पुस्तकों की तुलना में अधिक लोगों तक पहुँचने के लिए वैबसाइट की शुरुआत
वर्ष 2004 में अब मुझे अपनी वैबसाइट berzinarchives.com को शुरु किए हुए लगभग ढाई वर्ष का समय बीत चुका है। इसे शुरू करने का विचार इस तथ्य के कारण सूझा कि मैं अपना पूरा जीवन – अब तक अपने जीवन के 42 वर्ष – धर्म का अध्ययन और अनुशीलन करते हुए बिता चुका हूँ, और मैंने इसके अलावा कुछ और नहीं किया है। मैंने कई पुस्तकें लिखीं – और पुस्तकों को तैयार करने में काफी लम्बा समय लगता है – और सम्पादकों के साथ मिलकर काम किया, लेकिन पुस्तकों का वितरण अच्छा नहीं रहा और मेरी पुस्तकों की ज़्यादा अच्छी बिक्री नहीं हुई। पुस्तकें बहुत ज़्यादा बड़ी संख्या में पाठकों तक नहीं पहुँच पाती हैं। मैंने महसूस किया कि और अधिक पाठकों तक पहुँचने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि एक वैबसाइट शुरू की जाए और अब ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में हमारे पास उपलब्ध इस नए माध्यम का लाभ उठाया जाए।
जैसे हस्तलिखित सामग्री से लेकर मुद्रित पुस्तकें प्रचलन में आईं, उसी तरह अब हमारे पास इंटरनेट के प्रयोग के रूप में ज्ञानार्जन का एक नया साधन उपलब्ध है। हालाँकि मेरी वैबसाइट इंटरनेट की परस्पर संवादात्मक क्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं करती है, किन्तु फिर भी वैबसाइट पर आप बहुत सी ऐसी चीज़ें कर सकते हैं जो भारी-भरकम पुस्तकों के साथ करना सम्भव नहीं होता है। आप विशिष्ट विषयों के बारे में छोटे-छोटे लेख लिखकर उन्हें ऑनलाइन प्रस्तुत कर सकते हैं। उसके बाद आप किसी सर्च इंजन या लिंक्स की सहायता से अलग-अलग विषयों का अध्ययन कर सकते हैं, सभी चीज़ों को आपस में जोड़ कर देख सकते हैं और यह समझ सकते हैं कि वे आपस में किस प्रकार जुड़ी हुई हैं। ज्ञानार्जन का यह एक नया तरीका है।
धर्म को समझने की दृष्टि से ज्ञान प्राप्ति का यह नया तरीका पूरी तरह से उपयुक्त है। धर्म की पहेली के इतने सारे हिस्से हैं जो एक-दूसरे के साथ कई प्रकार से जुड़ते हैं। इसे समझने के लिए इंटरनेट का माध्यम सबसे बढ़िया है क्योंकि वहाँ आप आसानी से तलाश करके पहेली के किसी दूसरे हिस्से पर जा सकते हैं और उसे उस हिस्से के साथ जोड़ने का प्रयास कर सकते हैं जिसके बारे में आप पढ़ रहे हों।
जो भविष्य में निश्चित तौर पर घटित होने वाला है, जो इंटरनेट की इस दिशा में दिनोंदिन विकसित हो रहा है, उसके यथार्थ का सामना करना बहुत आवश्यक है। यदि हम चाहते हैं कि भविष्य की पीढ़ियों में धर्म बचा रहे तो हमें उसे इसी प्रकार के माध्यमों से प्रस्तुत करना होगा। इसका मतलब है कि इंटरनेट का प्रयोग केवल किसी पुस्तकालय की तरह ही न किया जाए, जहाँ किताबों को खानों में सजा कर रख दिया गया हो। धर्म सम्बंधी सामग्री का उपयोग और भी कई तरीकों से किया जा सकता है।
भारी मात्रा में सामग्री लेकर भारत से पश्चिमी जगत की ओर लौटना
भारत में 29 वर्षों तक रहने के बाद मैं 1998 में पश्चिमी जगत में लौट आया ताकि इस वैबसाइट को बनाने जैसे कामों के लिए बेहतर सुविधाएं पा सकूँ; भारत में यह सब करना बहुत कठिन था। इसलिए मैं पश्चिमी जगत में लौट आया, और अपने साथ मैं अपने किए गए काम से जुड़ी सामग्री की भारी मात्रा लेकर लौटा था। मैंने इस सामग्री को बर्ज़िन आर्काइव्स का नाम दिया।
