सार्वभौमिक नीतिशास्त्र का अर्थ
हम “सार्वभौमिक नीतिशास्त्र” अभिव्यक्ति का प्रयोग करते हैं? सार्वभौमिक का अर्थ होता है कोई ऐसी चीज़ जिसे हर कोई, आस्तिक या नास्तिक, स्वीकार कर सकता हो। चाहे हम हिन्दू हों, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, यहूदी या जैन या कुछ और हों, ये मान्यताएं सभी को स्वीकार्य होती हैं। चाहे हम वैज्ञानिक हों या वैज्ञानिक न हों, शिक्षित हों या अशिक्षित हों, हर कोई इन मान्यताओं को स्वीकार कर सकता है और इस बात को समझ सकता है कि उसकी अपनी खुशी के लिए इन मान्यताओं का पालन करना बहुत आवश्यक है। यह तो सार्वभौमिक पक्ष हुआ। नीतिशास्त्र वह आचरण विधि है जिसका पालन करने से स्वयं आप तो सुखी होते ही हैं, दूसरों का सुख भी बढ़ता है। समाज भी सुखी होता है और आप भी सुखी हो जाते हैं। ये दोनों का मिला-जुला रूप ही सार्वभौमिक नीतिशास्त्र है।
मनुष्य उस पूर्ण इकाई का हिस्सा है जिसे हम ब्रह्मांड कहते हैं, एक ऐसा हिस्सा जो समय और स्थान की दृष्टि से सीमित होता है। उसे स्वयं अपनी, अपने विचारों और भावों की अनुभूति शेष ब्रह्मांड से अलग रूप में होती है, जोकि उसकी बोध-चेतना का एक दृष्टि भ्रम होता है। यह भ्रम हमारे लिए एक प्रकार का कारागार होता है जो हमें अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और हमारे कुछ निकटतम व्यक्तियों तक ही सीमित कर देता है। हमारा यह दायित्व होना चाहिए कि हम सभी जीवों और पूरी प्रकृति और उसके सौंदर्य को अंगीकार करने के लिए अपनी करुणा के दायरे का विस्तार करके स्वयं को इस कारागार से मुक्त करें। - अल्बर्ट आइंस्टीन
आइंस्टीन का कहना है कि हमें जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है वे सभी हमारे संकीर्ण विचारों, और केवल अपने बारे में और थोड़े से बहुत नज़दीकी लोगों के बारे में सोचने और शेष जगत को अनदेखा कर देने के कारण उत्पन्न होती हैं। उनका कहना है कि सिर्फ थोड़े से नज़दीकी लोगों के प्रति यह मोह सिर्फ एक भ्रम है। क्यों? क्योंकि हम सभी परस्पर जुड़े हुए हैं। हम इस कारागर से कैसे बाहर निकल सकते हैं? वे कह रहे हैं कि हमें अपनी करुणा के दायरे को बढ़ा कर दूसरों को उसमें शामिल करना चाहिए और, यदि दूसरे भी हमारे प्रति अपनी करुणा के दायरे का विस्तार कर लें तो हम सभी सुखी हो सकते हैं। वे हमें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।
नीतिशास्त्र आधारित आचरण करने की क्या आवश्यकता है?
नैतिक आचार-विचार विवेकपूर्वक किए गए ऐसे कृत्य होते हैं जो व्यक्ति तथा व्यापक दृष्टि से समाज के स्तर पर समरसता, शांति और सुख की वृद्धि करते हैं। चाहे हमें सुख मिले या दुख मिले, हमें उसे अपने कृत्यों, जो हमारी इच्छित वस्तु की प्रकृति से जुड़े होते हैं, के परिणाम के रूप में देखना चाहिए। अनैतिक विचार ऐसे कृत्यों को जन्म देते हैं जिनकी परिणति आज के विश्व में दिखाई देने वाले अवांछित परिणामों के रूप में होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम इन तीन चीज़ों के बीच के कारण सम्बंध को ठीक प्रकार से नहीं समझ पाते हैं:
- विचार और मनोभाव
- हमारे कृत्य
- सुख या पीड़ा के रूप में उत्पन्न होने वाले परिणाम
