बौद्ध धर्म का अध्ययन करने से क्या लाभ है?

जब हम बौद्ध धर्म के संदर्भ में ध्यानसाधना की चर्चा करते हैं तो हम किसी विशिष्ट अभ्यास की बात कर रहे होते हैं। आजकल हम “ध्यानसाधना” शब्द के प्रयोग के बारे में नाना प्रकार के संदर्भों में सुनते हैं, इसका कारण यह है कि इसकी अपनी एक प्रतिष्ठा है और बहुत से लोग इसका उपयोग तनावमुक्ति आदि जैसे उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करते हैं। लेकिन जब बात वास्तव में ध्यानसाधना करने की आती है तो अधिकांश लोगों कोई जानकारी ही नहीं होती है कि उन्हें क्या करना है। उन्हें बस यह मालूम होता है कि उन्हें चुपचाप और शांतिपूर्वक बैठ जाना है: लेकिन उसके बाद क्या किया जाए? क्या इसमें केवल श्वास पर ध्यान केंद्रित करने और सद्विचार सोचने के अलावा करने जैसा कुछ और भी है?

संस्कृत भाषा में ‘मेडिटेशन’ के लिए प्रयुक्त शब्द का अर्थ किसी चीज़ को यथार्थ बनाना होता है। तिब्बतवासियों ने इसका अनुवाद एक ऐसे शब्द के रूप में किया जिसका अर्थ किसी प्रकार के अभ्यास या आदत को विकसित करना होता है। जब हम किसी प्रकार के अभ्यास या आदत को विकसित करते हैं तो हम उसे अपने अस्तित्व का हिस्सा बना लेते हैं, और ध्यानसाधना करते समय हम ठीक यही करने का प्रयत्न करते हैं। हम अपने आप में कोई लाभकारी बदलाव लाना चाहते हैं। अब हमारे सामने पहला प्रश्न यह उठता है कि हम अपने आपको क्यों बदलना चाहेंगे? सामान्यतया इसका कारण यह होता है कि हम जिस प्रकार का जीवन जी रहे होते हैं, या हम जैसा अनुभव कर रहे होते हैं, या जिस तरह से हम दूसरों के साथ या अपने काम के साथ अपने सम्बंध को देखते हैं, उससे हम खुश नहीं होते हैं।

समस्याओं से बच कर भागने के बजाए उन्हें हल करना

यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है: कि हम अपने आपको बदलना चाहते हैं और बेहतर बनाना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि हम अपनी ध्यानसाधना के माध्यम से किसी कल्पना लोक की ओर पलायन करना चाहते हैं; वैसा करने के लिए नशीली दवाओं और शराब जैसे दूसरे कई साधन उपलब्ध हैं जिनका हम उपयोग कर सकते हैं। हम दिन भर संगीत सुनते रह सकते हैं ताकि हमें और किसी चीज़ के बारे में न सोचना पड़े। अक्सर जब हम इस तरह की चीज़ों के प्रभाव में होते हैं तो हमें अपनी समस्याएं उतनी प्रबल या वास्तविक नहीं लगती हैं। लेकिन हमारी वे समस्याएं फिर वापस लौट आती हैं, क्योंकि हमने दरअसल उन्हें वास्तव में नियंत्रित करना नहीं सीखा है। बहुत से लोग ध्यानसाधना का उपयोग किसी दवा के रूप में करते हैं, लेकिन ऐसा करने से भी कोई स्थायी समाधान नहीं मिलने वाला है। हम घंटे और ढोल बजा सकते हैं – जैसे कोई बौद्ध डिज़्नीलैंड हो – लेकिन उससे हमारे भीतर कोई बदवाव नहीं आने वाला है: यह तो बस एक तरह का पलायन है।

लेकिन, यदि हम बौद्ध परम्परा में बताए गए अनुसार ध्यानसाधना का अभ्यास करते हैं तो हम अपनी समस्याओं से पलायन करने का प्रयास नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि उनकी चुनौती से लड़कर उन पर विजय प्राप्त करते हैं। दरअसल यह बड़े साहस का कार्य है और इसके लिए बड़े परिश्रम की आवश्यकता होती है, क्योंकि यह कोई आसान काम नहीं है। हमें इस बात के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं है कि ध्यानसाधना करना कोई आमोदजन अनुभव ही होगा। हम इसकी तुलना शारीरिक व्यायाम से कर सकते हैं जिसका अभ्यास कठोर होता है और हमारी मांसपेशियों के लिए पीड़ादायक होता है, लेकिन फिर भी हम अपने शरीर को अधिक बलशाली और स्वस्थ बनाने के लिए इस तकलीफ को सहन करने के लिए तैयार होते हैं।

