“चित्त साधना के आठ छंद” की व्याख्या – दलाई लामा

कभी-कभी हमारा सामना अत्यंत नकारात्मक लोगों से होता है, या लोग हमपर अकारण चिल्लाते हैं, या जिन लोगों की हमने सहायता की है वे कृतघ्न हो जाते हैं। यदि हम उन लोगों पर क्रोध करते हैं और उनसे परेशान हो जाते हैं तो हम किसी भी प्रकार की सहायता करने की क्षमता खो बैठते हैं। परन्तु चित्त साधना की विधियों से हम उनके प्रति अपनी मनोदृष्टि बदल सकते हैं ताकि हम न केवल शांत रह पाएँ अपितु दूसरों की सहायता करने में भी सक्षम हो पाएँ। कदम्पा गेशे लांगरी तांग्पा का ग्रन्थ, "चित्त साधना के आठ छंद", या मनोदृष्टि साधना, इस बात को विस्तारपूर्वक समझाता है कि हम किस प्रकार अपने चित्त को उन विधियों एवं ज्ञान से प्रशिक्षित कर सकते हैं जिसके द्वारा, जब हम परेशान होने लगें, तो अपनी मनोदृष्टि को बदल सकते हैं। पहले सात श्लोक विधि से सम्बंधित हैं - नामतः प्रेमपूर्ण दया और बोधिचित्त - और आठवाँ ज्ञान एवं प्रज्ञा से सम्बंधित है।

छंद 1: सभी सत्त्व इष्ट-पूरक रत्नों से श्रेष्ठतर हैं

ऐसा हो कि इस बात पर विचार करते हुए, कि सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इष्ट-पूरक रत्नों की तुलना में सीमित सत्त्व कितने श्रेष्ठ हैं, मैं सदा सभी सीमित सत्त्वों का सम्मान कर पाऊँ।

हम स्वयं और अन्य सभी सत्त्व केवल सुख चाहते हैं और कष्टों से पूर्ण मुक्ति। इस अर्थ में हम सब बिल्कुल समान हैं। परन्तु हम में से प्रत्येक जन केवल एक व्यक्ति है, जबकि अन्य सत्त्व संख्या में अनंत हैं।

अब, दो मनोदृष्टियाँ हैं जिनपर हम विचार कर सकते हैं: केवल अपनेआप से स्वार्थवश प्रेम करना, अथवा दूसरों को प्रेम देना। आत्मपोषक मनोदृष्टि हमें अति संकीर्ण बना देती है। हमें लगता है कि हम अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं और हमारी मूल इच्छा यह है कि हम स्वयं सुखी रहें और सबकुछ हमारे अनुकूल रहे। फिर भी हम यह नहीं जानते कि इसे किस प्रकार कार्यान्वित किया जाए। वास्तव में आत्म-पोषणार्थ किए गए कृत्य हमें कभी भी सुख नहीं दे सकते। दूसरी ओर, जो दूसरों की कद्र करने की मनोदृष्टि रखते हैं, वे सबको अपने से बढ़कर महत्त्वपूर्ण मानते हैं और दूसरों की सहायता करना सर्वोपरि मानते हैं। और इस प्रकार कार्य करते हुए वे स्वयं प्रसंगवश सुखी हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए, वे राजनेता जो दूसरों की निष्कपट भाव से सहायता करने या उनकी सेवा करने से मतलब रखते हैं, इतिहास में उनका नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है, जबकि जो लगातार शोषण करते हैं और दूसरों को तंग करते हैं, वे लोग भयानक लोगों के उदाहरण के रूप में कुख्यात हो जाते हैं। अब, थोड़े समय के लिए धर्म, आगामी जीवनकाल, और निर्वाण को एक ओर रखते हैं, और इस बात को देखते हैं कि हमारे वर्तमान जीवनकाल में ही ऐसे स्वार्थी लोग हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं नकारात्मक प्रभाव झेलते हैं। दूसरी ओर, मदर तेरेसा जैसे लोग हैं जो अपने जीवन और ऊर्जा को निर्धन, अभावग्रस्त, और निस्सहाय लोगों की निस्वार्थ सेवा में पूरी तरह समर्पित करते हैं, और जिन्हें उनके नेक कामों के लिए सम्मान के साथ सदा याद किया जाता है। किसी के पास इन जैसे लोगों के बारे में कहने के लिए कुछ भी नकारात्मक नहीं होता।

तो यह है दूसरों की कद्र करने का परिणाम: हम चाहें या न चाहें, जो हमारे रिश्तेदार नहीं हैं वे भी हमेशा हमसे प्यार करते हैं, हमारे साथ रहकर उन्हें सुख मिलता है, और हमारे प्रति स्नेहमयी भावना रखते हैं। यदि हम ऐसे व्यक्ति हैं जो सदा दूसरों के सामने मीठी-मीठी बातें करते हैं, परन्तु उनके पीठ पीछे उनकी बुराइयाँ करते हैं, तो निश्चित रूप से कोई भी हमें पसंद नहीं करेगा। तो, इस जीवन में भी यदि हम दूसरों की यथासंभव सहायता करने का प्रयास करें, और कम-से-कम स्वार्थी विचार पालें, तो हमें बहुत अधिक सुख का अनुभव होगा।

हमारी आयु बहुत लम्बी नहीं है; बहुत-से-बहुत 100 वर्ष। उस दौरान यदि हम दयालु, स्नेहिल, दूसरों के कल्याण के लिए चिंतित, और कम स्वार्थी और क्रोधित रहने का प्रयास करते हैं, तो यह बहुत अच्छा होगा, बहुत बढ़िया होगा। यही वास्तव में सुख का कारण है। यदि हम स्वार्थी हैं, सदा अपनेआप को पहले रखकर अन्य लोगों को दूसरे स्थान पर रखते हैं, तो वास्तव में परिणाम यह होगा कि हमारी बारी सबसे बाद में आएगी। मानसिक रूप से अपनेआप को अंतिम रखने और दूसरों को आगे बढ़ाने से लाभ यह होगा कि हम पहले हो ही जाएँगे। तो अगले जन्म या निर्वाण की चिंता न करें; ये सब धीरे-धीरे ही होगा। इस जीवनकाल में यदि हम अच्छे, स्नेहिल, निःस्वार्थ व्यक्ति बने रहें, तो हम विश्व के अच्छे नागरिक बन जाएँगे।

यह पूर्णतया अप्रासंगिक है कि हम बौद्ध हैं, ईसाई हैं या फिर साम्यवादी; महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब तक हम मनुष्य हैं, हमें अच्छा मनुष्य बनने की आवश्यकता है। यही बौद्ध धर्म की शिक्षा है; संसार के सभी धर्मों द्वारा दिया गया संदेश भी यही है। बावजूद इसके, बौद्ध धर्म की शिक्षाओं में स्वार्थपरता दूर करने और दूसरों को प्रिय मानने की मनोदृष्टि को यथार्थ बनाने की सारी विधियाँ समाविष्ट हैं। उदाहरण के लिए, शांतिदेव का अद्भुत ग्रन्थ, बोधिचर्यावतार, इस ओर चलने के लिए बहुत ही सहायक है। मैं स्वयं उसके अनुसार अभ्यास करता हूँ; यह अत्यंत उपयोगी है।

हमारा मन बहुत उद्दंड होता है, जिसे नियंत्रित करना बहुत कठिन है। परन्तु, यदि हम विवेक तथा सूक्ष्म छानबीन युक्त लगातार अथक प्रयास करते रहें तो हम अपने चित्त को नियंत्रित करने और उसे बेहतर बनाने में सक्षम होंगे।

