नागार्जुन और असंग, ये दोनों ही महायान परम्परा के दो महान प्रवर्तक हुए हैं। जहाँ नागार्जुन ने मंजुश्री से प्राप्त शून्यता के गहन विचारों की श्रृंखला का प्रसार किया वहीं असंग ने मैत्रेय से प्राप्त बोधिसत्व साधनाओं की शिक्षाओं को आगे बढ़ाया।
नागार्जुन का जन्म सम्भवतः पहली शताब्दी के मध्य में या दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में दक्षिण भारत के विदर्भ साम्राज्य, जो वर्तमान समय के महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में स्थित है, में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। लंकावतार सूत्र जैसे अनेक सूत्रों में उनके बारे में भविष्यवाणी की गई थी। जन्म के समय एक भविष्यवक्ता ने उनके बारे में कहा कि वे केवल सात दिनों तक ही जीवित रहेंगे, किन्तु यदि उनके माता-पिता एक सौ भिक्षुओं को भेंट-चढ़ावा दें तो वे सात वर्ष तक जीवित रह सकेंगे। अपनी संतान के जीवन के प्रति आशंकित नागार्जुन के माता-पिता ने उन्हें उत्तर भारत में स्थित नालंदा मठीय विश्वविद्यालय भेज दिया, जहाँ उनकी भेंट बौद्ध आचार्य सरह से हुई। सरह ने उन्हें बताया कि यदि वे त्यागी सन्यासी हो जाएं और अमिताभ के मंत्र का जाप करें तो वे दीर्घायु हो जाएंगे। नागार्जुन ने वैसा ही किया और वे “श्रीमंत” नाम धारण करके मठ में शामिल हो गए।
नालंदा में नागार्जुन ने मंजुश्री के स्वरूप रत्नमति और सरह से सूत्र और तंत्र की, विशेष तौर पर गुह्यसमाज तंत्र की शिक्षा प्राप्त की। इसके अलावा उन्होंने एक ब्राह्मण से रसायन विद्या की भी शिक्षा प्राप्त की और लोहे को सोने में बदलने की योग्यता हासिल कर ली। अपनी इस योग्यता का उपयोग करके वे अकाल के समय में भी नालंदा के भिक्षुओं के लिए भोजन की व्यवस्था कर पाते थे। बाद में वे नालंदा के मठाध्यक्ष हो गए। मठाध्यक्ष के रूप में उन्होंने आठ हज़ार ऐसे भिक्षुओं को निष्कासित किया जो विनय के शील का समुचित पालन नहीं करते थे। उन्होंने पाँच हज़ार गैर-बौद्धों को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया।
एक बार नाग देश के राजा के दो पुत्र दो युवकों का रूप धारण करके नालंदा आए। उनके शरीर से चंदन की प्राकृतिक सुगंध निकलती थी। जब नागार्जुन ने उनसे इसके बारे में प्रश्न पूछा तो उन्होंने अपनी असली पहचान स्वीकार कर ली। इसके बाद नागार्जुन ने उनसे तारा की एक प्रतिमा के लिए चंदन की सुगंध और मंदिरों के निर्माण के लिए नागों की सहायता की मांग की। वे अपने नाग देश लौट गए और वहाँ जाकर उन्होंने अपने पिता को इस मांग के बारे में बताया तो उनके पिता ने कहा कि वह केवल इस शर्त पर सहायता करेंगे कि नागार्जुन समुद्र के नीचे स्थित उनके लोक में आएं और उन्हें शिक्षा प्रदान करना स्वीकार करें। नागार्जुन अनेक प्रकार की भेंट और उपहार लेकर वहाँ गए और उन्होनें नागों को शिक्षा प्रदान की।
नागार्जुन जानते थे कि नागों के पास शतसहस्रिका-प्रज्ञापारमिता सूत्र है, इसलिए उन्होंने उसकी एक प्रति दिए जाने के लिए अनुरोध किया। जब बुद्ध ने प्रज्ञापारमिता, व्यापक सविवेक बोध (ज्ञान पारमिता) की शिक्षा दी थी, तब उसकी एक-एक प्रति नाग, देवता, और धन के स्वामी यक्ष सुरक्षित रखने के लिए अपने-अपने साथ ले गए थे। इस प्रकार नागार्जुन एक सौ हज़ार छंदों वाले उस संस्करण को अपने साथ वापस लेकर आए, लेकिन नागों ने अंतिम दो अध्याय यह सुनिश्चित करने के लिए अपने पास ही रख लिए कि नागार्जुन उन्हें और अधिक शिक्षा देने के लिए वापस लौट कर आएं। बाद में उन अंतिम दो अध्यायों को अष्टसहस्रिका-प्रज्ञापारमिता सूत्र के अंतिम दो अध्यायों में शामिल किया गया। यही कारण है कि इन दोनों पाठों के अंतिम दो अध्याय एक जैसे ही हैं। नागार्जुन अपने साथ नाग लोक की मिट्टी भी लेकर आए जिसकी सहायता से उन्होंने कई मंदिरों और स्तूपों का निर्माण किया।
