मुझे “कुछ विशेष नहीं” का यह विचार सचमुच पसंद है। मुझे अचंभित करने वाली बात यह लगती है कि यदि आप बाकी दुनिया के साथ भी इस प्रकार के दृष्टिकोण के साथ पेश आएं तो क्या हो। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आप दूसरे लोगों के साथ मिलकर किसी परियोजना पर कार्य कर रहे हों और कुछ गड़बड़ हो जाने पर आप यही दृष्टिकोण अपनाते हों, “ठीक है, इसमें कुछ विशेष नहीं है? ऐसा तो होता है।“ मुझे इस बात की आशंका है कि दूसरे लोग सोचेंगे कि आप बातों को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं।
कुछ विशेष नहीं के दृष्टिकोण के बारे में गलत धारणा न बनाएं। यह कुछ न करने का दृष्टिकोण नहीं है। यह बेपरवाह होने का तटस्थ दृष्टिकोण भी नहीं है: “कुछ भी हो।“ “कुछ विशेष नहीं” का मतलब है कि हम खुश हों या दुखी हों, इसे लेकर हम परेशान नहीं होते हैं और दोनों ही स्थितियों को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं देखते हैं। हम जो कुछ भी कर रहे होते हैं उसे हम बहुत ही तर्कसंगत और शांत भाव से देखते हैं। हम परेशान हुए बिना जो करना आवश्यक हो उसे करते रहते हैं।
यदि दूसरे लोग परेशान या व्यग्र हो जाएं तब?
यदि वे परेशान होते हैं तो आपकी शांतचित्तता उन्हें संयत करने में सहायक हो सकती है। इसका एक अच्छा उदाहरण यह हो सकता है: मान लीजिए कि हम कम्प्यूटर पर कोई दस्तावेज़ तैयार कर रहे हों और गलत कुंजी दब जाने के कारण वह दस्तावेज़ कम्पयूटर से मिट जाए। ऐसा होता है। यहाँ परेशान होने से कुछ लाभ नहीं होने वाला है। यदि किए हुए को अनकिया करने की कुंजी हमारे पास न हो और हम उसे फिर से ठीक न कर सकते हों, तो फिर हमारा किया हुआ काम खत्म। उसके बारे में रोने-झीकने से वह वापस नहीं आ जाएगा, उसको लेकर परेशान होने से और दुखी होने से कोई फायदा नहीं होने वाला है। वैसा करना तो बाधक होगा। हम बस इतना ही कहते हैं, “कोई बात नहीं,” और उस लेख को फिर से लिखना शुरू कर देते हैं। यदि हमें इस बात का अच्छा अभ्यास हो कि हम याद रख सकें कि हमने क्या लिखा था, तो हम उसे दोबारा लिख सकेंगे और हो सकता है कि हम दूसरी बार में पहले से भी अच्छा लिखें। हम इस स्थिति का अच्छे से अच्छे ढंग से सामना करते हैं और तुनकमिज़ाज होने से बचने का प्रयत्न करते हैं। यदि हम किसी दल के साथ मिलकर काम कर रहे हों और वह दस्तावेज़ पूरे दल के उपयोग के लिए तैयार किया जाने वाला हो, तो हमारी शांतचित्तता से दल के दूसरे सदस्यों को भी संयत रहने में सहायता मिलेगी।
क्या हम यहाँ किसी परिस्थिति के कारण खुश या दुखी होने की बात कर रहे हैं या सामान्य तौर पर चर्चा कर रहे हैं?
