कर्म की अप्रतिरोध्यता पर विजय कैसे प्राप्त करें

आरम्भिक स्तर: विनाशकारी व्यवहार से निवृत्ति

हमने देखा है कि लाम-रिम के क्रमिक स्तरों में प्रस्तुत किए गए प्रत्येक स्तर के साथ कर्म और अनुशासन का सम्बंध जुड़ा हुआ है। हमने यह भी देखा है कि कर्म की गति किस प्रकार संचालित होती है और वह किस प्रकार विभिन्न प्रकार के दुखों को हमेशा कायम रखती है।

  • विनाशकारी व्यवहार दुख की अनुभूति का कारण बनता है। हम अनुभव करते हैं कि हमारे साथ बहुत सी ऐसी अप्रिय बातें होती हैं जो उन घटनाओं से मिलती-जुलती होती हैं जो हमारे व्यवहार के कारण दूसरों के साथ घटित हुई हों, और हम स्वयं को अपने विनाशकारी व्यवहार को दोहराने के लिए प्रवृत्त अनुभव करते हैं।
  • अपने बाध्यकारी सकारात्मक व्यवहार के परिणामस्वरूप हम उस साधारण सुख को अनुभव करते हैं जो न तो कभी स्थायी होता है और न ही संतोष प्रदान करने वाला होता है, और हमें ऐसी सुखद चीज़ों की अनुभूति होती है जो हमारे द्वारा पूर्व में किए गए अच्छे व्यवहार से मिलती-जुलती होती हैं, लेकिन ये अनुभूतियाँ भी अस्थायी होती हैं। हम अपने सकारात्मक व्यवहार को दोहराते रहने के लिए प्रवृत्त भी होते हैं।
  • इन दोनों प्रकार के व्यवहार, चाहे सकारात्मक हो या विनाशकारी, के परिणामस्वरूप हमें अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म की प्रक्रिया से होकर गुज़रना पड़ता है। हम बार-बार पुनर्जन्म लेते रहते हैं क्योंकि मृत्यु के समय हमारे भीतर दूसरा शरीर पाने की अप्रतिरोध्यकारी आसक्ति बनी रहती है। हम अस्तित्वमान बने रहने के लिए एक मूर्त “मैं” से चिपके रहते हैं।

लाम-रिम के स्तरों के अनुसार अपने प्रारम्भिक उद्देश्य की प्राप्ति, यानी दुख भोगने की प्रक्रिया को समाप्त करने के लिए हम नैतिक आत्मानुशासन का अभ्यास करते हैं ताकि हम विनाशकारी व्यवहार से बचे रह सकें। जब भी हमें विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने की इच्छा होती है तब हमें इस बात का बोध होता है कि उस व्यवहार के कैसे दुखद परिणाम होंगे, और इसलिए हम अपने विचारों पर अमल करने से स्वयं को रोक लेते हैं। ऐसा कर पाने के लिए बड़े अनुशासन की आवश्यकता होती है, कि हम सविवेक बोध के आधार पर जान सकें कि कौन सा व्यवहार नुकसानदेह होगा और क्या करना लाभप्रद होगा, विशिष्टतः कौन सी बात स्वयं हमारे लिए हानिप्रद या लाभप्रद होगी। ऐसा नैतिक आत्मानुशासन हासिल करने के लिए हमें उस दुख और कष्ट के प्रति सचेत रहना होगा जो उस विनाशकारी व्यवहार या भावना को क्रियान्वित किए जाने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाला है।

सचेतनता एक प्रकार का मानसिक गोंद है जो हमें यह भूलने नहीं देता है कि यदि हमने अपनी हर नकारात्मक भावना पर अमल किया तो उसके परिणामस्वरूप हमें अत्यधिक दुख और कष्ट भोगना पड़ेगा। सचेतन बने रहने के लिए हमें एकाग्रता की आवश्यकता होती है ताकि हमारा ध्यान इस बोध पर ही टिका रहे। इसके लिए हमें अप्रमाद की आवश्यकता होती है। हम इस बात का खयाल रखते हैं कि हमारे व्यवहार का स्वयं हमारे ऊपर और दूसरों पर क्या प्रभाव होगा, और इसलिए हम अपने व्यवहार के प्रति गम्भीर रहते हैं। हम अपने व्यवहार के प्रति सावधानी बरतते हैं।

