तिब्बती खगोल विज्ञान

तिब्बती खगोल विज्ञान का विस्तार

पंचांग-रचना, खगोल शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, और गणित जैसे खगोल विज्ञान तिब्बती जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े हैं | उनकी परंपरा तिब्बत से भीतरी और बाहरी मंगोलिया, मंचूरिया, पूर्वी तुर्किस्तान, बुर्यातिया, कल्मीकिया, और तूवा के रूसी गणतंत्र राज्यों, और तिब्बती संस्कृति से प्रभावित हिमालय, मध्य-एशिया, और वर्तमान चीन जैसे सभी क्षेत्रों में फैली | तिब्बती चिकित्सा परम्परा में विज्ञान की इन शैलियों ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई | चाहे खगोल शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए चिकित्सा विज्ञान पढ़ना आवश्यक न हो, परन्तु चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों को एक विशेष स्तर तक खगोल शास्त्र अवश्य पढ़ना चाहिए |

इस विद्या से हमें पंचांग की उस गणना का पता चलता है जिससे ग्रहों की स्थिति का अनुमान, ग्रहणों का पूर्वानुमान, और पंचांग बनाने में सहायता मिलती है | इसमें व्यक्तिगत जन्मपत्रियों के लिए ज्योतिषीय गणना पाई जाती है, और वार्षिक पंचांग की जानकारी भी होती है कि कौन से दिन बीज बोने जैसी विभिन्न गतिविधियों के लिए शुभ अथवा अशुभ हैं | यह अध्ययन क्षेत्र बहुत विस्तृत है |  

इसके दो भाग हैं; श्वेत एवं श्याम गणना | भारत और चीन में पारम्परिक परिधानों के रंगों के अनुसार इन देशों से आई सामग्री को श्वेत और श्याम कहा गया है | तिब्बती चिकित्सा विज्ञान की भांति, तिब्बतीय ज्योतिष शास्त्र में भी ऐसे पहलू हैं जो हिन्दू भारत और चीन में पाए जाते हैं | यद्यपि, इन्हें मिश्रित एवं परिवर्तित करके विभिन्न प्रयोगों द्वारा एक विशिष्ट तिब्बती प्रणाली बनाई गई है |

दार्शनिक संदर्भ

भारतीय हिन्दू , तिब्बती बौद्ध, और चीनी कन्फ्यूशियस क्षेत्रों में खगोल विज्ञान के दार्शनिक प्रसंग काफ़ी भिन्न हैं | तिब्बती संदर्भ 'कालचक्र तंत्र' से उद्भूत है | "कालचक्र" से अभिप्राय है "समय के आवर्तन" | इस तंत्र में बुद्ध ने बाहरी, भीतरी, और वैकल्पिक चक्रों की एक प्रणाली सामने रखी | बाहरी चक्रों का सम्बन्ध आकाश के ग्रहों की गति, और वर्षों, महीनों, और दिनों आदि में नापे जाने वाले समय के विभिन्न चक्रों या वर्गों से है | भीतरी चक्रों का सम्बन्ध शरीर में संचरण करती ऊर्जाओं और साँसों से है | वैकल्पिक चक्रों में तंत्र-प्रणाली की विभिन्न ध्यान-साधनाएँ समाविष्ट होती हैं जिनमें कालचक्र नामक एक बुद्ध प्रतिमा रहती है जिसका प्रयोग पूर्व उल्लिखित दो चक्रों को नियंत्रित करने अथवा उनके शोधन के लिए किया जाता है |

समय के बाहरी और भीतरी चक्र एक दूसरे के समानांतर हैं और सामूहिक बाह्य एवं व्यक्तिगत आभ्यंतर ऊर्जा के आवेगों (कर्म) से घटित होते हैं | दूसरे शब्दों में, कुछ ऐसे ऊर्जा के आवेग हैं, जो हमें एक दूसरे से जोड़ते हैं, जिनसे ग्रहों के और मानव शरीर के चक्र चलते हैं | चूँकि ऊर्जा और मनःस्थिति का निकट सम्बन्ध है, इसलिए हम इन चक्रों का शांत अथवा अशांत रूप में अनुभव करते हैं | कालचक्र प्रथाओं के माध्यम से हम अनियंत्रित रूप से बार बार पैदा होने वाली आभ्यंतर एवं बाह्य स्थितियों के प्रभाव (संसार) से उबरने का प्रयास करते हैं ताकि, इनसे व्यग्र या बाधित हुए बिना, हम अपनी पूरी क्षमता को उगाहकर जहाँ तक हो सके सबको लाभ पहुंचा सकें |

अधिकतर, लोग अपनी व्यक्तिगत जन्म कुंडली से या मौसम, ऋतुओं या चन्द्रमा की कलाओं से, या अपने बचपन, युवावस्था, बुढ़ापे आदि के जीवन चक्र से प्रभावित होते हैं | वे अपने शरीर में चल रहे ऊर्जा चक्र से, जैसे माहवारी, या किशोरावस्था से रजोनिवृत्ति तक, प्रभावित रहते हैं |  इससे लोग अत्यंत बाधित हो जाते हैं | कालचक्र प्रणाली ध्यान साधना का ऐसा ढाँचा प्रदान करती है जिसमें हम इन प्रभावों के चंगुल से निकलकर दूसरों की अधिकाधिक सहायता कर पाते हैं | तिब्बती बौद्ध प्रणाली खगोल शास्त्र और ज्योतिष विद्या को इस सामान्य दार्शनिक ढाँचे में प्रस्तुत करती है | यह हिन्दू वैदिक सन्दर्भ से बहुत भिन्न है, जिसमें छात्र ये विद्याएँ सीखकर वैदिक अनुष्ठानों को संपन्न करने के अत्योचित समय की गणना करते हैं |