मैं यहाँ स्वयं अपने प्रति व्यवहार की बात कर रहा हूँ। यदि हम खुश या दुखी हों, तब भी हम अपने जीवन के कार्यों को करते चलते हैं और अपने सुख या दुख को बहुत अधिक महत्व नहीं देते हैं। उस स्थिति में क्या होगा जब कोई दूसरा व्यक्ति खुश हो या दुखी हो या परेशान हो? उदाहरण के लिए मान लीजिए कि कोई बच्चा रो रहा हो। हम क्या अपेक्षा करते हैं? वह तो बच्चा है। हम इसे लेकर परेशान नहीं होते, “ओफ्फो, बच्चा रो रहा है!” हम इस बात को बहुत बड़ा करके नहीं देखते हैं और बच्चे पर ध्यान देकर उसका खयाल रखते हैं। बच्चा क्यों रो रहा है? जो भी कुछ करने की आवश्यकता हो, वह हम करते हैं। ऐसा ही तो होता है। शांतिदेव ने इस बात को बड़े अच्छे ढंग से कहा है, वे कहते हैं, “लोग बहुत बचकाने होते हैं।“ इसीलिए वे परेशान हो जाते हैं। यह स्थिति बच्चे के रोने के जैसी है। यहाँ हम और क्या अपेक्षा कर सकते हैं? हम इसे आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं देते हैं, बल्कि अशांत व्यक्ति को संयत करने का प्रयास करते हैं और उनके दृष्टिकोण को यथार्थ के अनुरूप बनाने का प्रयास करते हैं।
जब हम किसी चीज़ या बात को लेकर परेशान होते हैं तो हम उसके आकार को अनावश्यक रूप से बढ़ा देते हैं, उसे बहुत अधिक महत्व दे देते हैं। यही तो शून्यता है। कुछ भी विशेष तौर पर महत्वपूर्ण नहीं है। चीज़ों का विशेष रूप से महत्वपूर्ण होना यथार्थ के अनुरूप नहीं है। घटनाएं घटित होती हैं, बस। और हम उनका सामना करते हैं। क्या हमारे भीतर मनोभाव होते हैं? निश्चित तौर पर होते हैं, और प्रेम, करुणा और धैर्य जैसे सकारात्मक मनोभाव बड़े उपयोगी हैं। किन्तु हमें क्रोध, अधीरता, और असहिष्णुता जैसे नकारात्मक मनोभावों के प्रभाव में व्यवहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये किसी भी दृष्टि से लाभदायक नहीं होते हैं।
मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम इसे एक कदम और आगे ले जाएं तो यह लोजोंग चित्त साधना की शिक्षाओं जैसा होगा। हम दरअसल अपनी समस्याओं को और अधिक गहन ज्ञान की प्राप्ति के सोपान के रूप में प्रयोग करके अपनी समस्याओं से भी सीख हासिल कर सकते हैं।
बिल्कुल सही है।
क्या आपको लगता है कि चित्त साधना की यह विधि अव्यावहारिक है? क्या आप मानते हैं कि यदि लोग कुछ विशेष नहीं, कोई बड़ी बात नहीं है की विधि का अभ्यास करें तो वह अधिक व्यावहारिक होगा?
हम लोजोंग चित्त साधना की विधियों की सहायता से अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित करने का प्रयास कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम नकारात्मक स्थितियों को सकारात्मक स्थितियों के रूप में देख सकते हैं। ये विधियाँ बहुत अच्छी हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इससे पहले कि हम किसी स्थिति को बदल पाएं, हमें अपने मनोभाव को बढ़ा-चढ़ा कर देखना बंद करना होगा और स्थिति को यथार्थ रूप में देखना होगा। जब हम स्थिति को बढ़ा-चढ़ा कर बहुत बड़ा बना देते हैं तो फिर उसे बदलना बहुत कठिन होता है। “ओह, यह तो बड़ा अनर्थ हुआ! बच्चे ने एक बार फिर अपना डायपर गंदा कर लिया है।“ इस स्थिति को हम, “ऐसा हो कि सभी का गंदा डायपर बदलने का काम मुझे मिल जाए। मैं सभी का डायपर बदलूँगा,” में बदल पाएं उससे पहले हमें थोड़ा और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है।
हमें चरणबद्ध ढंग से आगे बढ़ने की आवश्यकता होती है: पहली बात तो यह है कि बच्चे ने अपने आपको गंदा कर लिया है। तो क्या हुआ? आखिर वह एक छोटा बच्चा है। हम उसका डायपर बदल देते हैं। लेकिन डायपर बदलते समय हमें यह अनुभव बहुत अच्छा नहीं लगता है क्योंकि हमें दुर्गंध सहन करनी पड़ती है, और उस स्थिति में हम लोजोंग की साधना का प्रयोग कर सकते हैं जैसे, “बच्चे की साफ-सफाई करने के माध्यम से मैं हर किसी के सभी दाग-धब्बों और मलिनताओं को साफ कर सकूँ। मेरा ऐसा करना मुझे इस योग्य बनाए कि मैं सभी को निर्मल बना सकूँ।“ लेकिन पहले हमें इस विचार को विखंडित करना होगा कि यह एक विपत्ति है। हम चरणबद्ध ढंग से इसमें आगे बढ़ते हैं।
मैं हर किसी के डायपर बदलने की इस बात के बारे में सोच रहा हूँ। यह तो बड़ा गंदा काम है।
सही कहा, यदि हमें दुनिया भर की मल गंदगी आदि स्वयं अपने ही ऊपर लेनी हो तो फिर कोई भी बौद्ध नहीं बनना चाहेगा। एक सामान्य सिद्धांत के तौर पर, यदि हम बात को हास्यप्रद उदाहरणों के माध्यम से प्रस्तुत करें तो उनका प्रभाव उबाऊ उदाहरणों की तुलना में कहीं अधिक गहरा होता है। है न?
