गौण बोधिसत्व संवर

परिचय

गौण बोधिसत्व संवरों का उद्देश्य 46 सदोष कृत्यों का निग्रह करना होता है। इन सदोष कृत्यों को सात समूहों में बांटा जाता है जिनमें से प्रत्येक समूह छह पारमिताओं की हमारी साधना के लिए और दूसरों की भलाई करने की दृष्टि से अहितकर होते हैं।

ये छह पारमिताएं हैं:

  • दानशीलता
  • नैतिक आत्मानुशासन
  • धैर्य
  • लगनशीलता
  • मानसिक स्थिरता (एकाग्रता)
  • सविवेक बोध (प्रज्ञा)

हालाँकि सदोष कृत्य हमारी ज्ञानोदय प्राप्ति के प्रतिकूल होते हैं और उसे बाधित करते हैं, किन्तु चार आबद्धकारी कारकों के साथ इन्हें किए जाने पर भी हमारे बोधिसत्व संवर नष्ट नहीं होते हैं। लेकिन, ये कारक जितने अधिक अपूर्ण होते हैं, बोधिसत्व मार्ग पर हमारे आध्यात्मिक विकास को उतनी ही कम क्षति पहुँचती है। यदि हमसे इनमें से कोई सदोष कृत्य हो जाए तो हम अपनी गलती को स्वीकार करते हैं और इनके प्रभाव को खत्म करने वाले प्रतिबलों को लागू करते हैं, जैसाकि मूल बोधिसत्व संवरों के मामले में किया जाता है।

[देखें: मूल बोधिसत्व संवर]

इन 46 कृत्यों के बारे में बहुत सी बातें सीखने की आवश्यकता होती है क्योंकि ऐसे कई अपवाद हैं जब इन कृत्यों को करने से कोई दोष नहीं लगता है। किन्तु व्यापक दृष्टिकोणों को विकसित करने की दृष्टि से हमें होने वाली क्षति और दूसरों की भलाई कर पाने की हमारी क्षमता का ह्रास हमारे सदोष कृत्यों के पीछे की प्रेरणा पर निर्भर करता है। यदि यह प्रेरणा आसक्ति, क्रोध, द्वेष या अहंकार जैसी अशांतकारी चित्तावस्था की हो तो होने वाली क्षति किसी गैर-अशांतकारी किन्तु अहितकारी चित्तावस्था जैसे उदासीनता, आलस्य, या विस्मृति की प्रेरणा से होने वाली क्षति की तुलना में बहुत अधिक होती है। उदासीन होने की स्थिति में हम अपनी साधना में श्रद्धा या सम्मान खो देते हैं जिसके कारण हम साधना को जारी रखने की परवाह नहीं करते। आलस्य होने पर हम इसलिए अपनी साधना की अनदेखी करते हैं क्योंकि हमें कुछ न करना अधिक अच्छा और आसान लगता है। सचेतनता का अभाव होने पर हम दूसरों की सहायता करने की अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरी तरह से भुला देते हैं। इन 46 कृत्यों में से बहुत से कृत्यों के लिए हम दोषी नहीं होते हैं यदि अन्ततः हम उन्हें अपने व्यवहार में से खत्म कर देने का इरादा रखते हों, किन्तु हमारे अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण अभी भी इतने दृढ़ होते हैं कि हम आत्मनियंत्रण नहीं रख पाते हैं।

यहाँ दी गई प्रस्तुति 15वीं शताब्दी के गेलुग आचार्य त्सोंग्खापा द्वारा रचित बोधिसत्वों के नैतिक आत्मानुशासन की व्याख्या: ज्ञानोदय प्राप्ति का मुख्य मार्ग पर आधारित है।

व्यापक दानशीलता की साधना के लिए अहितकर सात सदोष कृत्य

दानशीलता को दूसरों को देने के लिए प्रवृत्त होने के दृष्टिकोण के रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें भौतिक वस्तुओं, अभय, और शिक्षाओं का दान देने की स्वेच्छा को शामिल किया गया है।

दानशीलता को विकसित करने की साधना पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले सात सदोष कृत्यों में से दो कृत्य दूसरों को भौतिक वस्तुओं का दान करने की हमारी तत्परता को नुकसान पहुँचाते हैं, दो कृत्य दूसरों को अभय का दान करने की तत्परता को क्षति पहुँचाते हैं, दो कृत्य ऐसे हैं जो दूसरों को दानशीलता विकसित करने और उसका व्यवहार करने में बाधक होते हैं, और एक कृत्य शिक्षाओं का दान करने की हमारी दानशीलता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

दूसरों को भौतिक वस्तुओं का दान करने की तत्परता को विकसित करने में बाधक दो सदोष कृत्य

(1) अपने शरीर, वाणी और चित्त के तीन द्वारों के माध्यम से त्रिरत्नों को चढ़ावा अर्पित न करना

किसी बात से अप्रसन्न होने के कारण मनःस्थिति अच्छी न होने पर, या आलस्य, उदासीनता, या भूलवश हर दिन तीन बार और हर रात तीन बार बुद्धजन, धर्म और संघ को कम से कम अपने शरीर से साष्टांग, अपनी वाणी से प्रशंसा के शब्दों, और अपने चित्त और हृदय से उनके सद्गुणों को स्मरण करने का चढ़ावा अर्पित न करना। यदि हम प्रसन्नचित्त से शरणागति के त्रिरत्नों को इतना भी अर्पित नहीं कर सकते हैं, तो फिर हम सभी को सब कुछ दे देने की तत्परता को कैसे पूर्ण विकसित कर सकेंगे?

(2) अपने चित्त की तृष्णाओं के पीछे भागना

तृष्णा, आसक्ति, या संतोष के अभाव के कारण आँख, कान, गंध, रस, या स्पर्ष संवेदना की पाँच इंद्रियों से जुड़े विषयों में से किसी में लिप्त होना। उदाहरण के लिए, सुस्वादु वस्तुओं के प्रति आसक्ति के कारण हम भूख न होने पर भी रेफ्रिजरेटर में रखे केक को निकाल-निकाल कर खाते रहते हैं। यह प्रवृत्ति कृपणता को नियंत्रित करने के हमारे प्रयासों के लिए अहितकर है। जल्दी ही हमें केक को जमा करने, और यहाँ तक कि उसे शेल्फ में पीछे की तरफ छिपाने की भी आदत पड़ जाती है ताकि हमें उसे किसी के साथ साझा न करना पड़े। यदि हम सचमुच पूरी तरह से इस बुरी आदत को नियंत्रित करना चाहते हों लेकिन भोजन के प्रति हमारी आसक्ति के बहुत अधिक प्रबल होने के कारण उसे नियंत्रित न कर पा रहे हों, तो केक का एक टुकड़ा निकाल कर खा लेने में हमारा दोष नहीं है। फिर भी हम केक का छोटा टुकड़ा लेकर और बार-बार न खा कर अपने आत्मनियंत्रण को बढ़ाने का प्रयास करते हैं।

दूसरों को अभय दान देने की तत्परता को विकसित करने में बाधक दो सदोष कृत्य

(3) अपने से बड़ों के प्रति सम्मान प्रकट न करना

इस कृत्य के लक्ष्यों में हमारे माता-पिता, गुरुजन, उत्कृष्ट गुणीजन और सामान्य तौर पर कोई भी वरिष्ठ व्यक्ति या ऐसे लोग शामिल होते हैं जो उम्र में हमसे बड़े हों। जब हम अहंकार, क्रोध, द्वेष, आलस्य, बेपरवाही, या भूल जाने के कारण बस में उन्हें अपनी सीट नहीं देते, हवाई अड्डे पर उन्हें लेने नहीं जाते, उनका सामान उठाने में मदद नहीं करते आदि, तो हम उन्हें भय और चिंता की ऐसी स्थिति में छोड़ देते हैं जिससे उबरना उनके लिए कठिन होता है।

(4) दूसरों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर न देना

अहंकार, क्रोध, द्वेष, आलस्य, बेपरवाही, या भूल जाने के कारण दूसरों द्वारा गम्भीरता से पूछे गए प्रश्नों का प्रसन्नचित्त होकर उत्तर न देना। ऐसे लोगों की उपेक्षा करके हम उन्हें असमंजस की स्थिति में छोड़ देते हैं जहाँ उनकी मदद करने वाला कोई नहीं होता – यह भी एक भय और असुरक्षा की स्थिति है।

