दुःख का निःसरण

अनुबोध के तीन मार्गों का पुनरावलोकन

त्सोंगखपा ने बल दिया कि अनुबोध के तीन मार्ग होते हैं, अर्थात चित्त के त्रिविधम्, या सोचने के ढंग, बोध के ढंग जो क्रमिक मार्ग का निचोड़ हैं। ये हैं निःसरण अथवा मुक्त होने का संकल्प, एक बोधिचित्त लक्ष्य, और शून्यता या खालीपन की सही समझ।

निःसरण एक चित्तावस्था है जो दो दिशाओं में देख रही है। एक दिशा में दुःख की ओर, और दूसरी दिशा में मुक्ति या स्वतंत्रता की ओर। दुःख और उसके कारणों की दिशा में उसमें उन्हें त्याग देने की, छोड़ देने की, उनसे मुक्त हो जाने की इच्छा होती है, और केवल अस्थायी रूप से नहीं, परन्तु सदा के लिए। दूसरी दिशा में, उसमें मुक्ति की अवस्था प्राप्त करने का संकल्प है।

निःसरण की सामान्य प्रस्तुति में, जिस वस्तु से हम सबसे पहले निःसरण चाहते हैं, या पीछा छुड़ाना चाहते हैं, वह है हमारा अपना दुःख। इसकी सामान्य या अधिक प्रचलित प्रस्तुति में यह इस संसार में हमारे सामान्य दुःखों और उसके कारणों को लक्षित करती है, विशेषतः हमारा अपना सांसारिक अनुभव। संसार का अर्थ है अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म, जिसके साथ हैं विभिन्न समस्याएँ, दुःख और कठिनाइयाँ जो इसका अंग हैं।

दुःख और परिवर्तन के कष्ट

जब हम बौद्ध धर्म में दुःख की सामान्य प्रस्तुति की बात करते हैं, तब हम तीन प्रकार के दुःखों का ज़िक्र करते हैं। एक है अप्रसन्नता का दुःख। इसे सभी जानते हैं; हम इससे भली-भाँति परिचित हैं, इसके सभी पहलुओं से - उदासी, अप्रसन्नता, नाराज़गी इत्यादि। इससे मुक्त होने की इच्छा पशुओं में भी होती है, तो मनुष्य में यह होना कोई बड़ी बात नहीं है; बौद्ध धर्म विशेषतः इसपर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहा।

मेरे विचार में, यह हमेशा बहुत सहायक और महत्त्वपूर्ण होता है, और परम पावन दलाई लामा सदा इसपर बल देते हैं कि बौद्ध शिक्षाओं में पाए जाने वाले आम लक्षणों और जो विशिष्टतः बौद्ध-धर्मी हैं इनमें विभेद किया जाए। यह इच्छा कि हम भूखे न रहें, हमें सर्दी का सामना न करना पड़े, इत्यादि और इससे निकलने की चेष्टा, सुरक्षित आदि रहने की चेष्टा, खतरे से बचना, यह सब, जैसा मैंने कहा, विशेषतः बौद्ध-धर्मी नहीं है; यह तो विशिष्टतः मानवीय भी नहीं है।

दूसरे प्रकार का दुःख है "बदलाव का दुःख" या बदलाव की समस्या। इससे अभिप्राय है हमारे साधारण प्रकार के सुख, और यद्यपि निस्संदेह, वे अत्यंत सुखद हैं, उनके साथ कुछ समस्याएँ जुड़ी हुई हैं। पहली समस्या है कि ये सदा के लिए नहीं रहते। दूसरी समस्या है कि ये कभी हमें संतुष्ट नहीं कर पाते, क्योंकि हमारा कभी भी मन नहीं भरता; हमें कभी पर्याप्त स्नेह, प्यार, आनंद इत्यादि नहीं मिलते। वर्ना, हम हमेशा और अधिक की कामना क्यों करते हैं? और फिर जब हमें वह नहीं मिलता, तो हमें बहुत कष्ट होता है। यदि हमें सामान्य खुशी का कोई पल मिलता भी है तो वह अनिश्चितता से भरा होता है क्योंकि हमें कभी यह पता नहीं होता कि अगले क्षण हमारे साथ क्या होने वाला है, और हम कैसा अनुभव करेंगे। हो सकता है हम अभी खुश हों, परन्तु अगले ही क्षण अचानक बहुत खिन्न महसूस करें।

यहाँ, निःसरण के साथ, हम इस प्रकार की खुशी से बहुत अतृप्त महसूस करेंगे। हम गौण प्रकार की खुशी से तृप्त नहीं होंगे। हम स्थायी खुशी चाहेंगे जो तृप्त करे और कभी लुप्त न हो, नहीं क्या? पर इसमें विशेषतः बौद्ध-धर्मी कुछ नहीं है। अन्य कई धर्मों में भी इसी प्रकार की शाश्वत खुशी आदि की कामना पाई जाती है। दुःख के इन दो आयामों के सन्दर्भ में, हमें इसे बहुत यथार्थपूर्ण ढंग से और गंभीरता से समझना होगा।

निस्संदेह, केवल इसलिए कि दुःख से पीछा छुड़ाना सबसे गहन कार्य नहीं है जो हम कर सकते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा करने का प्रयास ही न करें। जब हमें भूख लगेगी हम अवश्य खाएँगे। सामान्य सुख के सन्दर्भ में, जब हम कहते हैं कि हम उसे त्यागना चाहते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि अब हम कुछ अच्छा नहीं करेंगे या हँसेंगे नहीं और कभी भी आनंदित नहीं होंगे। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है। इसका अर्थ है इसे दुनिया की सबसे महान बात के रूप में अंतिम लक्ष्य जैसे न देखना। हम इसे इसकी असलियत में देखें। यह स्थायी नहीं है, हमें नहीं पता कि अगले क्षण क्या होने वाला है, और यह कभी हमें संतुष्ट नहीं कर सकता। "ठीक है, मैं यह मानता हूँ, पर फिर भी, यदि मैं इस तुलनात्मक रूप से अधिक सुखी स्थिति में हूँ, तो मैं इसका लाभ उठा सकता हूँ।"

यह अमूल्य मानव जीवन की शिक्षाओं और विशेष रूप से अमूल्य जीवन के आठ कारकों का अंग है। अन्य शब्दों में, हम सुख से जीवन व्यतीत कर सकते हैं और हमारे पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन है और पर्याप्त पैसे हैं, हम शिक्षाएँ ग्रहण करने आ सकते हैं, हम अध्ययन कर सकते हैं, हम एकांतवास के लिए जा सकते हैं, दुःख और समस्याओं से द्रवित हुए बिना हम अपने साधनों से दूसरों की सहायता कर सकते हैं। कभी-कभार "मौज मनाना" और विश्राम करना आवश्यक होता है परन्तु इस बोध के साथ कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। इससे हमें अधिक ऊर्जा, अधिक शांति मिलती है, ताकि हम दूसरों की सहायता हेतु आध्यात्मिक मार्ग पर पुनः चल सकें।