मैं सोच रहा था कि रोज़मर्रा के जीवन के स्तर पर जब हम किसी हानिकारक सम्बंध में होने जैसे किसी अप्रिय अनुभव से होकर गुज़रते हैं तो हम इसे अपने जीवन के व्यवहार में कैसे शामिल करें?
यदि हम किसी हानिकारक सम्बंध में हों और स्थिति बहुत खराब हो, तो हम यह नहीं कहते, “तो क्या हुआ, यही संसार है।“ हम उस स्थिति में अपनी विवेकी सचेतनता का उपयोग करना चाहते हैं जिसे परम पावन दलाई लामा “अद्भुत मानवीय बुद्धि” कहते हैं। हमारे भीतर यह भेद करने का विवेक होना चाहिए कि कोई स्थिति लाभकारी है या नुकसानदेह है। क्या वह स्थिति स्वयं हमारे लिए लाभदायक है या नहीं और उस दूसरे व्यक्ति के लिए भी उस सम्बंध में बने रहने पर लाभदायक है या नहीं? यदि वह स्थिति लाभदायक न हो, दोनों ही पक्षों के लिए नुकसानदेह हो, तो हम उस सम्बंध को खत्म कर देते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम स्पष्ट तौर पर विचार कर सकें, और घटनाओं को ऐसी अतिरंजनाओं और कल्पनाओं के आधार पर न देखें जो यथार्थ के अनुरूप न हों। बेशक, कई बार अलग हो जाना ही बेहतर होता है। लेकिन यह निर्णय साफ सोच और स्पष्ट विश्लेषण के आधार पर लिया जाना चाहिए।
क्या अपने अचेतन मन की भावनाओं के प्रति सचेत रहने के लिए प्रयास करना और उन्हें ईमानदारीपूर्वक प्रकट करना एक सकारात्मक कार्य है?
यदि पाश्चात्य अभिव्यक्ति का प्रयोग किया जाए तो अचेतनता के स्तर पर हमें अक्सर मनोभावों की अनुभूति होती है। प्रश्न यह है कि क्या कुछ परिस्थितियों में इन्हें अधिक स्पष्टता से प्रकट करना बेहतर है? मुझे लगता है कि हमें दो स्थितियों के बारे में विचार करना होगा, एक किसी विनाशकारी मनोभाव की दृष्टि से और दूसरे किसी सकारात्मक मनोभाव की दृष्टि से। उदाहरण के लिए हम क्रोध या प्रेम के मनोभावों को जाँच कर देख सकते हैं। यदि हमारे अचेतन मन के स्तर पर किसी व्यक्ति के प्रति द्वेष का भाव हो, तो हम निश्चित तौर पर उसके प्रति सचेत होना चाहते हैं। सचेत होने का अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं है कि हम किसी के प्रति अपनी विद्वेष की भावना को प्रकट करें। यहाँ भी हमें विश्लेषण करने और घटित हो रही बातों के विभिन्न पहलुओं में भेद करने की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि मेरे कुछ मित्र हैं और जब मैं उनसे बातचीत करता हूँ तो मैं हमेशा उनसे पूछता हूँ, “आप कैसे हैं? आपके जीवन में क्या चल रहा है?” लेकिन वे कभी मुझसे नहीं पूछते कि मैं कैसा हूँ। वे कभी मुझसे यह प्रश्न नहीं पूछते और मुझे यह बात पीड़ादायक लगती है कि वे इतने आत्मकेंद्रित हैं कि उन्हें मेरा हाल पूछने का कभी खयाल ही नहीं आता। लेकिन, यहाँ एक अंतर है। क्या इस बात को लेकर मेरे अचेतन मन में कोई द्वेष का भाव है? हो सकता है कि ऐसा हो; लेकिन उसे प्रकट करने से और उनसे नाराज़ होने से यह स्थिति