञान के कारण होता है, अर्थात्, इसका मुख्य कारण यह है कि हम अपनेआप को “आत्म” या व्यक्ति मानते हैं।

बौद्ध धर्म सहित ये सभी विचारधाराएँ आत्म के लिए संस्कृत शब्द “आत्मा” का प्रयोग करती हैं। कुछ विचारधाराएँ गोचर वस्तुओं के अस्तित्व के विषय में अज्ञानता की भी बात करती हैं, परन्तु उन सभी विचारधाराओं का अंतिम प्राप्तव्य है पुनर्जन्म से मुक्ति, यद्यपि ये सब विचारधाराएँ मुक्ति की परिभाषा में भिन्नमत हैं। इसके अतिरिक्त, सभी विचारधाराओं में नैतिक अनुशासन तथा श्रवण, मनन, एवं ध्यान-साधना के त्रिविध अभ्यास की अनिवार्यता है। शमथ और विपश्यना प्राप्ति हेतु आवश्यक ध्यान-साधना भी इन सभी परम्पराओं में समान है, अतः वे अनन्य रूप से बौद्ध धर्मी नहीं हैं। ये सभी विशेषताएँ इन सभी विचारधाराओं में समान रूप से विद्यमान हैं।

साथ ही, ये सब पांडित्य प्राप्ति का उद्देश्य भी रखते हैं। सच कहूँ तो मुझे यह “पांडित्य” शब्द ही अच्छा नहीं लगता,  इससे अधिक सटीक है प्रज्ञा या सविवेकी सचेतनता - वह सचेतनता जो यथार्थ एवं अयथार्थ या कल्पित के बीच, वास्तविक रूप से अस्तित्वमान तथा कोरी काल्पनिक रूप से प्रक्षेपित वस्तुओं के बीच विभेद करती है। ऐसा विवेक और बोध ही मोक्ष की प्राप्ति करा सकता है। ये सारी बातें सभी धार्मिक परम्पराओं में समान हैं। उनमें अंतर केवल उनकी कार्यात्मकता तथा तत्त्वों के अन्तरसम्बन्धी महत्त्व इत्यादि जैसे सूक्ष्म विषयों में ही है। इस परिवर्ती राशि को जाति आदि के भारतीय सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। पर मैं अपनी इस चर्चा में उस दिशा में बहुत आगे नहीं बढ़ना चाहता।

बौद्ध धर्मी शिक्षाओं के अनुसार हम संसार से मोक्ष प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हैं, और “संसार” का अर्थ है अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म - अतः ऐसा पुनर्जन्म जो व्यक्ति, “आत्म”, “आत्मा” के रूप में हमारे अस्तित्व की अज्ञानता के अधीन घटित होता है। मूलतः इस बात की अज्ञानता कि आत्मा किस प्रकार अस्तित्वमान है। परन्तु धर्मकीर्ति का कहना है कि इस अज्ञानता का तात्पर्य है विभ्रमित होना, आत्मा के अस्तित्व के विषय में विपरीत, अनुचित ज्ञान होना। तथापि, वसुबंधु और असंग के ग्रंथों के अनुसार अज्ञान का सीधा अर्थ है कि हम नहीं जानते। यही कारण है कि मुझे “अज्ञान” शब्द पसंद नहीं है क्योंकि ऐसा नहीं है कि हम मंदबुद्धि हैं; बात केवल इतनी सी है कि बस हम नहीं जानते। अन्य भारतीय विचारधाराओं में भी यही अभिकथन है - उनके लिए भी अज्ञानता केवल यह है कि हम नहीं जानते - बात पूरी तरह साफ़ नहीं है, यह स्पष्ट नहीं है कि हम किस प्रकार अस्तित्वमान हैं।

आत्मग्राह (किसी व्यक्ति का असंभव अस्तित्व के लिए प्रयत्नशील होना)

मोक्ष प्राप्ति हेतु हमें अपने इस अज्ञान से छुटकारा पाना होगा कि हम किस प्रकार अस्तित्वमान हैं। इस अनभिज्ञता से, या अधिक सटीक ढंग से कहा जाए तो विपरीत जानकारी से, छुटकारा पाने के लिए हमें आत्मग्राह, जिसका अनुवाद हो सकता है लोगों को असंभव अस्तित्व के लिए प्रयत्नशील होना, की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना होगा। उसका भावार्थ है “लोगों की असंभव आत्मा का उपादान (को ग्रहण करना)।” परन्तु “लोगों की असंभव आत्मा” नितांत भ्रामक अनुवाद है क्योंकि इसका अर्थ व्यक्ति, आत्म है, परन्तु उनके पास कोई असंभव आत्मा नहीं होती है क्योंकि असंभव आत्मा तो अपनेआप में ही अस्तित्वहीन है; बल्कि लोगों के पास एक आत्मा है जो सत्यसाध्य है और जो वास्तव में अस्तित्वमान है। यदि ऐसा न होता, तो दो पृथक पदार्थ होते - एक आत्म और एक आत्मा। पर बौद्ध धर्म यह नहीं कहता। उक्त शब्दावली का अर्थ है “असंभव आत्मा जो व्यक्ति है।” जब हम इस प्रकार अनुवाद करते हैं तो हम यह भी समझ पाते हैं कि उससे संबंधित शब्दावली “गोचर वस्तुओं की असंभव आत्मा का उपादान (को ग्रहण करना)” का अर्थ है “एक ऐसी असंभव आत्मा का उपादान (को ग्रहण करना) जो गोचर है।”

तो प्रश्न यह है कि “आत्मा” शब्द का अनुवाद कैसे किया जाए। अधिकांश अनुवादक इसका अनुवाद “आत्म” के रूप में करते हैं जिससे “पुद्गलानात्मन” एवं “धर्मानात्मन” की शब्दावली आती है, जो अधिकांश लोगों के लिए केवल शब्दजाल हैं। मैंने प्रायः “आत्मा” का अनुवाद “पहचान” के रूप में किया है जिससे वही “पुद्गलानात्मन” एवं “धर्मानात्मन” जैसी शब्दावली मिलती हैं। मुझ जैसे कुछ लोग कभी-कभी “आत्मा” का अनुवाद अंग्रेज़ी के “soul” के रूप में करते हैं। पर यह भी समस्याग्रस्त है क्योंकि अब्राहमी परंपराओं में “soul” की कई अलग-अलग व्याख्याएँ हैं, और यह कहना कि लोग बिना soul के (आत्मा विहीन) हैं सरलता से भ्रांत प्रभाव डाल सकता है। साथ ही, यह कहने का, कि लोगों में असंभव आत्मा नहीं है, तात्पर्य यह होता है कि उनमें आत्मा है। अतः कई कारणों से “आत्मा” शब्द का अनुवाद न करके उसे उसी रूप में प्रयोग करना ही ठीक है।

एक अन्य विषय यह है कि तिब्बती ग़ैर-गेलुग सम्प्रदाय के अनुसार “व्यक्ति-रूपी अति असंभव आत्मा के उपादान (का ग्रहण करने) का प्रयास” का तात्पर्य है किसी अविद्यमान सर्वशून्य पदार्थ को ग्रहण करने का प्रयास करना, क्योंकि सभी व्यावहारिक धर्म केवल प्रपंच हैं। गेलुग्पा के अनुयायी इसे किसी अति असंभव आत्मा के रूप में अस्तित्वमान व्यक्ति को ग्रहण करने के प्रयास के रूप में समझते हैं। ये दोनों आकलन पृथक हैं। पर हम यहाँ केवल गेलुग के आकलन को समझने का प्रयास करते हैं और उस शब्दावली का अधिक सामान्य अनुवाद “व्यक्तियों के अनात्म का उपादान “ या “व्यक्तियों के असंभव आत्म के उपादान” को एक ओर रख छोड़ते हैं।

