बॉन तथा तिब्बती बौद्ध धर्म

भूमिका 

आज की संध्या मुझे बॉन परंपरा और बौद्ध धर्म से उसके सम्बन्ध विषय पर बोलने के लिए कहा गया है| जब परमपावन दलाई लामा तिब्बती परंपराओं पर बोलते हैं तो वे तिब्बत की पांच परंपराओं का उल्लेख करते हैं, जो हैं न्यिंगमा, काग्यु, साक्य, गेलुग तथा बॉन| परमपावन के अनुसार तिब्बती बौद्ध धर्मीय वंशानुक्रम में बॉन को समान स्थान प्राप्त है| परमपावन अत्यंत उदार हैं| सब लोग इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं| बौद्ध धर्मी शिक्षकों में बॉन के सम्बन्ध में बहुत से निराले विचार रहे हैं और अब भी हैं| पश्चिमी मनोविज्ञान के अनुसार जब लोग अपने व्यक्तित्व में गहन स्तर पर अपना समाधान करने से पहले अपने व्यक्तित्व की सकारात्मक बातों पर बल दे रहे होते हैं, तब कलुष पक्ष किसी शत्रु पर आरोपित कर दिया जाता है| “हम तो बहुत सदाचारी हैं और उपयुक्त शुद्ध मार्ग पर चल रहे हैं परन्तु वे “पापात्मा” हैं|” दुर्भाग्य से, बॉन्पोजन की परंपरागत रूप से तिब्बती इतिहास में ऐसी ही छवि बनाई गई है| हम इसके ऐतिहासिक कारणों पर विचार करेंगे| इसे तिब्बती राजनैतिक इतिहास के संदर्भ में समझा जाना चाहिए|

यह एक वास्तविकता है कि तिब्बत में ही बॉन का अत्यंत नकारात्मक प्रचार करके उसकी अत्यंत बुरी छवि प्रस्तुत की गई है| पश्चिमवासी शायद विवादों की ओर आकर्षित होते हैं, मानो जिसकी भी बुरी छवि पेश की गई है वह अधिक रोचक है| अन्य परम्पराएं उबाऊ और सपाट हैं| उतना ही विचित्र विचार यह है कि बॉन, तिब्बती बौद्ध धर्म की तुलना में अधिक मोहक है| कुछ पश्चिमवासी इसे एक ऐसा केंद्र मानते हैं जहाँ उन्हें कुछ मायावी प्राप्त होगा, लोबसांग रामपा जैसी सामग्री जहाँ लोगों के माथे पर एक छेद किया जाता है ताकि उनकी तीसरी आँख खुल सके| इनमें से कोई भी दृष्टिकोण सटीक नहीं है| हमें अधिक संतुलित परिप्रेक्ष्य प्राप्त करना होगा तथा बॉन के प्रति सम्मान का भाव रखना होगा जैसा कि परमपावन करते हैं| तिब्बती इतिहास को समझना आवश्यक है तथा यह देखना कि किस प्रकार बॉन के प्रति एक नकारात्मक दृष्टि विकसित हुई तथा यह भी देखना कि आध्यात्मिक विकास सम्बन्धी उनका दृष्टिकोण तिब्बती बौद्ध धर्म से किस प्रकार संबंधित है|

बॉन के उद्भव की खोज – शेनराब मीवो 

बॉन परंपरा के अनुसार इसकी स्थापना शेनराब मीवो के द्वारा की गई जो 30 हज़ार वर्ष पहले हुई अर्थात ये पाषाण युग में हुए| मुझे नहीं लगता कि इसका अर्थ यह है कि वे गुफा मानव थे| किसी भी परंपरा के प्रति गहन सम्मान प्रकट करने का एक सामान्य ढंग उसे प्राचीन सिद्ध करना होता है| जो भी हो, उनके जीवन काल की सही तिथियाँ सिद्ध करना संभव नहीं है| शेनराब मीवो ओमोलंगरिंग में रहते थे| इस स्थान का विवरण शम्भाला, मेरु पर्वत, तथा कैलाश पर्वत सम्बन्धी विचारों का मिश्रण है| यह एक आदर्श आध्यात्मिक स्थल का विवरण है| कहा जाता है कि यह ताज़िग नामक अधिक विस्तृत प्रदेश के भीतर स्थित था| “ताज़िग” शब्द फारसी तथा अरबी दोनों भाषाओं में पाया जाता है, फारस तथा अरब देशों का उल्लेख करने के लिए| एक अन्य सन्दर्भ में इसका प्रयोग एक खानाबदोश जनजाति के लिए किया जाता है| बॉन परंपरा में ताज़िग को झाम–झुंग साम्राज्य के पश्चिम में स्थित बताया गया है जो पश्चिमी तिब्बत में स्थित था|  

इससे संकेत मिलता है कि बॉन मध्य एशिया से आया और संभवतः किसी ईरानी सांस्कृतिक प्रदेश से| यह भी संभव है कि शेनराब मीवो किसी प्राचीन ईरानी संस्कृति के थे और उसके बाद वे झाम-झुंग आए| कुछ विवरण बताते हैं कि वे ग्यारहवीं से सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच आए| यह भी बहुत लम्बी अवधि है और इन दोनों ही बातों को सिद्ध करना असंभव है| एक बात स्पष्ट है कि जब मध्य तिब्बत “127 ईसा पूर्व” में यारलंग राजवंश की स्थापना हुई उससे पहले ही एक प्रकार की देशज परंपरा विद्यमान थी| हम यह भी नहीं जानते कि उस समय उसे किस नाम से पुकारा जाता था|

ईरानी सम्बन्ध  

ईरानी सम्बन्ध अद्भुत है| इस विषय में बहुत ही अटकलें लगाई गई हैं| इसे केवल बॉन के दृष्टिकोण से ही नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि बौद्ध धर्मी दृष्टिकोण से भी देखना आवश्यक है| बॉन तथा बौद्ध धर्म की सामग्री के बीच अत्यधिक समानता मिलती है| बॉनपो जन कहते हैं कि बौद्ध धर्मियों को उनसे मिला और बौद्ध धर्मी कहते हैं कि बॉनपो जन ने उनसे लिया| दोनों ही पक्ष मूल स्रोत होने का दावा करते हैं| इसे तय कर पाना बहुत कठिन है| हम कैसे जान सकते हैं? 