इन संवरों पर त्सोंग्खापा की टीका में दिए गए विवरण के उदाहरण के रूप में अब हम उन अपवादों को देखेंगे जहाँ मौन रहने या उत्तर देने में विलम्ब करने पर कोई दोष नहीं लगता है। यदि हम स्वयं ऐसी स्थिति में हों तो बहुत बीमार होने की स्थिति में या उस स्थिति में हमें उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है जब प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति ने जान बूझकर इस काम के लिए आधी रात को जगा दिया हो। यदि कोई आपातस्थिति न हो तो उस व्यक्ति से ऐसा कह देने में कोई दोष नहीं है कि वह हमारी तबीयत संभलने तक या सुबह होने तक प्रतीक्षा करे।

परिस्थिति के हिसाब से इसके अपवाद होते हैं, उदाहरण के लिए जब हम दूसरों को उपदेश दे रहे हों, कोई व्याख्यान दे रहे हों, किसी अनुष्ठान का सम्पादन कर रहे हों, किसी को ढाढ़स बँधा रहे हों, कोई पाठ सीख रहे हों, या कोई चर्चा सुन रहे हों और तब कोई व्यक्ति प्रश्न पूछकर हमें बीच में ही टोक दे। तब हम विनम्रतापूर्वक उस व्यक्ति को कह देते हैं कि वह अपना प्रश्न बाद में पूछ ले।

कुछ स्थितियों में खामोश रहना या अपने उत्तर को बाद के लिए टाल देना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, पश्चिम जगत में बौद्ध धर्म पर कोई व्याख्यान देते समय यदि हम नरकों के बारे में किसी प्रश्न का विस्तार से उत्तर देने लगें तो बहुत से लोग उससे ऊब जाएंगे जिसके कारण उनके धर्म के साथ जुड़ने में बाधा उत्पन्न होगी। किसी के प्रश्न का उत्तर देते हुए, जैसे हमारी पृष्ठभूमि के बारे में किसी कट्टरपंथी व्यक्ति के प्रश्न का उत्तर देने से, यदि वह व्यक्ति हमसे अप्रसन्न हो सकता हो और हमारी सहायता लेने के प्रति अग्रहणशील हो सकता हो तो उस स्थिति में चुप रहना ही बेहतर होगा। उस स्थिति में भी मौन ही बेहतर होगा जब हमारे मौन के कारण दूसरे लोगों के विनाशकारी व्यवहार को बंद कर देने और सकारात्मक व्यवहार शुरू करने की सम्भावना हो – उदाहरण के लिए जब हमारे ऊपर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आश्रित लोग अपने जीवन की हर स्थिति के बारे में हमसे ही पूछते हों और हम उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेना और चीज़ों को स्वयं समझना सिखाना चाहते हों।

इसके अलावा, यदि हम मौनव्रत रखकर एकांतवास की साधना कर रहे हों और कोई हमसे कुछ पूछने लगे तो कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। और अन्त में, किसी व्याख्यान के बाद के प्रश्नोत्तर सत्र को उस स्थिति में बंद कर देना ही श्रेयस्कर है जब श्रोता बहुत थक चुके हों या बहुत देर हो चुकी हो, उस स्थिति में हम श्रोताओं को नाराज़ ही करेंगे।

दानशीलता को विकसित करने और उसका अभ्यास करने की दृष्टि से दूसरों को उपयुक्त अवसर न उपलब्ध कराने के दो सदोष कृत्य

(5) आमंत्रित किए जाने पर आतिथ्य स्वीकार न करना

यदि हम अहंकार, क्रोध, द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण किसी से मिलने या भोज के लिए जाने से इन्कार कर देते हैं तो हम दूसरे व्यक्ति को अतिथि सत्कार करके पुण्य संचित करने के अवसर से वंचित करते हैं। जब तक कि मना करने के लिए उचित कारण न हो, तो आमंत्रित करने वाला परिवार कितना ही दीन क्यों न हो, हम उसके निमंत्रण को स्वीकार कर लेते हैं।

(6) भौतिक वस्तुओं के उपहार स्वीकार न करना

ऊपर बताए गए उदाहरण वाले ही कारणों से।

शिक्षाएं विकसित करने के लिए बाधक एक सदोष कृत्य

(7) सीखने के इच्छुक लोगों को धर्म की जानकारी उपलब्ध न कराना

यहाँ बौद्ध धर्म की शिक्षा देने, धर्म सम्बंधी पुस्तकें दूसरों को उधार देने, अपने नोट्स साझा करने से इस कारण से इन्कार करने के पीछे क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या की प्रेरणा होती है कि वे बाद में हमसे आगे निकल जाएंगे, या आलस्य, या उदासीनता की प्रेरणा होती है। दूसरे मूल बोधिसत्व संवर के मामले में हम आसक्ति और कृपणता के कारण इन्कार कर देते हैं।

व्यापक नैतिक आत्मानुशासन की साधना में बाधक नौ सदोष कृत्य

नकारात्मक कृत्यों से विरत रहने के दृष्टिकोण को ही नैतिक आत्मानुशासन (शील) कहते हैं। सकारात्मक कार्यों में रत रहने और दूसरों की सहायता करने के अनुशासन को भी इसमें शामिल किया जाता है।

नैतिक आत्मानुशासन को विकसित करने में बाधक बनने वाले नौ सदोष कृत्यों में से चार का सम्बंध ऐसी स्थितियों से होता है जहाँ हमारा ध्यान मुख्यतः दूसरों पर होता है, तीन कृत्य स्वयं हमारी अपनी स्थिति से सम्बंधित होते हैं, और दो कृत्य स्वयं हमसे और दूसरों से, दोनों से सम्बंधित होते हैं।

चार सदोष कृत्य जिनका सम्बंध ऐसी स्थितियों से होता है जहाँ हमारा ध्यान प्रमुखतः दूसरों पर होता है

(1) ध्वस्त नैतिक नीतियों वाले लोगों की अनदेखी करना

यदि हम क्रोध, द्वेष, आलस्य, उदासीनता, या भूल जाने के कारण ऐसे लोगों की अनदेखी, उपेक्षा करते हैं या नीचा दिखाते हैं जिन्होंने अपने संवरों को तोड़ा हो या कोई जघन्य अपराध किया हो, तो हम सकारात्मक कृत्य करने और दूसरों की सहायता करने की दृष्टि से अपने नैतिक आत्मानुशासन को क्षीण करते हैं। ऐसे लोग वर्तमान समय में और भविष्य में भी क्लेश और दुख भोगने के लिए कारणों का निर्माण कर चुके होते हैं और इसलिए उन्हें हमारी फिक्रमंदी और अनुग्रह दृष्टि की विशेष आवश्यकता होती है। नैतिक न्यायपरायणता या नैतिक अमर्ष का प्रदर्शन किए बिना हम उनकी सहायता करने का प्रयत्न करते हैं, जैसे हम किसी कारावास के इच्छुक कैदियों को ध्यानसाधना करना सिखा सकते हैं।

(2) दूसरों की आस्था को बनाए रखने की खातिर नैतिक अभ्यासों की मर्यादाओं को न बनाए रखना

बुद्ध ने ऐसे कई कृत्यों का निषेध किया है जो सहज तौर पर विनाशकारी न होते हुए भी हमारी आध्यात्मिक प्रगति के लिए अहितकर होते हैं – जैसे गृहस्थों और मठवासियों द्वारा मदिरा सेवन किया जाना, या मठवासियों द्वारा विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ एक ही कमरे में रहना। हीनयान साधक और बोधिसत्व दोनों ही समान रूप से इस प्रकार के व्यवहार का निग्रह करने का अभ्यास करते हैं। यदि एक उदीयमान बोधिसत्व के रूप में हम बुद्ध की नैतिक शिक्षाओं के प्रति सम्मान के अभाव के कारण इन प्रतिबंधों की अनदेखी करते हैं, या आलस्य के कारण आत्मनियंत्रण नहीं रखते हैं तो हमारे व्यवहार को देखने वाले लोगों के मन में बौद्धों और बौद्ध धर्म के प्रति आस्था और श्रद्धा खत्म होगी। इसलिए, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हमारे आचरण से दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, हम शौकिया नशीली दवाओं का सेवन करने जैसे आचरण से दूर रहते हैं।

