क्रमिक बौद्ध मार्ग का अनुसरण क्यों और कैसे किया जाए

लाम-रिम क्या है और बुद्ध की शिक्षाओं में से इसकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई?

क्रमिक मार्ग या लाम-रिम आधारभूत बौद्ध शिक्षाओं तक पहुँचने और उन्हें अपने जीवन में उतारने का मार्ग है। बुद्ध ने 2,500 वर्ष पूर्व जन्म लिया और वे भिक्षुओं और बाद में भिक्षुणियों के समुदायों के साथ रहे। उन्होंने केवल दीक्षाप्राप्त साधकों के समुदायों को ही उपदेश नहीं दिए, बल्कि अक्सर विभिन्न सामान्यजन भी उन्हें अपने घर पर आमंत्रित किया करते थे जहाँ उन्हें भोजन कराया जाता था, और फिर बाद में बुद्ध अपना उपदेश देते थे।

बुद्ध हमेशा “उपाय कौशल्य” के आधार पर अपने उपदेश देते थे, जिसका अर्थ है कि वे दूसरों को इस प्रकार से शिक्षा देते थे जिसे वे समझ सकें। ऐसा करना इसलिए आवश्यक था क्योंकि लोगों के बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास के अलग-अलग स्तर हुआ करते थे, और आज भी हैं। इसी कारण से बुद्ध ने अलग-अलग स्तरों पर अनेक प्रकार के विषयों के बारे में शिक्षाएं दीं।

बुद्ध के अनेक अनुयायियों की स्मरण शक्ति विलक्षण थी। उस युग में कुछ भी लिखा नहीं जाता था और भिक्षुगण शिक्षाओं को कंठस्थ कर लेते थे और मौखिक रूप से इन शिक्षाओं को आगे आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाते थे। बाद में शिक्षाओं को लिखा जाने लगा जिन्हें सूत्र कहा गया। कालांतर में कई शताब्दियों बाद अनेक भारतीय आचार्यों ने इस सामग्री को व्यवस्थित करने के लिए प्रयास किए और उसके बारे में टीकाएं लिखीं। अतिश नाम के एक भारतीय आचार्य ग्यारहवीं शताब्दी में तिब्बत गए जहाँ उन्होंने इस प्रस्तुति, लाम-रिम का प्रारूप तैयार किया।

अतिश के प्रारूप में एक ऐसी विधि प्रस्तुत की गई थी जिसकी सहायता से कोई भी स्वयं को विकसित करके बुद्धत्व प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकता था। बिना किसी भेद विचार के केवल सूत्रों का अध्ययन कर लेने से यह आवश्यक नहीं है कि हमें कोई ऐसा स्पष्ट आध्यात्मिक मार्ग मिल जाए जहाँ से हम शुरुआत कर सकें, या यह समझ सकें कि ज्ञानोदय को कैसे प्राप्त किया जाए। सम्पूर्ण सामग्री तो उपलब्ध है, किन्तु उसे पूरी तरह से व्यवस्थित करके रखना आसान नहीं होता है।

इस सामग्री को व्यवस्थित क्रम में प्रस्तुत करके लाम-रिम यही सुविधा प्रदान करता है। अतिश के बाद तिब्बत में इसके और भी बहुत से विस्तृत प्रारूप तैयार किए गए। यहाँ हम पंद्रहवीं शताब्दी में त्सोंग्खापा द्वारा लिखे गए संस्करण के बारे में विचार करेंगे, जिसमें इस सामग्री के बारे में सम्भवतः सबसे अधिक विस्तार से व्याख्या की गई है। त्सोंग्खापा की कृति की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सूत्रों और भारतीय भाष्यों से उद्धरण दिए गए हैं जिसके कारण हम आश्वस्त रह सकते हैं कि त्सोंग्खापा ने इसमें मनगढ़ंत बातें नहीं कही हैं।