भारत में रहते हुए मैंने जो भी शिक्षाएं प्राप्त की थीं उनमें से प्रत्येक के बारे में मैंने विस्तार से नोट्स तैयार किए थे। मैंने जितने भी ग्रंथ पढ़े थे, उन सभी के कच्चे-पक्के अनुवाद भी किए थे, और मैंने सरकांग रिंपोशे और परम पावन दलाई लामा के लिए जिन विभिन्न उपदेशों का अनुवाद किया था, मैं अपने साथ उनके या तो प्रतिलेख लाया था या फिर टेप की गई रिकॉर्डिंग्स थीं। और भी कई ग्रंथ थे जिनका मैंने अनुवाद किया था, और मेरे अपने व्याख्यानों आदि के टेप्स थे। यह सारी सामग्री कुल मिलाकर 30,000 लिखित पृष्ठों की थी – जो कि एक काफी बड़ी मात्रा है – और उसमें टेप्स को नहीं गिना गया है; और नए टेप्स के जमा होने से उनकी संख्या बढ़ती ही जाती है।
इस सामग्री में से बहुत सारी ऐसी है जो हस्तलिखित है, इससे प्रतिलेख तैयार करने में बहुत ज्यादा मदद नहीं मिलती है। इसके अलावा मैंने शब्दावलियाँ भी तैयार की थीं, बड़ी-बड़ी शब्द-संग्रह सूचियाँ तैयार की थीं, और तिब्बती और पश्चिमी तिथियों को परस्पर अदल-बदल करने और तिब्बती पंचांग की गणनाओं के लिए कम्प्यूटर प्रोग्राम तैयार करने के लिए कलन-विधियाँ तैयार की थीं। फिर मैंने तिब्बती बौद्ध धर्म की चार परम्पराओं और तिब्बती संस्कृति: जिसका सम्बंध केवल बौद्ध धर्म से ही नहीं बल्कि इतिहास, ज्योतिष, और चिकित्साशास्त्र से भी था, के बारे में लिखित सामग्री तैयार की थी। मैंने अंग्रेज़ी, फ्रैंच, जर्मन और रूसी भाषाओं में 1,200 पुस्तकें और लेख पढ़े थे और उनके बारे में विस्तृत नोट्स लिखे थे – रूसी भाषा में किसी और व्यक्ति ने मेरी सहायता की थी, मैं रूसी भाषा नहीं पढ़ सकता – ये पुस्तकें और लेख मध्य एशिया के राजनैतिक इतिहास और तिब्बत, मध्य एशिया और मंगोलिया के बौद्ध इतिहास, और बौद्ध धर्म के साथ संवाद करने वाले दूसरे मध्य एशियाई धर्मों के बारे में सामग्री से सम्बंधित थे। अपनी यात्राओं के दौरान दुनिया भर पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों में इन ग्रंथों को ढूँढने में मैंने बहुत परिश्रम किया था। इसके अलावा मेरे पास तुर्की, जॉर्डन, मिस्र, उज़बेकिस्तान, कजाकिस्तान और मध्य एशिया के दूसरे देशों में वहाँ के विद्वानों के साथ किए गए साक्षात्कारों के प्रतिलेख भी थे। यदि इस अनूठी सामग्री का कुछ नहीं किया गया तो मेरी मृत्यु के बाद इस सब को मूल्यहीन समझ कर फेंक दिया जाएगा। मैं ऐसा नहीं होने देना चाहता था।
मुझे उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शिक्षकों से शिष्य के रूप में अध्ययन करने का असाधारण अवसर और सौभाग्य प्राप्त हुआ था: साधारण गेशे जन से नहीं, बल्कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ शिक्षकों से शिक्षा पाने का अवसर मिला था: परम पावन दलाई लामा और परम पावन के शिक्षकों से शिक्षा पाने का अवसर मिला था। इसलिए, धर्म के बारे में उन्नत श्रेणी के विषयों पर परम पावन के साथ मेरे अपने प्रश्नोत्तरी सत्रों के प्रतिलेखों जैसी जो सामग्री मैंने जमा की है, वह बहुमूल्य है।