(3) दूसरों के कल्याण की बात आने पर क्षुद्रता का व्यवहार करना

बुद्ध ने मठवासियों के व्यवहार की शुद्धि के लिए कई गौण नियम भी तय किए, उदाहरण के लिए यह नियम कि वे अपने सोने के स्थान पर तीन जोड़ी वस्त्र रखें। लेकिन कई बार दूसरों की आवश्यकता इस गौण नियम के पालन से अधिक महत्वपूर्ण होती है, उदाहरण के लिए यदि कोई बीमार हो जाए तो हमें रात भर उसकी देखभाल करने के लिए उसके पास ठहरना पड़ सकता है। यदि हम उस व्यक्ति के प्रति क्रोध या द्वेष के कारण, या बस आलस्य के कारण यह कहकर ठहरने से इन्कार कर देते हैं कि हम तीन जोड़े कपड़े अपने साथ लेकर नहीं आए हैं, तो हम इस सदोष कृत्य के दोषी होंगे। नियमों के प्रति हठी दुराग्रह रखना हमारे नैतिक आत्मानुशासन के संतुलित विकास में बाधक होता है।

(4) जब प्रेम और करुणा की खातिर ऐसा करना आवश्यक हो तब विनाशकारी कृत्य न करना

कभी-कभी ऐसी आत्यंतिक स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जहाँ दूसरों के कुशल क्षेम को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो जाता है और किसी दुखद घटना को टालने के लिए सात कायिक या वाचिक विनाशकारी कृत्यों में से किसी कृत्य को करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता है। ये सात विनाशकारी कृत्य हैं दूसरों की जान लेना, जो चीज़ हमें न दी गई हो उसे हड़प लेना, अनुचित यौन व्यवहार करना, मिथ्याभाषण करना, फूट डालने वाली बातें कहना, कटु और कठोर वचन बोलना, या निरर्थक बकबक करना। यदि हम क्रोध, लालसा, या कारण और प्रभाव के बारे में नासमझी जैसे किसी अशांतकारी मनोभाव के बिना, किन्तु केवल दूसरों के दुखों को दूर करने की प्रेरणा से – इसके किसी भी प्रकार के परिणामों को सहन करने, भले ही उसमें नरक की पीड़ा भी क्यों न शामिल हो, के लिए पूरी तरह से तत्पर रहते हुए – ऐसा कोई कृत्य करते हैं तो इससे हमारा व्यापक आत्मानुशासन नष्ट नहीं होता है। दरअसल इससे बहुत पुण्य सृजित होता है जिससे हमारी आध्यात्मिक प्रगति तेज़ होती है।

लेकिन आवश्यक होने पर इन विनाशकारी कृत्यों को करने से इन्कार करने से दोष उसी स्थिति में होता है जब हमने केवल बोधिसत्व संवर ले रखे हों और हम उन्हीं का पालन करते हों। अपने सुख को पाने के बदले दूसरों का कल्याण करने में संकोच करने से दूसरों की भलाई करने के लिए हमारे नैतिक आत्मानुशासन की सिद्धि में बाधा उत्पन्न होती है। यदि हम केवल सतही करुणा का भाव रखते हों और बोधिसत्व संवरों या इन संवरों द्वारा निर्दिष्ट आचरण का पालन न करते हों तो कोई दोष नहीं लगता है। हमें इस बात का बोध होता है कि चूँकि हमारी करुणा क्षीण और अस्थिर है, इसलिए उसके परिणामस्वरूप हमें जो दुख भोगना पड़ेगा वह हमें बोधिसत्व आचरण करने के प्रति संकोचशील बना सकता है। यह भी हो सकता है कि हम दूसरों की भलाई करने के मार्ग का ही त्याग कर दें। जिस तरह विकासक्रम के निम्नतर स्तरों वाले बोधिसत्व यदि उच्चतर स्तर के बोधिसत्वों के स्तर की साधनाओं – जैसे किसी भूखी बाघिन को अपने शरीर का मांस खिलाना – को करने का प्रयत्न करते हैं तो वे स्वयं को ही और दूसरों की सहायता करने की अपनी क्षमताओं को ही नुकसान पहुँचाते हैं, इसलिए हमारे लिए यही बेहतर है कि हम सावधानी बरतें और संयम रखें।

चूँकि इस बात को लेकर भ्रम हो सकता है कि कौन सी स्थितियों में ऐसा बोधिसत्व आचरण किए जाने की आवश्यकता होती है, इसलिए अब हम टीका साहित्य से लिए गए कुछ उदाहरणों को देखेंगे। कृपया ध्यान दें कि ये कृत्य अन्तिम उपाय के रूप में तब किए जाने चाहिए जब दूसरों के दुखों को कम करने या दूर करने के बाकी सभी उपाय विफल हो जाएं। एक उदीयमान बोधिसत्व के रूप में हम किसी ऐसे व्यक्ति के प्राण लेने के लिए तत्पर हो जाते हैं जो सामूहिक हत्या करने जा रहा हो। हम किसी युद्ध ग्रस्त देश में राहत कार्यों के लिए वितरित की जाने वाली ऐसी दवाओं को ज़ब्त कर लेने में हिचकिचाते नहीं हैं जिन्हें कोई व्यक्ति कालाबाज़ारी करके बेच देना चाहता हो, या किसी ऐसे प्रशासक से सहायता राशि को ले लेने में नहीं हिचकिचाते हैं जो उस राशि का अपव्यय कर रहा हो या उसका कुप्रबंधन कर रहा हो। यदि हम पुरुष हों तो किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी – या किसी ऐसी अविवाहित महिला के साथ यौन सम्बंध बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं जिसके माता-पिता ऐसा करने से मना करते हों, या किसी अन्य अनुपयुक्त पार्टनर के साथ यौन सम्बंध के लिए तैयार हो जाते हैं जब उस महिला की बोधिचित्त विकसित करने की दृढ़ इच्छा हो किन्तु वह हमारे साथ यौन सम्बंध की अत्यधिक तीव्र इच्छा से अभिभूत हो, और यदि हमारे साथ यौन सम्बंध बनाए बिना उसकी मृत्यु हो जाने पर भविष्य के जन्मों में उसमें इस बात का असंतोषपूर्ण दुर्भाव रह जाने की सम्भावना हो। इसके परिणामस्वरूप बोधिसत्वों और बोधिसत्व मार्ग के प्रति वह अत्यधिक द्वेषपूर्ण भाव रखेगी।

किसी व्यक्ति के मन में परार्थवाद के आध्यात्मिक मार्ग के बारे में अत्यधिक नकारात्मक दृष्टिकोण को विकसित होने से रोकने में बाकी सभी उपायों के विफल हो जाने पर बोधिसत्वों का अनुचित यौन कृत्यों के लिए तैयार हो जाना बोधिसत्व मार्ग पर चलने वाले विवाहित जोड़ों के लिए एक विचारणीय बिन्दु है। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई जोड़ा धर्म से जुड़ जाता है और कोई एक जोड़ीदार, उदाहरण के लिए महिला, ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा के कारण अपने पति के साथ यौन सम्बंध बंद कर देती है जबकि पति इससे सहमत नहीं होता है। उसे अभी भी यौन क्रीड़ा से आसक्ति होती है और वह पत्नी के निर्णय को अपनी निजी अस्वीकृति के रूप में देखता है। कभी-कभी पत्नी के धार्मिक हठ और असंवेदनशीलता के कारण पति धर्म को अपनी कुंठा और दुख के लिए दोषी मान लेता है। वह विवाह को तोड़ देता है और रोष की कटुता के कारण बौद्ध धर्म से विरत हो जाता है। यदि आध्यात्मिक मार्ग के प्रति उसकी द्वेषपूर्ण प्रतिक्रिया से बचने का कोई और तरीका न हो और महिला बोधिसत्व संवरों का पालन कर रही हो, तो उसे अपनी करुणा का मूल्यांकन करके देखना चाहिए कि क्या उसकी करुणा इतनी प्रबल है कि वह दूसरों की सहायता करने की अपनी क्षमता को गम्भीर क्षति पहुँचाए बिना कभी-कभी अपने पति के साथ यौन सम्बंध रख सकती है या नहीं। शुद्ध आचरण सम्बंधी तांत्रिक संवरों की दृष्टि से यह बात बहुत ही प्रासंगिक है।

