एक व्याख्या: “अनित्यता पर ध्यान-साधना कैसे की जाए”

गुंगथांग रिन्पोचे (1762-1823) का ग्रन्थ, अनित्यता पर ध्यान-साधना करने के प्रशिक्षण, पद्य-लेख, अपने उन सभी गुरुओं को श्रद्धांजलि के साथ प्रारम्भ होता है जो कई रूपों में प्रकट होते हैं और चित्त को वश में करने की शिक्षाएँ देते हैं:

सीमित सत्त्वों की अनेक आवश्यकताओं और प्रवृत्तियों के अनुरूप विभिन्न रूपों और विविधताओं में प्रकट होने वाले आनंद और शून्यता के उस महान संयोजन को सादर श्रद्धांजलि।

यह अमूल्य मानव शरीर जिसमें आठ विश्राम (शिथिल क्षण) और दस संवर्द्धन कारक हैं, केवल एक बार ही प्राप्त होता है। इस अवसर को खो देने तथा स्थायी महत्त्व का कुछ भी प्राप्त किए बिना ही अगले पुनर्जन्म में जाने का खतरा निश्चित रूप से मंडराता है। यही समय है कि हम विमुक्ति के पथ पर चलना प्रारम्भ कर दें। वास्तव में देखा जाए तो अब बहुत देर हो चुकी है, क्योंकि यहाँ हम सभी बीस से तीस वर्ष की आयु के बीच वाले हैं। जैसे किसी हाथी के प्रशिक्षण के दौरान अंकुश का प्रयोग किया जाता है और निगरानी रखी जाती है, हमें अपनेआप को उसी अंकुश एवं निगरानी के साथ संभालना और सतर्क रखना होगा। सभी सांसारिक कामों से इसी महीने या इसी साल मुक्त होकर उसके बाद साधना करने का विचार, या संसारी कामों के समाप्त होने तक धर्म-साधना को टालने का विचार, एक चुड़ैल है जो हमें आकर्षित करती है। एक शिक्षक ने एक बार कहा था कि आध्यात्म के मार्ग पर चलने वालों को कभी भी जीवन-यापन की चिंता नहीं करनी चाहिए। कुछ लोग यह बहाना बनाते हैं कि उन्हें धर्म का पालन करने के लिए धन कमाना है, परन्तु धर्म का ऐसा कोई भी सच्चा साधक आज तक नहीं हुआ जो भूखा मर गया हो।

धर्म की एकनिष्ठ पूर्ण साधना करने का विचार उत्पन्न करें। इस जीवन की गतिविधियाँ पानी पर उठ रही तरंगों के समान हैं। तरंगों की तरह पहले एक आती है, फिर तुरंत बाद दूसरी आती है। आप जितने अधिक कार्यकलाप करेंगे, उतनी ही अधिक नई गतिविधियाँ आती हैं: यह अनंत है। लक्ष्यहीन होकर इधर-उधर भटकने के बजाय क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम दृढ़ संकल्पित होकर इन क्रियाकलापों का सिलसिला अभी और यहीं छोड़ दें जब हम पर कोई प्रतिबंध नहीं है? उदाहरण के लिए, किसी भी आपात स्थिति में आप अपना सारा काम छोड़कर उसी से निपटने का सबल, दृढ़ संकल्पबद्ध निर्णय लेते हैं। यह उस प्रकरण की भाँति है जहाँ नरोपा तिलोपा से मिलने जाते हैं। वे दृढ़ निश्चय के साथ नालंदा के मठाधीश का अपना पद छोड़कर चले गए। या फिर त्सोंगखपा की तरह, जिन्होंने मंजुश्री से अपनी प्रारम्भिक साधनाओं में वापस जाने की आज्ञा प्राप्त की, उसका पालन करने का संकल्प लिया, और अपने सहस्रों शिष्यों को छोड़कर चले गए।

अपनेआप को झाँसे में न रखें। कल की धर्म साधना करने से पहले आज मृत्यु एकदम आ सकती है। इसलिए यदि कोई धर्म का पालन करना चाहता है तो आज से ही प्रारम्भ कर लें।