यहाँ “उपादान” शब्द का अनुवाद भी कठिन है क्योंकि इसके दो आयाम हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है किसी वस्तु को ज्ञान प्रमेय (संज्ञान का आलम्बन) के रूप में ग्रहण करना। एक आयाम यह है कि हमारा चित्त एक प्रकार से असंभव अस्तित्व का अवभास-निर्माण करता है - इस सन्दर्भ में आत्म का असंभव अस्तित्व - और उसे अपना ज्ञान प्रमेय (संज्ञान का आलम्बन) बना लेता है। यह हुआ एक आयाम। दूसरा आयाम है कि जब हम इस अवभास को अपने ज्ञान प्रमेय के रूप में लेते हैं तथा उसे यथार्थ के अनुरूप मानते हैं, जबकि यह सादृश्य असत्य है। परन्तु इस भ्रामक विचार के कारण हम यह मान बैठते हैं कि यह सादृश्य सत्य है।

समस्या यही है। यदि हम इस अज्ञान को त्याग दें कि हमारे अस्तित्व का अवभास अपनेआप में ग़ैर-भ्रामक है, तथा यह विश्वास कि वह उचित्त एवं यथार्थ है - और इस प्रकार त्याग दें कि वह दुबारा कभी वापस न आए - तब हम पूर्ण विश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि हमने मोक्ष की प्राप्ति कर ली है। यदि हम इस भ्रामक अवभास पर विश्वास करना बंद करें तो हमारे भीतर इस प्रकार के आत्म का समर्थन करने या उसे दृढ़तापूर्वक अभिव्यक्त करने का क्लेश उत्पन्न ही न हो, जैसे: “मुझे अपनी ही बात मनवानी है”, “सबको चाहिए कि केवल मुझपर ही ध्यान दें” इत्यादि। तथापि, ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए हमारे चित्त को इस भ्रामक अवभास, जो उपादान का प्रथम आयाम है, के प्रक्षेपण पर रोक लगानी होगी। जैसा कि मैंने कहा, “उपादान” शब्द का अनुवाद बड़ा ही कठिन है क्योंकि इसके ये दो आयाम हैं।

सिद्धांत आधारित पुद्गलात्म (असंभव आत्म) एवं सहज रूप से प्रकट होने वाला पुद्गलात्म

जो भी हो, हम इस पुद्गलात्म के उपादान से युक्त हैं ही, जिसका तात्पर्य यह हुआ कि हमारे चित्त सबसे पहले इस मिथ्या आत्म का अवभास-निर्माण करते हैं और हम यह विश्वास कर लेते हैं कि वह ही हमारी वास्तविक पहचान है और वह याथार्थिक है। इस मिथ्या धारणा के दो स्तर होते हैं। पहला है सिद्धांत आधारित मिथ्या धारणा, अर्थात्, हमें यह सिखाया गया - किसी ग़ैर-बौद्ध धर्मी भारतीय सम्प्रदाय द्वारा - कि आत्म क्या है - नामतः वह आत्मा है - और उसकी विशेषताएँ क्या हैं और वह किस प्रकार अस्तित्वमान है। फिर, इस शिक्षण के आधार पर - तो यह किसी सिद्धांत पर आधारित है, यह सैद्धांतिक है - हम उसपर विश्वास कर लेते हैं। पश्चिम में भी हम कुछ ऐसी ही प्रक्रिया की कल्पना कर सकते हैं। आत्मा के विषय में गिरिजाघर हमें एक प्रकार की हठधर्मिता सिखाता है, हम उसपर विश्वास कर लेते हैं, और फिर हम अपनेआप को उस पहचान से जोड़ लेते हैं।

यह सिद्धांत आधारित विश्वास स्वतः उत्पन्न नहीं होता। पशुओं में यह विश्वास उनके अपने जीवनकाल में प्रकट नहीं होता, यद्यपि बौद्ध धर्म कहता है कि उन्हें अपने पूर्वजन्मों से ही इस बात का बोध अज्ञात रूप से होता है। यह एक अन्य चर्चा का विषय है, परन्तु इस जन्म में हमें किसी ने आत्मा के बारे में सिखाया तो होगा ही और जो हमें सिखाया गया है वह विशेष रूप से इन्हीं ग़ैर-बौद्ध धर्मी भारतीय सम्प्रदायों में से किसी एक का अभिकथन तो होगा ही। यह पूर्ण रूप से निश्चित है।

अब यहाँ पूर्व पक्ष की बारी आती है। मान लीजिए कि हम आपत्ति करते हैं, “मैंने कभी इन भारतीय विचारधाराओं का अध्ययन नहीं किया। मैंने तो उनके बारे में सुना तक नहीं, तो मैं इस सिद्धांत-आधारित उपाधि से कैसे युक्त हो गया?” यह प्रश्न प्रासंगिक है क्योंकि ग्रंथों का अत्यंत स्पष्ट रूप से कहना है कि दर्शन-मार्ग (दृग मार्ग) की प्राप्ति हेतु हमें सिद्धांत या धर्म आधारित व्यक्तियों के असंभव आत्म के उपादान को त्यागना पड़ेगा। चार आर्य सत्यों के निर्विकल्प ज्ञान की प्राप्ति से ही, जिसमें धर्माधारित आत्मा के शून्य अस्तित्व का निर्विकल्प ज्ञान भी सम्मिलित है, हम इस मार्ग को प्राप्त कर आर्य बनते हैं।

इसलिए यह आपत्ति पूर्णतया उचित्त है कि “मैंने कभी इसका अध्ययन नहीं किया तो मैं इससे किस प्रकार मुक्त हो सकता हूँ?” इसका उत्तर जो दिया जाता है वह यह है कि: “चूँकि चित्त अनादिकाल से है तो हमारा पुनर्जन्म भी अनादिकाल से हो रहा है। अतः, किसी पूर्वजन्म में हमें ये मिथ्या धर्म सिद्धांत सिखाए गए थे जिन्हें हमने सत्य मान लिया था। ये मिथ्या विचार अभी भी हमारे साथ अवचेतन रूप से हैं। यह उत्तर संतोषजनक है या नहीं, इस बात पर हम आगे विचार कर सकते हैं। पर उत्तर तो यही दिया जाता है।

इस धर्माधारित उपादान के अतिरिक्त एक अन्य व्यक्ति के असंभव आत्म का सहज समुदय (सहज रूप से प्रकट होने वाला) उपादान भी होता है। गेलुग परंपरा इस प्रकार से असंभव आत्म को स्वावलम्बी रूप से ज्ञेय आत्म के रूप में परिभाषित करती है - जिसे अपनेआप ही बिना किसी प्रकार के आधार के जाना जा सकता है, जैसे पहले शरीर को देखकर ज्ञात होना और बाद में एक साथ ज्ञात हो जाना। ग़ैर-गेलुग तिब्बती परंपराओं की परिभाषा के अनुसार इस प्रकार असंभव आत्म का संज्ञान द्वयचारिणी (द्वैत या वैकल्पिक) रूप से होता है, मानो आत्म तथा उसे जानने वाला चित्त दोनों एक दूसरे से पृथक रूप से अस्तित्वमान हैं। ऐसे में हम फिर से गेलुग दृष्टिकोण के साथ ही चलते हैं।

