लाम-रिम के क्रमिक चरणों को जीवन में कैसे समेकित किया जाए

प्रेरणा (समुत्थान) के तीन क्रमिक स्तरों की संरचना का परिचय

"लाम-रिम" एक तिब्बती शब्दावली है जिसका अनुवाद प्रायः "ज्ञानोदय का क्रमिक पथ" के रूप में किया जाता है, परन्तु यह उस पथ की बात नहीं कर रहा जिसपर हम चलते हैं। यहाँ "पथ" उस चित्तावस्था को संदर्भित करता है जो हमें किसी विशिष्ट स्थान तक ले जाने वाले मार्ग के रूप में कार्य करती है, और वह विशिष्ट स्थान है ज्ञानोदय प्राप्ति। मैं इसे "चित्त मार्ग" कहना पसंद करता हूँ, और ज्ञानोदय तक पहुँचने के लिए हमें इसे एक निश्चित श्रेणीबद्ध क्रम में विकसित करने की आवश्यकता है।

परंपरागत रूप से लाम-रिम को तीन प्रमुख स्तरों में विभाजित किया गया है, जो आगे चलकर कई उपखंडों में विभाजित हुए हैं। यह उत्तरोत्तर विकसित चित्तावस्था प्रस्तुत करता है जिनमें से प्रत्येक अवस्था एक-एक आशय की बृहत् संरचना को समाविष्ट करती है। प्रत्येक स्तर का प्रतिनिधित्व भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्ति करते हैं, और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की अलग-अलग प्रेरणा (समुत्थान) होती है। प्रेरणात्मक आशय संरचनाओं से युक्त इस प्रकार के व्यक्तित्वों की प्राप्ति हेतु हम अपनेआप को उत्तरोत्तर विकसित करने का प्रयास करते हैं।

मैं यहाँ " समुत्थान" शब्द का प्रयोग किसी सरलीकृत रूप से नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि बौद्ध धर्म में समुत्थान की चर्चा इन प्रेरक आशय संरचनाओं को संदर्भित करती है, जिनके दो भाग हैं। एक भाग है हमारे जीवन का उद्देश्य, और दूसरा है वह जिसे हम पश्चिमवासी प्रायः प्रेरणा के रूप में मानते हैं और जिसमें वह भावात्मक पृष्ठभूमि है जो हमें अपने उद्देश्य की ओर ले जाती है।

लाम-रिम के तीन स्तरों में से प्रत्येक स्तर का आधार उसका निचला और पूर्ववर्ती स्तर है, और इसलिए वे संचयी हैं। इसका अर्थ यह है कि हम पहले प्रथम स्तर का समुत्थान विकसित करते हैं, फिर प्रथम और द्वितीय एक साथ, इत्यादि। ऐसा नहीं है कि हम दूसरे स्तर पर पहुँचने के बाद पहले स्तर को भूल जाते हैं। और अंत में हम तीनों स्तरों को एक साथ जोड़ते हैं। यह हमारे लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम विधिनिर्दिष्ट क्रम में ही तीनों स्तरों को विकसित करते हुए आगे बढ़ें। यदि हम किसी एक को छोड़ देते हैं तो हमारी अभीष्ट मनःस्थिति अपूर्ण रह जाएगी।

  • आरंभिक विषय क्षेत्र समुत्थान से हम अपने भावी पुनर्जन्मों को बेहतर बनाते हैं। निकृष्ट पुनर्जन्मों के प्रति आशंका और हर हाल में उनसे बचने की प्रबल इच्छा ही इसका प्रेरक मनोभाव है।
  • मध्यवर्ती विषय क्षेत्र से हम संसार से पूर्ण विमुक्ति का लक्ष्य रखते हैं। इसका प्रेरक मनोभाव यह है कि हम उससे जुड़े हुए दुःखों से पूरी तरह से ऊब चुके हैं, उससे घृणा हो गई है। इसे प्रायः "त्याग" के रूप में अनूदित किया जाता है, अर्थात इन सभी से विमुक्त होने का दृढ़ संकल्प। स्वाभाविक रूप से इसका तात्पर्य है अपने दु:खों को छोड़ देने की तत्परता।
  • प्रेम, करुणा, एवं बोधिचित्त ध्येय से प्रेरित उन्नत विषय क्षेत्र से हमारा लक्ष्य है पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्ति। हम अन्य सभी सत्त्वों के बारे में यह सोचते हैं कि हमारी तरह ही वे भी अनेक दुःख भोगते हैं और उनकी भी समस्याएँ होती हैं, और इसलिए हम ज्ञानोदय प्राप्त करना चाहते हैं ताकि उनकी सहायता करने में हम पूर्ण रूप से समर्थ हो जाएँ।

लाम-रिम के क्रमिक स्तर के अध्ययन की मेरी वैयक्तिक गाथा

इस विषय की भूमिका के रूप में मैं अपनी व्यक्तिगत कहानी सुनाता हूँ कि मैंने किस प्रकार लाम-रिम का अध्ययन आरम्भ किया था।

मुझे पहली बार इस विषय के बारे में जानने का सुयोग तब प्राप्त हुआ जब 1968 में मैं हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट स्कूल में तिब्बती सीख रहा था। हमने त्सोंगखपा के बृहत् लाम-रिम ग्रन्थ, मार्ग के क्रमिक स्तरों की भव्य प्रस्तुति  के कुछ पन्नों को पढ़ा था जो हमारे पाठ्यक्रम का भाग थे, परन्तु उस समय मुझे उस ग्रन्थ की अंतर्वस्तु के विस्तार का आभास भी नहीं था। यह तब की बात है जब किसी भी क्रमिक पथ ग्रन्थ का अंग्रेज़ी में अनुवाद नहीं हुआ था, यहाँ तक कि गम्पोपा के विमुक्ति अलंकरण रत्न  का भी अनुवाद नहीं हुआ था। उस समय तो यह एक अज्ञात विषय था।

अगले वर्ष 24 वर्ष का होकर मैं फुलब्राइट फ़ेलोशिप प्राप्त करके अपने पीएचडी निबंध के लिए शोध करने भारत चला गया। मैंने शुरू में यह योजना बनाई थी कि यह निबंध एक अत्यंत उन्नत तंत्र विषय पर होगा। यद्यपि मेरे प्रोफ़ेसर ने इसी की संस्तुति की थी, मुझे शीघ्र ही पता चल गया कि यह एक असंगत प्रयास होगा, और यही नहीं, भारत के तिब्बती शिक्षकों ने भी यह सुझाव दिया कि मैं इसके बजाय लाम-रिम का अध्ययन करूँ। तो मैंने ऐसा करने का निर्णय लिया और अट्ठारह महीनों तक लाम-रिम का अध्ययन करने के बाद उसकी मौखिक परंपरा पर अपना शोध निबंध लिखा, क्योंकि मुझे यह भी नहीं पता था कि इसपर कई लिखित ग्रंथ पहले से ही विद्यमान थे। चूँकि इस विषय पर गेशे ङ्गवाङ्ग धारग्ये ने मुझे मौखिक रूप से समझाया था मैंने इसका नाम "लाम-रिम की मौखिक परंपरा" रखा।

हिप्पियों की लहर आने से पहले भारत में उत्साह भरा परिवेश था। कार्लोस कास्तानेडा अपनी किताबें लिख रहे थे और उसी संवेदना से युक्त भारत में तिब्बतियों के साथ रहने वाले हम में से कुछ पश्चिमवासियों को यह लगने लगा कि हम भी इसी तरह के साहसिक कार्य में शामिल हैं। कास्तानेडा की तरह, हम भी कुछ गुप्त, विशेष, जादुई शिक्षाओं की खोज कर रहे थे। यह वाकई एक साहसिक कार्य था!

