आंतरिक शांति एवं संतुष्टि कैसे प्राप्त करें

Study buddhism universal values 02

किसी भी स्थिति की वास्‍तविकता की जांच का महत्‍व

आंतरिक शांति मानसिक शांति के साथ जुड़ी होती है। हमारे शारीरिक अनुभव अनिवार्य रूप से हमारी मानसिक शांति का निर्धारण नहीं करते । यदि हमारे भीतर मानसिक शंति हो, तो शारीरिक स्‍तर इतना महत्‍वपूर्ण नहीं रहता।

अब, क्‍या हम प्रार्थना द्वारा आंतरिक शांति का विकास कर सकते हैं? नहीं। शारीरिक अभ्‍यास द्वारा? नहीं। केवल ज्ञान प्राप्‍त करके? नहीं। अपनी भावनाओं को मारकर? नहीं। पर किसी कठिन स्थिति का सामना करते समय यदि किसी भी कार्य के लाभकारी और हानिदायक परिणामों के प्रति पूरी जागरूकता बनाए रखते हुए हम उस स्थिति का सामना करते हैं, तो हमारा चित्‍त बिखरता नहीं और वही सच्‍ची आंतरिक शांति है।

इस रूप में करुणा और व्‍यावहारिक दृष्टिकोण बहुत ही महत्‍वपूर्ण है। जब अप्रत्‍याशित परिणाम उत्‍पन्‍न होते हैं और उनके कारण अत्‍यधिक भय की भावना जाग्रत होती है पर इसका कारण हमारा अपना अव्‍यावहारिक होना होता है। हमने वास्‍तव में सभी परिणामों की ओर ध्‍यान नहीं दिया था क्‍योंकि जागरूकता और समझ की कमी थी। हमारे भय का कारण उचित रूप से जांच न करना था और इसलिए पूरी तरह समझने के लिए हमें सभी दिशाओं में और ऊपर से नीचे देखने की आवश्‍यकता है। वास्‍तविकता और जो दिखाई पड़ता हैउसमें हमेशा एक अंतर होता है, इसलिए हमें सभी पहलुओं की जांच करनी होगी।

केवल देख कर यह तय कर पाना संभव नहीं कि वह स्थिति सकारात्‍मक है अथवा नकारात्‍मक। जब हम अच्‍छी तरह जांच कर, किसी स्थिति के सच का अनुभव करते हैं तभी हम उसका मूल्‍यांकन कर सकते हैं कि वह सकारात्‍मक है अथवा नकारात्‍मक। इसलिए हमें स्थितियों का विवेकपूर्ण मूल्‍यांकन करने की आवश्‍यकता है। यदि हम मन में यह इच्‍छा रखते हुए जांच करें कि ‘मुझे ऐसा या वैसा परिणाम चाहिए तो हमारी जांच पूर्वाग्रह से भरी होगी। भारत की नालंदा परम्‍परा कहती है कि हमें सदा संशयवादी होना चाहिए और सभी क्षेत्रों, जिसमें धर्म भी शामिल है, उसकी भी वस्‍तुनिष्‍ठ जांच करनी चाहिए।

अपने चित्‍त को दूसरों के प्रति खुला रखने का महत्‍व

अब जहां तक मन की शांति के अभाव और असंतोष का सवाल उठता है, तो ये भाव बहुत अधिक आत्‍म केन्द्रित रवैये से उत्‍पन्‍न होते हैं। प्रत्‍येक व्‍यक्ति को दु:ख पर काबू पाकर सुख प्राप्‍त करने का अधिकार है। पर यदि हम केवल अपने ही बारे में सोचें, तो चित्‍त बहुत अधिक नकारात्‍मक हो जाता है। ऐसी स्थिति में एक छोटी सी समस्‍या भी बहुत बड़ी नजर आती है और हम असंतुलित हो जाते हैं। जब हम दूसरों को अपने बराबर प्रिय समझते हैं तो हमारा चित्‍त और अधिक उदार हो जाता है। परिणामस्‍वरूप एक बहुत गंभीर समस्‍या भी इतनी महत्‍वपूर्ण नहीं दिखाई देती। इस तरह हमारी भावना में बहुत अंतर आता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि हम स्थितियों को किस प्रकार देखते हैं : अपने नज़रिए से या फिर अन्‍य सभी के नज़रिए से।