प्राचीन चीनी मत के अनुसार राजनैतिक औचित्य तथा शासन बनाए रखने के लिए खगोल शास्त्र और ज्योतिष विद्या को ध्यान में रखा जाता है | कनफ्यूशियस दर्शन में सम्राट को स्वर्ग और धरती के बीच का मध्यस्थ माना गया है | यदि सम्राट, राजदरबार, और शासन ऋतुओं तथा पंचांग के अनुसार ब्रह्माण्ड की बदलती शक्तियों के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करते हैं, तो साम्राज्य में सब कुछ सुचारु रुप से होता है | स्पष्टतः उन्हें "स्वर्गीय अधिदेश" प्राप्त है | यदि उनमें समन्वय न हो, तो प्राकृतिक त्रासदियाँ होती हैं जो इस बात का प्रमाण है कि वे अपनी राजकीय वैधता खो बैठे हैं | इसलिए, सुख, शांति और राजनैतिक सत्ता बनाए रखने के लिए वैश्विक ज्योतिषीय शक्तियों के प्रवाह और ऋतुओं के ठीक समयकाल को जानना अनिवार्य है |

अतः खगोल शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र के चीनी दार्शनिक सन्दर्भ तिब्बती बौद्ध रूपरेखा से बहुत भिन्न थे | उसका मुख्य उद्देश्य राजनैतिक था | लगभग आठवीं शताब्दी से पहले, संभवतः बौद्ध प्रभाव के कारण, चीन में व्यक्तिगत जन्म-कुण्डलियाँ नहीं पाई जाती थीं |

श्वेत गणना

तिब्बती खगोल विज्ञान में पाई जाने वाली भारतीय मूल की सामग्री मुख्यतः दो स्त्रोतों से मिलती है | पहला है कालचक्र जो विशेष रूप से बौद्ध है, तथा दूसरा है स्वरोदय जिसमें हिन्दुओं और बौद्ध धर्मियों द्वारा समान रूप से स्वीकार की गई सामग्री है |

बाह्य काल की परिचर्चा के सन्दर्भ में, कालचक्र तंत्र ब्रह्माण्ड के गति के नियम, एवं पंचांग, तालिका, तथा जंत्री का विगणन प्रस्तुत करता है | इससे गणितीय प्रतिपादनों के दो समूहों की उत्पत्ति हुई: सिद्धांत या पूर्ण सिद्धांत प्रणाली, जो तिब्बत आने से पहले लुप्त हो गया, और कराना या |

पन्द्रहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के बीच विभिन्न तिब्बती गुरुओं ने पूर्ण सिद्धांत प्रणाली का पुनर्गठन किया | अतः वर्तमान काल में तिब्बती ज्योतिष अध्ययन में उभय गणना प्रणालियां सिखाई जाती है | यद्यपि कुछ तिब्बती वंशावलियाँ पूर्ण सिद्धांत प्रणाली को महत्त्व देती हैं, जो सूर्य तथा चंद्र ग्रहणों के विगणन के लिए कराना का प्रयोग करती हैं क्योंकि इससे श्रेष्ठतर परिणाम मिलते हैं |

भारत से उद्भूत दूसरी ज्योतिषीय सामग्री के स्रोत, दी अराइज़िंग फ्रॉम दी वॉवल्ज़ तंत्र, जिसे युद्धजय या विक्टरी इन बैटल्स तंत्र भी कहा जाता है, एक अकेला शैव हिन्दू तंत्र है जिसका तिब्बती में भाषान्तरण हुआ है और जिसे भारतीय टीकाओं के तेंग्यूर संग्रह में सम्मिलित किया गया है | इससे जो प्रमुख विशेषता उद्भूत हुई वह है व्यक्तिगत फलित कुण्डलियों की रचना | पश्चिमी ज्योतिष शास्त्र में व्यक्तिगत कुंडली में जन्मकालीन स्थिति पर विशेष बल दिया जाता है और उससे व्यक्तित्व का विश्लेषण तथा विवरण होता है | भारतीय प्रणालियों में, चाहे वे हिन्दू हो या बौद्ध, इसे माना जाता है, परन्तु इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है | सबसे अधिक रोचक विषय है जातक के भविष्य का पूर्वानुमान लगाना |

फलित कुण्डलियाँ

सभी परंपरागत भारतीय ज्योतिष पद्धतियाँ जातक की जीवन अवधि की गणना और विश्लेषण उस समय काल से करती हैं जिनपर क्रमशः नवग्रहों का प्रभाव रहता है | बौद्ध प्रणाली जीवन अवधि की गणना जन्म समय और जन्म कालीन चंद्र दशा से करती है और फिर उसे कुछ निर्धारित सूत्रों के अनुसार नौ दशाओं में बाँटती है | हिन्दू प्रणाली जीवन अवधि को महत्त्व नहीं देती | वह दशाओं को एक अन्य नियम के अनुसार बाँटती है | दोनों परिस्थितियों में ज्योतिषशास्त्री प्रत्येक दशा की व्याख्या उसके स्वामी ग्रह के सन्दर्भ, जन्मकुंडली, तथा उसके घटित होने की अवस्था से करते हैं |

यद्दपि बौद्ध ज्योतिषशास्त्र में लोगों की जीवन अवधि के लिए गणना है, परन्तु वह एक पूर्वनिर्धारित प्रारब्धवादी पद्धति नहीं है | यह हमें उन गणनाओं के विषय में भी बतलाती है जिससे हम अनेक सकारकात्मक, रचनात्मक कर्मों द्वारा अपनी जीवन अवधि को बढ़ा सकते हैं |  भारत की मूल कालचक्र प्रणाली में जीवन अवधि की गणना अधिकतम 108 की गई है, जबकि हिन्दू प्रणालियाँ अधिकतम 120 मानती हैं | तिब्बत में 108 को घटाकर 80 कर दिया गया क्योंकि बौद्ध शिक्षाओं के अनुसार क्षयोन्मुख अवस्था में औसत जीवन अवधि घट रही है | उन्नीसवीं शताब्दी में, न्यिन्गमा गुरु मिपम ने जीवन अवधि गणना को संशोधित करके अधिकतम 100 कर दिया | इसके अतिरिक्त, अधिकतम आयु पर ध्यान दिए बिना, जीवन अवधि की गणना करने के लिए तिब्बती प्रणाली में चार भिन्न विधियाँ हैं | अतः प्रत्येक व्यक्ति की अनेक संभावित जीवन अवधियाँ होती हैं | हम विभिन्न कर्मफलों के साथ जन्म लेते हैं जो परिपक्व हो सकते हैं |