यद्यपि त्सोंगखपा एवं पद्मसंभव जैसे महान गुरुओं के कार्य इस संसार में चारों ओर फैले हैं, बात यह है कि ये सभी गुरुजन मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। केवल उनके नाम रह गए हैं, उनके शरीर नहीं रहे, और अब हम उन्हें उनकी शिक्षाओं के द्वारा ही समझ सकते हैं। ये सब उनकी अनित्यता के संकेत हैं ठीक वैसे जैसे कुशीनगर में बुद्ध की लेटी हुई मूर्ति, जो हमें यह याद दिलाती है कि बुद्ध की भी मृत्यु हुई थी। शांतिदेव अपने बोधिसत्त्वचर्यावतार  में कहते हैं कि यदि बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, और श्रावक सभी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, तो क्या भला हमारे मरने में कोई शंका हो सकती है? यही आठवें दलाई लामा का भी शिक्षण है, जो इन सभी शिक्षाओं को लिखने वाले आचार्यों की तरह अब स्वयं जीवित नहीं हैं। अब ध्यान रखने की बात यह है कि यदि और जब इन महासत्त्वों की काया विघटित हो जाती है, और वे वापस स्वभावकाया में विलीन हो जाते हैं, तो यह केवल भ्रमित शिष्यों को अनित्यता की शिक्षा देने के उद्देश्य से किया जाता है।

इन महासत्त्वों की भाँति सौ वर्षों में हममें से कोई भी यहाँ नहीं होगा। राजा और राजनयिक भी, जो अपनी सम्पदा और शक्ति पर अत्यधिक अहंकार करते हैं और जो अपनी शौर्यगाथाओं की सूचियों की मालाओं का दावा करते हैं, वे भी नहीं बचेंगे। बस उनके नाम रह जाएँगे। आज के कई प्रसिद्ध विश्व नेताओं का भी यही हाल होगा: भविष्य में वे भी यहाँ कहीं नहीं होंगे। जो लोग आपकी उम्र के हैं और जिनकी शारीरिक शक्ति भी उतनी ही है जितनी आपकी, वे भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यमराज द्वारा उनका भी अचानक अपहरण हो जाता है। तो आप अनंतकाल तक जीवित रहेंगे यह भरोसा आपको कैसे हुआ? अनित्यता के बारे में सिखाए जाने पर भी मृत्यु से न डरना तो अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। यहाँ तक कि भेड़ जैसा मंदमति, मूर्ख पशु भी, जब यह देखता है कि अन्य भेड़ों का कसाई द्वारा वध हो रहा है, तो डर से काँपने लगती हैं और उनका हृदय तेज़ी से धड़कने लगता है।

गेशे पोटोवा की एक संबंधित कथा है। उनके गाँव का एक व्यक्ति उनके पास आया और उसने उनसे पूछा, "जब मेरी मृत्यु आने वाली हो, तो क्या आप मुझे संदेश भेज सकते हैं ?" कालान्तर में ऊपर गाँव में किसी की मृत्यु हो गई और इस बारे में एक संदेश उस व्यक्ति को भेजा गया पर उसने कुछ नहीं किया। ऐसा ही निचले गाँव और बाद में मध्य गाँव के लोगों के साथ भी हुआ। फिर भी इस आदमी ने कुछ नहीं किया। अन्त में उसकी अपनी मृत्यु के संकेत आए, और वह भागा-भागा गेशे पोटोवा के पास गया और उसने उनसे पूछा, “आपने मुझे कोई सन्देश क्यों नहीं भेजा?” गेशे पोटोवा ने उत्तर दिया, "मैंने भेजा, पर तुमने उसे समझा नहीं।" गेशे पोटोवा स्वयं अपने निवास-स्थान, पेन्पो घाटी, में सभी की मृत्यु की गिनती रखते हुए अनित्यता पर ध्यान-साधना किया करते थे।

यह अनिवार्य नहीं है कि अनित्यता का बोध धर्मग्रंथों के प्रसंगों पर आधारित हो; आप इसे अपने चारों ओर देख सकते हैं जहाँ सभी जीव मृत्यु से ग्रस्त हैं। जो लोग मृत्यु की अवश्यम्भाविता को देख रहे हैं परन्तु यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि एक दिन वे भी इसके शिकार होंगे, वे या तो उन अंधे लोगों की तरह हैं जिनकी आँखें खुली हैं, या फिर वे जिनकी आँखें शीशे की बनी हैं। भविष्य में हमारे दोस्त, रिश्तेदार, नौकर, और परिजन सबका निधन हो जाएगा। एक साथ रहते हुए आप सब उन पत्तों की तरह हैं जो हवा के झोंके में मिले थे बाद में छितर जाने के लिए। यद्यपि हम सब अभी साथ-साथ हैं, परन्तु भावी जीवनकाल में जब हम फिर से मिलेंगे तो अलग-अलग रूपों में होंगे और एक-दूसरे को पहचान भी नहीं पाएँगे। अनित्यता के बारे में बहुत कम लोग सोचते हैं, परन्तु हमें कम-से-कम सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में संतुलन बनाए रखना चाहिए, क्योंकि इससे स्थिरता मिलती है।