सुधरने वाली नहीं है। यदि मैं कहूँ, “तुम सचमुच बड़े स्वार्थी हो! तुम बहुत बुरे हो,” तो यह तो बाध्यकारी ढंग से विनाशकारी व्यवहार करने और उन पर चीखने-चिल्लाने की बात होगी। इससे स्थिति सुधरने वाली नहीं है। “तुम मुझसे पूछते क्यों नहीं हो कि मैं कैसा हूँ? तुम्हें हुआ क्या है?” इस तरह के व्यवहार से कोई लाभ नहीं हो सकता है। यदि हमें पता चले कि ऐसी किसी बात को लेकर हमारे मन में द्वेष का भाव है, तो हमें सावधानी बरतनी चाहिए कि वह प्रकट न हो, क्योंकि यदि वह प्रकट हो जाता है, तो फिर हम आत्मनियंत्रण खो देते हैं और विनाशकारी ढंग से व्यवहार करने लगते हैं।
लेकिन, यदि हमें इस प्रकार के विद्वेष के भाव का पता चलता है तो हम क्रोधित हुए बिना ही स्थति को सुधारने का प्रयास कर सकते हैं। सामान्यतया मैं इसे मज़ाक के हल्के-फुल्के ढंग से करता हूँ। मैंने पाया है कि किसी स्थिति की गंभीरता को हल्का करने के लिए हास्य एक बड़ा ही उपयोगी माध्यम है। जब मेरा मित्र अपनी पूरी कहानी सुना चुका होता है कि वह कैसा है और फिर मुझसे मेरा हाल पूछे बगैर किसी नए विषय को शुरू करने वाला होता तब मैं कहता हूँ, “और तुम कैसे हो ऐलेक्स? ओह, धन्यवाद तुमने मेरा हाल पूछा!” इस तरह यह मज़ाक का मज़ाक हो जाता है और उस व्यक्ति को यह अहसास हो जाता है कि उसे भी पलटकर मेरा हाल पूछना चाहिए। तो इस तरह इसमें कोई द्वेष का भाव नहीं होता।
हमारे भीतर इस तरह का द्वेष का भाव, यदि हो, तो उसके प्रति सचेतन होना लाभदायक होता है। यदि उससे मुझे परेशानी नहीं होती, तो क्या फर्क पड़ता है? मैं परवाह नहीं करता कि वह मेरा हाल पूछता है या नहीं, यह अप्रासंगिक है। क्या मैं उसे बताऊँ कि मैं क्या कर रहा हूँ, किस हाल में हूँ? नहीं। यदि उसे बताने की मेरी सचमुच इच्छा हो, तो बस मैं उसे अपना हाल बता देता हूँ। यह वैसा ही है जैसे आपके बच्चे या बच्चों के बच्चे बड़े हो चुके हों और कभी फोन करके आपके हालचाल न पूछते हों, तब यदि आप उनसे बात करना चाहते हैं तो आप स्वयं उन्हें फोन कर लेते हैं। लेकिन ऐसा आप विद्वेष के भाव के बिना करते हैं और उन्हें यह महसूस कराने का प्रयास नहीं करते हैं कि वे आपको फोन करके हालचाल न पूछने के दोषी हैं।
सकारात्मक मनोभाव की स्थिति में क्या होगा? अब हमें उसका विश्लेषण शुरू करना होगा। मुझे इसके बारे में पूर्व तैयारी के बिना ही बोलना होगा क्योंकि मैंने पहले कभी इसका विश्लेषण करके नहीं देखा है। शायद हमारे भीतर अप्रकट प्रेम भाव होता है। इसका क्या अर्थ है? यहाँ हम किसी व्यक्ति के प्रति प्रच्छन्न या अप्रकट काम वासना या यौनाकर्षण के विनाशकारी मनोभाव की बात नहीं कर रहे हैं। यह “मैं तुम्हारे साथ सोना चाहता हूँ,” या वैसी कोई और बात नहीं है। अब हम एक ऐसे मनोभाव की चर्चा करेंगे जो सचमुच सकारात्मक है। उदाहरण के लिए, हम अपने बच्चे से प्यार करते हैं, ठीक? हम अपने बच्चे से प्रेम करते हैं, लेकिन उस प्रेम को कितनी बार प्रकट करते हैं? क्या हम उसे बहुत अधिक प्रकट होने के स्तर तक लाना चाहते हैं? हाँ, यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