यदि मिथ्यावचन कहने से दूसरों के जीवन की रक्षा होती हो या उन्हें यंत्रणा दिए जाने और अपंग किए जाने से बचाया जा सकता हो तो उदीयमान बोधिसत्वों के रूप में हम असत्य वचन कहने के लिए तत्पर रहते हैं। हम अपने बच्चों को बुरे मित्रों के समूह से अलग करने या अपने शिष्यों को ऐसे गुमराह करने वाले शिक्षकों से दूर करने के लिए फूट डालने वाली भाषा बोलने से नहीं हिचकिचाते हैं जो हमारे बच्चों या शिष्यों पर नकारात्मक प्रभाव डालते हों और उन्हें नुकसान पहुँचाने वाले दृष्टिकोण या व्यवहार के लिए प्रेरित करते हों। यदि हमारे बच्चे विवेक-बुद्धि की बात को समझने के लिए तैयार न हों तो उन्हें अपना गृहकार्य न करने जैसे नकारात्मक व्यवहार से रोकने के लिए हम कठोर वचन बोलने से नहीं चूकते हैं। और यदि बौद्ध धर्म में रुचि दिखाने वाले दूसरे लोग पूरी तरह बकबक करते रहने, शराब पीने, पार्टी करने, नाचने-गाने, या अस्वस्थ चुटकुले या हिंसा की कहानियाँ सुनाने के आदी हों, और यदि उनके साथ शामिल होने से इन्कार करने पर उन लोगों को ऐसा लग सकता हो कि बोधिसत्व और बौद्ध लोग कभी मौज-मस्ती नहीं करते और इसलिए वे आध्यात्मिक मार्ग को नहीं अपनाना चाहेंगे, तो फिर हम उनके साथ शामिल होने के लिए तैयार हो जाते हैं।

हमारी अपनी स्थिति से सम्बंधित तीन सदोष कृत्य

(5) आजीविका के अनुचित तरीकों से जीवन निर्वाह करना

ऐसी आजीविका को बेईमानी या कुटिलता के साधनों की सहायता से कमाया जाता है, जिसके प्रमुखतः पाँच प्रकार होते हैं: (क) दिखावा या ढोंग, (ख) दूसरों को धोखा देने के लिए उनकी खुशामद करना या चिकनी-चुपड़ी बातें करना, (ग) किसी का भेद खोलने की धमकी देना, जबरन वसूली करना, या दूसरों के अपराध-बोध का फायदा उठाना, (घ) घूस की मांग करना या कल्पित अपराधों के लिए जुर्माना वसूल करना, और (ङ) किसी बड़े प्रतिफल की आशा में घूस देना। नैतिक आत्मसम्मान और आत्मसंयम के सर्वथा अभाव के कारण हम ऐसे तरीके अपनाते हैं।

(6) उत्तेजित हो जाना और जल्दी-जल्दी किसी प्रकार के तुच्छ कार्यकलाप में संलग्न हो जाना

असंतोष, बेचैनी, ऊब, या अतिक्रियाशीलता, और किसी प्रकार की उत्तेजना की चाह में किसी प्रकार के तुच्छ मनबहलाव के साधन में लिप्त हो जाना – जैसे किसी शॉपिंग मॉल में भटकना, टेलीविजन के स्टेशनों को बदल-बदल कर देखना, कम्प्यूटर गेम्स खेलना आदि। हम पूरी तरह से तल्लीन और अनियंत्रित हो जाते हैं। यदि हम दूसरों के साथ इन कार्यकलापों में इसलिए शामिल होते हैं कि उनके क्रोध को शांत कर सकें या उनके अवसाद को दूर कर सकें, यदि वे इन चीज़ों के आदी हो चुके हों तो उनकी सहायता कर सकें, यदि हमें लगता हो कि वे हमारे विरुद्ध हैं तो हम उनके विश्वास को जीत सकें, या उनके साथ अपनी पुरानी मित्रता को प्रगाढ़ बना सकें, तो उस स्थिति में सकारात्मक व्यवहार करने और दूसरों की सहायता करने से हमारे नैतिक आत्मानुशासन की क्षति नहीं होती है। लेकिन, यदि हम बार-बार इन क्रियाकलापों को केवल इसलिए करने लगते हैं क्योंकि हमारे पास करने के लिए इससे बेहतर कुछ और नहीं है, तो हम अपने आप को ही धोखा दे रहे होते हैं। हमारे पास करने के लिए इससे बेहतर कुछ न कुछ हमेशा होता है। हालाँकि कभी-कभी हमें थकान और अवसाद की स्थिति में अपने उत्साह और ऊर्जा को पुनर्जीवित करने के लिए अवकाश लेने और बदलाव की आवश्यकता होती है। यदि हम इसके लिए विवेकपूर्म सीमाएं तय कर सकें तो ऐसा अवकाश लेने में कोई बुराई नहीं है।

(7) केवल संसार में ही भटकते रहने का प्रयोजन रखना

अनेक सूत्रों में बताया गया है कि बोधिसत्व स्वयं अपने लिए मुक्ति प्राप्त कर लेने के बजाए संसार में ही बने रहना पसंद करते हैं। इसका यह शाब्दिक अर्थ लगाना गलत होगा कि हम अपने अशांतकारी मनोभावों और दृष्टिकोणों को नियंत्रित करने और मुक्ति प्राप्त करने के लिए परिश्रम नहीं करते हैं, बल्कि अपने भ्रमों को बनाए रखते हैं और उनकी सहायता से दूसरों की सहायता करने के लिए कार्य करते हैं। यह स्थिति बोधिचित्त का त्याग कर देने सम्बंधी अठारहवें बोधिसत्व संवर से भिन्न है जहाँ हम मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए प्रयास बंद कर देने का पूरी तरह निश्चय कर लेते हैं। यहाँ हम अपने आप को अशांतकारी मनोभावों से मुक्त कराने को महत्वहीन और अनावश्यक समझते हैं, जिसके कारण हमारा नैतिक आत्मानुशासन गम्भीर रूप से कमज़ोर हो जाता है। हालाँकि बोधिसत्व मार्ग पर, विशेष तौर पर जब वह अनुत्तरयोग तंत्र से जुड़ा हो, हम आसक्ति की ऊर्जाओं को इस प्रकार रूपांतरित और प्रयोग करते हैं कि वे हमारी आध्यात्मिक प्रगति को बढ़ाएं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम अपनी आसक्ति को खुली छूट दे दें और उनसे मुक्ति पाने के लिए प्रयास ही न करें।

स्वयं हमसे और दूसरों से सम्बंधित दो सदोष कृत्य

(8) हमारे अपयश का कारण बनने वाले व्यवहार से स्वयं को मुक्त न करना

मान लीजिए कि हमें मांस खाना अच्छा लगता है। यदि हम शाकाहारी बौद्धों के बीच हों और यदि हम मांस का टिक्का खाने के लिए आग्रह करें तो हम आलोचना और अनादर के भागी बनेंगे। ऐसे लोग धर्म के द्वारा कही गई हमारी बातों को गम्भीरता से नहीं लेंगे और हमारे बारे में बातें फैलाएंगे जिसके कारण दूसरे लोग भी हमारी सहायता ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होंगे। यदि उदीयमान बोधिसत्व के रूप में हम अपने आपको ऐसे व्यवहार मुक्त नहीं करते हैं तो यह एक बड़ा दोष होता है।

(9) अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण रखने वाले लोगों के व्यवहार का प्रतिकार न करना

यदि हम किसी कार्यालय, स्कूल, मठ या परिवार में प्रभाव रखने वाले पद पर आसीन हों, और समूह के कुछ सदस्यों के प्रति विशेष आसक्ति के कारण या लोकप्रिय बनने की इच्छा के कारण ऐसे लोगों को डांटते या दंडित नहीं करते हैं जो अशांतकारी मनोभाव और दृष्टिकोण रखते हों या विघ्नकारी व्यवहार करते हों, तो हम पूरे समूह के अनुशासन और मनोबल को नष्ट करते हैं।

व्यापक धैर्य की साधना में बाधक चार सदोष कृत्य

नुकसान पहुँचाने वाले लोगों, धर्म की साधना में आने वाली बाधाओं, और स्वयं अपने दुखों का क्रोधित हुए बिना सामना करने की तत्परता को धैर्य (क्षांति) कहते हैं।

