शरणागति: जीवन की सुरक्षित और सार्थक दिशा

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शरणागति लेना समस्त बौद्ध शिक्षाओं और साधनाओं का आधार है। इसे “बौद्ध मार्ग का प्रवेश द्वार” कहते हैं। जब हमें यह बोध हो जाता है कि शरणागति लेने का अर्थ अपने आप में सुधार करना है, तो हम जान पाते हैं कि यह जीवन को सुरक्षित और सार्थक दिशा देने की एक जागृत प्रक्रिया है। हम स्वयं को भ्रम, अशांतकारी मनोभावों और बाध्यकारी व्यवहार से मुक्त करने के लिए और समस्त सद्गुणों को विकसित करने के लिए बुद्ध द्वारा सिखाई गई विधियों का पालन करके अपने आप में सुधार करने के लिए प्रयत्न करते हैं। सभी बुद्धों ने यही किया है और पहुँचे हुए सिद्ध आचार्यगण भी यही कर रहे हैं, और उनके पदचिह्नों पर चलते हुए हम भी वैसा ही करने का प्रयत्न करते हैं।

अपने जीवन में बौद्ध साधना के प्रयोजन के बारे में भ्रम को दूर करना

मुझे दैनिक जीवन में शरणागति की प्रासंगिकता के बारे में व्याख्यान देने के लिए कहा गया है। इससे मुझे भारत के महान आचार्य अतिश का स्मरण हो आया है जो दसवीं शताब्दी के अंत में तिब्बत गए थे। वे उन महान आचार्यों में से एक थे जिन्होंने तिब्बत में भारत के माध्यम से बौद्ध धर्म का परिचय कराए जाने के बाद उसका पतन होने पर तिब्बत में बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने में सहायता की थी। उस समय तिब्बत में ऐसी स्थिति थी कि बड़ा भ्रम व्याप्त था, खास तौर पर तंत्र और कुछ और उन्नत शिक्षाओं के बारे में भ्रांतियाँ व्याप्त थीं। वहाँ वास्तविक रूप में योग्य शिक्षक उपलब्ध नहीं थे। सच्चाई तो यह है कि वहाँ ऐसे कोई शिक्षक उपलब्ध ही नहीं थे जो विषयों की स्पष्ट व्याख्या दे पाते। हालाँकि वहाँ कई ग्रंथों के अनुवाद तो हुए, लेकिन ज़ाहिर है कि पढ़ना जानने वाले लोगों की संख्या बहुत कम थी, और उन ग्रंथों की प्रतियाँ भी पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं थीं। यदि कुछ लोग पढ़ भी सकते थे, तो उनके लिए पढ़ी गई बातों के बारे में कोई स्पष्टीकरण प्राप्त कर पाना बहुत कठिन था।

इस स्थिति को सुधारने की दृष्टि से पश्चिमी तिब्बत के एक राजा ने कुछ बहुत ही साहसी छात्रों को इस उद्देश्य के साथ भारत भेजा कि वे इन महान बौद्धाचार्य को अपने साथ तिब्बत लौट कर आने के लिए निमंत्रित करें। उन्हें पैदल यात्रा करनी थी, भाषाओं को सीखना था, और देशप्रकृति की कठिनाइयों का भी सामना करना था। उनमें से कई की तो यात्रा के दौरान रास्ते में ही या फिर भारत पहुँचने के बाद मृत्यु हो गई। लेकिन किसी प्रकार उन्होंने भारत के महान आचार्य अतिश को वापस तिब्बत चलने का निमंत्रण दे दिया। वे कई वर्षों तक वहाँ रहे और इस दौरान उन्होंने मुख्यतः शरणागति और कर्म के बारे में शिक्षाएं दीं। दरअसल वे “शरणागति और कर्म लामा” के रूप में विख्यात हुए। तिब्बतवासियों ने उन्हें यह नाम दिया था।

वर्तमान समय में अतिश का उदाहरण बहुत प्रासंगिक है। इस समय भी बौद्ध धर्म के बारे में और दैनिक जीवन के स्तर पर उसकी साधना के महत्व के बारे में बहुत भ्रांति है। तंत्र और दूसरी उन्नत शिक्षाओं को लेकर भी बड़े भ्रम की स्थिति है। बुनियादी बौद्ध शिक्षाओं के बारे में नाममात्र की समझ या बिना किसी समझ के ही लोग सीधे इन साधनाओं को करना शुरू कर देते हैं। उनकी कल्पना के अनुसार कुछ जादुई अनुष्ठान करना ही बौद्ध साधना है। शरणागति की प्रासंगिकता और हमारे दैनिक जीवन में उसके महत्व को कम आँक कर ये लोग असल मुद्दे को ही चूक रहे होते हैं।

जीवन में हमारी स्थिति जैसी भी हो, बौद्ध साधना का उद्देश्य आत्म सुधार करना है, अपने आप को एक बेहतर व्यक्ति बनाने की दृष्टि से प्रयास करना है। यह कोई शौक या खेल-कूद जैसा गौण कार्य नहीं है जिसे हम हर दिन आधा घंटा, या बहुत थकान हो जाने पर काम खत्म करने के बाद सप्ताह में एक बार करते हों। बल्कि यह तो एक ऐसा व्यावहारिक कार्य है जिसे हम हर समय करते रहने का प्रयास करते हैं – सदैव आत्म सुधार करते रहते हैं। इसका यह मतलब है कि हम अपने दोषों और गुणों को पहचाने, और फिर अपने दोषों के प्रभाव को कम करने वाली और गुणों को सुदृढ़ करने वाली विधियों को सीखें। उद्देश्य यह होता है कि अन्ततः हम अपने आपको अपने समस्त दोषों से मुक्त कर लें और सभी गद्गुणों को पूरी तरह सिद्ध कर लें। ऐसा केवल अपने लाभ के लिए ही नहीं किया जाता है, हालाँकि इससे हमें अधिक सुखी जीवन का लाभ निश्चित तौर पर प्राप्त होगा। इसका यह उद्देश्य भी होता है कि हम दूसरों की सहायता करने में अधिक प्रभावी हो सकें, और इस प्रकार यह दूसरों के लिए भी लाभदायक होगा। यही बौद्ध साधना का उद्देश्य है। इस साधना को बौद्ध स्वरूप उन विधियों के कारण मिलता है जिनका उपयोग इन लक्ष्यों की प्राप्ति के योग्य बनने के लिए किया जाता है, और शरणागति का अर्थ है कि हम उन विधियों की ओर रुख करते हैं और उन्हें अपने जीवन में अपनाते हैं।

वीडियो: रिंगु तुल्कु – धर्म साधना क्या है?
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शरणागति कोई निष्क्रिय साधना नहीं है

त्रिरत्नों – बुद्धजन, धर्म और संघ – की शरण लेना सभी बौद्ध शिक्षाओं के केंद्र में होता है। दरअसल शरण लेने को बौद्ध होने या न होने के बीच की विभाजक रेखा के रूप में देखा जाता है। संक्षेप में, धर्म आत्मसुधार के लिए उपयोग की जाने वाली विधियों और उस लक्ष्य को दर्शाता है जिसे हम सभी हासिल कर सकते हैं; बुद्धजन वे हैं जिन्होंने इन विधियों की शिक्षा दी है और उस लक्ष्य को पूरी तरह से हासिल करके दिखाया है; और संघ से आशय उन लोगों से है जिन्होंने उस लक्ष्य को अंशतः हासिल किया है। वस्तुतः “धर्म” शब्द का अर्थ “निवारक उपाय” होता है – ऐसे कदम जिन्हें हम अपने लिए और सम्भवतः दूसरों के लिए भी समस्याओं के उत्पन्न होने को रोकने के लिए उठाते हैं। ये ऐसे कदम हैं जिन्हें हम अपनी रक्षा के लिए उठाते हैं।

हालाँकि मूल संस्कृत शब्द शरण जिसका अनुवाद “आश्रय” के रूप में किया जाता है, का अर्थ “रक्षा” होता है और उसका प्रयोग “रक्षास्थल” के रूप में भी किया जा सकता है, हमें इस शब्द को ठीक ढंग से समझना होगा। यह अर्थ धर्म शब्द के अर्थ के अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि हमें सिर्फ अपने आप को निष्क्रिय भाव से किसी ऐसी बाहरी शक्ति के सामने समर्पित कर देते हों जो हमारी रक्षा प्रदान करेगी। बौद्ध संदर्भ में “शरण लेना” एक बहुत ही सक्रिय प्रक्रिया है; अपनी रक्षा के लिए हमें कुछ प्रयास करना होता है।

एक उदाहरण देखें जिसका प्रयोग मेरे शिक्षकगण अक्सर किया करते थे। मान लीजिए कि वर्षा हो रही हो और नज़दीक ही कोई गुफा हो। यदि हम केवल इतना ही कहें, “मैं आश्रय के लिए इस गुफा की ओर जाता हूँ,” और फिर बाहर बारिश में खड़े-खड़े इस वाक्यांश को दोहराते रहें, तो इससे कोई लाभ नहीं होनने वाला है। हमें सचमुच गुफा के भीतर जाना होगा। उसी प्रकार, यदि हम बस यह कहते रहें, “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, धर्म, और संघ की शरण लेता हूँ और आश्रय के लिए उनके पास जाता हूँ,” लेकिन यदि मैं सचमुच उनकी दिशा में न जाऊँ और उनके मार्ग को अपने जीवन में न अपनाऊँ, तो इससे कोई लाभ नहीं होने वाला है। समस्याओं से अपनी रक्षा करने के लिए हमें उन बातों को क्रियान्वित करना होगा जिन्हें ये तीनों प्रदर्शित करते हैं। यही कारण है कि मैं इसके लिए “सुरक्षित दिशा” और “अपने जीवन को सुरक्षित दिशा में मोड़ने” जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग करता हूँ।