यदि किसी व्यक्त्वि की निर्दिष्ट जीवन अवधि भी हो, तो भी असाधारण परिस्थितियाँ उसको बढ़ा अथवा घटा सकती हैं | यदि कोई मरणासन्न रूप से रोग-ग्रस्त है, तो हो सकता है उसके पास ठीक होने के लिए कार्मिक सम्भाव्यताएँ न हों | ऐसी स्थिति में, यह भी हो सकता कि उसकी लम्बी जीवन अवधि की गहन रूप से अन्तर्निहित संभाव्यता हो, और एक महान लामा की प्रार्थना एवं धार्मिक कृत्यों द्वारा वह लम्बी जीवन अवधि फलीभूत हो जाए, जो साधारण परिस्थितियों में न हो | इसी प्रकार भूकंप अथवा युद्ध जैसी बाह्य घटना ऐसी परिस्थिति पैदा कर सकती है जिससे गहराई में दबी हुई लघु आयु की नकारात्मक संभाव्यता फलीभूत हो जाए, जो सामान्यतया इस जीवनकाल में नहीं होती | ऐसे में हमारी 'अकाल मृत्यु' हो सकती है | दोनों स्थितियों में यदि हमारी गहराई में दबी हुई सम्भाव्यताएँ न हो, तो इस जीवन में नाटकीय परिस्थिति भी कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगी | कुछ लोगों को विशेष अनुष्ठानों से भी लाभ नहीं होता, और कुछ लोग भूकंप से भी बचकर निकल आते हैं |

अतः तिब्बती जन्मकुंडली जीवनकाल में होने वाली संभावना का केवल एक सामान्य पूर्वानुमान लगाती है | इस बात की कोई निश्चितता नहीं है कि हमारा भावी जीवन वास्तव में वैसा ही होगा | अन्य सम्भावनाएँ भी हो सकती हैं, क्योंकि ज्योतिषशास्त्र अन्य जीवन अवधियों का भी पूर्वानुमान लगा सकता है | प्रत्येक संभावना एक परिमेय स्तर के समान है | इनकी सम्भाव्यता हमारे कर्मों तथा असाधारण बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर है | हमारे जीवन में जो होता है, वह हमारे इस तथा पूर्वजन्मों के कर्मों से पैदा हुई कार्मिक संभाव्यता पर निर्भर करता है | अन्यथा एक ही समय और एक ही स्थान पर जन्मे मनुष्य तथा कुत्ते के जीवन समरूप होते |

तिब्बती जन्मकुंडली का मुख्य उद्देश्य है हमें भविष्य में आने वाली संभावित जीवनगतियों के प्रति सजग करना | यह हम पर निर्भर करता है कि हमारी जीवनगति उस ओर जाए या नहीं | यद्यपि हमारे जीवन की अनेक सम्भावनाएँ हैं, कुंडली से उनमें से किसी एक के भी विषय में जानकर हम अपने अनमोल मानव जीवन का लाभ उठाते हुए आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं | कालचक्र के सन्दर्भ में हम उन कर्म बाधाओं को पार करने की चेष्टा करते हैं ताकि हम दूसरों की सहायता करने में पूर्णतया सक्षम हो सकें | अपने कष्टों पर केंद्रित ध्यान साधना हमारे भीतर दूसरों के लिए सहृदयता का भाव, और मुक्ति (संन्यास) के प्रति दृढ संकल्प विकसित करती है | इसी प्रकार जन्म कुंडली में बतलाए गए जीवन में आने वाले दुःखों के विषय में सोचने से हम अपने धार्मिक पथ पर अग्रसर हो सकते हैं | तो इस पथ पर बढ़ने के लिए ज्योतिषशास्त्र में रुचि रखने वाले लोगों के लिए तिब्बती जन्मकुंडली एक सक्षम माध्यम हो सकती है | तिब्बती जन्मकुंडली में कभी भी पूर्वनिर्धारित अन्तर्निहित रूप से सत्य भविष्यवाणी नहीं होती |

अन्य ज्योतिष प्रणालियों से तुलना

श्वेत गणना प्रणाली में, अपने अखिल-भारतीय आधार के कारण, प्राचीन मिस्र ज्योतिषीय प्रणालियों के कुछ लक्षण समान हैं | इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है राशिचक्र को बारह राशियों और भावों में बाँटना, जहाँ तिब्बती भाषा में अनूदित राशियों के नाम, आधुनिक पश्चिमी प्रणाली में प्रयुक्त होने वाले नाम हैं | अतः पश्चिमी कुंडली के सामान, जन्मकुण्डलियों में ग्रहों को राशियों और भावों में व्यवस्थित किया गया है | परन्तु इनकी विवेचना बहुत भिन्न रूप से की जाती है | हिन्दू प्रणाली के प्रकार, इसमें भी एक समान-भाव प्रणाली प्रयुक्त की जाती है, ग्रहों के बीच के कोण नहीं माने जाते, तथा लग्न पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता |

राशिचक्र वह पट्टी है जिसके भीतर सूर्य, चंद्र, और ग्रह एक भूकेंद्रित रचना में धरती के चक्कर लगाते हैं | अधिकाँश गणनाओं के लिए, इस पट्टी को बारह राशियों के स्थान पर सत्ताईस नक्षत्रों में बाँटा गया है | यह रचना प्राचीन मिस्र या आधुनिक प्रणालियों में नहीं पाई जाती, परन्तु शास्त्रीय हिन्दू प्रणालियों में विद्यमान है | कभी कभी 18 तारामंडल निर्दिष्ट किए जाते हैं, परन्तु, जहाँ हिन्दू प्रणाली राशिचक्र को 18 समान अंशों में बाँटती है, वहीं तिब्बती प्रणाली २७ समान अंशों में एक अंश को दो भागों में बाँटती है |

प्राचीन चीनी खगोल शास्त्र में भी अट्ठाईस चंद्रीय तारामण्डलों की एक व्यवस्था पाई जाती है | वहाँ चीनी सम्राट की भाँति ध्रुवतारे को व्योमलोक का केंद्र माना जाता है | सम्राट के मंत्रियों की भाँति, ये नक्षत्र आकाशीय मध्यरेखा के साथ होते हुए ध्रुव नक्षत्र के चक्कर लगते हैं, और इसलिए अखिल भारतीय नक्षत्रों में पाए जाने वाले सितारों से कुछ भिन्न सितारों के समूह इसमें मिलते हैं | इसके अतिरिक्त अट्ठाईस चीनी तारामण्डल आकाश को बराबर के हिस्सों में नहीं बाँटते |