कुछ पश्चिमी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हमें अपने क्रोध को दबाना नहीं चाहिए, बल्कि उसे व्यक्त करना चाहिए। वे कहते हैं कि हमें वस्तुतः क्रोध का अभ्यास करना चाहिए! फिर भी हमें यहाँ उन मानसिक समस्याओं के बीच अंतर करना होगा जिन्हें व्यक्त करने की आवश्यकता है और जिन्हें व्यक्त न करना ही बेहतर है। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि हमारे साथ वास्तव में अन्याय हुआ हो, तो हमें अपनी शिकायत को अपने भीतर छिपाकर कटुता उत्पन्न होने देने के बजाय उसे व्यक्त कर लेना बेहतर होगा। परन्तु उसे क्रोध युक्त होकर व्यक्त करना उचित नहीं होगा। यदि हम क्रोध जैसे क्लेश को बढ़ावा देते हैं, तो वे हमारे व्यक्तित्व के अंग बन जाएँगे। हर बार जब हम क्रोध व्यक्त करते हैं, तो उसे फिर से व्यक्त करना आसान हो जाता है। हम इसे यों ही अधिकाधिक व्यक्त करते रहेंगे और एक दिन आएगा जब हम आपे से बाहर हो जाएँगे, बिल्कुल बेकाबू। तो इस प्रकार, मानसिक समस्याओं के संदर्भ में, निश्चित रूप से कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें उचित रूप से अभिव्यक्त किया जा सकता है और कुछ ऐसी जिन्हें नहीं। 

पहले पहल तो क्लेशों को नियंत्रित करना लगभग असंभव-सा ही होता है। पहले दिन, पहले सप्ताह, पहले महीने इत्यादि में हम उन्हें अच्छी तरह से नियंत्रित नहीं कर पाएँगे। परन्तु निरंतर प्रयास से हमारी नकारात्मकताएँ धीरे-धीरे कम होती जाएँगी। मानसिक विकास में प्रगति औषधियों या अन्य रासायनिक पदार्थों के सेवन से नहीं होती है; यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने मन को कितना नियंत्रित कर पाते हैं। तो यह स्पष्ट है कि यदि हम अपनी इच्छापूर्ति के इच्छुक हैं, चाहे वे लौकिक हों या चरम, हमें अपने चित्त को नियंत्रित करने की आवश्यकता है ताकि हम आत्म-पोषण का शिकार न बनें। इसके लिए हमें इष्ट-पूरक रत्नों की अपेक्षा अन्य सत्त्वों पर अधिक निर्भर करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में, हमें हमेशा अन्य सत्त्वों से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि दूसरों की कद्र करने की मनोदृष्टि से ही अंततः हमारी सभी इच्छाओं की पूर्ति होगी।

अपने चित्त को सुधारना और दूसरों की सहायता के लिए कुछ करना दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। पहली बात तो यह है कि यदि हमारे पास शुद्ध प्रेरणा नहीं है, तो हम चाहे जो कुछ भी करें वह संतोषजनक नहीं होगा। इसलिए, सबसे पहला काम जो हमें करना है वह है समुत्थान का विकास। परन्तु परोपकार के लिए समुत्थान के सम्पूर्ण विकास की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। यह तो तय है कि सबसे प्रभावी परोपकार के लिए ज्ञानोदय-प्राप्त बुद्धजन होने की आवश्यकता है। विशद और विस्तृत रूप से दूसरों की सहायता करने के लिए भी हमें आर्य बोधिसत्त्व चित्त के भूमि  स्तरों में से एक को प्राप्त करना होगा - अर्थात, हमें शून्यता - रिक्तता - का निर्वैचारिक बोध एवं अतीन्द्रिय संवेदन शक्तियाँ प्राप्त हो जानी चाहिए। तिस पर भी, हम कई प्रकार से सहायता कर सकते हैं। इन योग्यताओं को प्राप्त करने से पहले भी हम बोधिसत्त्वजन की तरह कार्य कर सकते हैं। परन्तु स्वभावतः हमारे कार्य तुलनात्मक रूप से कम प्रभावी होंगे।

अतः, पूर्ण योग्यता की प्रतीक्षा किए बिना भी हम पर्याप्त सद्प्रेरणा उत्पन्न कर सकते हैं और उसकी सहायता से हम यथासंभव दूसरों की सेवा करने का प्रयास कर सकते हैं। यह एक अधिक संतुलित दृष्टिकोण है और एकांत में बैठकर ध्यान-साधना और जप करने से कहीं अधिक बेहतर है। निस्संदेह यह वैयक्तिक विशेषताओं पर भी निर्भर करता है। यदि हमें यह विश्वास है कि किसी सुदूर स्थान में रहते हुए हम एक निश्चित अवधि में निर्दिष्ट ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, तो यह अलग बात है। संभवतः अपना आधा समय सक्रिय उद्यमों में लगाने के बाद बाकी समय ध्यान-साधना में लगाना ही उत्तम होगा।

छंद 2: अपनेआप को दूसरों से कम आँकना और दूसरों को अपने से अधिक महत्त्व देना

ऐसा हो कि जब भी मैं किसी के संपर्क में आऊँ तो मैं अपनेआप को दूसरों से कम आँकूँ और हार्दिक रूप से दूसरों को अपने से अधिक महत्त्व दूँ।

हम चाहे किसी के भी साथ हों, प्रायः ऐसा सोचते हैं, "मैं उससे अधिक बलवान हूँ," "मैं उससे अधिक सुन्दर हूँ," "मैं अधिक बुद्धिमान हूँ," "मैं और अधिक धनवान हूँ," "मैं अधिक योग्य हूँ," इत्यादि। इस तरह से हम अपने अहंकार को बढ़ावा देते हैं। यह अच्छी बात नहीं है। इसके बजाय, हमें चाहिए कि हम सदा विनम्र रहें। यहाँ तक कि जब हम दूसरों की सहायता कर रहे होते हैं और दान-धर्म के कार्यों में लगे होते हैं, तब भी ऐसा न हो कि हम अभिमानी होकर अपनेआप को कमज़ोरों का संरक्षक मान लें। यह भी अभिमान है। बल्कि हमें इन कार्यों में बहुत विनम्रता से काम लेना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि हम अपनी सेवाएँ दूसरों के लिए अर्पित कर रहे हैं।

उदाहरण के लिए, जब हम अपनी तुलना पशुओं से करते हैं, तो हम यह सोच सकते हैं कि, "मेरे पास एक मानव शरीर है" या "मैं एक भिक्षु हूँ," या "मैं एक भिक्षुणी हूँ," और संभवतः उनसे कहीं अधिक उन्नत होने का गर्व करने लग सकते हैं। एक दृष्टिकोण से तो हम यह कह सकते हैं कि हमारे पास मानव शरीर है और हम बुद्ध की शिक्षाओं का अभ्यास कर रहे हैं, इसलिए हम कीड़े-मकौड़ों से कहीं बेहतर हैं। परन्तु दूसरी ओर हम यह भी कह सकते हैं कि ये कीड़े-मकौड़े तो भोले-भाले और छल-रहित होते हैं, जबकि हम प्रायः झूठ बोलते हैं और अपने लक्ष्य की प्राप्ति या अपनी बेहतरी के लिए कुटिलता से काम लेते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो हमें यह कहना होगा कि हम कीड़े-मकौड़ों से भी बदतर हैं, वे जो किसी प्रकार का दिखावा किए बिना अपने काम में लगे रहते हैं। यह नम्रता के प्रशिक्षण का एक मार्ग है।

छंद 3: प्रबल साधनों से क्लेशों का सामना करें और उन्हें रोकें

ऐसा हो कि मैं जो कुछ भी करूँ अपनी चित्तवृत्ति को नियंत्रित करने में सफल हो पाऊँ, और जिस क्षण पूर्वधारणा या क्लेश की स्थितियाँ प्रकट हों, क्योंकि वे मुझे और दूसरों को दुर्बल बना देती हैं, मैं शक्तिशाली साधनों से उनका सामना कर उन्हें रोक पाऊँ।

यदि हम अपने चित्त की तब जाँच करें जब हम बहुत स्वार्थी हो रहे होते हैं, अपने में ही उलझे रहते हैं, और इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हमारे पास दूसरों के लिए कोई समय ही नहीं होता, तो हम यह पाते हैं कि क्लेश एवं नकारात्मक दृष्टिकोण ही इस व्यवहार के मूल कारण हैं। चूँकि ये सब हमारे चित्त को परेशान करते हैं, हमें चाहिए कि इनके प्रभाव में आते ही तुरंत इनके प्रतिकारक का प्रयोग कर लें। 