एक बार जब नागार्जुन प्रज्ञापारमिता की शिक्षा दे रहे थे तो उन्हें धूप से बचाने के लिए छह नागों ने मिलकर उनके सिर के ऊपर एक छतरी का निर्माण किया। यही कारण है कि चित्रों में नागार्जुन के सिर के ऊपर छह नागों को दर्शाया जाता है। इस घटना से उन्हें नाग नाम दिया गया। और चूँकि धर्म की शिक्षा देने में उनका कौशल ऐसा था कि उनकी कही हुई बात विख्यात धनुर्धर अर्जुन (हिन्दू गौरव ग्रंथ भगवद् गीता के नायक का नाम) के तीर की भांति सीधे अपने लक्ष्य पर पहुँचती थी, इसलिए उन्हें अर्जुन नाम दिया गया। इस प्रकार उनका नाम “नागार्जुन” पड़ा।
बाद में नागार्जुन शिक्षा देने के लिए उत्तरी द्वीप (उत्तरी महाद्वीप) की यात्रा पर गए। मार्ग में उन्हें कुछ बच्चे सड़क पर खेलते हुए मिले। उन्होंने भविष्यवाणी की कि उनमें से एक बालक, जिसका नाम जेतक था, एक दिन राजा बनेगा। जब नागार्जुन उत्तरी द्वीप से लौटे तब तक वह बालक बड़ा हो गया था और दक्षिण भारत में एक बड़े साम्राज्य का सम्राट बन चुका था। नागार्जुन तीन वर्षों तक उसके पास रहे जहाँ उन्होंने सम्राट को शिक्षा दी, और उसके बाद उन्होंने अपने अंतिम वर्ष उसी शासक के साम्राज्य में श्रीपर्वत नामक एक अन्य स्थान पर बिताए जो आधुनिक समय के नागार्जुनकोंडा के समीप एक पवित्र पर्वत है। नागार्जुन ने उस सम्राट के लिए रत्नावली की रचना की। नागार्जुन ने इसी सम्राट अर्थात उदयभद्र को सम्बोधित करते हुए सुहृलेख की भी रचना की थी।
पश्चिम जगत के कुछ विद्वान सम्राट उदयभद्र की पहचान सातवाहन राजवंश (230 ईसा पूर्व से 199 ईसवी) जिसका साम्राज्य वर्तमान समय के आंध्र प्रदेश राज्य में था, के सम्राट गौतमीपुत्र शतकर्णी (शासनकाल 106 – 130 ईसवी) के रूप में करते हैं। कुछ उसकी पहचान अगले सम्राट वशिष्टपुत्र पुलुमयी (130 – 158 ईसवी) के रूप में करते हैं। उसकी ठीक-ठीक पहचान कर पाना कठिन है। सातवाहन राजवंश अमरावती स्थित उस स्तूप का संरक्षक था जहाँ बुद्ध ने पहली बार कालचक्र तंत्र की शिक्षा दी थी और यह स्तूप श्रीपर्वत के भी निकट था।
सम्राट उदयभद्र का एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुमार शक्तिमान था और वह राजा बनने का इच्छुक था। उसकी माता ने उसे बताया था कि चूँकि नागार्जुन और सम्राट का जीवन काल एक-बराबर था, इसलिए जब तक नागार्जुन की मृत्यु न हो जाए, वह राजा नहीं बन सकता था। उसकी माँ ने उसे सिखाया कि वह नागार्जुन से उनके शीश की मांग करे, और चूँकि नागार्जुन बड़े ही करुणावान थे इसलिए वे निश्चित तौर पर अपना शीश उसे देने के लिए सहमत हो जाएंगे। नागार्जुन वस्तुतः अपना शीश देने के लिए सहमत हो भी गए, किन्तु कुमार तलवार की सहायता से उनके शीश को काट ही न सका। तब नागार्जुन ने उसे बताया कि अपने पिछले किसी जन्म में उन्होंने घास काटते समय एक चींटी की हत्या की थी। उस कर्म के परिणामस्वरूप उनके शीश को कुश घास की पत्ती से ही काटा जा सकता है। कुमार ने वैसा ही किया और नागार्जुन की मृत्यु हो गई। उनके कटे हुए शीश से बहने वाला रक्त दूध बन गया और उनके शीश ने कहा, “अभी मैं सुखवती पुण्य भूमि को जाऊँगा, किन्तु बाद में मैं एक बार पुनः इस काया में प्रवेश करूँगा।“ कुमार कटे हुए शीश को शरीर से बहुत दूर ले गया, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि कटा हुआ सिर और शरीर हर वर्ष एक-दूसरे के नज़दीक आ रहे हैं। जब वे जुड़ जाएंगे तो नागार्जुन लौट आएंगे और एक बार फिर शिक्षा देंगे। कुल मिलाकर, नागार्जुन छह सौ साल तक जिए।
सूत्र के विषयों पर नागार्जुन द्वारा लिखे गए अनेक ग्रंथों में उनका तर्क समुच्चय, स्तवन समुच्चय और उपदेशात्मक व्याख्या समुच्चय शामिल हैं।
छह तर्क समुच्चय निम्नलिखित हैं:
उनके स्तवन समुच्चयों में निम्नलिखित शामिल हैं:
नागार्जुन के उपदेशात्मक व्याख्या समुच्चयों में निम्नलिखित शामिल हैं:
इनके अलावा गुह्यसमाजतंत्र पर अनेक भाष्यों के लेखक होने का श्रेय भी नागार्जुन को ही दिया जाता है, जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
आर्यदेव नागार्जुन के सबसे प्रसिद्ध शिष्य हुए जिन्होंने बोधिसत्वयोगाचर्य चतुःशतकशास्त्रकारिका की रचना की और गुह्यसमाजतंत्र पर अनेक भाष्य लिखे।
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