इसकी एक और बड़ी विशेषता यह है कि त्सोंग्खापा ने सभी विषयों के बारे में बड़े विस्तार से तर्कपूर्वक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं ताकि हम तर्क और विवेक की कसौटी पर कस कर शिक्षाओं की अकाट्यता के बारे में और भी अधिक दृढ़ विश्वास विकसित कर सकें। त्सोंग्खापा का विशेष गुण यह है कि जहाँ पूर्ववर्ती लेखक सबसे अधिक कठिन विषयों को टाल जाते थे, वहीं त्सोंग्खापा ने उन विषयों पर विशेष रूप से अपना ध्यान केंद्रित किया है।

तिब्बत की चार बौद्ध परम्पराओं में से “गेलुग्पा” परम्परा की शुरुआत त्सोंग्खापा के साथ हुई।

आध्यात्मिक मार्ग का क्या अर्थ है, और इसका निर्माण कैसे किया जा सकता है?

प्रश्न दरअसल यह है कि आध्यात्मिक मार्ग का निर्माण किस प्रकार किया जाए? भारत में सामान्यतया इसके लिए अनेक प्रकार की विधियाँ सिखाई जाती थीं। उदाहरण के लिए, बुद्ध के समय में दूसरी सभी भारतीय परम्पराओं में एकाग्रता विकसित करने की विधियाँ समान रूप से सिखाई जाती थीं। यह कोई ऐसी बात नहीं थी जिसकी उन्होंने खोज की हो या जिसे अपने मन से गढ़ा हो। इस बात से हर कोई सहमत था कि आत्मविकास की दृष्टि से हमें इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि हम अपने आध्यात्मिक मार्ग में एकाग्रता और उससे जुड़े दूसरे सभी पहलुओं को किस प्रकार समाहित कर सकते हैं।

ज़ाहिर है कि आत्मविकास की दृष्टि से बहुत सी बातों को समझने के लिए बुद्ध की व्याख्या अलग थी, लेकिन आध्यात्मिक लक्ष्यों के बोध की दृष्टि से उनका नज़रिया बिल्कुल विशिष्ट था। इन आध्यात्मिक लक्ष्यों का प्रमुख सिद्धांत, जिसे विभिन्न क्रमिक स्तरों पर रखा जाता है, वह हमारी प्रेरणा है।

इस साहित्य को लाम-रिम का नाम दिया गया है, जहाँ “लाम” का अर्थ “मार्ग” है, और “रिम” से आशय इस मार्ग के क्रमिक स्तरों से होता है। अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हमें क्रमबद्ध तरीके से चित्त की जिन अवस्थाओं को विकसित करने की आवश्यकता होती है, वही मार्ग है। यह किसी स्थान पर पहुँचने के लिए हमारी यात्रा के जैसा ही है; यदि हम ज़मीन के रास्ते चलकर रोमानिया से भारत जाना चाहते हैं, तो फिर भारत हमारा अन्तिम लक्ष्य हुआ। लेकिन वहाँ पहुँचने से पहले हमें तुर्की, ईरान आदि देशों से होकर गुज़रना पड़ेगा तब कहीं अन्त में हम भारत पहुँचेंगे।

आध्यात्मिक प्रेरणा: हम अपने जीवन को सार्थक कैसे बनाएं

लाम-रिम में सामान्यतया हमारी प्रेरणा को ही क्रमिक रूप में विकसित किया जाता है, जिसे बौद्ध प्रस्तुति के अनुसार दो भागों में विकसित किया जाता है। प्रेरणा हमारे किसी लक्ष्य या उद्देश्य से जुड़ी होती है, और उस मनोभाव से जुड़ी होती है जो हमें उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए संचालित करता है। और अधिक स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हमारे पास कोई कारण होता है, और हमें उस लक्ष्य तक पहुँचने की प्रेरणा देने वाला कोई मनोभाव होता है।

हमारे दैनिक जीवन को देखने से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है; हम भी अपने जीवन की अलग-अलग अवस्थाओं में विभिन्न प्रकार के लक्ष्य निर्धारित करते हैं। उदाहरण के लिए, हम शिक्षा हासिल करना चाहते हैं, कोई जीवनसाथी चुनना चाहते हैं, या अच्छा रोज़गार आदि पाना चाहते हैं। इस लक्ष्य के साथ सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही प्रकार के मनोभाव जुड़े हो सकते हैं, और यह स्थिति अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होती है। जो भी हो, क्रमिक प्रेरणाओं वाली यह प्रस्तुति हमारे सामान्य जीवन की स्थितियों में लागू होती है।