(1) चार सकारात्मक साधनाओं का त्याग कर देना

ये साधनाएं हैं उस स्थिति में पलट कर हमला न करना जब (क) मौखिक रूप में दुर्वचन कहे जाएं या आलोचना की जाए, (ख) दूसरों का कोपभाजन बनाया जाए, (ग) मारा-पीटा जाए, या (घ) अपमानित किया जाए। चूँकि इन चार कष्टकर स्थितियों में पलट कर हमला न करने का अभ्यास हमारे धैर्य को बढ़ाता है, इसलिए यदि हम इस अभ्यास को दरकिनार कर दें तो इस वैयक्तिक गुण को विकसित करने के हमारे प्रयास को नुकसान पहुँचता है।

(2) हमारे प्रति क्रोध का भाव रखने वाले लोगों की अनदेखी करना

यदि दूसरे लोग हमसे क्रोधित हों और हमारे प्रति द्वेष रखते हों, और यदि हम उस पर बिल्कुल भी ध्यान न दें और उनके क्रोध को अहंकार, विद्वेष, ईर्ष्या, आलस्य, उपेक्षा, या बेपरवाही के कारण शांत करने का प्रयास न करें तो हम धैर्य की पारमिता को हासिल करने के अपने प्रयास को बाधित करते हैं क्योंकि हम धैर्य के विरोधी भाव यानी क्रोध को लगातार बनाए रखते हैं। इस दोष से बचने के लिए, भले ही हमने किसी को अप्रसन्न किया हो या न किया हो या कुछ गलत किया हो या न किया हो, हम फिर भी क्षमा मांग लेते हैं।

(3) दूसरों की क्षमायाचना को अस्वीकार कर देना

जब हम किसी से नाराज़ होते हैं और उस समय जब वह व्यक्ति हमसे क्षमा याचना करता है और हम उसकी याचना को सुनने से इन्कार कर देते हैं तो यह तीसरा मूल बोधिसत्व पतन होता है। द्वेष के कारण हम घटना के बाद भी उस व्यक्ति की क्षमायाचना को स्वीकार नहीं करते हैं।

(4) क्रोध के बारे में ही सोचते रहना

जब हम किसी स्थिति में क्रोधित होते हैं और यदि सके बारे में ही सोचते रहते हैं और उसके प्रभाव को खत्म करने के लिए प्रतिबल लगाए बिना द्वेष के भाव को बनाए रखते हैं तो हम अपने धैर्यपूर्ण सहिष्णुता को विकसित करने के अभ्यास के विरुद्ध काम करते हैं। यदि जिस व्यक्ति से हम नाराज़ हों, उसके प्रति प्रेम भाव की ध्यानसाधना करने जैसे प्रतिकारी बलों का प्रयोग करें, लेकिन नाकामयाब हो जाएं, तो इसमें हमारा दोष नहीं है। क्योंकि हम कम से कम कोशिश तो कर रहे हैं, इसलिए धैर्य विकसित करने की हमारी साधना क्षीण नहीं होती है।

व्यापक लगनशीलता की साधना के लिए बाधक तीन सदोष कृत्य

सकारात्मक कृत्यों को उत्साहपूर्वक करते जाना ही लगनशीलता (संस्कृत, वीर्य, सकारात्मक उत्साह) है।

(1) दूसरों का आदर और सम्मान पाने की इच्छा के कारण अनुयायियों का जमघट लगा लेना

जब हम मित्रों, प्रशंसकों या शिष्यों का समूह इकट्ठा करते हैं, या किसी व्यक्ति से विवाह करने या उसके साथ रहने का फैसला करते हैं, और ऐसा करने के पीछे यदि हमारी यह इच्छा होती है कि दूसरे लोग हमारे प्रति सम्मान प्रकट करें, हमें अपना प्रेम और स्नेह दें, हमारे ऊपर उपहारों की झड़ी लगा दें, हमारी सेवा-टहल करें, और हमारे लिए चाकरी करें, तो उस स्थिति में दूसरों की सहायता करने जैसा कुछ भी सकारात्मक करने का हमारा उत्साह खत्म हो जाता है। हम एक निम्नस्तरीय कार्यविधि, यानी दूसरों को यह आदेश देने कि वे हमारे लिए क्या-क्या करें, को अपनाने के लिए आकर्षित होते हैं।

(2) आलस्य आदि कारणों से कुछ भी न करना

यदि हम आलस्य, उदासीनता, बेपरवाही, कुछ न करने की इच्छा, या किसी भी कार्य में रुचि न होने, या लम्बे समय तक सोते रहने की आदत, दिन भर बिस्तर पर पड़े रहने, सोते रहने, या निठल्ले मटरगश्ती करने के वशीभूत हो जाते हैं, तो हमें इसकी आदत पड़ जाती है और दूसरों की सहायता करने का हमारा सारा उत्साह नष्ट हो जाता है। बेशक, यदि हम बीमार हों या थके हुए हों, तो हमें आराम करना ही चाहिए, लेकिन बहुत अधिक शिथिल होकर अपने आप को बिगाड़ना एक बड़ा दोष है।

(3) आसक्तिवश कहानी-किस्सों में समय गँवाना

दूसरों की सहायता करने के लिए उत्साह को विकसित करने के मार्ग में तीसरी बाधा होती है निष्प्रयोजन समय गँवाना। इससे हमारा आशय सैक्स, हिंसा, मशहूर हस्तियों, राजनैतिक षड़यंत्रों आदि के बारे में किस्से सुनने-सुनाने, उन्हें पढ़ने, टेलीविजन या फिल्मों या इंटरनेट पर देखने से है।

व्यापक मानसिक स्थिरता की साधना में बाधक तीन सदोष कृत्य

मानसिक स्थिरता (ध्यान, एकाग्रता) चित्त की वह अवस्था है जो अशांतकारी मनोभावों, चित्त की अस्थिरता, या मानसिक शिथिलता के कारण अपना संतुलन नहीं खोती है।

(1) तल्लीन एकाग्रता को हासिल करने के साधनों को पाने की जिज्ञासा न होना

यदि हम अहंकार, द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण उस समय तल्लीन एकाग्रता (समाधि) पर अपने चित्त को स्थिर करने की शिक्षाओं पर ध्यान नहीं देते हैं जब कोई शिक्षक इनका उपदेश दे रहे हों, तो फिर हम अपने चित्त की स्थिरता को कैसे विकसित कर पाएंगे या बढ़ा पाएंगे? यदि हम बीमार हों, या हमें लगता हो कि दिए जा रहे निर्देश त्रुटिपूर्ण हैं, या यदि हम पहले ही पूर्ण एकाग्रता हासिल कर चुके हों तो फिर हमें इसके लिए जाने की आवश्यकता नहीं है।

(2) मानसिक स्थिरता में बाधा उत्पन्न करने वाले अवरोधों से स्वयं को मुक्त न करना

तल्लीन एकाग्रता की साधना करते समय हमारे सामने पाँच प्रमुख अवरोध आते हैं। यदि हम हार मान लें और इन अवरोधों को दूर करने का प्रयास न करें तो मानसिक स्थिरता के विकास के लिए हमारे प्रयासों को नुकसान पहुँचता है। यदि हम इन अवरोधों को दूर करने के लिए प्रयास कर रहे हों, लेकिन अभी तक इसमें सफल न हो पाए हों, तो हम दोषी नहीं हैं। ये पाँच अवरोध हैं (क) पाँच प्रकार के काम्य इंद्रिय विषयों का अनुसरण करने की इच्छा रखना, (ख) द्वेषपूर्ण विचार, (ग) प्रमाद और सुस्ती, (घ) चित्त की अस्थिरता और पश्चाताप दुख, और (ङ) अस्थिरचित्तता या संदेह।