ऋतुओं का बदलना, पत्तों का झड़ना, तथा अन्य प्राकृतिक परिघटनाएँ अनित्यता का पाठ पढ़ाती हैं। जैसा कि मिलरेपा ने कहा है, "मैं अपने आस-पास की हर वस्तु को एक शिक्षण के रूप में देखता हूँ।"

अनित्यता का एक अन्य रूपक है मेला। इन मेलों में अलग-अलग गाँवों से लोग आकर मिलते हैं और फिर सब तितर-बितर हो जाते हैं। हम यह नहीं जानते कि वे कहाँ जाते हैं, और न ही उन्हें फिर कभी इस तरह एक साथ लाया जाएगा। मित्रों और रिश्तेदारों का यह समूह, जिनसे हम अब घिरे हुए हैं, मेले में मिल रहे लोगों या पतझड़ ऋतु की मक्खियों की तरह हैं। वे एक दिन बिछड़ जाएँगे।

तत्त्वों के समान वसंत और ग्रीष्म ऋतुएँ मनमोहक रूप से सुंदर हो सकती हैं, परन्तु सब अनित्यता एवं निरंतर परिवर्तन की शिक्षा देती हैं। पौधे पहले हरे होते हैं, फिर नारंगी, और अंत में सूख जाते हैं। नदियों के पानी का तापमान, उसका रंग, और उनकी कलकल ध्वनि मौसम के साथ बदलती रहती है। नदियाँ जो आश्चर्यजनक रूप से हरी-नीली थीं, जिनमें सुंदर लहरें नृत्य किया करती थीं और कलकल पानी बहा करता था, ऐसी चंचल नदी की सतह पर अंततः सफ़ेद बर्फ़ जम जाती है और उसका पानी बड़बड़ाने जैसी आवाज़ करने लगता है। लोगों के साथ भी ऐसा ही होता है। जब लोग युवा होते हैं तो वे कई पार्टियों में जाते हैं, नाचने, गाने और शराब पीने में आनंद पाते हैं। पर जब वे बूढ़े हो जाते हैं तो उनकी आदतें भी बदल जाती हैं। जैसे पिछले उदाहरण में, अंततः वे भी अस्पष्ट रूप से बड़बड़ाने लगते हैं!

गर्मियों के मौसम में मधुमक्खियाँ बाग़ों में फूलों से रस चूस लेती हैं। यह हमारी युवावस्था जैसा है। हम संसार के आमोद-प्रमोद और सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं। पर पतझड़ में फूलों का वह बाग़ रेगिस्तान-सा बन जाता है और सर्दियों में जब हवा बग़ीचे से गुज़रती है, तो एक उदास-सा स्वर निकलता है। लोग वहाँ नहीं जाना चाहते क्योंकि सबकुछ उघड़ा पड़ा होता है जिसे वे देखना नहीं चाहते। कभी-कभी पूरी पहाड़ी फूलों से आच्छादित हो जाती है, मगर फिर जाड़े में पूरी तरह से अनावृत। भवनों के साथ भी ऐसा ही होता है: वे ऋतुक्षरित और बूढ़े हो जाते हैं। इस प्रकार ये सब अनित्यता के उदाहरण हैं। परन्तु अनित्यता का सबसे प्रत्यक्ष शिक्षक तो अपना यह स्थूल शरीर है। जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं, वैसे-वैसे हम वह कुछ भी नहीं कर पाते जो हम अपनी युवावस्था में किया करते थे: हम शिथिल हो जाते हैं और हमारा रूप-रंग भी बदल जाता है।

अनित्यता न केवल सजीव सत्त्वों, अपितु निर्जीव वस्तुओं, जैसे भवन, प्रकृति, बागवानी, और समय पर भी लागू होती है। नालंदा, जहाँ नागार्जुन तथा असंग ने अध्ययन किया था, और बोधगया जैसे बड़े-बड़े मठ तो बहुत पहले ही विलुप्त हो गए। गाँन्देन, सेरा तथा तिब्बत के अन्य बड़े-बड़े मठीय विश्वविद्यालयों के साथ भी यही हुआ। यहाँ तक कि यह तिब्बती साहित्य का पुस्तकालय एवं अभिलेखागार भी, जहाँ हम अभी हैं, कालान्तर में विलुप्त हो जाएगा और खंडहर बन जाएगा। नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ सुहृल्लेखा  (मित्र को पत्र ) में कहा, "जब सात सूर्यों के जलने पर पूरा ब्रह्मांड नष्ट हो जाएगा, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे शरीर भी इसी तरह नष्ट हो जाएँगे," क्योंकि यह प्रलय रूपधातु वाले ब्रह्मलोक में ध्यान के पहले स्तर के द्वारा सबकुछ नष्ट कर देती है।