हमारी आध्यात्मिक प्रेरणाओं के बारे में भी यही बात लागू होती है। ये ऐसी चित्तावस्थाएं होती हैं जो हमारे दैनिक जीवन में पूरी तरह से प्रासंगिक होती हैं। हम अपने जीवन को किस प्रकार संचालित करते हैं? एक तो “दुनियावी स्तर” होता है जहाँ हमारे परिवार, हमारे रोज़गार आदि से जुड़ी बातें होती हैं। लेकिन आध्यात्मिक स्तर पर हम क्या कर रहे हैं? इसका प्रभाव इस बात पर भी पड़ता है कि हम अपने जीवन को किस प्रकार से जीते हैं। यह बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है कि हमारे जीवन के ये दोनों पहलू एक-दूसरे के प्रतिकूल या अलग-अलग न हों, बल्कि इन दोनों के बीच तारतम्यपूर्ण मेल होना चाहिए।

इन दोनों पहलुओं के बीच तारतम्य तो होना ही चाहिए, साथ ही प्रत्येक पहलू दूसरे पहलू अवलंबन प्रदान करने वाला होना चाहिए। हमारा आध्यात्मिक जीवन ऐसा हो जो हमें अपने सामान्य दुनियावी जीवन को जीने की शक्ति प्रदान करे, और हमारा दुनियावी जीवन हमें अपने आध्यात्मिक जीवन की साधना करने के संसाधन उपलब्ध कराने वाला होना चाहिए। लाम-रिम के इन क्रमिक स्तरों से हम जो कुछ भी सीखते हैं उसे हमें अपने दैनिक जीवन में लागू करना चाहिए।

एक बेहतर व्यक्ति बनने की ओर

तो फिर, हम यहाँ प्रस्तुत की गई बौद्ध साधना का क्या उपयोग करें? सामान्यतया बौद्ध साधना के सार को थोड़े से शब्दों में ही व्यक्त किया जा सकता है। आसान शब्दों में कहा जाए तो हम एक बेहतर व्यक्ति बनने के लिए आत्मसुधार करते हैं। “बेहतर व्यक्ति” अभिव्यक्ति आलोचनात्मक लग सकती है, लेकिन यहाँ इसका अर्थ आलोचना नहीं है। इसका यह आशय नहीं है। हम तो केवल क्रोध, लोभ, स्वार्थपरायणता आदि जैसे उस विनाशकारी व्यवहार और उन नकारात्मक मनोभावों पर विजय का प्रयत्न कर रहे हैं जो कभी-कभी हमारे भीतर उत्पन्न हो जाते हैं।

इस प्रकार के लक्ष्य की प्राप्ति को अपना ध्येय बनाने के की दृष्टि से बौद्ध धर्म किसी भी प्रकार से कोई अनूठा धर्म या दर्शन या साधना नहीं है। हमें ईसाई धर्म, इस्लाम, यहूदी धर्म, हिन्दू धर्म में भी यही बात देखने के लिए मिलती है और मानवतावाद में भी यही बात दिखाई देती है। यह बात तो हर धर्म में है। दूसरे धर्मों में पाई जाने वाली विधियों की भांति बौद्ध विधियाँ हमें क्रमिक ढंग से एक बेहतर व्यक्ति बनने का मार्ग सुझा कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने में हमारी सहायता कर सकती हैं।