मैंने लाम-रिम का अध्ययन पारंपरिक रूप से किया, अर्थात मुझे लाम-रिम का एक विषय या बिंदु दिया जाता और मुझे इस बात की भनक भी न होती कि आगे क्या आने वाला है। जैसे-जैसे प्रत्येक बिंदु आता जाता वैसे-वैसे उसपर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना होता था और, इससे पहले कि अगला खंड प्रस्तुत किया जाता, उसे आत्मसात कर लेना होता था। मुझे यह बताया गया था कि यह एक ऐसा विषय है जिसका बार-बार अध्ययन करना चाहिए, और हर बार जब आप आरम्भ से पढ़ने लगते हैं तो बाद की बातें बेहतर समझ में आने लगती हैं। हम समग्र शिक्षण को जितना अधिक एक साथ समाहित कर सकते हैं, उसमें बताई गई चित्तावस्थाएँ उतनी ही अधिक स्पष्ट होती जाएँगी और उनको विकसित करना उतना ही अधिक सरल होगा।

शिक्षाओं को एक सम्भार एवं अपने जीवन में समेकित करना

इस तथ्य के आधार पर मैंने शिक्षाओं को सम्भारों (संजालों) के रूप में समझाने के विचार को विकसित करना आरम्भ किया क्योंकि संपूर्ण लाम-रिम इस अर्थ में एक सम्भार है कि उसके शिक्षण का प्रत्येक बिंदु हर दूसरे बिंदु से जुड़ता है। यह परिणामी सम्भार अत्यंत जटिल होता है, और जितना अधिक सम्बन्ध हम खोज निकालते हैं और उत्पन्न करते हैं, हमारा बोध उतना ही गहन होता जाता है। इस तरह का संभरण (जालक्रम) न केवल लाम-रिम से अपितु बुद्ध की सारी शिक्षाओं, धर्म, के प्रत्येक तत्त्व से संबंधित है।

समेकन की अवधारणा एक अन्य आयाम है हमारी इस बिंदु को समझने में हमारी सहायता करेगा। सभी शिक्षाएँ और बिंदु एक दूसरे के साथ गुंथे होते हैं, परन्तु उन्हें समेकित करना हमारा काम है। और ऐसा नहीं है कि केवल शिक्षाओं को ही एक दूसरे के साथ समेकित करना है, अपितु हमें अपने और अपने जीवन के तमाम अलग-अलग आयामों के साथ भी उन्हें समेकित करना होगा। सम्भार यहाँ फिर से लागू होता है क्योंकि लाम-रिम के सभी बिंदुओं को हमारे जीवन के सभी विभिन्न आयामों से जुड़ना होगा। जब हम इस समेकन को सफलतापूर्वक सिद्ध कर लेते हैं तब कहीं जाकर हम धर्म को अपने में समाहित करने में सफल होते हैं।

सरलीकृत धर्म

अपने जीवन में धर्म को समेकित करने की आवश्यकता समुत्थान के तीन स्तरों के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है। इससे पहले कि हम इनमें से किसी भी स्तर को प्राप्त कर पाएँ, हमारा पहला पड़ाव होगा वह जिसे मैं "सरलीकृत धर्म" कहता हूँ, और जिसे मैं "सम्पूर्ण धर्म" से भिन्न करता हूँ। यह वास्तविक कोका-कोला और कोक लाइट की तरह है, क्योंकि सरलीकृत धर्म सम्पूर्ण धर्म की शिक्षाओं का एक संक्षिप्त संस्करण है जिसका विषय-क्षेत्र केवल इस जीवनकाल को सुधारने तक सीमित है। यहाँ हम धर्म का उपयोग केवल अपने वर्तमान जीवनकाल को बेहतर बनाने के लिए कर रहे हैं। परन्तु सम्पूर्ण धर्म की साधना वह है जो तीनों पारंपरिक विषय-क्षेत्रों के संदर्भ में है।

सरलीकृत धर्म सीखना और उसकी साधना करना कुछ ऐसा है जैसे बौद्ध धर्म का रोग-उपचार के लिए उपयोग करना, और वस्तुतः इस सन्दर्भ में ये शिक्षाएँ बहुत सहायक भी हो सकती हैं। केवल इसलिए कि सम्पूर्ण धर्म की सारी बातें इसमें सम्मिलित नहीं है, हम यह नहीं कह सकते कि सरलीकृत धर्म अप्रामाणिक है, बशर्ते कि हम इसे सम्पूर्ण धर्म के साथ उलझा न दें। ईमानदारी से कहें तो प्रायः हम सभी सरलीकृत धर्म पर ही प्रधानतः संकेंद्रित हैं। निश्चित रूप से पहले पहल मैं भी वैसा ही था!

सरलीकृत लाम-रिम का रूप

आध्यात्मिक गुरु पर विश्वास

लाम-रिम के सरलीकृत धर्म का रूप क्या है? यदि हम शिक्षाओं को देखें, तो वे कहते हैं कि मूलतः हमें किसी आध्यात्मिक गुरु का शरणागत होना होगा। मैं इतना भाग्यशाली था कि मेरे आरंभिक दिनों में मुझे एक ऐसे आध्यात्मिक शिक्षक मिले जिन्होंने 1959 से पहले तिब्बत में पारंपरिक प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर निर्वासन काल में उच्च प्रशिक्षण - ये थे गेशे ङ्गवाङ्ग धारग्ये। तथापि, मुझे यह समझने में सालों लग गए कि "मूल" शब्द का अर्थ क्या है। मैंने इसे सदा "आरम्भ" समझने की भूल की थी, विशेष रूप से इसलिए कि हम लाम-रिम का आरम्भ वहीं से करते हैं।

परन्तु यह उस तरह के "मूल" की छवि नहीं है जैसा कि पौधे का मूल या जड़, क्योंकि पौधा अपनी जड़ से नहीं, अपितु बीज से उत्पन्न होता है। जड़ वह है जिससे पौधा पोषण ग्रहण करता है जिससे वह बड़ा होता है। यह पौधे को धरती पर टिकाकर उसे स्थिरता प्रदान करती है। इसी तरह किसी आध्यात्मिक गुरु का आश्रय हमें भी धरातल से जोड़े रखता है और धर्म के विषय में विचित्र कल्पना की उड़ानें भरने से रोकता है। गुरु हमें सीधे मार्ग पर आगे बढ़ने में सहायता करते हैं ताकि हम वास्तविक शिक्षाओं से दूर न भटक जाएँ, ठीक उसी तरह जैसे जड़ पौधे को संभाले रहती है कि वह कहीं ग़लत दिशा में झुक न जाए। मार्ग पर आगे बढ़ने का समुत्थान केवल वह आध्यात्मिक गुरु ही दे सकता है जिनसे हम शिक्षा एवं भाष्य प्राप्त करते हैं। निःसंदेह बौद्ध धर्म का ज्ञान हम ग्रंथों से भी प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु ये ग्रन्थ तो शिक्षक ही लिखते हैं जिनमें से बहुत कम बौद्ध-धर्मी होते हैं और उनसे भी कम लोग उच्च सिद्धि प्राप्त आर्य।