हमें इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता होती है कि हम क्या करने के  लिए प्रवृत्त हो रहे हैं। हमें यह सावधानी बरतनी चाहिए कि कहीं हम मन, वचन या कर्म से कोई विनाशकारी व्यवहार करने के लिए उद्यत तो नहीं हो रहे हैं। इसके बाद सावधानी को बनाए रखने के लिए हमें चौकन्ना होने की आवश्यकता होती है ताकि जब हमें कुछ करने की इच्छा हो तो हम विवेकपूर्वक भेद कर सकें कि जो हम करना चाह रहे हैं वह विनाशकारी है। उस अवस्था में हम नासमझ नहीं होते हैं: हमें यह बोध होता है कि यदि हम उस इच्छा पर अमल करेंगे तो उससे समस्याएं उत्पन्न होंगी। विनाशकारी व्यवहार करने से स्वयं को रोकने के लिए नैतिक आत्मानुशासन लागू करने के लिए इन बातों को ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है।

इस प्रकार के आत्मानुशासन और एकाग्रता की साधना करने के लिए हमें प्रमुखतः सचेतनता की आवश्यकता होती है, जो एक प्रकार के मानसिक गोंद के रूप में कार्य करती है। हमें उस सविवेक बोध को बनाए रखने की आवश्यकता होती है कि यदि हम विनाशकारी व्यवहार करेंगे तो उसके कारण हमें दुख भोगना पड़ेगा। बाकी की सब बातें उस मानसिक गोंद के प्रभाव से होती जाती हैं जो दृढ़तापूर्वक स्थापित होने पर हमें इन बातों को भूलने नहीं देता है। यदि हमारा यह मानसिक गोंद सुस्थापित हो तो उसकी पकड़ ढीली पड़ने पर हमें स्वतः ही उसका बोध हो जाता है और हम सावधान हो जाते हैं। यदि हमें इस बात की परवाह बनी रहे कि हमारे व्यवहार के कारण हमें क्या भोगना पड़ेगा, तो फिर हम अपनी सचेतनता के भंग होने पर उसे तुरन्त पुनःस्थापित कर लेंगे। हम इसका अभ्यास जितना अधिक करेंगे, हमें उतनी ही अधिक इसकी स्मृति बनी रहेगी और आत्मनियंत्रण के नैतिक आत्मानुशासन का प्रयोग कर सकेंगे। इस प्रकार नैतिक आत्मानुशासन एक ऐसा मानसिक कारक है, चित्त की ऐसी अवस्था है जो हमें विनाशकारी व्यवहार करने से दूर रखती है।

वीडियो: डा. चोन्यी टेलर – अपने व्यसनों को पहचानना
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मध्यवर्ती स्तर: कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों को सक्रिय होने से रोकना

लाम-रिम प्रेरणा के मध्यवर्ती स्तर के लक्ष्य, यानी परिवर्तन के दुख (साधारण सुख) और सर्वव्यापी दुख (अनियंत्रित ढंग से बार-बार होने वाले पुनर्जन्म) से मुक्ति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें उन कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों को सक्रिय होने से रोकना होगा जिनके कारण ये दुख उत्पन्न होते हैं। हम इन सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों को किस प्रकार से सक्रिय करते हैं? ये सुख और दुख की हमारी अनुभूति पर हमारी प्रतिक्रिया के आधार पर सक्रिय होती हैं।

सामान्यतया सबसे पहले होता यह है कि जब हमें सुख या दुख की अनुभूति होती है तब एक मानसिक कारक का समुदय होता है जिसे “तृष्णा” कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ “प्यास” होता है। यदि हम दुख अनुभव कर रहे होते हैं तो हमें उस दुख से पृथक होने की प्यास होती है। यदि हम साधारण सुख को भोग रहे होते हैं, जोकि कभी भी स्थायी नहीं होता है, तो किसी प्यासे व्यक्ति की भांति हम उससे दूर नहीं होना चाहते हैं। यह ऐसा ही होता है जैसे आपको बहुत तेज़ प्यास लगी हो और आपके पास बस एक घूँट भर ही पानी हो, तो आप चाहते हैं कि कोई पानी के गिलास को आपसे ले न ले: आपको और अधिक पानी की प्यास होती है। इन दोनों में से किसी भी प्रकार की प्यास सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों को सक्रिय करने की प्रक्रिया को शुरू कर देती है। दुख अनुभव करते समय हम सोचते हैं, “मुझे इससे पीछा छुड़ाना है!” या सुख अनुभव करते समय हम सोचते हैं, “मैं नहीं चाहता कि यह कभी खत्म हो।“