“बेहतर व्यक्ति” बनने की दृष्टि से हमें पहले तो विनाशकारी ढंग से व्यवहार करना बंद करना होगा जिसके कारण दूसरों को क्षति पहुँचती है। ऐसा करने के लिए हमें आत्मनियंत्रण का अभ्यास करना होगा। एक गहन स्तर पर, एक बार जब हम ऐसा कर लेते हैं तो फिर हम क्रोध, लोभ, आसक्ति, ईर्ष्या, घृणा आदि जैसे उन कारणों पर नियंत्रण पाने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं जिनकी वजह से हम विनाशकारी व्यवहार करते हैं। इन मनोभावों पर नियंत्रण पाने के लिए हमें समझना होगा कि कि ये नकारात्मक मनोभाव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं और कैसे अपना प्रभाव छोड़ते हैं। इस प्रकार हम एक ऐसा बोध विकसित कर लेते हैं जो इन अशांतकारी मनोभावों को कम या खत्म करने में सहायक होता है।

और इसके बाद हम इन सभी अशांतकारी मनोभावों की जड़ के रूप में अपने स्वार्थपूर्ण व्यवहार और केवल अपने बारे में सोचने की आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति को पहचान कर और भी गहन स्तर पर इन्हें नियंत्रित करने के लिए अभ्यास कर सकते हैं। हम सामान्यतया यह सोचते हैं कि, “हर समय मेरी मनमर्ज़ी ही चलनी चाहिए।“ जब हम अपनी मर्ज़ी नहीं चला पाते हैं तो अक्सर हम क्रोधित हो जाते हैं। हालाँकि हम चाहते हैं कि हमेशा सब कुछ हमारी मर्ज़ी के मुताबिक ही होना चाहिए, लेकिन ऐसा होना क्यों ज़रूरी है? इसका कतई कोई कारण नहीं है, सिवाए इसके कि हम ऐसा चाहते हैं। हर कोई इसी तरह सोचता है, और हम सभी का सोचना सही नहीं हो सकता है।

हम धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए उस स्तर तक पहुँचते हैं जहाँ हम समस्या के इस प्रमुख कारण पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम विश्लेषण करके देखें तो हमारी स्वार्थपरायणता “मैं” और मेरा “अहम” की अवधारणा पर टिकी होती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अपने अस्तित्व के बारे में हमारी अवधारणा यह होती है कि, “मैं कोई विशेष व्यक्ति हूँ,” हममें से प्रत्येक यह समझता है जैसे हम इस ब्रह्मांड का केंद्र हैं, हम ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं और दूसरे सभी लोगों से स्वतंत्र हैं। हमें इस दृष्टिकोण की जाँच करके देखनी चाहिए क्योंकि स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण बहुत ही गलत और विरूपित है। क्रमिक मार्ग इसी दृष्टिकोण को दुरुस्त करने का कार्य करता है।

प्रेरणा के क्रमिक स्तर: धर्म-लाइट

बुद्ध द्वारा सिखाई गई विधियाँ इस प्रकार के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। मूलतः हम किसी कारणवश क्रोध और स्वार्थपरायणता जैसे विनाशकारी व्यवहार और नकारात्मक मनोभावों से बचना चाहते हैं। वह कारण सम्भवतः यह है कि हमें इस बात का बोध होता है कि जब हम इन मनोभावों के प्रभाव में आकर व्यवहार करते हैं तो वह स्थिति सुखद नहीं होती है और इससे स्वयं हमारे लिए और दूसरों के लिए समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

हम समस्याओं को हल करने के इस कार्य को एक क्रमिक ढंग से भी कर सकते हैं। यदि मैं किसी निश्चित प्रकार का व्यवहार करता हूँ तो उससे तुरन्त समस्याएं और कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी के साथ झगड़ा कर लें और किसी को घायल कर दें, तो बदले में खुद हमें भी चोट लग सकती है या हमें जेल हो सकती है। और अधिक गहरे स्तर पर, हम अपने विनाशकारी व्यवहार के कारण लम्बी अवधि में उत्पन्न होने वाले प्रभावों के बारे में भी विचार कर सकते हैं, क्योंकि हम केवल वर्तमान में ही नहीं, बल्कि भविष्य में भी परेशानियों से बचना चाहते हैं। इस विचार को थोड़ा और आगे ले जाएं तो हम अपने परिजनों, प्रियजनों, मित्रों और समाज के लिए भी परेशानी और समस्या खड़ी करने से बचना चाहते हैं। यह सब कुछ इस जन्म की सीमाओं के भीतर सीमित है। यदि इससे भी आगे बढ़कर देखा जाए तो हम और भी व्यापक दृष्टिकोण अपना सकते हैं, जैसे हम भविष्य की पीढ़ियों के लिए वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं खड़ी करने से बचना चाहेंगे।