बौद्ध धर्म बहुत पहले भारत से अफ़ग़ानिस्तान पहुंचा| वस्तुतः कहा जाता है कि बुद्ध के दो शिष्य अफ़ग़ानिस्तान से आए थे और वे बौद्ध धर्म वहाँ लेकर वापिस गए| पहली और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म ईरान पहुंचा और फिर मध्य-एशिया तक चला गया| बौद्ध धर्म वहाँ स्थापित हो गया| यदि बॉन का कहना है कि जो विचार बौद्ध धर्मी शिक्षाओं से मिलते जुलते हैं वे फारस प्रदेश से पश्चिमी तिब्बत में आए अर्थात सीधे भारत से आने से कहीं पहले तो यह बहुत संभव है कि यह बौद्ध धर्म और स्थानीय ईरानी सांस्कृतिक विचारों का सम्मिश्रण था जो उस इलाके में पहले से विद्यमान थे| वह इलाका जो ईरानी बौद्ध धर्मी विचारों का सबसे अधिक युक्ति संगत स्रोत प्रतीत होता है, वह खोतान है| 

खोतान  

खोतान पश्चिमी तिब्बत के उत्तर में स्थित है| जैसा कि आप जानते हैं तिब्बत बहुत ऊँचे पठार पर स्थित है जहाँ बहुत सी पर्वत श्रृंखलाएं हैं| जैसे-जैसे हम उत्तर दिशा में पठार की सीमा की ओर बढ़ते हैं वहाँ एक अन्य पर्वत श्रृंखला, समुद्र तल से नीचे पूर्वी तुर्किस्तान के नीचे एक रेगिस्तान की ओर जाती है, जिसे अब चीन का शीनज्यांग प्रान्त कहा जाता है| जैसे ही हम रेगिस्तान में प्रवेश करते हैं, खोतान उन्हीं पर्वतों की तलहटी में स्थित था| यह एक ईरानी सांस्कृतिक प्रदेश था जहाँ ईरानी लोग रहते थे| यह बौद्ध धर्म और व्यापार का एक विशाल केंद्र था| इसने तिब्बत पर एक उल्लेखनीय प्रभाव छोड़ा, यद्यपि तिब्बतवासी इसकी अवहेलना करते हुए कहते हैं कि उन्हें सब कुछ या तो भारत से मिला या फिर चीन से|

यहाँ तक कि तिब्बती लेखन शैली भी खोतानी वर्णमाला से बनाई गई है| तिब्बती सम्राट सॉन्गत्सेन-गम्पो     ने अपना एक मंत्री खोतान भेजा ताकि वह तिब्बती भाषा के लिए कोई लिपि ला सके| खोतान को जाने वाला व्यापार मार्ग कश्मीर से होकर जाता था और ऐसा हुआ कि जिस महान खोतानी आचार्य से मिलने के वे आकांक्षी थे वे कश्मीर में ही ठहरे हुए थे| इस प्रकार उन्हें कश्मीर में उनसे यह लिपि प्राप्त हुई और यह कहानी चल पड़ी कि तिब्बतवासियों को कश्मीर से लिपि प्राप्त हुई| यदि हम इस लिपि का विश्लेषण करें तो हम देख सकते हैं कि वस्तुतः इसका स्रोत खोतान है| निस्संदेह खोतानी शैली मूलतः भारत से आयी थी| बात यह है कि खोतान से बहुत से सांस्कृतिक तार जुड़े हुए थे| 

हम देख सकते हैं कि बॉन प्रस्तुति अत्यंत युक्तिसंगत प्रतीत होती है| निस्संदेह ऐसा भी हो सकता है कि यह खोतान से आई हो| इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि तिब्बत में बौद्ध धर्म दो दिशाओं: खोतान या ईरानी केन्द्रों से पश्चिमी तिब्बत में तथा परवर्ती वर्षों में भारत से आया| पहली स्थिति में, यह आरंभिक बॉन के रूप में आया हो| यह भी संभव है कि बौद्ध धर्म तथा विशेष रूप से जोग्चेन दोनों दिशाओं से आया तथा दोनों ने ही एक दूसरे से ग्रहण किया| संभवतः यह सत्य के अधिक निकट है|

ब्रह्माण्ड तथा उत्तर जीवन का विवरण 

बॉन का एक लक्षण ईरानी सांस्कृतिक मान्यता से उद्भूत है कि ब्रह्माण्ड का विवर्तन कैसे हुआ| बौद्ध धर्म में मेरु पर्वत सम्बन्धी अभिधर्म की शिक्षाएँ हैं, परन्तु यह एकमात्र कारण नहीं है| काल चक्र सम्बन्धी व्याख्याएँ भी हैं जो किंचित भिन्न हैं| बॉन धर्म ग्रंथों में भी अभिधर्म सम्बन्धी व्याख्याएँ हैं, जैसा कि बौद्ध धर्म में है, परन्तु उनकी अपनी कुछ निराली व्याख्याएँ भी हैं जिनके कुछ आयाम बहुत कुछ ईरानी प्रतीत होते हैं जैसे कि प्रकाश और अन्धकार के मध्य द्वैत भाव| कुछ रुसी विद्वानों ने तिब्बती और विभिन्न प्राचीन फारसी देवताओं और आकृतियों के नामों में समानताएँ देखी हैं| यहाँ वे ईरानी सम्बन्ध की ओर संकेत कर रहे हैं|