कालचक्र प्रणाली में दस गृह नक्षत्र आदि हैं जो सब 'ग्रह' कहलाते हैं | पहले आठ हैं सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, तथा एक धूमकेतु | धूमकेतु का जन्म-कुण्डलियों में प्रयोग नहीं किया जाता | अंतिम दो खगोलीय पिंडों को उत्तरी एवं दक्षिणी चंद्र संधि के ग्रह कहा जा सकता है |

यद्यपि सूर्य और चंद्र के ग्रहपथ राशिचक्र की पट्टी में पाए जाते हैं, वे आपस में एक दूसरे को काटते हैं | इनके मेल के दो बिंदुओं को चंद्र की उत्तरी और दक्षिणी चंद्र संधि कहा जाता है | प्रत्येक अमावस्या पर सूर्य और चंद्र लगभग एक ही स्थान पर पाए जाते हैं | सूर्य ग्रहण तब होता है जब उत्तरी या दक्षिणी संधियों पर इनकी कक्षाएँ एक दूसरे को काटती हैं, और सूर्य और चंद्र का मेल ठीक एक स्थान पर होता है | पूर्णिमा में सूर्य और चंद्र एक दूसरे के ठीक विपरीत होते हैं | चंद्र ग्रहण तब होता है जब एक उत्तरी संधि पर हो और दूसरा दक्षिणी संधि पर, तथा दोनों एक दूसरे के ठीक विपरीत हों |

शास्त्रीय हिन्दू और कालचक्र प्रणालियों में चंद्र की उत्तरी और दक्षिणी संधियों को ग्रह माना गया है, जबकि प्राचीन मिस्र प्रणाली में ऐसा नहीं है | दोनों भारतीय प्रणालियों में ग्रहणों को सूर्य व चंद्र की राहु और केतु के साथ युति के रूप में समझाया गया है |

कालचक्र प्रणाली में उत्तरी संधि ग्रह को राहु कहा गया है, अर्थात, "गरजने वाला", या अजगर का शीर्ष ग्रह, तथा दक्षिणी संधि ग्रह को कालाग्नि, जिसका अर्थ है "काल की अग्नि" अथवा अजगर का पुच्छल ग्रह | यद्यपि हिन्दू प्रणालियों में पहले वाले को राहु कहा जाता है, वे दूसरे को केतु कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है "लम्बी पूँछ", जिससे अभिप्राय है कि वह अजगर की पूँछ है | भारत के पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ग्रहण के समय यह तथाकथित "अजगर" सूर्य या चंद्र को निगल जाता है | कालचक्र पद्धति के अनुसार दसवें ग्रह, धूमकेतु, को केतु कहा गया है जिसे शास्त्रीय हिन्दू अथवा मिस्र प्रणालियों में सम्मिलित नहीं किया गया है | ये प्रणालियाँ क्रमशः नौ अथवा सात खगोलीय पिंड ही मानती हैं |

शास्त्रीय चीनी प्रणाली में उत्तरी और दक्षिणी संधियों का कोई उल्लेख नहीं था | चीनी केवल सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, एवं शनि की ही बात करते हैं | बाद में, जब उत्तरी और दक्षिणी संधियों की अवधारणा चीनी ज्योतिषशास्त्र में प्रविष्ट हुईं, उन्हें अजगर के सिर और पूँछ कहा गया, जिससे उनकी भारतीय उत्पत्ति का बोध होता है | तथापि, उन्हें ग्रह नहीं माना गया |

प्राचीन मिस्र तथा हिन्दू प्रणालियों की एक और समानता है-सप्ताह के दिनों को नाम ग्रहों पर रखना | सूर्य के लिए रविवार, चंद्र के लिए सोमवार, मंगल मंगलवार, बुध बुधवार, बृहस्पति बृहस्पतिवार, शुक्र शुक्रवार, तथा शनि शनिवार | इस कारणवश, तिब्बती भाषा में सप्ताह दिवस और ग्रह के लिए एक ही शब्द है |

पारम्परिक रूप से चीन में दस दिवसीय सप्ताह होता था | चीन में बसे फ़ारसी और सोग्दियन के ईसाई नेस्टर व्यापारी संप्रदाय के प्रभाव में सातवीं ईस्वी में सात दिवसीय सप्ताह अपनाया जाने लगा | परन्तु चीनी लोग सप्ताह के दिनों को उनके अंकों से सम्बोधित करते हैं, उनके ग्रहों के नामों से नहीं |

प्राचीन मिस्र और हिन्दू प्रणालियों में एक प्रमुख अंतर है उनमें प्रयुक्त राशिचक्र | आधुनिक पश्चिमी प्रणाली की भाँति, प्राचीन मिस्र में सायन राशिचक्र प्रयुक्त होता था, जबकि हिन्दू प्रणालियों में स्थिर-तारा अथवा नाक्षत्रिक राशि-चक्र का प्रयोग होता है | इन दोनों राशि-चक्रों का अंतर है शून्य डिग्री मेष की स्थिति | सायन राशि-चक्र में जब भी सूर्य उत्तरी गोलार्ध के वसंत विषुव पर होता है, इस स्थिति को शून्य डिग्री मेष कहते हैं, चाहे सूर्य की स्थिति उस समय मेष नक्षत्रमण्डल के सन्दर्भ में कहीं भी हो | स्थिर-तारा राशि-चक्र में सूर्य की स्थिति शून्य डिग्री मेष पर बताई जाती है जब सूर्य वास्तव में इस तारामंडल के आरम्भ बिंदु पर होता है |

कालचक्र प्रणाली ने हिन्दू प्रणालियों की आलोचना की और सायन राशिचक्र को बढ़ावा दिया | परन्तु, तिब्बतियों ने कालचक्र ज्योतिषशास्त्र के इस पहलू को नहीं अपनाया और पुनः स्थिरतारा प्रणाली की ओर लौट गए | कालचक्र सायन राशिचक्र और प्राचीन मिस्र तथा आधुनिक पश्चिमी प्रणालियाँ एक जैसी नहीं हैं और, इसी प्रकार, हिन्दू और तिब्बती स्थिरतारा प्रणालियाँ भी मेल नहीं खातीं | इन भेदों के विवरण कुछ जटिल हैं | चर्चा को सरल बनाने हेतु हम प्राचीन मिस्र प्रणाली को छोड़ देंगे |