इसलिए चित्‍त की शांति के लिए दो बातें महत्‍वपूर्ण हैं। पहली है वास्‍तविकता के प्रति जागरूकता। यदि हम वास्‍तविकता के आधार पर वस्‍तुओं को समझने की कोशिश करें तो कोई अनपेक्षित परिणाम सामने नहीं आएंगे । दूसरी है करुणा, जो कि हमारे तथाकथित ‘आंतरिक द्वार’ को खोलती है। भय और सन्‍देह हमें दूसरों से अलग कर देते हैं ।

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अपने बाहरी रूप के प्रति चिंतित न होना

[एक और बात जो हमारे मन का चैन छीन लेती है वह है अपने बाहरी रूप के बारे में हमारी चिंता] उदाहरण के लिए, जब मैंने पहली बार बेजिंग की यात्रा की तो मेरे पास कोई अनुभव न था। मैं थोड़ा घबराया हुआ था और मन में कुछ दुश्चिन्‍ता भी थी। पर मैंने देखा कि कुछ लोग जो अपने बाहरी रूप को लेकर बहुत चिंतित होते हैं, यदि उनसे कुछ गलत हो जाए तो उनके चेहरे लाल हो जाते हैं। पर यदि वे खुले चित्‍त वाले हैं और चिन्‍ता नहीं करते तो कुछ गलत हो भी जाए तो उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

जैसे 1954 में जब मैं बेजिंग में था, भारतीय राजदूत मुझसे मिलने मेरे कमरे में आए। चीनियों ने फूलों, फलों आदि से बहुत तैयारियां की। उन्‍होंने इस बात पर बल दिया कि हमारे साथ एक चीनी दुभाषिया भी हो। इसलिए हमारी बातचीत तिब्‍बती से चीनी और फिर अंग्रेजी में अनूदित हुई, हालांकि मेरे कुछ अधिकारी अंग्रेजी जानते थे। उस दौरान फलों का एक ढेर पलट गया और चीनी अधिकारी जो कि बहुत ही घुटे घुटे से और औपचारिक दिखाई दे रहे थे, वे अपने हाथों और घुटनों के बल रेंगने लगे। यदि वे पहले से ही अपने बाहरी रूप के बारे में इतना चिंतित न होते तो कोई समस्‍या न होती। पर उनके लिए वह बड़ी उलझन भरी और कठिन स्थिति बन गई।

मैक्सिको शहर में एक बार एक अंतर्धर्म सम्‍मेलन में एक जापानी भिक्षु थे। उनके हाथ में एक जप माला थी जिसका धागा टूट गया। वे अपनी उंगलियों को उस माला पर फेरते रहे जबकि माला की सारी मणियां चारों ओर फर्श पर बिखरी जा रही थीं । उन्‍हें उन मणियों को उठाने में बड़ी शर्म आ रही थी। उन्‍हें इसलिए संकोच हो रहा था क्‍योंकि उन्‍हें अपने बाहरी रूप को लेकर बड़ी चिन्‍ता थी।

जो भी हो करुणा, परोपकार, सच्‍चाई, ईमानदारी यह सभी आंतरिक शांति लाने में बहुत महत्‍वपूर्ण हैं न कि हमारा बाहरी स्‍वरूप। मैं यह कभी नहीं कहता कि मैं कोई निराला हूं पर अपने अनुभव के आधार पर मुझे इस बात को लेकर कोई चिन्‍ता नहीं कि मैं हजारों लोगों के सामने कैसे व्‍यवहार करूं। मैं इस प्रकार के व्‍याख्‍यानों में हज़ारों लोगों से बात करता हूं और मेरे लिए यह केवल थोड़े से लोगों के सामने बात करने जैसा है। यदि कोई गलती हो जाए तो मैं उसे भूल जाऊंगा। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। यदि कोई दूसरा भी गलती करता है तो मैं हंस देता हूं।