विलक्षण बात यह है कि बॉन में उत्तरजीवन पर बल दिया गया है, विशेष रूप से मध्यवर्ती अवस्था पर| जब राजाओं की मृत्यु होती थी तो वे एक उत्तरजीवन में प्रवेश करते थे क्योंकि उन्हें अपनी यात्रा के लिए कई चीजों की आवश्यकता होती थी| इसलिए पशु बलि और संभवतः मानव बलि भी की जाती थी, यद्यपि यह विवादास्पद है| निश्चित रूप से चित्र, खाद्य सामग्री तथा वह सब चीजें दफ़्न की जाती थीं जो किसी व्यक्ति को इस जीवन के बाद की यात्रा में चाहिए होती थीं | 

यह रोचक तथ्य है कि तिब्बती बौद्ध धर्म ने इस बीच की अवस्था पर बल दिया| भारतीय बौद्ध धर्म में अंतरा भाव का उल्लेख मिलता है परन्तु उस पर बहुत कम बल दिया गया है, यद्यपि तिब्बती बौद्ध धर्म में अंतरा भाव कर्म-काण्ड पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया| हमें फारसी संस्कृति में भी उत्तर जीवन के लिए की जाने वाली तैयारी पर बल देखने को मिलता है| आरंभिक बॉन में जिस पक्ष पर हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं वह है दफ़्न करने सम्बन्धी कर्म-काण्डों की प्रथा| मकबरों में जो कुछ भी पाया जाता है उससे पता चलता है कि उत्तर जीवन में उनका विश्वास था| इसे छोड़कर बाक़ी बातें अनुमान पर आधारित हैं| हम प्राचीन नरेशों के मकबरों की जांच-परख कर सकते हैं|

झांग-झुंग का प्रभाव मध्य तिब्बत के यारलंग इलाके तक पहुंचा और प्रारंभिक युग से लेकर सॉन्गत्सेन गम्पो द्वारा तिब्बत के पहले साम्राज्य की स्थापना तक रहा| उन्होंने विभिन्न देशों की राजकुमारियों से विवाह करके सम्बन्ध स्थापित किए| सब जानते हैं कि उन्होंने चीन तथा नेपाल की राजकुमारियों से विवाह किया| यद्यपि उन्होंने झांग-झुंग की राजकुमारी से भी विवाह किया| परिणामस्वरूप यह प्रथम तिब्बती साम्राज्य इन सभी संस्कृतियों से प्रभावित हुआ| 

तिब्बत में बौद्ध धर्म की पूर्ण शिक्षाओं का प्रभाव इस आरंभिक युग में नहीं हुआ और जो हुआ भी वह अत्यंत नगण्य था| यद्यपि, सम्राट ने “शक्ति केन्द्रों” पर बौद्ध पूजा स्थलों का निर्माण किया| तिब्बत को एक राक्षसी के रूप में देखा गया जो अपनी पीठ के बल पर लेटी हुई है और यह सोचा गया कि उसके एक्यूपंक्चर बिंदुओं पर पूजा स्थलों का निर्माण करके आसुरी शक्तियों का शमन किया जा सकता है| एक्यूपंक्चर बिंदुओं की कल्पना तथा आसुरी शक्तियों का शमन आदि चीनी अवधारणाएं प्रतीत होती हैं| तिब्बत में उस समय बौद्ध धर्म का यही रूप विद्यमान था| यहाँ प्रासंगिक बात यह है कि सम्राट सॉन्गत्सेन गम्पो द्वारा बौद्ध धर्म अंगीकार करने के बावजूद उससे पहले से चले आ रहे बॉन दफ़्न कर्म-कांड जो यारलंग में प्रचलित थे वे निभाये जाते रहे| स्पष्ट है कि ऐसा उसकी झांग-झुंग निवासी रानी द्वारा किया गया| अतः दफ़्न से जुड़े कर्म-काण्ड जिनमें बलि इत्यादि शामिल थी आरंभिक बौद्ध धर्मी युग में जारी रहे| 

बॉनपो जन का निर्वासन 

760 वर्ष पहले सम्राट सॉन्गत्सेन ने भारत से गुरु रिनपोशे पदमसंभव को आमंत्रित किया| उन्होंने पहले मठ साम्ये का निर्माण किया और मठ परंपरा की नींव रखी| साम्ये में उनका एक अनुवाद ब्यूरो था जो न केवल भारतीय और चीनी भाषाओं से बल्कि झांग-झुंग से भी अनुवाद कार्य चलाता था| ज़ाहिर है कि झांग-झुंग  भाषा उस समय तक लिखित भाषा बन चुकी थी| तिब्बती भाषा की दो लेखन शैलियाँ हैं| सम्राट सॉन्गत्सेन गम्पो ने मुद्रित प्रणाली खोतान से प्राप्त की थी| कुछ महान विद्वानों जैसे नाम्खई नोर्बू रिनपोशे द्वारा किए गए अनुसंधान के अनुसार झांग-झुंग की एक पूर्ववर्ती लेखन शैली भी थी जो कि तिब्बती भाषा के हस्तलिखित रूप का आधार थी| साम्ये में वे लोग बॉन ग्रंथों का अनुवाद झांग-झुंग की अपनी लिपि से तिब्बती भाषा में संभवतः दफ़्न धार्मिक अनुष्ठान के अवसर के लिए करते थे|

साम्ये में भारत और चीनी बौद्ध धर्म के बीच एक प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ, फिर 779 में एक धर्म परिषद् का गठन हुआ और बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया गया| निस्संदेह इसमें बहुत अधिक राजनैतिक बातें अंतर्लिप्त रही होंगी| इसके शीघ्र पश्चात 784 में बॉन गुट का उत्पीड़न आरम्भ हो गया| यहीं से वैमनस्य आरम्भ हुआ| इसका विश्लेषण करना आवश्यक है| वास्तव में क्या चल रहा था?