यदि हमारा दुःख स्थूल है, तब भी हम उसका रूप बदलकर उसका मार्ग पर उपयोग करने का प्रयास करते हैं। मेरा तात्पर्य है कि सबसे पहले हम उससे निकलने का प्रयास करते हैं, परन्तु यदि उससे निकल पाना मुश्किल हो क्योंकि हम अस्वस्थ हैं या ऐसी कोई समस्या है तो हम दवा इत्यादि लेकर उस परिस्थिति को अनुकूल बनाते हैं। इससे करुणा तथा दूसरे लोगों के प्रति उदारता का विकास होता है जो हमारी तरह अस्वस्थ या दिव्यांग हैं।

मुझे मेरा एक मित्र याद है जो किसी बीमारी के पश्चात् पहियेदार कुर्सी पर आ गया। उसने कहा कि यह सबसे हितकारी बात हुई क्योंकि बौराए लोगों की भाँति दुनियाभर में भागते फिरने के बजाय उसे अपने विकास, ध्यान-साधना और आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अवसर प्राप्त हुआ।

यदि हम सामान्यतः मामूली रूप से सुखी हैं, तो जैसा मैंने कहा, हम उस परिस्थिति का उपयोग दूसरों के लाभ के लिए करते हैं। दोनों सूरतों में, हम न दुःख को और न ही मामूली सुख को बढ़ा चढ़ाकर महत्त्व देते हैं। हम उसका तूमार नहीं बाँधते।

निःसरण के दो स्तरों में विभेद करना

जब हम अपनी मामूली कष्ट के सन्दर्भ में सोचते हैं, वेदना की तड़प, और फिर मामूली सुख का भी असंतोष, तब हम इन्हें दो कालखंडों के रूप में देख सकते हैं। निःसरण का अधिक व्यापक विस्तार है, जो उसका मानक विवरण भी है, सभी अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्मों में होने वाले कष्टों से मुँह मोड़ लेने का संकल्प। इसमें दुःख और सामान्य सुख दोनों ही शामिल हैं जो हम किसी भी आने वाले पुनर्जन्म में अनुभव कर सकते हैं और उससे मुक्त होने का संकल्प कर सकते हैं।

त्सोंगखपा अपने लघु ग्रन्थ अनुबोध के तीन मार्ग  में निःसरण के दो स्तरों के बीच विभेद करते हैं। परन्तु वे मार्ग के क्रमिक स्तरों, यानी लाम-रिम की अपनी अधिक बृहत् प्रस्तुतियों में ऐसा नहीं करते। वहाँ, वह निःसरण के विषय में केवल एक स्तर के सन्दर्भ में बात करते हैं। इस छोटे से ग्रन्थ में, वे दो स्तरों के बीच विभेद करते हैं। यद्यपि अधिक उन्नत स्तर है यह इच्छा कि आगामी जीवनकालों में हम दुःखों और उनके कारणों से मुक्त हो जाएँ और निर्वाण, विमुक्ति प्राप्त कर लें, तथापि वे एक पूर्व स्तर का विवरण भी देते हैं, जो है अपने इस जीवनकाल में होने वाली बातों के प्रति हमारी सनक से विमुख हो जाना - केवल दुःख और अस्थायी सुख जैसे कष्ट नहीं, अपितु इस जीवनकाल और उसमें होने वाली बातों के प्रति हमारी सनक, और इस बात से अधिक सरोकार रखना कि तुरंत बाद आने वाले पुनर्जन्म या, सामान्यतः, आगामी पुनर्जन्मों में अधिक प्रियकर स्थिति हो।

अब इस प्रकार के निःसरण के साथ हमारा लक्ष्य विशेषतः बौद्ध-धर्मी नहीं है, है न? उदाहरण के लिए, कई धर्म हमें यह शिक्षा देते हैं कि इस जीवनकाल से आसक्त न हों और स्वर्ग में पुनर्जन्म को अपना लक्ष्य बनाएँ। यह विशेष रूप से बौद्ध-धर्मी नहीं है। बौद्ध धर्म में, हम किसी बेहतर पुनर्जन्म की स्थिति को एक अस्थायी चरण के रूप में लक्ष्य बनाते हैं क्योंकि हम यह जानते हैं कि चाहे किसी भी प्रकार के पुनर्जन्म से पूर्ण निःसरण हमारा अंतिम लक्ष्य है, इस विमुक्ति को प्राप्त करने में बहुत समय लगेगा।

हम अपने को और अपने आध्यात्मिक मार्ग को बहुत गंभीरता से लेते हैं और उसके प्रति हमारा रवैया यथार्थवादी है। पुनर्जन्म के बोध के सन्दर्भ में - जिसे यहाँ बौद्ध धर्म में स्वभावतः माना जाता है परन्तु पश्चिमवासियों के साथ ऐसा नहीं है - हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आगामी पुनर्जन्मों, आगामी जीवनकालों में, हमारी परिस्थितियाँ अनुकूल बनी रहें ताकि हम विमुक्ति के लिए कार्य करते रहें। हम इस विषय को बहुत गम्भीरतापूर्वक लेते हैं। ऐसा नहीं है कि प्रति वर्ष अधिक उन्नत कार के नए मॉडल की तरह हम हर बार अच्छे से अच्छा पुनर्जन्म चाहते हैं, ताकि अत्युत्तम पुनर्जन्म निर्वाण, विमुक्ति हो। वह विमुक्ति के विषय में केवल एक भ्रांत अवधारणा है।

हम बहुत अधिक सांसारिक सुख नहीं चाहते, क्योंकि यदि वह बहुत अधिक मात्रा में होगा तो हम आलसी बन जाएँगे। हम उससे निकलने के लिए प्रेरित नहीं होते क्योंकि वह बहुत आरामदेह स्थिति होती है। उसे त्यागने के लिए, हमें उनकी समस्याएँ ढूँढ़ निकालने के लिए उन स्थितियों पर ध्यान से ग़ौर करना होगा; प्रायः, अति धनाढ्य लोग अनेक मानसिक और भावनात्मक समस्याओं से ग्रस्त होते हैं, यह तो ज़ाहिर-सी बात है। हमें केवल पर्याप्त सुख ही चाहिए। यह पर्याप्त भोजन, अच्छे भोजन, जैसा है जो हमारा पोषण कर सके। इसी प्रकार हमें केवल उतना-सा सुख चाहिए, केवल उतनी अनुकूल परिस्थितियाँ जो आगे प्रगति करने के लिए हमें ऊर्जा और समय प्रदान कर सकें - न कम, न अधिक।

जैसा मैं हमारी सरलीकृत-धर्म की चर्चा में कह रहा था, हम पश्चिमवासियों के लिए इस स्तर का निःसरण भी बहुत उन्नत है, जिन्हें पुनर्जन्म के पूरे प्रश्न को समझने में ही कठिनाई होती है। हमें इससे पूर्व एक आरंभिक चरण चाहिए जो हमें बौद्ध मार्ग की ओर जाने का रास्ता दिखाए। यह एक तेज़ी से भागती ट्रेन पर सवार होने जैसा है। बौद्ध-धर्मी मार्ग तो पहले से ही तेज़ी से दौड़ रहा है, इसलिए हमें किसी तरह एक आरंभिक चरण पर इसमें चढ़ना है। ट्रेन की गति धीमी करने की आवश्यकता है ताकि हम इसपर चढ़ पाएँ।

