लाम-रिम के क्रमिक चरणों को जीवन में कैसे समेकित किया जाए

प्रेरणा (समुत्थान) के तीन क्रमिक स्तरों की संरचना का परिचय

"लाम-रिम" एक तिब्बती शब्दावली है जिसका अनुवाद प्रायः "ज्ञानोदय का क्रमिक पथ" के रूप में किया जाता है, परन्तु यह उस पथ की बात नहीं कर रहा जिसपर हम चलते हैं। यहाँ "पथ" उस चित्तावस्था को संदर्भित करता है जो हमें किसी विशिष्ट स्थान तक ले जाने वाले मार्ग के रूप में कार्य करती है, और वह विशिष्ट स्थान है ज्ञानोदय प्राप्ति। मैं इसे "चित्त मार्ग" कहना पसंद करता हूँ, और ज्ञानोदय तक पहुँचने के लिए हमें इसे एक निश्चित श्रेणीबद्ध क्रम में विकसित करने की आवश्यकता है।

परंपरागत रूप से लाम-रिम को तीन प्रमुख स्तरों में विभाजित किया गया है, जो आगे चलकर कई उपखंडों में विभाजित हुए हैं। यह उत्तरोत्तर विकसित चित्तावस्था प्रस्तुत करता है जिनमें से प्रत्येक अवस्था एक-एक आशय की बृहत् संरचना को समाविष्ट करती है। प्रत्येक स्तर का प्रतिनिधित्व भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्ति करते हैं, और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की अलग-अलग प्रेरणा (समुत्थान) होती है। प्रेरणात्मक आशय संरचनाओं से युक्त इस प्रकार के व्यक्तित्वों की प्राप्ति हेतु हम अपनेआप को उत्तरोत्तर विकसित करने का प्रयास करते हैं।

मैं यहाँ " समुत्थान" शब्द का प्रयोग किसी सरलीकृत रूप से नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि बौद्ध धर्म में समुत्थान की चर्चा इन प्रेरक आशय संरचनाओं को संदर्भित करती है, जिनके दो भाग हैं। एक भाग है हमारे जीवन का उद्देश्य, और दूसरा है वह जिसे हम पश्चिमवासी प्रायः प्रेरणा के रूप में मानते हैं और जिसमें वह भावात्मक पृष्ठभूमि है जो हमें अपने उद्देश्य की ओर ले जाती है।

लाम-रिम के तीन स्तरों में से प्रत्येक स्तर का आधार उसका निचला और पूर्ववर्ती स्तर है, और इसलिए वे संचयी हैं। इसका अर्थ यह है कि हम पहले प्रथम स्तर का समुत्थान विकसित करते हैं, फिर प्रथम और द्वितीय एक साथ, इत्यादि। ऐसा नहीं है कि हम दूसरे स्तर पर पहुँचने के बाद पहले स्तर को भूल जाते हैं। और अंत में हम तीनों स्तरों को एक साथ जोड़ते हैं। यह हमारे लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम विधिनिर्दिष्ट क्रम में ही तीनों स्तरों को विकसित करते हुए आगे बढ़ें। यदि हम किसी एक को छोड़ देते हैं तो हमारी अभीष्ट मनःस्थिति अपूर्ण रह जाएगी।

  • आरंभिक विषय क्षेत्र समुत्थान से हम अपने भावी पुनर्जन्मों को बेहतर बनाते हैं। निकृष्ट पुनर्जन्मों के प्रति आशंका और हर हाल में उनसे बचने की प्रबल इच्छा ही इसका प्रेरक मनोभाव है।
  • मध्यवर्ती विषय क्षेत्र से हम संसार से पूर्ण विमुक्ति का लक्ष्य रखते हैं। इसका प्रेरक मनोभाव यह है कि हम उससे जुड़े हुए दुःखों से पूरी तरह से ऊब चुके हैं, उससे घृणा हो गई है। इसे प्रायः "त्याग" के रूप में अनूदित किया जाता है, अर्थात इन सभी से विमुक्त होने का दृढ़ संकल्प। स्वाभाविक रूप से इसका तात्पर्य है अपने दु:खों को छोड़ देने की तत्परता।
  • प्रेम, करुणा, एवं बोधिचित्त ध्येय से प्रेरित उन्नत विषय क्षेत्र से हमारा लक्ष्य है पूर्ण ज्ञानोदय प्राप्ति। हम अन्य सभी सत्त्वों के बारे में यह सोचते हैं कि हमारी तरह ही वे भी अनेक दुःख भोगते हैं और उनकी भी समस्याएँ होती हैं, और इसलिए हम ज्ञानोदय प्राप्त करना चाहते हैं ताकि उनकी सहायता करने में हम पूर्ण रूप से समर्थ हो जाएँ।
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