फिर, हमें विवेकी सचेतना का प्रयोग करने की आवश्यकता होती है क्योंकि हम बच्चे का दम नहीं घोंटना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमारा बच्चा किशोर हो और वह अपने दोस्तों के बीच हो और उसकी माँ के रूप में हम आकर कहें, “मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ,” और अपने बच्चे को गले से लगा कर चूम लें, तो हम अपने बच्चे को उसके मित्रों के बीच असहज कर देंगे और ऐसा करना पूरी तरह से अनुपयुक्त है। एक अन्य उदाहरण यह हो सकता है कि जब हमारा किशोर बालक बाहर कहीं बाहर गया हो और हम बार-बार उसे फोन करें या टैक्स्ट संदेश भेजें। “ओफ्फो, मेरी माँ ने फिर एक बार फोन किया है, यह पूछने के लिए कि मैं कुशल हूँ कि नहीं।“
हमें यह तय करने के लिए विवेकी सचेतनता का प्रयोग करना चाहिए कि हम अपने सकारात्मक मनोभावों को कब और कैसे व्यक्त करें। अपने दो साल के बच्चे के प्रति प्रेम को प्रकट करने का तरीका पंद्रह साल की उम्र वाले बच्चे के प्रति प्रेम प्रकट करने के तरीके से अलग होता है। सकारात्मक मनोभावों को प्रकट करना ठीक है; लेकिन यहाँ भी, उसे प्रकट करने की कोशिश में बहुत नाटकीय होने की आवश्यकता नहीं है। इसे थोड़े अधिक परिष्कृत ढंग से प्रकट करना ही ठीक है।
भावनात्मक मुद्राएं
यह एक ऐसा विषय है जो मेरी राय में बहुत उपयोगी है। मेरे एक मित्र हैं जो एक मनश्चिकित्सक हैं, ने आर्थिक शब्दावली की सहायता से अपने सिद्धांत को व्यक्त किया। हमें इस बात को स्वीकार करना सीखना होगा कि लोगों की मुद्राएं अलग-अलग होती हैं और वे इन विभिन्न मुद्राओं की सहायता से ही भुगतान करते हैं। हमें उनकी मुद्राओं को स्वीकार करना सीखना चाहिए। उदाहरण के लिए कुछ लोग अपने प्रेम भाव को आलिंगन करने और चुंबन लेने की शारीरिक चेष्टाओं के माध्यम से प्रकट करते हैं। कुछ दूसरे लोग हमारा खयाल रख कर अपने प्रेम और फिक्रमंदी के भाव को व्यक्त करते हैं। वे भौतिक स्तर पर इतना अधिक प्रेम नहीं जताते हैं, लेकिन उनकी प्रकृति ध्यान रखने वाले और हिफ़ाज़त करने वाले व्यक्तियों की होती है।
इसका एक अच्छा उदाहरण पुरानी पीढ़ियों का हो सकता है जहाँ पिता सामान्यतया बच्चों के प्रति बहुत अधिक स्नेह नहीं दर्शाते थे। लेकिन वही पिता अपने बच्चों के प्रति अपने प्रेम को इस प्रकार दर्शाता था कि वह बाहर जाकर काम करता था, पैसा कमाता था और अपने बच्चे की सभी आवश्यकताओं को पूरा करता था। पिता इसी मुद्रा में भुगतान किया करता था। एक बच्चे के रूप में, और बाद में बड़े होकर भी हमें इस बात को समझने की आवश्यकता है। “मेरे पिता मुझसे प्रेम करते थे और अपनी फिक्रमंदी और प्रेम को दर्शाते भी थे। हो सकता है कि वे उस उसका भुगतान मेरी पसंद की मुद्रा में न करते हों, लेकिन वे अपने प्रेम को प्रदर्शित तो करते थे।