गुफा के प्रतीक की चर्चा को जारी रखते हुए हम कह सकते हैं कि हम गुफा के भीतर जाकर वहाँ इस आशा में खड़े रहते हैं कि उससे हम केवल भीगने से बचने के साथ-साथ अपने जीवन की सभी समस्याओं से बच जाएंगे। मुद्दे की बात यह है कि हमें लगातार आत्मसुधार के लिए प्रयास करते रहना पड़ता है ताकि हम उन आदर्शों तक पहुँच सकें जिन्हें बुद्ध, धर्म, और संघ के रूप में दर्शाया गया है। जब हम ऐसा समझते हैं बुद्ध, धर्म, और संघ की शरण में आ जाना ही काफी है, तो इस बात की बहुत सम्भावना होती है कि हम इसे ईसाई धर्म के किसी निजी रक्षक के विचार के साथ मिलाकर देखने लगें और यह समझने लगें कि बुद्ध किसी प्रकार से हमारी रक्षा करने वाले हैं। उस स्थिति में हम बुद्ध को किसी ईश्वर के रूप में देखते हैं और संघ को संतों के समूह के रूप में देखते हैं। क्योंकि पश्चिम जगत के अधिकांश समाजों में ईसाई धर्म के प्रभाव की अन्तर्धारा का प्रवाह होता है। इस प्रकार की सोच के कारण हम प्रार्थना करते हैं कि कोई दैवी शक्ति चमत्कार से हमारी रक्षा करेगी। बौद्ध शब्दावली का प्रयोग किया जाए तो, वह शक्ति अपने चमत्कार से हमें सभी समस्याओं और दुखों से मुक्त कर देगी।

यदि ऐसा होता तो हमें बस इतना भर करना होता कि हम तिब्बती भाषा में कोई बौद्ध नाम रख लेते, लाल धागा धारण करते, किसी मंत्र के चमत्कारी शब्दों का उच्चारण करते, खूब प्रार्थना करते, और किसी न किसी तरह से हमारी रक्षा हो जाती। खास तौर पर तब जब हम प्रार्थनाओं और साधनाओं का उच्चारण तिब्बती भाषा में करते हैं, जिसके एक शब्द का भी अर्थ हमें मालूम नहीं होता है, उस स्थिति में हमें लगता है उसकी आध्यात्मिक शक्ति और भी बढ़ जाती है। द्ज़ोंग्सार ख्येंत्से रिंपोशे नाम के एक बहुत ही महान लामा कुछ समय पहले बर्लिन आए थे, जहाँ मैं रहता हूँ। उन्होंने एक बहुत ही गूढ़ बात कही। उन्होंने कहा कि यदि तिब्बती लोगों को अपनी सभी साधनाओं का उच्चारण जर्मन भाषा में करना हो, जिसे तिब्बती वर्णमाला में लिप्यंतरित किया गया हो, और उन्हें अपने द्वारा उच्चारित बातों का अर्थ बिल्कुल भी न पता हो, तो उस दृष्टि से कितने तिब्बती लोग सही अर्थ में बौद्ध साधना करते होंगे। ज़ाहिर है कि उनकी बात सुनकर सभी हँसने लगे। लेकिन यदि हम इसके बारे में विचार करें, तो यह बहुत गहरी बात है, है न? यह बहुत महत्वपूर्ण है कि यदि हम ऐसा समझते हों कि शरणागति हमारी सभी समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान है, और हमें केवल इतना भर करना है कि हम किसी श्रेष्ठतर शक्ति के आगे स्वयं को समर्पित कर दें, तो हमें अपनी इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करना चाहिए।

यहाँ असल मुद्दा यह है: “मैं अपने जीवन को किस दिशा में ले जा रहा हूँ?” “क्या मेरा जीवन किसी दिशा में बढ़ रहा है?” हममें से बहुत से लोगों को यह समझने की आवश्यकता है कि हमारे जीवन में कोई प्रगति नहीं हो रही है; वह तो बस एक चक्र में घूमता हुआ दिखाई दे रहा है। यहाँ हमें पुनर्जन्म के गहरे चक्र की दृष्टि से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन बस इतना है कि हमारा जीवन किसी भी दिशा में नहीं बढ़ रहा है, और निरर्थक दिखाई देता है। आखिर हम किस लिए जीवित हैं? इस तरह का भाव आना एक बड़ी दुखद अवस्था है, है न? यह कोई बहुत सुखकर अवस्था नहीं है। इसलिए, यह आवश्यक है कि हमारे जीवन की कोई सार्थक दिशा हो, हमारे जीवन का कोई प्रयोजन या लक्ष्य हो। और यही हमें अपने जीवन के लिए निर्धारित करने की आवश्यकता है। यह एक क्रियात्मक प्रक्रिया है। इससे हम स्वयं को अधिक सकुशल और सुरक्षित अनुभव करते हैं, है न?

रिंगु तुल्कु : क्या बौद्ध धर्म एक निष्क्रिय धर्म है?
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अपने जीवन में कोई सार्थक लक्ष्य निर्धारित करना

हम अपने जीवन के लिए किस प्रकार का लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं? सामान्यतया हम उस लक्ष्य को इस प्रकार परिभाषित करते हैं कि इस समय हम एक असंतोषजनक स्थिति में जी रहे हैं और अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित करके उस स्थिति से बाहर निकलना चाहते हैं। सबसे बुनियादी स्तर पर हम कह सकते हैं कि हर कोई सुख चाहता है और कोई भी दुख नहीं चाहता है। बौद्ध धर्म में यह बात किसी सिद्धप्रमाण के रूप में कही गई है, और इसमें एक प्रकार का जीववैज्ञानिक सत्य भी है। हम पीड़ा से बचना चाहते हैं। हम दुख से बचना चाहते हैं। हम कठिनाई से दूर रहना चाहते हैं। यहाँ तक कि कीड़े-मकोड़े और कृमिजीव तक ऐसा चाहते हैं, है न? वही हमारा लक्ष्य है।

अब प्रश्न यह है कि हम कितने दुख या असंतोष की बात कर रहे हैं? जो लक्ष्य हम निर्धारित करना चाहते हैं, क्या वह इस समस्या का समाधान करने के अलावा हमारी दूसरी समस्याओं को भी हल कर सकेगा? उदाहरण के लिए, हमारी यह समस्या हो सकती है कि हम गरीब हैं, आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहे हैं, और इसलिए हमारा लक्ष्य है कि हम कोई अच्छा रोज़गार तलाश करें और बहुत सारा धन कमाएं। यदि कोई अच्छी नौकरी न हो, तो हो सकता है कि हम कोई सफल अपराधी बन जाएं और बहुत जल्दी अमीर बन जाएं। हम कुछ भी करें, किसी भी तरह बहुत सारा धन कमा लें। लेकिन, यदि हम ऐसे लोगों को देखें जिनके पास बहुत सारा धन है और उनसे बात करें और यदि वे ईमानदारी से हमें अपने जीवन के बारे में बताएं, तो हमें पता चलता है कि मूलतः ऐसे लोग आवश्यक रूप से सुखी नहीं हैं। उन्हें कभी भी अपना धन पर्याप्त नहीं लगता। वे चाहे जितना भी धन क्यों न कमा लें, उन्हें और कमाने की लालसा बनी ही रहती है। वे कभी संतुष्ट नहीं होते हैं।

मुझे यह बात बड़ी रोचक लगती है। उदाहरण के लिए, ऐसे भी लोग हैं जिनके पास एक बिलियन डॉलर की दौलत हुआ करती थी, लेकिन विश्व की मौजूदा आर्थिक कठिनाइयों के कारण अब उनके पास आधा बिलियन डॉलर ही बचे हैं। वे लोग अब किसी प्रकार का दान नहीं देते और किसी प्रकार के परमार्थ के कार्यों में हिस्सा नहीं लेते, क्योंकि अब उनके पास आधा बिलियन डॉलर ही बचे हैं और वे अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें अपने पैसे की बचत करनी चाहिए और किसी प्रकार वापस एक बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुँचना चाहिए ताकि वे दूसरों के साथ अपनी दौलत को बांट सकें। ऐसी स्थिति में वे हर समय स्टॉक मार्केट की रिपोर्टों को ही देखते रहते हैं और हर दिन इसी चिंता में घुलते रहते हैं कि कहीं उन्हें नुकसान न हो जाए और उनकी वर्तमान दौलत और न घट जाए। उन्हें निजी सुरक्षाकर्मियों को रखने की और दूसरे सुरक्षा उपाय अपनाने की आवश्यकता पड़ सकती है, क्योंकि उन्हें इस बात का भय होता है कि लोग उनके घरों में चोरी कर सकते हैं या उनके बच्चों का अपहरण कर सकते हैं। लातिनी अमेरिका में अमीर लोगों के बीच यह एक आम बात है। इसके अलावा, उन्हें कभी ऐसा नहीं लगता है कि दूसरे लोग उनसे पैसा लेने की कोशिश करने के अलावा और किसी कारण से उनके साथ मित्रता का व्यवहार करते हैं। उन्हें हमेशा यह शक बना रहता है कि यदि कोई व्यक्ति उनके साथ अच्छा व्यवहार कर रहा है तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसकी नज़र उनके पैसे पर है। ज़ाहिर है, बेशक उन्हें गरीब होने की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है, लेकिन बहुत सारी दौलत होने के कारण उनके सामने दूसरी बहुत सारी समस्याएं होती हैं।

