भावी जीवनकालों के लिए सरोकार उत्पन्न करना

एक से दूसरे जीवनकाल में "मैं" इयत्ता की कोई स्थायी पहचान नहीं

विश्लेषण के पिछले विषयों को ध्यान में रखते हुए तथा अन्य कई विचारणीय मुद्दों के आधार पर हम धीरे-धीरे यह स्वीकार कर लेते हैं कि हमें अनादि विगत जीवनकाल मिले हैं और अनंत भावी जीवनकाल भी मिलेंगे। हमारे मानसिक सातत्यों का भी न कोई आदि था और न इनका अंत होगा। अतः, तीन लाम-रिम लक्ष्यों: बेहतर पुनर्जन्म, ज्ञानोदय, तथा पुनर्जन्म से मुक्ति, की प्राप्ति के संघर्ष में हमें चाहिए कि हम अपने मानसिक सातत्यों को चार आर्य सत्यों के भ्रांतकारी पक्ष को सदा के लिए दूर करके और उसके शोधनकारी पक्ष को विकसित कर उन्हें प्राप्त करें, चाहे इसमें विस्तीर्ण समय और असंख्य पुनर्जन्म ही क्यों न लग जाएँ। 

स्थूल स्तर पर, प्रत्येक पुनर्जन्म में हमारे मानसिक कार्यकलाप जिस प्रकार की क्षमताएँ, जीव रूप और जीवन प्रकट करेंगे, वे निस्संदेह भिन्न होंगे। उदाहरण के लिए, स्वाभाविक है कि एक कीड़े के रूप में, हमारे मानसिक कार्यकलाप मानव मस्तिष्क की क्षमताओं और गतिविधि जितने सशक्त नहीं होंगे। विभिन्न जीवों से जुड़ी विभिन्न प्रकार की आदतें, जैसे खुशी में पूँछ हिलाना या कुछ और, ये सब कर्म से प्रभावित होती हैं। अन्य शब्दों में, यह इससे प्रभावित होती हैं कि हमने किस प्रकार का व्यवहार किया है, और उन कर्मों का कार्मिक परिणाम क्या है। अतः, "मैं" सत्त्व की कोई स्थायी पहचान नहीं है।

यहॉं पहचान से अभिप्राय है वह विशिष्ट जीवनकाल जो हमें प्राप्त है। यह वैयक्तिकता से भिन्न है।  चाहे हम जो भी जीव रूप धारण कर लें, हम अपनी वैयक्तिकता नहीं खोते: मैं तुम नहीं बन जाता। परन्तु मेक्सिको वासी, जर्मनी वासी, मानव, चूज़े, नर, नारी, या अन्य किसी जैसी कोई स्थायी पहचान नहीं  होती। इसलिए, हम किसी भी जीव रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं; यह पूर्णतः हमारे कर्मों पर निर्भर है। किन्तु, हमारे वैयक्तिक आत्मपरक मानसिक कार्यकलाप निरंतर चलते रहेंगे।

हमारे बहुमूल्य मानव जीवन का मोल समझना

अब हमारे पास यह बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म है। हम चूज़े नहीं हैं। हम भूख से मर नहीं रहे हैं। हम में से अधिकाँश गंभीर रूप से दिव्यांग नहीं हैं। हम ऐसी स्थिति में नहीं हैं जहाँ कोई बौद्ध शिक्षाएँ उपलब्ध नहीं हैं, या जहाँ ये निषिद्ध हैं अथवा क़ानून के विरुद्ध हैं। पहली नज़र में, हमारे पास बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म पर ध्यान-साधनाएँ हैं, जो समझ में आती है यदि हम यह मानें कि इस बात की अनेक अतिरिक्त सम्भावनाएँ हैं कि क्या हो सकता था या हम इस जीवनकाल में क्या अनुभव कर सकते थे। जैसे मेरे एक गुरु गेशे नगवांग धारज्ञेय कहते थे, हमारी हर प्रकार की कार्मिक सामर्थ्य के साथ, अच्छा हो यदि हम यह सोचें कि हम हीन गतियों से एक लघु अवकाश पर हैं, और यह भी सोचें कि हमारी छुट्टी लगभग समाप्त हो गई है। इसलिए, जब तक हम इस लघु अवकाश पर हैं, हमें अपना समय केवल मनुष्य की योनि के चित्र खींचने में नहीं गँवाना चाहिए। हमें इस अद्भुत रूप से बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म का पूरा लाभ उठाना चाहिए।