जैसा मैंने कहा, जब हम एक आरंभिक चरण जोड़ते हैं, तब हमें स्पष्ट होना चाहिए कि, "ये मूल शिक्षाएँ नहीं हैं"। लेकिन, हम कुछ ऐसा जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं जो बुद्ध की शिक्षाओं का किसी भी प्रकार उल्लंघन नहीं करता या उन्हें संकट में नहीं डालता। इसे सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि हम कभी भी बाकी के मार्ग, सम्पूर्ण धर्म, को नकारें या त्यागें नहीं, बल्कि हमारे किसी भी प्रारंभिक कृत्य को उसी तैयारी के रूप में देखें। मेरे विचार में, इस सन्दर्भ में ऐसी निष्ठावान पहुँच से हम पश्चिमवासी साधक इसके विषय में कह सकते हैं, जो आरम्भ से ही हमारा ध्येय होता है, धर्म की विधियों द्वारा अपने इस जीवनकाल के संसार को सुधारना।

जिस प्रकार त्सोंगखपा इस ग्रन्थ में इसे प्रतिपादित करते हैं हम भी उसी ढंग से उसे निरूपित कर सकते हैं। त्सोंगखपा ने इन दो चरणों को ऐसे प्रतिपादित किया कि हम अपने इस जीवनकाल के प्रति मोह से विरक्त होकर आगामी जीवनकालों में अधिक रूचि लें। परम पावन के अनुसार आधी-आधी मात्रा का दृष्टिकोण यहाँ उपयुक्त है। दुराग्रही मत बनो। हमें इस जीवनकाल को भी सँवारना है क्योंकि अभी तो हम यहाँ हैं। दूसरा,अधिक उन्नत स्तर है आगामी जीवनकालों के प्रति अपने मोह से मुँह मोड़कर पूर्ण मोक्ष को अपना लक्ष्य बनाना।

हम आगामी जीवनकालों को इसलिए सँवारते हैं क्योंकि यदि हमें इस जीवनकाल में मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ, तो हमने अगले जीवनकाल को तो सुधार लिया है। निस्संदेह, एक उच्चतर लक्ष्य पर निशाना साधने में हमने, गौण उत्पाद के रूप में ही सही, कमतर लक्ष्य तो सिद्ध कर लिए।

इसी प्रकार हमारे सरलीकृत धर्म के चरण का एक सूत्र हो सकता है कि तुरंत इसी क्षण के प्रति अपनी आसक्ति से हम मुँह मोड़ लें, हमारी तात्कालिक तृप्ति, और अपने जीवन के दीर्घकालीन परिणामों के सन्दर्भ में सोचें। हम इस बात में रूचि लें कि हमारे जीवन में भविष्य में क्या होगा और युवावस्था में अपने शरीर को नशीले पदार्थों इत्यादि से नष्ट न करें या बिना ये सोचे भयानक जीवनशैली अपना लें कि, "इससे भविष्य में मेरे स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा?" उदाहरण के लिए, 20 वर्ष की आयु में कम्प्यूटर पर झुके रहने से गठिया रोग हो जाना।

निस्संदेह, यहाँ महायान की थोड़ी महक भी है, जिसमें हम सोचते हैं कि हमारे कृत्यों का दूसरों पर क्या प्रभाव होगा। इसमें हम आगामी जीवनकालों का रंग भी घोल सकते हैं जो हमारी पाश्चात्य मानसिकता को अधिक स्वीकार्य है, और जो आगामी जीवनकालों के सन्दर्भ में सोचने के लिए एक बहुत अच्छा अंतर्वर्ती चरण होगा। इससे हमारी रूचि तात्कालिक स्थिति के प्रति हमारे मोह से हटकर इस ओर मुड़ जाएगी कि इनका हमारी भावी पीढ़ियों पर क्या प्रभाव होगा।

जैसे, उदाहरण के लिए, सब संसाधनों का दोहन करके प्रकृति का सर्वनाश करने के बजाय, पूछें, "इसका हमारे बच्चों और उनके बच्चों पर, और हमारे जीवनकालों से परे आने वाली पीढ़ियों पर भी क्या प्रभाव होगा?" मेरे अनुसार यह एक वैध अंतर्वर्ती चरण है, जैसे त्सोंगखपा ने निःसरण का वैध अंतर्वर्ती चरण जोड़ा, जिसमें केवल इसी जीवनकाल के प्रति मोह से मुँह मोड़ने के बारे में सोचना चाहिए।

सर्वव्यापी दुःख

जैसा मैंने कहा बुद्ध ने तीन प्रकार के दुःखों की चर्चा की थी। पहले दो पर विजय पाना, जो हैं दुःख की समस्याएँ और बदलाव या सामान्य सुख की समस्याएँ, विशेष रूप से बौद्ध-धर्मी नहीं है। यहाँ जो विशेषतः बौद्ध-धर्मी है वह है तीसरे प्रकार का दुःख, जिसे कहते हैं "सर्वव्यापी दुःख," सर्वव्यापी समस्या, और उससे मुक्त होने का दृढ़ संकल्प। इससे आशय है हमारा अनियंत्रित रूप से आवर्ती सांसारिक पुनर्जन्म, एक शरीर और चित्त के साथ जो पहले दो प्रकार के दुःख अनुभव करेंगे। इस सर्वव्यापी समस्या को त्यागने के लिए, हमें उसके कारण को त्यागना होगा।

सभी दुखों का असली कारण क्या है? असली स्रोत, हमारी सभी समस्याओं, प्रत्येक सांसारिक जीवनकाल में हमारे सारे दुःखों, का असली कारण है "अनभिज्ञता," जिसका अनुवाद प्रायः किया जाता है "अज्ञान," परन्तु उसका, कम से कम अंग्रेज़ी में, निहितार्थ है मूढ़ता। यहाँ अभिप्राय मूढ़ता नहीं है; केवल यह कि हमें ज्ञान नहीं है, या हमें अशुद्ध ज्ञान या समझ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम में कोई कमी है, इसलिए यहाँ अपराध बोध, नैतिक न्याय-निर्णय की कोई भूमिका नहीं है।

सामान्यतः, हम बौद्ध धर्म में यहाँ अनभिज्ञता के दो प्रकार के स्तरों के बीच विभेद करते हैं। एक का सरोकार कर्म, व्यावहारिक कार्य-कारण की अनभिज्ञता से है। हम भौतिक-विज्ञान के नियमों की बात नहीं कर रहे, जहाँ हम जानते हैं कि यदि हम एक गेंद को लात मारेंगे, तो वह बल और कोण के आधार पर एक नियमित दूरी तक जाएगी। हम उस प्रकार के कार्य-कारण की बात नहीं कर रहे हैं। हम व्यावहारिक कार्य-कारण की बात कर रहे हैं, और अनिवार्यतः इसकी बात नहीं कि हमारे व्यवहार का दूसरों पर क्या प्रभाव होगा; बल्कि यह कि हमारे वर्तमान कर्मों का भविष्य में हमपर क्या प्रभाव होगा।