ऐसा नहीं है कि इन सभी प्रेरणाओं को विकसित करके हम पिछली प्रेरणाओं को छोड़ देते हैं, बल्कि ये प्रेरणाएं तो संचित होती रहती हैं और एक-दूसरे के साथ जुड़ती चली जाती हैं। यही क्रमिक मार्ग का सामान्य सिद्धांत है। ऊपर जो बातें कही गई हैं उन्हें मैं “धर्म-लाइट” कहता हूँ। इसमें बौद्ध शिक्षाओं को, “धर्म” को केवल इस जन्म की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है, इसमें पुनर्जन्म का कोई उल्लेख नहीं है। मैंने कोका-कोला लाइट और शक्कर युक्त असली कोका-कोला की तर्ज़ पर “धर्म-लाइट” और “असली धर्म” की इन अभिव्यक्तियों को गढ़ा है।

केवल इस जन्म को सुधारने के बारे में विचार करते हुए पुनर्जन्म को स्वीकार करना

“धर्म” एक संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका आशय बुद्ध की शिक्षाओं से होता है। “लाइट” का अर्थ यह नहीं है कि इसमें कोई कमियाँ हैं, बल्कि इसका अर्थ केवल इतना भर है कि यह सुदृढ़ और वास्तविक स्वरूप नहीं है। तिब्बती परम्पराओं में पाई जाने वाली लाम-रिम की प्रस्तुति ही वास्तविक स्वरूप है, लेकिन हममें से बहुत से लोगों के लिए शुरुआत में यह कठिन हो सकता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इसमें पूरी तरह से यह मान कर चला जाता है कि हम पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं, और इसके सभी विषयों को इस पूर्वधारणा के आधार पर प्रस्तुत किया गया है कि पुनर्जन्म होता है। इस दृष्टिकोण को लेकर हम अपने भविष्य के जन्मों में उत्पन्न होने वाली समस्याओं से बचने और भविष्य के जन्मों को बेहतर बनाने के लिए प्रयत्न करना शुरू करते हैं।

यदि भविष्य के जन्मों में हमारा विश्वास ही नहीं होगा तो फिर हम उन्हें सुधारने के लिए ईमानदारी से प्रयास ही कैसे कर सकेंगे? यह तो सम्भव ही नहीं है। यदि हमारे मन में पूर्व के या भविष्य के जन्मों को लेकर संदेह हो, और हम उन्हें लेकर आश्वस्त न हों या उन्हें समझ न सकते हों, तब हमें धर्म-लाइट से शुरुआत करने की आवश्यकता पड़ती है। हमें इस दृष्टि से अपने प्रति ईमानदार होना चाहिए कि हमारी आध्यात्मिक साधना का वास्तविक लक्ष्य क्या है।

हममें से अधिकांश के मामले में सम्भवतः हम अपने इस जन्म को थोड़ा बेहतर बनाना चाहते हैं। और यह लक्ष्य बिल्कुल वाजिब है। यह एक शुरुआती और बहुत ही आवश्यक कदम है। किन्तु धर्म-लाइट की साधना के इस स्तर पर इस बात को स्वीकार करना बहुत आवश्यक है कि यह धर्म-लाइट है, असली धर्म नहीं है। यदि हमें इन दोनों को लेकर भ्रम होगा तो हम बौद्ध धर्म को केवल एक और प्रकार की उपचार व्यवस्था या स्वसहायता का साधन बना कर रख देंगे। इसका दायरा बहुत सीमित हो जाएगा और ऐसा करना बौद्ध धर्म के प्रति अन्यायपूर्ण होगा।

