न्याय और वैशेषिक दर्शन के मूल सिद्धांत

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उत्पत्ति

5 ईस्वीं में प्रशस्तपाद के भाष्य के अनुसार भारतीय दर्शन शास्त्र का वैशेषिक दर्शन ऋषि कणाद के वैशेषिक सूत्र  पर आधारित है। 4 ईस्वीं में वात्स्यायन के भाष्य के अनुसार, उत्तरकालीन न्याय दर्शन गौतम के न्याय सूत्र  पर आधारित है- जिन्हें अक्षपाद ब्राह्मण भी कहा जाता है।

न्याय और वैशेषिक दर्शनों में कई समान विशिष्टताएँ हैं। वैशेषिक दर्शन विद्यमान पदार्थों पर बल देता है; न्याय दर्शन ऐसे पदार्थों पर बल देता है जो उन पदार्थों के अस्तित्व को निरूपित एवं प्रमाणित करते हैं। जिस प्रकार सांख्य दर्शन 25 तत्त्वों को मानता है, उसी प्रकार वैशेषिक दर्शन 6 प्रकार के पदार्थों को मानता है, जिसमें बाद में सातवाँ पदार्थ, अभाव, भी जोड़ा गया। न्याय दर्शन में 16 पदार्थ माने गए हैं।

अनूदित शब्दावली " पदार्थ के प्रकार" का शाब्दिक अर्थ है "किसी शब्द की प्रसंगार्थ वस्तु" और इस वर्गीकरण योजना में युक्त सभी वस्तुओं का अस्तित्व उसी प्रकार सत्यसिद्ध है जिस प्रकार उन्हें परिभाषित करने वाले शब्द हैं। उन्हें शब्दों और अवधारणाओं को संयोजित करने की क्षमता के कारणों के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। इस प्रकार, इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये सब एक भूमिका निभाते हैं, यद्यपि उनमें से कुछ तो अचल असंस्कृत धर्म हैं। ये इस मायने में स्वावलम्बी रूप से अस्तित्वमान हैं, अर्थात्, वे अपने विशिष्ट सत्यसिद्ध अस्तित्व के लिए किसी अन्य धर्म पर आश्रित नहीं है, यद्यपि हो सकता है कि वे स्वयंसिद्ध रूप से अस्तित्वमान न हों। कुछ इस प्रकार के पदार्थ हैं जो गुण जैसे पदार्थों के अवलम्ब होते हैं, और उनके अन्तर्जात समवाय के कारण के रूप में कार्य करते हैं।

पदार्थों के प्रकारों की सूची

वैशेषिक दर्शन के सात प्रकार के पदार्थ इस प्रकार हैं:

(1) द्रव्य 

(2) गुण 

(3) क्रिया 

(4) सामान्य 

(5) विशेष 

(6) समवाय 

(7) अभाव 

न्याय के सोलह प्रकार के पदार्थ इस प्रकार हैं:

(1) प्रमाण 

(2) प्रमेय - जिसमें 6 वैशेषिक पदार्थ भी हैं

(3) समस्या 

(4) प्रयोजन 

(5) दृष्टांत 

(6) सिद्धांत 

(7) अवयव 

(8) तर्क - अवधारणाओं के विश्लेषण हेतु

(9) निर्णय 

(10) वाद - सत्य की खोज हेतु 

(11) जल्प - सृजनात्मक अथवा विनाशकारी तर्क जिसका लक्ष्य केवल जीत है। 

(12) वितंडा - विनाशकारी तर्क 

(13) हेत्वाभास

(14) छल - भ्रामक युक्तियाँ जिनका तर्क में प्रयोग होता है

(15) जाति

(16) निग्रहस्थान 

अब हम केवल उन पदार्थों पर दृष्टि डालते हैं जो दोनों प्रणालियों, मूल वैशेषिक की छः, और वैशेषिक की सातवीं, में स्वीकार्य हैं।

नौ प्रकार के मूल पदार्थ

नौ प्रकार के मूल पदार्थ होते हैं। ये गुणों और क्रियाओं का आधार होते हैं और इन गुणों और क्रियाओं से विभिन्न प्रकार के संबंधों द्वारा जुड़े होते हैं, कुछ इस प्रकार जैसे दो गेंदें छड़ियों से आपस में जुड़ी होती हैं:

(1) पृथ्वी 

(2) अप (जल)

(3) तेज (अग्नि) 

(4) वायु। ये चारों परमाणु हैं, अर्थात्, ये अविभाज्य, सनातन भौतिक कण हैं। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो इनका कोई समय या स्थान नहीं होता, केवल उन स्थूलतर भौतिक आलम्बनों का समय और स्थान होता है जो इन चारों पदार्थों से निर्मित हैं।  