लगभग 290 ईस्वी में, आकाश में पाया गया कि वसंत विषुव बिंदु वास्तव में मेष तारामंडल के आरम्भ में स्थित था | तब से यह लगभग प्रति बहत्तर वर्षों में एक डिग्री के दर पर बहुत धीमी गति से पीछे की और खिसकता जा रहा है | इस दृश्य-प्रपंच को "विषुव अयन" कहा जाता है - अर्थात, सूर्य की विषुव स्थिति की वक्र गति | चूँकि, भूगोल का ध्रुवीय अक्ष "स्थिर" तारा की ओर अभिमुख होकर धीरे-धीरे, 26,000 वर्षों में घूमता है, इसलिए, मेष की समीक्षित शून्य डिग्री तथा वसंत विषुव के आधार पर परिभाषित शून्य डिग्री के बीच विरोध है |

अब, वसंत विषुव बिंदु मीन राशि में तेईस और चौबीस डिग्री के बीच है, जो मेष राशि के ठीक पीछे है | इसलिए, जैसा आकाश में देखा जाता है, आधुनिक पश्चिमी प्रणाली शून्य डिग्री मेष राशि को मीन राशि में छह और सात डिग्री के बीच मानती है - अर्थात, सायन स्थिति से तेईस और चौबीस डिग्री कम |

वास्तव में स्थिति थोड़ी और जटिल है | ज्योतिषीय गणना की 5 विभिन्न शास्त्रीय भारतीय हिन्दू पद्धतियाँ हैं | सबसे प्रचलित, जो अभी भी भारत में प्रयुक्त होती है वह है सूर्य सिद्धांत (गणना की सूर्य पद्धति) | इसमें वसंत विषुव बिंदु को लगभग 500 ईस्वीं में शून्य डिग्री मेष पर माना जाता है, जब कि वास्तव में जैसा आकाश में देखा गया यह स्थान पहले से ही कुछ डिग्री मीन में था | वसंत विषुव की इस स्थिति को मेष के आरम्भ में मानते हुए सूर्य सिद्धांत फिर एक स्थिर-तारा राशिचक्र का निर्माण करता है |

भारतीय हिन्दू पद्धतियाँ विषुव के अयन के विषय में जानती थीं और उन्होनें उसके बल की गणना के लिए गणितीय सूत्र दिए | यद्यपि मेष के प्रेक्षित स्थान तथा वसंत विषुव बिंदु के बीच की विसंगति सीधी रेखा में बढ़ती जाती है, जब तक दोनों लगभग 26,000 वर्षों में एक स्थान पर नहीं मिलते, सूर्य सिद्धांत समझाता है कि यह विसंगति डोलायमान रहती है | पहले वसंत विषुव बिंदु धीरे-धीरे वक्री होता है जब तक वह शून्य डिग्री मेष के मूल निर्धारित स्थान के सत्ताईस डिग्री पीछे नहीं पहुँच जाता | फिर वह मार्गी हो जाता है और उस निर्धारित स्थान से सत्ताईस डिग्री आगे पहुँचने तक चलता है; जहाँ पहुँचने पर वह पुनः एक बार अपनी दिशा पलटता है जब तक वह मेष के मूल निर्धारित स्थान पर नहीं पहुँच जाता | उसके पश्चात यह दोलन दोहराया जाता है | इसलिए, इस दोलन का स्वरुप न तो सूर्य सिद्धांत द्वारा तय किए गए वसंत विषुव की बदलती हुई सूर्य की स्थिति से, और न ही मेष तारामंडल के प्रेक्षित स्थान के अनुसार बदलती हुई सूर्य की स्थिति के अनुरूप होता है |

सूर्य सिद्धांत और चार अन्य भारतीय हिन्दू प्रणालियों द्वारा प्रयुक्त स्थिर-तारा प्रणाली एवं विषुव के डोलायमान अयन की धारणा की ज्योतिष की कालचक्र प्रणाली ने आलोचना की है | इसके स्थान पर कालचक्र प्रणाली ने एक संशोधित सायन राशिचक्र पर बल दिया | कालचक्र प्रणाली के अनुसार वसंत विषुव बिंदु के स्थान को साठ वर्षों में एक बार प्रेक्षण द्वारा माप लेना चाहिए | फिर उस विषुव बिंदु को अगले साठ वर्षों तक शून्य डिग्री मेष को निर्धारित करने वाला स्थिर बिंदु माना जाएगा, जिसे अगले साठ वर्षों की कालावधि के प्रारम्भ में पुनः निर्धारित किया जाएगा | इसके अतिरिक्त, आधुनिक पश्चिमी पद्धति की भाँति, जैसे-जैसे यह बिना किसी दोलन के राशिचक्र के चारों ओर धीरे-धीरे वक्री होता है, वह विषुव के अयन को सीधी रेखा में आगे बढ़ते हुए बतलाता है |

यद्यपि, जब ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कालचक्र प्रणाली तिब्बत पहुंची, तो तिब्बतियों ने वसंत विषुव बिंदु के समय समय पर होने वाले संशोधन को बंद कर दिया | इसके परिणामस्वरूप, तिब्बती राशिचक्र प्रणाली एक स्थिर-तारा प्रणाली बनकर रह गई, परन्तु इसमें पाई जाने वाली शून्य डिग्री मेष के स्थिर स्थान तथा वास्तविक प्रेक्षित स्थान के बीच की विसंगति किसी भी भारतीय हिन्दू प्रणाली में पाई जाने वाली विसंगतियों से भिन्न है | वर्तमान में यह लगभग तीस डिग्री है |

आकाश को देखकर पता चलता है कि वास्तव में मेष तारामंडल के प्रारम्भ के प्रेक्षित स्थान से तेईस और चौबीस डिग्री के बीच के अयन कारक को घटाने से जो संख्या मिलती है वह पश्चिमी प्रणाली के शून्य डिग्री मेष के अनुरूप है | जब यह आज से लगभग चार शताब्दियों के बाद दोबारा अगली राशि, कुम्भ, में जाएगा तो प्राविधिक रूप से तथाकथित "कुम्भ के नए युग" का प्रारम्भ होगा | साधारण भाषा में जब लोग कुम्भ युग के प्रारम्भ की बात करते हैं तो संभवतः वे इसे शताब्दी के मोड़ के नए स्वर्णिम युग की ईसाई धारणा समझ बैठते हैं |