ध्यानसाधना करते समय भी वही स्थिति होती है, बस हम शरीर के बजाए चित्त का अभ्यास कर रहे होते हैं। बौद्ध धर्म के कुछ स्वरूपों में ध्यानसाधना के साथ-साथ युद्ध-कला जैसे शारीरिक व्यायाम का भी मिला-जुला अभ्यास किया जाता है, लेकिन तिब्बती परम्परा में ऐसा नहीं किया जाता है। शारीरिक व्यायाम का अभ्यास करने में कोई हर्ज नहीं है, वस्तुतः यह तो बहुत उपयोगी है; किन्तु, इस परम्परा में मुख्यतः चित्त पर बल दिया जाता है, केवल हमारी बुद्धि ही नहीं बल्कि हमारे मनोभावों और हृदय के भावों पर ज़ोर दिया जाता है। महान बौद्ध आचार्यों ने इस बात पर बल दिया है कि बौद्ध साधना प्रारम्भ करते समय चित्त को साधना ही सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरों के प्रति हम कैसा व्यवहार, आचरण और संवाद करते हैं वह सब हमारे चित्त की दशा से ही नियंत्रित होता है।

ईमानदारी से आत्मावलोकन करना

हम यह मानते हैं कि हमें अपने जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और हम यह भी देखते हैं कि हमारे अपने चित्त में स्थित असंतोष का भाव ही इन कठिनाइयों का स्रोत है। यदि हम सच्चाई और ईमानदारी के साथ अपने भीतर जाँच करें तो हम पाएंगे कि हमारे भीतर अनेक प्रकार के अशांतकारी मनोभाव मौजूद हैं जैसे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, आसक्ति, अहंकार, अनभिज्ञता आदि-आदि। यदि हम और अधिक गहराई में झांककर देखें तो हम पाते हैं कि वहाँ एक प्रकार की असुरक्षा का भाव और जीवन क्या है इसके बारे में भ्रम की स्थिति है। अक्सर यह देखा जाता है कि ये अशांतकारी मनोभाव हमारी चित्तावस्था पर हावी रहते हैं और हमें दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव करने, बोल बोलने और दृष्टिकोण रखने के लिए प्रेरित करते हैं जिसके कारण स्वयं हमारे लिए और उस दूसरे लोगों के लिए भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। जब हम अकेले होते हैं तब भी हमारा चित्त अक्सर असहज होता है, अनेक प्रकार के अशांतकारी मनोभावों की ओर दौड़ता रहता है। आसान शब्दों में कहा जाए तो हम सच्चे अर्थ में सुखी नहीं होते हैं।

ध्यानसाधना का उद्देश्य इस स्थिति को बदलना होता है। यह बदलाव उस अर्थ में नहीं है कि हम कोई नशीली दवाओं का सेवन कर लें ताकि हमें किसी भी चीज़ की कोई सुध न रहे। यदि कुछ लोग ध्यानसाधना को इस दृष्टि से देखते हैं तो वह भी कोई समाधान नहीं है। ऐसे लोग सोचते हैं कि यदि आप बैठकर अपनी आँखें बंद कर लें और सब कुछ भुला दें तो किसी तरह से उनकी सारी समस्याएं ओझल हो जाएंगी। यह तरीका कामयाब नहीं है। बल्कि ध्यानसाधना करते समय हमें सक्रिय रहते हुए अपनी समस्याओं पर प्रहार करना होता है।

वास्तविक शत्रु को खोजना

हम अक्सर पाते हैं कि बौद्ध साहित्य में हमारे अशांतकारी मनोभावों को बहुत कड़े शब्दों में हमारा शत्रु बताया गया है। इसका उद्देश्य उन मनोभावों को डरावने दैत्यों के रूप में प्रस्तुत करना नहीं होता है जिनसे डरकर हम भयभीत रहने लगें। बल्कि हमें यह बोध हो जाता है कि हमें इन मनोभावों को नियंत्रित करने के लिए प्रयास करना है। ऐसे श्रेष्ठ बौद्ध ग्रंथ भी हैं जहाँ समस्या उत्पन्न करने वाले इन मनोभावों को इस प्रकार सम्बोधित किया गया है, “मैंने तुम्हें बहुत बर्दाश्त किया, तुमने मेरे लिए इतनी सारी समस्याएं और परेशानियाँ खड़ी कर दी हैं। अब तुम्हारा समय समाप्त हुआ।“ इस प्रकार हम आस्तीनें चढ़ाकर तैयार हो जाते हैं और बैठकर अपने चित्त को बदलने का प्रयास करते हैं। यही ध्यानसाधना करने का वास्तविक अर्थ है।