हमारे भीतर सुख को पाने की लालसा हो सकती है, लेकिन अपने कुछ विचारों से प्रेरित होकर हम ऐसे कृत्य करने लगते हैं जो केवल पीड़ा और दुखदायी होते हैं। हमें इस बात का सही ज्ञान होना चाहिए कि विवेक क्या है, विचार और मनोभाव क्या होते हैं, और वे कौन सी प्रक्रियाएं हैं जिनके आधार पर ये विचार और विवेक किसी विशिष्ट प्रकार के परिणाम को उत्पन्न करने वाले हमारे कृत्यों को नियंत्रित करते हैं। तब हमें यह ज्ञान हो जाएगा कि हम वांछित परिणामों को उत्पन्न करने में सहायक मानसिकताओं को पोषित करें और हमारे कृत्यों का अवमूल्यन करने वाली मानसिकताओं का त्याग कर दें। यही नैतिक आचरण है; और करुणा नीतिशास्त्र के सभी सिद्धांतों को रेखांकित करती है।
इस प्रकार हमारा चित्त ही सुख और दुख की उत्पत्ति का कारण है। यह बात प्रेरक मनोभावों और मानसिक कारकों पर भी निर्भर करती है। मनोभाव हमारे विचारों को नियंत्रित करते हैं, और विचार हमारे कृत्यों को नियंत्रित करते हैं। हमारे सुख को उत्पन्न करने वाले मनोभाव “सकारात्मक मनोभाव” होते हैं। सार्वभौमिक दृष्टि से हम किसी “आधारभूत पाप” या किसी आधारभूत अन्य चीज़ के बारे में बात नहीं कर सकते हैं। हमें बहुत ही सार्वलौकिक बात कहनी होगी। सार्वभौमिक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि वास्तविक सुख को जन्म देने वाले मनोभाव सकारात्मक मनोभाव होते हैं और दुख को उत्पन्न करने वाले मनोभाव विनाशकारी मनोभाव होते हैं। हमें मन के नक्शे के हिस्से के रूप में इनका अध्ययन करने और सीखने की आवश्यकता है; हमें लोगों को ऐसे ही नक्शे की सहायता से अभ्यास कराना चाहिए।
स्कूली पद्धति में सार्वभौमिक नीतिशास्त्र की शिक्षा दिया जाना
हम लोगों को यह शिक्षा देने के लिए किस प्रकार उत्साहित कर सकते हैं कि व्यक्तियों और समाज के लिए क्या उपयोगी है? कुछ लोगों का नैतिक आचरण ईश्वर के क्रोध के भय पर आधारित होता है। कुछ लोग ईश्वर को तो नहीं मानते हैं, लेकिन वे कर्म को मानते हैं, और सोचते हैं कि कर्म के आधार पर उन्हें सावधान रहते हुए अच्छा व्यवहार करना चाहिए। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो ईश्वर या कर्म में से किसी को भी नहीं मानते हैं। ईश्वर और कर्म की अवधारणा के बिना हम लोगों को किस प्रकार विश्वास दिला सकते हैं कि उन्हें नैतिक आचरण को अपनाना चाहिए? इसके लिए परम पावन दलाई लामा ने तीन बातें सुझाई हैं:
- सामान्य अनुभव
- सामान्य ज्ञान
- वैज्ञानिक निष्कर्ष
इनके आधार पर परम पावन ने आधुनिक शिक्षा पद्धति में सार्वभौमिक नीतिशास्त्र की शिक्षा देने के लिए तीन चरण प्रस्तावित किए हैं।
आस्तिकों और नास्तिकों को सामान्य अनुभव के आधार पर शिक्षा देने के उदाहरण के रूप में हम शिशुओं के रूप में हमारी माताओं द्वारा हमें स्तनपान कराए जाने के अनुभव को देख सकते हैं। यह एक सामान्य अनुभव है जिसमें कोई धार्मिक या दार्शनिक तत्व नहीं है – यह तो हमें अपनी माताओं से मिलने वाला शुद्ध प्रेम और स्नेह है। यह प्रेम और स्नेह माता और शिशु के बीच ऐसा परस्पर भरोसा और विश्वास जगाता है जिससे बाकी सभी भाव तिरोहित हो जाते हैं। विनाशकारी मनोभाव घुल जाते हैं और दुनिया की सारी अस्तव्यस्तता भी समाप्त हो जाती है। सिर्फ प्रेम और स्नेह के भाव शेष रह जाते हैं। आतंकवाद, लिंग आधारित भेदभाव, और अमीर और गरीबों के बीच की खाई केवल दूसरों के प्रति प्रेम और स्नेह के भावों के अभाव के कारण होते हैं।