स्वावलम्बी रूप से ज्ञेय आत्म का तात्पर्य क्या है? एक सामान्य उदाहरण इस प्रकार है: “मैं चाहता हूँ कि लोग मुझ से केवल 'मैं' के लिए प्रेम करें, न कि मेरे शरीर के लिए और न ही मेरी संपत्ति के लिए, केवल 'मैं' के लिए प्रेम करें।” यह कुछ ऐसा है जैसे कोई शरीर, व्यक्तित्व, नाम, इत्यादि से पृथक केवल किसी “मैं” से प्रेम करे। “मैं आर्नी को जानता हूँ।” अब आर्नी को कोई कैसे जान सकता है? आर्नी को जानने का एक आधार है। हम उसका नाम जानते हैं। हम यह जानते हैं कि वह कैसा दिखता है। हम किसी व्यक्ति के बारे में आधार स्वरूप कुछ भी जाने बिना उसे नहीं जान सकते। हम जब ऐसी कल्पना करते हैं कि हम किसी व्यक्ति के रूप में, किसी आत्मा के रूप में ही अस्तित्वमान हैं, उसे असंभव आत्म का सहज समुदय उपादान कहते हैं। यहाँ तक कि पशुओं में भी यह उपादान होता है। सबके पास होता है। इस प्रकार का “मैं” सूक्ष्म असंभव आत्म होता है, और इससे मुक्ति पाने के लिए बहुत अधिक समय लगता है। जब हम इस विश्वास से मुक्ति पा लेते हैं तभी हमें मोक्ष प्राप्ति होती है।

पर सबसे पहले हम इस धर्माधारित असंभव आत्म की बात करते हैं क्योंकि इसे ही हमने किसी ग़ैर-बौद्ध धर्मी भारतीय सम्प्रदाय से सीखा होगा, चाहे इस जन्म में या किसी पूर्वजन्म में।

अनात्म की बौद्ध-धर्मी अवधारणा सर्वशून्यतावाद नहीं है

आगे बढ़ने से पहले एक और बात को समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि बौद्ध धर्म में आत्म, व्यक्ति, आत्मा का संकेत केवल उस असंभव आत्म की ओर है जो असंभव प्रकार से अस्तित्वमान है। बौद्ध धर्म की मान्यता यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति की अवधारणा मिथक है। वह तो अतिवादी सर्वशून्यतावाद होगा। परंपरागत रूप से तो व्यक्ति विद्यमान है - इस बात पर सभी भारतीय बौद्ध धर्मी सिद्धांत प्रणालियाँ तथा गेलुग और ग़ैर-गेलुग व्याख्याएँ सहमत हैं। बात केवल इतनी-सी है कि परंपरागत आत्म उस असंभव प्रकार से अस्तित्वमान नहीं होता जिस प्रकार ये ग़ैर-बौद्ध धर्मी सम्प्रदायों के अनुयायी मानते हैं, और हम उसी बात का खंडन करते हैं।

गेलुग इस बात पर बल देते हैं कि अनिषेध्य आत्म एवं निषेध्य आत्म के बीच अंतर समझना महत्त्वपूर्ण है। मैं यहाँ बैठा हूँ और मैं आप से बातें कर रहा हूँ, यह अनिषेध्य है। यह भी कि आप वहाँ बैठे हैं और आप मुझसे बातें कर रहे हैं। यह ऐसा नहीं है कि कोई भी यहाँ बैठकर आपसे बात नहीं कर रहा, या मैं यहाँ किसी से बात नहीं कर रहा। ऐसा नहीं है। स्पष्टतः हम विद्यमान हैं। कोई ज़ेन आचार्य होते तो यह प्रमाणित करने के लिए हमपर छड़ी से प्रहार कर देते कि हम वास्तव में विद्यमान हैं। पर तिब्बती बौद्ध धर्म में हम ऐसा नहीं करते, यद्यपि विश्वास दिलाने के लिए यह एक प्रभावशाली मार्ग है कि हम वास्तव में अस्तित्वमान हैं।

तो, हम विद्यमान हैं, पर समस्या यह है कि अपने अस्तित्व के बारे में हमारे मन में तरह-तरह के सनकी विचार भरे हैं। ये विचार इस विश्वास पर आधारित हैं कि हमारे मस्तिष्क में कोई एक छोटा-सा “मैं” रहता है जो हमसे सदा बातें करता रहता है, हमें आँकता रहता है और यह निर्णय लेता रहता है कि हमें अब क्या करना चाहिए, और चिंतित रहता है कि: “क्या लोग मुझसे प्यार करेंगे? क्या मैं अच्छा हूँ? नहीं, मैं बहुत अच्छा नहीं हूँ।” इस प्रकार का “मैं” स्पष्टतः भ्रामक है। यही है जो उपद्रवी है क्योंकि जब हम उसके साथ आत्मीयता बना लेते हैं तो हम आक्रामक हो जाते हैं, हम लोभी हो जाते हैं, हम हठीले बन जाते हैं, सब पर अपनी मर्ज़ी थोपने लगते हैं, इत्यादि। हमें इसी “मैं” का खंडन करने की आवश्यकता है।

इसका खंडन करने के लिए हमारे मन में इस बात की स्पष्टता होनी चाहिए कि किसका खंडन होना है। बौद्ध धर्म की एक अनिवार्यता यह है कि सब कुछ बिल्कुल सटीक होना चाहिए, और यदि सब सटीक है तो हमारी समझ भी सटीक हो जाएगी। जब हमारी समझ सटीक हो जाएगी तो, जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, हम ध्यान-साधना के प्रभावशाली आलम्बन से युक्त हो जाएँगे। हमारे ध्यान का आलम्बन अस्पष्ट नहीं हो सकता; यदि वह अस्पष्ट है तो हमारा चित्त तीक्ष्ण और विमल नहीं होगा, और हमारी ध्यान-साधना प्रभावहीन हो जाएगी।

इन ग़ैर-बौद्ध धर्मी सिद्धांत प्रणालियों का अध्ययन करने का उद्देश्य इस बात को सटीक रूप से पहचानना है कि हमें किसका खंडन करना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनमें से प्रत्येक प्रणाली उस आत्म की विशेषताओं की वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत करती है जिससे हम सभी निपट रहे हैं - उदाहरण के लिए, आत्म और चित्त के संबंध क्या हैं और क्या आत्म किसी का भी संज्ञान लेता है? ये प्रणालियाँ इन विषयों पर बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोण को चुनौती देती हैं, और इसलिए हमें उनकी और बौद्ध-धर्मी दृष्टिकोणों के अंतर को समझकर यह साबित करना होगा कि क्या सही है।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात मुझे लगती है कि इन ग़ैर-बौद्ध धर्मी भारतीय प्रणालियों का अध्ययन हमें अहंकार-युक्त होकर नहीं करना चाहिए कि: “देखो ये अज्ञानी आदिमानव ऐसा सोचते थे,” जैसे कि हम किसी आदिम मान्यताओं का अध्ययन कर रहे कोई मानवशास्त्री हों। ये ग़ैर-बौद्ध धर्मी प्रणालियाँ अति परिष्कृत होती हैं और उनके आचार्य किंचित्त-मात्र मूर्ख नहीं थे। हमें चाहिए कि हम अपने भीतर देखें, “क्या मेरे पास जो है वह उस विचारधारा के समनुरूप है? क्या मैं उस प्रकार सोचता हूँ?” और उसे केवल सतही ढंग से न लें - जैसे यह कह देना कि, “मैं तो उसे नहीं मानता” - अपितु उसका पूर्ण रूप से विश्लेषण करें और उसमें अधिकाधिक गहनता से प्रवेश करें।

