बौद्ध धर्म का निचोड़ है कि यदि हम दूसरों की सहायता कर सकते हैं तो हमें ऐसा करना चाहिए; पर यदि हम सहायता नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों को हानि पहुंचाने से तो बचे रहें। नैतिक जीवन जीने का यही सार है।
किसी भी काम के पीछे कोई प्रेरणा होती है। यदि हम किसी का अहित करते हैं तो वह किसी प्रेरणा से करते हैं; और यदि हम किसी की सहायता करते हैं तो वह भी किसी प्रेरणा से ही होता है। उसके लिए हमें कुछ तथ्यों को समझने की जरूरत है। हम मदद क्यों करते हैं और दूसरों को हानि क्यों नहीं पहुंचाते?
उदाहरण के लिए, जब हम किसी को हानि पहुंचाना चाहते हैं, तो हमारे अंदर एक प्रकार की चेतना उत्पन्न होती है जो हमें ऐसा करने से रोकती है। इसका मतलब हुआ कि हमारे भीतर एक प्रकार का निश्चय होना चाहिए ताकि हम हानि न पहुंचाएं, हमारे चित्त का एक कोना किसी को हानि पहुंचाना चाहता है, परन्तु चित्त की विशिष्ट मनोदशा के कारण, हमारे चित्त का दूसरा भाग यह कहता है कि यह गलत है, यह ठीक नहीं है। चूंकि हम देखते हैं कि यह गलत है तो हम अपने अंदर एक इच्छा शक्ति का विकास कर लेते हैं और स्वयं को रोक पाते हैं। दोनों ही विकल्पों में [कि हानि पहुंचाएं अथवा ऐसा करने से बचें], हमारे भीतर एक जागरूकता होनी चाहिए कि कुछ कार्यों के नतीजे एक लम्बे समय तक असर डालते हैं। मनुष्य होने के नाते हममें लम्बे समय के नतीजे को देखने की बुद्धि है। और जब हम उन्हें देखते हैं, तो तत्काल हम स्वयं को रोक सकते हैं।
यहां हम दो प्रकार के रास्ते चुन सकते हैं। पहले रास्ते से हम अपने हित के बारे में सोचते हैं और फिर यदि किसी की सहायता कर सकते हैं तो ऐसा करते हैं और यदि सहायता नहीं कर सकते तो [अहित करने से] हम अपने को रोकें। दूसरा रास्ता है कि दूसरों के हित के बारे में सोचें और इसी तरह यदि हम सहायता कर सकते हों तो करें और यदि नहीं तो [अहित करने से] स्वयं को रोकें। दूसरों का अहित करने के संदर्भ में, ऐसा विचार, ‘कि यदि मैंने ऐसा किया तो मुझे नकारात्मक परिणामझेलने होंगे जिसमें कानूनी परिणाम भी शामिल होगा’ वस्तुत: अपनी भलाई के लिए अपने को रोकना है। अब दूसरों के बारे में सोचने के हमारे कारणको लें, तो हम सोचेंगे : कि ‘दूसरे भी बिल्कुल मेरी ही तरह हैं। वे भी दु:ख तथा पीड़ा से बचते हैं, इसलिए मैंउन्हें हानि पहुंचाने से स्वयं को रोकूंगा।'