सभी क्लेशों एवं मनोदृष्टियों का सामान्य तोड़ है शून्यता (रिक्तता) की ध्यान-साधना; परन्तु विशिष्ट क्लेशों के लिए भी ऐसे प्रतिकारक हैं जिनका हम, नवदीक्षित होने के नाते, प्रयोग कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, आसक्ति के लिए हम कुरूपता की ध्यान-साधना करते हैं; क्रोध के लिए, प्रेम की; मूढ़ता के लिए, प्रतीत्यसमुत्पाद की; क्लेशों के बाहुल्य के लिए श्वास तथा ऊर्जा-वात की।

आलम्बनों के प्रति हमारा लगाव विकसित होता है क्योंकि हमें वे बहुत आकर्षक लगते हैं। उन्हें अनाकर्षक, या कुरूप, मानने का प्रयास उसका प्रतिकार करता है। उदाहरण के लिए, हो सकता है हमें किसी व्यक्ति के शरीर के प्रति लगाव हो जाए, उसका डील- डौल बहुत आकर्षक दिखने लगे। जब हम इस लगाव का विश्लेषण करना शुरू करते हैं तो यह पाते हैं कि यह केवल त्वचा पर आधारित है। यद्यपि, जो शरीर हमें सुन्दर लगता है, उसकी प्रकृति यह है कि वह मांस, रक्त, हड्डियों, त्वचा इत्यादि का पुतला है।

अब आइए मानव त्वचा का विश्लेषण करें: उदाहरण के लिए, हम अपनी त्वचा को ही लेते हैं। यदि उसका एक टुकड़ा निकल जाए और उसे कुछ दिनों के लिए टांड पर रख दिया जाए, तो उसे देखकर वास्तव में जुगुप्सा होगी। यह त्वचा की प्रकृति है। शरीर के सभी अंग एक जैसे ही हैं। मानव मांस का टुकड़ा सुन्दर नहीं होता। जब हम खून देखते हैं तो हो सकता है कि हम डर भी जाएँ, पर उसके प्रति आसक्त तो बिल्कुल नहीं होंगे। एक सुंदर चेहरा भी - यदि उसपर खरोंचें आ जाएँ तो उसमें कुछ भी मोहक नहीं रह जाता। तो वास्तव में कुरूपता ही भौतिक शरीर की प्रकृति है। मानव हड्डियों, कंकाल से वितृष्णा होती है। किसी वस्तु पर खोपड़ी और आड़ी-तिरछी हड्डियों के चिन्ह का भी एक अत्यंत नकारात्मक लक्ष्यार्थ होता है, है न?

तो जिस आलम्बन के प्रति हमारी आसक्ति या प्रेम हो - प्रेम शब्द का यहाँ तीव्र लालसा एवं आसक्ति के नकारात्मक अर्थ में प्रयोग किया गया है - उसका विश्लेषण करने का यही तरीका है। आलम्बन के कुरूप पक्ष के बारे में अधिक सोचें; उस व्यक्ति या वस्तु की प्रकृति के विश्लेषण को इस दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करें। भले ही यह हमारी आसक्ति को पूरी तरह समाप्त न करे, परन्तु उसे क्षीण करने में सहायता तो करेगा ही। आलम्बनों के कुरूप पहलू को देखने के अभ्यास का चिंतन करने या उसे बढ़ावा देने का यही उद्देश्य है।

दूसरे प्रकार का प्रेम या दया इस तर्क पर आधारित नहीं है कि "अमुक व्यक्ति सुंदर है और इसलिए मैं उसके प्रति स्नेह का अनुभव कर रहा हूँ और उसके प्रति दया दिखाऊँगा।" शुद्ध प्रेम का आधार है, "यह एक जीवंत सत्त्व है जो सुख चाहता है, दु:ख नहीं चाहता, और उसे सुखी होने का अधिकार है। और इसी आधार पर मुझे उसके प्रति प्रेम और करुणा का अनुभव होता है।" इस प्रकार का प्रेम पहले वाले प्रेम से बिल्कुल अलग है, जो मूढ़ता और अज्ञान पर आधारित है और इसलिए पूरी तरह सदोष है।

प्रेमयुक्त-कृपा के कारण ठोस हैं। आसक्ति-युक्त प्रेम में यदि आलम्बन में ज़रा-सा भी परिवर्तन हो जाए, जैसे मनोदृष्टि में एक हल्का-सा परिवर्तन, तो हम तुरंत बदल जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारी भावना का आधार केवल सतही होता है। एक नव- विवाहित दंपत्ति का उदाहरण लेते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि वे लोग कुछ हफ्तों, महीनों या सालों के बाद, एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं और बात विवाह-विच्छेद तक भी पहुँच जाती है। उनके बीच बहुत प्रेम था इसलिए उन्होंने शादी की - कोई भी वैर-भाव से तो शादी नहीं करता - परन्तु, थोड़े ही समय में सबकुछ बदल जाता है। वह किसलिए? रिश्ते के सतही आधार के कारण; किसी व्यक्ति में एक छोटा-सा परिवर्तन दूसरे की मनोदृष्टि में पूर्ण परिवर्तन का कारण बना।

हमें यह सोचना चाहिए, "दूसरा व्यक्ति भी मेरे ही जैसा एक मनुष्य है। निस्संदेह मैं सुख चाहता हूँ; तथ्यतः वह भी सुख चाहता है। एक सजीव सत्त्व होने के नाते मुझे सुखी होने का अधिकार है; इसी कारण से उस व्यक्ति को भी सुखी होने का अधिकार है।” इस प्रकार की ठोस तर्क पद्धति शुद्ध प्रेम और करुणा को जन्म देती है। फिर, उस व्यक्ति के बारे में हमारा दृष्टिकोण चाहे जैसे भी बदले - अच्छे से बुरे से निकृष्ट - वह मूल रूप से वही सजीव सत्त्व रहता है। इस प्रकार, चूँकि प्रेमयुक्त-कृपा का मुख्य कारण सदा विद्यमान रहता है, दूसरे के प्रति हमारी भावनाएँ सर्वथा स्थिर रहती हैं।

स्पष्टतः जब हमें किसी व्यक्ति विशेष के साथ रहकर आनंद मिलता है जिसके प्रति हमारा अनुराग है, या जब हमें किसी आलम्बन से आनंद मिलता है जिससे हम आसक्त हैं, तो हमें एक प्रकार के आनंद की अनुभूति होती है। परन्तु, जैसा कि नागार्जुन ने रत्नावली  में कहा है,

(169) खाज को खुजाने से आनंद मिलता है, परन्तु उससे अधिक आनंद तब मिलता है जब खाज हो ही न। इसी प्रकार सांसारिक कामनाओं की तृप्ति सुखदायी है, परन्तु उससे भी अधिक सुखदायी है इच्छाओं का न रहना।

दूसरी ओर, प्रेम की ध्यान-साधना ही क्रोध का प्रतिकारक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि क्रोध एक बहुत ही रूखी और भद्दी मनःस्थिति है जिसे प्रेम से मृदु करने की आवश्यकता है।

जहाँ तक मूढ़ता की बात है, हम अनभिज्ञता या अज्ञानता से प्रारम्भ कर वृद्धावस्था और मृत्यु तक, प्रतीत्यसमुत्पाद के बारह निदानों पर ध्यान-साधना करते हैं। सूक्ष्म स्तर पर, हम प्रतीत्यसमुत्पाद का यह स्थापित करने के कारण के रूप में उपयोग कर सकते हैं कि कोई भी दृश्य-प्रपंच वास्तव में सत्यसिद्ध नहीं है।

छंद 4: क्रूर व्यक्तियों को रत्नकोष की तरह संजोकर रखें

ऐसा हो कि जब भी मैं सहज रूप से क्रूर सत्त्वों को देखूँ जो नकारात्मकता और गंभीर समस्याओं के वश में हैं, तो मैं उन्हें दुर्लभ रत्नकोष की तरह संजोकर रख पाऊँ।