जब मैं हार्वर्ड में अध्ययन कर रहा था तो वहाँ तिब्बती बौद्ध धर्म को एक मृत विषय समझा जाता था, जैसे प्राचीन मिस्र का धर्म। परन्तु जब मैं भारत गया और महान तिब्बती लामाओं से मिला और अपने गुरु के साथ अध्ययन करना आरम्भ किया, तो मैंने अनुभव किया कि धर्म सच्चा है, बौद्ध धर्म जीवंत है, और शिक्षाओं के अद्भुत जीवंत उदाहरण भी उपलब्ध हैं। फिर भी, मुझे अपने शिक्षक से जो प्रेरणा मिली वह सरलीकृत धर्म के स्तर पर थी, जिससे मुझे इस जीवनकाल में ही अपने जीवन को बेहतर बनाने हेतु धर्म साधना के लिए समर्थन प्राप्त हुआ।

आरंभिक विषय क्षेत्र 

लाम-रिम का आरंभिक विषय क्षेत्र सबसे पहले अपने बहुमूल्य मानव जीवन का मोल समझने की बात करता है जिसमें हमें स्वयं अपने ही जीवन को परखने का परामर्श दिया जाता है। तो मैंने खुद अपनी जाँच की और यह पाया कि मैं बहुत भाग्यशाली था, और अभी भी हूँ, कि मुझे महान शिक्षकों और गुरुओं के साथ अध्ययन करने के बहुत-से अवसर मिले और अब भी मिल रहे हैं। इसके बाद हमारा ध्यान मृत्यु और अनित्यता की ओर इसलिए मुड़ जाता है ताकि हमें यह बोध हो जाए कि ये अवसर हमारे पास सदा के लिए नहीं रहेंगे। उस समय तो मैं इस बात को आसानी से समझ गया था, और मुझे अपने सामर्थ्य का उपयोग करने की तीव्र इच्छा भी हुई। मैं युवा था और मेरे पास मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए बल, बुद्धि इत्यादि सब थे। तो मुझे यह बात आसानी से समझ में आ गई थी।

फिर ये शिक्षाएँ उल्लेख करती हैं नरकादिक लोक जैसे निकृष्टतर पुनर्जन्मों का, जो हमें भावी जीवनकालों में प्राप्त हो सकते हैं। अब, इसके प्रति मेरा दृष्टिकोण लोककथाओं का अध्ययन करने वाले किसी मानव विज्ञानी की तरह था कि, "ओह, यह बड़ी ही रोचक बात है कि वे ऐसा मानते हैं।" फिर मैंने कुछ अधिक प्रासंगिक ढूँढ़ने के लिए पन्ने को पलटा।

इसके बाद हैं शरणागति की शिक्षाएँ, और अंततः मैंने यह समझा कि यह कोई निष्क्रिय अनुभव नहीं है। बौद्ध धर्म में "मुझे बचाओ, मुझे बचाओ!" की मानसिकता नहीं है। इसके ठीक विपरीत हमें अपने जीवन में शरणागति का मार्ग अपनाना है। मुझे पता था कि हमें बुद्ध, धर्म, और संघ की शरण में जाना है और, भले ही मेरे पास उनके गुणों की लंबी सूची थी, परन्तु मुझे उसका महत्त्व नहीं पता था। मुझे पता था कि इसकी महिमा गले में लाल डोरी बाँधने से कहीं अधिक है परन्तु उसकी गहन जटिलताओं को अब तक नहीं समझ पाया था। फिर भी मैंने इस दिशा में शरणागत होने का निर्णय लिया।

फिर लाम-रिम कर्म की शिक्षाओं को प्रस्तुत करता है जो मूल रूप से विनाशकारी व्यवहार से बचने के बारे में हैं। यद्यपि इसे भावी निकृष्टतर पुनर्जन्मों को जन्म देने वाले विनाशकारी व्यवहार से बचने के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया गया था, यह उतना प्रतीतिजनक नहीं था। फिर भी मुझे इसकी अच्छे मनुष्य बनने की बात तर्कसंगत लगी। दूसरों को पीड़ा न पहुँचाएँ, विनाशकारी व्यवहार न करें, और क्रोध, लोभ आदि के अधीन होकर कोई कार्य न करें। यह सब बहुत बढ़िया था और मैंने इन्हें स्वीकार भी किया, क्योंकि मैं समझ गया था कि यह मुझे अपने इस वर्तमान जीवन में किस प्रकार सुखी कर सकता है। यह आरंभिक विषय-क्षेत्र के सरलीकृत धर्म का एक आदर्श निरूपण था। स्पष्टतः मुझे उस समय यह नहीं पता था कि वह सरलीकृत धर्म था, अपितु मैंने तो यह सोचा था कि शिक्षाएँ इसी के बारे में बात कर रही थीं।

मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र 

मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र की शिक्षाएँ आरम्भ होती हैं उत्कृष्ट पुनर्जन्म अवस्थाओं एवं संसार के सामान्य दुःखों के विवरण से। एक बार फिर स्वर्गलोकों का विवरण नृविज्ञान के अध्याय की तरह लग रहा था परन्तु उस समय संसार के कष्टों का वर्णन मेरे लिए कहीं अधिक प्रासंगिक था। उसमें इस बात का सविस्तार वर्णन था कि हम किस प्रकार सदा हताश रहते हैं और किस प्रकार हम जो चाहते हैं वह मिलता नहीं है। यह अत्यंत अद्भुत एवं सारगर्भित था।

तत्पश्चात मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र सभी चित्त संस्कारों एवं क्लेशों का विश्लेषण करता है और यह समझाता है कि किस प्रकार ये क्लेश हमारी समस्याओं का कारण बनते हैं। मैंने वास्तव में इसे ही लाम-रिम चर्चा का सबसे रोचक भाग माना, कि किस प्रकार विभिन्न भावात्मक समस्याएँ और कठिनाइयाँ, उनके कारण एवं उससे संयुक्त चित्त संस्कार उत्पन्न होते हैं, और हम किस प्रकार वास्तव में समस्याओं को उत्पन्न करते हैं। यह अत्यंत उत्कृष्ट था और मनोविज्ञान के किसी भी पाठ्यक्रमों से कहीं बेहतर था जिनका मैंने तब तक अध्ययन किया था। तब मुझे इस बात का बोध नहीं हुआ कि यह कह रहा था कि यही हमारे संसार (अनियंत्रित आवर्ती-पुनर्जन्म) को बनाए रखता है, पर मेरे अपने जीवन की विभिन्न मनोवैज्ञानिक समस्याओं की उत्पत्ति को देखते हुए मैंने इसे सरलीकृत धर्म के स्तर पर समझा। यह अत्यंत लाभदायक था।