यह आवश्यक नहीं कि हम अपने आकलन करने के लिए इन ग़ैर-बौद्ध धर्मों की तमाम पुस्तकें खरीद लें। इस सामग्री को इस दृष्टिकोण से परखना चाहिए कि: “यह किस प्रकार व्यावहारिक है? यह मेरे जीवन में मेरी सहायता किस प्रकार करेगी? यह ध्यान-साधना में मेरी सहायता किस प्रकार करेगी?” अन्यथा, इससे तो अच्छा हो कि हम किसी विश्वविद्यालय में जाकर तुलनात्मक धर्म का अध्ययन ही कर लें, पर यह फिर बौद्ध धर्म तो नहीं हुआ।

मुझे ऐसा लगता है - आशा है कि यह अत्यंत भ्रामक न होगा - कि हमें आत्म और आत्मा के विषय में विस्तृत रूप से अध्ययन कर लेना चाहिए, यह जान लेना चाहिए कि सांख्य दर्शन क्या कहता है, न्याय दर्शन क्या कहता है, और बौद्ध धर्म क्या कहता है। फिर हमें स्वयं को परख लेना चाहिए कि क्या अपने बारे में हमारे भी वैसे ही विचार हैं जैसे सांख्य, न्याय आदि दर्शनों के अभिकथनों में घोषित किए गए हैं।

धर्माधारित आत्म की तीन विशेषताएँ 

सामान्यतया जिस धर्माधारित आत्म का खंडन किया जा रहा है उसकी तीन विशेषताएँ हैं:

नित्यता

इस पहली विशेषता को कभी-कभी लोग “स्थायी” भी कह देते हैं। यह अनुवाद भ्रामक हो सकता है क्योंकि “स्थायी” शब्द के दो पृथक अर्थ हो सकते हैं, कम से कम अंग्रेज़ी में।

  • “स्थायी” शब्द का एक अर्थ शाश्वत भी हो सकता है। बौद्ध धर्म का दुन्दुभि घोष है कि आत्मा शाश्वत है, वह अनादि अनंत है। यह समस्यात्मक नहीं है। न ही यह तात्पर्य प्रासंगिक है।
  • “स्थायी” शब्द का दूसरा अर्थ है अपरिवर्तनीय, और यहाँ यही तात्पर्य प्रासंगिक है। यह किसी से भी प्रभावित नहीं होता, और फलतः वह अपरिवर्तनीय होता है। वास्तव में यह कुछ भी नहीं करता, न यह किसी को प्रभावित करता है।

इसी अर्थ के लिए मैं “नित्यता” शब्द का प्रयोग करता हूँ: नित्य “मैं” जो किसी से भी प्रभावित नहीं होता।

निरवयव 

दूसरी विशेषता है “एक”। इस संदर्भ में “एक” का क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य है निरवयव; अर्थात्, आत्म का कोई अवयव या अंग नहीं होता। अन्य सभी वस्तुओं के अवयव होते हैं। कुछ बौद्ध धर्मी सम्प्रदाय निरवयव परमाणु इत्यादि की बात करते हैं। हम उसमें नहीं पड़ेंगे। सामान्यतः सभी वस्तुओं के अवयव होते हैं पर इन सम्प्रदायों के अनुसार “मैं” निरवयव होता है। यह एकाश्म - जैसे एक शिला का बना हुआ - है। 

कुछ सम्प्रदायों का कहना है कि वह ब्रह्मांडाकार है, उदाहरण के लिए वेदांत दर्शन, जो अधिकांश आधुनिक हिन्दू विचारधाराओं में प्रचलित वास्तविक दर्शन है। फिर आते हैं “आत्मा ब्रह्म है” और “ब्रह्मांड के समनुरूप है” इत्यादि प्रतिपादन; तो उस अर्थ में आत्म निरवयव है तथा उसके सभी अवयव मायिक हैं। या फिर आत्म एक सूक्ष्म एकल पदार्थ है जैसे जीवन का विस्फुलिंग अथवा उसके समनुरूप, और एकल पदार्थों की भाँति उसके कोई अवयव नहीं होते। इस प्रसंग में “एक” का यही तात्पर्य है।

स्वतंत्र

तीसरी विशेषता यह है कि मोक्ष प्राप्ति के बाद आत्म, आत्मा, का अस्तित्व किसी भी स्कंध - अर्थात्, शरीर और चित्त - से पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। यहाँ जीवनकाल से जीवनकाल के बीच होने वाली घटनाओं की बात नहीं हो रही है। न्याय जैसे कुछ दर्शन हैं जो यह कहते हैं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है। सांख्य इसे नहीं मानता; उसकी व्याख्या कुछ पृथक है। अतः, यहाँ “स्वतंत्र” शब्द का तात्पर्य मोक्ष प्राप्ति के बाद की अवस्था से है। 

इसके अतिरिक्त, यह नित्य, एकाश्म आत्मा या आत्म, जो मोक्ष प्राप्ति के बाद शरीर और चित्त से स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान रह सकता है, शरीर एवं चित्त से युक्त अवस्था में तीन अतिरिक्त विशेषताओं से जुड़ा होता है:

  • यह उस शरीर और चित्त का भोक्ता है। एक प्रकार से कहा जाए तो यह उनका स्वामी है।
  • यह उनके भीतर निवास करता है।
  • यह उनका उपयोग करता है और उन्हें नियंत्रित करता है। यह ऐसा है जैसे मस्तिष्क में बैठा कोई छोटा सा “मैं” है जो आँखों से आने वाली सूचना को किसी पटल पर देखकर और कानों से प्राप्त सूचना को किसी ध्वनि-विस्तारक यंत्र (लाउडस्पीकर) से सुनकर, उस सूचना के आधार पर किन्हीं बटनों को दबाते हुए शरीर को नियंत्रित करता है और अपने निर्णय के अनुसार उससे काम करवाता है।

शरीर और चित्त के भीतर उनके निवासी, स्वामी, और नियामक के रूप में बैठा आत्म यह समझ बैठता है कि “ये सब मेरे हैं - मेरा शरीर, मेरा चित्त, मेरा व्यक्तित्व, मेरे विचार।” बौद्ध धर्म इसी आत्मा, “मैं”, का खंडन करता है।

परन्तु, बौद्ध धर्म एवं इन भारतीय ग़ैर-बौद्ध धर्मी विचारधाराओं के बीच समानता भी है और वह है वह अभिकथन कि आत्म - बौद्ध धर्म के अनुसार पारम्परिक आत्म, न कि मिथ्या आत्म - अरूपी (निराकार) एवं शाश्वत है। यह कोई भौतिक पदार्थ नहीं है। यह प्रत्येक जीवनकाल में सतत साथ रहता है, और यह अनादि अनंत है।

आइए अब हम आत्मा, आत्म, की कुछ अन्य विशेषताओं को देखते हैं और यह समझने का प्रयास करते हैं कि किस प्रकार सांख्य, न्याय, एवं बौद्ध धर्म इनका निरूपण करते हैं। विशेष रूप से हम आत्म, चित्त, एवं विज्ञान के बीच के संबंधों को परखते हैं। क्या आत्म ज्ञ है?