जब हम स्वयं को [अपने चित्त को] प्रशिक्षित करते हैं, तो पहले अपने हित के बारे में सोचते हैं और फिर प्रबल रूप से दूसरों के विषय में सोचते हैं। कारगर होने की दृष्टि से दूसरों के विषय में प्रबल रूप से सोचना अधिक प्रभावकारी होता है। जहां तक प्रतिमोक्ष – निजी निर्वाण के व्रत का संबंध है जो कि विनय परंपरा में संघ का प्रशिक्षण है – इसका जो प्राथमिक आधार है, वह अपने हित के बारे में सोचना है और इसी कारण हम दूसरों का अहित करने से बचते हैं। उसका कारण है कि हमारा उद्देश्य मुक्ति है। बोधिसत्व केआचरण के अनुसार दूसरों को हानि न पहुंचाने का कारण है, दूसरों के हित के विषय में सोचना। दूसरों को हानि पहुंचाने से बचने का जो दूसरा मार्ग है, वह शायद परकल्याण पर आधारित है, उसका संबंध सार्वभौमिक उत्तरदायित्व से है जिसके बारे में मैं अक्सर बोला करता हूं।
मनुष्य के रूप में हमारा मूल स्वभाव
साधारणतया हम मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं। वह चाहे कोई भी हो उसका जीवन मानव समुदाय के अन्य लोगों पर निर्भर करता है। चूंकि एक व्यक्ति विशेष का जीवन और उसकी खुशहाली पूरे समाज पर निर्भर करती है तो दूसरों की खुशहाली की आवश्यकता के बारे में सोचना और उसके बारे में चिंतित रहने की भावना हमारी आधारभूत प्रकृति से जन्म लेती है। उदाहरण के लिए यदि हम बैबून को देखें तो सबसे अधिक उम्र वाला पूरे झुंड की जिम्मेदारी लेता है। जब अन्य बैबून खा रहे होते हैं तो एक नर बैबून हमेशा एक ओर खड़ा निगरानी करता रहता है। अपने समाज की खातिर अधिक शक्तिशाली बैबून समूह के बाकी सदस्यों की देखभाल करने में मदद करता है।
प्रागैतिहासिक काल में हम मनुष्यों के पास न कोई शिक्षा थी और न ही तकनीकी ज्ञान। आधारभूत मानव समाज बहुत ही सरल था : सभी साथ काम करते और मिल बांट कर रहते थे। साम्यवादी कहते हैं कि यह साम्यवाद का मूल रूप था: सभी का साथ काम करना और आनंद उठाना। फिर शिक्षा का विकास हुआ और हम सभ्य हो गए। चित्त [मनुष्य का], और बनावटी हो गया और इसलिए लालच अधिक बढ़ गया। उसके साथ ईर्ष्या और घृणा आई और समय के साथ ये भाव जड़ पकड़ते गए।
आज इक्कीसवी सदी में [मानव समाज में] अत्यधिक बदलाव आए हैं, हमारे बीच अंतर बढ़ गए हैं, शिक्षा, नौकरी तथा सामाजिक पृष्ठभूमि के क्षेत्र में। पर उम्र या जाति का अंतर भी इतना महत्व नहीं रखता। आधारभूत स्तर पर हम सभी अब भी मनुष्य हैं और हम सब एक समान हैं। यह सैंकड़ो हजारों साल पहले की अवस्था है।
छोटे बच्चोंका व्यवहार इस तरह का होता है। वे दूसरे बच्चों की सामाजिक पृष्ठभूमि, धर्म, जाति, रंग और धन की चिंता नहीं करते। वे सभी साथ खेलते हैं; जब तक कि उनमें दोस्ती बनी रहती है वे सच्चे अर्थ में एक दूसरे के मित्र होते हैं। अब हम बड़े कहने के लिए तो अधिक बुद्धिमान और अधिक विकसित माने जाते हैं पर हम दूसरों की सामाजिक पृष्ठभूमि केआधार पर निर्णय लेते हैं। हम हिसाब लगाते हैं, ‘कि में मुस्कराऊं तो क्या मुझे वह मिलेगा जो मैं चाहता हूं; यदि मैं त्योरी चढ़ाऊं,तो क्या मैं कुछ खो बैठूंगा?’