जब भी हम किसी ऐसे व्यक्ति से टकरा जाएँ जो स्वभाव से बहुत क्रूर, असभ्य, घृणास्पद, और अप्रियकर हो, तो हमारी सामान्य प्रतिक्रिया यह होती है कि हम उससे बचकर खिसक जाएँ। ऐसी स्थितियों में दूसरों के प्रति हमारी प्रेमपूर्ण चिंता कम हो सकती है। बजाय इसके कि दूसरे व्यक्ति को बुरा मानकर उसके प्रति अपने प्रेम को कमज़ोर करें, हमें चाहिए कि उसे प्रेम और करुणा के एक विशेष आलम्बन के रूप में देखें और उसे ऐसे संजोएँ मानों एक दुर्लभ बहुमूल्य खज़ाना हमारे हाथ लग गया हो।

छंद 5: पराजय को अपने ऊपर ले लें और दूसरों को जय प्रदान करें

ऐसा हो कि जब दूसरे लोग ईर्ष्या-युक्त होकर मेरे साथ बुरा व्यवहार करें, जैसे डाँटना, अपमानित करना, इत्यादि, तो मैं उनकी पराजय को अपने ऊपर ले पाऊँ और जय को उन्हें प्रदान कर पाऊँ।

यदि कोई हमारा अपमान करे, अपशब्द कहे, या यह कहते हुए हमारी आलोचना करे कि हम अक्षम हैं और कोई काम ढंग से नहीं कर सकते, तो संभवतः हम क्रोधित हो जाएँगे और उसका प्रतिवाद भी करेंगे। परन्तु हमें प्रयास करना चाहिए कि हमारी प्रतिक्रिया ऐसी न हो। बल्कि, हमें इन कठोर शब्दों को विनम्रता और सहनशीलता के साथ स्वीकार करना चाहिए।

यद्यपि हमें विनम्र होने और कठोर शब्दों को स्वीकार करने की आवश्यकता है, तथापि हमें अपने सद्गुणों के बारे में यथार्थवादी होने की भी आवश्यकता है। पर यहाँ बात यह है कि हमें अपनी क्षमताओं में आत्मविश्वास तथा अहंकार के बीच अंतर करना होगा। हमें अपने सद्गुणों और कौशल पर भरोसा रखकर उनका साहसपूर्वक उपयोग करना चाहिए, परन्तु उनके प्रति अहंकारपूर्वक दम्भ की अनुभूति के बिना। विनम्र होने का यह अर्थ नहीं है कि हम पूरी तरह से अक्षम और असहाय अनुभव करें। विनम्रता को अहंकार के विरोधी के रूप में विकसित किया जाता है, परन्तु हमें अपने सद्गुणों का अधिकतम उपयोग करना चाहिए।

आदर्शतः हमें अत्यधिक साहस और शक्ति की आवश्यकता है, परन्तु उनके बारे में डींग हाँकने या उनका दिखावा करने की नहीं। और फिर, समय आने पर हम अपनेआप को साबित करते हैं और सच्चाई के लिए बहादुरी से लड़ते हैं। यह उत्कृष्ट है। यदि हमारे पास इनमें से कोई सद्गुण नहीं है परन्तु हम अपनी शेखी बघारते फिरते हैं, और समय आने पर पैर पीछे हटा लेते हैं, तो हम इसके ठीक विलोम हैं। उपर्युक्त पहला व्यक्ति बहुत साहसी है पर अहंकारी नहीं; दूसरा अहंकारी है पर साहसी नहीं।

जहाँ तक पराजय को अपने ऊपर लेने और जय का श्रेय दूसरों के देने की बात है, तो हमें दो तरह की स्थितियों में अंतर को पहचानने की आवश्यकता है। यदि, एक ओर, हम अपने ही कल्याण की धुन में स्वार्थी रूप से प्रेरित हो जाते हैं, तो हमें पराजय को स्वीकार करने और दूसरों को जय का श्रेय देना ही चाहिए, भले ही हमारी जान की बाज़ी ही क्यों न लगी हो। परन्तु दूसरी ओर, यदि परिस्थिति ऐसी है कि बात दूसरों के कल्याण पर आ जाती है, तो पराजय को बिल्कुल स्वीकार किए बिना ही हमें अत्यधिक परिश्रम करके दूसरों के अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। मूलभूत रूप से, 46 अनुपूर्वक बोधिसत्त्व संवरों में से एक है कि जब कोई व्यक्ति हानिकारक कृत्य कर रहा हो, और उसे रोकने की सभी शांतिपूर्ण विधियाँ विफल हो जाएँ, तो उसे तत्काल रोकने के लिए हमें उग्र विधियों समेत किसी भी प्रकार की यथोचित कार्यवाही स्वीकार करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। दूसरे शब्दों में, हमारे पास क्षमता होते हुए यदि हम पूरी शक्ति लगाकर काम नहीं करते तो हम अपनी प्रतिबद्धता का उल्लंघन कर बैठते हैं।

ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यह बोधिसत्त्व संवर और उपर्युक्त पांचवाँ छंद, जो कहता है कि पराजय को स्वयं स्वीकार कर दूसरों को जय का श्रेय देना चाहिए, परस्पर विरोधी हैं; परन्तु ऐसा नहीं हैं। बोधिसत्त्व संवर एक ऐसी स्थिति को सम्बोधित करता है जहाँ परहित ही हमारी मुख्य चिंता है: यदि कोई व्यक्ति अत्यंत हानिकारक और खतरनाक कार्य कर रहा है, तो उसे रोकने के लिए आवश्यकता पड़ने पर कड़े कदम न उठाना अनुचित होगा।

आजकल, अत्यंत प्रतिस्पर्धी समाजों में प्रायः कड़े रक्षात्मक या इसके समतुल्य कदमों को उठाना आवश्यक हो गया है। पर ध्यान रखने की बात यह है कि ये स्वार्थ के स्थान पर दूसरों के प्रति दया और करुणा की व्यापक भावनाओं से प्रेरित होने चाहिए। यदि हमारे कृत्य दूसरों को नकारात्मक कर्मों से बचाने की भावना से प्रेरित हैं, तो यह पूर्णतया उचित होगा।

जहाँ तक इस प्रश्न की बात है कि हम यह कैसे तय करें कि कोई परिस्थिति विशेष कठोर कार्यवाही के लिए उपयुक्त है या नहीं, यह अत्यंत जटिल है। जब हम पराजय को अपने ऊपर लेने पर विचार करते हैं, तो हमें यह देखना होगा कि क्या दूसरों को जय का श्रेय देना उन्हें दीर्घकालिक लाभ देगा या फिर वह लाभ केवल अस्थायी ही रह जाएगा। हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि पराजय को अपने ऊपर लेने से भविष्य में दूसरों की सहायता करने की हमारी शक्ति या क्षमता पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ऐसा भी हो सकता है कि हम आज कोई ऐसा काम कर दें जिससे दूसरों को हानि हो, पर जिसके फलस्वरूप हम एक ऐसी बड़ी सकारात्मक शक्ति या योग्यता निर्मित कर लें जो हमें लंबे समय तक परहित के लिए सक्षम बना दे। यह एक और कारक है जिसे हमें ध्यान में रखना चाहिए।

जैसा कि शांतिदेव बोधिसत्त्वचर्यावतार  में कहते हैं:

(छ. 83) उत्तरोत्तर उत्कृष्ट होने के नाते मैं दान इत्यादि की दूरगामी मनोदृष्टि का अभ्यास करूँगा। मैं कभी भी छोटे के लिए बड़े का परित्याग नहीं करूँगा: इसपर विचार करने के लिए मैं परहित को अधिक महत्त्व दूँगा। 
(छ. 84) इसकी वास्तविकता को समझने के बाद मैं सदा दूसरों के लाभ के लिए ही प्रयत्नशील रहूँगा। एक (ऐसे बोधिसत्त्व) के लिए दूरदर्शी कृपालु ने उसकी अनुमति दी है, जो (दूसरों के लिए) निषिद्ध है।  

दूसरे शब्दों में, हमें सतही रूप से और गहराई से यह देखना होगा कि क्या सामान्यतः निषिद्ध काम करने के लाभ कमियों पर भारी पड़ते हैं या नहीं। कभी-कभी, जब यह तय करना मुश्किल हो जाता है, तो हमें अपनी प्रेरणा की जाँच करनी होगी।