(3) मानसिक स्थिरता हासिल करने से प्राप्त होने वाले आनन्द को मुख्य लाभ मानना

सामान्यतया हम अपननी बहुत सारी ऊर्जा को घबराहट, चिन्ता, अनिर्णय, लालसा या अप्रसन्नता के विचारों आदि में गँवा देते हैं या शिथिलता और उनींदेपन में नष्ट करते हैं। जब हम अपने चित्त को एकाग्र करते हैं और गहराई से सोचते हैं तो और अधिक ऊर्जा प्रस्फुटित होती है। हमें इसकी अनुभूति भौतिक मानसिक आनन्द के रूप में होती है। यह आनन्द जितना अधिक गहन होता है, हमारी तल्लीनता उतनी ही बढ़ती जाती है। यही कारण है कि अनुत्तरयोग तंत्र में हम केवल परिपूर्ण एकाग्रता से हासिल होने वाली आनन्द की अनुभूति की तुलना में और भी अधिक गहन आनन्द की चित्तावस्था को विकसित करते हैं ताकि हम निर्मल प्रकाश चित्त के क्रियाकलाप के सूक्ष्मतम स्तर तक पहुँच सकें और उसे शून्यता के बोध में शामिल कर सकें। यदि हम मानसिक स्थिरता को विकसित करते समय किसी भी स्तर पर प्राप्त होने वाले आनन्द की अनुभूति, जो तंत्र साधना के साथ जुड़ी हो या न जुड़ी हो, के प्रति आसक्त हो जाते हैं, और उस आनन्द से मिलने वाले सुख को अपनी साधना का मुख्य ध्येय मान लेते हैं तो इससे हम व्यापक मानसिक स्थिरता के लिए गम्भीर बाधा उत्पन्न करते हैं।

व्यापक सविवेक बोध की साधना के लिए बाधक आठ सदोष कृत्य

सविवेक बोध (प्रज्ञा, ज्ञान) वह मानसिक कारक है जो सही और गलत, उचित और अनुचित, लाभप्रद और हानिकारक आदि के बीच निश्चायक भेद करता है।

(1) श्रावक (श्रोता) वाहन का त्याग करना

यह दावा करना कि श्रावक वाहन के ग्रंथों में दी गई शिक्षाएं बुद्ध के वचन नहीं हैं, छठा मूल बोधिसत्व पतन होता है, जबकि चौदहवां पतन यह कहना होता है कि इन ग्रंथों में दी गई शिक्षाएं आसक्ति आदि को समाप्त करने की दृष्टि से निष्प्रभावी हैं। तेरहवाँ पतन गृहस्थ या मठीय प्रतिमोक्ष (व्यक्तिगत मुक्ति) संवर – जो श्रावक वाहन की शिक्षाओं का भाग हैं – को धारण करने वाले बोधिसत्वों से यह कहना है कि बोधिसत्व के रूप में उन्हें इन संवरों की रक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह मूल पतन तभी पूर्ण होता है जब बोधिसत्व हमारे वचनों को सुनकर वास्तव में अपने प्रतिमोक्ष संवरों को त्याग दें। यहाँ सदोष कृत्य यह सोचना या दूसरों से यह कहना है कि बोधिसत्वों को श्रावक वाहन की शिक्षाओं – विशेष तौर पर प्रतिमोक्ष संवरों के अनुशासन सम्बंधी नियमों – को सुनने या उनका पालन करने या उनका अभ्यास करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वास्तविकता यह है कि किसी को भी अपने संवरों का त्याग नहीं करना चाहिए।

संवरों के अनुशासन नियमों का अध्ययन और अनुशीलन करके हम यह भेद करने की अपनी योग्यता को बढ़ाते हैं कि किस प्रकार के व्यवहार को अपनाना चाहिए और किस प्रकार के व्यवहार को त्याग देना चाहिए। प्रतिमोक्ष संवरों के अभ्यास की आवश्यकता को नकार कर हम सविवेक बोध को विकसित करने के अपने प्रयासों को कमज़ोर करते हैं। हम यह दोषपूर्ण भेद भी करते हैं कि श्रावक शिक्षाएं केवल श्रावकों के लिए ही आवश्यक हैं और बोधिसत्वों के लिए वे निरर्थक होती हैं।

(2) स्वयं अपनी विधियों का अनुशीलन करते हुए प्रतिमोक्ष संवरों के अनुशीलन के लिए प्रयास करना

यदि हम अपना पूरा परिश्रम केवल अपने प्रतिमोक्ष संवरों के अध्ययन और पालन के लिए लगाते हैं और करुणा और ज्ञान सम्बंधी व्यापक बोधिसत्व शिक्षाओं की अनदेखी करते हैं, तब भई हमारा सविवेक बोध क्षीण होता है। जब हम श्रावक वाहन की शिक्षाओं के अनुशीलन के लिए परिश्रम करते हैं, तो साथ ही साथ हम बोधिसत्व शिक्षाओं के अनुशीलन के लिए भी परिश्रम करते हैं।

(3) जब ऐसा किए जाने की आवश्यकता न हो तब गैर-बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन में परिश्रम लगाना

भाष्यों के अनुसार गैर-बौद्ध ग्रंथों से आशय तर्क तथा व्याकरण सम्बंधी ग्रंथों से होता है। निःसंदेह हम विदेशी भाषाओं को सिखाने वाली पुस्तकों या आधुनिक शैक्षिक पाठ्यचर्या के गणित, विज्ञान, मनोविज्ञान, या दर्शन जैसे किसी विषय की पुस्तकों को भी शामिल कर सकते हैं। यहाँ दोष तब होता है जब हम अपना पूरा प्रयास इन विषयों के अध्ययन में लगा देते हैं और महायान के अध्ययन और साधना की उपेक्षा करते हैं जिसके परिणामस्वरूप हम उसे पूरी तरह भूल जाते हैं। यदि हम अत्यधिक बुद्धिमान हों, चीज़ें बहुत जल्दी सीखने की क्षमता रखते हों, तर्क पर आधारित महायान की शिक्षाओं का अच्छा ज्ञान रखते हों, और लम्बे सय तक उन शिक्षाओं को याद रखने की योग्यता रखते हों, यदि हम प्रतिदिन अपने महायान के अध्ययन और साधना को भी साथ-साथ जारी रख पाएं तो गैर-बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है।

तिब्बती भाषा का अध्ययन करने के इच्छुक गैर-तिब्बती छात्रों के लिए इस बात को ध्यान में रखना बहुत फायदेमंद रहेगा। यदि वे जल्दी और आसानी से भाषाओं को सीखने की योग्यता रखते  हों, बौद्ध धर्म के बारे में पहले सी ही अच्छी आधारभूत जानकारी रखते हों, और यदि उनके पास तिब्बती भाषा और धर्म दोनों का अध्ययन करने के लिए पर्याप्त समय हो तो ऐसे छात्रों को तिब्बती भाषा सीखने में बहुत लाभ मिलता है। आगे गहन अध्ययन करने के लिए वे इस ज्ञान को एक साधन के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन, यदि उन्हें इस भाषा को सीखना कठिन लगता हो, उनके पास सीमित समय और ऊर्जा हो, और वे अभी बौद्ध धर्म का अच्छा ज्ञान न हासिल कर पाए हों या उनकी दैनिक ध्यानसाधना बहुत स्थिर न हो पाई हो, तो फिर तिब्बती भाषा का अध्ययन करने से उनके आध्यात्मिक विकास को नुकसान पहुँचाता है और बाधा उत्पन्न होती है। अपनी प्राथमिकताओं में विवेकपूर्ण भेद कर पाना बहुत महत्वपूर्ण होता है।

(4) गैर-बौद्ध विषयों के अध्ययन की योग्यता होते हुए भी उनके प्रति मुग्ध हो जाना

यदि हमारे पास ऊपर बताई पूर्वापेक्षाओं सहित गैर-बौद्ध विषयों, जैसे तिब्बती भाषा, का अध्ययन करने की योग्यता हो, और यदि हम उस विषय के प्रति मुग्ध हो जाते हैं तो हो सकता है कि हम अपनी आध्यात्मिक साधना को छोड़ कर उस कम महत्व वाले विषय पर ही अपना पूरा ध्यान केंद्रित कर लें। तिब्बती भाषा या गणित के विषयों में निपुणता हासिस कर लेना हमें अशांतकारी मनोभावों से मुक्ति नहीं दिला सकता है, और न ही इन मनोभावों के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं और दुखों से मुक्ति दिला सकता है। इस निपुणता से हमें दूसरों की अधिक से अधिक सहायता करने की योग्यता हासिल नहीं हो सकती है। केवल बोधिचित्त और व्यापक दृष्टिकोणों, विशेषतः शून्यता के सविवेक बोध की पारमिता ही हमें उस लक्ष्य तक ले जा सकती है। इसलिए, गैर-बौद्ध विषयों – जिन्हें सीखना निश्चित तौर पर उपयोगी तो हो सकता है, किन्तु जो ध्यान दिए जाने वाले प्रमुख विषय नहीं हैं – के प्रति मुग्ध होने से बचने के लिए हम सही परिप्रेक्ष्य में उन विषयों का संयमित भाव से अध्ययन करते हैं। इस प्रकार हम सही निर्णय करते हैं कि क्या आवश्यक है और कम महत्व वाले विषयों के बारे में अपने विवेक को खोने से बचाते हैं।