सामान्य ज्ञान वह होता है जब हम यह समझ पाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अधिक प्रेमभाव से युक्त है, उसके बहुत से शुभेच्छु हैं, वह स्वयं को आश्वस्त अनुभव करता है, और अपने आस-पास के लोगों को अपने भाई-बहनों जैसा मानता है। जब हमें दूसरों के प्रति इस प्रकार के प्रेम की अनुभूति नहीं होती है, तो हम अपने घर में होते हुए भी आश्वस्त महसूस नहीं कर सकेंगे। यहाँ तक कि हमें स्वयं अपने भाई-बहन भी शत्रुओं जैसे दिखाई देते हैं। सामान्य ज्ञान या बोध की दृष्टि से हमें यह विश्वास होना चाहिए कि प्रेम और स्नेह का भाव ही सार्वभौमिक नीतिशास्त्र को स्थिर रखता है।
और अन्त में, वैज्ञानिक निष्कर्ष से, उदाहरण के लिए, उन वैज्ञानिक प्रयोगों से आशय होता है जहाँ बंदरों के शिशुओं को उनकी माताओं से अलग रखा जाता है और उन्हें अपने शैशव काल में अपनी माताओं द्वारा देख-रेख और पालन-पोषण का अनुभव नहीं मिलता है। और फिर जब वे बड़े होते हैं, तो वे बड़े आक्रामक स्वभाव के हो जाते हैं। वे दूसरों के साथ मिलकर खेलना नहीं सीख पाते हैं, बल्कि हर समय अपनी रक्षा करने और दूसरों से लड़ने में ही लगे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर जिन शिशुओं को उनकी माताओं के साथ रखा जाता है, वे सुखी और चुलबुले होते हैं।
परम पावन इन तीनों अवधारणाओं के आधार पर कहते हैं कि वास्तविक प्रेम और स्नेह – जो सार्वभौमिक नीतिशास्त्र को स्थिर रखने वाले भाव हैं – ऐसे भाव हैं जिन्हें सभी के चित्त में विकसित किए जाने की आवश्यकता है।
मनुष्य के रूप में सार्वभौमिक पहचान को धारण करना
सार्वभौमिक नैतिक आचरण को शुरू करने में एक चुनौती हमारी पहचान की होती है। जब हमें यह महसूस होता है कि, “मैं तिब्बती हूँ, मैं चीनी हूँ, मैं बौद्ध हूँ, मैं हिन्दू हूँ” – जैसे ही अपनी पहचान के प्रति इस तरह की आसक्ति प्रकट होती है, दूसरों की पहचानों के प्रति द्वेष का भाव उत्पन्न होना तय होता है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है और बहुत गम्भीर मामला है।
एक ही व्यक्ति की सैकड़ों अलग-अलग पहचानें हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, मैं कह सकता हूँ कि मैं एक पुरुष हूँ, और इस आधार पर पुरुषों की प्रधानता का भाव उत्पन्न होता है। पुरुष प्रधानता के आधार पर नारी अधिकारवाद की बात उठ जाती है। यदि मैं स्वयं को बौद्ध समझता हूँ, तो आप गैर-बौद्ध हो जाते हैं। यदि मैं हिन्दू या मुसलमान हूँ, तो फिर आप गैर-हिन्दू या गैर-मुस्लिम हो जाते हैं। यदि व्यक्ति बहुत विकसित न हो तो किसी कम महत्वपूर्ण पहचान को सबसे महत्वपूर्ण पहचान समझ कर उससे चिपके रहने का खतरा या प्रवृत्ति उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है। कट्टरतावाद और अतिवाद जैसी सभी समस्याएं किसी कम महत्वपूर्ण पहचान को सबसे महत्वपूर्ण मान कर उससे चिपके रहने के कारण ही उत्पन्न होती हैं।
हम सभी अपने आप को सिर्फ मनुष्य क्यों नहीं मानते हैं? यदि किसी दूसरे ग्रह के प्राणी आ कर हम सभी को गोलियों से भूनना शुरू कर दें, और यह कहें कि वे ऐसा इसिलिए कर रहे हैं क्योंकि हम लोग पृथ्वी ग्रह के वासी हैं, तब हम सबकी पहचान पृथ्वीवासी के रूप में हो जाएगी और हम सभी एकजुट हो जाएंगे। हमें अपने बीच एकता लाने के लिए किसी अन्य पक्ष का इंतज़ार करने की क्या आवश्यकता है? हम स्वयं ही इसी समय अपनी एक समान पहचान क्यों नहीं गढ़ लेते हैं? वह कौन सी पहचान है जो हमें अधिक सुखी बनाती है और पूरी दुनिया को सुखी बनाती है? मनुष्य के रूप में अपनी पहचान को धारण करने पर हमें यह बोध होता है कि हम अधिक सुखी हो गए हैं और हम हर किसी को अपने भाई-बहन के रूप में देखते हैं।