इस प्रक्रिया में घटित होने वाला दूसरा चरण यह होता है कि हमें एक ऐसे मूर्तिमान “मैं” के प्रति आसक्ति होती है जो दुख से मुक्त होना चाहता है और सुख से दूर नहीं होना चाहता है – “मैं, मुझे दुख की अनुभूति से मुक्त होना है! मैं, मुझे सुख की अनुभूति से कभी भी दूर नहीं होना है।“ “मैं, मैं, मैं!” मानो कोई स्वतंत्र अस्तित्व वाला “मैं” हो जो भले ही मैं कुछ भी करू, कहूँ या सोचूँ, सुखी रहना चाहता है, कभी भी दुख नहीं चाहता है। इस प्यास और तृष्णा के मिले-जुले प्रभाव से ऐसी कार्मिक प्रवृत्तियाँ और सम्भाव्यताएं सक्रिय होती हैं जो अप्रतिरोध्यकारी ढंग से आगे के पुनर्जन्म के रूप में परिणत होंगी।

यहाँ मैं इस प्रक्रिया को आसान शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ; दरअसल यह प्रक्रिया मेरी बताई हुई इस व्याख्या से कहीं अधिक जटिल होती है। वास्तविकता यह है कि कर्मगत परिणामों के सक्रिय होने की यह प्रक्रिया हर समय चलती रहती है, केवल मृत्यु के समय ही नहीं होती जिसके कारण बाध्यकारी, अनियंत्रित ढंग से बार-बार पुनर्जन्म लेना पड़ता है। दुख न भोगने की इच्छा रखने और अपने सुख को समाप्त न होने देने की इच्छा रखने की प्रक्रिया हर समय चलती रहती है, अनजाने में भी।

कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों को सक्रिय करने के इस संलक्षण को रोकने के लिए हमें शून्यता के बोध को हासिल करने की आवश्यकता होती है। जब हम स्वयं के बारे में एक ऐसे “मैं” की कल्पना कर लेते हैं जिसका एक पृथक अस्तित्व है, जो अपने द्वारा किए जाने वाले क्रियाकलापों से प्रभावित नहीं होता है, और जिसका हमेशा सुखी और कभी भी दुखी न होना आवश्यक है – तो यह कल्पना वास्तविकता पर आधारित नहीं होती है। शून्यता का अर्थ है कि ऐसा कुछ नहीं है; कोई इस प्रकार से अस्तित्वमान नहीं है। यदि हम अपनी कल्पना के उस अस्तित्व के अभाव का बोध हासिल कर सकें और उस बोध पर अपने ध्यान को केंद्रित बनाए रखें तो दुख या साधारण सुख का अनुभव होने पर हम तृष्णा से उद्वेलित नहीं होंगे। बल्कि, हम सोचेंगे, “अब मैं सुखी हूँ, इस समय मैं दुखी हूँ। तो क्या हुआ? भावनाओं में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं; यही जीवन की प्रकृति है। कोई समस्या नहीं; इसमें कोई विशेष बात नहीं है।“

हमें करना यह होता है कि हम अपनी भावनाओं और उन्हें अनुभव करने वाले स्वयं को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर देखना बंद कर दें, क्योंकि ऐसा करने के कारण ही हमारी कार्मिक प्रवृत्तियाँ और सम्भाव्यताएं सक्रिय होती हैं। उदाहरण के लिए, कल्पना कीजिए कि मुझे उस समय बहुत दुख होता है जब मुझे किसी के द्वारा किया गया बर्ताव या कही गई बात पसंद न हो। यदि मैं इस बात से ही आसक्त बना रहूँ “मैं, मैं, मैं, मैं तुम्हारे किए हुए के कारण दुखी हूँ,” और उस दुख से मुक्त होने की तीव्र इच्छा रखता हूँ, तो उससे मेरी कार्मिक प्रवृत्ति और सम्भाव्यता सक्रिय होती है कि मैं तुम्हारे ऊपर चीखूँ-चिल्लाऊँ। एक बार सक्रिय हो जाने पर ये प्रवृत्तियाँ और सम्भाव्यताएं मेरे भीतर की चीखने-चिल्लाने की इच्छा को जाग्रत करती हैं, और क्रोध करने की मेरी कार्मिक प्रवृत्ति भी सक्रिय हो जाती है। लेकिन क्रोध करने की प्रवृत्ति कोई कार्मिक प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि यह एक अशांतकारी मनोभाव की प्रवृत्ति है। अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों की भी प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिससे यह पता चलता है कि भले ही हमें इन मनोभावों की अनुभूति न हो रही हो या ये दृष्टिकोण प्रकट रूप में दिखाई न दे रहे हों, लेकिन फिर भी इनका सातत्य बना रहता है। लेकिन जब ये सभी प्रवृत्तियाँ और सम्भाव्यताएं सक्रिय हो जाती हैं तो आत्मनियंत्रण के अभाव में और चित्त की शांति के भंग होने के कारण मैं बाध्य हो कर उस इच्छा पर अमल करते हुए आपके ऊपर चीखने-चिल्लाने लगता हूँ।