मुग़लों के समय में, विशेषतः अट्ठारहवीं सदी से, अरबी प्रभाव और पश्चिमी ज्योतिष शास्त्र के संपर्क के कारण जब ग्रह नक्षत्रों का प्रेक्षण सर्वव्यापक हुआ, तो कई हिन्दू प्रणालियों ने सूर्य का ही नहीं, अपितु अन्य ग्रहों के स्थान जानने के पारम्परिक गणितीय प्रतिमानों को त्याग दिया | उन्होंने पाया कि पश्चिमी प्रतिमान अधिक शुद्ध परिणाम देते थे, जिन्हें दूरदर्शक से, तथा मुग़ल वेधशालाओं में निर्मित खगोलीय पिंडों के मापन यंत्रों द्वारा सत्यापित किया जा सकता था | उन्होंने यह भी पाया कि विषुव के डोलते हुए अयन की संकल्पना भी त्रुटिपूर्ण थी | इसलिए स्थिर तारा राशिचक्र को मानते हुए अनेक ने एक नई तकनीक अपनाई जिसमें स्थिर-तारा राशिचक्र में ग्रहों के स्थान पाने के लिए सभी ग्रहों के पश्चिमी मूल के सायन राशिचक्र स्थानों में से समान रूप से एक मानक अयन परिमाण को घटाना होता था | प्रत्येक हिन्दू परंपरा में परिवर्तन गुणक के रूप में एक थोड़ा सा भिन्न अयन परिमाण अपनाया |  इनमें से सब से प्रचलित, तेईस और चौबीस डिग्री के बीच का गुणक, वास्तव में प्रेक्षित की गई विसंगति है |

परन्तु, कई हिन्दू ज्योतिषाचार्यों का मत है कि पारम्परिक रूप से गणना की गई ग्रह स्थितियों से अधिक शुद्ध ज्योतिषीय जानकारी मिलती है | यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है, क्योंकि तिब्बतीय ज्योतिषशास्त्र अब उस पड़ाव पर है जहाँ अट्ठारहवीं शताब्दी में पश्चिमी खगोलशास्त्र के संपर्क में आने पर हिन्दू ज्योतिषशास्त्र था | कालचक्र प्रणाली के गणितीय प्रतिमानों से उद्भूत ग्रहों की स्थिति भी निरीक्षित स्थानों के साथ ठीक-ठीक मेल नहीं खाती | परन्तु यह निर्णय करना अभी बाक़ी है कि क्या हिन्दू उदाहरण का अनुसरण करना आवश्यक होगा जिसमें परम्परा का बहिष्कार करते हुए पश्चिमी मूल्य अपनाए गए हों जिन्हे प्रेक्षित अयन गुणक से आशोधित किया गया है |

तर्क के लिए ऐसा कहा जा सकता है कि इस बात से बहुत अंतर नहीं पड़ता कि ग्रहों की वास्तविक प्रेक्षित स्थिति क्या है क्योंकि तिब्बती बौद्ध ज्योतिषशास्त्र का ध्येय कभी भी चाँद पर यान भेजना अथवा पानी के जहाज़ को चलाना नहीं था | खगोलीय आंकड़ों की गणना ज्योतिषीय उद्देश्यों के लिए की गई है, और यदि यह ज्योतिषीय जानकारी आनुभविक रूप से सटीक और लाभदायक है, तो इतना ही पर्याप्त है |

तिब्बती ज्योतिषशास्त्र का उद्देश्य है कि हम अपने जीवन में मूल कार्मिक परिस्थितियाँ जानकर सभी सीमाओं को पार कर पाएँ, तथा अपनी सारी शक्तियों को सिद्ध करके दूसरों की अधिकाधिक सहायता कर पाएँ | तिब्बती ज्योतिष विद्याओं को इस बौद्ध सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए | उन खगोलीय आंकड़ों के आधार पर, जो ग्रहों की प्रेक्षित स्थिति से मेल नहीं खाते, इन विद्याओं पर निर्णय देना और उन्हें बदलना अप्रासंगिक होगा |

एक दूसरे की प्रणालियों से सीखकर लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि पश्चिमी और तिब्बती लोग एक दूसरे के ज्ञान और पांडित्य के भंडार की सम्पूर्णता का सम्मान करें | विचारों का आदान प्रदान किया जा सकता है और शोध के नए आयामों के लिए सुझाव लिए जा सकते हैं, परन्तु बिना जाँच पड़ताल के पारम्परिक दृष्टिकोण को नकारना और विदेशी दृष्टिकोण को अपनाना मूर्खता होगी | जैसा तिब्बती चिकित्सा और ज्योतिषशास्त्र के इतिहासों में देखा गया है, विदेशी संस्कृतियों की विचारधाराओं का आँख मूँदकर अनुसरण नहीं किया गया | उन्होंने तिब्बतियों को अपनी अनोखी प्रणालियाँ विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जो उनके अपने शोध और अनुभव पर आधारित थीं, जिनमें विदेशी विचारधाराओं ने नया रूप धारण किया | इस प्रकार सबके लाभ हेतु प्रगति होती है |

श्याम गणना

चीनी मूल की श्याम गणनाओं ने, जिन्हें तत्व गणनाएँ भी कहा जाता है, तिब्बती पञ्चाङ्ग में कुछ और विशेषताएँ जोड़ी हैं, जैसे लोहे के अश्व के वर्ष जैसी पशु और तत्व चक्रों के बीच सहसम्बद्धता | वे व्यक्तित्व का विश्लेषण करने तथा सामान्य भविष्यसूचक व्यक्तिगत जन्मकुण्डलियाँ बनाने के लिए परिवर्ती कारक प्रदान करते हैं | फिर इन विशेषताओं को श्वेत गणना प्रणाली से उद्भूत जन्मकुंडली की जानकारी के साथ जोड़ा जाता है |