आसान शब्दों में कहा जाए तो ध्यानसाधना वह विधि है जिसकी सहायता से हम अपने आपको लाभकारी आदतों को विकसित करने, और नुकसान पहुँचाने वाली आदतों को बदलने के लिए अभ्यस्त करते हैं। ये आदतें इन बातों से सम्बंधित होती हैं कि हम किस प्रकार विचार करते हैं, किस प्रकार अनुभव करते हैं, और भावनात्मक स्तर पर किस प्रकार प्रतिक्रिया करते हैं। इसके लिए अभ्यास और दोहराव की आवश्यकता होती है – यह एक वैज्ञानिक विधि है। जिस प्रकार हम खेल-कूद के लिए, या कोई वाद्य यंत्र बजाने के लिए, या नृत्य सीखने के लिए अभ्यास करते हैं तो शुरुआत में वह सब बहुत बनावटी सा लगता है। लेकिन जब हम किसी चीज़ के अभ्यस्त हो जाते हैं, तो फिर वही कार्य हमारे लिए बहुत सहज हो जाता है। हमारे चित्त और मनोभावों और भावनाओं के साथ अभ्यास के बारे में भी यही बात लागू होती है।

क्या बदलाव करना सम्भव है?

अब एक बड़ा प्रश्न खड़ा होता है। क्या हम सचमुच बदलाव कर सकते हैं? दरअसल, अपने आपको बदलने का अभ्यास करने के लिए हमें स्वयं को यह यकीन दिलाना होगा कि ऐसा करना सचमुच सम्भव है। हमें अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनका कहना होता है, “मैं ऐसा ही हूँ और ऐसा ही रहूँगा; मैं अपने आप को बदलने के लिए कुछ नहीं कर सकता, इसलिए मुझे ऐसा ही बन कर रहना होगा,” या “मैं बड़ा गुस्सैल हूँ, मेरा गुस्सा बहुत बुरा है और मैं बस ऐसा ही हूँ।“ यदि हम इतनी मज़बूती से किसी पहचान के साथ चिपके रहेंगे, तो ज़ाहिर है कि बदलाव करना कठिन होगा।

हमें ईमानदारी से आत्मावलोकन करना चाहिए। हम कुछ चीज़ों को अपनी पहचान के साथ क्यों जोड़ लेते हैं? यदि हम सचमुच बड़े गुस्सैल व्यक्ति होते, तो फिर क्या हमें हर समय क्रोधित नहीं बने रहना चाहिए था? यह भी हो सकता है कि हम दूसरों को दोष देने लगें: मैं इसलिए नाराज़ हूँ क्योंकि मेरे माता-पिता ने ऐसा किया या वैसा किया। इस सबसे कोई लाभ नहीं है। यदि हम और अधिक गहराई से देखें तो हम यह मालूम करने का प्रयास कर सकते हैं कि ये मनोभाव दरअसल कहाँ से उत्पन्न हुए हैं। यदि हम हर दिन अपने आप से यह भी कहते रहें, “क्रोध मत करो, लोभ मत करो, स्वार्थी मत बनो,” तब भी अपने आपको रोक पाना बहुत कठिन होता है, है न? इसलिए हमें कोई ऐसी विधि तलाश करनी होगी जो हमारी भावात्मक अनुभूतियों को बदलने में सहायक हो।

हमारा दृष्टिकोण ही सब बातों को प्रभावित करता है

बौद्ध धर्म कहता है कि हमारा “दृष्टिकोण” ही हमारी भावनात्मक अवस्था का आधार होता है। यानी, हम चीज़ों को किस नज़रिए से देखते हैं। कल्पना कीजिए कि हमारी नौकरी चली जाती है। हम इसे एक बड़ी विपत्ति मान सकते हैं और फिर क्रोधित या उदास हो सकते हैं। क्यों? क्योंकि उस समय हमें ऐसा लगता है कि जैसे दुनिया में इससे बुरा और कुछ नहीं हो सकता है।