सांख्य का अभिकथन कि आत्म केवल निष्क्रिय चित्त है

सांख्य के अनुसार आत्मा, आत्म, निष्क्रिय चित्त है। यह इस अर्थ में अकर्ता है, कभी सक्रिय नहीं होता, कि स्वभावतः यह किसी भी आलम्बन को ग्रहण करने में असमर्थ है। यह केवल चेतनत्व है।

हमें यह परखना होगा कि, “क्या मैं ऐसा सोचता हूँ?” उदाहरण के लिए मान लीजिए कि हम न्यिन्गमा विचारधारा का अनुगमन करते हैं और हम रिग्पा , अर्थात् “शुद्ध सत”, के बारे में सीखते हैं। यह अरूप और अनादि अनंत है। क्या यही “मैं” है? क्या हम इसी को “मैं” मानते हैं? इसी प्रकार हम इन ग़ैर-बौद्ध धर्मी पूर्व पक्ष  अभिकथनों का विश्लेषण प्रारम्भ करते हैं।

शुद्ध सत होने के कारण क्या रिग्पा केवल निष्क्रिय चैतन्य है जिसका कोई आलम्बन या वस्तु नहीं होती? हमने सुना है कि रिग्पा अद्वैत है। इसका क्या तात्पर्य है? क्या इसका यह तात्पर्य है कि कोई वस्तु ही नहीं है? फिर हम “कर्ता” और “वस्तु” जैसे शब्दों के बारे में भी सुनते हैं जिनके अर्थ तिब्बती भाषा में अंग्रेज़ी से पृथक हैं। अंग्रेज़ी में “कर्ता” व्यक्ति होता है जबकि तिब्बती भाषा में इसका शाब्दिक अर्थ है “किसी वस्तु का भोक्ता” और यह चेतना, चित्त, को संदर्भित करता है। और फिर इन शब्दों का प्रयोग “अद्वैत कर्ता/वस्तु” जैसे पदों में किया जाता है। इसका अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ यह है कि कोई वस्तु है ही नहीं - रिग्पा केवल शुद्ध चित्त है, उस निष्क्रिय चित्त की भाँति, जो वर्णन सांख्य में आत्मा के लिए है? नहीं, यह कदापि नहीं है।

इस संदर्भ में “अद्वैत” का अर्थ है कि ज्ञान प्रमेय तथा वह चित्त या विज्ञान जो उस ज्ञान प्रमेय को अपने ज्ञान-गोचर आलम्बन के रूप में ग्रहण करता है, इन दोनों के पृथक अस्तित्व नहीं होते। उनका अस्तित्व सत्यसिद्ध, आत्मसिद्ध नहीं होता, जिनके चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें बनी हों, पूर्णतया असम्बद्ध, स्वतंत्र वस्तुओं की भाँति। निस्संदेह चित्त एवं उसके आलम्बन इस प्रकार अस्तित्वमान नहीं होते। यदि वे ऐसे होते तो अंतर्क्रियात्मक नहीं होते; हम कुछ भी नहीं जान पाते; परन्तु केवल इसलिए कि चित्त और उसका आलम्बन पूर्णतः पृथक और असंबद्ध नहीं हैं, हम यह नहीं कह सकते कि वे एक दूसरे के समरूप हैं। ऐसा नहीं है कि केवल एक आलम्बन विहीन रिग्पा, शुद्ध सत, ही विद्यमान है, और वही “मैं” है। बौद्ध धर्म यह नहीं कहता कि वही “मैं” है। इस प्रकार बौद्ध धर्म का रिग्पा, शुद्ध सत, वह नहीं है जो सांख्य  के अनुसार आत्मा या आत्म है, जो केवल निष्क्रिय सत है और जो स्वभावतः आलम्बन विहीन है।

न्याय दर्शन का अभिकथन कि आत्म सहज रूप से प्राज्ञ नहीं है

बौद्ध धर्म के अनुसार आत्म और चित्त समरूप नहीं हैं। ऐसे में हमें इस विषय पर न्याय के पूर्व पक्ष अभिकथन पर विचार करना होगा। न्याय कहता है कि आत्मा सहज रूप से प्रज्ञा-युक्त नहीं है - कोई सत नहीं, कोई प्रज्ञा नहीं। वह क्या है? हम उसे कैसे समझ सकेंगे? क्या हम यह सोचते हैं कि एक “मैं” है और फिर एक चित्त है जिसमें प्रज्ञा का गुण है, और यह भी कि “मैं” अपनी बुद्धि द्वारा किसी मन को निर्मित करता है ताकि वस्तुओं का संज्ञान ले सके? क्या यह “मैं” भी प्रज्ञा-युक्त है? “मैं” और चित्त के बीच क्या संबंध है? जब हम न्याय दर्शन के अभिकथनों पर विचार करते हैं तो हमें इस प्रकार के प्रश्नों का समाधान भी प्राप्त करना होगा।

आत्म एवं प्रज्ञा के विषयों में बौद्ध धर्म का अभिकथन 

सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा केवल निष्क्रिय चित्त है जिसका कोई आलम्बन या वस्तु नहीं है; न्याय दर्शन का कहना है कि आत्म प्रज्ञा-युक्त नहीं है। बौद्ध धर्म इन दोनों चरम मतों को स्वीकार नहीं करता। बौद्ध धर्म का मानना है कि आत्म - यहाँ हम अनिषेध्य आत्म की बात कर रहे हैं - आलम्बनों का संज्ञान लेता है।

यह एक रोचक विषय है। हो सकता है कि हम इस विषय से अधिक अवगत न हों, परन्तु जब हम इस बारे में सोचते हैं कि वह क्या है जिसका आलम्बन या वस्तु है, वह क्या है जो आलम्बनों का संज्ञान लेता है, वह क्या है जो ज्ञाता है, तो हम यह नहीं कह सकते कि केवल हमारी चक्षु-इन्द्रिय ही किसी वस्तु का दृश्य रूप देखती है। क्योंकि यदि हम यह कहते हैं कि केवल चक्षु-इन्द्रिय ही इसे देखती है और हम इसे नहीं देखते, तो यह निरर्थक होगा। फिर भी, आत्म, वह आत्मा जिसे बौद्ध धर्म में स्वीकार किया गया है, किसी वस्तु के विषय में प्रज्ञावान होने का उपाय नहीं है। चित्त या चित्त से किसी वस्तु के विषय में बोधवान हुआ जा सकता है। प्रज्ञा का मार्ग न होने पर भी आत्म ज्ञ है, हम ज्ञ हैं।

इसे समझना सरल नहीं है, पर हम यह देख सकते हैं कि यह किस प्रकार दो चरम मतों से दूर रहता है। एक चरम मत है सांख्य दर्शन का मानना कि आत्म प्रज्ञा का मार्ग है पर यह अज्ञ है, और दूसरा है न्याय दर्शन की मान्यता कि आत्म प्रज्ञा का मार्ग नहीं है और वह स्वयं भी अज्ञ है। बौद्ध धर्म का मानना यह है कि आत्म प्रज्ञा का मार्ग नहीं है पर वह ज्ञ है। यह एक तरह से इन दो चरम मतों से दूर एक तटस्थ मत है। हमें इस विषय पर चिंतन करना चाहिए।

बौद्ध धर्म के अनुसार आलम्बनों के विषय में आत्म के सचेत होने की विधि 

बौद्ध धर्मी दृष्टिकोण के अनुसार आत्म आलम्बनों के विषय में किस प्रकार सचेत होता है?