सांसारिक लक्ष्य अस्थायी होते हैं

बहुत सारा धन अर्जित करने के अलावा बौद्ध धर्म में और भी कई प्रकार के तथाकथित “सांसारिक लक्ष्य” बताए गए हैं। लेकिन सांसारिक के लिए अंग्रेज़ी भाषा में प्रयोग किए जाने वाले “वर्ल्डली” शब्द का लक्ष्यार्थ नकारात्मक होता है और लगभग आलोचनात्मक प्रतीत होता है। मुद्दा यह नहीं है। मेरे गुरु सरकांग रिंपोशे ने बताया था कि तिब्बती भाषा के जिस जिग-तेन शब्द का अनुवाद “वर्ल्डली” के रूप में किया जाता है, उसके दो शब्दांश ही वास्तविक अर्थ को ध्वनित करते हैं। उन शब्दांशों का अर्थ है कोई ऐसी चीज़ जिसका कोई आधार हो (तेन) जो विखंडित (जिग) हो जाने वाला हो। यदि हम कोई ऐसा लक्ष्य तय करना चाहते हैं जो टुकड़े-टुकड़े हो जाने वाला हो, तो ज़ाहिर है कि उससे स्थायी सुख नहीं मिल सकता है। उससे तो और अधिक समस्याएं उत्पन्न होंगी, क्योंकि उसका कोई दृढ़ आधार नहीं है।

उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि हमारे जीवन का यह लक्ष्य हो कि हमारा एक बहुत अच्छा परिवार हो, हम इस पूर्वधारणा के साथ बहुत सारे बच्चों का लालन-पालन करें कि हमारे बुढ़ापे में वे हमारी देखभाल करेंगे, और हम सुखी और सुरक्षित होंगे। लेकिन, यह सब इतने आदर्श रूप में फलित नहीं होता है, क्या होता है? प्रसिद्ध होने के लिए प्रयास करना इसका एक और उदाहरण है। हम जितने ज़्यादा लोकप्रिय होते जाएंगे, लोग हमें उतना ही अधिक तंग करेंगे और हमारा समय लेने का प्रयास करेंगे। हम सिनेमा के सितारों के उदाहरण को देख सकते हैं जो किसी तरह से अपनी पहचान छुपाए बिना बाहर तक नहीं निकल सकते हैं क्योंकि लोग उन्हें घेर लेते हैं और उनके कपड़े तक फाड़ डालना चाहते हैं। दरअसल एक सुपरस्टार होने अपने आप में एक बड़ी मुसीबत है।

यदि हम अपने जीवन को गम्भीरता से देखें, तो केवल भौतिक रूप से किसी प्रकार की आरामदेह स्थिति या हमारे आसपास के लोगों के साथ भावात्मक स्तर पर सुविधाजनक स्थिति का होना ही इस दृष्टि से पर्याप्त नहीं है कि इसकी सहायता से हम अपने जीवन की समस्याओं पर विजय पा सकेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि यदि उसके बाद भी हम क्रोध, आसक्ति, लोभ, अहंकार, नासमझी आदि से ग्रस्त रहेंगे तो हमारी समस्याएं फिर भी बनी रहेंगी, फिर हम तथाकथित “सांसारिक” स्तर पर कितने ही सफल क्यों न हो जाएं।

अशांतकारी मनोभाव

बौद्ध धर्म में भविष्य के जन्मों और उन खराब स्थितियों की चर्चा की जाती है जो भविष्य के जन्मों में हमारे साथ उस स्थिति में उत्पन्न हो सकती हैं यदि हम कथित “अशांतकारी मनोभावों” के प्रभाव में बने रहें और उनके आधार पर बाध्यकारी ढंग से व्यवहार करते रहें और नकारात्मक संभाव्यताएं संचित करते रहें। बौद्ध प्रस्तुति में इस बात को स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि यह स्थिति बहुत खराब है और यदि हम जानते हों कि क्या हमारे लिए हितकारी है तो हमें उस स्थिति से बचना चाहिए, क्योंकि नकारात्मक संभाव्यता से समस्याओं और दुख की उत्पत्ति होती है।

लेकिन, चूँकि पश्चिम जगत के अधिकांश लोग भविष्य के जन्मों को नहीं मानते हैं या उनमें यकीन नहीं रखते हैं, इसलिए हम इस विषय की चर्चा केवल इस जन्म की दृष्टि से भी कर सकते हैं। यदि हम अपने जीवन की वर्तमान स्थिति को देखें और गहराई से जाँच करें तो हम पाते हैं कि हमारी भावात्मक समस्याओं का वास्तविक स्रोत आंतरिक है। बाहरी कारक तो केवल वे परिस्थितियाँ हैं जिनके कारण समस्याएं शुरू होती हैं। वह स्रोत दरअसल हमारे अशांतकारी मनोभाव हैं – हमारा क्रोध, आसक्ति, लोभ आदि – जो हमारे चित्त की शांति और सुख को छीन लेते हैं। वही हमें अपने भीतर के सद्गुणों का उपयोग करने से रोकते हैं। हो सकता है कि हम किसी की सहायता करने का प्रयास करें, और यह एक अच्छा गुण है, लेकिन हम उसी व्यक्ति पर क्रोधित हो जाते हैं। हम उसे अच्छी सलाह देने की कोशिश करते हैं, लेकिन वह हमारी सलाह को नहीं मानता है या हमारे साथ बहस करता है तो हम अपना धैर्य खो बैठते हैं। ये अशांतकारी मनोभाव हमें किसी की भी सहायता करने में बाधक बनते हैं।

यह उस समय खास तौर पर कठिन हो जाता है जब हमारे बच्चों के साथ यह स्थिति बनती है, जब हम धैर्य खोकर अपने बच्चों से नाराज़ हो जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि हमें मालूम है कि उनके लिए क्या अच्छा है और बच्चे हमारे बताए गए अनुसार चलने से मना कर देते हैं। ऐसी स्थिति में हमारे बच्चों के साथ हमारे सम्बंध बहुत खराब हो जाते हैं, है न? यहाँ समझने वाली बात यह है कि यदि हम इस स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नहीं करते हैं तो हमारे सम्बंध और खराब होते चले जाएंगे। हो सकता है कि हमारी उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम थोड़े नरम पड़ जाएं क्योंकि तब हमारे अंदर बहुत ज्यादा ऊर्जा शेष नहीं रहती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हमारा क्रोध और इस प्रकार के मनोभाव अपने आप खत्म हो जाते हैं। समय के साथ उनका प्रभाव खत्म नहीं हो जाता है।

इस प्रकार की सम्भावनाओं के दृष्टिगत हमें जिस भाव को विकसित करने की आवश्यकता होती है उसके लिए बौद्ध धर्म में “भय” शब्द का प्रयोग किया जाता है। लेकिन हमारी अधिकांश भाषाओं में “भय” एक मुश्किल शब्द है। उसकी प्रतिष्ठा बहुत अच्छी नहीं है। कभी-कभी मैं इसके स्थान पर “त्रास” शब्द का प्रयोग करना पसंद करता हूँ, लेकिन दूसरी भाषाओं में इसका अनुवाद करना इतना आसान नहीं है। “त्रास” शब्द में यह भाव अधिक होता है कि, “मैं सचमुच नहीं चाहता कि ऐसा हो।“ उदाहरण के लिए, कल्पना कीजिए कि हमें कार्यस्थल पर किसी बहुत उबाऊ बैठक में शामिल होने के लिए जाना हो। ऐसा नहीं है कि हम उस बैठक में जाने से डरते हैं, लेकिन हम उसमें जाने से भय खाते हैं। बस हम उस कार्य को करना नहीं चाहते हैं।

लेकिन और अधिक सटीकता के लिए हमें भय के दो प्रकारों के बीच फर्क करना होगा कि हम भविष्य के भयानक पुनर्जन्म के भय की बात कर रहे हैं, या तकलीफदेह बुढ़ापे के भय या किसी और भय की बात कर रहे हैं। एक ऐसा भय होता है जिससे बाहर निकलने का हमें कोई रास्ता दिखाई नहीं देता है, और हम अपने आप को असहाय और हताश महसूस करते हैं। ऐसा भय जो हमें बिल्कुल पंगु बना देता है, ऐसा होता है न? हालाँकि हमें अक्सर ऐसे भय की अनुभूति होती है, लेकिन मैं मानता हूँ कि इस प्रकार का भय अस्वास्थ्यकर होता है। लेकिन शरणागति के संदर्भ में जिस प्रकार के भय की चर्चा की जाती है वह एक विशिष्ट और अलग प्रकार का भय है, क्योंकि हम देख पाते हैं कि समस्याओं से बचने का मार्ग उपलब्ध है। इसलिए वह निराश करने वाला नहीं होता है, और हम बिल्कुल भी असहाय नहीं होते हैं। लेकिन, जैसाकि मैंने पहले कहा, ऐसा नहीं है कि कोई दैवी शक्ति या सत्ता हमें हमारी भयावह स्थिति से बचाने के लिए आएगी, बस हमें पूरे परिश्रम से प्रार्थना करने की आवश्यकता है और हम अपने भय से मुक्त हो जाएंगे और हमारी रक्षा हो जाएगी।

बात यह है कि एक प्रकार से हम स्वयं अपनी रक्षा कर सकते हैं। ऐसा क्या है जो हमें अपने जीवन की समस्याओं से बचने के योग्य और सक्षम बना सकता है? क्या है जो इसे सम्भव कर सकता है? व्यापक संदर्भ में यह बात कि समस्याएं उत्पन्न करने वाले ये सभी अशांतकारी मनोभाव – हमारा क्रोध, लोभ, आसक्ति आदि – ये सभी यथार्थ के बारे में मिथ्याबोध के कारण उत्पन्न होते हैं। वास्तविकता यह है कि ये सभी अशांतकारी मनोभाव चित्त के अन्तर्जात गुण नहीं हैं। इन्हें हमेशा के लिए इस तरह दूर किया जा सकता है कि वे फिर कभी उत्पन्न ही न हों। धर्म रत्न बताता है कि इनका “यथार्थ रोधन” किया जा सकता है।