हमारी नौकरी जा चुकी है – यह एक सच्चाई है। हम उसे बदल नहीं सकते हैं। जो हम बदल सकते हैं वह यह है कि नौकरी चले जाने के उस नुकसान को हम किस नज़रिए से देखते हैं, और यही दृष्टिकोण का अर्थ है। इसलिए हम इसे एक अलग ढंग से देखने का प्रयास कर सकते हैं – अब हम अपने बच्चों के साथ अधिक समय बिता सकेंगे, या अपना व्यवसाय बदलने के बारे में सोच सकेंगे। ठीक है, आर्थिक दृष्टि से हमें इससे कोई फायदा नहीं होगा, लेकिन कम से कम हमें उस स्थिति के बारे में उतना बुरा भी तो नहीं लगेगा। तो, ध्यानसाधना करते समय हम इस बात के बारे में अपने ध्यान को केंद्रित कर सकते हैं – कि हम चीज़ों को किस नज़रिए से देखते हैं, क्योंकि इसी से तय होता है कि हम कैसा महसूस करेंगे।

पिछले सप्ताह मेरे घनिष्टतम मित्र की मृत्यु हो गई। यह दुख की बात है। मैं इसके दुख को अनुभव करता हूँ – ऐसा होना एक स्वस्थ प्रक्रिया है; इसमें कुछ गलत नहीं है। निःसंदेह मुझे उसकी मृत्यु हो जाने से खुशी नहीं है! लेकिन यहाँ मैं अपनी चित्तावस्था को किस प्रकार नियंत्रित करूँ? मेरे मित्र की मृत्यु होने से एक सप्ताह पहले मेरे मन में आया कि मैं उसे फोन करके उससे बात करूँ, लेकिन मैं इसके लिए समय ही नहीं निकाल पाया। वह एकदम भला-चंगा था, शावर में नहाने के लिए गया, वहीं उसे दिल का दौरा पड़ा और वहीं गिरकर उसने दम तोड़ दिया। यह पूरी तरह अप्रत्याशित था, और अचानक घटित हुआ था। हाँ, मुझे इस बात का बहुत मलाल हो सकता है कि जब मैंने एक सप्ताह पहले उससे बात करने के बारे में सोचा था तो फिर उससे बात क्यों नहीं की, या फिर मैं यह सोचकर अपने आप पर क्रोधित हो सकता हूँ कि यदि मुझे मालूम होता कि उसकी मृत्यु हो जाएगी तो फिर मैं उससे क्या-क्या बातें करता। यदि मैं इस प्रकार से सोचता तो मुझे बहुत बुरा महसूस होता।

इसके बजाए, मैंने खुशी के उन पलों को याद किया जो हमने साथ मिलकर बिताए थे, और कितनी सारी अच्छी-अच्छी यादें हमने साझा की थीं – हम दोनों की दोस्ती 35 साल पुरानी थी – और इतने अच्छे व्यक्ति से बड़ी गहरी मित्रता का होना मेरे लिए कितने सम्मान की बात थी। पश्चिम जगत के जितने भी लोगों को मैंने जाना है उनमें से वह धर्म का सबसे सच्चा और ईमानदार उपासक था। इसी वजह से मैं उसे अपने लिए प्रेरणा का स्रोत मानता हूँ कि मैं अपनी साधना को और अधिक लगन के साथ जारी रखूँ।

यह ध्यानसाधना का ही परिणाम है। इससे आपको कोई दैवी शक्तियाँ या कोई असाधारण सिद्धि प्राप्त नहीं होती है। आपको जो हासिल होता है वह यह है कि जब आपको किसी मुश्किल स्थिति का सामना करना पड़ता है, और आप पाते हैं कि आप किसी नकारात्मक, दुखभरी चित्तावस्था से घिरते जा रहे हैं, तब सबसे पहले तो आपको यह बोध हो जाता है कि यदि आप अपने आपको ऐसी ही चित्तावस्था में बनाए रखेंगे तो स्थिति और भी बदतर हो जाने वाली है। हमें ऐसी कठिन परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझने की योग्यता हासिल होती है, और पर्याप्त अभ्यास कर लेने के बाद हम इस स्थिति में होते हैं कि उस स्थिति के बारे में अपने दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल सकें। हो सकता है कि हमारे दुख का अहसास फिर भी बना रहे, जैसाकि मैंने अपने मित्र की मृत्यु के बाद अनुभव किया था, लेकिन हम अपने दुख को हल्का करने के लिए उस अनुभूति को किसी तरह के सुखदायक विचारों के साथ जोड़ पाते हैं।

वीडियो: त्सेनझाब सरकांग रिंपोशे द्वितीय – बौद्ध धर्म का अध्ययन क्यों करें?
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अपनी क्षमताओं के प्रति विश्वस्त होना