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें सबसे पहले तो यह समझना होगा कि आत्म किस प्रकार का द्रव्य है। तीन प्रकार के अनित्य द्रव्य होते हैं - अर्थात्, वे द्रव्य जो क्षण-प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं:

  1. एक है द्रव्यों का भौतिक स्वरूप: रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श, और प्रत्येक स्वरूप से जुड़े भौतिक संवेदक, जैसे आँखों की प्रकाश-सुग्राही कोशिकाएँ। फिर कुछ ऐसे सूक्ष्म रूप भी होते हैं जिन्हें केवल मनोवैज्ञानिक चित्त ही परख सकता है, जैसे स्वप्नावस्था में हम जो कुछ देखते और सुनते हैं।
  2. फिर ऐसे द्रव्य हैं जिनके द्वारा हमें आलम्बनों की सचेतनता होती है। यह केवल आलम्बनों से ही सम्बन्धित है। सांख्य दर्शन का कहना है कि बिना किसी अवलम्ब के ही सचेतनता को बनाए रखना तो अतिवाद है और यह असंभव है क्योंकि तब प्रश्न यह उठता है कि किसकी सचेतनता? “सचेतनता” उस आलम्बन पर अवलम्बित होकर ही उत्पन्न हो सकती है जिसके प्रति चित्त सचेतन है। सचेतन होने के कुछ मार्ग हैं चक्षुरिन्द्रिय ज्ञान, श्रवणेन्द्रिय ज्ञान, मनोविज्ञान, क्रोध, आसक्ति, प्रेम, एकाग्रता, स्मृति, किसी विशेष कारण से आनंदित होना, किसी विशेष कारण से दुःखी होना, इत्यादि। ये सब किसी आलम्बन के प्रति सचेतन होने के मार्ग हैं। 
  3. तीसरे प्रकार का द्रव्य है वे वस्तुएँ जो प्रतिक्षण परिवर्तनीय हैं और जो उपरोक्त दो प्रकार की नहीं हैं। एक सरल उदाहरण है आयु। आयु कोई भौतिक पदार्थ नहीं है और न ही यह सचेतनता का कोई मार्ग है, परन्तु यह प्रतिक्षण परिवर्तनीय है।

आत्म उपरोक्त तीसरे प्रकार का अनित्य द्रव्य है। वह प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और वह किसी भौतिक पदार्थ को जानने का मार्ग नहीं है। अतः वह प्रज्ञप्ति धर्म है। प्रज्ञप्ति धर्म किसी आधार से पृथक होकर न अस्तित्वमान हो सकता है और न ही उसे जाना जा सकता है। उदाहरण के लिए आयु का अस्तित्व या उसकी प्रज्ञा उसके आधार, अर्थात्, वह आलम्बन जिसकी आयु की बात हो रही है, से पृथक होकर नहीं जाना जा सकता। उसी प्रकार कोई व्यक्ति या आत्म भी उसके आधार से स्वतंत्र होकर न विद्यमान हो सकता है और न ही उसे जाना जा सकता है। शरीर, चित्त, इत्यादि के स्कन्धों का वैयक्तिक सातत्य ही आत्म की प्रज्ञप्ति का आधार है। कुछ भारतीय बौद्ध-धर्मी सिद्धांत प्रणालियाँ तो और अधिक विशिष्ट हैं। उदाहरण के लिए, सौत्रांतिक और स्वातंत्रिक सम्प्रदायों का मानना है कि, चूँकि मनोविज्ञान प्रत्येक क्षण में विद्यमान होता है, आत्म वह प्रज्ञप्ति धर्म है जो उसी मनोविज्ञान पर आधारित है, और यह भी कि आत्म का इस मनोविज्ञान से पृथक न कोई अस्तित्व हो सकता और न ही उसे जाना जा सकता है।

ये दो सिद्धांत प्रणालियाँ आगे यह कहती हैं कि आत्म को परिभाषित करने वाले अभिलक्षण मनोविज्ञान के पक्ष में होते हैं। दूसरे शब्दों में, मनोविज्ञान स्वयं अपने एवं आत्म दोनों को परिभाषित करने वाले अभिलक्षणों से युक्त है। यह बात तो तर्कसंगत है। हममें से अधिकांश लोग स्वतः ही अपना तादात्म्य अपने चित्त से करते हैं, है न? इसका कारण संभवतः हमारे मस्तिष्क में बैठा वह स्वर है जो हमसे सदा बातें करता रहता है - और हम इसे ही “मैं” मान लेते हैं।

इस प्रकार, आत्म के ज्ञ होने का कारण है मनोविज्ञान का ज्ञ होना, जिसका आधार है आत्म की प्रज्ञप्ति। अन्यथा, इस बात को समझाना अत्यंत कठिन होगा कि आत्म किस प्रकार प्रज्ञावान है। इसके अतिरिक्त यदि आत्म अज्ञ है तो हम न्याय के उस अतिवाद में उलझ जाते हैं कि आत्म अचेतन है। यह तो व्यावहारिक ज्ञान के विपरीत है; यह हमारे सांसारिक अनुभव, हमारे वैध अनुभव, का खंडन करता है।

यद्यपि इन दो सिद्धांत प्रणालियों के अनुसार बौद्ध धर्म का मानना है कि आत्म ज्ञ है क्योंकि उसकी प्रज्ञप्ति का आधार, मनोविज्ञान, ज्ञ है एवं वह आत्म को परिभाषित करने वाले अभिलक्षणों से युक्त है, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि आत्म प्रज्ञावान होने का मार्ग है। आत्म एवं मनोविज्ञान समरूप नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो हम सांख्य दर्शन के अतिवाद के छोर तक पहुँच जाते कि आत्म निष्क्रिय चित्त है - सिवाय इसके कि हमें इस बात को स्वीकार करना होता कि आत्म के लिए आलम्बन का होना उसी प्रकार अनिवार्य है जिस प्रकार मनोविज्ञान के लिए।

हमें गहन रूप से इस बात को परखना होगा कि क्या हम अपनेआप को चित्त मानते हैं? जैसा कि मैंने कहा, हममें से अधिकांश लोग यही मानते हैं, इसी तादात्म्य को वैध मानते हैं। हम ऐसा सोचते हैं और विश्वास भी करते हैं कि एक है विज्ञान (चित्त) जिसमें “मैं” होने का आत्मबोध है, जो अपनेआप को “मैं” मानता है और यह भी मानता है कि यही “मैं” प्रत्येक जीवनकाल में सतत साथ रहता है। परन्तु बौद्ध धर्म ऐसा नहीं मानता। यह सांख्य दर्शन के कथन के समीप है। इस प्रकार अब हम इस पूर्व पक्ष सामग्री का अध्ययन करने तथा उसका उपयोग करने की प्रासंगिकता को समझ गए। यह न तो मानवविज्ञान है और न ही तुलनात्मक धर्म। इसका संबंध इस बात से है कि हम वास्तविक जीवन में क्या मानते हैं।

अब हमें इस बात का विश्लेषण करना है कि पूर्व पक्ष के अनुसार सोचने का परिणाम क्या होगा। यदि हम यह मानते हैं कि हम चित्त हैं, तो क्या होगा? इस सोच से किस प्रकार की उलझनें, कैसी-कैसी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं? तब क्या होगा जब हमें अल्ज़ाइमर्ज़ रोग हो जाए या हम जराजीर्ण हो जाएँ? मुझे अच्छी तरह याद है: मेरी माँ को अल्ज़ाइमर्ज़ रोग हो गया था। वे किसी को पहचानती भी नहीं थीं। पलंग पर बिठा दिया जाए तो उन्हें लेटना भी नहीं आता था। वे भूल गई थीं कि चश्मा कैसे लगाया जाता है। वे सब कुछ भूल गई थीं। उनको देखना इतना कष्टप्रद हो गया था कि मेरी बहन कहने लगी कि, “ये अब हमारी माँ नहीं रहीं।” परन्तु क्या सचमुच वे अब हमारी माँ नहीं रही? क्या अब उनका चित्त उनके पास नहीं रहा और वे अब नगण्य हो गई हैं? यह पूर्णतः निरर्थक बात है। तो, हमारी माता आखिर कौन हैं? यह व्यक्ति कौन है? अब अपने चित्त से पहचानने के परिणाम नकारात्मक तो होंगे ही।

हम कभी-कभी कहते हैं, “मेरा मन विचलित हो रहा है।” “मैं अपनी सुध-बुध खो बैठा था। मेरा मन अपने वश में नहीं था।” हम तो इस तरह की बातें कहते भी हैं और सोचते भी हैं पर उनका अर्थ क्या है? “मेरी मनःस्थिति ठीक नहीं थी।” हम कई बार अटपटी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, जो केवल कोरी शब्दावली नहीं होती अपितु हम वैसे सोचते भी हैं और अनुभव भी करते हैं। ये सोचने वाली बात है। हम पूरी शाम इनमें से किसी एक शब्दावली का विश्लेषण करते हुए बिता सकते हैं; और उनकी तो एक पूरी सूची ही है।

तो फिर क्या हम आगे बढ़ें, या क्या आप इस विषय पर सोचने के लिए कुछ समय लेना चाहेंगे?

