बोधिचित्त के विकास के लिए निर्देश तथा परामर्श

बोधिचित्त का विकास संन्यास से प्रारम्भ होता है, जो करुणा का आधार है। करुणा को विकसित करने के लिए चित्त और हृदय को निर्मल एवं प्रशिक्षित करना आवश्यक है। मार्ग पर आने वाले क्रोध एवं अहंकार की विपत्तियों से बचने की आवश्यकता है, जो हमारी साधना को हानि पहुँचा सकती हैं। जब हम बोधिचित्त के समर्पित हृदय को विकसित करते हैं, तो हमारे भीतर बुद्धजन की भाँति ज्ञानोदय युक्त अवस्था को प्राप्त करने की आकांक्षा उत्पन्न होती है, ताकि हम समस्त जीवों की सहायता करने की क्षमता पा सकें। तत्पश्चात हम उन सभी अभ्यासों का पालन करते हैं जिससे ज्ञानोदय एवं परहित की क्षमता की प्राप्ति होती है। इन अभ्यासों को षट्पारमिता कहते हैं।
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