लाम-रिम प्रस्तुति में अगला है प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वादश निदान जो अत्यंत जटिल हैं। यह पुनर्जन्म का अत्यंत सरलतापूर्ण विस्तृत विवरण देता है परन्तु मुझे यह पूरी तरह समझ में नहीं आया, और मैंने इसे इस जीवनकाल के ही संदर्भ में समझने का प्रयास किया क्योंकि उस समय भावी जीवन और पुनर्जन्म को इतनी गंभीरता से लेना कठिन था। सीधी बात कहूँ तो यह हमारी सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा नहीं है और मैं निश्चित रूप से इसे सुन-सुनकर बड़ा नहीं हुआ हूँ। परन्तु मैं उदारचित्त था और मैंने इस विचार को संदेह का लाभ देते हुए पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया। यदि इसके निष्कर्ष तर्कसंगत एवं उपयुक्त थे, तो हो सकता है कि पुनर्जन्म संभव था और वास्तव में विद्यमान भी। परन्तु, ईमानदारी से कहूँ तो मुझे पता ही नहीं था।

इसके बाद है निःसरण (परित्याग), और मैंने एक सरलीकृत स्तर पर इसे यों समझा कि यह केवल सब कुछ त्यागकर एक गुफ़ा में रहने की बात है। वास्तव में त्याग संसार और दु:खों से मुक्त होने का दृढ़ संकल्प है। निश्चित रूप से मेरी अपनी उस उम्र में जितने भी दुःख एवं समस्याएँ थीं मैं उन सबको त्यागने के लिए तैयार था, क्योंकि किसी भी अन्य युवक या युवती की तरह ही मेरी भी कुछ संवेगात्मक समस्याएँ थीं। मैं निश्चित रूप से अपनी समस्याओं के कारणों से मुक्त होना चाहता था, परन्तु संभवतः मैंने इसे केवल एक सतही स्तर पर ही समझा था, जैसे कि कितना अच्छा होगा यदि फिर कभी भी मैं क्रोधी या लोभी न बनूँ। क्या इसका अर्थ यह है कि मेरा प्रिय व्यंजन मेरे सामने हो और जितना हो सके उतना खाने की अपनी लोलुपता को छोड़ने के लिए मैं तैयार हो जाऊँ? खैर, यह एक अन्य प्रश्न है!

निःसरण के बाद अगला विषय है संसार से मुक्त होने के तीन उच्च प्रशिक्षणों पर चर्चा, जिसमें शामिल हैं उच्च अधिशील (नैतिक अनुशासन), समाधि, और ज्ञान या प्रज्ञा में प्रशिक्षण। अंतिम भाग है कल्पना और वास्तविकता के अंतर को समझने का ज्ञान, और मैं इसे बिना किसी प्रकार की कठिनाई के समझ पाया था।

यह है मूल रूप से मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र जैसा मैंने अपनी संवेगात्मक समस्याओं से छुटकारा पाने हेतु सरलीकृत धर्म के स्तर पर समझा था। बौद्ध धर्म ने बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया कि ये समस्याएँ कैसे उत्पन्न होती हैं और उन्हें दूर करने के अच्छे अनुदेश भी दिए।

उन्नत विषय-क्षेत्र

उन्नत विषय-क्षेत्र में मैंने सबसे पहले यह सीखा कि किस प्रकार सबके प्रति समचित्त भाव (उपेक्षा) रखना चाहिए, जो तत्कालीन नागरिक अधिकार और नारी मुक्ति आंदोलनों के साथ ठीक बैठता भी था। सब एक समान हैं इसलिए समचित्त भाव मुझे ठीक लगा। परन्तु इस अवधारणा को मच्छरों और तिलचट्टों तक खींचकर ले जाना फिर एक अलग ही बात थी! 

दरअसल मैं भारत को "कीड़ों की भूमि" कहना पसंद करता हूँ और मैं हमेशा भारत के लिए एक यात्रा विज्ञापन को लेकर परिहास करता हूँ कि, "यदि आपको कीड़े पसंद हैं तो आप भारत से प्यार करेंगे!" विज्ञान-कथा साहित्य, विशेष रूप से स्टार ट्रेक, का बड़ा  प्रशंसक होने के नाते मैं इन कीड़ों को किसी दूसरे ग्रह के वासी की तरह देखता था। यदि मैं किसी ऐसे परग्रह-वासी से मिलता जिसके छः-छः पैर हों, पंख हों, और न जाने क्या-क्या, तो उसपर पाँव रखना भी कितना भयावह होगा। इस तरह फिर मैं कीड़ों से धीरे-धीरे सुलह करने लगा, बशर्ते कि वे मेरे शयनकक्ष में न आ धमकें!

यदि वे मेरे शयनकक्ष में आ जाते तो मैं उन्हें "अस्वीकार्य जीव" घोषित कर देता, और फिर उन्हें बाहर निकलना पड़ता। तब तक तो मैं एक कप के नीचे काग़ज़ रखकर उन्हें कैद करके फिर बाहर फेंक देने में दक्ष हो चुका था। मैंने अपने तिब्बती मित्रों से यह भी सीख लिया कि हवा में ही मक्खी को कैसे पकड़ा जाता है, जो उनके लिए मनोरंजन था। वे एक मक्खी को पकड़ लेते, अपनी मुट्ठी में बंद कर उसे हिलाते और फिर उसे छोड़ देते, और जब वह मक्खी बेतुके ढंग से उड़ने लगती तो वे लोग ठहाके मारकर हँसते। मैं इतना आगे नहीं पहुँच पाया था इसलिए उस मक्खी को केवल बाहर लाकर छोड़ देता।

समचित्त भाव (उपेक्षा) को प्रस्तुत करने के बाद लाम-रिम यह निर्देश देता है कि हम यह सोचें कि प्रत्येक सत्त्व कभी-न-कभी हमारी माँ रह चुका है। हो सकता है यह कुछ विचित्र-सा लगे परन्तु अपनी माँ के साथ मेरे बहुत अच्छे संबंध थे, इसलिए इसका महत्त्व समझना कोई कठिन बात नहीं थी। यह अवधारणा प्रेम, करुणा, तथा सबको सुखी रहने एवं दुःखी न होने की आशा के विभिन्न चरणों तथा प्रवचनों के दौरान जारी रहा। हिप्पी काल का संपूर्ण विषय था प्रेम, इसलिए यह भी मेरे लिए ठीक था। दूसरों की सहायता करने का उत्तरदायित्व लेने की अवधारणा भी मुझे ठीक लगी।

मैंने यह सीखा कि दूसरों की सहायता करने की ज़िम्मेदारी लेने का सबसे अच्छा तरीका है बुद्ध बन जाना, परन्तु मुझे यह नहीं पता था कि वह है क्या चीज़। "सर्वोत्कृष्ट" का प्रतिनिधित्व करने वाले गुणों की एक सूची थी, इसलिए सर्वोत्कृष्ट बनने का लक्ष्य तो बन गया था। यह अवश्य था कि लोगों की सहायता करने के लिए नागरिक अधिकार के जुलूस में निकलने से कहीं अधिक श्रेष्ठ था बुद्ध बनना। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे जुलूस निरर्थक हैं, परन्तु यहाँ लोगों की सहायता करने की परिकल्पना कहीं व्यापक है। उस समय संभव है कि मैंने अपने मन में बुद्ध और सुपरमैन की छवियों को कुछ उलझा दिया हो!