(5) आकाश। आकाश अभौतिक, अविभाज्य, अनंत, सर्वव्यापी होता है, और कणों से निर्मित नहीं होता।

(6) काल 

(7) दिक् (स्थान)। काल और दिक् सर्वव्यापी स्वलक्षण युक्त यथार्थ हैं और केवल परिमाण हैं। 

(8) आत्मा या पुरुष या पुद्गल। आत्मा अनंत हैं, और प्रत्येक आत्मा सर्वव्यापी और सनातन है। वे अपनेआप में अचेतन होती हैं।

(9) मनस। मनस, पृथ्वी, जल, तेज, और वायु की तरह एक प्रकार का परमाणु है, परन्तु यहाँ वह चेतना का परमाणु है। दूसरे शब्दों में, चेतना स्थूल होती है। यह सिद्धांतों द्वारा व्यक्तियों को बाह्य संसार से जोड़ती है। अतः, स्थूल मनस परमाणु सदैव वैचारिक बोध होते हैं।

24 गुण

गुण 24 प्रकार के होते हैं, जो विशेष मूल पदार्थों के विशेष गुणों को संदर्भित करते हैं। प्रत्येक का सम्बन्ध एक या एक से अधिक मूल पदार्थों से होता है। यद्यपि प्रत्येक गुण पृथक है, तथापि इनमें से कोई भी स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान नहीं हो सकता।

इन 24 गुणों में विभिन्न प्रकार की निम्नलिखित तन्मात्राएँ सम्मिलित हैं: 

(1) रूप 

(2) रस 

(3) गंध 

(4) स्पर्श 

(5) शब्द

निम्नलिखित के अनेक स्तर हैं:

(6) गुरुत्व, अर्थात्, महत्त्व

(7) द्रवत्व 

(8) स्नेह

निम्नलिखित के अनेक प्रकार या उदाहरण हैं:

(9) संख्या 

(10) परिमाण

(11) पृथकत्व - आलम्बनों के पक्ष में वैयक्तिकता, जिसके कारण न केवल एक कलश दूसरे कलश से भिन्न है, अपितु कलश भी स्तम्भ से भिन्न है।

(12) संयोग अर्थात्, संयोजन, एकराशिकरण, या धारण। गुणों अथवा क्रियाओं का संयोजन या धारण, या परमाणुओं का एकराशिकरण कारणों और परिस्थितियों पर निर्भर होता है। निर्भर होने के कारण वे अपरिवर्तनीय नहीं होते; वे क्षणिक होते हैं।

(13) विभाग - प्रासंगिक रूप से एकराशिकृत होने या किसी वस्तु को प्रासंगिक रूप से धारण करने से पृथक होना

(14) परत्व - अंतराल (आकाश) अथवा काल में सामीप्य

(15) अपरत्व – अंतराल (आकाश) अथवा काल में सामीप्य का अभाव 

निम्नलिखित के विभिन्न प्रकार या स्तर:

(16) बुद्धि अथवा ज्ञान, यह पाँच तन्मात्राओं को संदर्भित करता है 

(17) सुख 

(18) दुःख 

(19) इच्छा 

(20) द्वेष 

(21) यातना

(22) संस्कार, जिनमें सम्मिलित हैं (क) शारीरिक वेग, जो पृथ्वी, जल, तेज, और वायु पर स्थूल मनस परमाणु द्वारा किए गए श्रम से उत्पन्न होता है, (ख) वासनाएँ जो चेतना के एक क्षण से उत्पन्न होती हैं और भविष्य में भी चेतना का क्षण उत्पन्न करने की क्षमता रखती हैं, और (ग) प्रत्यावर्तन, किसी स्थूल वस्तु का अपने मूल अवस्था में प्रत्यावर्तित होना, जैसे पहले से ही मुड़े हुए पत्ते को खोल देने पर उसका अपनेआप फिर से वापस अपनी मुड़ी हुई पूर्व स्थिति की ओर जाना।

(23) धर्म जो अपने अद्यापि अदृष्ट परिणाम के रूप में आनंद देता है।

(24) अधर्म जो अपने अद्यापि अदृष्ट परिणाम के रूप में दुःख देता है।

तिब्बती मान्यता के अनुसार, अंतिम दो गुणों को एक माना जाता है, और उन्हें "अभी-तक-न-देखे-गए" (अदृष्ट) कहा जाता है - अपने अद्यापि अदृष्ट परिणाम के रूप में सुख या दुःख देने वाले कर्म। फिर वह अपनी सूची में ऊष्म को भो जोड़ देता है।

आत्माएँ और उनके नौ प्रासंगिक गुण

किसी आत्मा या व्यक्ति से प्रासंगिक रूप से जुड़े नौ गुण इस प्रकार हैं:

(1) ज्ञानेन्द्रिय बोध

(2) सुख 

(3) दुःख 

(4) तृष्णा 

(5) वितृष्णा 

(6) यत्न

(7) संस्कार, जैसे वासनाएँ

(8) अद्यापि अदृष्ट सुख हेतु धर्म 

(9) अद्यापि अदृष्ट दुःख हेतु धर्म 

आत्मा स्थूल होते हुए भी मूल पदार्थ है। वह इन नौ गुणों को प्रासंगिक रूप से धारण करने का आधार है। वह स्वलक्षण युक्त सत्ता है जो शरीर (जो स्थूल परमाणुओं से निर्मित है), इन्द्रिय (रूप, शब्द, इत्यादि जो व्युत्पन्न स्थूल परमाणुओं से निर्मित हैं), एवं स्थूल मनस परमाणु (बोध) से पृथक है। स्वभावतः कोई भी व्यक्ति इन नौ गुणों से युक्त नहीं होता, और इस बात को मान लेने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है कि वह इन गुणों से परे है।

क्योंकि, स्वभावतः आत्मा में ज्ञानेन्द्रिय बोध की शक्ति नहीं होती, वह आलम्बनों को केवल स्थूल मनस परमाणुओं द्वारा ही जान पाती है, जो ज्ञानेन्द्रिय हैं। अतः, आत्मा मनस परमाणुओं से पृथक पदार्थ हैं, एवं क्रियाओं से भी पृथक पदार्थ हैं; यद्यपि पारम्परिक रूप से आत्माएँ या व्यक्ति सुख-दुःख के भोक्ता और क्रियाओं के कर्ता हैं।

आत्माएँ अनंत हैं, और प्रत्येक आत्मा अविभाज्य, सनातन, अचल, एवं स्थितप्रज्ञ होती है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वव्यापी होती है, जबकि न्याय दर्शन में आत्मा अणु है। कुंक्येन जाम्यांग-त्सेपा के ग्रंथों के अनुसार, यद्यपि न्याय दर्शन यह मानता है कि आत्मा, जिसका स्थूल मनस परमाणु से प्रासंगिक संयोजन और वियोजन का सम्बन्ध है, अणु आकार है; तथापि, न्याय दर्शन इस बात को भी स्वीकार करता है कि सामान्यतः प्रत्येक आत्मा सर्वव्यापी होती है।

आध्यात्मिक मार्ग का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है जिसके लिए इस बात को मानना होगा कि स्वाभाविक रूप से आत्मा के नौ गुण नहीं होते और न ही वह अनिवार्य रूप से स्थूल मनस परमाणु (बोध) या क्रियाओं से सम्बद्ध है। अतः, सम्पूर्ण रूप से निर्विण्ण अवस्था में आत्मा सुख-दुःख के अनुभव से परे हो जाती है; और साथ ही वह अकर्मक भी हो जाती है। इस सम्पूर्ण निर्विण्णावस्था की प्राप्ति के लिए आत्मा की प्रकृति को समझना तथा अपने आध्यात्मिक गुरु के आश्रम में निवास कर उपवास, प्रक्षालन, एवं ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा।

दो प्रकार की आत्मा होती है, जीवात्मा और परमात्मा या सृष्टिकर्ता ईश्वर (शिव)। यद्यपि कणाद और गौतम दोनों की परम्पराओं के प्राचीनतम ग्रंथों में ईश्वर का उल्लेख नहीं है, तथापि प्रशस्तपाद और वात्स्यायन के भाष्यों में इनपर चर्चा की गई है। परन्तु, योग दर्शन में ईश्वर के निरूपण के ठीक विपरीत न्याय और वैशेषिक दर्शनों के अनुसार ब्रह्माण्ड में जो कुछ होता है वह ईश्वर की इच्छानुसार ही होता है।

पाँच प्रकार की क्रियाएँ

पाँच प्रकार की क्रियाएँ होती हैं:

(1) उत्क्षिप्त

(2) अवस्थापन 

(3) संकुचन  

(4) विस्तीर्णता 

(5) गमन 

जातिगत विशिष्टताएँ

जातिगत विशिष्टताएँ वे विशिष्टताएँ हैं जिनके द्वारा यह पहचान की जा सकती है कि कोई विशिष्ट वस्तु सामान्य श्रेणी में आती है या नहीं। इन विशिष्टताओं को केवल वैचारिक रूप से जाना जा सकता है, अर्थात्, इन श्रेणियों से सम्बद्ध व्यक्तिगत वस्तुओं को निर्णयात्मक रूप से पहचानकर और यह जानकार कि ये विशिष्टताएँ उस श्रेणी की प्रत्येक वस्तु में समान रूप से विद्यमान हैं। व्यक्तिगत वस्तुएँ जातिगत विशिष्टताओं की सूचक या व्यंजक होती हैं।