शिक्षासमुच्चय  में शांतिदेव यही बात कहते हैं कि सामान्यतः निषिद्ध कृत्य को बोधिचित्त युक्त होकर करने से जो लाभ प्राप्त होता है, वह लाभ उसी कृत्य को ऐसी प्रेरणा के बिना करने पर होने वाली नकारात्मकता से कहीं अधिक होता है।

यद्यपि यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, कभी-कभी करणीय और अकरणीय के बीच की रेखा को देख पाना बहुत कठिन हो जाता है। इसलिए, हमें उन ग्रंथों का अध्ययन करने की आवश्यकता है जो इनके बारे में बताते हैं। निम्न ग्रंथ कहते हैं कि कुछ काम निषिद्ध हैं, जबकि उच्चतर ग्रन्थ उन्हीं कामों की अनुमति देते हैं। इनके बारे में हम जितना अधिक बोधवान होंगे उतनी ही सहजता से हम यह तय कर पाएँगे कि किसी परिस्थिति विशेष में क्या करना चाहिए।

छंद 6: कृतघ्न व्यक्तियों को ज्योतिवलयित गुरुओं के रूप में देखें

ऐसा हो कि कोई व्यक्ति जिसकी मैंने सहायता की है और जिससे मुझे बहुत आशाएँ हैं, अकारण ही मुझे हानि पहुँचाए, तो भी मैं उसे एक ज्योतिवलयित गुरु के रूप में देख पाऊँ। 

प्रायः हम यह आशा करते हैं कि जिन लोगों की हमने सहायता की है, वे हमारे प्रति कृतज्ञ होंगे; और जब वे कृतघ्न व्यवहार करते हैं तो हो सकता है कि हम उनसे क्रोधित हो जाएँ। ऐसे में हमें परेशान नहीं होना चाहिए, अपितु धीरज का अभ्यास करना चाहिए। और फिर हमें ऐसे लोगों को अपने धीरज की परीक्षा लेने वाले गुरुओं के रूप में देखना चाहिए, और इसी कारण से उन्हें सम्मान भी देना चाहिए। यह छंद शांतिदेव के बोधिसत्त्वचर्यावतार  में धीरज की सभी शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है।

धीरज को बढ़ाने की कई विधियाँ हैं। कर्म के नियमों का ज्ञान और उनमें विश्वास स्वयं ही धैर्य को जन्म देते हैं। हम महसूस करते हैं, "मैं जिस दुःख का अनुभव कर रहा हूँ वह पूर्ण रूपेण मेरा दोष है, मेरे पिछले जन्मों के कर्मों का फल। चूँकि जो पहले से ही परिपक्व हो रहा है, उसका अनुभव करने से मैं बच नहीं सकता, इसलिए मुझे इसे सहना पड़ेगा। फिर भी, यदि मैं भविष्य में दु:खों से बचना चाहता हूँ, तो मुझे धीरज जैसी सकारात्मक मनोदृष्टि से काम लेना होगा। इस दु:ख के कारण चिड़चिड़ाने या क्रोधित हो जाने से केवल नकारात्मक कर्म ही पैदा होंगे, जो भावी दुर्भाग्य के कारण बनेंगे।" धीरज का अभ्यास करने का यह एक तरीका है।

एक और काम जो हम कर सकते हैं वह है शरीर की दुखदायी प्रकृति पर ध्यान-साधना करना: "यह शरीर और चित्त हर प्रकार के दु:खों का आधार है। यह स्वाभाविक है और उनसे दुःख उत्पन्न होना किसी भी तरह से अप्रत्याशित नहीं है।" इस प्रकार का बोध धीरज को बढ़ाने में बहुत सहायक होता है।

बोधिसत्त्वचर्यावतार  में शान्तिदेव के कथन को यहाँ हम स्मरण कर सकते हैं: 

(VI.10) यदि इस समस्या का समाधान हो सकता है तो चित्त को कुंठित क्यों करें? और यदि नहीं हो सकता, तो चित्त को कुंठित करके क्या लाभ? 

इसलिए, यदि हमारे दु:खों से ऊपर उठने की कोई विधि है, या ऐसा करने का कोई अवसर, तो हमें चिंता करने या चिड़चिड़ाने का कोई कारण नहीं है। यदि इस विषय में हम कुछ भी नहीं कर सकते, तो चिंता करना और परेशान होना हमारे लिए बिल्कुल सहायक नहीं हो सकता। यह बात अत्यंत सरल और स्पष्ट है।

इसके अतिरिक्त हमें क्रोध करने से होने वाली क्षति और धीरज का अभ्यास करने से होने वाले लाभ का चिंतन करना होगा। मनुष्य होने के नाते हमारा एक सद्गुण है हमारी सोचने और निर्णय लेने की क्षमता। यदि हम अपना धैर्य खो बैठते हैं और क्रोधित हो जाते हैं, तो हम उचित निर्णय लेने की क्षमता गँवा बैठते हैं और फलस्वरूप समस्याओं से निपटने के एक अति शक्तिशाली उपकरण से वंचित हो जाते हैं: हमारा मानव विवेक। यह वो सम्पदा है जो पशुओं के पास नहीं होती। यदि हम धीरज खो बैठते हैं और खीजने लगते हैं, तो हम इस बहुमूल्य उपकरण को आघात पहुँचाते हैं। इसलिए हमें यह याद रखने की आवश्यकता है कि साहसी और दृढ़-संकल्प-युक्त होना तथा धैर्य के साथ दु:ख का सामना करना अपेक्षया श्रेष्ठतर है।

छंद 7: दूसरों के दु:खों को अपना लो और उन्हें सुख दो

संक्षेप में, ऐसा हो कि मैं अपनी प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी माताओं को वह सब अर्पित कर पाऊँ जिससे उन्हें लाभ एवं सुख की प्राप्ति हो सके; और मैं अपनी माताओं की सभी परेशानियों और विपत्तियों को गुप्त रूप से अपने ऊपर लेना स्वीकार कर पाऊँ।

यह उस अभ्यास की ओर संकेत करता है जो सुदृढ़ करुणा और प्रेम से प्रेरित होकर दूसरों के कष्टों को अपने ऊपर लेता है और उन्हें अपने सारे सुख (तोंग्लेन ) दे देता है। 

हम स्वयं सुख चाहते हैं और दुख नहीं चाहते, और हम यह देख सकते हैं कि अन्य सभी सत्त्व भी यही चाहते हैं। हम यह भी देख सकते हैं कि अन्य सभी सत्त्व दु:ख के बोझ तले दबे हुए हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि इससे कैसे उबरा जाए। इसके आधार पर, हम उनके सारे दु:खों एवं नकारात्मक कर्मों को अपने ऊपर लेने का ध्येय बनाते हैं और यह प्रार्थना करते हैं कि इसका तुरंत हमारे ऊपर विपाक हो जाए। इसी प्रकार, यह भी स्पष्ट है कि अन्य सत्त्व उस सुख से वंचित हैं जिसे वे चाहते हैं और वे यह नहीं जानते कि उसे कैसे प्राप्त किया जाए। इसी प्रकार, लेशमात्र कृपणता के बिना हम उन्हें अपना सारा सुख – अपना शरीर, धन, और सकारात्मक कर्म बल – अर्पित करते हैं और यह प्रार्थना करते हैं कि इसका उनपर तुरंत विपाक हो जाए।

निस्संदेह, यह लगभग असवम्भव ही है कि हम वास्तव में दूसरों के दु:खों को अपने ऊपर लेने और उन्हें अपने सुख देने में सक्षम होंगे। सत्त्वों के बीच ऐसा परस्पर अंतरण यदि हो भी जाए, तो यह अतीत के किसी सुदृढ़ अविच्छिन्न कर्म संबंध का परिणाम होता है। परन्तु यह ध्यान-साधना हमारे चित्त में साहस पैदा करने का एक बहुत शक्तिशाली साधन होने के कारण एक अत्यधिक लाभकारी अभ्यास बन जाती है।

सप्तबिन्दु चित्त प्रशिक्षण  में, गेशे चेकावा कहते हैं, "देने और लेने को श्वास से जोड़ते हुए बारी-बारी दोनों में अपने को प्रशिक्षित करें।" और यहाँ, लंगरी तांग्पा कहते हैं कि इसे छिपाकर, गुप्त रूप से करने की आवश्यकता है। बोधिसत्त्वचर्यावतार  में शांतिदेव इसी बात को कहते हैं:

(VIII.120) इस प्रकार, यदि कोई भी शरणागति की ओर स्वयं जाना चाहता हो या दूसरे को ले जाना चाहता हो तो उसे परात्मपरिवर्तन के इस गूढ़तम रहस्य का अभ्यास करना होगा। 

इस अभ्यास को "गूढ़" या "छिपा हुआ" इसलिए कहा जाता है क्योंकि नवसाधक बोधिसत्त्वों को इसका बोध नहीं होता: यह केवल कुछ चुनींदा साधकों के लिए ही होता है।

बोधिसत्त्वचर्यावतार  में एक अन्य स्थान पर (VIII.126cd) शांतिदेव कहते हैं: "दूसरों की लक्ष्यप्राप्ति के लिए अपनेआप को कष्ट देते हुए मैं समूचे परमानंद को प्राप्त कर लूँगा।" परन्तु, रत्नावली  (11) में, नागार्जुन कहते हैं, "धर्म (का अभ्यास) केवल शारीरिक पीड़ा से नहीं होता।" इनमें परस्पर कोई अंतर्विरोध नहीं हैं। जब शांतिदेव कहते हैं कि हमें अपनेआप को कष्ट देना चाहिए या हानि पहुँचानी चाहिए, तो इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हम अपने सिर पर चोट पहुँचाते रहें। शांतिदेव यह कहते हैं कि जब कभी हमारे मन में आत्म-पोषक विचार उठते हैं, तो हमें जी-जान से आत्म-विवेचन करना होगा और सशक्त साधनों द्वारा उन्हें वशीभूत करना होगा। दूसरे शब्दों में, हमें अपने आत्म-पोषक चित्त को चोट पहुँचानी होगी।

हमें दो प्रकार के "मैं" के बीच स्पष्ट रूप से अंतर करना होगा: एक जिसपर अपने कल्याण की धुन सवार रहती है, और दूसरा जो ज्ञानोदय प्राप्ति की ओर अग्रसर है। यह बहुत बड़ा अंतर है। साथ ही, हमें शांतिदेव के इस छंद को इसके पूर्ववर्ती एवं अनुवर्ती छंदों के सन्दर्भ में देखना होगा।

"मैं" पर चर्चा कई प्रकार से की गई है: एक सत्यसिद्ध "मैं" है जिसे हम पाने का प्रयत्न करते हैं; एक "मैं" है जिसे आत्म-पोषण के संदर्भ में हम देखते हैं; फिर एक "मैं" है जिससे हम तब सम्बद्ध होते हैं जब हम दूसरों के दृष्टिकोण से आलम्बनों को ग्रहण करते हैं, इत्यादि। हमें आत्म, अर्थात "मैं", की चर्चा को इन विभिन्न संदर्भों में देखने की आवश्यकता है।

यदि यह वास्तव में दूसरों को लाभान्वित करता है, या किसी एक सत्त्व को ही सही लाभान्वित करता है, तो इसके लिए पूर्ण रूप से उचित होगा कि हम तीनों लोकों के दुःखों को अपने ऊपर ले लें अथवा किसी एक नरक में ही वास कर लें, और ऐसा करने के लिए साहस जुटाना होगा। सभी सत्त्वों के लाभ हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति करने के लिए हमें अपनेआप को भीषणतम नरक, अवीचि, में युग-युगान्तर तक सहर्ष एवं स्वेच्छापूर्वक निवास करने के लिए तैयार करना होगा। दूसरों को कष्ट देने वाली पराजय को अपने ऊपर लेने का यही अर्थ है।

यहाँ बात यह है कि किसी भी नरक में जाने के लिए साहस को विकसित करना होगा; इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें वास्तव में वहाँ जाना होगा। जब कदम्पा गेशे चेकावा का देहांत निकट आया तो उन्होंने अचानक अपने शिष्यों को बुलाया और उनसे अपने लिए विशेष अर्पण, अनुष्ठान, और प्रार्थना करने के लिए कहा, क्योंकि उनकी साधना असफल रही थी। शिष्यगण बहुत परेशान हो गए क्योंकि उन्हें लगा कि कुछ अनिष्ट होने वाला है। पर गेशे ने समझाया कि यद्यपि वे जीवन-भर दूसरों के लाभ के लिए नरक में पैदा होने की प्रार्थना कर रहे थे, तथापि अब वे भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का एक निर्मल दर्शन प्राप्त कर रहे थे। वे नरक के बजाय तुषित लोक में पुनर्जन्म लेने जा रहे थे, और इसलिए वे परेशान थे।

इसी प्रकार, यदि हम परहितार्थ निम्न लोकों में पुनर्जन्म प्राप्त करने के लिए सुदृढ़, शुद्ध इच्छा विकसित करते हैं, तो हम भारी परिमाण में सकारात्मक शक्ति संचित कर लेते हैं जिसका परिणाम ठीक विपरीत होता है। इसलिए मैं सदा कहता हूँ कि यदि हमें स्वार्थी होना ही है, तो बुद्धिमानी से स्वार्थी हों। संकीर्ण स्वार्थपरता से हमारी अधोगति होती है; जबकि समझदार स्वार्थपरता हमें बुद्धत्व प्रदान कराती है। यह वास्तव में समझदारी की बात है!

दुर्भाग्य से, प्रायः सबसे पहले हम बुद्धत्व से जुड़ने का प्रयास करते हैं। शास्त्रों से हमें पता चलता है कि बुद्धत्व को प्राप्त करने के लिए हमें बोधिचित्त की आवश्यकता होती है और बिना बोधिचित्त के हम ज्ञानोदय प्राप्ति नहीं कर सकते। तो हम बड़े बेमन से यह सोचते हैं, "मुझे बुद्धत्व चाहिए; इसलिए, मुझे बोधिचित्त साधना करनी होगी।" वास्तव में, हम बोधिचित्त के विषय में उतना अधिक चिंतित नहीं होते जितना कि स्वयं बुद्धत्व के विषय में होते हैं। यह बिल्कुल ग़लत है। हमें इसका ठीक विपरीत करने की आवश्यकता है; हमें अपनी स्वार्थ प्रेरणा को भूलकर यह सोचना है कि दूसरों की वास्तविक सहायता किस प्रकार की जाए।

यदि हम वास्तव में नरक लोक में जाते हैं, तो हम न तो दूसरों की सहायता कर सकते हैं और न ही अपनी। हम किसी की सहायता कैसे कर सकते हैं? उन्हें केवल कुछ संसारी पदार्थ देकर या चमत्कार दिखाकर नहीं, अपितु उन्हें धर्म की शिक्षा देकर। परन्तु पहले हममें पढ़ाने की योग्यता होनी चाहिए। वर्तमान स्थिति में हम सम्पूर्ण मार्ग की व्याख्या नहीं कर सकते हैं - सभी अभ्यास और अनुभव जिनसे एक व्यक्ति को गुज़रना होता है, आरंभिक चरण से अंतिम चरण, ज्ञानोदय प्राप्ति, तक। हो सकता है कि हम अपने अनुभवों के माध्यम से कुछ प्रारम्भिक चरणों को समझा सकें, परन्तु उससे अधिक नहीं। दूसरों को ज्ञानोदय प्राप्ति के पथ पर चलने की व्यापक रूप से सहायता करने में सक्षम होने के लिए हमें पहले स्वयं ज्ञानोदय प्राप्त करना होगा। बोधिसत्त्व साधना करने की भावना का उचित कारण यही है। यह उस दृष्टिकोण से अलग है जो सामान्यतः आत्म-केंद्रित होता है और जिसके द्वारा हम दूसरों के बारे में सोचते तो हैं, और बोधिचित्त से युक्त होकर दूसरों के लिए समर्पित भी होते हैं, परन्तु अपने ज्ञानोदय की केवल स्वार्थ-युक्त चिंता के परिणामस्वरूप, क्योंकि हमें लगता है कि ऐसा करने के लिए हम बाध्य हैं। इस तरह से काम करना पूरी तरह मिथ्या है, एक प्रकार का झूठ।