“ हम अलग-अलग मुद्राओं को स्वीकार करना सीखते हैं। यह वैसा ही था जैसे यहाँ डेनमार्क में भुगतान यूरो में करने के बजाए क्रोना में किया जाए। पैसा तो पैसा ही है। अलग-अलग लोग अपने प्रेम को अलग-अलग तरीकों से प्रकट करते हैं।
आपने अपने उन मित्रों के बारे में अपनी कहानी में बताया जो आपसे आपका हालचाल नहीं पूछते हैं, उस स्थिति में क्या होगा जब आप क्रोधित तो न हों लेकिन आपको उनसे लगाव हो या आप चाहते हों कि वे आपको याद रखें और परवाह करें कि आप कैसे हैं। इस स्थिति में आपको बस थोड़ा सा दुख होता है, कि आपको कम प्रेम किया जा रहा है। आप फिर भी उस बात को कह सकते हैं, लेकिन यदि वे फिर भी अपने व्यवहार को न बदलें या आपके सुझाव को न मानें, तो फिर आप उस दुख से कैसे निपटेंगे? क्या आप इन बातों के प्रति अपनी आसक्ति पर विजय पाकर उस दुख से निपटेंगे?
इस स्थिति में दो प्रकार के दुख के उत्पन्न होने की सम्भावना है। एक तो स्वयं को महत्वपूर्ण समझने के कारण उत्पन्न दुख है। “मैं दुखी हूँ क्योंकि वे लोग मुझ पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। मैं इस बात को लेकर नाराज़ नहीं हूँ, लेकिन मैं चाहता हूँ कि वे लोग मुझ पर ध्यान दें तो अच्छा हो।“ यह केवल “मैं, मैं, मैं” के बारे में सोचने के कारण होता है। यह तो एक प्रकार का दुख हुआ। लेकिन, हम इस बात को लेकर भी दुखी हो सकते हैं कि वे लोग कितने स्वार्थी और आत्मकेंद्रित हैं, लेकिन हम इस बात को बिल्कुल भी व्यक्तिगत तौर पर नहीं लेते हैं। इस स्थिति में हमें यह दुख होता है कि वे लोग इस समस्या से ग्रस्त हैं। इसके कारण हमारे भीतर उनके प्रति करुणा का भाव विकसित होता है। फिर हम उनकी सहायता करने के उपाय सोच सकते हैं।
यदि हमारा दुख केवल अपने बारे में फिक्र होने पर आधारित है, “मुझे दुख है क्योंकि लोग मेरी ओर ध्यान नहीं देते हैं,” तो फिर हमें इस स्थिति से निपटने के लिए आत्मसुधार करना होगा। यदि लोग हमारे ऊपर ध्यान देते भी हों, तब भी हम क्या चाहते हैं? क्या हम चाहते हैं कि जानी-मानी हस्तियों की तरह पैपराज़ी फोटोग्राफर हर समय हमारा पीछा करते हुए हमारे चित्र खींचते रहें? क्या हम चाहते हैं कि हमारे ऊपर इतना अधिक ध्यान दिया जाए? मेरा मतलब है कि बात को समझिए, इससे संतोष नहीं हासिल होने वाला है। यदि लोग हमारी इच्छा के मुताबिक हम पर ध्यान देने लगें तब भी वह खुशी साधारण खुशी होगी जो स्थायी नहीं होती है। वहीं दूसरी ओर यदि अपने बच्चों का अनावश्यक रूप से अधिक खयाल रखने वाले माता-पिता की तरह यदि कोई व्यक्ति बहुत अधिक ध्यान रखने लगे और हर पाँच मिनट में पूछने लगे, “आप कैसे हैं, आप ठीक तो हैं,” या “सब ठीक-ठाक तो हैं?” तब?