(5) महायान वाहन का त्याग करना

यह दावा करना छठा मूल बोधिसत्व पतन होता है कि महायान के ग्रंथ बुद्ध के वचन नहीं हैं। यहाँ हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि सामान्य दृष्टि से ये ग्रंथ प्रामाणिक हैं, लेकिन हम इनके कुछ हिस्सों, विशिष्टतः बोधिसत्वों के अकल्पनीय रूप से बड़े-बड़े कृत्यों और शून्यता से सम्बंधित कल्पनातीत शिक्षाओं से सम्बंधित ग्रंथों की आलोचना करते हैं। पहले प्रकार के ग्रंथों में इस प्रकार के विवरण शामिल हैं जहाँ बुद्धजन एक ही समय पर अगणित रूप धारण करके अनगिनत लोकों में असंख्य जीवों की सहायता करते हुए दर्शाए जाते हैं, जबकि दूसरे प्रकार के ग्रंथों में ऐसे सारगर्भित और अर्थपूर्ण छंदों के संकलन शामिल हैं जिन्हें पूर्ण रूप से समझना अत्यधिक कठिन है। जब हम इन चार में से किसी भी ढंग से इनका खंडन करते हैं तो हमारे सविवेक बोध का क्षय होता है, कि (क) इनकी विषयवस्तु का स्तर निम्नतर है – इनमें कोरी बकवास है, (ख) उनमें की गई अभिव्यक्ति निम्नस्तरीय है – इनका लेखन खराब स्तर का है जिसका कोई अर्थ नहीं है, (ग) इनका लेखक निम्नस्तरीय है – ये किसी ज्ञानोदय प्राप्त बुद्ध के शब्द नहीं हैं, या (घ) इनका प्रयोग निम्नस्तरीय है – इनसे किसी को कोई लाभ नहीं हो सकता है। इस प्रकार संकुचित बुद्धि और उग्र भाव से मिथ्याभेद करके हम किसी भी चीज़ के बारे में उचित विवेक बोध हासिल करने की अपनी योग्यता का नाश करते हैं।

जब हमारा सामना ऐसी शिक्षाओं या ऐसे ग्रंथों से होता है जो हमें समझ न आते हों, तो हम उनके प्रति उदार दृष्टिकोण रखते हैं। हम यह विचार करते हैं कि हालाँकि अभी हम इनके महत्व या अर्थ को नहीं समझ पा रहे हैं, लेकिन बुद्धजन और उच्च सिद्धि प्राप्त बोधिसत्व इनके अर्थ को समझ सकते हैं, और उनके अर्थ का बोध हासिल करके अनेकानेक प्रकार से दूसरों की सहायता करते हैं। इस प्रकार हम यह दृढ़ संकल्प लेते हैं कि हम भविष्य में इनके अर्थ को समझ लेने के लिए प्रयास करेंगे। यदि हम शिक्षाओं का अनादर न करें और उनका उपहास न करें तो हमारे दृढ़ संकल्प का अभाव होने की स्थिति में भी कोई दोष नहीं है। हम कम से कम इस बात को स्वीकार करते हैं कि हम इन्हें समझ नहीं पा रहे हैं, लेकिन हम समवृत्ति के भाव को बनाए रखते हैं।

(6) आत्मप्रशंसा करना और / या दूसरों को नाचा दिखाना

लाभ की कामना से या ईर्ष्यावश ऐसा करना पहला मूल बोधसत्व पतन होता है। यहाँ प्रेरणा अभिमान, दम्भ, अहंकार, या क्रोध की होती है। ऐसी प्रेरणाएं तब उत्पन्न होती हैं जब हम गलत ढंग से यह मानते हैं कि हम दूसरों से श्रेष्ठ हैं।

(7) धर्म की खातिर जाने से इन्कार करना

आसक्ति और कृपणता के कारण धर्म के अवसर न देना दूसरा मूल बोधिसत्व पतन होता है। यहाँ दोष होता है अहंकार, क्रोध, द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण शिक्षाएं देने के लिए, बौद्ध अनुष्ठानों को सम्पादित करने, बौद्ध समारोहों में शामिल होने, या प्रवचनों को सुनने के लिए न जाना। इस प्रकार की प्रेरणा के कारण हम ठीक-ठीक भेद नहीं कर पाते हैं कि कौन-कौन से कार्य लाभप्रद हैं। लेकिन, उस स्थिति में कोई दोष नहीं लगता है जब हम इसलिए नहीं जाते हैं क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि हम शिक्षक नहीं हैं या हम बहुत बीमार हों, या क्योंकि हमें लगता है कि हमें जो शिक्षाएं सुनने के लिए मिलेंगी या हम जो शिक्षाएं देंगे वे गलत होंगी, या हम जानते हैं कि श्रोताजन उन शिक्षाओं को कई बार सुन चुके हैं और सीख चुके हैं, या हम उन शिक्षाओं को पूरी तरह प्राप्त कर चुके हैं और उन्हें पूरी तरह से समझ चुके हैं और इसलिए हमें और सुनने की आवश्यकता नहीं है, या हम पहले से ही शिक्षाओं पर केंद्रित और उनमें तल्लीन हैं और इसलिए हमें उनकी याद दिलाए जाने की आवश्यकता नहीं है, या शिक्षाएं हमारे ध्यान में हैं और उनके बारे में और अधिक सुनने से हम भ्रमित ही होंगे। इसके अलावा, यदि हमारे शिक्षक हमारे जाने से अप्रसन्न होंगे – हो सकता है कि उन्होंने हमें कोई और कार्य करने के लिए निर्देशित किया हो – तो हम निश्चित तौर पर नहीं जाते हैं।

(8) भाषा के आधार पर किसी शिक्षक का उपहास करना

जब हम आध्यात्मिक शिक्षकों को उनकी भाषा के आधार पर आँकते हैं तो इससे हमारी सही विवेक करने की क्षमता क्षीण होती है। भले ही ये शिक्षक ठीक-ठीक व्याख्या करते हों, हम ऐसे शिक्षकों का उपहास उड़ाते हैं और उन्हें इस आधार पर खारिज कर देते हैं कि वे बेगाने लहज़े में बात करते हैं, बहुत अधिक व्याकरणिक अशुद्धियाँ करते हैं, और हम ऐसे शिक्षकों के पीछे-पीछे दौड़ते रहते हैं जो बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से बोलते तो हैं लेकिन कोरी बकवास करते हैं।

बारह सदोष कृत्य जो दूसरों की भलाई करने के विरुद्ध होते हैं

(1) ज़रूरतमंदों की सहायता करने के लिए न जाना

क्रोध, द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण आठ प्रकार के ज़रूरतमंद लोगों की सहायता करने के लिए न जाना: (क) जिन्हें किसी सकारात्मक कार्य, जैसे किसी बैठक में जाना, के बारे में निर्णय करने में सहायता की आवश्यकता हो, (ख) यात्रा में सहायता, (ग) किसी ऐसी विदेशी भाषा को सीखने में सहायता चाहिए हो जिसे हम जानते हों, (घ) किसी ऐसे कार्य को करने में सहायता की आवश्यकता हो जिसे करने में कोई नैतिक दोष न हो, (ङ) किसी मकान, मंदिर, या उसकी सम्पत्ति की रखवाली करने की आवश्यकता हो, (च) किसी झगड़े या विवाद को रोकने में सहायता की आवश्यकता हो, (छ) विवाह जैसे किसी अवसर का जश्न मनाने में सहायता की आवश्यकता हो, या (ज) धर्मार्थ कार्य के लिए सहायता की आवश्यकता हो। किन्तु, यदि हम बीमार हों, पहले ही किसी अन्य व्यक्ति की सहायता करने का वचन दे चुके हों, किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति को भेज दें जो उस कार्य को करने में सक्षम हो, हम किसी ऐसे सकारात्मक कार्य में व्यस्त हों जो अत्यावश्यक हो , या हम सहायता करने में अक्षम हों, तो सहायता करने के लिए जाने से मना करने से दूसरों की सहायता करने के हमारे प्रयासों को नुकसान नहीं पहुँचता है। उस स्थिति में भी कोई दोष नहीं होता है जब वह कार्य दूसरों के लिए हानिकारक हो, धर्मविरुद्ध हो या अविवेकपूर्ण हो, या यदि हमारी सहायता की मांग करने वाले व्यक्ति और कहीं से सहायता पाने में सक्षम हों या उनके पास कोई ऐसा विश्वसनीय व्यक्ति हो जो उनके लिए सहायता का इन्तज़ाम कर सके।

