नकारात्मक प्रभावों सम्बन्धी अभ्यास और उनके आगामी बिन्दु

पुनरावलोकन

अपने सम्पूर्ण जीवन में हम अपने विषय में, “मैं” और “मेरा जीवन” के सन्दर्भ में ही सोचते रहते हैं। अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में यही सोचते आते हैं केवल एक वर्ष की अवधि में ही नहीं क्योंकि हम कोई कठोर, ठोस बिंदु नहीं हैं, जिसपर किसी चीज़ का प्रभाव ही न हो, अत: हम बराबर इनसे प्रभावित होते रहते हैं। अपने विषय में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए हमने जो कुछ अनुभव किया है उसके विषय में सोचने की आवश्यकता है। हमारे परिवार, मित्र, समाज आदि सब इसमें शामिल हो जाते हैं। अपने जीवन के केवल एक छोटे से भाग के बारे में सोचना बिलकुल अनुचित है यहाँ उद्देश्य यह है कि सर्वसमावेशी दृष्टिकोण अपना कर जीवन के सभी पक्षों को समेकित किया जाए।

इस पर सैद्धांतिक आधार पर विचार करके हमने देखा कि नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही प्रकार के प्रभाव होते हैं। यद्यपि यह महत्त्वपूर्ण है कि नकारात्मक प्रभावों को अस्वीकार न किया जाए परन्तु इसके साथ ही उनके विषय में शिकायत करना और उसी पर विचार करते रहना भी लाभदायक नहीं होता। कहीं बेहतर है कि हम अपने सकारात्मक प्रभावों पर बल दें। इस सब की चर्चा “बौद्ध धर्म” शब्द का उल्लेख किये बिना भी हो सकती है क्योंकि यह विषय बौद्ध विज्ञान एवं दर्शन की श्रेणी में आता है।   

अन्य लोगों से प्रेरणा ग्रहण करना

सैद्धांतिक आधार का एक अन्य पक्ष है कि सबको किसी न किसी प्रकार की प्रेरणा की आवश्यकता होती है। हम सबके भीतर कुछ हद तक अच्छे गुण होते हैं और ये वे नैसर्गिक प्रतिभाएं हो सकती हैं या फिर हमें इनकी दूसरों से शिक्षा मिली होती है। इन अच्छे पक्षों को विकसित करने के लिए हमें प्रोत्साहित करने के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है। इस प्रकार का प्रशिक्षण हमें यह विचार करने योग्य बनाता है कि हम अपने जीवन काल में ग्रहण किये गए प्रभावों पर विचार कर सकें। अपने परिवेश, समाज, संस्कृति आदि से ग्रहण किये गए  सकारात्मक प्रभावों पर बल दे सकें।

हम अपनी माता के उदाहरण का प्रयोग कर सकते हैं। निस्संदेह हमने अपनी माता से कुछ अच्छी विशेषताएँ ग्रहण की हैं। अत: हमें उन्हें खोजना चाहिए। हमें उनकी विशेषताओं पर भी विचार करना चाहिए जिनका प्रत्यक्ष रूप से हम पर प्रभाव न पड़ा हो। उदाहरण के लिए, युगानुरूप हमारे माता-पिता ने हो सकता है युद्धकाल अथवा ऐसी ही विकट परिस्थितियों में जीवन व्यतीत किया हो, और यह जानना अत्यंत प्रेरणादायक होता है कि उन्होंने वह समय कैसे बिताया।