मनुष्य होने का हमें सबसे बड़ा क्या लाभ है ? वह है हमारी बुद्धिमत्ता। हमारे पास वह प्रज्ञा है जो यह विभेद कर पाती है कि क्या साधना के लिए लाभकारी है और किससे बचना चाहिए। केवल मनुष्य के पास ही इस प्रकार की प्रज्ञा होती है। मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है, परन्तु यदि हमारे पास यह विश्वास नहीं होगा कि मृत्यु के बाद एक और जीवन है, तो जब हमारी मृत्यु होती है, बस वही अंत है। ठीक है, सबकुछ ख़त्म हो जाता है। फिर, मृत्यु के विषय में अभिज्ञता होना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।

मृत्यु के प्रति अभिज्ञता और उसके पश्चात किस प्रकार का पुनर्जन्म हो सकता है

हमें अत्यंत गम्भीरतापूर्वक यह तथ्य समझने की ज़रुरत है कि हमें बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म का अद्भुत अवसर मिला है, और चाहे हमें पता न भी हो फिर भी यह निश्चित रूप से समाप्त होगा। हमारी मृत्यु के पश्चात, यह चलता रहेगा, और प्रश्न यह है कि आगे क्या होगा ? यदि हम आदि और अनंत मानसिक सातत्यों के सन्दर्भ में सोचें, तो इस जीवनकाल में समय की अवधि बहुत ही छोटी है। यद्यपि वैज्ञानिक कुछ-कुछ सालों बाद अपनी धारणा बदल लेते हैं, फिर भी यदि हम महाविस्फोट से प्रलय तक ब्रह्माण्ड के जीवनकाल के सन्दर्भ में सोचें, तो यह जीवनकाल कुछ भी नहीं है। यह कितना छोटा है। तो तार्किक रूप से, इस जीवनकाल की तुलना में इस बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म के बाद बहुत अधिक समय है, और इसलिए  जीवन पर ध्यान देने से श्रेष्ठतर होगा कि हम उस लम्बी कालावधि के विषय में चिंता करें। निस्संदेह, इस जीवनकाल का शेष अंश आने वाला है, और हमें उसपर भी थोड़ा ध्यान देना है। परन्तु इस आरंभिक निरीक्षण का लक्ष्य है अपने आगामी जीवनकालों पर अपना मुख्य ध्यान और रूचि बनाए रखना।

अब हम वास्तविक धर्म को सराहने लगे हैं। यदि हम वास्तव में पुनर्जन्म के विषय में विश्वास रखते हैं, तो हमें इस बात को गम्भीरतापूर्वक लेने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम इसे गम्भीरतापूर्वक मानेंगे, तो इस वर्तमान मानव जीवन का मोल बहुत अधिक प्रतीत होता है। कितनी अद्भुत बात है कि हमारे पास अपनी परिस्थिति को सुधारने की छूट और अवसर हैं। यदि हम सचमुच इस बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म को सराहते हैं, तो हम भविष्य में क्या चाहेंगे? हम चाहेंगे कि भविष्य में हमें ये और प्राप्त हों।