(2) बीमार लोगों की सेवा न करना

क्रोध, विद्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण।

(3) दुखों का निवारण न करना

उन्हीं कारणों से। सात प्रकार के दुखों से पीड़ित व्यक्तियों को विशेष देखरेख की आवश्यकता होती है: (क) दृष्टिहीन, (ख) बधिर, (ग) छिन्नांग और विकलांग, (घ) थके-हारे पथिक, (ङ), मानसिक स्थिरता को बाधित करने वाले पाँच अवरोधों में से किसी भी अवरोध से पीड़ित व्यक्ति, (च) विद्वेष और पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग, और (छ) उच्च प्रतिष्ठा से पतित लोग।

(4) अविचारी लोगों को उनकी प्रवृत्ति के अनुसार शिक्षा न देना

अविचारी लोगों से आशय उन लोगों से है जो व्यवहारगत कारण और प्रभाव के सिद्धांत की परवाह नहीं करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अपने व्यवहार के कारण भविष्य के जन्मों में दुख और समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यदि उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण दम्भपूर्ण घृणा या क्रोध का हो तो हम उन लोगों की सहायता नहीं कर सकते हैं। उन्हें शिक्षा देने के लिए हमें कौशल का परिचय देते हुए अपने ढंग को उनकी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुरूप ढालना होगा। उदाहरण क लिए, यदि हमारा पड़ोसी उत्साही शिकारी हो तो हम उसे यह कहकर शिक्षित नहीं करते हैं कि ऐसा करने के कारण वह नरक की आग में जलेगा। ऐसा करने पर वह व्यक्ति शायद कभी भई हमसे कोई सम्बंध नहीं रखेगा। बल्कि हम अपने पड़ोसी से कहते हैं कि वह परिजनों और मित्रों को शिकार का मांस उपलब्ध कराकर बड़ी सेवा करता है। एक बार जब हमें ऐसा लगता है कि वह हमारी सलाह स्वीकार करने के लिए तैयार है तो हम आहिस्ता से उसे सुझाव दे सकते हैं कि दूसरों के प्राम लिए बिना मनबहलाव और दूसरों को सुख पहुँचाने के इससे बेहतर दूसरे तरीके भी उपलब्ध हैं।

(5) दूसरों की सहायता का बदला न चुकाना

दूसरों द्वारा की गई हमारी सहायता के बदले में उनकी सहायता करने से अनिच्छुक होना या कुछ भी लौटाने के बारे में विचार भी न करना। लेकिन, उस स्थिति में कोई दोष नहीं होता है जब दूसरा व्यक्ति अपनी कार की मरम्मत कर रहा हो, और हमें उसके बारे में ज्ञान न हो या हम योग्य न हों, या हम उस कार्य को करने की दृष्टि से बहुत कमज़ोर हों। इसके अलावा, यदि जिस व्यक्ति ने हमारी सहायता की हो वह बदले में कुछ न चाहता हो, तो हम उसे अपनी सहायता के प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं करते हैं।

(6) दूसरों की मानसिक वेदना का निराकरण न करना

यदि द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण हम ऐसे लोगों को सांत्वना देने का प्रयास नहीं करते हैं जिन्होंने किसी प्रियजन, अपनी धन-सम्पत्ति, या किसी बहुमूल्य वस्तु को गंवाया हो, तो यह हमारा दोष है। जो लोग परेशान हों या दुखी हों उन्हें हमारे स्नेह, सहानुभूति, और उदारता की आवश्यकता होती है, लेकिन दया या रहम की आवश्यकता बिल्कुल नहीं होती है।

(7) ज़रूरतमंदों को दान न देना

क्रोध, द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण। यदि हम कृपणता के कारण ऐसा करते हैं, तो यह एक मूल पतन है।

(8) अपने परिचितों के समुदाय के लोगों की ज़रूरतों का खयाल न रखना

यदि हम द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण अपने रिश्तेदारों, मित्रों, सहकर्मियों, कर्मचारियों, शिष्यों आदि के समूह की उपेक्षा करते हैं, विशेष तौर पर तब जब हम दूसरों की सहायता करने के सामाजिक कार्य से जुड़े हों, तो यह एक बड़ा दोष है। हमें उनकी भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने की व्यवस्था करनी चाहिए और उनके आध्यात्मिक कल्याण का खयाल रखना चाहिए। यदि हम अपने नज़दीकी लोगों की आवश्यकताओं की अनदेखी करते हैं तो फिर हम सभी सचेतन जीवों की सहायता करने का दिखावा कैसे कर सकते हैं?

(9) दूसरों की पसंद के साथ मिलकर न चलना

दूसरे लोग यदि हमसे कुछ ऐसा करने की इच्छा करते हों जो उन्हें पसंद हो और जो उनके लिए या दूसरों के लिए हानिकारक न हो, तो वैसा करने के लिए सहमत न होना एक दोष होता है। हर कोई चीज़ों को दूसरों से अलग ढंग से करता है या हर किसी की पसंद अलग होती हैह। यदि हम द्वेष, आलस्य, या उदासीनता के कारण इस बात का सम्मान नहीं करते हैं, तो हम ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिए बहस करना शुरू कर देते हैं कि खाने के लिए कहाँ जाएं, या मेन्यू ऑर्डर करते समय उन लोगों की पसंद के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं और उनकी असुविधा या नाराज़गी का कारण बनते हैं।

(10) दूसरों की प्रतिभा या उनके सद्गुणो की प्रशंसा न करना

यदि हम क्रोध, द्वेष, उदासीनता, या आलस्य के कारण कोई अच्छा काम करने पर दूसरों की सराहना नहीं करते हैं या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उनकी प्रशंसा किए जाने पर उससे सहमति नहीं जताते हैं तो हम उन लोगों के विकसित होने के लिए अपनी रुचि और उत्साह को क्षीण करते हैं। यदि दूसरे लोग एकांत में या सार्वजनिक तौर पर अपनी प्रशंसा किए जाने पर संकोच अनुभव करते हैं, या यदि उनके सामने ही उनकी प्रशंसा किए जाने से उनके अहंकारी या दम्भी हो जाने की सम्भावना हो, तो हम उनकी प्रशंसा नहीं करते हैं।

(11) परिस्थितियों के अनुरूप दंड का विधान न करना

दूसरों की सहायता करने के लिए यह महत्वपूर्ण होता है कि यदि वे उद्दण्डता का व्यवहार करें तो उन्हें अनुशासित किया जाए। यदि हम दूसरों को दंडित करने के बारे में भावनात्मक समस्याओं के कारण, या आलस्य, उदासीनता, या बेपरवाही के कारण ऐसा नहीं करते हैं तो हम प्रभावी मार्गदर्शक के रूप में अपनी योग्यता को नष्ट कर लेते हैं।

(12) अलौकिक शक्तियों या जादू करने की योग्यता जैसे साधनों का उपयोग न करना

कुछ विशेष परिस्थितियों में दूसरों की सहायता करने के लिए अलौकिक शक्तियों का प्रयोग करने जैसे विशेष तरीकों को अपनाने की आवश्यकता होती है। यदि हमें ये साधन उपलब्ध हों, लेकिन तब भी हम उनका उस समय उपयोग न करें जब उनका प्रयोग उपयुक्त और प्रभावी होगा, तो हम दूसरों की सहायता करने की अपनी योग्यता को नष्ट करते हैं। हम दूसरों की भलाई करने के लिए अपनी सभी प्रतिभाओं, योग्यताओं, और सिद्धियों का उपयोग करने का प्रयास करते हैं।

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