सार्वभौमिक उत्तरदायित्व
सार्वभौमिक अथवा वैश्विक उत्तरदायित्व की भावना मानवीय स्तर पर काम करती है। हमें अन्य मनुष्यों की चिंता है क्योंकि : ‘मैं भी उनमें से एक हूं; मेरा कुशल मंगल उन पर निर्भर है फिर चाहे अंतर जैसे भी हों’ अंतर तो हमेशा होते हैं पर वे भी सहायक हो सकते हैं।
कई शताब्दियों तक इस ग्रह पर जनसंख्या केवल एक अरब थी, पर अब छह अरब से अधिक है। वैसे ही अधिक जनसंख्या के कारण कोई एक देश अपनी जनसंख्या के लिए पूरी खाद्य-सामग्री और अन्य संसाधन नहीं जुटा पाता। इसलिए हमारी वैश्विकआर्थिक व्यवस्था का विकास हुआ है। आज की सच्चाई यह है कि विश्व अब अधिक सिमट गया है और हम बहुत ही गहरे रूप से एक दूसरे पर निर्भर हैं। यही यथार्थ है। उसके ऊपर पर्यावरण की समस्या है। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। यह चिंता केवल एक अथवा दो देशों की नहीं बल्कि इस ग्रह के सभी छह अरब निवासियों की है। इस नई सच्चाई से निपटने के लिए वैश्विक उत्तरदायित्व की भावना की जरूरत है।
उदाहरण के लिए पुराने समय में अंग्रेजों ने केवल अपने विषय में सोचा और समय-समय पर विश्व के अन्य देशों का शोषण किया। उन्होंने इन अन्य लोगों के सरोकार और भावनाओंके बारे में नहीं सोचा। चलिए वो बात आई गई हुई। अब बात अलग हो गई है, हालात बदल गए हैं। अब हमें दूसरे देशों का ध्यान रखना चाहिए।
वास्तव में साम्राज्यवादी अंग्रेज शासकों ने कुछ अच्छे काम भी किए। वे भारत में अंग्रेजी भाषा में अच्छी शिक्षा लेकर आए। भारत को इसे स्वीकार करना चाहिए। साथ ही अंग्रेज तकनीक और रेल और सड़क यातायात व्यवस्था लेकर आए। जब मैं भारत आया तो उस समय कुछ गांधीवादी जीवित थे जिन्होंने मुझे गांधी के अहिंसा के उपायों की सलाह दी। उस समय मुझे यह लगा था कि अंग्रेज़ साम्राज्यवादी बहुत बुरे थे। पर फिर मैंने देखा कि भारत में स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली, स्वतंत्र पत्रकारिता, बोलने की स्वतंत्रताइत्यादि हैं। इसलिए अब मैंने इसके विषय में और गहराई सेसोचा तो पाया कि यह बातें बहुत अच्छी थीं।
आज देशों और महाद्वीपों के बीच बहुत गहरी आपसी निर्भरता है। इस यथार्थ को देखते हुए हमें वास्तव में वैश्विक उत्तरदायित्व की आवश्यकता है। आपका अपना हित दूसरों के विकास तथा हित पर निर्भर है। तो अपने हित के लिए भी आपको दूसरों के हितों का ख्याल रखना होगा। आर्थिक क्षेत्र में तो ऐसा हो ही चुका है। फिर चाहे हमारी विचारधाराएं अलग अलग हों अथवा हम एक दूसरे पर भरोसा न भी करें पर एक दूसरे पर निर्भर वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमें परस्पर विनिमय करना ही पड़ेगा। इसलिए दूसरों के प्रति आदर पर आधारित वैश्विक उत्तरदायित्व बहुत महत्वपूर्ण है।
हमें दूसरों को अपने भाई बहनों के समान समझना होगा और उनके प्रति आत्मीयता की भावना रखनी होगी। इसका धर्म से कुछ लेना देना नहीं। हमें वास्तव में ऐसा करने की आवश्यकता है। एक स्तर पर ‘हम’ और ‘वे’ का तर्कदिया जा सकता है – परन्तु समूचे विश्व समुदाय को यह मानना चाहिए कि वे ‘हमारा’ अंग हैं। हमारे पड़ोसी का हित हमारा अपना हित है।
मनस्तोष
व्यक्तिगत रूप से नैतिक जीवन जीने का अर्थ है कि हम दूसरों को हानि न पहुंचाएं और यदि संभवहो तो उनकी सहायता करें। [ऐसा करते हुए] यदि हम दूसरों की भलाई को अपनी नैतिकता का आधार बना लें तो यह नैतिकता का एक व्यापक दृष्टिकोण बन जाएगा। हमें अपनी जीवन शैली में इन तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए।