एक काला और एक सफ़ेद चूहा बारी-बारी घास की एक गठरी को बाँधने वाली रस्सी को कुतरते रहते हैं। इस उदाहरण में काला और सफ़ेद चूहा रात और दिन का प्रतीक हैं, घास की गठरी हमारा जीवनकाल, और गठरी को बाँधने वाली रस्सी हमारी जीवनावधि। इससे पहले कि यह रस्सी पूरी तरह से समाप्त हो जाए, और घास की गठरी, जो हमारी जीवनावधि को निरूपित करती है, बिखर जाए, हमें रचनात्मक कार्य करने के जितने भी अवसर मिलें उन सबको हथिया लेना चाहिए।

समय का हर पल हमें यमराज की ओर घसीट रहा है। जैसे किसी पशु को वधस्थल ले जाया जा रहा हो, वैसे ही प्रत्येक क़दम हमें मृत्यु के और अधिक निकट ला रहा है। हमारा प्रत्येक श्वास हमें मृत्यु के क़रीब ला रहा है। आज सुबह उठने के बाद हम और कितने क़रीब आए? यह सोचना कि हम तो अभी युवा हैं, अभी मृत्यु दूर है, मूर्खतापूर्ण बात है। यमराज को वय से कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि सफ़ेद बालों और धनुष की तरह मुड़े हुए शरीर वाले बूढ़े माता-पिता अपने बच्चों के शवों को कब्रिस्तान ले जा सकते हैं, तो हम यह कैसे कह सकते हैं कि काल उम्र देखता है? अतः, आयु की परवाह किए बिना धर्म-साधना करनी होगी, और केवल तब नहीं जब हम बूढ़े हो जाएँ। एकमात्र धर्म ही हमारे लिए हितकारी है।

आपका एकमात्र विश्वसनीय मित्र है आपकी अपनी साधना। मनुष्य विश्वास करने योग्य नहीं हैं। जब आपके धन की फ़सल ख़राब परिस्थितियों के ओलों से नष्ट हो जाती है तो उन आश्रितों से भी आपको किसी प्रकार का प्रतिदान मिलना मुश्किल हो जाएगा जिनकी आपने पहले देखभाल की थी। जब हम निर्धन हो जाते हैं तो सब हमारा साथ छोड़ देते हैं। यह मनुष्य का मूल स्वभाव है। जब हम बूढ़े और निर्धन हो जाएँगे तो लोग हमारी ओर मुड़कर भी नहीं देखेंगे। जब हम समृद्ध और विख्यात होते हैं तो लोग हमेशा हमारे आगे-पीछे घूमते रहते हैं। जब कोई समृद्ध होता है तो कई लोग यह जताते हुए आगे आते हैं कि उसकी प्रसिद्धि में उन लोगों का योगदान रहा है। लोग आपकी खुशी बाँटने की कोशिश करते हैं, आपके दु:ख-दर्द नहीं। जब वे आपसे कुछ प्राप्त नहीं कर सकते, तो आपकी उपेक्षा करते हैं। बुद्ध ने इसके ठीक विपरीत निर्धनों और ज़रूरतमंदों पर अधिक ध्यान दिया।

यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति आपके सबसे विश्वसनीय मित्र से कहता है कि आप किसी काम के नहीं हैं, तो वह मित्र आपके बारे में अपना विचार बदल देगा और डाँवाडोल हो जाएगा। बस कुछ ही शब्दों के प्रभाव में आकर वह अगले ही दिन आपको नापसंद करने लगेगा। यह उस कहावत को साबित करता है: "जो एक गिरह पर मिला करता था आज एक गज़ पर भी नहीं मिलता।" इसका अर्थ यह है कि अपने निकटतम बंधुओं को भी अपने से दूर करने के लिए केवल कुछ शब्द ही काफ़ी हैं। हमें धर्म में एक स्थायी मित्र को प्राप्त करना होगा। दोस्त भी एक दूसरे से सावधान रहते हैं और एक दूसरे की त्रुटियों और और दोषों को बताने में झिझकते हैं। ऐसे मित्र से अच्छा तो एक शत्रु है जो अधिक उपकारी होता है क्योंकि वह आपके दोषों पर उंगली उठाता है।