असली धर्म की वास्तविकता में विश्वास करने की बात तो छोड़ ही दें, यदि हमें इस बात की समझ न हो कि असली धर्म क्या है, तो हमें इस बात को भी स्वीकर करना चाहिए। हमें खुले मन से विचार करना चाहिए, “मैं विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता कि भविष्य के जन्मों और मुक्ति के बारे में जो बातें बताई जाती हैं, वे सही हैं या नहीं, लेकिन फिलहाल मैं धर्म-लाइट के स्तर पर अभ्यास शुरू करूँगा। जैसे-जैसे मैं अपने आप को और अधिक विकसित कर लूँगा और अधिक ध्यानसाधना करूँगा तो सम्भवतः मैं असली धर्म को और बेहतर ढंग से समझ सकूँगा।“ यह एक पूरी तरह मान्य और सही दृष्टिकोण है जो बुद्ध के प्रति सम्मान और इस दृढ़ विश्वास पर आधारित है कि जब बुद्ध ने इन बातों के बारे में शिक्षा दी तो वे कोई अनर्गल बातें नहीं कह रहे थे।

हमें इस बात को भी स्वीकार करना चाहिए कि हमारे मन में भविष्य के जन्मों और मुक्ति जैसी बातों को लेकर कुछ विचार हो सकते हैं जो पूरी तरह गलत हों, और बौद्ध धर्म ऐसी पूर्वधारणाओं या व्याख्याओं को भी स्वीकार नहीं करेगा। इसलिए हमारी दृष्टि में किसी बात का जो अर्थ है या जो बात हमें हास्यास्पद लगती है, बुद्ध को भी वह बात हास्यास्पद लग सकती है क्योंकि वह धारणा पूरी तरह गलत बोध पर आधारित है। उदाहरण के लिए, बुद्ध भी इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि हम पंखों से युक्त ऐसी आत्मा हैं जो उड़कर एक शरीर से निकल जाती है और फिर किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कर लेती है। बुद्ध भी इस विचार को अस्वीकार कर देंगे कि हम स्वयं सर्वशक्तिमान ईश्वर बन सकते हैं।

अनादि पुनर्जन्म की दृष्टि से विचार करने के फायदे

इस क्रमिक मार्ग में प्रस्तुत की गई अधिकांश विधियों को धर्म-लाइट या असली धर्म की साधना में लागू किया जा सकता है। किन्तु कुछ विधियाँ ऐसी हैं जो सचमुच भविष्य के जन्मों के बोध को हासिल करने पर निर्भर करती हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम प्रत्येक जीव के प्रति समान प्रेमभाव विकसित करना चाहते हैं तो ऐसा करने की एक विधि यह है कि हम यह मानें कि प्रत्येक जीव अनादि पुनर्जन्मों से होकर गुज़रा है और यह कि जीवों की संख्या निश्चित है। यहाँ से शुरुआत करके हम इस तर्कसम्मत निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक जीव पिछले जन्मों में हमारी माता रह चुका है और दूसरे सभी जीवों की भी माता रह चुका है। और हम भी प्रत्येक जीव की माता रह चुके हैं। अनादि किन्तु जीवों की निश्चित संख्या के इस तर्क को गणित की सहायता से प्रमाणित किया जा सकता है। यदि समय और जीवों की संख्या, दोनों ही असीमित होते, तो फिर हम इस बात को सिद्ध नहीं कर सकते थे।

ज़ाहिर है कि यह विषय समझने की दृष्टि से बहुत ही कठिन है, खास तौर पर तब जब हमने अनगिनत पूर्वजन्मों की दृष्टि से कभी विचार ही न किया हो। अनगिनत पुनर्जन्मों के आधार पर हम यह विचार कर सकते हैं कि सभी जीवों ने किसी न किसी जन्म में हमारी माता के रूप में हमें प्रेम किया है, और उसके महत्व को मानते हुए हम उनके प्रति दयाभाव रखते  हुए उनके उस प्रेम को लौटाने के बारे में विचार कर सकते हैं। पूरा विकास इसी पर आधारित होता है। इस प्रक्रिया में हम इस बात को देखने-समझने की कोशिश करते हैं कि किसी न किसी समय पर कोई न कोई व्यक्ति हमारी माता रह चुका है। हम भले ही पिछले दस मिनट से, दस दिनों से, या दस वर्षों से अपनी माता से न मिले हों, फिर भी वह हमारी माता ही हैं। यदि हम पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं तो इस प्रकार विचार करना बहुत ही उपयोगी होता है। इस विश्वास के बिना यह सिर्फ एक अनर्गल बात है।