बेहतर पुनर्जन्म प्राप्त करने के लिए सुरक्षित दिशा

यदि हम बुद्ध, धर्म, और संघ की सुरक्षित दिशा में जाते हैं, तो हम अपने मानसिक सातत्य की उन सत्यनिरोध और सत्यचित्तमार्ग की दिशा में जाते हैं जो हमने अभी तक प्राप्त नहीं की है। तथापि, यदि हम वह दिशा अपनाते हैं तो वह हमें उन भयावह पुनर्जन्म अवस्थाओं से बचाएगी जिनसे हम आतंकित अनुभव करते हैं। हम यह स्वीकार कर लेंगे कि वास्तव में उस दिशा में जाने और सत्यनिरोध और सत्यचित्तमार्ग के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, हमें बार-बार बहुमूल्य मानव पुनर्जन्मों की आवश्यकता होती है। संभव है कि हमें इस जन्म में सत्यनिरोध और सत्यचित्तमार्ग न प्राप्त हों, इसलिए हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमें बहुमूल्य मानव जीवन मिलते रहेंगे। इस प्रकार, हम निरंतर इस सुरक्षित दिशा में बढ़ते रहेंगे।

आर्य की अवस्था प्राप्त करना

हमने लाम-रिम में पढ़ा था कि हम मनुष्य अथवा किसी देवता के रूप में बेहतर पुनर्जन्म को लक्षित करते हैं। यदि बहुमूल्य मानव जीवन इतना महत्त्वपूर्ण है, तो उसका विवरण इस प्रकार क्यों दिया गया है? यह मैत्रेय के ग्रन्थ अभिसमयअलंकार (Filigree of Realizations) के एक अत्यंत जटिल बिंदु से जुड़ता है। इसमें, 20 संघों की एक सूची है, यहाँ संघ से अभिप्राय है आर्य संघ। चित्त के कई स्तर हैं जिनसे हम सत्यचित्तमार्ग के साथ सत्यनिरोध प्राप्त कर सकते हैं, जिसे हम "दृष्टि मार्ग" भी कहते हैं। चित्त का दृष्टि मार्ग एक ऐसा चित्त है जिसे चार आर्य सत्यों के 16 पहलुओं का निर्वैचारिक बोध है। अन्य शब्दों में, हम एकाग्र चित्त के विभिन्न स्तरों से आर्य की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और इसलिए 20 संघों से अभिप्राय है 20 प्रकार के आर्य जिन्हें उनके निर्वैचारिक बोध सहित एकाग्र चित्त के स्तर के अनुसार वर्गीकृत किया गया है।

एकाग्रता के इन स्तरों में अनेक प्रकार की ध्यान-साधनाएँ  सम्मिलित हैं, जो मानसिक स्थिरता के अत्यंत उन्नत स्तर हैं। ये विभिन्न स्तर देवलोकों के विभिन्न स्तरों के अनुरूप हैं। यदि हम मानसिक स्थिरता की किसी भी अवस्था के प्रति आसक्त हो जाते हैं, तो हम उससे संबंधित देवलोक में पुनर्जन्म लेते हैं, और हमारे भीतर उसी प्रकार की मानसिक स्थिरता को फिर से प्राप्त करने की प्रवृत्ति सबल हो जाती है। इसलिए, यदि हम इन देवलोकों में से किसी एक में भी पुनर्जन्म लेते हैं तो सैद्धांतिक रूप से उस लोक के अंतर्गत उस मानसिक स्थिरता के स्तर को विकसित करना संभव हो जाएगा जो हमें आर्य की अवस्था को प्राप्त करने में सक्षम बना देगा, बशर्ते हमने अन्य साधनाओं द्वारा बड़ी संख्या में अन्य प्रवृत्तियों को संचित कर लिया हो। यही कारण है कि हम मनुष्य या देवता जैसे श्रेष्ठ पुनर्जन्मों का लक्ष्य बनाने की बात कर रहे हैं, न कि इसलिए कि देवतागण हर्ष और उल्लास में सदा आनंदित रहते हैं!