लेकिन यदि मैं यह बोध हासिल कर सकूँ कि, “मैं दुखी हूँ, मुझे तुम्हारा व्यवहार अच्छा नहीं लग रहा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं इसे बहुत अधिक तूल दूँ,” तो मैं उस “मैं” पर और अपनी इच्छा पर ध्यान केंद्रित नहीं करता हूँ। नतीजा यह होता है कि चीखने-चिल्लाने की मेरी कार्मिक सम्भाव्यताएं और प्रवृत्तियाँ सक्रिय नहीं होती हैं। ज़ाहिर है कि इस स्तर तक पहुँचने के लिए यह बोध बहुत गहरा और गहराई से समाया हुआ होना चाहिए। मैं इसका सरलीकरण कर रहा हूँ, लेकिन मेरा उद्देश्य आपको इसका सामान्य परिचय देना है।

कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों से मुक्ति कैसे प्राप्त करें

कोई कारण केवल तभी अस्तित्व में रह सकता है और प्रभावी हो सकता है जब उसमें से कोई परिणाम उत्पन्न हो सकता हो। यदि किसी चीज़ से कोई परिणाम उत्पन्न न हो सकता हो तो वह चीज़ कारण के रूप में अस्तित्व में नहीं बनी रह सकती है। अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो, कोई चीज़ किसी परिणाम की सम्भाव्यता केवल तभी बन सकती है जब वास्तव में उसमें से कोई परिणाम उत्पन्न हो सकता हो। और परिणाम की उत्पत्ति के लिए सम्भाव्यता को सक्रिय किए जाने की आवश्यकता होती है। लेकिन यदि कोई ऐसी चीज़ ही न हो जो सम्भाव्यता को सक्रिय कर सकती हो और जिसके कारण उसमें से किसी परिणाम का उत्पन्न होना असम्भव हो, तो वह चीज़ सम्भाव्यता नहीं कहला सकती है। किसी परिणाम की सम्भाव्यता केवल तभी हो सकती हैह जब कोई परिणाम उत्पन्न हो सकता हो।

इस प्रकार आप कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों से मुक्ति पाते हैं। शून्यता के गहनतम निर्वैचारिक बोध – कि कोई मूर्तिमान “मैं” नहीं है आदि – के साथ आप स्वयं को ऐसे अशांतकारी मनोभावों से मुक्त करना प्रारम्भ करते हैं जो विनाशकारी व्यवहार के साथ जुड़े होते हैं और साथ ही साथ ऐसे अशांतकारी दृष्टिकोणों से भी मुक्त होने लगते हैं जो सकारात्मक व्यवहार के साथ जुड़े होते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण एक मूर्तिमान “मैं” के साथ अत्यधिक लगाव के कारण उत्पन्न होते हैं। किन्तु, किसी मूर्तिमान “मैं” के न होने के इस निर्वैचारिक बोध को हासिल करने की लम्बी प्रक्रिया में हमारे अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों की शक्ति क्षीण होने लगती है। परिणामस्वरूप हम पुराने कार्मिक परिणामों की प्रक्रिया को धीमा करने लगते हैं, क्योंकि ये परिणाम हमारे अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों से ही सक्रिय होते हैं। इस प्रकार हम अपनी अप्रतिरोध्यता के बल को क्षीण कर देते हैं।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, यदि हमारे क्षीण पड़ चुके अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण द्वारा हमारे कार्मिक परिणामों को सक्रिय किए जाने के कारण हमें किसी व्यक्ति पर चीखने-चिल्लाने जैसी इच्छा हो तब भी हमें यह अवसर प्राप्त हो जाता है कि हम उस व्यवहार को न दोहराएं – हमारा व्यवहार अपेक्षाकृत कम बाध्यकारी होगा – क्योंकि क्रोध का हमारा अशांतकारी मनोभाव कमज़ोर होगा। हम अपनी इच्छाओं, चाहे वे विनाशकारी हों या विक्षिप्तता की सीमा तक सकारात्मक हों, पर जितना अमल करने से जितना अधिक बचेंगे, हमारे कार्मिक परिणाम उतने ही कम सृजित होंगे। इस प्रकार कार्मिक सम्भाव्यताओं और प्रवृत्तियों से स्वयं को मुक्त करने की प्रक्रिया में तेज़ी आती है।