जब हम केवल लोगों के बारे में ही नहीं, बल्कि मच्छरों के बारे में विचार करते हैं तब यह बात विशेष तौर पर लागू होती है। यह मच्छर किसी पूर्वजन्म में हमारी माता रह चुका है क्योंकि पुनर्जन्म तो ऐसे किसी भी जीव के रूप में हो सकता है जिसमें मानसिक कार्य करने की क्षमता हो। इसका एक धर्म-लाइट संस्करण भी है जहाँ हम यह विचार करते हैं कि किस प्रकार कोई भी हमें घर ले जाकर हमारी देखभाल कर सकता है और हमें भोजन आदि उपलब्ध करा सकता है। ऐसा कोई भी कर सकता है; अक्सर ऐसा देखा जाता है कि पूरी तरह अजनबी लोग हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करते हैं और हमारा आदर-सत्कार करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह व्यक्ति पुरुष है या महिला है, कोई भी व्यक्ति हमारे प्रति माता जैसा व्यवहा कर सकता है। कोई बालक बड़ा होकर हमारी देखभाल कर सकता है। इस प्रकार विचार करना बहुत उपयोगी हो सकता है, हालाँकि इसकी कुछ सीमाएं हैं क्योंकि ऐसा मानना कठिन होता है कि हमें दिखाई देने वाला यह मच्छर कभी हमें अपने घर ले गया होगा और उसने माँ की तरह हमारी देखभाल की होगी।

इससे पता चलता है कि किस प्रकार विधियों को धर्म-लाइट और असली धर्म के स्तरों पर लागू किया जा सकता है। दोनों ही विधियाँ अपने-अपने ढंग से बहुत उपयोगी हैं, लेकिन धर्म-लाइट स्वरूप थोड़ा सीमित है। असली धर्म की विधि से उत्पन्न होने वाली सम्भावनाएं कहीं अधिक व्यापक होती हैं। हम कोई सी भी विधि को अपनाएं, मुख्य बात यह है कि इसे हम अपनपे दैनिक जीवन में लागू करें। जब हम यातायात की भीड़ में फंसे होते हैं या किसी लम्बी कतार में खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, और हमें दूसरों पर क्रोध आने लगता है या हम धीरज खोने लगते हैं, तब हम उन सभी लोगों को अपनी माताओं के रूप में देख सकते हैं। हम इसके बारे में किसी पूर्व जन्म की दृष्टि से या इसी जन्म की दृष्टि से विचार कर सकते हैं, और ऐसा करने से हमारे क्रोध को शांत करने में मदद मिलेगी, धैर्य विकसित करने में सहायता मिलेगी। यदि हमारी माता कतार में हमसे आगे खड़ी हों और यदि उन्हें पहले सेवा पाने का मौका मिल सके तो हमें इससे कोई आपत्ति नहीं होगी। बल्कि हमें इस बात की बहुत खुशी होगी कि हमारी माता को सेवा पाने का मौका पहले मिले। इस प्रकार हम इन बोधों को लागू करने का प्रयास कर सकते हैं। हमें चित्त की इन अवस्थाओं को केवल ध्यान की अवस्था में बैठे होने के समय ही विकसित नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें दैनिक जीवन की स्थितियों में भी लागू करना चाहिए।