फिर आता है बुद्ध बनने का मार्ग, अर्थात  षट्पारमिता (छ: सिद्धियों) की शिक्षाएँ, जिन्हें अब मैं "व्यापक मनोदृष्टि" (पारमिता) कहता हूँ। यह सब तो बिल्कुल समझ में आ गया; उदार बनो, नैतिक रूप से कार्य करो, क्षान्तियुक्त रहो, लगनशीलता बनाए रखो, इन सब में कौन दोष निकाल सकता है? यह एकदम ठीक बात है। अधिसमाधि की शिक्षाओं को अत्यंत विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया गया था, इतना विस्तृत कि वह अति-विस्मयकारी था। वहाँ से आगे शून्यता (रिक्तता) की शिक्षाओं की ओर बढ़े, जिसका बोध होना कठिन तो था ही, परन्तु था वह इतना मनमोहक कि मैं उसका अधिक गहराई से विश्लेषण करना चाहता था। मैंने पाया कि जितनी अधिक गहराई से मैं शून्यता का अध्ययन करता गया, उतना ही अधिक अपने और दूसरों के अस्तित्व के बारे में अपनी कपोल कल्पनाओं से मुक्त होता गया।

मुझे बोधिसत्व संवर अत्यंत प्रिय थे क्योंकि वे स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि किन-किन बातों से हमें बचकर रहना चाहिए क्योंकि वे दूसरों से सम्बन्ध जोड़ने में कठिनाइयाँ खड़ी करेंगी। मुझे वह अत्युत्तम लगा क्योंकि दूसरों से सम्बन्ध जोड़ना मेरे लिए मुश्किल था, और यह एक आदर्श मार्गदर्शक की तरह था कि किन बातों से बचना चाहिए। मैंने यह समझा कि बोधिचित्त वह लक्ष्य है जिसे प्राप्त करके हम बुद्ध बन पाएँगे एवं दूसरों की सहायता कर पाएँगे, परन्तु तब यह बात इससे अधिक सारगर्भित नहीं थी और अति सरल भी लग रही थी। इस आधार पर, इस प्रकार के बोध से युक्त होकर लाम-रिम के उच्च-स्तर को पार करके मैं सबकी सहायता करना चाहता था। मैं सबसे प्यार करूँगा ही क्योंकि हम सब एक बराबर हैं, और मैंने यह निर्णय लिया कि मैं सर्वोत्कृष्ट - बुद्ध - बनने का प्रयास करूँगा।

इसके बाद मुझे तंत्र का संक्षिप्त परिचय दिया गया और यह कहा गया कि हम अपने वर्तमान जीवनकाल में इसका अभ्यास कर सकते हैं। मुझे ऐसा लगा कि यह इस बात की पुष्टि करता है कि मुझे भावी जीवनकाल आदि के बारे में उतनी अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह सब इसी जीवनकाल में हो जाएगा। यह सटीक सरलीकृत धर्म है और मुझे ऐसा लगता है कि लाम-रिम के अध्ययन के आरम्भ में लगभग सबको ऐसा ही अनुभव होता होगा। हम प्रायः ऐसा सोचते हैं कि गहनता से अध्ययन करने का अर्थ है आठ यह और दस वह की सूची रट लेना और एक बार रट लिया तो हमारी समझ गहरी हो गई। इन सभी विवरणों को सीखना अच्छा तो है, परन्तु हम तब भी सरलीकृत धर्म के स्तर पर ही टिके होंगे।

चार आर्य सत्य

मैं धर्म का अध्ययन करते हुए भारत में दो साल तक रहा, तत्पश्चात केवल अपना शोध प्रबंध सौंपने के लिए वापस अमेरिका गया। फिर मैं भारत लौट आया और उसे 27 वर्षों के लिए अपना घर बनाया, अधिक अध्ययन किया और, जैसे मेरे गुरुओं ने आज्ञा दी, अपनी ध्यान-साधना में इसे समाहित किया। इस बात पर सदा बल दिया गया कि बुद्ध ने जिस प्रकार से शिक्षा दी थी, वही वास्तव में धर्म के सम्प्रेषण की अत्युत्तम विधि है। उन्होंने किस प्रकार पढ़ाया? बुद्ध ने चार आर्य सत्यों का ज्ञान दिया और फिर उसी परिधि में आगे पढ़ाया। यह अच्छा होगा कि अहंकारवश हम यह न समझें कि हम बुद्ध से बेहतर कर सकते हैं, इसलिए मैंने उस परामर्श को ध्यान में रखते हुए लाम-रिम को चार आर्य सत्यों से जोड़ने का प्रयास किया।

संभव है कि आप चार आर्य सत्यों से परिचित हों, परन्तु संक्षेप में, ये वे सत्य हैं जिन्हें वे आर्य या " भद्रजन" सत्य मानते हैं जो शून्यता के निर्वैचारिक बोध से युक्त हैं। वे वास्तविक तथ्य हैं; यद्यपि जिन्होंने वास्तविकता को निर्वैचारिक रूप से नहीं देखा है, वे संभवतः उन्हें सच न मानें।

पहला आर्य सत्य यह है कि दु:ख अस्तित्वमान है। बुद्ध ने विभिन्न स्तरों की समस्याओं की ओर संकेत किया जिनका सामना हम सब अपने-अपने जीवन में करते हैं, और ये निःसंदेह दुःख हैं। परन्तु साधारण लोग प्रायः सामान्य सुख जैसे कुछ स्तरों को समस्या ही नहीं मानते। लेकिन यदि आप कुछ गहराई में जाकर देखें तो ये वास्तव में दु:ख के ही रूप हैं क्योंकि साधारण सुख से हम पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पाते, यह कभी भी तुष्टिदायक नहीं होता, और न ही यह अनंतकाल के लिए होता है।

दूसरा, बुद्ध ने बताया कि हमारे दु:खों का कारण है धर्म (वास्तविकता) की अनभिज्ञता और भ्रान्ति, और उन्होंने कहा कि वास्तव में कारण यही है। सामान्यतः हम इस सहसम्बन्ध को शायद ही समझ पाते हों । तीसरे आर्य सत्य में उन्होंने कहा कि हमारे दु:खों का सत्य-निरोध संभव है और इसे प्रायः "निरोध" (समाप्ति) के रूप में अनूदित किया जाता है। मूल रूप से दु:ख सदा के लिए रुक सकता है। हो सकता है कि हम यह न समझ पा रहे हों कि यह संभव है कि दु:ख का सत्य-निरोध हो सकता है, परन्तु यह वास्तव में साध्य है। अंत में चौथे आर्य सत्य से बुद्ध ने उस मार्ग की व्याख्या की और कहा कि यदि हम उसका अनुसरण करके आगे बढ़ते हैं तो वास्तव में दु:ख और उसके कारण दूर हो जाएँगे। इससे वास्तव में सारे दु:खों का सत्य निरोध हो जाएगा। यह है चार आर्य सत्यों का सरल रूप में वर्णन।