शाही राज-दरबार में एक चीन-समर्थक गुट था, एक भारत-समर्थक गुट था और एक परम रूढ़िवादी गुट जो बाहरी लोगों के प्रति भयमिश्रित घृणा भाव से भरा हुआ था| सम्राट त्रि सॉन्गत्सेन के पिता की एक चीनी रानी थी जिसका उन पर बहुत प्रभाव था और परिणामस्वरुप उनके पिता की बहुत सी नीतियाँ चीन के पक्ष में थीं| रूढ़िवादी गुट ने पिता की हत्या कर दी| मेरे विचार में यह भी एक कारण है कि चीनी शास्त्रार्थ में पराजित हो गए| वैसे भी उनके शास्त्रार्थ में विजयी होने की कोई सम्भावना नहीं थी| चीनियों के यहाँ शास्त्रार्थ की कोई परंपरा नहीं थी और उस पर उनका सामना भारत के सर्वश्रेष्ठ शास्त्रार्थ-कर्ता से था| उनकी भाषा एक नहीं थी, तो उन्होंने किस भाषा में शास्त्रार्थ किया होगा? उस सबका अनुवाद हो रहा था| स्पष्ट है कि चीनी गुट से पिंड छुड़ाने की यह एक राजनैतिक चाल थी| चीनियों के कारण सम्राट के पिता की हत्या हुई थी| इसके अतिरिक्त सम्राट विदेश-विद्वेषी गुट से भी पीछा छुड़ाना चाहता था| सम्राट की राजनैतिक सत्ता के लिए भारतीय गुट से सबसे कम ख़तरा था| अतः रुढ़िवादी राजनैतिक गुट को निर्वासित कर दिया गया| यही बॉनपो जन थे|

यहाँ उलझन में डालने वाली बात यह है कि लोग यह कहते हैं कि बॉनपो राजदरबार में दफ़्न धर्म अनुष्ठान कर रहे थे| ये वे बॉनपो नहीं थे जिनको निर्वासित कर दिया गया था| जिन बॉनपो जन का निर्वासन हुआ वे रूढ़िवादी मंत्री एवं राजनैतिक हस्तियाँ थीं जिन्हें बाहर खदेड़ दिया गया| रोचक बात यह है कि दफ़्न धर्म अनुष्ठान और बलि प्रथा उनके निर्वासन के बाद भी चलती रही| चीन के साथ हुई 821 की एक संधि के अनुस्मारक के रूप में एक स्तम्भ स्थापित किया गया जिसमें धर्म अनुष्ठानों का विवरण था| वे पशु बलि देते थे| यद्यपि अब शाही दफ़्न संस्कार नहीं होते थे फिर भी उनका कुछ प्रभाव शेष था| मुझे लगता है यह समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि बौद्ध धर्मियों और बॉनपो जन के मध्य घृणा और वैमनस्य का भाव राजनैतिक प्रकृति का था; उसका सम्बन्ध धर्म अथवा धार्मिक अनुष्ठानों से नहीं था|  

रूढ़िवादी गुट को दो स्थानों पर भेजा गया| पहला था आज के दक्षिण पश्चिम चीन, उत्तरी बर्मा का युन्नान इलाका तथा दूसरा था उत्तर पश्चिम पाकिस्तान में स्थित गिलगिट, उस स्थान के बहुत समीप जहाँ से गुरु रिनपोशे आए थे| हम परिणाम निकाल सकते हैं कि बॉनपो जन ने जोग्चेन की कुछ शिक्षाएँ उस इलाके से प्राप्त की जहाँ गुरु रिनपोशे उनसे मिले भी थे| यह भी संभव है कि गुरु रिनपोशे से अलग बॉनपो जन उन्हें बाद में तिब्बत लाए हों| बॉनपो जन की जोग्चेन परंपरा का गुरु रिनपोशे से प्राप्त बौद्ध धर्मी परंपरा से भिन्न होने के बहुत से संभावित कारण हो सकते हैं| ऐसा नहीं है कि किसी ने ऐसा कह दिया और इसलिए वह सच हो गया| हमें इतिहास पर दृष्टि डालनी पड़ती है| 

बॉन ग्रंथों की दफ़्न निधि  

निर्वासन के समय बहुत से झांग-झुंग ग्रंथों को मठ की दीवारों में एक महान आचार्य द्रेंपा-नामका द्वारा दबा दिया गया था| गुरु रिनपोशे भी उसी समय ग्रंथों को दफ़्न कर रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि अभी वह समय नहीं आया और लोग इतने परिष्कृत नहीं थे कि उन्हें समझ सकें | उन्होंने केवल जोग्चेन ग्रंथों को ही दफ़्न किया| बॉनपो जन ने जोग्चेन सहित सभी बॉन शिक्षाओं को दफ़्न कर दिया| अतः जबकि बॉनपो तथा न्यिंगमा दोनों ही एक ही समय पर ग्रंथों को दफ़्न कर रहे थे तथापि वैसा करने के कारण तथा दफ़्न किए गए ग्रन्थ पर्याप्त भिन्न थे|