बड़ी बात यह है कि जब हम शरणागति कि बात करते हैं तो हम इस आर्य अवस्था और उससे आगे की स्थितियों का लक्ष्य बनाते हैं। हम सत्यनिरोध तथा सत्यमार्ग को लक्षित करते हैं, और चूँकि वह सैद्धांतिक रूप से देवता के जीव-रूप में पुनर्जन्म लेकर भी प्राप्त किया जा सकता है, इसे यहाँ सम्मिलित किया गया है। फिर भी हम वास्तव में बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म का ही लक्ष्य बनाते हैं क्योंकि यही वह जीव रूप है जो आर्य अवस्था प्राप्त करने के लिए सबसे सरल और अनुकूल है। ध्यान दें कि श्रेष्ठतर पुनर्जन्म का लक्ष्य जन्नत या स्वर्ग जाने के ग़ैर-बौद्धधर्मी लक्ष्य के समान नहीं है। अपितु, बौद्ध-धर्मी उद्देश्य यह है कि हम एक कार्यकारी आधार बना लें जिसके द्वारा विमुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति संभव हों।

कर्म: विनाशकारी व्यवहार से बचना

अगला कदम यह सोचना है कि हम भविष्य में बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यह हमें कर्म की चर्चा की ओर ले जाता है, क्योंकि बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म सुनिश्चित करने के लिए हमें विनाशकारी कार्य करने से बचना होगा और इसके स्थान पर रचनात्मक कार्य करना आरम्भ करना होगा। हो सकता है कि हम वस्तुतः भविष्य में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त करना चाहते हों, परन्तु विडम्बना यह है कि हम विनाशकारी कृत्यों को बंद भी तो नहीं करना चाहते! तो, अब हमें इस तथ्य में विश्वास दृढ़ करना होगा कि विनाशकारी व्यवहार से दु:ख होता है जबकि रचनात्मक व्यवहार का सुख में विपाक होता है।

क्या आपने कभी अपनेआप से यह पूछा है कि ऐसा क्यों होता है? कहने का मतलब यह है कि यदि हमने वास्तव में यह दृढ़ निश्चय कर लिया होता कि विनाशकारी कृत्यों से हम अपने लिए केवल दु:ख, दुर्गति, और पीड़ा ही अर्जित करते हैं, तो हम विनाशकारी कृत्य न करते। तो, स्पष्ट रूप से हमारा विश्वास अब तक पर्याप्त रूप से दृढ़ नहीं हुआ है। एक बार जब यह दृढ़ हो जाएगा तो हमें उस क्रियाविधि को भी समझना होगा जिसके कारण सुख एवं दुःख अनेक जीवनकालों के दौरान परिपक्व होते हैं। हमारे विनाशकारी कृत्यों के क्रियान्वयन और उनके परिपक्व होने के बीच एक लंबा अंतराल है, और यह हमें सतत मानसिक समतान के विषय की ओर वापस ले जाता है।

सारांश

इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुमूल्य मानव पुनर्जन्म के दौरान हमें स्वच्छंदता एवं एक निश्चित धरोहर भी प्राप्त होती हैं। हम बुद्धिमान हैं, हमारे पास जानकारी तक की पहुँच है, और हम स्वच्छंद रूप से अपने विकल्प चुन सकते हैं। परन्तु यह अनुकूल परिस्थिति सदा के लिए नहीं रहेगी। हमारा यह मानव जीवन एक लघु, सुखद विश्रामकाल की तरह है जिसे किसी भी क्षण हमसे छीन लिया जा सकता है।

जब हम इस बात को पूर्ण रूप से मान लेंगे कि हम एक दिन मर जाएँगे और हमारा मानसिक समतान बना रहेगा, तो हमारे पास अपने भावी जीवनकालों के बारे में सोचने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं रह जाएगा। हम में से अधिकांश लोग अपने बुढ़ापे के लिए इतनी मेहनत करते हैं तो अपने भावी पुनर्जन्मों के बारे में क्यों नहीं सोचते?

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