छंद 8: समग्र दृश्यप्रपंच को एक भ्रम समझकर आठ सांसारिक धर्मों की परेशानियों से आगे बढ़ें 

ऐसा हो कि इन सबके दौरान आठ अनित्य वस्तुओं की धारणाओं के कलंक से अकलुषित उस चित्त के द्वारा, जो सभी दृश्य प्रपंचों को एक भ्रम समझता है, मैं अपने सारे बंधनों से बिना आसक्ति के मुक्त हो पाऊँ।

यह छंद सविवेकी सचेतनता या प्रज्ञा से सम्बंधित है। उपर्युक्त साधनाएँ जीवन की आठ अस्थायी या क्षणभंगुर वस्तुओं, तथाकथित "आठ सांसारिक धर्मों" - प्रशंसा या आलोचना, अच्छी या बुरी सूचना, लाभ या हानि, और उत्थान या पतन - की चिंताओं के कलंक से कलुषित नहीं होनी चाहिए।

इन आठों को सफ़ेद, काला, या मिश्रित नामों से उद्घृत किया जा सकता है। प्रत्येक जोड़ी के पहले धर्म का अनुभव करते समय अत्यधिक उत्साहित अनुभव करना या दूसरे धर्म के अनुभव से अत्यधिक निराश हो जाना काला होता है, जब यह अनुभव इस जीवन के सुखों के प्रति आसक्ति और साथ ही एक आत्म-पोषक मनोदृष्टि तथा सत्यसिद्ध "मैं" की प्राप्ति के लोभ के कारण उत्पन्न होता है। यह मिश्रित होता है जब यह आसक्ति को छोड़, दूसरी दो प्रेरणाओं के कारण उत्पन्न होता है। यह सफ़ेद होता है जब यह इस जीवन के सुखों के प्रति आसक्ति या आत्म-पोषण के प्रति लगाव से रहित होकर, केवल सत्यसिद्ध "मैं" की प्राप्ति के लोभ के कारण उत्पन्न होता है। पर मुझे ऐसा लगता है कि यह उचित होगा यदि मैं इस छंद की व्याख्या पहले सात छंदों में बताई गई, उन साधनाओं के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करूँ, जिन्हें उन अवधारणाओं से अकलुषित रूप में किया जाता है जिनके अधीन हम जीवन की प्रशंसा, आलोचना आदि जैसी आठ क्षणभंगुर वस्तुओं की उपस्थिति में एक सत्यसिद्ध "मैं" खोजते हैं।

हम अपनी साधना को इस प्रकार कलुषित करने से कैसे बचें? इस बात को स्वीकार करते हुए कि सभी अस्तित्वमान दृश्यप्रपंच माया हैं और इसलिए उन्हें सत्यसिद्ध मानकर उन्हें ग्रहण करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इस प्रकार हम ऐसी लोलुपता एवं आसक्ति के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

परन्तु, हमें " माया" का अर्थ क्या है यह स्पष्ट होना चाहिए। हमें लगता है कि सत्यसिद्धता विभिन्न आलम्बनों के आयामों में प्रतीत होती है, फिर वे आलम्बन चाहे कहीं भी प्रकट हों। परन्तु, यथार्थ में वहाँ कोई सत्यसिद्ध अवस्था है ही नहीं। दूसरे शब्दों में, सत्यसिद्ध अवस्था के न होने पर भी वह प्रतीत होती है, और इसलिए ऐसा अस्तित्व एक भ्रम है। इसका अर्थ यह है कि, यद्यपि ऐसा लगता है कि प्रत्येक अस्तित्वमान आलम्बन सत्यसिद्ध है, वास्तव में सभी दृश्यप्रपंच अस्तित्व की असंभव अवस्था से विरहित होते हैं।

इसे समझने के लिए शून्यता (रिक्तता), प्रकट अनुभूतियों की शून्यता, के एक दृढ़ और निर्णायक उपयुक्त बोध की आवश्यकता है। सबसे पहले, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी दृश्यप्रपंच सत्यसिद्ध ज्ञेय अस्तित्व से विरहित हैं। इसके बाद, जब ऐसा प्रतीत होता है कि इस विरहित प्रकृति वाले किसी भी आलम्बन का सत्यसिद्ध अस्तित्व है, तो हम सत्यसिद्ध अस्तित्व के पूर्ण अभाव के अपने पिछले निष्कर्ष का स्मरण करते हुए इस असंभव अस्तित्व का खंडन करते हैं। जब हम इन दोनों को एक साथ रखते हैं - सत्यसिद्ध ज्ञेय अस्तित्व एवं उसकी शून्यता, जैसे पहले अनुभव किया है - तो हम सभी दृश्यप्रपंचों की भ्रामक प्रकृति को समझ पाएँगे। इस प्रकार, सत्यसिद्ध ज्ञेय अस्तित्व माया है, जबकि वे दृश्यप्रपंच जो सत्यसिद्ध प्रतीत होते हैं वास्तव में केवल भ्रम की तरह हैं, अर्थात वे इस प्रकार से अस्तित्वमान प्रतीत होते हैं जिस प्रकार वे यथार्थ में नहीं हैं। वे केवल प्रतीत्यसमुत्पाद द्वारा ही स्थापित होते हैं।

यह समझना बहुत कठिन है कि कोई अज्ञेय आलम्बन, जिसका अस्तित्व केवल उसकी अवलम्बित उत्पत्ति से है, किस प्रकार कार्यशील है। यदि हम यह समझ पाते हैं कि कर्त्ता और क्रिया दोनों का अस्तित्व केवल इसलिए सिद्ध होता है कि वे ऐसा दृश्यप्रपंच हैं जिनकी परस्पर अवलम्बित उत्पत्ति होती है तथा वे स्वतः स्थापित रूप से अस्तित्वमान एवं क्रियाशील नहीं हो सकते, तो शून्यता का प्राकट्य प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार होगा। यह समझना सबसे कठिन बात है। यदि हमने उस अस्तित्व को ठीक-ठीक समझ लिया है जो स्वयंसिद्ध नहीं है - दूसरे शब्दों में, ग़ैर-स्वभावसिद्ध अस्तित्व नहीं है - तो अस्तित्वमान आलम्बन का अनुभव स्वतः स्पष्ट हो जाता है। इस बात का तर्क द्वारा खंडन हो जाता है कि उनका अस्तित्व ज्ञेय आत्म प्रकृति से स्थापित या स्पष्ट किया गया है। तर्क शास्त्र हमें विश्वास दिलाता है कि दृश्यप्रपंच की ऐसी कोई ज्ञेय आत्म प्रकृति हो ही नहीं सकती जो उसके अस्तित्व को स्थापित या स्पष्ट कर सके। फिर भी, दृश्यप्रपंच अस्तित्वमान हैं क्योंकि हम उन्हें वैध रूप से अनुभव करते हैं।

तो वे किस प्रकार अस्तित्वमान हैं? दूसरे शब्दों में, वह क्या है जो उनके अस्तित्व को स्थापित या स्पष्ट करता है? उनके अस्तित्व को उनके नाम के बल पर प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में स्थापित या स्पष्ट किया जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि दृश्यप्रपंचों का कोई अस्तित्व ही नहीं है; यह कभी नहीं कहा गया है कि आलम्बन अस्तित्वमान नहीं होते। कहा यह गया है कि नामों के आधार पर ही आलम्बनों के अस्तित्व को स्थापित या स्पष्ट किया जा सकता है। यह एक कठिन तथ्य है; जिसे हम केवल धीरे-धीरे, अनुभव के माध्यम से ही समझ सकते हैं।