चित्त या मानसिक क्रियाकलाप

बौद्ध धर्म में जब हम चित्त के बारे में चर्चा करते हैं तो हम इसके बारे में बहुत गहराई से विस्तार में जाए बिना, मानसिक क्रियाकलाप के बारे में बात कर रहे होते हैं। यह क्षण-प्रति-क्षण का क्षणवार मानसिक क्रियाकलाप होता है जो उस समय भी चल रहा होता है जब हम नींद में होते हैं। चित्त से हमारा आशय उस मानसिक क्रियाकलाप के व्यक्तिपरक अनूभूति पक्ष से होता है, जबकि मस्तिष्क विज्ञान उसके शरीरवैज्ञानिक आधार की चर्चा करता है। दोनों ही स्थितियों में उस मानसिक क्रियाकलाप की मूल प्रकृति भ्रमित होने की नहीं होती है या क्रोध, या इस प्रकार के किसी भी मनोभाव से ग्रस्त होने की नहीं होती है। दरअसल प्रत्येक क्षण में जिस चीज़ की उत्पत्ति होती चली जाती है उसे हम एक मानसिक होलोग्राम (त्रिआयामी छवि) कह सकते हैं। उदाहरण के लिए, भौतिक दृष्टि से फोटोन (प्रकाशाणु) हमारी आखों में प्रवेश करते हैं और इससे एक प्रकार का विद्युत आवेग उत्पन्न होता है जो न्यूरोट्रांसमिटर्स के माध्यम से हमारे मस्तिष्क में पहुँचता है, और फिर मस्तिष्क इनकी सहायता से किसी प्रकार एक आंतरिक होलोग्राम तैयार करता है। इसे ही हम किसी चीज़ को “देखना” कहते हैं, है न? बेशक, यदि यह प्रक्रिया मनुष्य की आँख की कोशिकाओं के बजाए किसी मकड़ी या मक्खी की आँख की कोशिकाओं के माध्यम से होगी तो बहुत अलग होगी। इसी प्रकार कंपनों, जिन्हें हम “ध्वनि तरंगे” कहते हैं की ऐसी ही प्रक्रिया के माध्यम से हमें सुनने की अनुभूति होती है। मानसिक होलोग्राम किसी भी इन्द्रिय से सम्बंधित हो सकते हैं या फिर केवल विचार के भी मानसिक होलोग्राम हो सकते हैं।

देखने की प्रक्रिया वैसी नहीं होती है जैसे किसी कैमरे में फोटोन प्रवेश करते हैं और फिर किसी प्रकार के विद्युत आवेग में परिवर्तित होकर किसी चित्र का निर्माण करते हैं। यह प्रक्रिया देखने की प्रक्रिया जैसी नहीं होती है क्योंकि किसी चीज़े के मानसिक होलोग्राम की उत्पत्ति होने के कारण उसके साथ किसी प्रकार का “संज्ञानात्मक सम्बंध” भी होता है। आप या तो किसी चीज़ के प्रति चेतन होते हैं या अचैतन्य होते हैं, अभिज्ञ होते हैं या अनभिज्ञ होते हैं, लेकिन वह भी किसी तरह का संज्ञानात्मक गुण है।

मानसिक क्रियाकलाप भी किसी कम्प्यूटर के क्रियाकलाप के जैसा नहीं होता है। हम कम्प्यूटर की छोटी-छोटी कुंजियों को दबाते हैं और कोई विद्युत आवेग मशीन तक पहुँचता है, और फिर मशीन उस आवेग को किसी चित्र में परिवर्तित कर देती है जो स्क्रीन पर दिखाई देता है या किसी ध्वनि में परिवर्तित कर देती है जो स्पीकर के माध्यम से सुनाई देता है। हम कह सकते हैं कि कम्प्यूटर एक दृष्टि से किसी प्रकार के संज्ञानात्मक बोध से युक्त होता है क्योंकि वह कृत्रिम बुद्धिमत्ता की सहायता से सूचना को संसाधित करता है। लेकिन कम्प्यूटर किसी मनुष्य के समान नहीं होता है। जो गुण हमें कम्प्यूटर से अलग करता है वह यह है कि हमारे मानसिक क्रियाकलाप के साथ किसी न किसी स्तर पर सुख या दुख भी जुड़े होते हैं। कम्प्यूटर के मामले में ऐसा नहीं है। कम्प्यूटर किसी भी बात को लेकर खुश या दुखी नहीं होता है। कम्प्यूटर इस प्रकार नहीं सोचता है, “ओह, अभी मेरे भीतर एक आंतरिक त्रुटि हुई, और जब मैंने रीबूट किया, तब मैंने उस फाइल को ही डिलीट कर दिया जिस पर मैं काम कर रहा था” और फिर इस बात को लेकर दुखी नहीं होता है। ऐसा नहीं है, क्या ऐसा होता है? वहीं दूसरी ओर, यदि हमारे साथ ऐसा कुछ घटित हो जाए तो हम बहुत दुखी हो जाते हैं।

इस तरह का मानसिक क्रियाकलाप हमारे जीवन के हर क्षण, हर पल में चलता ही रहता है। उसके साथ ही किसी प्रकार का मानसिक होलोग्राम उत्पन्न होता है, उसके साथ किसी तरह का मानसिक सम्बंध होता है, और किसी न किसी स्तर पर सुख या दुख का भाव जुड़ा होता है। जब हम नींद में होते हैं तब भी उत्पन्न होने वाला होलोग्राम अंधेरे का हो सकता है और सम्बंध इस बात का हो सकता है कि हम अनभिज्ञ हैं। लेकिन तब भी कुछ न कुछ चेतनता बनी रहती है, यदि ऐसा न होता तो हमें घड़ी के अलार्म की आवाज़ कभी सुनाई न देती। चित्त की क्रिया पूरी तरह बंद नहीं होती है। जब हम कोई स्वप्न देख रहे होते हैं तब किसी न किसी तरह का भाव होता है, यहाँ तक कि तटस्थता का भाव हो सकता है, न खुश और न ही दुखी। जब हम कोई स्वप्न देखते हैं तो जाहिर है कि उसमें खुश या दुखी होने का कोई न कोई भाव तो होता ही है, साथ ही क्रोध, लोभ, और ऐसे ही दूसरे मनोभाव भी हो सकते हैं। लेकिन ये अशांतकारी मनोभाव क्षण-प्रति-क्षण चलने वाली इस पूरी प्रक्रिया का आवश्यक हिस्सा नहीं होते हैं।

स्वाभाविक है कि ऐसी बहुत सारी जटिल विचार पद्धतियाँ हैं जिनकी सहायता से हम अपने मानसिक क्रियाकलाप की बुनियादी शुद्धता के बारे में और अधिक विश्वास हासिल कर सकते हैं। अभी यह अवसर उनके बारे में बात करने का नहीं है। लेकिन, हम इसके बारे में जितना अधिक विचार करते हैं, हमें उतना ही अधिक विश्वास होता जाता है कि हमारे मानसिक क्रियाकलाप से जुड़े अशांतकारी विषयों से मुक्ति पाना संभव है।

अशांतकारी मनोभाव की परिभाषा के अनुसार यह एक ऐसा भाव है जिसके उत्पन्न हो जाने पर हमारे चित्त की शांति भंग हो जाती है और हम अपने ऊपर नियंत्रण खो देते हैं। नतीजतन हम क्रोध, लोभ आदि से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के बाध्यकारी व्यवहार करने लगते हैं, और इसके कारण अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, हम आत्म-नियंत्रण खोकर बिना सोचे-विचारे किसी दूसरे पर चीखने-चिल्लाने लगते हैं और बाद में हमें अपनी कही हुई बातों पर पछतावा होता है। फिर भी, इसके कारण से तथाकथित “नकारात्मक संभाव्यता” तो निर्मित हो ही जाती है जिसके कारण हमें बाद में दुख भोगना पड़ता है।

यदि हम वास्तव में गहन स्तर पर भविष्य में उत्पन्न हो सकने वाली समस्याओं से बचना चाहते हैं तो हमें इन सभी अशांतकारी मनोभावों और इस भ्रम से मुक्त होना होगा। इनसे मुक्ति पाना दरअसल संभव है क्योंकि ये मनोभाव चित्त की सहज प्रकृति, इस मानसिक क्रियाकलाप का हिस्सा नहीं होते हैं। इसके अलावा, यदि हम हर क्षण चलने वाले इस मानसिक क्रियाकलाप के बारे में और अधिक विचार करें, तो इसकी एक विशेषता यह है कि इस मानसिक क्रियाकलाप की सहायता से विषयों का बोध हासिल कर पाना संभव है। हम किसी विषय को जान सकते हैं। हमारे भीतर प्रेम और करुणा आदि जैसे दूसरे सकारात्मक गुण भी हो सकते हैं। हम इन सकारात्मक गुणों को और अधिक विकसित कर सकते हैं।

अब इनमें अंतर क्या है? अशांतकारी मनोभाव भ्रम पर आधारित होते हैं। बोध जैसी सकारात्मक अवस्थाएं यथार्थ पर आधारित होती हैं। एक सामान्य उदाहरण देखें: भ्रम के कारण हम यह विचार कर सकते हैं, “मैं इस ब्रह्मांड का केंद्र बिंदु हूँ। मैं ही सबसे महत्वपूर्ण हूँ। हमेशा मेरी मर्ज़ी ही चलनी चाहिए। सबका ध्यान हमेशा मेरे ही ऊपर केंद्रित रहना चाहिए,” आदि। यही कारण है कि जब हम आकर्षण का केंद्र नहीं होते हैं और जब चीज़ें हमारी मर्ज़ी के मुताबिक नहीं चलती हैं, तो हम क्रोधित हो जाते हैं। किसी कुत्ते की भांति हम या तो किसी पर भौंकते हैं या गुर्राते हैं। “तुमने यह काम वैसे नहीं किया जैसे मैं चाहता हूँ।“ यह सब भ्रम या मिथ्यादृष्टि के कारण होता है। वास्तविकता तो यह है कि यहाँ हम सभी बराबर हैं। हर कोई चाहता है कि चीज़ें उसकी इच्छा के मुताबिक ही हों, लेकिन यह सम्भव नहीं है। यथार्थ यह है कि हमें सभी के साथ मिलकर रहना सीखना चाहिए।