चार आर्य सत्यों के संदर्भ के अनुसार "सम्पूर्ण" लाम-रिम के तीन विषय-क्षेत्र

आरंभिक विषय-क्षेत्र

"सम्पूर्ण" लाम-रिम के विषय-क्षेत्रों को चार आर्य सत्यों के परिदृश्य से समझना अत्यंत हितकारी हो सकता है। यहाँ दुःख सत्य पुनर्जन्म की निकृष्टतर अवस्थाओं के दुःख हैं। दुःख सत्य के तीन प्रकार होते हैं। पहला है दु:ख का दु:ख, यथा सामान्य दु:ख। यह दुःख किसी भी इन्द्रिय बोध के साथ हो सकता है जैसे कि दर्शन, श्रवण, वेदना की अनुभूति; या फिर यह किसी मनोदशा का साथी भी हो सकता है। प्रारंभिक लाम-रिम विषय-क्षेत्र के संदर्भ में इस व्यापक सर्वसमावेशी दुःख के दुःख को ठीक-ठीक समझने के लिए उचित उदाहरण है निम्नतर अवस्थाओं का दुःख। ऐसे पुनर्जन्मों के दुःख का कारण है विनाशकारी रूप से कार्य करना, और इसका सत्य-निरोध यह होगा कि फिर कभी भी निकृष्टतर पुनर्जन्म न मिले, अपितु केवल उच्चतर पुनर्जन्म ही मिले। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करने वाला सत्य मार्ग शरणागति है। इसके अतिरिक्त विनाशकारी व्यवहार से बचने का मार्ग है धर्म की शिक्षाओं तथा बुद्ध और आर्य संघ के वास्तविक उदाहरणों के अनुसार अपने जीवन को आगे बढ़ाना।

यह आरंभिक विषय क्षेत्र को इन चार आर्य सत्यों के साथ समेकित करता है। हम अध्ययन करके यह सीखते हैं कि क्लेशों और बाध्यकारी अकुशल आचरण का असली कारण है उनके निहित कर्म के नियमों - व्यवहारगत कार्य-कारणों - की अनभिज्ञता। इसे समझने के बाद जब क्रोध, लोभ, इत्यादि के प्रभाव में कार्य करने की हमारी प्रवृत्ति होती है तो उनके अधीन होकर कार्य करने के बजाय हम आत्म-नियंत्रण बरतते हैं। उदाहरण के लिए, मैं अभी भी किसी से भी क्रोधित हो सकता हूँ, परन्तु तब मैं चुप रहूँगा और चीखूँगा नहीं और न ही अभद्र बातें कहूँगा, क्योंकि मैं समझता हूँ कि यदि मैं ऐसा करता हूँ तो दु:ख और समस्याएँ और बढ़ेंगी।

यह सरलीकृत धर्म की तुलना में आरंभिक विषय-क्षेत्र का गहनतर बोध है।

मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र 

अगला है मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र जो बुद्ध के बताए गए दूसरे दो प्रकार के दु:खों से संबंधित है। परिवर्तनशीलता का दुःख हमारे सामान्य सुख जैसा है जो सुख-अभाव की तरह या तो इन्द्रियानुभूति का सहचर होता है या फिर किसी मनोदशा का। यह एक समस्या इसलिए है क्योंकि यह न तो स्थायी है और न ही तुष्टिजनक। और यह पता नहीं कब दु:ख में बदल जाएगा। एक सरल उदाहरण है अपना मनपसंद व्यंजन खाने का अवसर। यदि उसमें वास्तविक सुख होता तो हम जितना अधिक खाते उतना ही अधिक सुख मिलता। परन्तु स्पष्टतः एक बार पेट भर जाने के बाद हम जितना अधिक खाएँगे उतना ही अधिक बीमार और दु:खी होंगे।

मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र में प्रस्तुत तीसरे प्रकार का दु:खसत्य अधिक महत्त्वपूर्ण है, जिसे हम "संस्कारदुःखता" (सर्वसमावेशी प्रभावकारी दुःख) कहते हैं। यह अंग्रेज़ी में एक अटपटी अभिव्यक्ति है परन्तु यह हमारे अस्तित्व के प्रत्येक क्षण को संदर्भित करता है और हमारे प्रत्येक अनुभव को प्रभावित करता है, और यह वास्तव में पहले दो प्रकार के दु:खों का कारण है।

यह संस्कारदुःखता वास्तव में हमारे अनुभव के अनियंत्रित रूप से आवर्ती स्कंध – हमारे अनुभवों के प्रत्येक क्षण के हमारे पंचस्कन्ध – की ओर इशारा करती है। सरल शब्दों में यदि कहा जाए तो, यह हमारे शरीर, चित्त, तथा विभिन्न निरंतर परिवर्तनशील चित्त संस्कार इत्यादि से सम्बद्ध है, जिनसे हमारे अनुभवों का प्रत्येक क्षण बनता है। न केवल इस जीवनकाल में अपितु सभी जीवनकालों में उनका पल से पल का सातत्य बना रहता है। वे हमारे क्लेशों तथा उन क्लेशों के अधीन रहकर किए गए कर्मों से उत्पन्न होते हैं। हमारे मन में अधिकाधिक क्लेश एवं कर्म संचित होते ही रहते हैं जो स्वयं अधिकाधिक तथाकथित "दूषित स्कंधों" के क्षणों को बनाए रखते हैं।

हम पहले दो प्रकार के दु:खों – अप्रसन्नता और सामान्य सुख – का जो अनुभव करते हैं उनका आधार और प्रसंग हैं ये स्कंध - हमारा शरीर और मन। हमारे प्रत्येक क्षण के अनुभवों में उतार-चढ़ाव आता रहता है, सुख और दुःख के बीच निरंतर घटाव-बढ़ाव होता रहता है। इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है और स्पष्टतः हम निश्चित भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि हम अगले क्षण सुखी होंगे या दुःखी। मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र में इसी को दुःख सत्य कहते हैं।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, इसका कारण है क्लेश और उनके द्वारा जनित कर्म तथा, गहनतर स्तर पर समुदय सत्य (वास्तविक कारण) अर्थात इस बात की अनभिज्ञता कि हम किस प्रकार अस्तित्वमान हैं, अन्य लोग किस प्रकार अस्तित्वमान हैं, एवं सभी पदार्थ किस प्रकार अस्तित्वमान हैं। इसे प्रायः "अविद्या" (अज्ञानता) के रूप में अनूदित किया जाता है, परन्तु मुझे यह अभिव्यक्ति अच्छी नहीं लगती क्योंकि इससे ऐसा लगता है मानो हम मूर्ख हों। इस शब्द के अभिप्राय की दो व्याख्याएँ हैं। हम अज्ञानी हैं का एक अर्थ यह हो सकता है कि हमें नहीं पता हम कैसे अस्तित्वमान हैं, या फिर उसके प्रति हमारी समझ ही उल्टी है, परन्तु इसका निश्चित रूप से यह तात्पर्य नहीं है कि हम मूर्ख हैं। यह हमारे संसार का समुदयसत्य (वास्तविक कारण) है। यही संसार का सही अर्थ है। विमुक्ति ही इसका सत्य निरोध होगा और अधिशीलशिक्षा, अधिसमाधिशिक्षा, और अधिप्रज्ञाशिक्षा इसका सत्य मार्ग।