जब हम अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभावों पर ध्यान देते हैं तो हम केवल उन सद्गुणों के बारे में ही नहीं सोचते जो हमें उनसे प्राप्त हुए बल्कि संभवत: वे भी जो प्रत्यक्ष रूप से उनसे हमें नहीं मिले जैसे युद्धकाल में उनका साहस। जब हम दूसरों में सकारात्मक बातें देखने लगते हैं तो स्वयं अपने प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण निर्मित करने में सहायता मिलती है। यदि हमारे भीतर बहुत क्षीण आत्म-प्रतिष्ठा है, तो दूसरों से जो सकारात्मक बातें हमें मिली हैं उन्हें याद करके हमें यह अनुभव होता है कि अंतत: हम उतने बुरे भी नहीं हैं। यदि हमारे भीतर कुछ सद्गुण हैं और हम कामना करते हैं कि वे विकसित हों तो हम यह सोच सकते हैं कि हमारे पास भी दूसरों को देने के लिए कुछ है जैसे कि दूसरों से उन्हें साझा करके जो कि आत्म-विश्वास निर्मित करने में सहायक होता है। जब हम करुणामय होते हैं, दूसरों की कठिनाइयों का सामना करने में इस अनुभूति के साथ उनकी सहायता करना चाहते हैं “मेरे भीतर भी कुछ सद्गुण हैं और मैं उन्हें दूसरों के साथ साझा कर सकता हूँ”, तब हमें अनुभूति होती है कि हम तो बिलकुल बुरे नहीं हैं।

ये अंतिम बात आती है बौद्धधर्मी शिक्षाओं में कि हमें अपने आध्यात्मिक गुरु से कैसे सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए। हमारी मनोदृष्टि यह होनी चाहिए कि अपने गुरु के सद्गुणों को खोजें और उन पर बल दें और यह विश्वास रखें कि इन्हें अर्जित किया जा सकता है, इस आधार पर हमारे भीतर गुरु के प्रति गहन श्रद्धा उत्पन्न होती है और जब हम यह सोचते हैं कि उन्होंने हमें शिक्षा देकर कितनी अनुकम्पा की है, तो हमारे भीतर सराहना की गहन अनुभूति होती है। फिर हम चेष्टा करते हैं कि हम उनके उदाहरण की प्रेरणा से उनके सद्गुणों को अपने भीतर विकसित करें। ऐसा हम उन सबके साथ कर सकते हैं जिनसे हम मिलते हैं, उनके अच्छे गुणों को देखना और उस आधार पर उनका सम्मान करना। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, हम कल्पना कर सकते हैं कि उनमें से एक पीला प्रकाश उद्भासित हो रहा है, जो हमें प्रेरित कर रहा है।

अभ्यास : अपनी माता के प्रभाव के विषय में सोचना

अपनी माता से आरम्भ करना अच्छा रहेगा, परन्तु आप अपने पिता से भी आरम्भ कर सकते हैं। कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि कालांतर में आपको दोनों ही प्रकार करना होगा। हम उनसे आरम्भ करते हैं जिन्होनें वास्तव में हमें पाल-पोस कर बड़ा किया।

सबसे पहले हमें शांत होना होगा। वे सभी विचार और भावनाएं जो हमारे भीतर चल रहीं हैं उन्हें छोड़ देते हैं और अपने चित्त को शमित करते हैं। हम ऐसा अपने श्वास पर एकाग्र होकर कर सकते हैं। पूर्णत: सामान्य रूप से नासिका से श्वास लेते हुए, यह मानते हुए कि आपकी नाक बंद नहीं है। श्वास बहुत तेज़ी से भी नहीं लेना होगा और न ही बहुत धीमे-धीमे। यदि आवर्ती विचार एवं भावनाएं आपको घेरती हैं तो उन्हें जाने दीजिये। क्योंकि प्राय: श्वास पर्याप्त विश्रांत एवं नियमित होता है। इस पर एकाग्र होकर प्रशमित होने में सहायता मिलती है।