कुछ लोग तो धन-संपत्ति इकठ्ठा करते-करते अपनी सारी उम्र बिता देते हैं और, परिणामस्वरूप, वे बहुत बदल जाते हैं और बहुत कष्ट भी भोगते हैं। क्योंकि यह धन-संपत्ति इतने दु:खों का कारण होती है, हमें इसके मोह में नहीं बँधना चाहिए। धन से सुख का आभास होता है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। धन के प्रति हमारा आकर्षण लौ की ओर पतंगे या तितली के आकर्षण के समान है: यदि वह बहुत पास जाता है तो जल जाता है। समृद्ध लोग आनंदमय दिखते हैं, सुन्दर लगते हैं, उनके घर अच्छे होते हैं, और ऐसा लगता है कि उन्हें धन की कोई चिंता नहीं है। यह प्रलोभक लगता है परन्तु जब हम इस स्थिति को पूरी तरह से समझ जाते हैं तो हमें इसकी परेशानियाँ और नुकसान दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग धार्मिक होते हैं परन्तु, एक बार जब वे धनवान हो जाते हैं, तो धर्म में रुचि खो बैठते हैं और फिर उनका मन इसी सोच में डूबा रहता है कि किस प्रकार अधिक से अधिक धन कमाया जाए। हम सदा पुण्य अर्जित करते-करते थक जाते हैं, पर धन का संचयन करते नहीं थकते।

संक्षेप में, जीवन अनित्य है और मृत्यु अवश्यम्भावी है, इसलिए हमें उसके लिए तैयार रहना चाहिए। मृत्यु कब आएगी यह निश्चित नहीं है, पर एक बार जब वह आ जाए तो उसे टालना असंभव है। धनवान लोग इसे रिश्वत नहीं दे सकते, सौंदर्य इसे अपने मोह-पाश में नहीं बाँध सकता, और मल्ल इसे मल्ल-युद्ध में जीत नहीं सकता। ऐसा लगता है कि कुछ स्थानों पर धन वीज़ा या आवास अनुज्ञा की अवधि तो बढ़ा सकता है, परन्तु हमारे जीवन की अवधि नहीं।

जब यमदूत हमारे पास आते हैं तो हमें अपने इस शरीर को भी छोड़ना पड़ता है जो हमारे साथ जन्म से ही रहा है। यद्यपि हम गर्म शय्या पर लेटे-लेटे ही सिधार जाते हैं, पर जब हमारी चेतना चली जाती है तो हमें अपने रिश्तेदारों, मित्रों, और धन-संपत्ति को केवल एक अंतिम बार देखने का भी अवसर नहीं मिलता। यही जीवन की सच्चाई है और हमें इसकी तैयारी करनी होगी। हमें वह सब कुछ छोड़ना होगा जो हमने हर कठिनाई को अथक रूप से झेलकर संचित किया है। हमें अपने कुशल (रचनात्मक) एवं अकुशल (विनाशकारी) कर्मों के बोझ और उत्तरदायित्व को ढोकर इस जीवन से परे जाना होगा। कुछ बूढ़े माता-पिता अपने बच्चों और पोते-पोतियों के रहने के लिए घर बनाकर छोड़ जाते हैं, परन्तु उनके मरने के बाद उस घर को बनाने के लिए कीड़ों को मारने आदि जैसे जो भी विनाशकारी कर्म किए हैं उन सबका बोझ उन्हें लादकर जाना होगा, जबकि उनके बच्चे उस घर में रहने का आनंद लेते रहेंगे। अतः, इस प्रकार के कृत्यों से हम केवल नकारात्मक कर्मों का बोझ ही संचित करते हैं।

जब हम अंतराभाव के संकट भरे मार्गों पर चलते हैं और यमदूतों का सामना करते हैं, या वे हमें रोकते हैं, तब हमें अपने जीवन में धनार्जन हेतु कृत कर्मों की व्यर्थता का बोध होता है। भले ही उस समय हम अत्यधिक पश्चाताप कर भी लें उससे कोई लाभ नहीं होगा। एक लोकोक्ति के अनुसार: “यदि कोई पहले से सोचे तो वह बुद्धिमान है; यदि कोई बाद में पछताए तो वह मूर्ख।" अपरिचित स्थान में किसी अजनबी का एकमात्र सच्चा मार्गदर्शक है धर्म; लंबी यात्रा के प्रावधान हैं धर्म; समुद्र के दूसरे किनारे पर हमें सुरक्षित पहुँचाने वाला नाविक है धर्म। आज से ही मनसावाचाकर्मणा धर्म में ही लग जाइए।