अतः, इस अर्थ में कि भविष्य में हम क्या अनुभव करेंगे, हम अपने कर्मों के परिणामों के विषय में अनभिज्ञ और नादान हैं। या तो हम इसके विषय में बिल्कुल नहीं जानते, अथवा हम इसके परिणामों के विषय में सोचते तक नहीं। हम सोचते हैं कि इसका कोई परिणाम नहीं होगा, जैसे, "मैं अपने शरीर के साथ खिलवाड़ कर सकता हूँ और नशीले पदार्थों का सेवन कर सकता हूँ और पूरी रात जाग सकता हूँ इत्यादि, और इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।" या हम भूल से समझ बैठते हैं कि, "यदि मैं मदिरापान करूँ और पूरे समय नशीले पदार्थों का सेवन करूँ, तो इससे मुझे खुशी मिलेगी। इससे मेरी सभी समस्याएँ सुलझ जाएँगी।"

जब हम तत्काल तुष्टि के प्रति अपनी सनक छोड़ने की सोचते हैं, तब हमें जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता है वह है हमारे व्यवहार के परिणामों के प्रति हमारी अनभिज्ञता और इस बात पर भी कि हम आगामी जीवनकालों में क्या अनुभव करेंगे। किन्तु, प्रायः, हमारे वर्तमान व्यवहार के परिणाम हम इसी जीवनकाल में नहीं भुगतते, क्योंकि हम केवल हमारे व्यवहार के "मानव-निर्मित परिणामों" की बात नहीं कर रहे हैं या तात्कालिक परिणाम की - उदाहरण के लिए, हम किसी का शीलभंग करते हैं और कामोन्माद की खुशी व सुख का अनुभव करते हैं। हम उस प्रकार के व्यवहार के परिणाम की बात नहीं कर रहे जो हमारे तात्कालिक अनुभव से होता है। हम उसकी बात भी नहीं कर रहे जो हम तब महसूस करते हैं जब हम क्रोधित होते हैं और फिर किसी पर चिल्ला पड़ने से या उन्हें घूँसा मार देने से अच्छा अनुभव करते हैं।

जिनकी हम बात कर रहे हैं वे हैं "परिणाम जो परिपक्व होंगे"। यह विशिष्ट शब्दावली है। अन्य शब्दों में, हम उन प्रकार की प्रवृत्तियों की ओर ध्यान दे रहे हैं जो इस प्रकार के व्यवहार और आदतों से जन्म लेती हैं और हमारे भावी व्यवहार और अनुभवों को प्रभावित करती हैं अर्थात् हम कैसा व्यवहार करेंगे और किस प्रकार की परिस्थितियों और संबंधों में लिप्त होंगे। इनका इस बात पर भी प्रभाव पड़ता है कि हमारा मन प्रसन्न है, खिन्न है, इत्यादि, चाहे हम कुछ भी कर रहे हों, और एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में, हम किस प्रकार की पुनर्जन्म स्थिति की ओर जा रहे हैं - ऐसे परिणाम ही परिपक्व होते हैं, जो प्रायः भावी जीवनकालों में परिपक्व होते हैं। यह बात समझना अत्यंत आवश्यक है, परन्तु इतना सरल नहीं है।

जैसा मैं पहले बताना चाह रहा था, पूरी बौद्ध-धर्मी प्रस्तुति में हम पुनर्जन्म को नकार नहीं सकते, क्योंकि हो सकता है कि हम बहुत सच्चे साधक हों, इस जीवनकाल में बहुत कठिन परिश्रम करें और फिर भयावह, दर्दनाक कैंसर से ग्रस्त होकर भयंकर, दर्दनाक मृत्यु पाएँ। फिर हम कहते हैं, "मेरे साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था," क्योंकि हम अपने अनुभव को पिछले जीवनकालों के दृष्टिकोण से नहीं देख रहे होते। किन्तु यह एक अत्यंत भ्रांत दृष्टिकोण है।

निस्संदेह, यहाँ बौद्ध-धर्मी प्रस्तुति में जो नहीं है वह है कि हमारा अनुभव एक प्रतिफल अथवा दंड के रूप में होगा, जो नियमों के पालन पर आधारित आचारनीति है। बौद्ध-धर्मी आचारनीति इसका पालन नहीं करती। हमारी पश्चिमी संस्कृतियों में, आचारनीति दो स्रोतों पर आधारित होती है। पहली बात तो यह है कि कुछ नियम हैं, विशिष्ट नियम, जो दैवी नियम हैं, जिन्हें दैवी सर्वशक्तिमान सत्व ने निर्दिष्ट किया है, और जिनका हमें पालन करना है। यदि हम उनका पालन नहीं करते, तो हम बुरे हैं; हम अपराध-बोध से ग्रस्त हैं और हमें दंड मिलेगा। यदि हम नियमों का पालन करते हैं, तो हम अच्छे हैं और हमें उसका सुफल मिलेगा। यह हमारी पश्चिमी आचारनीति का एक पहलू है, बाइबिल से उद्भूत विरासत। हम समझ सकते हैं कि नैतिकता का पूरा मुद्दा वस्तुतः आज्ञाकारिता का मुद्दा है। यह अत्यंत रोचक है और सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट। यह विशेष संस्कृति की विशिष्टता है; यह कोई सामान्य, सार्वभौमिक बात नहीं है।

हमारी दूसरी धरोहर हमें प्राचीन यूनानियों से मिली है। इन नियमों को किसी दैवी सत्व ने नहीं, बल्कि एक नरेश या लोकसमूह, विधानमंडल द्वारा बनाया गया है। ये नागरिक क़ानून हैं। इनके अनुसार, हमें इन नियमों, इन नागरिक क़ानूनों के पालन के मुद्दे का सामना करना पड़ता है, यदि हम एक अच्छे नागरिक हैं तो हमें सुफल मिलेगा, और सबकुछ ठीक रहेगा, और यदि हम इन नागरिक क़ानूनों की अवहेलना करेंगे, तो अपराधी कहलाएँगे और दण्डित किए जाएँगे।

बौद्ध-धर्मी नैतिकता बिल्कुल भी अनुपालन आधारित नहीं है, इसलिए जब हम कुछ अनैतिक करते हैं, तो अवज्ञाकारी और बुरे होने के कारण ऐसा नहीं करते। बल्कि, जब हम विनाशकारी व्यवहार करते हैं, तो हम ऐसा अशांतकारी मनोभावों के आधार पर करते हैं - जैसे लोभ, अनुराग, बैर, क्रोध, भोलापन, इत्यादि। इस प्रकार के मनोभाव विनाशकारी होते हैं और अनभिज्ञता पर आधारित होते हैं, जबकि रचनात्मक व्यवहार लोभ, क्रोध, भोलेपन इत्यादि पर आधारित नहीं होता। कम से कम सबसे मौलिक स्तर पर, यह अच्छी मंशाओं पर आधारित हो सकता है, परन्तु प्रायः अच्छी मंशाएँ भी पूर्ण भोलेपन के साथ घुली-मिली होती हैं।

जब हम विनाशकारी ढंग से व्यवहार करते हैं, या कोई और करता है, तो इसके पीछे उसकी अवज्ञा या बुराई कारण नहीं होता; बल्कि उसका कारण होता है कि वे इसके परिणामों से अनभिज्ञ होते हैं, उन्हें पता ही नहीं होता। यह उनकी समझ का दोष है। कीट आग की ओर इसलिए नहीं जाता क्योंकि वह बुरा है और उसने इस नियम का उल्लंघन किया है, "आग में मत जाना।" वह आग में इसलिए गया क्योंकि उसे पता ही नहीं था; वह पूरी तरह अनभिज्ञ था। यह एक स्पष्ट उदाहरण है। उस कीट का आग में जाना हमारे भीतर करुणा को जन्म देता है, क्रोध को नहीं, "तुम बुरे कीट हो, तुम्हें दंड मिलना ही चाहिए!"