लोग प्राय: सोचते हैं कि जब आप ध्यान साधना करें तो आपको अपनी आँखें बंद रखनी चाहिए परन्तु वास्तव में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। जबकि हो सकता है कि आँखें बंद रखकर शांत हो जाना अपेक्षाकृत सरल हो; लेकिन फिर भी, क्योंकि हम दैनिक जीवन में शांत और उद्वेग रहित होना चाहते हैं इसलिए सामान्य स्थितियों में आँखें बंद रखना बाधक होगा। यदि, उदाहरण के लिए आप गाड़ी चला रहे हैं और आप शांत होना चाहते हैं तो बेहतर होगा कि आप अपनी आँखें बंद न रखें! सामान्यतया बेहतर होता है कि आप अपनी आँखें तनाव मुक्त, अधखुली रखकर नीचे की ओर देखें। फिर हम सोचते हैं; “मैं एक मनुष्य हूँ। मैं, सबकी भाँति सुखी होना चाहता हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ, सबकी भांति मेरे भीतर भी भावनाएं हैं। यदि मैं अपने विषय में नकारात्मक दृष्टि से सोचता हूँ तो मुझे अच्छी अनुभूति नहीं होती। चूँकि मैं दुखी नहीं होना चाहता, तो अच्छा हो कि मैं एक सुखी व्यक्ति बनने के लिए कोई मार्ग खोजूं।”

उसके पश्चात हम अपनी माता का मानस-दर्शन करते है। यह आवश्यक नहीं है कि वह हूबहू, उन जैसा ही हो बल्कि किसी ऐसी चीज़ के बारे में सोचिये जो उनका प्रतिनिधित्व करती हो, यदि आवश्यक हो तो हम उनकी कमियों को याद कर सकते हैं और समझें कि वे किन्हीं कारणों एवं परिस्थितियों की देन थीं और उन पर विस्तार से विचार करने का कोई लाभ नहीं है। हम उन्हें अस्वीकार नहीं करते परन्तु हम उनकी अतिरंजना भी नहीं करते, सोचिये कि वे बस वैसी हीं थी। प्रत्येक मनुष्य में कमियां होती हैं, यह होना सामान्य है। इसके विषय में आगे विचार मत कीजिये। उदाहरण के लिए, मेरी माता ने बहुत कम शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें सुबह-सवेरे काम पर जाना पड़ता था और इसलिए वे कभी भी स्कूल का काम करने में मेरी सहायता नहीं कर पाती थीं। यह एक कमी है परन्तु यह उनका दोष नहीं था : वे आर्थिक मंदी के दौर में बड़ी हुई थीं, उनका परिवार बहुत निर्धन था और काम पर जाना उनकी विवशता थी। मुझे इस बात को समझकर उसे एक तरफ कर देना चाहिए। यह सच्चाई है, यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं।

फिर हम अपनी माता के सद्गुणों के विषय में सोच सकते हैं। उनके इन पक्षों पर दृढ़ विश्वास के साथ एकाग्र होकर। हम उनसे प्राप्त हुए हित पर विचार कर सकते हैं, वह बाल्यावस्था में  प्रतिदिन हमारे लिए खाना पकाने जैसी छोटी सी बात ही क्यों न हो। यह सब देखकर हम गहरी सराहना एवं सम्मान के भाव पर एकाग्र होंगें। कल्पना कीजिये कि हमारी माता से एक पीला प्रकाश उद्भाषित हो रहा है, वह हमारे भीतर एक पीले प्रकाश का संचार कर रहा है और हम उन सद्गुणों को विकसित करने की प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। हम उल्लसित अनुभव करते हैं और कल्पना करते हैं कि यह पीला प्रकाश हमारे भीतर से चमक रहा है तथा दूसरों को प्रेरित कर रहा है कि वे अपने भीतर इन सद्गुणों को विकसित करे। हम पुन: शांत हो जाते हैं, श्वास पर केन्द्रित होकर इस विचार के साथ समापन करते हैं, “यह सकारात्मक भावना गहन से गहन, दृढ़ से दृढ़तर होती जाए ताकि यह मेरे लिए तथा मेरे संपर्क में आने वाले प्रत्येक प्राणी के लिए सर्वाधिक हितकारी हो।”