अगले तिब्बती सम्राट, रालपचेन कट्टरपंथी थे| उन्होंने आदेश दिया कि प्रत्येक भिक्षु 7 परिवारों की देखभाल करें| बहुत से कर मठों की देखभाल करने के लिए उस ओर लगा दिए गए| धर्म परिषद् में भिक्षुओं के पास अत्यधिक राजनैतिक सत्ता आ गई थी| परवर्ती सम्राट लांगदर्मा को पापात्मा के रूप में चित्रित किया जाता है क्योंकि उसने धर्म परिषद् का उत्पीड़न किया तथा मठों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कर समाप्त कर दिए| उसने मठों को विघटित कर दिया, परन्तु उसमें ग्रंथालयों को बना रहने दिया| हमें यह इसलिए ज्ञात है क्योंकि जब ग्यारहवीं शताब्दी में तिब्बत में अतिश आए तो उन्होंने कहा कि वहाँ के ग्रंथालय अत्यंत भव्य थे| मूलतः लांगदर्मा ने मठीय संस्थानों को इसलिए विघटित किया क्योंकि वे राजनैतिक रूप से बहुत शक्तिशाली होते जा रहे थे| तो ऐसा समय आया जब मठ उजड़ गए|

साम्ये में दफ़्न किए गए बॉन ग्रन्थ 913 में पाए गए| कुछ गडरिए मठ में रह रहे थे और एक दिन जब वे एक दीवार से टिककर खड़े हुए तो वह टूटकर ढह गई जिसमें से कुछ ग्रन्थ निकले| शेनचेन लुगा नामक महान बॉनपो आचार्य को बॉन ग्रंथ बहुत बड़ी संख्या में लगभग एक शताब्दी पश्चात मिले| 1017 में, उन्होंने उन्हें संहिताबद्ध किया| इनमें से अधिकांश जोग्चेन-इतर सामग्री थी जिसमें तिब्बती बौद्ध धर्म से मिलती-जुलती शिक्षाएँ थीं| इसके बाद ही न्यिंगमा जन ने साम्ये तथा अन्य मठों में ग्रन्थ खोजना आरम्भ किया| बहुत से आचार्यों को उसी स्थल पर बॉन तथा न्यिंगमा ग्रन्थ मिले| न्यिंगमा ग्रन्थ अधिकांशतः जोग्चेन सम्बन्धी थे| यहाँ   अधिक सुदृढ़ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मिलती है जब हम नव बॉन युग पर विचार करते हैं, चूँकि पुरातन युग निर्वासन और ग्रन्थ दफ़्न किए जाने से पहले हुआ|

बॉन तथा तिब्बती बौद्ध धर्म में तुलना 

हम देखते हैं कि बॉन तथा तिब्बती बौद्ध धर्मी परंपराओं में पर्याप्त समानताएँ  हैं| यही कारण है कि परमपावन बॉन को पांच परंपराओं में से एक मानते हैं| बॉनपो जन इसे पसंद नहीं करेंगे, परन्तु हम उन्हें तिब्बती बौद्ध धर्म का एक रूप मान सकते हैं| यह इस पर निर्भर करता है कि हम बौद्ध धर्मी परंपरा को किस प्रकार परिभाषित करते हैं| अधिकांश पारिभाषिक शब्दावली समान है| बॉन ज्ञानोदय, ज्ञानोदय सिद्धि, बुद्ध जन इत्यादि की चर्चा करते हैं| कुछ पारिभाषिक शब्द तथा देवी-देवताओं के नाम अवश्य भिन्न हैं, परन्तु मूलभूत शिक्षाएँ वही हैं| कुछ बहुत मामूली-सा अंतर है जैसे प्रदक्षिणा करते हुए बायें से दायें घूमने के स्थान पर दायें से बायें घूमना| आनुष्ठानिक टोप भिन्न प्रकार का है| भिक्षुओं के चीवर बिलकुल एक जैसे हैं सिवाय इसके कि इनके चीवर का ऊपरी भाग नीला है जबकि उनका लाल या पीला|

बॉन परंपरा में ठीक तिब्बती बौद्ध धर्मी परंपरा की भांति शास्त्रार्थ विद्यमान है| शास्त्रार्थ की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है, अतः हमें फिर से सोचना होगा कि इसका सूत्रपात किसने किया| निश्चित रूप से भारतीय मठों में तिब्बत की तुलना में बहुत पहले से यह पाया जाता है| यद्यपि, हो सकता है कि तिब्बती बौद्ध धर्मी परंपरा में यह बॉन के माध्यम से आया हो| दूसरी ओर, यह आवश्यक नहीं कि किसी एक ने दूसरे की नक़ल की हो| 

यह रोचक बात है कि बॉनपो शास्त्रार्थ परंपरा बहुत हद तक गेलुग शास्त्रार्थ परंपरा का पालन करती है| यहाँ तक कि बहुत से बॉनपो भिक्षु गेलुग मठों में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं तथा गेशे उपाधि प्राप्त करते हैं| इसका यह अर्थ हुआ कि यद्यपि बॉन में जोग्चेन है तथापि माध्यमिका न्यिंगमा की तुलना में गेलुग व्याख्या के अधिक निकट है| अन्यथा वे गेलुग शास्त्रार्थ में भाग नहीं ले सकते थे| बॉन तथा तिब्बती बौद्ध धर्म के मध्य समानताएँ अनन्य रूप से न्यिंगमा के सन्दर्भ में ही नहीं हैं| ऐसा नहीं कि भिन्न नामों के साथ वे न्यिंगमा की प्रतिकृति मात्र हों| यह कहीं अधिक जटिल है|

बॉन विभिन्न परंपरागत भारतीय शास्त्रों पर बल देते हैं जिनका वे बौद्ध धर्मी मठों की तुलना में कहीं अधिक सघन अध्ययन करते हैं जैसे चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, छंद, इत्यादि| बौद्ध धर्मी मठों में इन विषयों पर पूर्वी तिब्बत में स्थित अम्दो में मध्य तिब्बत की तुलना में अधिक बल दिया जाता है| 