मैं चाहता हूँ कि मैं इस सामग्री को संरक्षित करूँ और उसे दूसरों को उपलब्ध कराऊँ। ज़ाहिर है कि मैं इस जन्म में तो इतने बड़े और महत्वपूर्ण कार्य को तो पूरा नहीं कर सकता हूँ, किन्तु मैं चाहता हूँ कि इसे जितना अधिक सम्भव हो सके, पूरा करूँ और कोई ऐसी व्यवस्था तैयार करूँ कि मेरे नहीं रहने के बाद भी यह काम चलता रहे। और यह भी तय है कि मैं नहीं चाहता कि यह कार्य अंग्रेज़ी-प्रधान रहे, इसलिए मैं चाहता हूँ कि यह सामग्री जितना अधिक हो सके, रूसी, पोलिश, मंगोलियाई, चीनी आदि दूसरी भाषाओं में भी उपलब्ध रहे। मैंने एक बहुत बड़ा काम हाथ में लिया है। इसकी कठिनाई इस कारण से भी बढ़ जाती है कि मुझे पहले लिखी गई सामग्री का उपयोग करना पसंद नहीं है, बल्कि मैं हमेशा नई-नई चीज़ें लिखता रहता हूँ क्योंकि मेरी समझ में उत्तरोत्तर सुधार होता रहता है, बदलाव होता है, उसका विकास होता रहता है।
बौद्ध शिक्षाओं की प्रस्तुति के विकासक्रम का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
यदि हम बौद्ध धर्म के विकास के पूरे इतिहास को देखें तो मुझे लगता है कि इसमें पाश्चात्य चिंतन, पाश्चात्य विचार का एक प्रमुख योगदान टीका साहित्य के और अधिक विकास के रूप में हो सकता है, किन्तु यह टीका-साहित्य पूर्व के टीका-साहित्य से भिन्न होना चाहिए।
सूत्रों की प्रस्तुति बहुत ही अव्यवस्थित ढंग से की गई है। मूलतः सूत्र ऐसे व्याख्यान थे जो बुद्ध ने या तो सार्वजनिक तौर पर दिए थे या फिर अलग-अलग लोगों को उनके घरों पर दिए थे, जहाँ उन्हें और उनके अनुयायी भिक्षुओं को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता था। इन व्याख्यानों में बुद्ध ने अनेक प्रकार के विषयों की व्याख्या जटिलता के अलग-अलग स्तरों पर की, और उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित करने वाले लोगों और उस अवसर पर उपस्थित लोगों की आवश्यकताओं के अनुसार बिल्कुल अलग-अलग दृष्टिकोणों से की थी।
भारतीय भाष्यों में इन सभी को करुणा, नश्वरता, शून्यता, आध्यात्मिक मार्ग पर विकास के क्रमों आदि जैसे अलग-अलग विषयों के अन्तर्गत एक साथ प्रस्तुत किया गया है। उसके बाद तिब्बत के विद्वानों ने उनकी विस्तृत रूप-रेखा प्रस्तुत की ताकि भारतीय भाष्यों के बारे में चर्चा करने और उनसे सीखने में सुविधा हो। तिब्बती और मंगोलियाई विद्वानों की बाद की हर पीढ़ी ने इन भारतीय भाष्यों में कही गई बातों की और अधिक स्पष्ट व्याख्या करने का प्रयत्न किया, क्योंकि ये भाष्य बहुत ही गूढ़ हैं और इन्हें कई अलग-अलग दृष्टिकोणों से ही समझा जा सकता है।
इस विकासक्रम में पाश्चात्य जगत का सम्भावित योगदान
अब बौद्ध धर्म पश्चिम जगत में पहुँच रहा है और इसलिए हम इसमें क्या योगदान कर सकते हैं? इसके लिए केवल भेंट-चढ़ावे की वस्तुएं प्रस्तुत करना और पूजा आदि के लिए विभिन्न प्रकार के वाद्य-यंत्र उपलब्ध कराना एक प्रकार का सतही विकास होगा – जो आवश्यक तो है, लेकिन सतही है। या, पेड़-पर्वतों की स्थानीय तिब्बती प्रेतात्माओं के अलावा आपके यहाँ मैक्सिको या ब्राज़ील की तरह सांसारिक रक्षकों का एक और समूह जोड़ दिया जाए – यह तो कोई बहुत गम्भीर योगदान नहीं है। हाँ, आप स्थानीय ओझा धर्म के स्थानीय देवी-देवताओं को भी जोड़ सकते हैं, लेकिन यह योगदान भी बहुत सतही स्तर का होगा।