सबसे पहले हमें इस बात का विश्लेषण करना होगा कि आलम्बन सत्यसिद्ध हैं या नहीं। इसका अर्थ यह है कि इस बात का विश्लेषण करना कि क्या उनके अस्तित्व को उनकी ओर से ज्ञेय आलम्बन द्वारा वस्तुतः ग्रहण या स्थापित किया गया है, या अधिक सरल शब्दों में, आलम्बन वास्तव में ज्ञेय हैं या नहीं। परन्तु, वास्तव में हमने ऐसा कुछ भी नहीं पाया जो अपनी ओर से आलम्बनों के अस्तित्व को प्रमाणित करता हो। वास्तव में, हम कुछ भी नहीं पा सकते: कुछ भी ज्ञेय नहीं है। फिर भी, यदि हम यह कहते हैं कि दृश्यप्रपंच बिल्कुल अस्तित्वमान नहीं हैं, तो यह ग़लत है, क्योंकि हम आलम्बनों का अनुभव तो करते ही हैं। दूसरे शब्दों में, यद्यपि हम तार्किक रूप से यह सिद्ध नहीं कर सकते कि आलम्बन ज्ञेय एवं सत्यसिद्ध हैं, हम अपने अनुभव से यह अवश्य जानते हैं कि वे अस्तित्वमान हैं। तो इस प्रकार हम निश्चित रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि आलम्बन अस्तित्वमान हैं।

अब, यदि आलम्बन अस्तित्वमान हैं तो उनके अस्तित्व को स्थापित करने के केवल दो मार्ग हैं: या तो स्वतः उनकी ओर से, उनकी अपनी शक्ति के द्वारा, या फिर अन्य कारकों की शक्ति के द्वारा - दूसरे शब्दों में, या तो पूर्णतः स्वतंत्र रूप से अथवा अवलम्बित उत्पत्ति। चूँकि तर्कशास्त्र इस बात का खंडन करता है कि आलम्बनों के अस्तित्व को उनकी अपनी शक्ति से स्वतंत्र रूप से ग्रहण किया जा सकता है, अतः उनके अस्तित्व को एकमात्र अन्य कारकों पर आश्रित होकर ही ग्रहण किया जा सकता है।

आलम्बन अपने अस्तित्व को प्रमाणित या स्पष्ट करने के लिए किस पर निर्भर करते हैं? वे नामकरण के आधार तथा उन्हें लक्षित या चिन्हित करने वाली किसी अवधारणा या नाम पर निर्भर करते हैं। यदि किसी दृश्यप्रपंच को ढूँढ़ने पर पाया जा सकता, तो निश्चित रूप से उनके अस्तित्व को उनकी आत्म-प्रकृति प्रमाणित करती। यदि यह सत्य होता तो माध्यमक शास्त्र ग़लत होने चाहिए थे क्योंकि वे कहते हैं कि आलम्बन का अस्तित्व उनकी आत्म-प्रकृति द्वारा प्रमाणित नहीं हो सकता। परन्तु जब हम आलम्बनों को ढूँढ़ते हैं तो वे मिलते नहीं: हमें उनकी ओर से ऐसा कुछ भी नहीं प्राप्त होता जो उनके अस्तित्व को प्रमाणित करता हो। तो, निष्कर्षतः हम यह पाते हैं कि दृश्यप्रपंच का अस्तित्व केवल अन्य कारकों की शक्ति, नामतः केवल उनके नामों की शक्तियों, द्वारा ही प्रमाणित हो सकता है।

यहाँ "केवल" शब्द यह इंगित करता है कि किसी बात का विच्छेदन किया जा रहा है। परन्तु, जिसका विच्छेद हो रहा है, वह स्वयं नाम नहीं है, और न ही वह है जिसको नाम व्यंजित करता है, जिसका अर्थ वह नाम है, या जिसे वह नाम संदर्भित करता है और जो प्रत्यक्षप्रमाण की विषयवस्तु है। हम यह नहीं कह रहे कि नाम वस्तुओं को सूचित या संदर्भित नहीं करते, और न ही यह कि नामों के निर्देश्य विषय प्रत्यक्षप्रमाण के आलम्बन नहीं हैं। "केवल" शब्द इस बात का विच्छेद करता है कि नामों की शक्ति के इतर कुछ और है जो दृश्यप्रपंचों के अस्तित्व को प्रमाणित करता है। दृश्यप्रपंच के अस्तित्व को नामों की शक्ति द्वारा ही प्रमाणित किया जाता है; परन्तु नाम किसी वस्तु को संदर्भित करते हैं और जिन्हें वे संदर्भित करते हैं वे प्रत्यक्षप्रमाण की विषयवस्तु हैं।

इस प्रकार, आलम्बनों की वास्तविक प्रकृति यह है कि उनका अस्तित्व केवल नामों की शक्ति से प्रमाणित या स्पष्ट होता है। नाम के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि नामों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। दृश्यप्रपंच हैं: नामों के निर्देश्य आलम्बन हैं और नाम भी हैं। वह क्या है जो नामों के निर्देश्य आलम्बनों के अस्तित्व को प्रमाणित करता है? उनका अस्तित्व भी नाम की शक्ति से ही प्रमाणित होता है।

प्रासंगिक माध्यमक, उच्चतम, सबसे सटीक दृष्टिकोण के अनुसार, चाहे वह बाहरी आलम्बन हो या उस आलम्बन को ग्रहण करनेवाली आतंरिक चेतना, दोनों स्थितियाँ समान हैं। दोनों का अस्तित्व नामों की शक्ति से ही प्रमाणित है; किसी का भी अस्तित्व ज्ञेय और सत्यसिद्ध नहीं है। विचारों और अवधारणाओं का अस्तित्व भी केवल नामों की शक्ति से ही प्रमाणित होता है, जिस प्रकार शून्यता, बुद्ध, अच्छा, बुरा, और तटस्थ के साथ होता है। सभी दृश्यप्रपंचों, सभी आलम्बनों, का अस्तित्व केवल नामों की शक्ति से ही प्रमाणित होता है।

जब हम "केवल नाम" कहते हैं, तो यह उन नामों के निर्देश्य आलम्बनों का विच्छेदन करता है जिनका अस्तित्व केवल उनके नामों की शक्ति द्वारा ही प्रमाणित नहीं है। इसके अतिरिक्त "केवल नाम" को समझने का और कोई मार्ग नहीं है। परन्तु, आइए, एक वास्तविक व्यक्ति और एक काल्पनिक व्यक्ति दोनों पर विचार करते हैं। दोनों इस मामले में बराबर हैं कि दोनों के अस्तित्व को केवल उनके नामों की शक्ति से ही प्रमाणित या स्पष्ट किया जा सकता है। परन्तु दोनों में अंतर है। आलम्बन चाहे अस्तित्वमान हो या न हो, उसका केवल मानसिक रूप से नामकरण किया जा सकता है, और कुछ नहीं। हम उन्हें मानसिक रूप से "वास्तविक व्यक्ति" और "काल्पनिक व्यक्ति" के नामों से लक्षित कर सकते हैं। परन्तु नामों के संदर्भ में, कुछ नाम उन आलम्बनों को संदर्भित करते हैं जो अस्तित्वमान हैं और कुछ जो नहीं हैं। "वास्तविक व्यक्ति" का नाम किसी ऐसे आलम्बन को संदर्भित करता है जो अस्तित्वमान है, जबकि "काल्पनिक व्यक्ति" का नाम किसी भी अस्तित्वमान आलम्बन को संदर्भित नहीं करता - यह उस आलम्बन को संदर्भित करता है जो अस्तित्व में नहीं है।

सारांश

जब हम यह समझ लेते हैं कि भावात्मक रूप से विक्षुब्ध लोग और हमारे प्रति उनके कटु शब्द एवं दुर्व्यवहार भ्रम के समान हैं, हम उनपर यह प्रक्षेपित नहीं करते हैं कि उनकी अन्तर्निहित रूप से दुष्ट प्रवृत्ति, शब्द, या व्यवहार ज्ञेय और सत्यसिद्ध हैं। वे उस असंभव अस्तित्व से रहित हैं। क्योंकि जिन अवधारणाओं और शब्दों या नामों से हम इन लोगों को लक्षित और नामित करते हैं और उनसे हमारा सम्बन्ध तदनुरूप प्रभावित हो जाता है, इसलिए उन्हें इष्ट-पूरक रत्नों के रूप में लक्षित करने से हम उनके प्रति अपने दृष्टिकोण को बदल सकते हैं। उन्हें इस रूप में देखते हुए उनसे अपनी भेंट को एक अनमोल अवसर मानकर हमारे भीतर धीरज एवं विनम्रता जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए उपयोग करना चाहिए।

लंगरी तांग्पा का मूल ग्रन्थ "चित्त साधना के आठ छंद" पढ़ें और सुनें।

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