यथार्थ रोधन

इस बात की हम जितनी अधिक जाँच करते हैं, हमें उतना ही अधिक यह समझ में आता है कि हमारा भ्रम अपने आप टिक नहीं पाता है। वह मिथ्या है। वहीं दूसरी ओर सही बोध सत्यापन योग्य होता है। वह सत्य है। यही कारण है कि सत्य पर आधारित बोध भ्रम से अधिक वज़नी होता है। यदि हम एकाग्रता और अनुशासन की सहायता से यथार्थ के सही बोध को हर समय कायम रख सकें तो भ्रम को दोबारा उत्पन्न होने का कभी अवसर ही नहीं मिलेगा। वह समाप्त हो जाएगा।

यही शरणागति का मुख्य बिंदु है। हम अपने जीवन को कौन सी दिशा दे रहे हैं? कैसा अर्थ दे रहे हैं? हम अपने लिए कैसा लक्ष्य निर्धारित करने वाले हैं? वह लक्ष्य यह है कि हम इस समस्त भ्रम का “यथार्थ रोधन” कर सकें, उससे पूरी तरह मुक्त हो जाएं ताकि वह दोबारा फिर कभी उत्पन्न ही न हो सके। चाहे इस जन्म का सम्बंध हो या हमारे भविष्य के जन्मों की बात हो, यह भ्रम ही हमारी समस्याओं का वास्तविक कारण है। उससे पूरी तरह, हमेशा के लिए मुक्ति पाना सम्भव है, क्योंकि वह हमारे मानसिक कार्यकलाप का अंतर्जात गुण नहीं है। हम उसे सही बोध से प्रतिस्थापित करके उससे मुक्ति पा सकते हैं। जब हम भ्रम से मुक्त हो जाते हैं तो हमारे भीतर अशांतकारी मनोभाव भी उत्पन्न होना बंद हो जाते हैं और हम स्वयं अपने लिए समस्याएं और दुख उत्पन्न नहीं करते हैं।

यहाँ इसके दो पहलू होते हैं। एक तो यह कि हम इस अशांतकारी पक्ष से हमेशा के लिए मुक्त हो सकते हैं, और दूसरा पहलू यह है कि हम सकारात्मक पक्ष की वृद्धि और विकास कर सकते हैं। सही बोध सकारात्मक पक्ष है। हम इस बात को “चार आर्य सत्यों” के परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं जो बुद्ध की शिक्षाओं का प्रमुख विषय हैं। पहला सत्य यह है कि दुख सत्य है, जिसका सम्बंध हमारी विभिन्न प्रकार की अनेकानेक समस्याओं से होता है। अगला सत्य यह है कि इस दुख के यथार्थ कारण हैं, और हमारा भ्रम ही वह कारण है। तीसरा सत्य यह है कि इस भ्रम का इस प्रकार से यथार्थ रोधन कर पाना सम्भव है कि वह फिर कभी उत्पन्न ही न हो सके। और अंत में, हम उस यथार्थ रोधन को “यथार्थ मार्ग” के माध्यम से सम्भव बनाते हैं। किन्तु, “मार्ग” शब्द का प्रयोग करते समय हमें यह समझना चाहिए कि यह “बोध हासिल करने की एक ऐसी प्रक्रिया है जो मार्ग के रूप में कार्य करती है।“ वह बोध या ज्ञान ही इस यथार्थ रोधन को सम्भव करेगा, और वह बोध सभी अशांतकारी कारकों से मुक्ति प्राप्त कर लेने के परिणामस्वरूप हासिल होगा।

स्पष्ट है कि हम अपने जीवन को यही दिशा देना चाहते हैं – यह दिशा निरोध सत्य और मार्ग सत्य को प्राप्त करने की दिशा है। इसे ही धर्म की शरण में आना कहते हैं। जब हम कहते हैं कि हम आत्मसुधार के लिए प्रयासरत हैं, जब हम इस शब्दावली का प्रयोग करते हैं तो हमारा आशय यही होता है।

हम इस अशांतकारी पक्ष से मुक्ति पाने के लिए अधिक से अधिक प्रयास करते हैं, और इस सकारात्मक अवस्था को पाने के लिए अपनी क्षमताओं का अधिक से अधिक विकास करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। ऐसा हम इसलिए करते हैं क्योंकि हमें यह भय, जोकि सकारात्मक होता है, रहता है कि यदि हम जैसे हैं वैसे ही बने रहेंगे तो फिर भले ही हमें बहुत सारा धन मिल जाए, भले ही हमारे बहुत से मित्र-हितैषी हों और भले ही हमें कितनी ही प्रसिद्धि मिल जाए, हमारी समस्याएं फिर भी हमारे साथ बनी रहेंगी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम फिर भी लोभ और असुरक्षा जैसी चीज़ों से मुक्त नहीं हो पाएंगे। हम क्रोध आदि से फिर भी प्रभावित होते रहेंगे। हमें इस स्थिति का भय तो रहता है, किन्तु हमें यह बोध होता है कि इससे बचने का उपाय है। यह वैसा ही है जैसे हम आग से झुलसने से भयभीत हों, किन्तु हम यह जानते हों कि यदि हम सावधानी बरतें तो हम घायल होने से बच सकते हैं। एक भय का भाव होता है, किन्तु यह भय स्वस्थ और सकारात्मक होता है। यहाँ हम विभ्रम की बात नहीं कर रहे हैं।

हम इस बात को समझ पाते हैं कि यदि हम अपने सम्बंधियों और मित्रों पर क्रोधित होते रहें, उन पर चीखना-चिल्लाना जारी रखें, तो बूढ़े हो जाने पर हमारा क्या होगा? हम एक ऐसे वृद्ध व्यक्ति के रूप में अकेले छूट जाएंगे जिससे मिलने के लिए कोई आना नहीं चाहता होगा, जिसकी कोई देखभाल नहीं करना चाहेगा क्योंकि हमारे साथ रह पाना इतना कठिन कार्य जो है। आखिर हम शिकायतें करने और दूसरों पर चीखने-चिल्लाने के अलावा और करते ही क्या हैं, फिर कौन हमारे साथ रहना चाहेगा? कोई नहीं। इसका समाधान यह नहीं है कि हमारे बहुत सारे बच्चे हों जो हमारी देखभाल करने के लिए बाध्य होंगे, या हमारे पास बैंक में पर्याप्त धन हो ताकि हम किसी सुविधाजनक अस्पताल में भर्ती हो सकें, क्योंकि हम तब भी दुखी ही रहने वाले हैं। साफ शब्दों में कहा जाए तो हमें अपने व्यक्तित्व में सुधार करने की आवश्यकता है।

कोई भी आत्मपरिवर्तन कर सकता है

हम अक्सर यह सोचते हैं कि हमारा व्यक्तित्व अपरिवर्तनीय है और हम तो ऐसे ही हैं। “मैं बहुत गुस्सैल प्रकृति का हूँ और तुम स्वयं को उसके अनुसार ढाल कर जीना सीख लो।“ ऐसे तो नहीं चल पाता है, है न? अपने व्यक्तित्व के ऐसे अशांतकारी पक्ष से मुक्ति पाना सम्भव है और हम अपने सभी सद्गुणों को विकसित कर सकते हैं। यदि हम अपने आप में सुधार नहीं करेंगे तब हमारा क्या होगा इस गुणकारी भय के प्रभाव से, और इस विश्वास के साथ कि इन सभी अशांतकारी अवस्थाओं से मुक्ति पाना सम्भव है और सकारात्मक पक्षों की वृद्धि और उनका विकास करना सम्भव है, हम अपने जीवन को यह सुरक्षित दिशा प्रदान करते हैं।

यदि हम इस कार्य को तथाकथित “महायान” रीति से करना चाहें तो हम इसमें करुणा के भाव को भी जोड़ देते हैं। महायान की दृष्टि से यदि हमें किसी पर क्रोध आ रहा हो तो हम यह देखने का प्रयास करते हैं कि हम उस व्यक्ति की सहायता किस प्रकार कर सकते हैं। हम सचमुच चाहते हैं कि हम दूसरों की सहायता कर सकें और हमें यह आशंका रहती है कि यदि हमने उस व्यक्ति पर क्रोध किया, या उसके प्रति आसक्ति रखी, या उससे ईर्ष्या आदि की तो हम स्थिति को पूरी तरह से बिगाड़ देंगे। हमें इन सभी अशांतकारी मनोभावों और भ्रम से मुक्त होने की आवश्यकता है ताकि हम दूसरों की अधिक से अधिक सहायता कर सकें। हमारे भीतर यह भाव होता है कि हम सचमुच दूसरों की सहायता करना चाहेंगे, किन्तु हमें यह फिक्र होती है कि हम दूसरों की सहायता करने के लिए अधिक कुछ नहीं कर पाएंगे। हमारे पास पर्याप्त धैर्य नहीं होता है, या हमें पर्याप्त समझबूझ नहीं होती है। हम इस बात को लेकर फिक्रमंद होते हैं कि हम दूसरों का भला करने के बजाए उनका नुकसान न कर दें। शायद हमें इस बात की भी चिंता होती है कि कहीं हम अपने बच्चों का लालन-पालन करने में ही विफल न हो जाएं। वह स्थिति बहुत बुरी होगी, या नहीं होगी? यही भय हमें प्रेरित करता है कि हम अपने जीवन को आत्मसुधार करने की सुरक्षित और सही दिशा दें।