अपना सुख सुनिश्चित करना हमारे वश में है, अतः हमें यह काम स्वयं करना होगा। यदि हम ऐसा नहीं करते, तो एक समय आएगा जब हम भ्रमित और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएँगे। एक धर्मात्मा और एक पापी की मृत्यु में बहुत अंतर होता है। दूसरा अज्ञान और दुःख से युक्त होकर मरता है। पहला शान्ति से अपना प्राण त्याग देता है, और इस क्षण के लिए अपनेआप को पहले से ही तैयार कर लेता है, अपनी संपत्ति को निर्धनों, नातेदारों, एवं अपने शरण्य इत्यादि में बाँट देता है। धर्मात्मा की तरह बनने के लिए हमें इन शिक्षाओं से यथासंभव सीखने का प्रयास करना चाहिए। हमें भोजन, निद्रा, और धन-संपत्ति को त्यागकर छद्म वैराग्य नहीं करना चाहिए, अपितु आध्यात्मिक और भौतिक ज़रूरतों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए, और यथासंभव साधना करते रहने का प्रयास करना चाहिए।

धर्म-साधना केवल तरह-तरह के वेश धारण करना और रीति-रिवाजों का पालन करना नहीं, अपितु स्नेह-भरे करुणासम्पन्न व्यक्तित्व का स्वामी होना है। एक तिब्बती महिला की कथा है जो मरने के बाद नरक में जाती है और यमराज से मिलती है। वह उन्हें बताती है कि यद्यपि उसने शारीरिक रूप से हानि पहुँचाई थी, मानसिक रूप से उसकी प्रेरणाएँ शुद्ध थीं। इसपर उस महिला को अपने उसी पुराने रूप में उसके जीवन में वापस भेज दिया गया। यह दर्शाता है कि दयालु हृदय से युक्त होना कितना आवश्यक है, हमारे कृत्य बाह्य रूप से चाहे जैसे भी प्रतीत हों।

एक कहावत है: "धर्म के बारे में अधिक बातें करने वाले धर्म-साधना कम करते हैं।" आतिश ने हमेशा इसपर बल दिया और जब भी वे किसी से मिलते तो सदा यह पूछते, "क्या आपका मन शुद्ध है?" जब द्रोमतोनपा ने आतिश की मृत्यु का समाचार सुना तो वे बहुत दु:खी हुए कि अंतिम क्षणों में वे आतिश के साथ नहीं थे। परन्तु आतिश अपने शिष्यों के लिए यह संदेश छोड़ गए थे कि अपने शरीर को छोड़ देने के बाद भी, यदि उनके शिष्यों का मन शुद्ध है, तो उन्हें आतिश को सशरीर देखने के समान होगा। यहाँ कदम्पा की शिक्षा को याद करना भी ठीक रहेगा कि यद्यपि हम अभी इस बात के लिए दुःखी हैं कि हम दूसरों को लाभ नहीं पहुँचा पा रहे, परन्तु यदि हम केवल दूसरों को हानि पहुँचाने से अपनेआप को रोक सकें, तो यह हमारी साधना के स्तर के हिसाब से बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। यह कोशिश करें कि किसी को दुःख न पहुँचाएँ।

जब तक हमारा श्वास प्रवाह समाप्त नहीं होता, हमारे पास सकारात्मक संभाव्यता संचित करने तथा अपने भविष्य को बनाने की क्षमता और शक्ति रहेगी। आप एकसाथ अपने सबसे अच्छे दोस्त और सबसे बड़े दुश्मन भी हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि भविष्य में आपके साथ क्या होगा। बिना धर्म-साधना के यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो वह किसी कुत्ते की मृत्यु के समान है, विशेष रूप से अंतराभाव के दौरान। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप मनुष्य के शरीर में पैदा हुए थे। धर्म का पालन नहीं करने वाले चक्रवर्ती सम्राट और सड़क पर मरने वाले कुत्ते में कोई अंतर नहीं होता। दोनों के मरने के बाद की अवस्था के लिए एक बार को यह भी कह सकते हैं कि कम-से-कम कुत्ते ने अपने लिए कम नकारात्मक कर्म संचित किए होंगे। इसलिए साधना के आरंभ, मध्य, और अंत में अनित्यता के बारे में सोचना महत्त्वपूर्ण है। यहाँ तक कि सबसे अनुभवी आचार्य भी अनित्यता की ध्यान-साधना करते हैं।

पदचिन्हों में सबसे बड़ा पदचिह्न होता है हाथी का। विचारों में सर्वोत्कृष्ट प्रभाव होता है अनित्यता का।