क्या “मैं” एक निष्क्रिय चित्त है - क्या यह केवल चित्त है? या फिर यह “मैं” कुछ भी नहीं जानता - अज्ञ है; क्या यह “मैं” चित्त से पूर्णतया पृथक है? यदि बात दूसरी वाली है तो हम पूर्ण रूप से अज्ञ हैं। केवल हमारा चित्त ज्ञ है, और तो और, यह मन हमारा  नहीं है, तो फिर हम हैं कौन?

क्या आर्य भी सत है?

परन्तु आर्यों का तो कोई सत नहीं होता

यदि आप यह सोच रहे हैं कि बुद्धजन विद्या से युक्त होते हैं और सामान्य सत से नहीं, तो ठीक है। बुद्धजन सामान्य सत से युक्त नहीं होते। परन्तु फिर भी, बुद्धजन ज्ञान-युक्त होते हैं, उन्हें विषयों का ज्ञान होता है। बुद्धजन सर्वज्ञ होते हैं। यह बुद्धजनों का एक प्रमुख गुण है। बुद्धजन सब कुछ जानते हैं।

क्या बुद्धजन चित्त से युक्त होते हैं?

निश्चिततः बुद्धजन चित्त से युक्त होते हैं। ज्ञान के कई स्तर होते हैं, और बुद्धजन की ज्ञान शक्ति सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम होती है। न्यिन्गमा में हम उसे “रिगपा, विद्या” कहते हैं। अन्य तिब्बती तांत्रिक परंपराओं में हम उसे “प्रभास्वर” कहते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि बुद्धजन अज्ञ हैं। निश्चित रूप से बुद्धजन ज्ञ हैं। बुद्धजन सर्वज्ञ एवं सभी सत्त्वों के प्रति कृपालु हैं। करुणा भी एक ज्ञेय मार्ग है। परन्तु एक सामान्य वैचारिक स्तर पर बुद्धजनों के चित्त स्थूलतर नहीं होते, जैसे हमारे होते हैं। बुद्धजन अपनी सर्वज्ञ विद्या या सर्वज्ञ प्रभास्वर से आलम्बनों का उस प्रकार ज्ञान नहीं रखते।

धर्म के अभ्यास से हमारे भीतर क्या सुधार होता है?

यदि हम धर्म का अभ्यास करते हैं तो किस पदार्थ का परिष्करण होता है? 

आपको यह कहना होगा कि परिष्करण मानसिक समतान और, परिणामस्वरूप, आत्म, व्यक्ति, “मैं” जो उस मानसिक समतान के आधार पर प्रज्ञप्त है, इन दोनों का होता है।

मानसिक समतान, जो न केवल मनोविज्ञान, अपितु पाँचों स्कन्धों से बना है, अनादि अनंत है, और क्षण-प्रतिक्षण नित्य परिवर्तित होता जाता है। यह बुद्धत्व तक - या यों कहें कि परिष्करण की पराकाष्ठा तक - सतत रहता है। प्रज्ञप्ति के आधार रूपी समतान के आधार पर ही आत्म या “मैं” अस्तित्वमान है। यदि हम प्रत्येक क्षण में “मैं” को मानते हैं, और वस्तुतः प्रत्येक क्षण में प्रज्ञप्ति के आधार रूपी स्कंध परिवर्तित होते रहते हैं, तो आत्म भी परिवर्तित होता रहता है।

आत्म एक अनित्य धर्म है। जब हम “मैं” के उन सभी क्षणों के बारे में सोचते हैं तो हम “मैं” की प्रज्ञप्ति वस्तु के आधार पर मानसिक रूप से वर्गीकृत “मैं” की सामान्य श्रेणी के माध्यम से सामान्य रूप में करते हैं। और “मैं” की वह श्रेणी तथा उसके द्वारा “मैं” का प्रत्येक क्षण “मैं” शब्द की प्रज्ञप्ति वस्तु बन सकते हैं। परन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि “मैं” रूपी आत्म “मैं” का शब्द नहीं है। अपितु यह वह है जो उस शब्द से संदर्भित है, अर्थात्, “मैं”।

मुझे लगता है यहाँ मुझे अपना आदर्श उदाहरण देना चाहिए। यह आदर्श उदाहरण एक चलचित्र है। अब स्टार वॉर्ज़ चलचित्र को ही ले लीजिए। उस चलचित्र के कई पृथक क्षण हैं और वह चलचित्र प्रतिक्षण एक क्षण से दूसरे और फिर तीसरे क्षण से होकर बढ़ता है। जब हम स्टार वॉर्ज़ की बात करते हैं तो “स्टार वॉर्ज़” उस चलचित्र का शीर्षक मात्र नहीं है। वह तो केवल नाम है। वह सम्पूर्ण चलचित्र नहीं है। यह चलचित्र का नाम है, और स्टार वॉर्ज़ उस चलचित्र का केवल एक विशिष्ट क्षण नहीं है। परन्तु, उस चलचित्र के सभी क्षणों के आधार पर हम उसे स्टार वॉर्ज़ का नाम देते हैं जो उस स्टार स्टार वॉर्ज़ के सम्पूर्ण चलचित्र को संदर्भित करता है।

क्या स्टार स्टार वॉर्ज़ का सम्पूर्ण चलचित्र एक ही क्षण में घटित होता है? नहीं। क्या स्टार वॉर्ज़ नाम का कोई चलचित्र है? हाँ है। क्या हमने स्टार वॉर्ज़ चलचित्र देखा है? हाँ, देखा है। हमने क्या देखा? हमने एक समय में केवल एक ही क्षण देखा। दूसरे क्षण में पहला क्षण समाप्त हो चुका था। तो हमने क्या देखा?