अमरीका तक में अमीरों तथा गरीबों के बीच एक बड़ा अंतर है। यदि हम अमरीका की ओर देखें जो कि सबसे धनी देश है पर वहां भी गरीब इलाके़ हैं। एक बार जब मैं वाशिंगटन डी सी में था जो कि सबसे धनी राष्ट्र की राजधानी है, तो मैंने देखा कि वहां कई निर्धन बस्तियां थीं। यहां के लोगों की आधारभूत आवश्यकताएं पूरी नहीं हुईं थीं। [इसी तरह] वैश्विक स्तर पर पृथ्वी काऔद्योगीकृत उत्तरी भाग [पृथ्वी के अन्य हिस्सों की तुलना में] कहीं अधिक विकसित और अपेक्षाकृत धनी है, जबकि विश्व के दक्षिणी भाग के कई देशों को भुखमरी तक का सामना करना पड़ रहा है। यह न केवल नैतिक दृष्टि से गलत है; बल्कि यह कई बड़ी समस्याओं की जड़ भी है। इसलिए कुछ धनी राष्ट्रों को अपनी जीवन शैली की जांच पड़ताल करनी चाहिए; उन्हें मनस्तोष का अभ्यास करना चाहिए।
एक बार जापान में करीब पन्द्रह साल पहले मैंने वहां के लोगों को समझाया कि आपका यह सोचना बड़ी भूल है कि हर साल अर्थ-व्यवस्था का विकास होना चाहिए और हर वर्ष भौतिक उन्नति होनी चाहिए। संभव है कि एक दिन आप अपनी अर्थ व्यवस्था को संकुचित होता देखें। आपको उसके लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि जब ऐसा हो तो वह आपके चित्त के लिए संकट न बन जाए। कुछ वर्षों बाद वहां जापान में वास्तव में ऐसी ही स्थिति बनी।
कुछ लोगों की जीवन शैली में भोग-विलास के साधन बहुत अधिक हैं । चोरी, शोषण तथा बिना धोखा दिए हुए भी उनके पास बहुत अधिक धन है। उनके अपने हित की दृष्टि से इसमें कुछ गलत नहीं जब तक कि उनके धन कमाने का ढंग अनैतिक न हो। परन्तु दूसरों के हित की दृष्टि से यह गलत न होते हुए भी नैतिक रूप से यह अच्छा नहीं जबकि अन्य लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं। यदि सभी की जीवन शैली ऐशो आराम की होती तो ठीक होता; पर जब तक कि वह नहीं होता बेहतर जीवन शैली यही होगी कि जीवन में अधिक संतोष लाया जाए। जैसा कि मैंने जापान, अमरीका और अन्य धनी समाजों में अनुभव किया, जीवन शैली में कुछ बदलाव जरूरी है।
कई देशों में, एक परिवार में देा और कभी कभी तीन गाड़ियां होती हैं। भारत और चीन की कल्पना करें, इन दोनों देशों की जनसंख्या मिलाकर दो अरब से भी अधिक लोग होंगे।यदि दो अरब लोग दो अरब या उससे अधिक गाड़िया ले लें तो बहुत मुश्किल होगी। एक बड़ी समस्या खड़ी होगी और ईंधन, भौतिक संसाधनों तथा प्राकृतिक संसाधनों को लेकर जटिल समस्या हो जाएगी। स्थिति बहुत ही पेचीदा हो जाएगी।
पर्यावरण के प्रति ध्यान
इसलिए नैतिक जीवन का एक अन्य आयाम होगा पर्यावरण के प्रति ध्यान देना, उदाहरण के लिए पानी के उपयोग में किफ़ायत बरतना। मेरा अपना योगदान छोटा सा हो सकता है पर कई वर्षों से मैं कभी नहाने के टब में नहीं नहाता, मैं केवल फुहारे का उपयोग करता हूं। नहाने के टब में बहुत पानी लगता है। शायद मैं मूर्ख हूं क्योंकि मैं रोज़ दो बार नहाता हूं तो जितना पानी मैं काम में लाता हूं वह तो हिसाब से उतना ही हुआ। पर जो भी हो, जहां तक बिजली के उपयोग की बात है, जब भी मैं कमरे से बाहर जाता हूं तो बत्ती बंद करता हूं। इस तरह पर्यावरण के प्रति मैं अपना छोटा सा योगदान देता हूं। तब वैश्विक उत्तरदायित्व की भावना से जीवन में एक प्रकार से नैतिकता का भाव आ जाता है।