सर्वसमावेशी दृष्टिकोण के अगले अनुप्रयोग

इस सर्वसमावेशी दृष्टिकोण के साथ हम अपने जीवन विषयक एक पुष्ट दृष्टि को विखंडित करने का प्रयास करते हैं। हम किसी एक घटना पर अटक कर नहीं रह जाना चाहते, उसी से एकात्म होकर और अपने समग्र जीवन के व्यापक सन्दर्भ को भुलाकर। उदाहरण के लिए आपका किसी से सम्बन्ध टूट गया है और आप सोचते हैं कि अब आपको कभी भी दूसरा साथी फिर नहीं मिलेगा। यदि आप पूर्ण जीवनकाल के बारे में सोचें तो संभावना यह है कि आपको कोई दूसरा मिल जाएगा, और संभवत: आपके आरंभिक जीवन में अन्य प्रेमिका अथवा और प्रेमी रहे होंगें। इस विच्छेद की एक घटना पर अटककर और इसे अतिरंजित करके आप उसका सन्दर्भ नहीं समझ रहे हैं। आवश्यक है कि हम चीज़ों को व्यापक सन्दर्भ में देखें।
 

इसके आगे, जब कोई संबंध टूट जाता है तो आप सोचते हैं, “यह सब मेरी ही भूल थी। मैं ही बुरा हूँ, मैं हार गया। मैं अभागा।” परन्तु आपको समझना चाहिए कि जो कुछ घटित होता है वह अन्य असंख्य कारकों से प्रभावित होता हैं। अत: उस दूसरे व्यक्ति के जीवन में भी जो कुछ घटित हो रहा है उसके अनेक कारक हैं, उस व्यक्ति का अपना स्वभाव तथा अन्य बातें जो हमारे जीवन में चल रही हो और जिनका हमारे पारस्परिक सम्बन्ध पर प्रभाव पड़ा जैसे कि मेरा व्यवसाय, मेरा परिवार, आर्थिक स्थिति आदि। इसलिए यदि आप व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहें तो एक मंडल की छवि का प्रयोग भी सहायक हो सकता है और फिर आप एकांगी दृष्टिकोण नहीं अपनाते, “मेरी ही भूल थी मैं ही इसका कारण हूँ चूँकि मैं बुरा व्यक्ति हूँ मुझमे कोई अच्छाई नहीं है। मैं इस योग्य नहीं हूँ कि कोई मुझसे प्रेम करे।– और यही कारण था कि वह सम्बन्ध टूट गया।” इसी प्रकार आप दूसरे व्यक्ति को बुरा बताकर सारा दोष उसी पर नहीं मढ़ देते। यह विच्छेद मिले-जुले कारणों और प्रभावकारी कारकों के परिणामस्वरुप हुआ।

अपने ऊपर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के साथ निर्वाह

नकारात्मक प्रभाव से जूझने के लिए निस्संदेह हमें उसके क्षतिकारक प्रभाव को स्वीकार करना होगा परन्तु अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम उस पर बल देकर उसी पर विचार न करते रहें। अंतर यह है कि आप इसे अतिरंजित करते हैं या नहीं अत: आप निष्पक्ष रहने का प्रयास करें; “यह उस व्यक्ति की कमियां है। यह उस व्यक्ति(या देश या अन्य कुछ) की खूबियाँ हैं, हर चीज़ या हर व्यक्ति में कमियां और दुर्बलताएं, और इसके साथ ही खूबियाँ होती हैं, यह सामान्य है।”  