शुद्धि की इस प्रक्रिया की सफलता के लिए हमें शून्यता के प्रति सचेतन बने रहने के लिए नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है। आसान शब्दों में कहा जाए तो हमें “सुख, दुख, क्या फर्क पड़ता है?” की भावना के प्रति सचेत रहने के लिए नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है। “मैं” जैसा ऐसा कुछ नहीं है जिसे हर समय खुश रहने की आवश्यकता हो और जो कभी भी दुखी न रह सकता हो। बेशक मेरा अस्तित्व है, लेकिन ऐसे असम्भव ढंग से नहीं।“

जब हम इस बात को गहराई से समझ लेते हैं और जब यह हमारी अनुभूति को प्रभावित करना शुरू कर देता है तो उसके बाद जो घटित होता है वह बहुत ही दिलचस्प है। उदाहरण के लिए, फिर हमें ऐसी अनियंत्रित इच्छा या आवश्यकता नहीं रह जाती है कि हर समय हमारा मनोरंजन किया जाता रहे – कि हमें हर समय संगीत सुनने के लिए मिले, कि हमारा टी.वी. हर समय चलता रहे – नहीं तो हम सुखी नहीं हो पाएंगे। हमें बार-बार यह जाँचने के लिए अपना फोन देखने की आवश्यकता नहीं रहेगी कि कहीं हमारे लिए कोई नया संदेश तो नहीं आया है या हमारे फेसबुक वॉल पर कोई पोस्ट तो नहीं आया है या कोई नया समाचार तो नहीं आया है। चूँकि अब हम एक ऐसे मूर्तिमान “मैं” से चिपके नहीं होते हैं जिसे यह भय बना रहता है कि उससे कोई जानकारी छूट न जाए या जिसे दुख का भय बना रहता है, इसलिए हम अपने अप्रतिरोध्य विनाशकारी व्यवहार से मुक्त हो जाते हैं।

उन्नत स्तर: स्वार्थी दृष्टिकोण पर विजय प्राप्त करना

बहुत संक्षेप में कहा जाए तो दूसरों की अधिक से अधिक सहायता करने की सर्वोत्तम विधि को समझने की दृष्टि से लाम-रिम के उन्नत स्तर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें अपने शून्यता के बोध को सुदृढ़ करने वाले बोधिचित्त के बल की आवश्यकता होती है। बोधिचित्त क्या है? सभी जीवों के लिए समान गहन प्रेम भाव और करुणा के आधार पर हम सभी जीवों को उनके दुखों और दुखों के कारणों से मुक्त कराने का दायित्व उठाते हैं और निष्ठापूर्वक ऐसा करने का संकल्प लेते हैं। लेकिन हमें यह बोध होता है कि जब तक हम स्वयं सर्वदर्शी बुद्ध नहीं हो जाते हैं तब तक हमें यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है कि हम सभी जीवों की अधिक से अधिक मार्गदर्शन कैसे कर सकते हैं। इसलिए बोधिचित्त एक ऐसा चित्त होता है भविष्य में हमारी अपनी ज्ञानोदयप्राप्ति के लिए लक्षित होता है जो अभी तक घटित नहीं हुई है, लेकिन हमारे तथाकथित “बुद्धधातु” कारकों के आधार पर घटित हो सकती है। इन कारकों से आशय चित्त की उस सजह शुद्धता और उन सद्गुणों से होता है जो प्रत्येक जीव में विद्यमान होते हैं और जो प्रत्येक जीव को ज्ञानोदय प्राप्त करने में सहायक होते हैं। हमारा मकसद स्वयं के लिए ज्ञानोदय प्राप्त करना और उस सिद्धि के आधार पर दूसरे सभी जीवों की अपनी वर्तमान क्षमता से अधिक सहायता करना होता है।