लेकिन मुझे लगता है कि हम अपनी पाश्चात्य शिक्षा के आधार पर एक वास्तविक योगदान हम इस रूप में कर सकते हैं कि हम पैटर्न तलाश करें और तुलनात्मक दृष्टि से विषयों के ऐतिहासिक विकासक्रम की रूप-रेखा प्रस्तुत करें। उदाहरण के लिए हमें अलग-अलग प्रणालियों को एक साथ रखकर यह रूप-रेखा तैयार करने का कौशल हासिल है कि मानसिक लेबलिंग जैसा कोई विषय भारतीय बौद्ध सिद्धांतों के विभिन्न दर्शनों से गुजरते हुए किस प्रकार विकसित हुआ। इस कार्य को करने की दृष्टि से पाश्चात्य मत विशिष्ट रूप से शिक्षित है। तिब्बती लोग अपने चित्त को इस प्रकार से विचार करने के लिए प्रशिक्षित नहीं करते हैं। तिब्बती लोग बहुत ही विशिष्ट और वैयक्तिक विषयों पर विचार-विमर्श करने के लिए ही प्रशिक्षित होते हैं। पाँच प्रकार की गहन सचेतनता की दृष्टि से तिब्बती लोग अपनी वैयक्ति गहन सचेतनता को विशिष्ट विवरणों को अलग करके देखने की महारत रखते हैं, जबकि हम पश्चिमी जगत के लोग अपनी समकारी सचेतनता को पैटर्न्स को तलाश करने के लिए प्रशिक्षित करते हैं।
मेरे जानकार तिब्बतियों में अकेले परम पावन दलाई लामा ही ऐसे हैं जो इस पाश्चात्य चिंतन विधि को अपनाते हैं। परम पावन इस बात के लिए प्रयासरत रहे हैं कि कोई ऐसा समेकनकारी तरीका विकसित किया जाए ताकि चारों तिब्बती परम्पराओं का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत किए जाने के बजाए उनके बीच एक साथ तालमेल बिठाया जा सके। किन्तु परम पावन अनेक दृष्टियों से विशिष्ट हैं। इसीलिए परम पावन जिस दृष्टि से इस समस्या को देखते हैं वह नज़रिया भी पाश्चात्य चिंतन जैसा नहीं है; वह उससे भिन्न है।
सूचना के इस युग में पश्चिम जगत में हमारे सामने हर उस एशियाई देश का बौद्ध धर्म का स्वरूप उपलब्ध है जहाँ यह धर्म पनपा था। वह सारी सामग्री वर्तमान समय में आसानी से उपलब्ध है। अब हम उस सब को किस प्रकार से समझें? यह एक ऐसी चुनौती है जिससे निपटने के लिए पाश्चात्य चिंतन सामान्य पैटर्नों को खोजकर समझने के लिए विशिष्ट तौर पर अभ्यस्त है।
भविष्य की दृष्टि से इस सारी सामग्री को समझ पाना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि आगे और अधिक सामग्री उपलब्ध होती चली जाएगी। जब इतनी सारी परस्पर विरोधी सामग्री उपलब्ध हो तो कोई व्यक्ति बौद्ध धर्म को कैसे समझ सकता है और किस प्रकार उसकी साधना कर सकता है? वह इसकी शुरुआत कहाँ से करे? इसलिए बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक विकासक्रम में यह महत्वपूर्ण योगदान करने के लिए पाश्चात्य चिंतन सबसे उपयुक्त है। इसी कार्य में मैं भी अपना थोड़ा सा योगदान देना चाहूँगा, और ऐसा करने के लिए एक वैबसाइट प्रारम्भ करने का विचार एक अच्छा माध्यम है।
ऐसी सामग्री तैयार करना जो हमारे अगले जन्मों में उपयोग के लिए उपलब्ध हो सके
जब हम अपने बौद्ध अध्ययन और साधना के बारे में विचार करते हैं तो मेरी राय में यदि हम महायान की प्रेरणा से और महायान के विषयक्षेत्र की दृष्टि से विचार करें तो बहुत उपयोगी रहेगा ताकि हम यह साधना केवल अपने निजी विकास के लिए ही न करें क्योंकि हम बहुत ही उलझे रहते हैं और बहुत सी सांसारिक समस्याओं में फंसे रहते हैं। हमें बात को केवल इतने पर ही खत्म नहीं कर देना चाहिए कि “मैं यह साधना सभी सचेतन जीवों की भलाई के लिए कर रहा हूँ,” क्योंकि हममें से अधिकांश के लिए इसका कोई अर्थ नहीं है। अपनी वैबसाइट के इस कार्य को मैं इस दृष्टि से देखता हूँ कि यह एक ऐसा अवसर है जिसकी सहायता से केवल वर्तमान में ही बड़ी संख्या में लोगों तक पहुँचने और उनका हित करने का कार्य नहीं किया जा सकता है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी लाभ पहुँचाया जा सकता है।