यह है चार आर्य सत्यों की संरचना के तहत प्रस्तुत मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र।

उन्नत विषय-क्षेत्र 

उन्नत विषय-क्षेत्र में उल्लिखित दु:खसत्य का तात्पर्य संसार से है, न केवल मेरा अपितु हर किसी का। तीनों प्रकार के कष्ट सबको झेलने पड़ते हैं। हमें यहाँ भी उनकी सहायता करने की अपनी अक्षमता की बात को जोड़ना होगा। जैसा कि मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र में बताया गया था, मेरे दु:खों का समुदय सत्य निस्संदेह वही है जो अन्य सबके दुःखों का समुदय सत्य है। एक स्तर पर देखा जाए तो अपनेआप को दूसरों की सहायता करने में असमर्थ मानने का कारण है मेरी अपने बारे में आत्म-केंद्रित चिंता। परन्तु अधिक गहराई से देखने पर ऐसा लगता है कि हम उस आत्म-केंद्रितता को मध्यवर्ती स्तर पर ही क्लेश से जोड़कर सम्मिलित कर सकते थे।

मुझे यह कहना होगा कि यह समझना कुछ कठिन है कि यदि हमने वास्तव में अपनेआप को क्लेशों से मुक्त कर लिया हो तो अभी भी हमें केवल अपने लिए ही आत्म-केंद्रित चिंता कैसे हो सकती है। यदि हमने अपने प्रति आसक्ति और दूसरों के प्रति मोह से छुटकारा पा लिया हो तो हम अभी भी आत्म-केंद्रित कैसे रह सकते हैं? यहाँ तक कि यदि हम यह कहते हैं कि, "मैं केवल अपने ही बारे में चिंता करता हूँ क्योंकि मुझे नहीं लगता कि मैं दूसरों की सहायता वास्तव में कर पाऊँगा या उन्हें बौद्ध बना पाऊँगा," हम यह कह सकते हैं कि यह एक प्रकार का मोह है। यदि हम केवल इस तरह से सोचते हैं और अपनी आत्म-विमुक्ति से ही मतलब रखते हैं, तो हम यह तर्क दे सकते हैं कि यह बुद्ध धातु के प्रति हमारी एक प्रकार की मूढ़ता है।

जो भी हो, हम आत्मकेन्द्रितता को समुदय सत्य (वास्तविक कारण) मान सकते हैं, और फ़िलहाल हमें यह भी मान लेना चाहिए कि हमारा चित्त पदार्थों को असंभव तरीकों से प्रकट करता है। हमारा चित्त उन्हें ऐसे प्रस्तुत करता है जैसे वे सत्यसिद्ध हों, से स्व-स्थापित रूप में स्वयंसिद्ध तथा अन्य पदार्थों से स्वतंत्र हों। हो सकता है यह किसी विशिष्ट शब्दावली के शब्दजाल की तरह लगे, इसलिए सरल शब्दों में ऐसा कह दूँ कि पदार्थों को हमारा चित्त ऐसे प्रस्तुत करता है मानो वे अन्य पदार्थों से अप्रभावित, स्वच्छंद रूप से विद्यमान हों, जैसे प्लास्टिक में लिपटे हुए। यही कारण है कि हम वस्तुओं के परस्पर संबंधों को नहीं देख पा रहे हैं, विशेष रूप से कार्य-कारण के हवाले से। इसलिए हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि कोई अब ऐसा है तो क्यों है, और उसकी ये समस्याएँ हैं तो क्यों हैं। उस व्यक्ति को सिखाने से होने वाले सभी परिणामों का हम पूर्वानुमान नहीं लगा सकते। यह सब इसलिए है क्योंकि जब हम उस व्यक्ति को देखते हैं, तो हमें वह व्यक्ति जैसा है केवल वैसा ही दिखाई देता है, और हमें लगता है कि बस वह उतना ही है जितना हमें दिख रहा है। ऐसा लगता है मानो उसका अस्तित्व उसके सभी संबंधों और कारणों एवं परिस्थितियों से स्वतंत्र है। यही कारण है कि हम सबकी सहायता नहीं कर पाते।

इसका सत्य निरोध है बुद्धजन की सर्वज्ञता क्योंकि बुद्धजन ही सभी पदार्थों की परस्पर-सम्बद्धता को परखने में सक्षम हैं, और इसलिए वे यह भी जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की वास्तविक समस्याएँ क्या हैं, उन समस्याओं के बनने में कौन-कौन से कारक निमित्त हैं, और उनकी सहायता करने का सबसे उत्तम मार्ग क्या है। इसका सत्यमार्ग है निःसरण (परित्याग) तथा बोधिचित्त की शक्तियों से युक्त शून्यता का बोध। हमें इन दोनों की आवश्यकता है। निस्संदेह बोधिचित्त को विकसित करने के लिए हमें उपेक्षा (समचित्तता), प्रेम, करुणा, और छ: पारमिताओं, तथाकथित "षट्पारमिताओं," को विकसित करना होगा, और ये सब उन्नत विषय-क्षेत्र में उपलब्ध हैं।

ज्ञानोदय प्राप्ति पर दृढ़ विश्वास

हम अपनेआप को बधाई दे सकते हैं कि, "वाह, क्या बात है, मैंने तो समुत्थान के तीन विषय-क्षेत्रों को चार आर्य सत्यों के साथ जोड़ दिया है।" परन्तु इससे क्या हम यथार्थतः सरलीकृत धर्म से आगे निकल पाए हैं? नवसाधकों के रूप में संभवतः नहीं, कम-से-कम भावात्मक स्तर पर तो नहीं। हमने देखा है कि इस जीवनकाल में सरलीकृत धर्म किस प्रकार काम कर सकता है, परन्तु सम्पूर्ण धर्म की साधना कर पाने हेतु हमारे जीवन में प्रेरक आशय संरचना के तीनों स्तरों को समेकित कर पाने के लिए हमें समुत्थान की अपनी परिभाषा की ओर वापस जाना होगा।

हमने कहा कि समुत्थान के दो आयाम हैं। एक है लक्ष्य, जिस उद्देश्य को हम प्राप्त करना चाहते हैं, और उसके साथ है वह मनोभाव जो हमें इस उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। उद्देश्य प्राप्ति को लक्षित करने के लिए यह अनिवार्य है कि यदि वह निष्कपट है तो हमें न केवल उस उद्देश्य के बोध एवं तात्पर्य को साफ़-साफ़ समझना होगा, बल्कि हमें उसकी प्राप्ति पर दृढ़ विश्वास भी करना होगा। हमें यह नहीं सोचना है कि बुद्ध ने तो इसे प्राप्त कर लिया पर हम नहीं कर सकते। हमें न केवल इस बात पर पक्का विश्वास होना चाहिए कि पहले भी लोगों ने इसे प्राप्त किया है, बल्कि इसपर भी कि हम भी यह कर सकते हैं।