आंतरिक बदलाव

अब जहां तक आंतरिक बदलाव की बात है, आंतरिक बदलाव की बात करना एक भावनात्‍मक स्‍तर पर बात करने जैसा है। एक आंतरिक बदलाव वह है जो कि स्‍वाभाविक तौर से उम्र के साथ आता है और एक वह है जो बाहरी परिस्थितियों से आता है। पहले प्रकार के बदलाव अपने आप ही आ जाते हैं। दूसरे बदलाव कोशिश करने से आते हैं और यही मुख्‍य हैं जो हम लाना चाहते हैं : अपनी इच्‍छा के अनुसार आंतरिक बदलाव। यही मुख्‍य बात है।

अब यहाँ हम अपने अगले जीवन, मुक्ति या स्‍वर्ग के बारे में बात नहीं कर रहे बल्कि समझना यह है कि कठिनाइयों और समस्‍याओं के बावजूद इस जीवन को किस प्रकार अधिक सुखी और शांतिपूर्ण बनाया जा सकता है। इसके लिए जिन मुख्‍य कारकों की ओर हमें ध्‍यान देना होगा उसमें क्रोध, घृणा, डर, ईर्ष्‍या, संदेह, अकेलापन, तनाव आदि शामिल हैं। इन सभी का संबंध हमारी मूल मनोवृत्ति से है। ये भाव हमारे बहुत अधिक आत्‍म केन्द्रित होने के कारण उत्‍पन्‍न होते हैं। जब हम इन भावों का अनुभव करते हैं तब हमारे लिए अहम् सबसे महत्‍वपूर्ण होता है और यही ईर्ष्‍या की भावना को जन्‍म देता है। जब हम अपने आप को बहुत महत्‍व देते हैं तो जरा सी चिढ़ाने वाली बात क्रोध को जन्‍म देती है और क्रोध भय उत्‍पन्‍न करता है। हमें दूसरों की जरा भी परवाह नहीं करते, हम केवल अपनी ही चिन्‍ता करते हैं और सोचा करते हैं कि दूसरे लोग भी सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं और उन्‍हें हमारी कोई परवाह नहीं है। इस कारण हम अकेलेपन का अनुभव करते हैं। हम सोचते हैं ‘मैं दूसरों पर भरोसा नहीं कर सकता’ और इसलिए हम अपने सामने वालों पर, आसपास वालों पर और सबसे अधिक जो हमारे पीछे हैं उन पर शक करते हैं।

मूलत: देखा जाए तो मनुष्‍य का स्‍वभाव ही ऐसा है कि सभी मैत्री भाव की सराहना करते हैं। यदि हम दोस्‍ती का हाथ बढ़ाएँ तो अधिकांश लोग उसे सकारात्‍मक रूप से लेते हैं। यहां तब इन नकारात्‍मक भावनाओं का सम्‍बन्‍ध है जो चिन्‍ता आदि को जन्‍म देती है, हमें उनका विरोध करने के लिए कुछ प्रत्‍युपाय अपनाने होंगे। जैसे कि यदि हमें बहुत गर्मी लग रही हो, तो हम तापमान कम कर देते हैं, या फिर हमें अंधेरा दूर करना हो तो रोशनी करने के अलावा कोई दूसरा रास्‍ता नहीं है। भौतिक स्‍तर पर यह सच है। एक विपरीत बल के प्रयोग से हम बदलाव ला सकते हैं – प्रकृति के कारण है। पर यह केवल भौतिक स्‍तर पर ही सच नहीं बल्कि मानसिक स्‍तर पर भी सच है। इसलिए हमें अपने इस दृष्टिकोण अथवा परिप्रेक्ष्‍य का प्रतिकार एक विपरीत दृष्टिकोण से करना होगा। [जैसे कि आत्‍मकेन्द्रित होने की भावना और सन्‍देह का विरोध दूसरों के प्रति चिन्‍ता और मैत्री भाव से किया जा सकता है]

जैसे कि एक पीले फूल का उदाहरण लें। अगर मैं यह कहूं, ‘यह सफेद है’ और बाद में किसी कारण से मैं उसे पीला मान लूं, तो ये दोनों दो विपरीत दृष्टिकोण होंगे। एक ही समय में ये दोनों बातें सच नहीं हो सकतीं। जैसे ही पीले की अनुभूति होती है सफेद रंग की अनुभूति विलीन हो जाती है। वे एक दूसरे के ठीक विपरीत हैं। तो आंतरिक बदलाव लाने का एक तरीका है एक बिलकुल विपरीत मनोदशा जाग्रत करना ।