मिलरेपा ने धर्म में तब प्रवेश किया जब उन्होंने अपने काले जादू के द्वारा अपने गुरु की मृत्यु को देखा। गम्पोपा ने धर्म में तब प्रवेश किया जब उनकी पत्नी की मृत्यु हुई। इसी तरह, जब बुद्ध ने पहली बार मृत्यु को देखा तब उन्हें धर्म में प्रवेश करने और इस दुःख का समाधान ढूँढ़ने की प्रेरणा मिली। अनित्यता को केंद्रीय पथ (इसे माध्यमक या मध्यम मार्ग न समझें) भी कहा जाता है। यह वह केंद्रीय मार्ग है जिसका कार्य है इस जीवन के प्रति आसक्ति में बाधा उत्पन्न करना और अपनी सम्पूर्ण साधना के प्रति सकारात्मक विचारों को सिद्ध करना। "मध्यम मार्ग" के रूप में अनित्यता की इस दृष्टि की एक सारगर्भित व्याख्या भी है। इसे माध्यमक के संदर्भ में भी व्याख्यायित किया जा सकता है। अनित्यता मिथ्या आत्म की अवधारणाओं को समाप्त करके पारंपरिक आत्म के यथार्थ में हमें अव्यवस्थित करने में सहायता करने वाले माध्यमक दर्शन-शास्त्र को बेहतर रूप से समझने का आधार है।

अपने चित्त को चंचलता से मुक्त कर उसे धर्म पर केंद्रित करने में सक्षम होने के बाद हमें नीचे बताए गए कार्य करने चाहिए। यद्यपि इस संसार में कई साधना परम्पराएँ ऐसी हैं जो गहन और गंभीर होने के लिए प्रसिद्ध हैं, धर्म-साधना के प्रति पूरी तरह ग्रहणशील हो जाने के बाद, त्सोंखपा द्वारा स्थापित परम्परा के माध्यम से त्रिकाल बुद्ध की शिक्षाओं के पूर्ण सार का पालन करने का प्रयास करना सबसे उचित होगा। इसके लिए हमें सूत्र और तंत्र की संयुक्त एवं एकीकृत विधियों का पालन करना होगा, जिनमें व्याख्या और साधना दोनों ही सम्मिलित हैं। इसका अनुसरण करने के लिए हमें अपने मार्ग के स्वरुप, चरणों, तथा विभाजनों को जानना और उनका ठीक-ठीक पालन करना होगा। उदाहरण के लिए, हमें सूत्र से पहले तंत्र साधना नहीं करनी चाहिए, या अमूल्य मानव पुनर्जन्म, शरणागति, प्रतीत्यसमुत्पाद, आदि के बारे में जाने बिना बोधिचित्त का अध्ययन नहीं करना चाहिए, इत्यादि।

हमें संपूर्ण अचूक मार्ग तथा उसके उपदेशों की सहज प्रवृत्ति को अपने चित्त में दिन-प्रतिदिन बैठाने का प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार व्यापारी प्रतिदिन अधिक से अधिक सामान बेचने का प्रयास करता है हमें भी अधिक से अधिक बीज बोने होंगे ताकि हम यथासंभव अधिक से अधिक सकारात्मक संभाव्यताएँ संचित कर सकें। वास्तविक साधना में हम सूत्र एवं तंत्र के सामान्य संक्षिप्त मूलपाठों पर अवलोकन ध्यान-साधना कर सकते हैं, जैसे सद्गुण आधारशिला, जिसे प्रायः कंठस्थ किया जाता है और धीरे-धीरे लय में पढ़ा जाता है और उसपर ध्यान-साधना की जाती है, जिसे जोरचो  की प्रारंभिक साधना में भी पाया जा सकता है। ऐसा ही एक और ग्रन्थ है लाम-रिम के लघु बिंदु, जिसमें छः व्यापक मनोदृष्टियों का उल्लेख है। यह सद्गुण आधारशिला  जितना स्पष्ट नहीं है परन्तु इसमें तीन प्रकार के नैतिक आत्म-अनुशासन सम्मिलित हैं, जिनमें छः पारमिताएँ समाविष्ट हैं। एक और मूलग्रन्थ जिसका हम अवलोकन ध्यान-साधना के लिए उपयोग कर सकते हैं वह है गुरु पूजा - लामा चौपा  के लाम-रिम  क्रमिक स्तर के अंश। अवलोकन ध्यान-साधना वह कुशल पद्धति है जो हमने जो भी सीखा है उसका पुनरीक्षण करने और उसे अपनी पूर्णता में हमारे मन में एक साथ व्यवस्थित रखने में सहायता करती है। यह किसी भी स्थान को समग्रता में जानने के लिए उसके मानचित्र को देखने, या पूरे मैदान का किसी पर्वत से प्राप्त विहंगम दर्शन करने जैसा है।