सचमुच, यह धर्म हमारे दैनिक जीवन में बड़ा प्रासंगिक है। शरणागति की दृष्टि से इसका सम्बंध अपनी स्थिति और समस्याओं के बारे में बहुत ईमानदारीपूर्वक विचार करने से है। हम सभी समस्याओं का सामना करते हैं। ये अशांतकारी मनोभाव हम सभी को प्रभावित करते हैं। इसमें कुछ भी विशेष नहीं है। कुछ अशांतकारी मनोभाव दूसरों से ज्यादा प्रबल हो सकते हैं और उनके कई प्रकार हो सकते हैं, किन्तु हम सभी को इन भावनात्मक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यहाँ हम किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में चर्चा नहीं कर रहे हैं जो मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत अशांत हो। हम उन चीजों की बात कर रहे हैं जिन्हें अधिकांश लोग सामान्य मानते हैं। लेकिन इसमें खतरा इस बात का है कि हम इस बात को सामान्य मानते हैं कि हम कभी-कभी क्रोधित हो सकते हैं, कभी-कभी लोभ कर सकते हैं और स्वार्थी और ईर्ष्यालु आदि हो सकते हैं। हम यह सोचते हैं कि यह सामान्य है और ठीक है। लेकिन यह ठीक नहीं है क्योंकि इसके कारण स्वयं हमारे लिए उन लोगों के लिए भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं जिनकी हम सहायता करने का प्रयास कर रहे हों।

हमारा लक्ष्य केवल यह सीखना नहीं है कि जब हमारे भीतर क्रोध उमड़-घुमड़ रहा हो तब हम क्रोध के साथ कैसे जी सकते हैं या उसे नियंत्रित रख सकते हैं। हमारा उद्देश्य केवल उसे कमज़ोर करना ही नहीं है, बल्कि इन सभी अशांतकारी मनोभावों से पूरी तरह मुक्त होना है। हम केवल कुछ समय के लिए थोड़ा सा बोध विकसित नहीं करना चाहते हैं, बल्कि यथार्थ के पूरे बोध को विकसित कर सकें, यह समझ सकें कि हमारे अस्तित्व का क्या आधार है, दूसरे सभी जीवों के अस्तित्व का क्या आधार है, दुनिया के अस्तित्व का क्या आधार है, और हम चाहते हैं हमें इन चीज़ों को बोध हर समय बना रहे। ऐसा कर पाना पूरी तरह सम्भव है, क्योंकि मानसिक क्रियाकलाप की प्रकृति मूलतः शुद्ध होती है और उसमें सभी सद्गुणों को विकसित करने की पूरी क्षमता होती है।

किसी बुद्ध के प्रातिभासिक स्तर के सद्गुण

जब हम उन चीज़ों की बात करते हैं जो सुरक्षित दिशा या शरणागति को दर्शाती हैं, तो हम बुद्ध, धर्म और संघ की बात करते हैं। इन तीनों को समझने के कई स्तर होते हैं: इनमें से प्रत्येक का एक प्रातिभासिक स्तर होता है, एक गूढ़तम स्तर होता है, और कुछ ऐसा होता है जो इन्हें दर्शाता है। पहले हम प्रातिभासिक स्तर पर इनमें से प्रत्येक के सद्गुणों के बारे में विचार करेंगे।

किसी भी बुद्धजन के शरीर में असाधारण शारीरिक गुण होते हैं और विशेष लक्षण होते हैं। उदाहरण के लिए, बुद्धजन एक ही क्षण में कहीं भी पहुँच सकते हैं, अपने शरीर से अनेकानेक रूप धारण कर सकते हैं, एक ही समय पर सभी स्थानों पर उपस्थित हो सकते हैं, आदि। यह सब थोड़ा काल्पनिक लगता है और आसानी से विश्वास करने योग्य नहीं लगता है। इसके अलावा जब कोई बुद्ध बोलते हैं, तो हर कोई उनकी कही बात को अपनी-अपनी भाषा में समझ सकता है, और वे कितने ही दूर क्यों न हों, वे बुद्ध की कही बातों को साफ-साफ सुन सकते हैं। इससे भी बढ़कर, बुद्ध सर्वप्रेमी, सर्वदर्शी सत्व होते हैं जो सभी को समान रूप से प्रेम करते हैं और उन्हें एक ही समय पर सभी बातों का बोध और ज्ञान होता है।

यह विवरण भी बहुत काल्पनिक और अविश्वसनीय लगता है। इसलिए, यदि हम बुद्धों के बारे में इसी स्तर पर विचार करने पर रुके रहे तो उसमें यह खतरा है कि बात को समझने में हमसे गलती हो सकती है। यह विवरण ऐसा लगता है जैसे हम किसी काल्पनिक ज्ञानातीत सत्व की बात कर रहे हों, जो लगभग किसी ईश्वर के जैसा है, है न? लेकिन सर्वदर्शी होने का मतलब यह नहीं है कि बुद्ध को इस ग्रह के सभी लोगों का टेलीफोन नम्बर मालूम है, बल्कि यह है कि  बुद्ध हर किसी की स्थिति के मूल कारणों को जानते हैं, और उन कारणों को प्रभावित करने वाले कारकों को भी जानते हैं। जब कोई बुद्ध किसी को किसी बात की शिक्षा देते हैं तो इस बोध के साथ कि उसके सभी परिणाम कैसे होंगे, केवल उस व्यक्ति पर पड़ने वाले परिणाम ही नहीं, बल्कि उन सभी पर पड़ने वाले परिणाम जिनके साथ वह व्यक्ति व्यवहार करेगा। परिणामतः बुद्ध को ठीक-ठीक यह मालूम होता है कि सभी को शिक्षा देने का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा। यह तो बहुत अच्छी बात है, है न? ऐसा कर पाना तो बहुत अच्छी बात होगी।

हमें इस बात का विश्वास होता है कि बुद्ध ज्ञानी हैं और यह जान सकते हैं कि हमारी सहायता करने का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा। बुद्ध मेरी भाषा बोलते हैं और जब भी मुझे आवश्यकता हो मेरी सहायता के लिए तत्क्षण मेरे पास उपस्थित हो सकते हैं। यदि हम बुद्ध को किसी ईश्वर के रूप में देखने की दिशा में बढ़ते हैं, तो यह बात थोड़ी व्यक्तिगत हो जाती हि। “वे व्यक्तिगत तौर पर मेरी सहायता कर सकते हैं। वे मेरी बात को समझ सकेंगे। कोई भी मेरी बात को नहीं समझता है, लेकिन बुद्ध उसे समझ लेंगे।“ लेकिन हम जानते हैं कि बुद्धजन सभी को समान रूप से प्रेम करते हैं। “बहुत अच्छी बात है। लेकिन बेहतर होता यदि उन्हें दूसरे सब लोगों की अपेक्षा मुझसे अधिक प्रेम होता। खैर, कोई बात नहीं, ठीक है।“ किसी भी बुद्ध को सभी के प्रति समान रूप से प्रेम होता है और सुखकर बात यह दिखाई देती है कि उनका प्रेम इस बात से प्रभावित नहीं होता कि बदले में हम कैसा व्यवहार करते हैं। इसके लिए हमें बुद्ध से प्रार्थना करने या उन्हें चढ़ावा चढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। बुद्ध तो हमारी सहायता करेंगे ही। इसलिए यह बहुत आसान है। हमें बदले में कोई भुगतान नहीं करना है। कमाल का सौदा है! इसके अलावा, क्योंकि बुद्ध अत्यधिक धैर्यवान हैं, इसलिए यदि हम किसी दूसरी परम्परा के किसी अन्य शिक्षक की शरण में जाते हैं, तब भी वे ईर्ष्यालु नहीं होंगे, और कभी भी कुपित होकर मेरे ऊपर वज्रपात नहीं करेंगे या कोई और दूसरा दंड नहीं देंगे। यह तरीका बिल्कुल निरापद है।

हम इसे जानबूझकर करें या हमसे अनजाने में हो, लेकिन यह है एक आम गलती है। हम बुद्ध को ईश्वर के किसी विकल्प के रूप में देखते हैं जिसके साथ मोलभाव किया जा सकता है जो सुरक्षित है। शिक्षाओं में इस तरह की बातें कही गई हैं कि बुद्ध कभी आपको निराश नहीं करेंगे आदि। यह सब सुनने में बहुत अच्छा लगता है। लेकिन हमें यह भी पढ़ने के लिए मिलता है कि बुद्ध हमारे दुख को उस तरह से खींच कर बाहर नहीं निकाल सकते हैं जैसे किसी काँटे को खींच कर पैर से निकाला जा सकता है। बुद्धजन सर्वशक्तिमान नहीं हैं। लेकिन हम इस बात को बहुत गम्भीरता से नहीं लेते हैं। वह तो बुद्ध का प्रातिभासिक स्तर है, किसी बुद्ध के बारे में विचार करने का सामान्य दृष्टिकोण है। लेकिन गहन बोध हासिल किए बिना इसे इसी स्तर पर छोड़ देने पर यह खतरा रहता है कि हम बुद्ध को किसी निजी वैकल्पिक ईश्वर के रूप में देखने लगते हैं जो हमारी रक्षा करेगा।