इस प्रकार विचार करते हुए हम आगे बढ़कर लाम-रिम प्रेरणा के प्रारम्भिक स्तर के संदर्भ में भविष्य के जन्मों में लाभ उठाने के बारे में विचार कर सकते हैं। यदि हम अपने आगामी जन्मों को सुधारने की प्रेरणा से इस कार्य में पर्याप्त शक्ति लगाएं तो हम इस वैबसाइट के साथ एक कार्मिक सम्बंध जोड़ सकेंगे और यदि सौभाग्य से हमें अगली बार भी मनुष्य के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त हुआ तो हम आसानी से इस वैबसाइट को तलाश कर सकेंगे और यह हमारे लिए धर्म के मार्ग पर पुनःप्रवेश करने का एक सरल उपाय होगा। इस वैबसाइट पर काम करने के लिए यह भी हमारी प्रेरणा हो सकती है – इसके बारे में कम से कम मेरी निजी राय तो यही है।
हम अपने अगले जन्म के लिए कितनी गम्भीरता से तैयारी कर रहे हैं? यदि हम सचमुच धर्म की साधना से जुड़े हुए हैं तो उससे पुनः जुड़ने के लिए हम कौन से पुख्ता कदम उठा रहे हैं? मैं इसके बारे में बहुत सोच-विचार करता हूँ। मैं प्रेरणा के आरम्भिक स्तर को बहुत गम्भीरता से लेता हूँ। इसलिए कृपा करके प्रेरणा के आरम्भिक स्तर को महत्वहीन बना कर उसका अनादर न करें। हमें यह जाँच करनी चाहिए कि हम उसे कितनी गम्भीरता से लेते हैं और कितनी गम्भीरता से अनुभव करते हैं ताकि हम वास्तव में उस पर अमल कर सकें।
ज़ाहिर है कि इस वैबसाइट पर कार्य करने के अलावा भी अपने अगले जन्म की तैयारी करने के कई और तरीके भी हैं। लेकिन यह आवश्यक है कि हम कुछ करें। उदाहरण के लिए, किसी धर्म केंद्र में जाकर बहुत सारा काम करना और दूसरों को अध्ययन करने का अवसर उपलब्ध कराना, खास तौर पर तब जब आप उसे “दूसरे सभी सचेतन जीवों की भलाई के लिए” किए गए कार्य के रूप मे देखते हैं, तो यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन आपको आरम्भिक स्तर की इस प्रेरणा को अपनी प्रार्थना में शामिल करना चाहिए। “मैं प्रार्थना करता हूँ कि मैं मनुष्य के रूप में बहुमूल्य पुनर्जन्म प्राप्त करते हुए बार-बार धर्म से जुड़ता रहूँ और उच्च योग्यताप्राप्त शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त करता रहूँ।“
अतिश को याद कीजिए जिन्होंने उस ज़माने में वास्तव में योग्य शिक्षकों की तलाश में सुमात्रा तक की अविश्वसनीय यात्रा की थी। इसलिए आपको भी इस धर्म केंद्र जैसी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए अतिश जैसी मेहनत और दृढ़ता से काम करना चाहिए ताकि दूसरों को प्रामाणिक शिक्षाएं सुलभ हो सकें। और इस उद्देश्य को हासिल करने के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। ये कठिनाइयाँ उन कठिनाइयों की तुलना में कुछ भी नहीं जिन्हें अतिश ने में सुमात्रा तक की समुद्री यात्रा करके सहा था, और फिर उसके बाद, वे वृद्ध हो चुके थे, फिर भी वे पैदल चल कर और भारवाही पशुओं की सवारी करते हुए तिब्बत पहुँचे और वहाँ उन्होंने लोगों को प्रामाणिक शिक्षाएं उपलब्ध कराने के लिए कार्य किया, वहाँ की स्थिति इस जगह की तुलना में सचमुच बहुत कठिन थी, किन्तु उन्होंने धर्म-प्रचारक बने बिना ही यह सब कार्य किया। और फिर उनके कार्य के सुफल को देखिए! उनके सत्कार्य से लोग आज भी भारत और तिब्बत से बहुत दूर मैक्सिको जैसे स्थानों में लाभान्वित हो रहे हैं।