आत्मसुधार की विधि के रूप में ध्यानसाधना का प्रयोग

जब हम अपने आप में सुधार करने की दृष्टि से धर्म की प्रक्रिया की बात करते हैं तो हमारा यही आशय होता है। जब हम अपने कमरे के शांत, नियंत्रित वातावरण में ध्यानसाधना करते हैं तब हम इस प्रकार के बोध और सकारात्मक मनोदशाओं को विकसित करने का अभ्यास कर रहे होते हैं। हम अपनी कल्पना का प्रयोग करके दूसरे लोगों के बारे में विचार करते हैं और उनके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करते हैं। हालाँकि ऐसा करना किसी भी दृष्टि से पारम्परिक विधियों में शामिल नहीं है, फिर भी मुझे लगता है कि अपनी ध्यानसाधना के दौरान लोगों के चित्रों को देखने की विधि पूरी तरह से मान्य विधि है। 2500 साल पहले लोगों के चित्र उपलब्ध नहीं हुआ करते थे, और मुझे नहीं लगता है कि इस प्रक्रिया में हमारे समय की आधुनिक प्रौद्योगिकी को शामिल करने में कोई हर्ज है।

एक बार जब हम किसी सकारात्मक चित्तवृत्ति का पर्याप्त अभ्यास कर लेते हैं तो फिर हम उसे अपने दैनिक जीवन में आज़माते हैं। यही इसका पूरा मकसद है। अपने आसन पर बैठे हुए हम दूसरों के प्रति प्रेमसिक्त विचारों में डूबे रहें और जब वहाँ से उठें तो अपने परिवार के सदस्यों और सहयोगियों पर क्रोधित हों, यह तो इसका वांछित परिणाम नहीं है। इसलिए हमें अपने ध्यानसाधना के अभ्यास को जीवन से भागने या विमुख होने के साधन के रूप में नहीं देखना चाहिए, जहाँ हम कुछ मिनटों का समय अपने आपको शांत करने के लिए लगाना चाहते हों। और यदि हम अपनी ध्यान साधना में किसी कल्पना लोक में चले जाएं और अनेक प्रकार की अविश्वसनीय चीज़ों की कल्पना करने लगें तो यह भी एक प्रकार का पलायन होगा। ध्यानसाधना इस सबसे अलग होनी चाहिए; हम इसलिए अभ्यास करते हैं ताकि हम जीवन की समस्याओं को नियंत्रित करने में सक्षम हो सकें।

यह कठिन कार्य है, और हमें अपने आपको धोखे में नहीं रखना चाहिए, और न ही किसी प्रकार के विज्ञापनों से इस धोखे में आना चाहिए कि यह अभ्यास बहुत जल्दी और आसानी से किया जा सकता है। स्वार्थपरायणता और दूसरे विनाशकारी मनोभावों पर नियंत्रण पाना आसान नहीं होता है क्योंकि ये हमारी आदतों की बहुत गहरी जड़ों में जमे हुए होते हैं। इन पर नियंत्रण पाने का एकमात्र तरीका यही है कि हम चीज़ों के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलें और इन विनाशकारी चित्तवृत्तियों का कारण बनने वाली मिथ्या दृष्टि या भ्रम से मुक्त हों।

वीडियो: मैथ्यू रिकार्ड – परोपकारी प्रेम की ध्यान साधना
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सारांश

बौद्ध धर्म की साधना को धर्म-लाइट और असली धर्म के दो भागों में बांटा जा सकता है। धर्म-लाइट की साधना से हम जीवन में आने वाली समस्याओं से बेहतर ढंग से निपटने के लिए आवश्यक साधन जुटाकर अपने इस जन्म को सुधारना चाहते हैं। धर्म-लाइट में कतई कोई बुराई नहीं है, लेकिन कोका-कोला लाइट की ही भांति यह भी असली कोका-कोला जितना स्वादिष्ट नहीं हो सकता है।

पारम्परिक तौर पर लाम-रिम की शिक्षाओं में उन विचारों में से किसी विचार का उल्लेख नहीं मिलता है जिनके बारे में हमें धर्म-लाइट की चर्चा के दौरान उल्लेख किया है, क्योंकि उसमें पूर्वजन्म और भविष्य के पुनर्जन्म की पूर्वधारणा को माना जाता है। जो भी हो, अपने जीवन को बेहतर बनाने और बेहतर व्यक्ति बनने की इच्छा रखना असली धर्म की साधना के मार्ग का पहला कदम तो है ही।

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