निस्संदेह आप विस्तृत विश्लेषण कर सकते हैं कि आपके माता-पिता में क्या कमियां रहीं हैं जो कि उनके माता-पिता के कारण अथवा अन्य बातों के कारण रहीं। परन्तु बात यह है कि हम उन्हें केवल उनको उनके दुर्गुणों के साथ ही न पहचानें। उनकी अतिरंजना किये बिना उन्हें स्वीकार कीजिये। यदि आप समझ पाते हैं कि वे ऐसे क्यों हैं तो ठीक है। यदि नहीं तो इस अभ्यास में उस बात पर बहुत बल नहीं दिया जाता। किसी दूसरे सन्दर्भ में आप वैसा कर सकते हैं। फिर उसे वहीं छोड़ दीजिये। यदि उसके नकारात्मक पक्षों की शिकायत करते रहेंगे तो उससे क्या हाथ आएगा? निश्चित रूप से वह हमें आनन्दित नहीं करेगा। हम दुर्गुणों से प्रेरित नहीं होते; दुर्गुणों पर विस्तार से विचार करने से अवसाद उत्पन्न होता है।

परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि यहाँ क्षमा प्रदान करने का विचार भी सहायक नहीं होगा, “मैं अपने माता-पिता को उनकी भूलों के लिए क्षमा करता हूँ।” वास्तव में यह अहंकार है कि मैं इतने ऊँचे आसन पर बैठा हूँ कि मैं उन्हें हेय दृष्टि से देखकर उन्हें क्षमा करता हूँ। समझकर उस बात को जाने देना क्षमा करने से बहुत भिन्न है।

नकारात्मक प्रभावों से अपना शुद्धिकरण

अपने ऊपर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को समझकर, स्वीकार करके नज़रअंदाज़ करने के अलावा हम बौद्धधर्मी शुद्धिकरण पद्धति को अपना सकते हैं। इन नकारात्मक प्रभावों के साथ वास्तव में मुख्य समस्या है इन्हें मन से निकालना जैसे कि क्रोधी स्वभाव। शुद्धिकरण की प्रक्रिया इस प्रकार है।  

  • हम सबसे पहले मान लेते हैं कि दुर्गुण हमारी समस्या है।
  • फिर हम उस पर खेद अनुभव करते हैं जो कि अपराध बोध के समान नहीं है। अपराध बोध में हम अपने को लेकर बहुत दु:खी होते हैं और इस भावना से मुक्त नहीं हो पाते जबकि खेद में यह कामना होती है कि काश हमने ऐसा कृत्य किया ही न होता।
  • फिर हम निर्णय करते हैं कि हम वास्तव में चेष्टा करेंगे कि हम अपने कृत्य को दोहराए नहीं।
  • तत्पश्चात हम अपने जीवन की दिशा की पुनर्पुष्टि करते हैं, अपनी कमियों पर विजय प्राप्त कर सुख की ओर अग्रसर होने हेतु। बौद्ध सन्दर्भ में इसका तात्पर्य विमुक्ति तथा ज्ञानोदय प्राप्ति की अपनी प्रेरणा की पुनर्पुष्टि करना है।
  • तत्पश्चात हम अपने सकारात्मक पक्षों पर बल देकर अपने नकारात्मक आवेगों का प्रतिकार करने की चेष्टा करते हैं। जब हम किसी कठिन स्थिति में होते हैं, तो हम अपने सद्गुणों से जितना अधिक परिचित होंगें, उतनी जल्दी वे हमारे चित्त में प्रकट होंगें बजाय दुर्गुणों के।

यद्यपि यह शुद्धिकरण की प्रक्रिया बौद्धधर्मी सन्दर्भ से ली गयी है तथापि उसे प्रभावी बनाने के लिए बौद्ध धर्म से संपृक्त करना अनिवार्य नहीं।

यदि हम पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव अत्यधिक गंभीर प्रकृति के हैं, उदाहरण के लिए शारीरिक उत्पीड़न अथवा यौन दुराचार आदि, तो जिन भिन्न-भिन्न पद्धतियों की चर्चा की गई है, वे उपयुक्त नहीं रहेंगी। ऐसी गंभीर प्रकृति की स्थितियों का सामना करने के लिए इतर चिकित्सीय उपाय आवश्यक होते हैं।