दूसरों की मदद कैसे करें
जहां तक दूसरों की मदद का संबंध है तो उसके लिए कई ढंग हैं, बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जब मैं छोटा था करीब सात याआठ साल का और अपनी पढ़ाई कर रहा था, तो मेरे शिक्षक लिंग रिनपोछे हमेशा एक चाबुक रखते थे। उस समय मुझ से ठीक बड़े भाई और मैं साथ साथ पढ़ते थे। वहां वास्तव में दो चाबुक थे। एक चाबुक पीले रंग का – एक पवित्र चाबुक, पावन दलाई लामा के लिए। हालांकि मुझे नहीं लगता यदि आप पावन चाबुक का इस्तेमाल करें तो उससे पावन दर्द होगा। यह उपाय थोड़ा कठोर अवश्य लग सकता है पर वास्तव में यह बहुत ही फायदेमंद था।
अंतत: कोई काम लाभदायक है अथवा हानिप्रद यह उद्देश्य पर निर्भर करता है। दीर्घकाल के संदर्भ में दूसरों की भलाई के लिए किए गए उपाय कभी बहुत कठोर तो कभी कोमल भी हो सकते हैं। कभी कभी थोड़ा सा झूठ भी मदद करता है। उदाहरण के लिए हो सकता है कि सुदूर देश में कभी किसी का दोस्त अथवा माता पिता गंभीर रूप से बीमार हों अथवा मृत्यु के बहुत निकट हों और आपको उसकी जानकारी हो। पर आप यह भी जानते हैं कि यदि आपने उस दूसरे व्यक्ति को यह बता दिया कि उसके माता पिता की मृत्यु निकट है तो वह व्यक्ति इतना बेचैन और चिंतित हो जाएगा कि वह बेहोश हो सकता है। तो आप कहते हैं : वे ठीक हैं। यदि आप शत प्रतिशत यह चिंता करते हुए कि दूसरे व्यक्ति को दु:ख न पहुंचे ऐसा कर रहे हैं तो ऐसी स्थिति में वह कार्य आपकी अपनी दृष्टि में अनैतिक होते हुए भी दूसरों के हित की दृष्टि से सबसे अधिक उचित होगा।
हिंसात्मक बनाम अहिंसात्मक उपाय
तो दूसरों की सहायता करने का सबसे उत्तम उपाय क्या है? यह कहना कठिन है। इसके लिए समझदारी कीआवश्यकता है; हममें परिस्थितियों की स्पष्ट समझ होनी चाहिए; और उन के अनुसार हमें अलग अलग उपाय अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। और सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है – हमारी प्रेरणा; हमारे मन में दूसरों के लिए सच्चा सरोकार होना चाहिए।
उदाहरण के लिए, कोई उपाय हिंसात्मक है अथवा अहिंसात्मक यह बहुत हद तक उसकी प्रेरणा पर निर्भर करता है। हालांकि निर्दोष झूठ बोलना अपने आप में हिंसात्मक है, पर प्रेरणा अथवा उद्देश्य के आधार पर वह दूसरों की मदद करने का एक उपाय हो सकता है। तो उस दृष्टिकोण से, वह एक अहिंसात्मक उपाय है। दूसरी ओर, यदि हम दूसरों का शोषण करना चाहते हैं और इसलिए हम उन्हें कोई भेंट देते हैं, तो देखने में तो वह अहिंसात्मक लगता है; पर अंतत: चूंकि हम दूसरे व्यक्ति को धोखा देना चाहते हैं और उनका शोषण करना चाहते हैं इसलिए यह एक हिंसात्मक उपाय है। इसलिए हिंसात्मक अथवा अहिंसात्मक होना भी प्रेरणा अथवा मंशा पर निर्भर करता है। यह कुछ हद तक तक्ष्य पर भी निर्भर करता है; परन्तु यदि हमारा उद्देश्य केवल लक्ष्य है और यदि हमारी प्रेरणा क्रोध है तब यह सही नहीं है। इसलिए अंतत: प्रेरणा सबसे महत्वपूर्ण है।
धर्मों के बीच सद्भावना