कठिनाई का दूसरा कारण निरा अज्ञान हो सकता है। उसकी प्रतिशक्ति है अध्‍ययन, विश्‍लेषण और परीक्षण। अज्ञान वास्‍तविकता को सही ढंग से न देखने के कारण उत्‍पन्‍न होता है। इसलिए अज्ञान की प्रतिरोधक शक्ति विश्‍लेषण है। इसी तरह अपने को ही संजोए रखने की प्रतिरोधक शक्ति दूसरों के बारे में सोचना है और इस के लिए चित्‍त प्रशिक्षण [अथवा अपनी प्रवृत्तियों के शुद्धिकरण] की आवश्‍यकता होती है।

धर्म निरपेक्ष नैतिकता

जहां तक इस बात का संबंध है कि अपने चित्‍त को कैसे प्रशिक्षित किया जाए अथवा अपनी प्रवृत्तियों का शुद्धिकरण कैसे किया जाए, प्रश्‍न यह उठता है कि क्‍या इसका संबंध धर्म अथवा आध्‍यात्मिकता से होना चाहिए? मेरे विचार से इसका धर्म से कुछ लेना देना नहीं।

जहां तक आध्‍यात्मिकता का प्रश्‍न है, इसके दो प्रकार हैं : एक है धर्म तथा आस्‍था सहित और दूसरा इनके रहित। जो इन दोनों से रहित है उसी को मैं ‘धर्म निरपेक्ष नैतिकता’ कहता हूं। धर्म निरपेक्ष का अर्थ धर्म को बाहर कर देना नहीं है, बल्कि सभी धर्मों के प्रति समान रवैया और सभी के प्रति सम्‍मान की भावना है। जैसे, भारतीय संविधान में सभी धर्मों के प्रति सम्‍मान की बात कही गई है, वह एक धर्म निरपेक्ष संविधान है। इसलिए हालांकि भारत में पारसी समाज बहुत छोटा है – भारत की एक अरब से अधिक जनसंख्‍या की तुलना में केवल एक लाख लोग हैं – पर फिर भी उन्‍हें सैन्‍य तथा राजनैतिक क्षेत्र में समान स्‍थान प्राप्‍त है।

जब हम धर्म निरपेक्ष नैतिकता की बात करते हैं तो इसमें नास्तिकों की नैतिकता भी शामिल होती है। धर्म निरपेक्ष नैतिकता के आधार पर हम अपनी नैतिकता का विस्‍तार कर सकते हैं और पशुओं के प्रति भी नैतिकता और आदर का भाव रख सकते हैं। साथ ही धर्म निरपेक्ष आध्‍यात्मिकता अथवा नैतिकता का दूसरा पक्ष पर्यावरण की देख रेख करना है। इसलिए हमें धर्म निरपेक्ष रवैया अपना कर से अपने चित्‍त का विकास करना है; हमें धर्म निरपेक्ष नैतिकता का विकास करना है। इस ग्रह के छ: अरब लोगों को यह करने की जरूरत है। धार्मिक प्रणालियां उस धर्म निरपेक्ष नैतिकता के सार्वभौमिक विकास को और प्रबल बना सकती हैं – उस विकास की सहायता में वे एक अतिरिक्‍त उपाय हैं। ये निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के विकास को कम करने के लिए नहीं हैं।

इसलिए जब हम धर्म निरपेक्ष नैतिकता की बात करते हैं, तो हमारा रवैया गैर-सम्‍प्रदायवादी होता है। यदि कोई धार्मिक व्‍यक्ति जो किसी भी धर्म का पालन कर रहा है, धर्म निरपेक्ष नैतिकता को आगे बढ़ाने का काम करता है, तो वह सही अर्थों में धर्म का पालन कर रहा है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो फिर चाहे वह गिरजाघर या मस्जिद या फिर यहूदी प्रार्थना स्‍थल नियमित रूप से जाता हो उसके सच्‍चा धर्मानुयायी होने के बारे में मुझे संदेह रहेगा। [देखें: नैतिकता क्या है ?]

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