जातिगत विशिष्टताएँ दो प्रकार की होती हैं:

(1) सर्वसर्वगत, अर्थात्, व्यापक जातिगत विशिष्टताएँ। यह वस्तुपरक अस्तित्व वाली जातिगत विशिष्टता को संदर्भित करती है। सात प्रकार के पदार्थों में से यह केवल मूल पदार्थों, गुणों, एवं क्रियाओं से सम्बद्ध है। यह वर्गीय विशिष्टताओं, व्यक्तिगत विशिष्टताओं, अन्तर्निहित संबंधों, या अभाव के प्रकारों पर लागू नहीं होती। सात प्रकार के पदार्थों का यह द्वैत विभाजन बौद्ध धर्म के सौत्रान्तिक के स्वलक्षण युक्त पदार्थ तथा सामान्य-लक्षण युक्त पदार्थ की विभक्ति के समान है। न्याय-वैशेषिक तथा सौत्रान्तिक दोनों दर्शनों में धर्म के उभय स्कंध सत्यसिद्ध हैं, यद्यपि केवल पहला स्कंध ही वस्तुपरक रूप से "सत्य" है।

(2) विशेष जातिगत विशिष्टताएँ (व्यक्तिसर्वगत)। ये विशिष्टताएँ अव्याप्त रूप से केवल कुछ ही वस्तुओं पर लागू होती हैं, जैसे "मेज़" की व्यक्तिसर्वगत विशिष्टताएँ केवल मेज़ों पर ही लागू होती हैं।

वैयक्तिक विशिष्टताएँ

वैयक्तिक विशिष्टताएँ वे लक्षण या धर्म हैं जिन्हें वैचारिक बोध से ग्रहण किया जा सकता है जब दो ऐसे पृथक या वैयक्तिक आलम्बनों को निर्णयात्मक रूप से पहचानते हैं जो भिन्न रूप से समान हैं, अर्थात्, या तो वस्तुपरक रूप से अस्तित्वमान होने वाले सर्वसर्वगत धर्म के सन्दर्भ में (जैसे कलश और स्तम्भ), या फिर व्यक्तिसर्वगत धर्म के सन्दर्भ में, उदाहरणार्थ मेज़ की व्यक्तिसर्वगत विशिष्टताएँ (कि वे दो मेज़ों में समान होती हैं)।

पाँच प्रकार के अन्तर्निहित, अपरिवर्ती सम्बन्ध

पाँच प्रकार के अन्तर्निहित, अपरिवर्ती सम्बन्ध होते हैं: जैसे निम्नलिखित पदार्थों के बीच:

(1) मूल पदार्थ (आत्मा के अतिरिक्त) और उनके गुण: आत्मा के अतिरिक्त सभी मूल पदार्थ अपने गुणों का आश्रय होते हैं।

(2) मूल पदार्थ (आत्मा के अतिरिक्त) और उनकी क्रियाएँ: आत्मा के अतिरिक्त सभी मूल पदार्थ अपनी क्रियाओं का आश्रय होते हैं।

(3) विशेष वस्तुएँ और श्रेणियाँ

(4) परम पदार्थ (अर्थात्, धरती, जल, तेज, वायु और कायिक भौतिक मन के परमाणु) और विशेष वस्तुएँ जो अपने प्रासंगिक संयोगों से बनी हैं।

(5) एक सम्पूर्णता और उसके अंश, जैसे शरीर और उसके अंग, या स्व-प्रतिष्ठित स्थूल कारण और उनके कार्य, जैसे मिट्टी और उससे बना घड़ा।

ये पाँच जोड़ियाँ हमेशा साथ-साथ रहती हैं।

चार प्रकार के अभाव

चार प्रकार के अभाव इस प्रकार हैं:

(1) प्रज्ञाभाव - उदाहरण के लिए कलश के बनने से पहले उसका अभाव होना

(2) प्रध्वंशाभाव - उदाहरण के लिए कलश के नष्ट होने के बाद उसका अभाव होना

(3) अन्योन्याभाव - परस्परव्यावृत्ति (अर्थात्, परस्पर व्यावर्तक), जैसे स्तम्भ के होने से कलश का अभाव या कलश के होने से स्तम्भ का अभाव

(4) अत्यन्ताभाव - किसी ऐसी वस्तु का सम्पूर्ण अभाव जो न पहले कभी थी, न बाद में कभी होगी, और न वर्तमान में विद्यमान हो सकती है। कुछ व्याख्याओं के अनुसार इस प्रकार का अभाव उस स्थिति को संदर्भित करता है जहाँ किसी आलम्बन का उसके वर्तमान स्थान के अतिरिक्त अन्यत्र उसका सम्पूर्ण अभाव है।

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