जहां तक इस बात का संबंध है कि हमारी इस चर्चा के बाद आप यहां से घर क्या लेकर जा रहे हैं तो महत्वपूर्ण होगा आंतरिक शांति का विकास करना। यह हमें स्वयं सोचना और स्वयं ही करना है। इसके अलावा यदि श्रोताओं में कुछ ऐसे हैं जो किसी धर्म का पालन करते हैं और आस्तिक हैं तो मैं हमेशा धर्मों के बीच सद्भावना पर जोर देता हूं। मेरे विचार से कुछ गौण धर्मों को छोड़कर जो सूर्य और चन्द्रमा की उपासना करते हैं – जिनका कोई विशिष्ट दर्शन नहीं है, सभी प्रमुख धर्मों का अपना दर्शन और धर्म-शास्त्र है और चूंकि उनका धर्म किसी विशिष्ट दर्शन परआधारित है इसलिए वह हजारों सालों से अब भी चले आ रहे है। परन्तु अलग अलग दर्शनों के बावजूद, सभी धर्म प्रेम तथा करुणा के अभ्यास को सर्वोपरि मानते हैं।
करुणा के साथ स्वाभाविकरूप से क्षमा की भावना आ जाती है और उसके बाद सहनशीलता और मनस्तोष। इन तीनों तत्वों के साथ संतोष आता है। यह सभी धर्मो में समान है। जिन आधारभूत मानवीय मूल्यों की हम बात कर रहे हैं यह उन्हें बढ़ाने के लिए भी महत्वपूर्ण है। अत: इस दिशा में, हमारे सभी धर्म सहायक हैं क्योंकि वे उस बात को प्रेात्साहित करते हैं जो कि हमारे सुख का आधार है अर्थात् नैतिक जीवन जीना। इसलिए चूंकि सभी धर्म एक ही संदेश देते हैं इसलिए सभी में मानवता की सहायता करने की समान क्षमता है।
अलग अलग समय, स्थानों पर अलग अलग शिक्षाएं दी गई। यह आवश्यक है। पर्यावरण के अंतर के कारण इन अलग अलग युगों और स्थानों पर विभिन्न प्रकार की जीवन पद्धतियों का विकास हुआ और उसके कारण धर्मों में भी अंतर विकसित हुए। प्रत्येक युग के लिए कुछ धर्म संबंधी विचार उपयुक्तथे और इसलिए [उन्हें ग्रहण कर लिया गया।] यही कारण है कि हजारों वर्ष पुरानेधर्मों में प्रत्येक की अपनी अलग परंपरा है। हमें इस प्रकार की सम्पन्न परम्पराओं की जरूरत है : वे सभी विभिन्न प्रकार के लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। एक ही धर्म सभी के लिए लागू नहीं हो सकता और सभी कीआवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता।
बुद्ध के काल में भारत में पहले से ही कई अबौद्ध परम्पराएं प्रचलित थीं। बुद्ध ने भारत के सभी निवासियों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने का प्रयास नहीं किया। अन्य धर्म अपनी जगह ठीक थे। कभी कभी उनके बीच वाद-विवाद होते थे। विशेषकर बुद्ध के बाद कई गुरू कई सदियों तक एक दूसरे के साथ तर्क वितर्क करते रहे। यह वाद-विवाद बहुत ही उपयोगी हैं, विशेष रूप से ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में। दूसरी परम्परा का कोई विद्वान जब किसी अन्य धर्म के दर्शन और विचारों का आलोचनात्मक ढंग से परीक्षण करता है तो सभी अपने – अपने धर्मों तथा अपनी परम्पराओं के विषय में सोचते हैं और तर्क करते हैं। इस तरह स्वाभाविक रूप से यह प्रगति को जन्म देता है। शायद कुछ एक प्रसंगों में इन वाद-विवादों में थोड़ी हिंसा भी आ गई जो दुर्भाग्यपूर्ण बात थी; पर सामान्य रूप से यह एक स्वस्थ विकास था।
इस तरह भारत धार्मिक सहनशीलता का बहुत अच्छा उदाहरण है जो कि एक परंपरा के रूप में सदियों से चली आ रही है; और यह परंपरा अब भी भारत में जीवित है। यह शेष विश्व के लिए एक आदर्श है।
प्राचीन काल में लोग अलग-थलग रहते थे। इसलिए सब ठीक था। पर आज परिस्थितियां बदल गई हैं। उदाहरण के लिए लंदन – यह एक बहुधर्मीय समाज है। इसलिए धार्मिक सहनशीलता बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इसलिए आप में से जिनकी धर्म में श्रद्धा है उनके लिए : सद्भावना तथा सहनशीलता अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब भी आपको अवसर मिले इन्हें बढ़ाने में अपना योगदान अवश्य दें।