जब हम बोधिचित्त की सहायता से शून्यता का बोध हासिल करने के लिए प्रयत्न करते हैं तो हमारा बोध पहले की तुलना में अधिक प्रबल होता है। हम सभी चीज़ों के बीच के परस्पर सम्बंध को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं, और इससे हम उन आदतों पर विजय पा लेते हैं जिनके कारण हमारा चित्त चीज़ों को अलग-अलग डिब्बों में, यानी एक-दूसरे से पृथक-पृथक दर्शाता है। इस प्रकार हम प्रत्येक जीव की मौजूदा स्थिति के कार्मिक कारणों और उन शिक्षाओं के प्रभाव को समझ पाते हैं जो हम उन्हें अपनी समस्याओं और दुखों पर विजय पाने के लिए देने वाले हों। हम परस्पर सम्बंद्धता की उस पूरी तस्वीर को देख पाते हैं कि पूर्व में क्या घटित हो चुका है, वर्तमान में क्या हो रहा है और अभी क्या घटित नहीं हो रहा है। इससे हमें उन जीवों को सर्वोत्तम सलाह और सहायता देने में मदद मिलती है।

बोधिचित्त को विकसित करने की दृष्टि से अपने स्वार्थी दृष्टिकोण पर विजय पाने और दूसरों की भलाई करने पर अपने ध्यान को पूरी तरह से केंद्रित करने के लिए हमें नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है। दूसरों के प्रति फिक्रमंदी का भाव किस तरह हमें और अधिक ऊर्जा प्रदान करता है इसे एक उदाहरण की सहायता से समझा जा सकता है: मान लीजिए कि हम दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद थके मांदे काम से लौटे हैं। यदि हम अकेले ही हों तो हम रात का खाना बनाने का विचार त्याग सकते हैं और सीधे बिस्तर पर जाकर सो सकते हैं। लेकिन यदि हमारे बच्चे भी हों, तो फिर हम कितने ही थके हुए क्यों न हों, हम हिम्मत जुटा कर उनके लिए भोजन तैयार करते हैं और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। दूसरों के प्रति फिक्रमंदी का भाव हमें केवल अपने बारे में सोचने की तुलना में अधिक ऊर्जावान बना देता है।

नैतिक आत्मानुशान के इस उन्नत स्तर के अभ्यास का यही तरीका है। हमें स्वार्थपरायणता का त्याग करने, केवल अपने बारे में सोचने से बचने और दूसरों का खयाल रखने, और आत्मविकास के सर्वोच्च स्तर तक पहुँचने, यानी सर्वदर्शी बुद्ध बनने के लिए हमें नैतिक आत्मानुशासन की आवश्यकता होती है।

सारांश

नैतिक आत्मानुशान क्रमशः नकारात्मक कर्म, उसके बाद सभी प्रकार के कर्म (सकारात्मक और नकारात्मक दोनों), और उसके बाद हमें सभी दूसरों के कर्म को समझने में बाधा उत्पन्न करने वाली आत्मकेंद्रितता पर विजय प्राप्त करने की कुंजी है ताकि इन सभी पर विजय पाने में हम दूसरों की भी सहायता कर सकें। किन्तु इसके लिए केवल आत्मानुशासन ही काफी नहीं होगा; हमारा अनुशासन सचेतनता, जागरूकता, ध्यान और फिक्रमंदी आदि के भावों से भी युक्त होना चाहिए।

प्रगति की इस यात्रा में शून्यता का बोध आवश्यक होता है, अन्यथा नैतिक आत्मानुशासन को समझने में हमारा दृष्टिकोण बहुत ही द्वैतात्मक हो जाता है। हम यह कल्पना कर लेते हैं कि एक “मैं” है जो पुलिस वाले की भूमिका में है और एक दूसरा “मैं” है जो शरारती है जिसे अनुशासित किया जाना है। यदि हम नैतिक आत्मानुशासन विकसित करने की इस पूरी प्रक्रिया को द्वैतात्मक दृष्टिकोण से देखेंगे तो हमें बहुत सारी अतिरिक्त समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि नैतिक आत्मानुशासन को बिना इस तरह का विचार किए लागू किया जाए कि, “मुझे ऐसा करना है” और “मैं, मैं, मैं” और “ओह, मैं कितना खराब हूँ। मैं बहुत बुरा हूँ।“ यह सब बंद कीजिए और केवल वही कीजिए जिसके बारे में हमने चर्चा की है।

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