चीनी मूल की सामग्री में पाँच प्रमुख क्षेत्रों की गणना होती है | पहली गणना मूल वार्षिक प्रगति के लिए होती है, जिससे पता चलता है कि जीवन के प्रत्येक वर्ष में क्या होगा | दूसरी का सम्बन्ध रोगों से है, यह पता लगाने के लिए, कि क्या वे रोग पिशाचों के कारण हुए हैं, और यदि हाँ, तो किस प्रकार की प्रेतात्मा हैं तथा उन्हें शान्त करने के लिए कौन सा अनुष्ठान पूरा करना है, तथा यह पूर्वानुमान लगाना कि वे रोग कब तक ठीक होंगे | तीसरी गणना मृतकों के लिए है, विशेषतः इसलिए कि घर से कब और किस दिशा में शव को ले जाना है, और हानिकारक तत्वों को नष्ट करने के लिए कौन से अनुष्ठानों का पालन करना है | चौथी, अड़चनों की गणना के लिए है, कि वे सामान्यतः पंचांग में और विशेषतः किसी व्यक्ति के जीवन में कब कब आती हैं | पाँचवीं का सम्बन्ध विवाह से, विशेषतः भावी दंपत्ति के बीच की समरसता से, है | अतः तत्व गणना का उपयोग मुख्य रूप से ज्योतिष शास्त्र के कार्यों के लिए किया जाता है |

भारत से उद्भूत सामग्री तथा भारतीय हिन्दू प्रणाली की तरह, चीनी मूल की सामग्री और पारम्परिक चीनी ज्योतिषीय सम्प्रदायों के बीच भी कई समानताएँ हैं | तथापि, तिब्बतियों ने जिस प्रकार उन्हें विकसित कर उपयोग किया है, उसमें कई भिन्नताएँ हैं |

तत्व गणना प्रणाली पंचांग को साठ वर्षों के आवर्ती चक्र के साथ सहसम्बद्ध करता है, जिसमें प्रत्येक वर्ष पर क्रमशः बारह में से एक पशु का आधिपत्य होता है | पारम्परिक चीनी क्रम चूहे से होता है, परन्तु तिब्बती श्रृंखला चौथी चीनी जानवर, खरगोश, से होती है | इस प्रकार साठ वर्षीय श्रंखला का आरम्भ अलग अलग स्थानों से होता है |

बारह पशुओं की सूची वर्ष के एक शक्तिप्रदायक तत्व के साथ गुँथी हुई है, जो पारम्परिक चीनी पंचतत्वों - काष्ठ, अग्नि, पृथ्वी, लोहा, और जल - का एक समुच्चय है | प्रत्येक तत्व का दो वर्षों तक आधिपत्य रहता है, जिसमें पहला वर्ष पुरुष तथा दूसरा स्त्री का माना जाता है | तिब्बती कभी भी चीनी याँग और यिन का प्रयोग नहीं करते | इसलिए किसी निर्दिष्ट संयोग को दोबारा आने में साठ वर्ष लगते हैं, जैसे पारम्परिक चीनी सूची में काष्ठ-पुरुष-चूहे वाला पहला वर्ष, अथवा तिब्बती में अग्नि-स्त्री-खरगोश वाला पहला वर्ष |

तिब्बती ज्योतिष प्रणाली में दस खगोलीय तने और बारह भौतिक शाखाओं की पारम्परिक चीनी प्रणाली प्रयुक्त नहीं होती | चीनी लोग इसे साठ वर्षीय चक्र से सम्बद्ध करते हैं, और अपने पंचांग और ज्योतिषशास्त्र में, पशुओंऔर तत्वों की तुलना में, इसपर कहीं अधिक बल देते हैं |

जन्म वर्ष के लिए पशु और तत्व के समुच्चय के अतिरिक्त, आयु के प्रत्येक वर्ष के लिए एक उन्नत समुच्चय व्युत्पन्न किया जाता है, परन्तु इसकी गणना पुरुषों और स्त्रियों के लिए भिन्न रूप से की जाती है | वास्तव में, पुरुषों और स्त्रियों के लिए अधिकतर चीनी उद्भूत की गणनाएँ भिन्न होती हैं | यहाँ यह कहना उचित होगा कि तिब्बती और चीनी प्रणालियों में हमारी आयु से अभिप्राय है पंचांग के वर्षों की वह संख्या जब हम जीवित हैं, चाहे वह अवधि किसी विशेष वर्ष में कितनी भी छोटी क्यों न हो | उदाहरण के लिए, यदि किसी का जन्म एक वर्ष के तिब्बतीय दसवें महीने में हुआ है, तो तिब्बती नव वर्ष तक उसकी आयु एक वर्ष होगी, तथा फिर तुरंत दो वर्ष की | ऐसा इसलिए है क्योंकि, यद्यपि उस व्यक्ति का जन्म केवल तीन महीने पहले ही हुआ है, परन्तु पंचांग के अनुसार वह दो वर्ष का है | इसलिए सभी तिब्बती लोग तिब्बती नव वर्ष पर एक साल बड़े हो जाते हैं और वे पश्चिमी ढंग से अपने जन्मदिन को न मनाते हैं और न ही उनकी गिनती करते हैं | इस प्रकार तिब्बती आयु की धारणा पश्चिमी धारणा से मेल नहीं खाती, जिसमें जन्म से जितने पूर्ण वर्ष बीते हैं उनकी गणना की जाती है |

साठ वर्षीय चक्र में बारह पशुओं में से प्रत्येक पशु के पाँच तत्वों के साथ विभिन्न समुच्चयों के पाँच सम्बद्ध तत्वों के गुट कंकड़-गणना के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं | ये कंकड़-तत्व हैं जीवन-शक्ति, शरीर, शक्ति अथवा क्षमता, सौभाग्य, तथा जीवन-प्राण | प्रथम चार कंकड़ तत्व पारम्परिक चीनी ज्योतिषशास्त्र में भी पाए जाते हैं, जहाँ शक्ति से अभिप्राय है धन-संपत्ति | जीवन-प्राण अथवा जीवन की संयोजन- शक्ति (तिब्बती में ब्ला) एक तिब्बती धारणा है, जो बॉन की मूल परंपरा में भी पाई जाती है |