इसलिए, पहली प्रकार की अनभिज्ञता है व्यावहारिक कार्य-कारण के प्रति अनभिज्ञता, और यहाँ हम केवल हमपर हो रहे हमारे व्यवहार के परिणाम के प्रति अनभिज्ञता ही नहीं, बल्कि यह भी शामिल कर रहे हैं कि इसका किस प्रकार प्रभाव पड़ता है। परिणाम आज्ञापालन या अवज्ञा के कारण मिले सुफल और दंड नहीं हैं।

जब हम निःसरण के विस्तार को बढ़ाने के इन तीन स्तरों या तीन चरणों में विभेद करते हैं - तात्कालिक क्षण, इस जीवनकाल, अथवा आगामी सभी जीवनकालों के प्रति हमारे अनुराग का परित्याग - तब दुःख के जिस पहले कारण को हम त्यागते हैं या त्यागना चाहते हैं वह है व्यावहारिक कार्य-कारण के प्रति हमारी अनभिज्ञता। हम विनाशकारी व्यवहार करते हैं, क्योंकि या तो हम तात्कालिक तुष्टि चाहते हैं और यह नहीं जानते कि इसका हमारे भावी जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, या हम इस जीवनकाल में सामान्य रूप से विनाशकारी कृत्य करते हैं क्योंकि हमारे भीतर समझ नहीं है, और हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इसका हमारे भावी जीवनकालों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा।

मिथ्या "मैं" और लौकिक "मैं" के बीच विभेद करना

एक अन्य प्रकार की अनभिज्ञता है जो कहीं अधिक गहन है, जो है यथार्थ की अनभिज्ञता, लोगों का यथार्थ, हम और दूसरे किस प्रकार विद्यमान होते हैं। अधिकतर बौद्ध-धर्मी व्याख्याओं में, यही मुख्य प्रकार की अनभिज्ञता है जिसकी हम यहाँ बात करते हैं, परन्तु सबसे प्रबुद्ध बौद्ध-धर्मी प्रस्तुति में, हम कहते हैं कि यह अनभिज्ञता केवल यह नहीं है कि लोग, मैं और तुम, किस प्रकार विद्यमान हैं, अपितु यह अनभिज्ञता भी है कि सबकुछ किस प्रकार विद्यमान है।

इसके साथ हम आते हैं खालीपन, शून्यता की चर्चा की ओर। होता यह है कि हमारा चित्त आलम्बनों की उपस्थिति के असंभव उपाय प्रक्षेपित करता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति के रूप में "मैं" के लिए चित्त यह प्रतीति प्रक्षेपित करता है कि एक पृथक, ठोस मैं  है जो स्वतंत्र रूप से विद्यमान इयत्ता है, शरीर, चित्त, मनोभावों से अलग। हम इसके बारे में कई अलग स्तरों पर चर्चा कर सकते हैं, पर जिस असली स्तर की यहाँ चर्चा हो रही है वह एक ऐसे मैं  के विषय में है जो आत्म-संभव रूप से ज्ञेय है, ऐसी जो स्वयं अपनी पहचान बना सकती है। इसका अर्थ है कि वह एक ही समय पर, अन्य किसी के विषय में जाने बिना, स्वयं अपनी पहचान द्वारा ही जानी जा सकती है।

उदाहरण के लिए, जब हम दर्पण में अपनी छवि देखते हैं, तो वह कैसी प्रतीत होती है? "मैं स्वयं  को दर्पण में देखता हूँ।" हम ऐसा कहते हैं, नहीं क्या? ऐसा लगता है। हम यह नहीं सोचते, "मैं दर्पण में एक शरीर देखता हूँ, और उस शरीर के आधार पर, स्वयं को देखता हूँ।" अँधेरे में मेज़ से पैर टकरा जाने पर हम कहते हैं, "मुझे चोट लग गई," जैसे हम उस मैं  को पैर और दर्द से अलग जानते हों। जब हम कहते हैं, "मैं पैट्रीशियो को जानता हूँ," तो ऐसा लगता है जैसे मैं पैट्रीशियो को उसके शरीर की पहचान किए बिना, या उसके बारे में कुछ भी जाने बिना ही पहचान सकता हूँ। मानो हम केवल पैट्रीशियो को ही जान सकते हों। इसी प्रकार, हम मानते हैं, "मैं स्वयं को जानता हूँ," या "मैं स्वयं को नहीं जानता," या "आज मैं अपनी तरह व्यवहार नहीं कर रहा," या "मुझे स्वयं को जानना है।"

ये सभी बातें इस प्रकार की प्रतीति का संकेत देती हैं कि हमारा चित्त स्वतः एक स्वतंत्र रूप से विद्यमान, आत्म-संभव ज्ञेय मैं  की रचना करता है। अनभिज्ञता का अर्थ है कि हमें ज्ञात नहीं है, हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि यह यथार्थ से मेल नहीं खाता। अनभिज्ञता के कारण, हम विश्वास कर लेते हैं कि यही सच है, कि एक आत्म-संभव ज्ञेय मैं  है, एक ऐसी इयत्ता जिसके चारों ओर एक बड़ी, ठोस लकीर खिंची हुई है। जिसे बौद्ध-धर्म में "मिथ्या मैं" कहते हैं हम उसके संग पहचान स्थापित करते हैं, और उसी आधार पर व्यवहार करते हैं। हम उसके बारे में असुरक्षित महसूस करते हैं, और इसलिए उसकी रक्षा करते हैं, उसका अधिकार जताते हैं, उसे प्रमाणित करते हैं, और स्वयं को सुधारते हैं। उस मिथ्या ठोस मैं  को हमेशा अपनी मन-मर्ज़ी करनी होती है। वह ब्रह्माण्ड में सबसे महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि उसके चारों ओर एक ठोस लकीर खिंची होती है, "वहाँ बाहर वे  हैं जो इस अंदर वाले मैं  के विरोधी हैं।" "मुझे अपनी मन-मर्ज़ी करनी चाहिए।" फिर हम क्रोधित हो जाते हैं जब हमारी मर्ज़ी नहीं चलती, और उस आधार पर, हम विनाशकारी व्यवहार करते हैं।