इसी प्रकार आत्म भी ऐसा ही है। यह शब्द “मैं” वही है जो हमारे अनुभवों के प्रत्येक क्षण के आधार पर जिसे सन्दर्भित करता है। अनादिकाल से हमारे अनुभवों के प्रत्येक क्षण, जिसमें वह समयकाल भी सम्मिलित है जब हम बुद्धजन हो जाते हैं, पंचस्कन्धों, अनुभवों के पाँच स्कन्धों, से बना होता है और यह वर्गीकरण की एक योजना मात्र है। ऐसा नहीं है कि ये हवा में पाँच डिब्बों में रखे हुए हों। प्रत्येक क्षण में इन पाँच स्कन्धों में से एक या अनेक विद्यमान रहता है, तथा इन स्कन्धों की प्रत्येक वस्तु पृथक-पृथक अनुपात में परिवर्तित होती रहती है। अतः कुछ भी स्थिर या नित्य नहीं है, जिस प्रकार किसी चलचित्र में कुछ भी स्थिर नहीं होता - हम यहाँ प्लास्टिक की सिनेमा रील की बात नहीं कर रहे हैं। यद्यपि कुछ भी स्थायी नहीं है, फिर भी एक चलचित्र तो है, और हम उसे “स्टार वॉर्ज़” का नाम दे सकते हैं। हमारे विषय में वह नाम है “मैं”। प्रत्येक जीवनकाल में हमारा एक पृथक नाम होता है, एक व्यक्तिगत नाम। वह अप्रासंगिक है। हमारे इस अनादि-अनंत सातत्य में हमारा नाम है “मैं” जो वैयक्तिक है। ऐसा नहीं है कि स्टार वॉर्ज़ अपना नाम बीच में ही “रोज़मेरीज़ बेबी” इत्यादि में बदल देता हो। यह चलचित्र एक ही है और अंत तक अपना वही व्यक्तित्व बनाए रखता है।

एक स्तर जो सदा विद्यमान रहता है वह है विज्ञान, या प्रज्ञा, चाहे वह इन्द्रिय विज्ञान का स्थूल स्तर हो, या परिकल्प्यमान (जाग्रत) अवस्था एवं स्वप्नावस्था का सूक्ष्म स्तर, या फिर विद्या (रिग-पा) या प्रभास्वर का सूक्ष्मतम स्तर। यह संभावना तो है ही। अब, चूँकि उस सूक्ष्मतम चित्त का आलम्बन सदा होता ही है, हम यह कह सकते हैं कि आत्म ज्ञ है, “मैं” ज्ञ है, क्योंकि आत्म मानसिक समतान की प्रज्ञप्ति वस्तु है।

आत्म और चित्त में क्या अंतर है?

आत्म चित्त से किस प्रकार भिन्न है?

चित्त द्वारा आलम्बनों का बोध होता है, और आत्म से न तो कोई बोध होता है और न ही वह किसी प्रकार का कायिक धर्म है। चित्त कोई वस्तु नहीं है। हम चित्त को मस्तिष्क इत्यादि का समरूप मानते हैं। यह सत्य नहीं है। एक आत्मनिष्ठ, आनुभविक दृष्टिकोण से चित्त मानसिक क्रियाकलाप को संदर्भित करता है, और वह क्रियाकलाप क्षण-प्रतिक्षण होता रहता है। इस क्रियाकलाप के तीन आयाम हैं:

  1. मानसिक होलोग्राम (आकार) का प्राकट्य - उसके लिए शब्द है “स्पष्टता।” स्पष्टता का अर्थ ध्यान केंद्रित करना नहीं है। इसका अर्थ केवल प्रकट होना, स्पष्ट होना है, जिसका अर्थ भी ध्यान केंद्रित करना नहीं है। मानसिक आकार तो प्रकट होता रहता है। इस विषय पर पश्चिमी दृष्टिकोण यह है कि प्रकाशाणु आँख के दृष्टिपटल पर पड़ते हैं और यह स्नायुरवैद्युत (न्यूरोइलेक्ट्रिक) तथा रासायनिक चेतना को उत्प्रेरित करता है, और फिर ये अन्य प्रक्रियाओं के द्वारा मानसिक आकार में रूपांतरित हो जाते हैं, जिसका परिणाम यह है कि हम जिसे देखते हैं उसका हमें बोध होता है। यह उस क्रियाकलाप का एक आयाम है।
  2. उसी क्रियाकलाप का वर्णन करने की दूसरी विधि है कि वह एक संज्ञानात्मक उपक्रम है। मानसिक आकार का प्रकट होना ही आलम्बन का संज्ञान है। यदि वह किसी प्रतिरूप का चक्षुराकार है तो हम देखते हैं। यदि यह श्रव्याकार है तो हम सुनते हैं। यह अनिवार्य नहीं कि मानसिक आकार चाक्षुष या इन्द्रिय ही हो। यह आकार कोई विचार भी हो सकता है - तब हम सोचते हैं। यह कोई मनोभाव भी हो सकता है। इसी को कहते है आलम्बन की प्रज्ञा: यह आलम्बन के मानसिक आकार के प्राकट्य का चित्तज क्रियाकलाप है जो आलम्बन के संज्ञानात्मक उपक्रम का समरूप है। ये पहले दो आयाम उसी चित्तज क्रियाकलाप को व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से चित्रित करने के दो पृथक मार्ग हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह इसी क्रियाकलाप को मस्तिष्क, स्नायु, मस्तिष्क की तरंगों, अंतःस्राव (हार्मोन) इत्यादि के संदर्भ में किए गए वस्तुनिष्ठ विवरण का खंडन नहीं करता। 
  3. तीसरा शब्द है “केवल वह” या “मात्र वह”, जिसका अर्थ यह है कि ऐसा कोई पृथक “मैं” नहीं है जो इस मानसिक क्रियाकलाप को परख रहा हो या नियंत्रित कर रहा हो। न ही कोई यंत्रवत चित्त है जिसका यह “मैं” संचालन कर रहा हो और कार्यों को सम्पन्न कर रहा हो। यहाँ केवल एक मानसिक क्रियाकलाप है जो, जैसे-जैसे उसका आलम्बन परिवर्तित होता जाता है वैसे-वैसे वह स्वयं क्षण-प्रतिक्षण परिवर्तित होता जाता है। “मैं” उस आलम्बन का प्रज्ञप्ति धर्म है। “मैं” उस मानसिक क्रियाकलाप का समरूप नहीं है। न ही स्थिति ऐसी है कि “मैं” का उससे पृथक कोई अस्तित्व है और स्वयं अज्ञ भी है। यह प्रथम दृष्टिकोण है सांख्य दर्शन और द्वितीय है न्याय दर्शन।

तथापि, आत्म एवं चित्त के ज्ञानार्जन के मार्गों में कुछ महत्त्वपूर्ण भेद हैं। चित्तज क्रियाकलाप - जिसे हम “चित्त” कहते हैं - को आलम्बन का बोध उसके मनसाकार को प्रकट करके होता है, जो उस आलम्बन से संज्ञानात्मक रूप से संलग्न होने के समरूप है। दूसरी ओर, आत्म, “मैं”, को आलम्बनों का बोध उनसे संज्ञानात्मक रूप से संलग्न होकर ही होता है। आत्म किसी मनसाकार को प्रकट नहीं करता। यह एक वृहद् भेद है।

एक अन्य भेद है “अवचेतन बोध”। उदाहरण के लिए, जब हम सो रहे होते हैं तो केवल श्रवणेन्द्रिय चेतना ही घड़ी की टिक-टिक की ध्वनि सुनती है, हमें इसका बोध नहीं होता। आत्म को वह टिक-टिक की ध्वनि वास्तव में सुनाई नहीं देती। उसे स्वप्नावस्था का अवचेतन बोध ही रहता है – संभवतः जिसे पश्चिमी देशों में “अचेतन बोध” कहते हैं। परन्तु जब उस घड़ी की घंटी बजने लगती है तो दोनों श्रवणेन्द्रिय तथा हम ही उसे सुनते हैं। अतः, चित्तज क्रियाकलाप, अर्थात चित्त, सदा प्रकट होता है, जबकि आत्म का आलम्बन बोध कभी-कभी केवल अवचेतन होता है। बौद्ध धर्म की व्याख्या के अनुसार चित्त एवं आत्म के बीच यह एक और भेद है।

Top