सामन्यतया, बौद्ध धर्म में सुझायी गयी पद्धतियां वास्तव में उन लोगों के अनुकूल नहीं हैं जो गंभीर रूप से भावात्मक स्तर पर अशांत हैं। बौद्ध धर्मी पद्धतियों को लागू करने के लिए पूर्ण रूप से स्थिर चित्त आवश्यक है, वह चाहे बौद्ध धर्मी सन्दर्भ हो अथवा कोई अन्य। इस पद्धति के माध्यम से आप पुरानी स्मृतियों को जागृत कर रहे हैं जो कि उन लोगों के लिए अत्यंत उद्वेगकारी हो सकती हैं जो कि अत्यंत असंतुलित हैं। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि बौद्ध धर्मी पद्धतियाँ किसी के लिए भी, किसी भी स्थिति में उपयोग की जा सकती हैं।

व्यापक स्तर के संघर्ष की स्थितयों में लिप्त लोगों के लिए उपाय

यदि हम एक पूरे समाज की बात कर रहे हो संघर्षग्रस्त है तो स्पष्ट ही है कि वह बहुत कठिन होगा। बौद्ध धर्मी पद्धतियाँ व्यक्तिगत स्तर पर लागू की जाती हैं तथा बड़े पैमाने पर कार्य करने के लिए सम्भवत: शिक्षा व्यवस्था एक मात्र रास्ता है, लोगों को इतिहास, समाज आदि के विषय में अधिक संतुलित दृष्टि प्रदान करके।

परम पावन दलाई लामा सदैव इस बात पर बल देते हैं कि बालकों की प्राथमिक शिक्षा में नैतिक शास्त्र अवश्य सम्मिलित होना चाहिए। यह धर्म निरपेक्ष नैतिक आचार होगा जो सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव सिखाये तथा किसी एक धर्म पर आधारित न हो। यह नैतिक आचार शुद्ध रूप से जीव विज्ञान पर आधारित है जिसके अधीन प्रत्येक व्यक्ति स्नेह के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया करे - जैसा कि एक माता और उसके बालक के बीच मूल रूप से होता है। इस आधार पर आप सबको प्राणी समझें जो सुखी होना चाहते हैं और कामना करते हैं कि उनके साथ अच्छा व्यवहार हो। इस रूप में हम सब समान हैं।

आप सीख जाते हैं किसी व्यक्ति और उसके कृत्यों अथवा व्यवहार में विभेद करना। हो सकता है कि उसका व्यवहार अस्वीकार्य हो परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह व्यक्ति त्याज्य हो। वह व्यक्ति भी मनुष्य है। यदि आपका बालक शैतान हो तो आप उसके व्यवहार को नापसंद करते हैं परन्तु इसके प्रति आपकी ममता समाप्त नहीं होती। यह बात सब पर लागू की जा सकती है। इस प्रकार का सोच वृहद् स्तर पर भी सहायक होगी परन्तु स्पष्ट है कि उसमें बहुत अधिक समय और प्रयास अपेक्षित है।

इन पद्धतियों का किसी समूह अथवा परिवार में अभ्यास

जिन पद्धतियों को हमने यहाँ पुरस्थापित किया उनका व्यक्तिगत अथवा समूह के स्तर पर अभ्यास किया जा सकता है। किसी समूह में इनके अभ्यास से यह लाभ होगा कि यह अनुशासन सुनिश्चित करता है तथा यदि उन्हें सुरक्षित होने की अनुभूति हो तो वे अपना अनुभव साझा कर सकते हैं जहाँ अन्य लोग उनके बारे में कोई राय कायम नहीं करेंगे या उनका उपहास नहीं करेंगे। यह वास्तव में आधारभूत नियम होना चाहिए। समूह के नेता में यह कौशल अपेक्षित है कि वह ऐसा सुरक्षित माहौल पैदा करें।