यहाँ इस सन्दर्भ में यह सबसे सामान्य रूप से स्वीकृत अनभिज्ञता है। इसे सभी बौद्ध-धर्मी प्रस्तुतियों में मान्यता प्राप्त है। इस प्रकार की मैं  इकाई, जो वास्तव में एक बड़ी, ठोस लकीर से घिरी घोर स्फीति है, असंभव है। यह किसी भी यथार्थ के सदृश नहीं है। जब हम शून्यता की बात करते हैं, तब हम इस असंभव रूप से विद्यमान असंभव मैं  की अनुपस्थिति की बात कर रहे होते हैं। इसके अतिरिक्त, जब हम कहते हैं "अनुपस्थिति", तब उदाहरणार्थ इसका अर्थ यह नहीं होता कि कोई इस कमरे से अनुपस्थित है परन्तु कहीं और उपस्थित है। हम विशुद्ध अनुपस्थिति की बात कर रहे होते हैं, कि कभी ऐसा कुछ था ही नहीं। सरल शब्दों में, यह है शून्यता। किन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि हम विद्यमान हैं ही नहीं। हम विद्यमान हैं; जो "मैं" विद्यमान है वह है "पारम्परिक मैं।"

हम पारम्परिक "मैं" और मिथ्या मैं  के बीच का अंतर बहुत सरल उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं: मैं इस कुर्सी पर बैठा हूँ। तो यह शरीर कुर्सी पर बैठा है, है न? क्या इस कुर्सी पर दो अलग इकाइयाँ बैठी हैं, शरीर और मैं ? क्या वे दो पृथक, स्वाधीन इकाइयाँ हैं? क्या उनके इर्द-गिर्द बड़ी, ठोस लकीरें हैं? क्या तुम मुझे कुर्सी पर मेरे शरीर से अलग बैठा देख रहे हो? नहीं, बिल्कुल नहीं; यह असंभव है, यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि मैं, अपने चारों ओर एक बड़ी लकीर खींचे, इस कुर्सी पर बैठा हूँ। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता कि इस कुर्सी पर एक शरीर बैठा है। परन्तु हम इससे भी आगे सोचते हैं। हम सोचते हैं, "यह मेरी  कुर्सी है, तुम्हारी  कुर्सी नहीं है, इसलिए तुम  इसपर मत बैठो!"

मिथ्या मैं, असंभव मैं, वह है जो अलग विद्यमान है और अलग से ज्ञेय है, इस मामले में, शरीर से स्वतंत्र रूप में। पारम्परिक "मैं" वह है जो किसी ठोस, अलग, स्वतंत्र इयत्ता के रूप में नहीं बल्कि शरीर के सन्दर्भ में जानी जाती है।

यह बहुत सारगर्भित है जब हम मानसिक अवस्थाओं के सन्दर्भ में सोचते है, "मैं खिन्नचित्त हूँ," "मैं उदास हूँ," जैसे यहाँ कोई अन्य मैं  हो जो मानसिक मनोभाव, मानसिक अनुभूति इत्यादि से अलग हो जो प्रतिक्षण बदलती रहती है। "उस दुःखी, खिन्नचित्त व्यक्ति की ओर देखो।" "मैं कितना उदास, खिन्नचित्त व्यक्ति हूँ," अनुभवों के बदलते क्षणों से स्वतंत्र। असंभव मैं  यह पृथक मैं है, "बेचारा," और पारम्परिक मैं, जो वास्तव में विद्यमान है, वह "मैं" वो है जो अनुभवों के बदलते क्षणों के सन्दर्भ में जाना जाता है।

हम इस मिथ्या मैं  पर विश्वास करते हैं, जो असंभव है, क्योंकि वह ऐसा लगता है जैसे कोई अलग मैं  हो, स्वतः ज्ञेय, शरीर, चित्त, मनोभावों, और इन सब से स्वतंत्र। हम उसपर विश्वास करते हैं, हम उसकी मिथ्या अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं, और उस आधार पर, हम कई प्रकार के विनाशकारी या सरल रचनात्मक कृत्य करते हैं। उस मैं  की रक्षा हेतु हम प्रायः विनाशकारी ढंग से व्यवहार करते हैं, "मैं तुम्हारे शब्दों से खतरा महसूस करता हूँ, इसलिए मुझे तुमपर चिल्लाना पड़ेगा।" या हम भोलेपन से युक्त रचनात्मक व्यवहार करते हैं, जैसे "मैं तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता हूँ, और तुम्हारे लिए अच्छे काम करता हूँ, क्योंकि मैं तुमसे प्रेम, सराहना चाहता हूँ।"

अंत में, इस सब भ्रम का कारण है इस मिथ्या मैं  में विश्वास। इसमें विश्वास करने और उसके आधार पर कार्य करने के परिणामस्वरूप, हम अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म अनुभव करते हैं जो दुःख और बदलाव के कष्ट को अनुभव करने का आधार है, यह साधारण सुख। यह है सर्वव्यापी दुःख। हमारे सभी अनुभव - हम संसार की बात कर रहे हैं - इस अनभिज्ञता पर आधारित व्यवहार का परिणाम हैं, जिन्हें हम कर्म कहते हैं। इसकी सबसे बुरी बात यह है कि वह स्वयं को स्थिर बनाए रखता है। एक ठोस मैं  की अनुभूति बनी रहती है जो इस कर्म का अनुभव कर रहा है, और इस कार्मिक परिणाम के आधार पर, हम और अधिक कारण पैदा करते हैं। हम और अधिक कारण पैदा करके इस प्रक्रिया को जीवित रखते हैं। सांसारिक परिस्थितियों की यही विकटता है, कि वे आगे और आगे बढ़ती ही जाती हैं, यदि हम उन्हें रोकने का प्रयास नहीं करते तो।

दुःख के कारण को सही प्रकार पहचानना

सर्वव्यापी दुःख, नामतः संसार, अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म, और प्रत्येक पुनर्जन्म में घटित होने वाली प्रत्येक बात, ऊपर नीचे होती ही जाती है, परन्तु इसका कोई छोर नहीं है। यह है सर्वव्यापी दुःख, तीसरे प्रकार का दुःख जिसे केवल बौद्ध धर्म में व्याख्यायित किया गया है और उसपर बल दिया गया है। जब हम असली निःसरण की बात करते हैं, तब हम इसे त्याग रहे होते हैं। हम संसार और उसके कारण, इस अनभिज्ञता की इस सर्वव्यापी समस्या से मुक्त होने के विषय में दृढ़ हैं।

हम संसार से पूर्ण मुक्ति को लक्ष्य बनाते हैं, जिसे "निर्वाण" कहते हैं, जिससे ऐसा पुनर्जन्म दोबारा कभी नहीं होगा। हम इससे केवल अल्पकालिक अवकाश नहीं चाहते; हम इससे पूरी तरह पीछा छुड़ा लेना चाहते हैं; इसे कहते हैं "सत्य निरोध" या "सत्य अवरोधन" ताकि यह दोबारा कभी न हो। यह विशेष रूप से बौद्ध-धर्मी है।

अब, केवल अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्त होने भर का संकल्प विशेषतः बौद्ध-धर्मी नहीं है, क्योंकि और सभी भारतीय धर्म भी इन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं: "संसार" और एक किंचित भिन्न शब्द, जिसका प्रयोग बौद्ध-धर्म भी मुक्ति के लिए करता है "मोक्ष "। उन सबका लक्ष्य एक ही है: संसार, अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म से मुक्ति। इसमें कुछ भी विशेष रूप से बौद्ध-धर्मी नहीं है। जो विशेष रूप से बौद्ध-धर्मी है वह है दुःख के, संसार के असली कारण, और उन्हें त्यागना, उससे मुक्त होने का दृढ़ संकल्प विकसित करना।