बॉन तथा तिब्बती बौद्ध धर्म में मठ तथा मठीय संवरों की व्यवस्था है| यह अत्यंत रोचक बात है कि यद्यपि दोनों परंपराओं में बहुत से संवर एक समान हैं परन्तु बॉन में कुछ ऐसे संवर हैं जिनकी बौद्ध धर्मियों से अपेक्षा की जाती है लेकिन वे उनका पालन नहीं करते| उदाहरण के लिए, बॉनपो जन शाकाहारी होने का संवर ग्रहण करते हैं| बौद्ध धर्मी ऐसा नहीं करते| बॉन नैतिकता में बौद्ध धर्मियों की तुलना में अधिक कड़े नियमों के पालन की अपेक्षा होती है|    

बॉन में तुल्कु व्यवस्था है जो कि बौद्ध धर्मी मठों के समान है| उनके यहाँ गेशे होते हैं| उनके यहाँ   प्रज्ञापारमिता, माध्यमिका, अभिधर्म जैसे विभाजन होते हैं जो हमें बौद्ध धर्मी ग्रंथों में मिलते हैं| उनकी शब्दावली तथा प्रस्तुतिकरण में किंचित भेद है परन्तु यह उतना भिन्न नहीं है जितना कि दो प्रकार की बौद्ध धर्मी परंपराओं के बीच मिलता है| उदाहरण के लिए इस सृष्टि के निर्माण के सन्दर्भ में बॉन जन कुछ अलग विवरण देते हैं परन्तु कालचक्र में भी एक निराला विवरण मिलता है| यह सामान्य बात है| बॉन इतना विलग नहीं है|

तिब्बती संस्कृति एवं मूलभूत शिक्षाएँ 

मेरे विचार में बौद्ध धर्म के उन पक्षों को अलग से समझना आवश्यक है जिन्हें बॉन ने अपनाया, जो स्थानीय तिब्बती दृष्टिकोण को प्रतिच्छदित करते हैं ताकि हमें तिब्बती संस्कृति एवं बौद्ध धर्म के मूलभूत रूप का स्पष्ट बोध हो सके| यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम सांस्कृतिक पक्ष को बॉन की मूलभूत शिक्षाओं से अलग करके समझें|

सभी तिब्बती बौद्ध धर्मी परंपराओं ने रोगहरण की चार प्रक्रियाएँ पूर्णतः अपनायीं| जब कोई रोगी आता है तो सबसे पहले एक पासा फेंका जाता है जो भविष्य कथन की पद्धति है| यह बॉन परंपरा है| प्राचीनकाल में यह पासों से नहीं किया जाता था जैसा कि आजकल सामान्य रूप से किया जाता है| वे लोग एक रस्सी में बहुत सी गांठें लगाकर यह किया करते थे| पासा बताता है कि कहीं पिशाच तो रोग का कारण नहीं है और यदि है तो किस अनुष्ठान द्वारा उसे तुष्ट किया जा सकता है| दूसरे, ज्योतिष का सहारा लिया जाता है यह तय करने के लिए कि अनुष्ठान करने के लिए सबसे प्रभावी समय कौन-सा रहेगा| ज्योतिष का प्रयोग चीनी तत्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, धातु तथा काष्ठ के आधार पर किया जाता है| तीसरे, ये अनुष्ठान ऊपरी असर को दूर करने के लिए आयोजित किए जाते हैं| इसके पश्चात, चौथे चरण में, वह व्यक्ति औषध ग्रहण करता है|

बौद्ध धर्म तथा बॉन के यहाँ अनुष्ठान सम्बन्धी सिद्धांत किंचित भिन्न हैं| बौद्ध धर्मी दृष्टिकोण से हम कर्म साधना करते हैं और बाह्य स्थितियों को कर्म का प्रतिरूप मानते हैं| कोई अनुष्ठान या पूजा रचनात्मक कार्मिक संभाव्यताओं को सक्रिय करती है| बॉन बाह्य शक्तियों तथा आतंरिक कार्मिक स्थिति में सामरस्य स्थापित करने पर बल देता है|

दोनों ही मामलों में इन पूजाओं में आरोग्य के लिए तोरमा का उपयोग होता है जो प्राचीन बलि अनुष्ठान का सुधरा हुआ रूप है| तोरमा जौ के आटे से, छोटे पशुओं की आकृति में गूंथकर बनाए जाते हैं और उनका प्रयोग बलि के बकरे के रूप में किया जाता है जो कि निस्संदेह बॉन से उद्भूत है| उन्हें पिशाचों को अर्पित किया जाता है: “इसे ग्रहण कीजिए तथा रोगी को अकेला छोड़ दीजिए|”

यह बलि का प्रसंग बहुत रोचक है| बॉनपो कहते हैं, “हमने ऐसा नहीं किया, यह तो पहले से तिब्बती परंपरा में चला आ रहा है|” बौद्ध धर्मी कहते हैं, “यह तो बॉन का था, हमने ऐसा नहीं किया|” स्पष्ट है, सब अस्वीकार करना चाहते हैं कि उन्होंने इस प्रकार बलि चढ़ाई जबकि निश्चित रूप से बलि प्रथा रही होगी| मिलरेपा ने उल्लेख किया है कि उनके समय में वे प्रचलित थीं| यहाँ तक कि अभी हाल में 1974 में जब परमपावन दलाईलामा ने पहली बार बोधगया में कालचक्र दीक्षा संस्कार किया तो उन्होंने तिब्बत के सीमावर्ती प्रदेश से आने वाले लोगों से अत्यंत दृढ़तापूर्वक कहा कि वे पशु बलि की प्रथा को समाप्त करें| यह प्रथा बहुत समय से हमारे साथ चलती आयी है|

बॉनपो के धार्मिक अनुष्ठानों में तथा कई बौद्ध धर्मी धार्मिक अनुष्ठानों में भी विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों का प्रयोग होता है| यह ईरानी बॉनपो दफ़्न अनुष्ठानों के समय से चला आ रहा है जब मृत व्यक्ति के साथ उसके मकबरे में बहुत-सी चीज़ें रखी जाती थीं|