बुद्धजन को प्रतिमाओं और चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाता है। ठीक है, वे सुदर्शन हैं, लेकिन क्या इसलिए हम उन्हें किसी पारम्परिक ईसाई मत की प्रतिमा के जैसा मान लेंगे? यह सब क्या है? क्या हम मूर्तिपूजा की बात कर रहे हैं, जैसाकि मुस्लिम लोग आरोप लगा सकते हैं? यहाँ दरअसल चल क्या रहा है? क्या हमें सचमुच किसी प्रतिमा के सामने शीष झुकाने की आवश्यकता है? मैं मानता हूँ कि यदि हम बुद्ध के बारे में अपने बोध को इसी स्तर पर छोड़ दें तो उससे समस्याएं उत्पन्न होंगी। उससे भ्रांति उत्पन्न होने की सम्भावना है। कुछ लोगों के लिए बुद्ध के बारे में इस प्रकार से विचार करना बहुत लाभप्रद हो सकता है, लेकिन यह गहनतम बोध नहीं है। इस स्तर पर यह स्थिति है कि जैसे किसी ईश्वर जैसी शक्ति को प्रतिमाओं और चित्रों की सहायता से प्रदर्शित किया गया हो और हम उनकी पूजा-अर्चना कर रहे हों।

धर्म के प्रातिभासिक स्तर के सद्गुण

सभी शिक्षाएं धर्म का प्रातिभासिक स्तर हैं। बुद्ध ने अपने भीतर इन्हीं की खोज की और इन्हीं के बारे में शिक्षा दी। इसे समझने का सामान्य तरीका यह है कि हमारा एक निजी ईश्वर है, जो बुद्ध हैं, और हमारे अपने धर्मग्रंथ हैं। किसी बाइबल या कुरान के बजाए अब मैं बुद्ध के ग्रंथों को मानता हूँ। वे ग्रंथ मेरी बौद्ध बाइबल के जैसे हैं और हम उसमें लिखे हर शब्द को पवित्र मानते हैं। हाँ, हमें उसके प्रति सम्मान का भाव रखना ही चाहिए, लेकिन बुद्ध ने स्वयं कहा था: “मेरी कही हुई किसी भी बात पर केवल मेरे प्रति आदरभाव के कारण विश्वास मत करो, बल्कि स्वयं उसकी परख उसी प्रकार करो जैसे तुम अपने लिए सोना खरीद रहे हो।“ बुद्ध हमेशा अपने अनुयायियों को प्रेरित करते थे कि वे उनकी शिक्षाओं की आलोचना करें। लेकिन आलस्य के कारण हम हर बात का विश्लेषण और उसकी जाँच नहीं करना चाहते हैं। दैनिक जीवन में इसका यह महत्व है कि बुद्ध हमसे प्रेम करते हैं, बुद्ध हमें समझते हैं, और सभी नियम पवित्र ग्रंथ में दिए गए हैं और हम उनका पालन करते हैं। बेशक, दैनिक जीवन में इसका स्थान और महत्व है, लेकिन वास्तव में बौद्ध धर्म इतना ही नहीं है। कुछ लोगों के लिए यह कारगर हो सकता है, लेकिन यहाँ मंशा यह नहीं है कि बौद्ध धर्म को ईसाई मत का ही एक दूसरा स्वरूप बना दिया जाए।

संघ के प्रातिभासिक स्तर के सद्गुण

अब, संघ की क्या स्थिति है? दुर्भाग्य से पश्चिम जगत में हमने इसे एक आदत बना लिया है कि हम जिस धर्म केंद्र में जाते हैं, उसके सभी सदस्यों को हम अपना “संघ” कहकर सम्बोधित करते हैं। लेकिन संस्कृत या तिब्बती भाषा में इस शब्द का यह आशय निश्चित तौर पर नहीं था। लेकिन बहुत से लोगों के लिए “संघ” का मतलब केवल अपनी धार्मिक सभा, अपने बौद्ध चर्च के सदस्यों तक ही सीमित होता है। जब इन समूहों के बहुत से सदस्य बहुत ही अशांत प्रकृति वाले होते हैं, तो क्या हम सचमुच उनकी शरणागति लेते हैं? मेरा ऐसा इरादा नहीं है कि एक ही प्रकार के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करने वाले समान विचारों के लोगों के किसी ऐसे आध्यात्मिक समुदाय के महत्व को कम किया जाए जो हमें किसी प्रकार की सहायता, कुछ राय दे सकता है। यह बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन यह शरणागति का उद्देश्य नहीं है।

एक दूसरे स्तर पर हम संघ को हम एक मठीय समुदाय के रूप में समझ सकते हैं, बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों के रूप में देखते हैं। लेकिन यहाँ भी हमें हमेशा आदर्श भिक्षु या भिक्षुणियाँ देखने के लिए नहीं मिलते हैं। उनके बीच कई ऐसे बहुत अशांत लोग होते हैं जो सभावस्त्र धारण करते हैं। फिर भी, यदि वे मठवासी बनकर आत्मसुधार करने की दृष्टि से ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं, तो फिर उनका सम्मान और समर्थन करना बहुत महत्वपूर्ण होता है। लेकिन कुछ भिक्षु और भिक्षुणियाँ ऐसे होते हैं जो जीवन की कठिनाइयों से मुँह चुराने के लिए और, जैसाकि मेरे एक मित्र कहते हैं, बिना कुछ किए-धरे मुफ्त सुविधाएं प्राप्त करने के लिए भिक्षु या भिक्षुणी का चोगा धारण कर लेते हैं।

संघ का एक और स्तर है। तंत्र के आचार्यों से हमें यह सुनने के लिए मिलता है कि चेनरेज़िग, तारा, मंजुश्री आदि जैसे तथाकथित “तांत्रिक देवी-देवता” ही संघ हैं। इसलिए अब हम पवित्र माता या संत तारा की आराधना करना शुरू कर सकते हैं और वे हमारी रक्षा करेंगी। निश्चित तौर पर ये बुद्ध-आकृतियाँ, जिन्हें मैं तथाकथित तांत्रिक देवी-देवता कहता हूँ, किसी भी दृष्टि से ऐसे संत नहीं हैं जो किसी प्रकार की मध्यस्थता करेंगे और बुद्ध भगवान के नज़दीक पहुँचने में हमारी सहायता करेंगे।

बुद्ध, धर्म और संघ का गूढ़तम अर्थ

यदि हम बुद्ध, धर्म और संघ के गहनतम अर्थ को देखें तो हम पाते हैं कि धर्म का गूढ़तम अर्थ हमारे भ्रम का यथार्थ रोधन है, और हमारे मानसिक सातत्य पर मार्गों या चित्तमार्ग का यथार्थ बोध हासिल करना है। यही वास्तविक धर्म है। यदि हम अपने मानसिक सातत्य में इसे हासिल कर लें तो यही दुख से हमारी रक्षा करेगा। हम अपने भ्रम, अशांतकारी मनोभावों, दृष्टिकोणों , और समस्याओं से मुक्ति प्राप्त करके, और पूर्ण बोध को प्राप्त करके इस इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। बुद्ध वे हैं जिन्होंने इसे पूर्णतः प्राप्त किया है और हमें यह शिक्षा दी है कि हम स्वयं उसे किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं। संघ से आशय दरअसल उन सभी से है जिन्हें “आर्य संघ” कहा जाता है, जो बहुत उच्च सिद्धि प्राप्त साधक हैं जिन्होंने कुछ सीमा तक, पूर्णता से नहीं, दुख का यथार्थ रोधन हासिल कर लिया है और यथार्थ बोध को हासिल कर लिया है। वस्तुतः भ्रम के कई स्तर और दशाएं होती हैं जिनसे हमें मुक्ति प्राप्त करने की आवश्यकता है और बोध के उत्तरोत्तर रूप से प्रबल कई स्तर हैं जो इस भ्रम का प्रतिकार करते हैं। आर्य संघ ने अभी तक उनसे पूर्णतः मुक्ति का स्तर हासिल नहीं किया है, किन्तु कुछ हद तक इनसे मुक्ति पा ली है, और वे इस दिशा में प्रगतिरत हैं।

हमारे दैनिक जीवन में बुद्धजन और आर्य संघ, हमारे प्राचीन काल के और वर्तमान समय के कुछ भारतीय और तिब्बती आचार्यगण हमें बहुत प्रेरणा देते हैं। इससे हमारे भीतर बड़ी आशा जाग्रत होती है। हमें परम पावन दलाई लामा जैसे किसी प्रेरणादायी व्यक्तित्व के दर्शन करने या उनसे भेंट करने का अवसर मिलता है। उन्होंने अपने आपको वैसा कैसे बनाया जैसे वे हैं? धर्म के माध्यम से। अभी इस बात का महत्व नहीं है कि क्या वे बुद्ध हैं या अभी उन्हें बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ है। यदि हम उनके जैसे बन सकें तो यह हमारे लिए बहुत अच्छा होगा। यहाँ मैं केवल उनकी इस योग्यता की बात नहीं कर रहा हूँ कि वे धर्म सम्बंधी किसी भी विषय की शिक्षा दे सकते हैं, या वे विशेषज्ञ हैं, सबसे अधिक ज्ञानवान हैं, और सभी शिक्षकों से निपुण शिक्षक हैं। बात केवल यह नहीं है कि उनका कार्यक्रम बहुत व्यस्त रहता है, वे लगातार दुनिया भर में यात्राएं करते रहते हैं, दूसरों को शिक्षा और सहायता देने का प्रयत्न करते रहते हैं आदि। बल्कि इससे भी बड़ी बात यह है कि उन्हें चीन में सबसे बड़ा जनशत्रु समझा जाता है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक बिलियन से ज़्यादा लोग आपको शैतान मानते हों, और आपके समुदाय के लोगों के साथ हर तरह का दुर्व्यवहार करते हों, और फिर भी आप उनके प्रति प्रेम और करुणा का भाव रखते हों तो वह स्थिति कैसी होगी? वे परेशान नहीं होते हैं, और सुखी, शांतचित्त रहते हुए अपने सभी कार्यों को करते हैं। यह तो अविश्वसनीय है, है न? यदि हम इन अशांतकारी मनोभावों से मुक्त न हुए हों और हमने बोध प्राप्त न किया हो तो हम इतना कुछ कैसे कर पाएंगे? वैसी स्थिति में इतना कुछ कर पाना सम्भव नहीं होगा। यहाँ यह प्रश्न अप्रासंगिक है कि वे बुद्धत्व प्राप्ति तक पहुँचे हैं या नहीं।