इस निःसरण की प्रक्रिया में, हमारा मुख्य केंद्र होता है समुदय सत्य, सर्वव्यापी दुःख से मुक्ति पाना, इसके लिए हो सकता है हमें संसार को अधिक पोषित करने वाली परिस्थितियों को भी त्यागना पड़े। बल्कि, इससे मुक्त होने की इच्छा में हम अपनी वांछित वस्तुएँ भी त्यागने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अविश्वसनीय रूप से उन्नत स्तर है। हम जिससे मुक्त होने के दृढ़-संकल्पी हैं वही हमारे अनुभव में सबकुछ है। यह सच में काफ़ी अतिवादी है क्योंकि हमारा सारा अनुभव यह संसार ही है, यह सर्वव्यापी कष्ट।

हम समझ सकते हैं कि त्सोंगखपा यहाँ इस प्रकार के निःसरण का एक पूर्व चरण क्यों बतला रहे हैं। उस स्तर के निःसरण में कूद पड़ना कुछ कठिन है। हम पश्चिमवासियों के लिए, हम में से अधिकांश के लिए त्सोंगखपा द्वारा सुझाया गया यह निःसरण के प्रारंभिक चरण वाला सरल स्तर भी अत्यंत विकसित है। हमें इससे भी पहले एक चरण चाहिए। फिर हम निःसरण के इन भिन्न स्तरों से आगे बढ़ते जाते हैं।

सच्चाई से इस निःसरण को पाने के लिए, याद रखें कि इसका लक्ष्य दो दिशाओं में है: एक का लक्ष्य है कष्ट और उससे छुटकारा, और दूसरे का है मोक्ष और उसकी प्राप्ति। इसके लिए आवश्यक है कि हम इसकी सही पहचान करें जिससे हम छुटकारा चाहते हैं, और उस अवस्था या वस्तु की भी पहचान करें जो हम प्राप्त करना चाहते हैं। हमें दोनों को अच्छे से समझकर सही प्रकार पहचानना होगा।

इसके अतिरिक्त, हमारे भीतर यह विश्वास होना होगा कि इस दुःख और उसके कारणों से सदा के लिए पीछा छुड़ाना संभव है, और मुक्ति की इस अवस्था को प्राप्त कर पाना संभव है। निस्संदेह इन दोनों का आपस में नाता है; ऐसा नहीं है कि हम एक को प्राप्त कर सकते हैं और दूसरे को नहीं। यह केवल इस अंधविश्वास पर आधारित नहीं हो सकता कि, "बुद्ध ने ऐसा कहा था," या, "मेरे गुरु ने ऐसा कहा था इसलिए मैं इसपर विश्वास करता हूँ। मैं एक अच्छा, आज्ञाकारी शिष्य बनना चाहता हूँ, और मैं आज्ञा का पालन करूँगा और कुछ नहीं कहूँगा।" बुद्ध ने स्वयं कहा था, "जैसे आप सोना खरीदते समय करते हैं उसी प्रकार मेरी कही हर बात को परखकर ही स्वीकार करें, केवल इसलिए नहीं कि आप मेरा आदर करते हैं। हमें तर्क और विवेक द्वारा सुनिश्चित करना चाहिए कि मुक्ति प्राप्त करना वास्तव में संभव है; वर्ना, संभवतः उस लक्ष्य की प्राप्ति सच्ची और स्थायी नहीं हो सकती।

बोधिचित्त के मुद्दे की संरचना, जो है सबकी सहायता करने की अक्षमता से मुँह मोड़ लेना और, उसके स्थान पर, ज्ञानोदय को लक्षित करना, वह अवस्था जिसमें हम सबकी सहायता कर पाएँगे, निःसरण की संरचना जैसी है। परन्तु, जब हम बोधिचित्त की बात करते हैं, हम प्रायः निःसरण के इस पहलू को शामिल नहीं करते, "मैं इस अक्षमता से मुँह मोड़ना चाहता हूँ।" इन लक्ष्यों पर बल दिया जाता है - ज्ञानोदय और एक विशेष प्रयोजन, जो है दूसरों को अधिक से अधिक लाभ पहुँचाना।

किन्तु हमें निःसरण और बोधिचित्त में एक ही मुद्दे पर बात करनी है, जो है: क्या संसार, अनियंत्रित रूप से आवर्ती पुनर्जन्म और कष्ट से मुक्ति पाना वास्तव में संभव है? क्या ज्ञानोदय की अवस्था प्राप्त कर पाना वास्तव में संभव है, जिसमें हम सभी की पूर्णतः सहायता कर पाएँगे? निस्संदेह, हमें उन दोनों अवस्थाओं को पहचानने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, क्या उन्हें प्राप्त कर पाना संभव है? हमें यह विश्वास भी होना चाहिए, "मैं यह करने में समर्थ हूँ," केवल यह भर नहीं कि, "क्या यह संभव है?" यह नहीं कि, "बुद्ध ऐसा कर पाए थे, और ये लोग ऐसा कर पा रहे हैं, परन्तु मैं अत्यंत मूर्ख हूँ। मैं किसी काम का नहीं हूँ, इसलिए मैं यह नहीं कर सकता।"

इस विषय में आश्वस्त होने के लिए, हमें चित्त की प्रकृति और जिसे हम कहते है "बुद्ध-धातु" समझने की आवश्यकता है और इन दोनों में शून्यता की समझ शामिल है।

प्रश्न

आप दूसरों की सहायता हेतु ज्ञानोदय प्राप्ति की बात कर रहे हैं, परन्तु हम देखते हैं कि वे अन्य लोग भी मिथ्या मैं  के विषय में बहुत भ्रांत हैं, और जब कोई उनकी सहायता करने की चेष्टा करता है, वे बहुत क्रुद्ध हो जाते हैं, और आपको वैसा नहीं करने देते इत्यादि। हम उनकी किस प्रकार सहायता कर सकते हैं?

सबसे पहले, संयम रखें। बोधिसत्त्व मार्ग में विभिन्न सकारात्मक, रचनात्मक चित्तावस्थाएँ हैं जिन्हें विकसित करके हम दूसरों की सहायता करने में सक्षम हो पाएंगे, और इसमें इन्हें प्राप्त करने की कई विधियाँ भी बताई गई हैं। हमें समचित्तता विकसित करने की आवश्यकता है, जिससे कोई हमें दूसरों की तुलना में अधिक प्रिय न हो; हम सबकी एक जैसी सहायता करें। हमें प्रेम की भी आवश्यकता है, दूसरों के सुखी होने की कामना और उनके पास सुख के कारण होना, व करुणा, जो यह इच्छा है कि अन्य लोग समस्याओं और उनके कारणों से मुक्त हों। इसके अलावा, हमारे भीतर यह मनोदृष्टि होनी चाहिए जिससे हम कुछ करने का दायित्व लें, न केवल सतही तौर पर उनकी थोड़ी-सी सहायता करें, बल्कि उन्हें ज्ञानोदय तक पहुँचाने का पूरा दायित्व लें। इसके लिए, हमें स्वयं ज्ञानोदय प्राप्ति की आवश्यकता है ताकि हम उनकी सभवतः पूरी मदद कर पाएँ। वह है बोधिचित्त; हमारे वैयक्तिक ज्ञानोदयों का लक्ष्य।