तिब्बती बौद्ध धर्म में बॉन से एक अन्य चीज़ ली गई है जो है “दिक्काल सामरस्य जाल”| रंग-बिरंगी डोरियों से मकड़ी के जाले जैसी एक छवि बनाई जाती है जो कि पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करती है| इसके पीछे यह विचार है कि आतंरिक तत्वों या कर्म पर ध्यान देने से पहले हमें बाह्य तत्वों में सामरस्य स्थापित करना होगा| शकुन विचार के अनुसार एक जाल का नमूना तैयार करके उसे बाहर टांग दिया जाता है| कभी-कभी इन्हें जीवात्मा हरणकर्ता कह देते हैं परन्तु उनका रूप कुछ भिन्न है| उनका काम तत्वों में सामरस्य स्थापित करना और प्रेतात्माओं से अनुरोध करना है कि वे हमें अकेला छोड़ दें| यह बहुत कुछ तिब्बती संस्कृति जैसा है| 

बॉन तथा बौद्ध धर्म में पाए जाने वाली जीवात्मा (ब्ला) की अवधारणा मध्य एशियाई तुर्की क़त की अवधारणा, पर्वत की आत्मा से आई| एक विशिष्ट पवित्र पर्वत के आस-पास जिसने भी इस इलाके में शासन किया वह खान अर्थात तुर्कों का और बाद में मंगोलों का शासक रहा| राजा वह व्यक्ति था जो क़त अथवा जीवात्मा का मूर्त स्वरुप था| वह दैवीय शक्ति संपन्न था और इसीलिए शासक बना|

किसी की जीवात्मा पिशाच चुरा सकते हैं| सभी तिब्बती बौद्ध धर्मी परंपराओं में प्रेतात्माओं द्वारा चुरायी गई जीवात्मा को वापिस लेने के लिए पूजाओं की व्यवस्था है| इसके लिए तोरमा की फिरौती दी जाती है यह कहते हुए कि मेरी जीवात्मा वापिस कर दो| आपको कैसे पता चलता है कि आपकी जीवात्मा चोरी हो गई है? पश्चिमी दृष्टिकोण से तो, संभवतः हम इसे तंत्रिका अवसाद अथवा मनोविकार कहेंगे जिसमें कोई व्यक्ति जीवन की कठिनाईयों का सामना नहीं कर पाता| जिस व्यक्ति की जीवात्मा चोरी हो जाती है वह अपने जीवन को संभाल नहीं पाता या पाती| यह जीवात्मा हमारे जीवन को शासित करती है जैसे ख़ान देश का शासक होता है| तिब्बती भाषा में जीवात्मा शब्द के लिए “ला” का प्रयोग होता है जैसा कि लामा शब्द में होता है| लामा ऐसा व्यक्ति होता है जो वास्तव में जीवात्मा धारण करता है| ला का प्रयोग कुछ अन्य सन्दर्भों में श्वेत बोधिचित्त का अनुवाद करने के लिए भी होता है, अतः हमारे शरीर के भीतर यह अत्यंत शक्तिशाली भौतिक बल अथवा सत्त्व होता है|

फिर एक समृद्धि आत्मा भी होती है| यदि वह सशक्त है तो सब कुछ ठीक चलेगा और हम समृद्ध होंगे| इसके लिए तिब्बती शब्द “यांग” है| चीनी भाषा में “यांग” का अर्थ भेड़ होता है| तिब्बती नववर्ष, लोसार के दिन भेड़ का सिर और भुने हुए जौ के आटे से बनाया गया भेड़ का सिर खाया जाता है| यह समृद्धि का प्रतीक है| यह स्पष्ट रूप से प्राचीन बॉन अनुष्ठान का प्रभाव है|

विनय पताकाओं की अवधारणा भी बॉन से आई| ये पंचतत्वों के पांच रंगों के होते हैं और बाह्य तत्वों में समरसता स्थापित करने के लिए लटकाए जाते हैं ताकि उनमें संतुलन बना रहे और हम आंतरिक उद्यम कर सकें| अनेक विनय पताकाओं पर पवन तुरंग की आकृति बनी रहती है जो भाग्य तुरंग से सम्बद्ध है| चीन वह पहला देश था जहाँ डाक व्यवस्था विकसित हुई, जहाँ डाकिये घोड़ों पर चढ़कर जाते थे| ऐसे स्थल थे जहाँ वह रुकते और अपने घोड़े बदलते| ये डाक के घोड़े पवन तुरंग थे| चीनी भाषा में भी इन्हीं शब्दों का प्रयोग हुआ है| इसके पीछे यह विचार है कि सौभाग्य घोड़े पर चढ़कर आएगा जैसा कि डाकिये आते हैं जो चीजें, पत्र, धन, इत्यादि लाते हैं| यह तिब्बती/चीनी परंपरा से मिलता-जुलता है|

बॉन चिकित्सा पद्धति के कुछ पक्ष बौद्ध धर्म से आए जैसे एक पंख से पवित्र जल छिड़कना| सभी बौद्ध धर्मी अभिषेक अनुष्ठानों में एक फूलदान में मोर का पंख रखा जाता है| किसी आने वाले का अभिवादन करने के लिए पहाड़ों की चोटियों पर आरार वृक्ष की पत्तियाँ और टहनियाँ जलाई जाती हैं जिन्हें तिब्बती भाषा में सांग कहते हैं| वे लोग इसे सड़क के किनारे पर करते हैं जब परमपावन धर्मशाला वापिस लौटते हैं| यह स्थानीय आत्माओं को चढ़ावे के रूप में किया जाता है|