जन्म कालीन कंकड़-गणना एवं किसी भी चलित वर्ष की कंकड़-गणना के बीच के सम्बन्ध के विश्लेषण के आधार पर हम जीवन-शक्ति तत्वों से उस वर्ष में जीवन के प्रति संभावित संकट, तथा शरीर-तत्वों से स्वास्थ्य और शारीरिक हानि के बारे में बता सकते हैं | शक्ति-तत्वों से हम सफलता के बारे में जान सकते हैं, जैसे व्यावसायिक सफलता, सौभाग्य-तत्व से सामान्य धन-संपत्ति और यात्रा के विषय में, और जीवन-प्राण से हमारे कुशल-क्षेम तथा जीवन की मूल संयोजन- शक्ति के स्थायित्व के बारे में | यदि उस वर्ष हमारे संबंधों में कठिनाइयाँ आती हैं, तो उन विषमताओं की रोकथाम के लिए धार्मिक अनुष्ठानों की सलाह दी जाती है |

प्रत्येक पशु का सप्ताह के तीन दिन के साथ सम्बन्ध है - जीवन-शक्ति, जीवन-प्राण, तथा मारक | जिन लोगों के जन्म-पशु समान हैं, उनके लिए पहले दो दिन शुभ होते हैं, परन्तु तीसरा अशुभ | इसका प्रयोग विशेष रूप से वैद्यक-ज्योतिषशास्त्र में चिकित्सा के दिन चुनने में होता है |

अभिमंत्रित समचतुर्भुजों का भी प्रयोग किया जाता है, विशेषतः तीन बटा तीन का ढाँचा, जिसके प्रत्येक ख़ाने में एक से नौ की संख्या इस प्रकार लिखी होती है कि उन्हें, पट, लंब, या तिरछा, जैसे भी जोड़ा जाए, किसी भी पंक्ति की कुल संख्या पंद्रह ही होगी | ये नौ अंक साठ-वर्षीय चक्र से ऐसे जुड़ते हैं कि प्रत्येक 180 वर्ष में वही अभिमंत्रित समचतुर्भुज अंक उसी तत्व-पशु वर्ष से सहसम्बद्ध होगा | यह शृंखला पहले अंक से आरम्भ होकर, फिर उल्टे क्रम में बढ़ती है: नौ, आठ, सात, इत्यादि | इस अभिमंत्रित चतुर्भुज का प्रत्येक अंक एक रंग के साथ जुड़ा होता है और, इनमें से प्रत्येक, पाँच चीनी तत्वों में से एक से | इन अंकों को प्रायः इनके रंग के साथ ही जाना जाता है | एक-श्वेत लोहा है, दो-काला जल, तीन-गहरा नीला पानी, चार-हरा काष्ठ, पाँच-पीला पृथ्वी, छह-श्वेत लोहा, सात-लाल अग्नि, आठ-श्वेत लोहा, और नौ-उन्नाबी या नौ-लाल अग्नि | जब अभिमंत्रित चतुर्भुज छापा जाता है, तब प्रत्येक ख़ाने का रंग इस रचना के अनुसार होता है |

आयु के प्रत्येक वर्ष के लिए जन्मांक से एक उन्नत अभिमंत्रित चतुर्भुज अंक निकाला जाता है | जैसा उन्नत तत्व-पशु संयोग में पाया जाता है, पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए गणना भिन्न होती है | प्रत्येक जन्म कालीन चतुर्भुज अंक की एक व्याख्या होती है जिसमें पूर्वजन्मों का विवरण निहित होता है, तथा जिनकी अवशिष्ट प्रवृत्तियाँ इस जन्म में होती हैं | इसके साथ-साथ संभावित भावी जन्म को सुधारने के लिए धार्मिक अनुष्ठान एवं मूर्ति स्थापना ताकि भावी पुनर्जन्म के  स्वरूप की संभावना निर्मित की जा सके | इस प्रकार तिब्बती जन्मकुण्डलियों में दिए गए पूर्व तथा भावी जन्मों की जानकारी का यह स्त्रोत है | इनकी सहायता से, जैसा तत्वों के साथ किया जाता है, शरीर, जीवन-शक्ति, तथा क्षमता, सौभाग्य अभिमंत्रित चतुर्भुज अंकों की गणना भी की जा सकती है और उनका परीक्षण भी किया जा सकता है |

तिब्बती तत्व अथवा श्याम गणना में आई-चिंग अथवा बुक ऑफ़ चेंजेज़ के आठ त्रिग्राम का प्रयोग भी होता है - जो पट क्रम में तीन भंग या अभंग रेखाएँ होती हैं - परन्तु चौंसठ हेक्साग्राम का नहीं | आयु के प्रत्येक वर्ष के लिए त्रिग्रामों की एक विशिष्ट व्यवस्था से एक उन्नत त्रिग्राम का उद्भव होता है | यह गणना पुरुषों एवं महिलाओं के लिए भिन्न होती है | समान लिंग और समान आयु के सभी जातकों के लिए एक ही उन्नत त्रिग्राम होता है |

तिब्बती ज्योतिषशास्त्र के बॉन रूपांतर के अतिरिक्त, कोई चलित वार्षिक त्रिग्राम नहीं होते जहाँ प्रत्येक पंचांग वर्ष के लिए एक त्रिग्राम किसी विशिष्ट क्रम में निर्धारित किया जाता हो | इस प्रकार पुरुषों एवं स्त्रियों के जन्मस्थ त्रिग्राम की गणना उनके जन्म वर्ष से नहीं की जाती, अपितु उनकी माता की उस आयु के उन्नत त्रिग्राम से की जाती है जिस वर्ष में उसने उन्हें जन्म दिया था | जन्मस्थ एवं उन्नत त्रिग्रामों की व्याख्या से फलित जन्मकुण्डलियों के लिए अधिक जानकारी मिलती है |

इसके अतिरिक्त, शरीर, जीवन-शक्ति, तथा क्षमता, सौभाग्य त्रिग्रामों की गणना भी की जा सकती है, और ये चार प्रकार के अभिमंत्रित चतुर्भुज अंकों से मिलते हैं जिनकी गणना जन्मांक से की जाती है | विवाह में भावी जोड़े की समनुरूपता की गणना के लिए इन चार त्रिग्रामों, तथा शरीर, जीवन-शक्ति, तथा क्षमता, सौभाग्य जन्मस्थ कंकड़-तत्वों की तुलना की जाती है |

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