यदि कोई समूह जो इन पद्धतियों का अभ्यास कर रहा है वह कोई परिवार है तो पारिवारिक चिकित्सा की स्थितियां एक सुरक्षित माहौल उत्पन्न करती हैं। वहां प्रत्येक व्यक्ति परिवार के सदस्य से यह जान सकता है कि उन्होंने परस्पर कौन सी अच्छी बातें सीखीं। मेरे विचार में यह अत्यंत सहायक होगा। विशेषतया यदि आपके यहाँ विद्रोही किशोर-किशोरियां हैं और अभिवावकों को ऐसा लगता है कि “मैं जो कुछ भी करूँ वे उसे नापसंद करते हैं, वे मुझसे घृणा करते हैं और वो मुझसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। वे मुझे लेकर लज्जित हैं”, इत्यादि। यह पर्याप्त रूप से ठीक करने में सहायक होगा यदि किशोर सदस्य खुलकर अपनी बाते कहें और स्पष्ट रूप से स्वीकार करें कि अभिवावकों में कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें वे पसंद करते हैं, उनकी सराहना करते हैं और उनसे सीखते रहें हैं। अभिवावकों के मामले में भी यही होगा कि उनके बालकों में ऐसी कौन सी बाते हैं जिनकी वे सराहना करते हैं ऐसा नहीं है कि वे उनकी हर बात को नापसंद ही करते हैं।

उपचारकर्ता को चाहिए कि वह इतनी गुंजाइश छोड़े कि परिवार का प्रत्येक सदस्य एक दूसरे से सीखे सद्गुणों का विश्लेषण एवं चिंतन मनन कर सकें जिनसे उन्होंने लाभ उठाया है और जो सकारात्मक भाव से उनकी सराहना करते हैं। स्पष्ट है कि यह परिवार के भीतर होने वाली कठिनाइयों के विषय में विचचार करने के अंग के रूप में ही होगा।  

जिस बिंदु पर हमने अपने जीवन में दुष्कर प्रभावों का सामना किया

यदि हमारे जीवन पर विशेष रूप से कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ा है जो वास्तव में हमारे लिए बहुत घातक रहा तो हम उससे मुक्त हो जाते हैं जब हम “समभाव” की अवस्था में पहुँच जाते हैं। यह चित्त की ऐसी दशा है जिसमें विकर्षण, आकर्षण अथवा तटस्थ भाव नहीं हैं। हम उसके विषय में क्रोधित नहीं है या फिर निरंतर उसके विषय में सोच रहे हैं और न ही उसे पूरी तरह झुठला रहे हैं।

जब हम इस नकारात्मक प्रभाव के बारे में खुलकर और निश्चिन्त भाव से सोच पाते हैं कि वह एक अतीत है किसी भी अन्य बात की तरह और वह कठिन तो था परन्तु हर व्यक्ति को ऐसे कठिन समय का सामना करना पड़ता है और तब हम उस पर आगे विचार नहीं करते। कुछ लोग इसे स्वीकृति कह सकते हैं।

सारांश

हम सब पर नकारात्मक प्रभाव पड़ते रहें हैं जब से हमने जन्म लिया; यह सामान्य है चूँकि मनुष्य पूर्ण नहीं होते। हमें इन प्रभावों को स्वीकार करना होता है परन्तु उन पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसका कोई लाभ नहीं होता। उसके स्थान पर हम उन असाधारण सकारात्मक प्रभावों को खोजें जो हमें अपने माता-पिता, अपने संस्कृति और समाज तथा स्कूली जीवन आदि में मिले ताकि हम अपने बारे में समग्रता से समझ सकें। जब हम देखते हैं कि कुछ हद तक हमारे भीतर भी ऐसे सद्गुण हैं तो हमारे भीतर आत्म-विश्वास जागृत होता है जिससे हम उस सद्गुणों को सुधार कर और विकसित कर सकते हैं केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि अंतत: अन्य लोगों के लाभार्थ भी।

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