आत्मा के विषय में सांख्य एवं न्याय दर्शनों के अभिकथन तथा उनका बौद्ध धर्मी खंडन

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आत्म के विषय जैसी किसी भी बौद्ध-धर्मी युक्ति के सटीक और निर्णायक बोध प्राप्त करने की विधि यह है कि उस युक्ति को “पूर्व पक्ष” की युक्ति से चुनौती दी जाए और फिर इन चुनौतियों का सटीक समाधान प्रस्तुत किया जाए। “दूसरा पक्ष” है भारतीय ग़ैर-बौद्ध धर्मी विचारधाराओं की युक्तियाँ जिनके विरुद्ध नालंदा जैसे भारतीय मठीय विश्वविद्यालयों में शास्त्रार्थ हुआ था। यह जानने के लिए कि कहीं हम अनजाने में ही सही उस “दूसरे पक्ष” की युक्तियों को अपना मानकर अपने बौद्ध-धर्मी विचारों को ग़लत तो नहीं समझ बैठे हैं, हम उसके विषय में अपनी समझ को निर्भ्रांत करते हैं। उदाहरण के लिए, बौद्ध धर्म का यह मानना है कि आत्म को विषयज्ञान है, परन्तु ऐसा नहीं जैसा चेतन सत्त्व जानता है। सांख्य ने इसे चुनौती देते हुए कहा कि आत्म स्वतंत्र रूप से विद्यमान आत्मा है जो चित्त से पृथक एक निष्क्रिय पुरुष है और बिना किसी आलम्बन का है। न्याय दर्शन के अनुसार इसमें चेतन तत्त्व नहीं है और यह आलम्बनों का बोध करने के लिए चित्त का उपयोग करता है। इन चुनौतियों के आगे हमारे अपने पक्ष को ठीक-ठीक समझने के लिए हमें इस बात को समझना होगा कि किस प्रकार बौद्ध धर्म इनमें से किसी भी दृष्टिकोण का पक्षधर नहीं है।

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