हम इस मनोदृष्टि का विकास करते हैं, "मैं सबकी समान रूप से सहायता करने का प्रयास करूंगा, हताश नहीं होऊँगा, किसी के ज़िद्दीपन के कारण हार नहीं मानूँगा।" फिर, हमें आवश्यकता है व्यापक मनोदृष्टियों की जिन्हें कभी-कभी "पारमिता" भी कहा जाता है: बहुत उदार होना, केवल फूल ही नहीं, अपना समय, अपनी ऊर्जा देना। इसके अतिरिक्त, अधिशीलता होना जिससे हम स्वयं को कुछ भी हानिकारक करने से रोक पाएँ, स्वयं को प्रशिक्षित करने का अनुशासन, और दूसरों की सच्ची सहायता करने का अनुशासन, चाहे हमारा मन न भी हो। यह संयम होना कि हम क्रोधित या हताश न हों जब वे हमारी सहायता स्वीकार न करें या हमारा सुझाव काम न करे। यह संकल्प कि हम हार नहीं मानेंगे, कि हम हर परिस्थिति में कार्यरत रहेंगे, और हमें अपने कार्य से प्यार है, अपने सुधार व दूसरों की सहायता के लिए कार्य करते रहेंगे, हमें इसमें बहुत आनंद मिलता है।

फिर है मानसिक ठहराव, और इसका अर्थ केवल एकाग्रता नहीं है, बल्कि भावात्मक ठहराव भी है। हमारा ध्यान भंग नहीं होता या हमारी चित्तावस्था डोलती नहीं रहती, "मैं इसकी ओर आकर्षित हूँ क्योंकि वह सुन्दर है।" और, निस्संदेह, सविवेकी सचेतनता जिससे हम इसके बीच विभेद कर पाएँ कि क्या लाभदायक है, और क्या हानिकारक, क्या यथार्थ है, और क्या भ्रामक कल्पना का प्रक्षेपण मात्र है। बोधिसत्त्व प्रशिक्षण इस अर्थ में बहुत विस्तृत है कि इन सभी पहलुओं का विकास किया जाए और निपुण विधियों की सम्पूर्ण समझ विकसित की जाए, इत्यादि, ताकि हम यथासंभव दूसरों की सहायता कर पाएँ।

इसके बावजूद, यदि हम बुद्ध बन भी जाते हैं, तब भी हम चुटकी बजाते ही सर्वशक्तिमान रूप से सबके दुःख नहीं हर सकते। यदि यह संभव होता, तो बुद्ध ऐसा कर चुके होते। हम परामर्श दे सकते हैं, यथासंभव सहायता कर सकते हैं, परन्तु दूसरे व्यक्ति को वह परामर्श स्वीकार करना होगा। उस व्यक्ति को ग्रहणशील होना होगा; हम उसपर दबाव नहीं डाल सकते। जैसा हमने देखा, सबके दुःख का गहनतम कारण एक ही है: यह अनभिज्ञता। एक बुद्ध होने के नाते, हम केवल इतना कर सकते हैं कि जितना संभव हो उतनी कुशलता से व्याख्यायित करें - व्यक्ति के स्तर के अनुसार - यथार्थ इत्यादि। एक बुद्ध किसी और के लिए समझ नहीं सकता; यह उन्हें स्वयं ही करना होगा।

आप यह बतलाते आ रहे हैं कि हमें स्वयं को तैयार करना चाहिए या भावी पुनर्जन्मों के लिए तैयारी करनी चाहिए, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि फिर मानव पुनर्जन्म या अमूल्य मानव पुनर्जन्म पाना अत्यंत सरल होगा। परन्तु मुझे याद पड़ता है कि मैंने सुना है यह बहुत अधिक कठिन है। क्या यह सच है?

अमूल्य मानव पुनर्जन्म पाना बहुत अधिक कठिन है यदि हम उसके लिए कारण संचित न करें तो। लाखों जीवनकालों पहले किए गए हमारे कर्मों के कारण स्वतः सरलता से ऐसा नहीं होगा। हमें अभी इसके लिए अथक प्रयास करके ठोस कारण संचित करने होंगे। इसके प्रमुख कारण क्या हैं? सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है अधिशीलशिक्षा। यह हम, मनुष्य होने के नाते, करने में सक्षम होते हैं। पशु ऐसा नहीं कर सकते। पशु अपनी सहज प्रवृत्ति के दास हैं - बिल्ली चूहे को सताएगी ही, और शेर शिकार ही करेगा। हम मनुष्य हैं और आत्म-नियंत्रण बरत सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है वह है निष्ठा से एक अनमोल मानव पुनर्जन्म प्राप्त करने की प्रार्थना करना, जिससे अभिप्राय ऐसी प्रार्थना नहीं है, जैसे, "ओह बुद्ध, मुझे यह वरदान दो यदि मैं अच्छा लड़का या लड़की हूँ और सदैव आपका गुणगान करता हूँ।"  इससे अभिप्राय है हमारी मंशा और हमारी सकारात्मक ऊर्जा को बलपूर्वक दिशा देना, विशेष रूप से इस समर्पण के साथ, "मैंने जो कुछ रचनात्मक किया है और कर रहा हूँ, उसके सकारात्मक बल से मैं ज्ञानोदय प्राप्त कर पाऊँ। ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए, आवश्यक है कि मुझे अनमोल मानव पुनर्जन्म मिलें जो मुझे ज्ञानोदय तक पहुँचने के लिए कार्यरत रहने में समर्थ बनाएँगे। मैं सदैव अनमोल मानव पुनर्जन्म पाऊँ, सदैव धर्म से मिलूँ, ज्ञानोदय प्राप्ति तक अपने सभी जीवनकालों में अत्यंत सुयोग्य शिक्षकों द्वारा पोषित किया जाऊँ।" प्रार्थना का विनिर्दिष्ट होना महत्त्वपूर्ण है।

तिब्बत के गन्देन मठ में, एक सिंहासन था, गेलुग्पा पंथ के मुखिया का एक बहुत ऊंचा सिंहासन, गन्देन सिंहासन। एक दिन - मठ में पशु भी हैं - एक गाय आई और सिंहासन पर बैठ गई। यह देखकर भिक्षु बहुत चकित हुए, और उन्होंने वहाँ के एक बहुत महान गुरु से पूछा, "इसके पीछे क्या कारण है?" गुरु बोले, "किसी पूर्व पुनर्जन्म में, इस जीव ने गन्देन सिंहासन पर बैठ पाने की प्रार्थना की थी, परन्तु वह पर्याप्त रूप से विनिर्दिष्ट नहीं थीं।"

नैतिक आत्म-अनुशासन और विनिर्दिष्ट प्रार्थनाओं के साथ-साथ, हमें इन पारमिताओं की भी आवश्यकता होती है उदारता, धैर्य, दृढ़ता, मानसिक स्थिरता और सविवेकी सचेतनता। अनमोल मानव पुनर्जन्म के ये कारण होते हैं।

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