हो सकता है कि हम स्वयं बुद्ध के सभी गुणों को न समझ सकें, किन्तु हम कम से कम परम पावन दलाई लामा जैसे महापुरुषों के गुणों को तो देख ही सकते हैं। यह बड़ा प्रेरणादायी है। यदि उनके जैसे किसी व्यक्ति के लिए इस स्तर की सिद्धियाँ हासिल करना सम्भव हो सका है, तो फिर ऐसा कोई कारण नहीं है कि हम जैसे लोग उन गुणों को विकसित न कर सकें। ऐसा कोई कारण नहीं है कि हर कोई वैसा न कर सकता हो। ज़ाहिर है कि इसके लिए बहुत कड़े परिश्रम की आवश्यकता होगी, लेकिन वैसा कर पाना सम्भव है और उस दिशा में आगे बढ़ना बहुत लाभकारी है। यदि दलाई लामा को बुद्ध के सदृश मान लिया जाए, तो कुछ वर्तमान महान लामा जो शिक्षाएं देते हैं, संभवतः उनमें दलाई लामा वाले सारे गुण नहीं हैं किन्तु, वे संघ के सदृश हैं, उनमें वे सारे गुण हैं। वे भी बड़े प्रेरणादायी हैं।

दलाई लामा और इन महान आचार्यों के बीच कौन सी समानताएं हैं? वे अलग-अलग स्तर तक क्रोध, लोभ, घृणा, ईर्ष्या, और इस तरह के तमाम मनोभावों से मुक्ति पा चुके हैं। वे ज्ञान, करुणा, धैर्य आदि जैसे सद्गुणों को बड़े स्तर तक विकसित कर चुके हैं। हम विभिन्न लामाओं के माध्यम से इस बात को समझ सकते हैं कि इन गुणों को किस प्रकार अलग-अलग स्तरों तक हासिल किया जा सकता है। मैं तो कहता हूँ कि बुद्ध, या मिलारेपा, और दूसरे ऐतिहासिक उदाहरणों की तुलना में, जिन्हें समझ पाना हमारे लिए अपेक्षाकृत अधिक कठिन होगा, हमारे लिए ये लोग (यदि हमें उनका सान्निध्य मिला हो) हमारे लिए अधिक जीवंत उदाहरण हैं। हमें ऐसा लग सकता है कि उनके बारे में प्रचलित कथाएं तो बहुत अच्छी हैं, लेकिन क्या हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि उनके जैसा कोई व्यक्ति सचमुच रहा होगा? हम पढ़ते हैं कि गुरु रिंपोशे का जन्म एक कमल से हुआ था, क्या हम सचमुच इस बात पर विश्वास कर सकते हैं? उसे समझ पाना कठिन हो सकता है। किन्तु, उसके बजाए हम इन नकारात्मक गुणों के अभाव और ऐसे सकारात्मक गुणों की मौजूदगी पर अपने ध्यान को केंद्रित कर सकते हैं जिनकी मिसाल दलाई लामा और इन महान आचार्यों ने प्रस्तुत की है, वे इस समय हमारे लिए बुद्ध और धर्म के सदृश हैं। हम पाते हैं कि हम ऐसा कर पाने में सक्षम हैं। यही धर्म है, और यह यथार्थ रोधन और यथार्थ चित्त मार्ग ऐसे लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त किया जा सकता है। इन्हें कर सकना सम्भव है, और इससे हमें एक सुरक्षित, स्थिर और सार्थक दिशा मिलती है जिसे हम अपने जीवन में अपना सकते हैं।

शरणागति या हमारे जीवन की सुरक्षित दिशा

व्यावहारिक स्तर पर बुद्ध, धर्म और संघ की इस दिशा को अपने जीवन में अपनाने का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि हम हर समय अपने आप में सुधार करने के लिए प्रयत्नरत हैं। ऐसा करते समय यदि हम परेशान हो जाएं, क्रोधित हो जाएं, या स्वार्थपरायणता का व्यवहार करने लगें, तो हम इसके प्रति अधिक सचेत हो जाते हैं। हमें इसका पता चल जाता है। ऐसा नहीं है कि यदि ऐसी स्थिति में हम अपने आप से दुखी हो जाएं तो हम यह सोच कर अपने आप को दंडित करने लगते हैं कि, “मैं बहुत बुरा हूँ या मैं बहुत खराब हूँ क्योंकि मैं अभी भी क्रोधित हो जाता हूँ।“ ऐसा बिल्कुल नहीं है, और निश्चित तौर पर ऐसा भी नहीं है कि दूसरी ओर हम यह सोचने लगें कि यह सब सामान्य बात है। उस स्थिति में हम बस उसके बारे में गौर करते हैं और विचार करते हैं, “तो क्या हुआ? मैं ऐसा ही बना रहूँगा।“ स्थिति ऐसी भी नहीं है। बल्कि हमारे नकारात्मक मनोभावों के प्रति सचेत हो जाने से और उनसे मुक्ति पाने की इच्छा रखने से उनकी प्रबलता घट जाती है।

लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे दैनिक जीवन में जब ये नकारात्मक मनोभाव उत्पन्न होते हैं और हम उनके प्रति सचेत हो जाते हैं, तो आदर्श स्थिति यह है कि हम उन पर नियंत्रण पाने की कुछ विधियों को सीख कर उन्हें नियंत्रित करें। हमें यह समझना चाहिए कि यदि हमें क्रोध आता हो तो हमें धैर्य विकसित करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति मेरे प्रति बहुत बुरा व्यवहार करता है, तो इसका मतलब यह है कि वह व्यक्ति बहुत दुखी है। किसी बात ने उसे अशांत कर रखा है। ऐसे व्यक्ति से क्रोधित होने के बजाए हमें उसके प्रति थोड़ी करुणा का भाव रखना चाहिए।

इसे स्पष्ट कर दूं, एक तरफ हम हम ऐसा नहीं करते हैं कि स्वयं से इस बात के लिए क्रोधित हों कि हमें क्रोध आता है। वहीं दूसरी ओर हम अपने आप को कोई नासमझ बच्चा समझ कर यह नहीं कहते हैं कि यह सब ठीक है, इसमें कोई बुराई नहीं है। बल्कि हम अपने क्रोध पर काबू पाने के लिए भरसक प्रयास करते हैं, क्योंकि हमें यह बोध होता है कि ऐसा कर पाना सम्भव है। हो सकता है कि हम इतनी जल्दी इससे मुक्ति न पा सकें, और यह निश्चित है कि हम इतनी जल्दी इससे मुक्ति नहीं पा सकेंगे, लेकिन यही वह दिशा है जिस पर जीवन भर चलने के लिए हमें प्रयास करना है। हम ऐसा इसलिए कर पाएंगे क्योंकि हम जानते हैं कि ऐसे मनोभावों से मुक्ति पाना वास्तव में सम्भव है। यह इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए कोई निष्फल आदर्शवादी प्रयास नहीं है।

जब हमारा सामना किसी मुश्किल स्थिति से होता है और यदि हम थोड़ा धैर्य रखें, या थोड़ी सूझबूझ से काम लें, या थोड़ी सी उदारता बरतें, तो हमें यह समझना चाहिए कि हम इस भाव को और बढ़ा सकते हैं। हम इसे और भी प्रबल करते जा सकते हैं। ऐसा कर पाना सम्भव है। दूसरों ने ऐसा करके दिखाया है और हम स्वयं भी ऐसा कर सकते हैं। दूसरे इस दृष्टि से कोई विशेष नहीं हैं और हम स्वयं भी विशेष नहीं हैं। यही हमारी शरणागति है, यही हमारे जीवन की सुरक्षित दिशा है, क्योंकि हम इस दिशा में जितना आगे बढ़ेंगे, उतना ही अधिक हम अपने आप को मुसीबतों और समस्याओं से सुरक्षित कर पाएंगे।

सारांश

हमें यह समझना होगा कि शरणागति, इस सुरक्षित दिशा का क्या अर्थ है, और हमें इसे अपने जीवन में अपनाने की क्यों आवश्यकता है। बौद्ध साधना में इसे सबसे महत्वपूर्ण और सबसे आधारभूत माना गया है। बहुत से लोग इसके महत्व को कम करके आँकते हैं, जोकि सचमुच बड़े शर्म की बात है। हमारे जीवन में इस दिशा के होने या न होने को सबसे महत्वपूर्ण बदलाव माना जाता है और यह हमारे जीवन में सबसे बड़ा बदलाव ला सकती है। शरणागति लेने का मतलब केवल इतना ही नहीं होना चाहिए कि हम किसी अनुष्ठान में शामिल हुए और वहाँ अपने थोड़े से बाल कटवाए, और एक तिब्बती नाम रख लिया, और अब हम अपने गले में एक लाल धागा धारण करने लगे, और बस एक समुदाय में शामिल हो गए। इससे विषय का पूरा अर्थ ही घट जाता है और वह एकदम निरर्थक हो जाता है।

हम सभी को अपने आप से यह प्रश्न पूछना चाहिए: “शरणागति लेने के बाद और बौद्ध हो जाने के बाद क्या मैं सचमुच अपने जीवन को इस दिशा में ले जा रहा हूँ? क्या केवल एक समुदाय की सदस्यता ले लेने के अलावा मेरे जीवन में इसका कोई और महत्व भी है?” यदि शरणागति लेने के बाद हमारे जीवन में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है तो हमें इस स्थिति को सुधारने के लिए गम्भीरता से काम करना चाहिए। इस आधारभूत बात को समझे बिना किसी भी प्रकार की दूसरी उन्नत साधनाओं को करने का प्रयास करने से सफलता मिलने की सम्भावना बहुत ही क्षीण है।

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