तिब्बती बौद्ध धर्म में देव वाणी पर दिया जाने वाला बल प्रायः शमनवाद  से जोड़कर देखने की भ्रान्ति हो जाती है परन्तु देव वाणी और शमन पर्याप्त भिन्न हैं| देव वाणी एक ऐसी आत्मा है जो किसी के माध्यम से बोलती है| यह सरणीकरण है| साइबेरिया, तुर्किस्तान, अफ्रीका, आदि में पाए जाने वाले शमन हैं| ये वे लोग हैं जो भाव-समाधि में पहुंचकर विभिन्न लोकों में चले जाते हैं और विभिन्न आत्माओं प्रायः पूर्वजों की आत्माओं से बोलते हैं| आत्मा उनके विभिन्न प्रश्नों का उत्तर देती है| जब शमन भाव-समाधि से बाहर आते हैं तो वे पूर्वजों का सन्देश देते हैं| इसके विपरीत किसी माध्यम के पास उस बात की स्मृति नहीं होती कि देव वाणी ने उसके माध्यम से क्या कहा| देव वाणी संरक्षकों से जुड़ जाती है| नेचंग देव वाणी को संरक्षक नेचंग भी कहा जाता है| वस्तुओं के विभाजन में शमनवाद की झलक दिखाई देती है जो पृथ्वी पर, पृथ्वी के ऊपर तथा पृथ्वी के तल में व्याप्त हैं, जो बॉन सामग्री में प्रचलित था और बाद में बौद्ध धर्म में आया|

बुद्ध ने अनेक विषयों पर विस्तृत शिक्षाएँ दीं| ऐसे में बौद्ध धर्म जहाँ भी पहुंचा लोगों ने उन्हीं तत्त्वों पर बल दिया जो उनकी संस्कृति से मेल खाते थे| भारतीय बौद्ध धर्म में पवित्र भूमि का उल्लेख है परन्तु आगे जाकर इस पर बल नहीं दिया गया| चीनी लोगों में दाओवाद (ताओवाद) के अनुसार अनश्वर जीवों के पश्चिमी क्षेत्र में जाने की अवधारणा की, उन्होंने पवित्र भूमि पर अत्यंत बल दिया और उसका विस्तार किया| इस प्रकार हमें पवित्र भूमि बौद्ध धर्म प्राप्त हुआ| यह चीनी बौद्ध धर्म की एक अत्यंत महत्वपूर्ण परंपरा है| इसी प्रकार, भारतीय बौद्ध धर्म के भीतर, हम विभिन्न आत्माओं के संरक्षकों, अर्पण पूजाओं आदि का उल्लेख पाते हैं, परन्तु तिब्बतवासियों ने इन बातों को बहुत अधिक फैलाया क्योंकि ये उनकी संस्कृति में भी पायी जाती थीं| 

सारांश 

मेरे विचार में बॉन परंपरा के प्रति सम्मान भाव रखना अत्यंत आवश्यक है| ऐसी बहुत सी बातें हैं जो बॉन अथवा तिब्बती लगती हैं परन्तु वे पूरी तरह तिब्बती बौद्ध धर्म जैसी नहीं हैं| बुद्ध की शिक्षाओं में ऐसे बहुत से तत्व है जो कि बॉन में भी पाए जाते हैं| इस विवाद में पड़ना निरर्थक है कि किसने किसकी नक़ल की| बौद्ध धर्म एवं बॉन का परस्पर संपर्क रहा और निश्चित रूप से उन्होंने एक-दूसरे को प्रभावित किया होगा|

यह समझना आवश्यक है कि बॉनपो जन को बुरा बताना, एक प्रकार से राजनीतिक है, जो कि उनके 8वीं शताब्दी से परम रूढ़िवादी होने का अवशेष है| दूसरी ओर, यह मनोवैज्ञानिक है- जो लोग अपने अच्छे पक्ष पर बहुत बल देते हैं वे अपने बुरे पक्ष को किसी दूसरे व्यक्ति पर डाल देते हैं| यह संलक्षण विशेषतया कट्टरपंथी बौद्ध परंपराओं में पाया जाता है जिसमें परम गुरु भक्ति एवं किसी संरक्षक पर अत्यधिक बल दिया जाता है| यह संरक्षक बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है| धर्म ग्रंथों में धर्म अथवा परंपरा विरोधियों के लिए अत्यंत भयावह बातें लिखी गई हैं| अपने विरोधियों को कुचल दो, उन्हें पददलित करो, उनकी आँखें नोंच डालो, आदि| मेरे विचार में परमपावन के उदाहरण का पालन करना अधिक उपयुक्त होगा जो कि पांच तिब्बती परम्पराओं की चर्चा करते हैं जिनमें से प्रत्येक ज्ञानोदय के पूर्णतः वैध मार्गों की शिक्षा देती हैं| उनमें बहुत सी बातें एक जैसी हैं और वे उसी लक्ष्य, ज्ञानोदय तक पहुँचने की चर्चा करती हैं|

जो बातें उनमें समान हैं, उनमें कुछ ऐसी हैं जो तिब्बती संस्कृति में देखी जा सकती हैं और अन्य जो अधिक बौद्ध धर्मी हैं| यह हम पर निर्भर है कि हम किसका पालन करना चाहते हैं| यदि हमें तिब्बती संस्कृति स्वीकार्य है तो बढ़िया है, वैसा ही करें, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं है| यदि हम मूल बौद्ध धर्म और तिब्बती तत्वों में विभेद कर सकते हैं तो हम स्पष्ट रूप से जान पाएंगे कि हम किसका पालन कर रहे हैं| बौद्ध धर्म में हम शुद्धतावादी नहीं हो सकते| यहाँ   तक कि भारतीय बौद्ध धर्म भी भारतीय संस्कृति के अनुकूल था| हम बौद्ध धर्म को उस समाज से विलग नहीं कर सकते जहाँ उसकी शिक्षा दी गई, परन्तु हमें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि संस्कृति क्या है तथा चार आर्य सत्य, ज्ञानोदय का मार्ग, बोधिचित्त इत्यादि क्या हैं|     

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