जब हम पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं कि इस उद्देश्य को प्राप्त करना संभव है, तब हम ईमानदारी से इसकी प्राप्ति के लिए प्रयासरत रह सकते हैं। अन्यथा, यह केवल एक छल या ख़याली पुलाव बनकर रह जाएगा, बिल्कुल डावाँडोल। नागार्जुन ने अपने बोधिचित्त-विवरण  में इस ओर इसे इंगित किया और स्पष्ट किया कि तीक्ष्ण बुद्धि वाले गहनतम बोधिचित्त, शून्यता का बोध, को सबसे पहले विकसित करेंगे। इसके बाद वे सापेक्ष बोधिचित्त विकसित करेंगे, जहाँ वे ज्ञानोदय प्राप्ति को लक्षित करेंगे ताकि वे दूसरों को लाभ पहुँचा सकें। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब हमें शून्यता का बोध हो जाएगा तो हमें पूर्ण विश्वास हो जाएगा कि विमुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति संभव है। इस आधार पर हम सापेक्ष बोधिचित्त, दूसरों को लाभ पहुँचाने हेतु विमुक्ति तथा ज्ञानोदय प्राप्ति की इच्छा, विकसित कर सकते हैं। यह विधि अति तीक्ष्ण बुद्धि वालों के लिए कारगर है। 

सामान्य क्षमता वाले लोगों के लिए क्रम उलट जाता है और सबसे पहले सापेक्ष बोधिचित्त, अर्थात परहित हेतु ज्ञानोदय प्राप्त की इच्छा, को विकसित करना होता है। फिर, धीरे-धीरे गहनतम बोधिचित्त, अर्थात विमुक्ति एवं ज्ञानोदय प्राप्ति हेतु शून्यता का बोध, विकसित किया जाता है। परन्तु, क्योंकि हमसे पहले भी लोगों ने इस उद्देश्य को प्राप्त किया है इसलिए उसकी प्राप्ति की संभाव्यता को मान लेना चाहिए, इस युक्ति की तुलना में उस उद्देश्य पर दृढ़ विश्वास करना अधिक प्रभावशाली होता है। नागार्जुन के बोधिचित्त-विवरण (बोधिचित्त पर भाष्य) प्रखर बुद्धि युक्त लोगों के दृष्टिकोण से समझाई गई है, और यही कारण है कि वे शून्यता से आरम्भ करते हैं।

तीन तथ्य जिनमें दृढ़ विश्वास की आवश्यकता है 

सम्पूर्ण धर्म की साधना कर पाने के लिए हमें तीन तत्त्वों पर सुदृढ़ विश्वास करना होगा। प्रारंभिक स्तर पर हमें इस बात पर विश्वास करना होगा कि पुनर्जन्म एक अकाट्य सत्य है, अर्थात हमें इस बात को समझना होगा कि हमारा मानसिक सातत्य (समतान) अनादि एवं अनंत है। इस विश्वास के आधार पर हम भविष्य में श्रेष्ठतर पुनर्जन्मों को लक्षित करते हैं। हम इस बात पर पूर्ण विश्वास करते हैं कि यह मानसिक समतान बना रहेगा, और निश्चित रूप से हम निकृष्टतर पुनर्जन्मों के दुःखों का अनुभव नहीं करना चाहते हैं और न ही लंबे समय तक आध्यात्मिक प्रगति में अवरुद्ध रहना चाहते हैं।

मध्यवर्ती विषय-क्षेत्र में सबसे पहले हमें पूर्ण दृढ़ विश्वास होना होगा कि विमुक्ति, अर्थात अविद्या, क्लेश, तथा कर्म के सत्यनिरोध की सुसाध्यता का बोध होना, संभव है। इसका अर्थ है तीसरे आर्य सत्य में दृढ़ विश्वास होना। इसे प्राप्त करने के लिए हमें अपने मानसिक समतान की प्राकृतिक शुद्धता पर विश्वास होना होगा, अर्थात वह स्वरूपतया अविद्या, क्लेश इत्यादि से कलंकित नहीं होता।

उन्नत विषय-क्षेत्र में हमें ज्ञानोदय प्राप्ति पर दृढ़ विश्वास होना होगा। दूसरे शब्दों में इस बात पर विश्वास करना होगा कि हमारे भ्रामक स्वरुप निर्माण से मुक्ति पाना संभव है। यह भी एक क्षणभंगुर कलंक है। शून्यता (असंभव रूप से अस्तित्वमान होने) का स्वरुप-निर्माण चित्त की प्रकृति नहीं है। मानसिक समतान उस कलंक से भी अछूता है।

बुद्ध-धातु के बोध से प्रेरित होना

सम्पूर्ण धर्म के स्तर पर तीनों विषय-क्षेत्रों को आत्मसात एवं समेकित करने के लिए हमें इसी पर काम करना होगा। हमें इस बात पर दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि लाम-रिम के तीनों लक्ष्यों को प्राप्त करना संभव है, और हम उन्हें स्वतः प्राप्त कर सकते हैं। तो, हम बुद्ध-धातु - ज्ञानोदय प्राप्ति को सुसाध्य बनाने वाले कारक जो प्रत्येक मानसिक समतान में समाविष्ट हैं - की शिक्षाओं पर चर्चा कर रहे थे। इनमें चित्त के सकारात्मक गुण, हमारी सकारात्मक शक्ति और बोध, तथा चित्त की प्राकृतिक निष्कलंक शुद्धता शामिल हैं।

गम्पोपा अपने विमुक्ति का अलंकरण रत्न  इससे आरम्भ करते हैं क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया को बुद्ध-धातु ही सुसाध्य बनाती है। वे आरम्भ में ही इसे समझने के महत्त्व की ओर इशारा करते हैं ताकि हम अन्य सभी अनुवर्ती मार्गों को गंभीरता से विकसित कर सकें। बुद्ध-धातु का बोध हमें प्रोत्साहित करता है, इसलिए हमें उसमें प्रतीति होनी चाहिए। नागार्जुन इसी की बात कर रहे थे, और विशेषकर प्रेरणा का स्रोत तो निश्चित रूप से हमारे आध्यात्मिक गुरु ही हैं।

सारांश

लाम-रिम की शिक्षाएँ हमें एक मानचित्र प्रदान करती हैं जो हमें अपनी वर्तमान स्थिति से पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्ति तक का मार्ग दिखाता है। पहला कदम उठाने से पहले हम में से अधिकांश लोग सरलीकृत धर्म से आरम्भ करते हैं जहाँ हम अपने इस वर्तमान जीवन को बेहतर बनाने के लिए बौद्ध शिक्षाओं का उपयोग करना चाहते हैं।

इसमें कोई ग़लत बात नहीं है क्योंकि अपने जीवन को बेहतर बनाने की इच्छा तो नितांत स्वाभाविक है। परन्तु हमें सरलीकृत धर्म और सम्पूर्ण धर्म में उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि सम्पूर्ण धर्म, अपने न्यूनतम स्तर पर, हमारे भावी जीवनकालों को कल्याणकारी बनाने की बात करता है। 

सम्पूर्ण धर्म के इस आधार से शुरू करते हुए बताए गए मार्ग पर चलकर हम धीरे-धीरे प्रगति करते हुए बौद्ध बन जाएँगे और फिर दूसरों को लाभान्वित कर पाएँगे। 

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