हो सकता है कि अभी लाम–रिम  का अनुभव प्राप्त करना जटिल हो, परन्तु प्रतिदिन अवलोकन ध्यान-साधना करने से समग्र शिक्षाओं के अनुदेश हमारे चित्त में सुस्थापित हो जाएँगे। जब हम लाम–रिम  का ध्यान करते हैं तो हमें निर्देशों में दी गई सही रीति का पालन करना होता है। सबसे पहले हमें बोधिचित्त की प्रेरणा को तय करना चाहिए और अंत में समर्पण। जब हम सत्र के प्रारम्भ में ही अपनी प्रेरणा को तय करते हैं तो हमें यह मान लेना चाहिए कि हम यह ध्यान-साधना सबके लाभ हेतु कर रहे हैं। यदि यह संभव नहीं है तो कम-से-कम हमें त्याग की भावना बनाए रखनी चाहिए। अपनी ध्यान-साधना के अंत में हमें साधना द्वारा संचित की गई सकारात्मक क्षमता को सभी सीमित सत्त्वों के सुख और उनकी बुद्धत्व प्राप्ति के लिए समर्पित करना चाहिए। मैं आपसे यह आग्रह करता हूँ कि इस प्रकार की साधना में संलग्न होकर अपने अमूल्य मानव जीवन का सार ग्रहण करें। "सार ग्रहण" करने की व्याख्या के तीन स्तर हैं: महत, मध्यम और लघु। महत होता है इस जीवन-काल में ही बुद्ध बन जाना, मध्यम होता है सभी प्रकार के क्लेशों से विमुक्त हो जाना, और लघु होता है निम्नतर पुनर्जन्मों से विमुक्त हो जाना।

समर्पण

ऐसा हो कि इसके द्वारा संचित सकारात्मक बल की प्रचंडता एवं शक्ति से हम दुख के स्रोतों, अर्थात नित्यता, आसक्ति, एवं द्वेष के प्रति ललक (उपादान), को नष्ट करने में सक्षम हो जाएँ। ऐसा हो कि हम सत्यसिद्ध से संलग्न रहने की शक्तियों का विनाश कर सकें, जो संसार के दु:खों की जड़ है। ऐसा हो कि सभी महान शुद्ध अमरत्व की अवस्था, अर्थात बुद्धत्व, को प्राप्त कर लें।

आज धर्म के पराभव काल में एक दिन की धर्म-साधना धर्म के उत्थान के दौरान किए गए सैंकड़ों नैतिक कृत्यों के बराबर है। धर्म-साधना का अर्थ है सहृदय, कृपालु, दूसरों का ध्यान रखने वाला, करुणामय, तथा दूसरों को हानि पहुँचाने से स्वयं को रोकने वाला होना। यह गुरुओं की दया के ऋण से उऋण होने का मार्ग है। अपने अंतःकरण में द्वेष की भावना रखते हुए करुणामय होने का दिखावा करने के बजाय, निश्छल भाव से धर्म-साधना करना सर्वोत्तम है। मिलारेपा ने कहा, "न केवल अपने सुख के लिए, अपितु दूसरों के सुख के लिए भी काम करें। यही है अपने गुरु-पिता के ऋण से उऋण होने का  मार्ग।"

नवसाधकों के लिए धर्म में प्रवेश करने का सबसे उत्तम मार्ग है पहले दशाकुशलानी (दस विनाशकारी) कृत्यों के बारे में जान लें और फिर अपनेआप को उन्हें करने से रोकें। उसके बाद ही हम धीरे-धीरे अपने अभ्यास को बढ़ा सकते हैं और ध्यान-साधना में लीन होना प्रारम्भ कर सकते हैं। प्रारम्भ से ही तत्काल ध्यान-साधना करने का प्रयास हताशा, "कुंठित ऊर्जा का विचार" (“लुंग”), एवं भ्रान्ति को जन्म दे सकता है जिससे ध्यान-साधना के प्रति विरक्ति पैदा हो सकती है। यह धर्म-साधना का सबसे निरापद, सुप्रतिष्ठित, और पाखण्ड रहित आधार है। दशकुशलानी (दस रचनात्मक) कर्मों की नैतिकता का अभ्यास करते हुए हमें नैतिक आत्म-प्रतिष्ठा, इस बात का ध्यान रखना कि हमारे कर्म दूसरों पर कैसे प्रतिच्छवित होते हैं, स्मृति, एवं सम्प्रजन्य को विकसित करने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम बस कुछ भी कर लें जो हमें प्रियकर हो, बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि हमारे पहनावे, कर्म, विचार, तथा कथन का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें किसी को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए।

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