हो सकता है कि किसी सम्बंध में मुझे यह सब ठीक लगता हो लेकिन दूसरे व्यक्ति को यह ठीक न लगता हो। हमें मुद्राओं की बात करनी चाहिए, “मैं ऐसा हूँ और तुम वैसे हो।“ हम एक-दूसरे के बारे में और अधिक जानने लगते हैं। हम एक-दूसरे की पसंदों के बारे में सीख सकते हैं। इसके बारे में बात करना, दूसरों को बताना और उसके प्रति सचेत होना अच्छा है।
यदि कोई सम्बंध चल रहा हो और दूसरा व्यक्ति विचारों को ग्रहण करने में सक्षम हो तो हम इसके बारे में उससे बात कर सकते हैं। “मुझे इस तरह से प्रेम जताया जाना पसंद है।“ दूसरा व्यक्ति भी बता सकता है कि उसे किस प्रकार से प्रेम प्रदर्शित किया जाना पसंद है। ऐसा परस्पर भागीदारी के सम्बंध में होता है; लेकिन किसी बच्चे और उसके माता-पिता के बीच के सम्बंध में तरीका उतना कारगर नहीं है। यदि माता या पिता की मृत्यु हो चुकी हो और यदि हम अपने बचपन में लौटकर विचार करें, तो उस स्थिति में ऐसा समझौता नहीं हो सकता है। यहाँ यह देखना महत्वपूर्ण है कि किसी सम्बंध में बंधे दोनों लोग मूलतः समान स्तर के हैं या नहीं। क्या वे अपने आप में बदलाव करके संवाद कर सकते हैं? हो सकता है कि बॉस दफ्तर में किसी से कभी पूछता ही न हो कि वह कैसा है। ऐसे मुद्दे पर हम बॉस के साथ बातचीत नहीं करते हैं। बॉस के साथ चर्चा करते समय हमारा ध्यान कार्य सम्बंधी मुद्दों पर केंद्रित होना चाहिए, जैसे, “आप सचमुच मुझे बहुत ज़्यादा काम दे रहे हैं। मैं इस बात से बहुत खुश नहीं हूँ।“ आपको स्थिति को देखकर विवेकी सचेतनता के साथ उसके बारे में विचार करना चाहिए।
मान लीजिए कि हमने अभी शून्यता के बोध के स्तर को हासिल नहीं किया है और हमें लगता है कि हमारे पास क्रोधित होने के वास्तविक कारण हैं जो अतिरंजित नहीं हैं। हम क्रोधित होने से बचते हैं और अपने क्रोध को प्रकट नहीं करते हैं। हम उसे बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत न करने का प्रयास करते हैं, लेकिन क्या कुछ ऐसा हो सकता है जिसके कारण से यह स्थिति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अस्वास्थ्यकर हो जाए?
इस बात से मनोभावों के दमन का प्रश्न उठता है। हमने किसी भी स्तर पर शून्यता के बोध को हासिल नहीं किया है और हम केवल विद्वेष के भाव को दबा रहे हैं, तब निःसंदेह वह दबी हुई भावना भीतर ही भीतर हमारी ओर मुड़ जाएगी। इसके कारण अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। उस स्थिति में हम क्या करें? यदि हम अपने क्रोध को प्रकट करना चाहते हों और यदि उसे व्यक्त करना आवश्यक हो, तो फिर हमें उसे प्रकट करने का उचित समय चुनने के लिए विवेकी सचेतनता का प्रयोग करना चाहिए। यदि दूसरा व्यक्ति सचमुच बहुत क्रोधित या परेशान हो या बहुत व्यस्त हो तो ऐसे समय पर अपने क्रोध को प्रकट नहीं किया जाना चाहिए। उसे व्यक्त करने के लिए कौन सा समय सबसे उपयुक्त होगा यह तय करने के लिए हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। जब आप अत्यधिक क्रोध में हों उस समय अपने क्रोध को व्यक्त न करें क्योंकि तब स्थिति आपके नियंत्रण से बाहर जा सकती है।
कुल मिला कर बात अपनी सामान्य बुद्धि के प्रयोग पर आ जाती है। कब वैसा करना फायदेमंद होगा? किसी बात को कहने का सही समय क्या हो? जब कोई व्यक्ति बहुत थका-मांदा हो या उनींदा हो और सोना चाहता हो, तो वह समय उस व्यक्ति की असंवेदनशीलता के बारे में गम्भीरता से चर्चा शुरू करने के लिए उपयुक्त नहीं है। जब वह काम में बहुत अधिक व्यस्त हो तब भी यही बात लागू होती है। वह समय उपयुक्त नहीं है। ठीक?