इसलिए हम अपने आपसे यह प्रश्न पूछते हैं कि क्या हम अपने दृष्टिकोण को बदलने की क्षमता रखते हैं? और इसका जवाब हाँ हैं। यदि आप उन चीज़ों को देखें जो बच्चे के रूप में हमें बहुत दिलचस्प और अद्भुत लगती थीं, वही चीज़ें अब हमें मूर्खतापूर्ण, नासमझी भरी और उबाऊ लगती हैं। हम जैसे-जैसे बड़े हुए हैं, हमारे दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव आया है। एक बार जब हमें यह विश्वास हो जाता है कि इस दृष्टिकोण में और भी बदलाव करना सम्भव है, तो फिर हमें ऐसा करने के लिए कुछ विधियाँ सीखनी चाहिए। इसे तीन चरणों में किया जाता है:

  • सही ज्ञान प्राप्त करना – हमें यह जानने की आवश्यकता होती है कि कौन सा अभ्यास अधिक लाभकारी होगा और यह ज्ञान उस अभ्यास के बारे में श्रवण करने, पढ़ने या जानकारी हासिल करने से आता है। इस चरण का यह मतलब नहीं है कि हमें आवश्यक रूप से उस ज्ञान का बोध हो जाएगा, बल्कि यह है कि हमें यह समझने का विवेक प्राप्त हो जाता है कि यह एक बौद्ध विधि है।
  • उसके अर्थ के बारे में विचार करना – हमें जो जानकारी हासिल हुई है हमें उसके बारे में विचार करना चाहिए, विभिन्न दृष्टिकोणों से उसे परखना चाहिए और विश्लेषण करना चाहिए ताकि हम उसे समझ सकें। हमें यह बोध हो जाना चाहिए कि हम जिस शिक्षा के बारे में विचार कर रहे हैं वह यथार्थ है, कोई मनगढ़ंत बात नहीं है। हमें यह विश्वास भी होना चाहिए कि यह हमारे लिए लाभकारी है और हम इसे अपने जीवन के व्यवहार में शामिल कर सकेंगे।
  • ध्यानसाधना करना – अब हम इस बात के लिए तैयार हो चुके हैं कि अब तक हमने एक लाभकारी अभ्यास या आदत के रूप में जो कुछ सीखा और समझा है, उसे विकसित करने के लिए ध्यानसाधना कर सकते हैं।

सही जानकारी और चिंतन

सही जानकारी हासिल करना उतना आसान नहीं होता है जितना हम समझते हैं। बहुत से लोग प्रामाणिक बौद्ध विधियों की शिक्षा देने का दावा करते हैं; लेकिन सिर्फ इसलिए क्योंकि किसी व्यक्ति ने कोई पुस्तक लिखी हो और उसे प्रकाशित करवा लिया हो, इसका मतलब यह नहीं होता है कि उस पुस्तक में दी गई सामग्री सही ही होगी। और यह भी आवश्यक नहीं है कि किसी शिक्षक के द्वारा दी गई शिक्षा सही ही होगी क्योंकि वह शिक्षक बहुत लोकप्रिय और आकर्षक व्यक्तित्व वाला है। हिटलर भी बहुत करिश्माई और लोकप्रिय नेता था, लेकिन ज़ाहिर है कि उसने जो शिक्षा दी वह सही नहीं थी।

इसलिए बौद्ध धर्म में इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि हमें अपने बुद्धि-विवेक का प्रयोग करना चाहिए। कौन सी बात हमें पशुओं से अलग करती है? किसी पशु को बहुत से कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है, लेकिन इस योग्यता के अतिरिक्त हमारे पास बुद्धि की क्षमता भी है। हम इस बात का फर्क कर पाते हैं कि कौन सी बात लाभकारी है और कौन सी बात लाभकारी नहीं है। यदि कोई बात हमें पहली बार में समझ में न आए, तो हम उसे समझने के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग कर सकते हैं, और शिक्षाओं के बारे में सुनते या पढ़ते समय हमें यही करना चाहिए।

बुद्ध ने जो भी शिक्षाएं दी उनके पीछे दूसरों की भलाई करने की मंशा थी। लेकिन फिर भी हम स्वयं जाँच करके देख सकते हैं कि उन्होंने जो बातें सिखाईं वे लाभकारी हैं या नहीं। इसके लिए हमें दीर्घगामी प्रभावों को देखना चाहिए, क्योंकि हो सकता है कि अल्पकालिक परिणाम उतने रुचिकर न दिखाई देते हों। यह स्थिति किसी चिकित्सा उपचार के जैसी होती है जो उपचार लेते समय बिल्कुल भी सुखकर नहीं होती है, लेकिन दीर्घ अवधि में उससे लाभ होता है, जैसे कैंसर का उपचार करते समय कीमोथेरेपी दीर्घ अवधि में लाभ पहुँचाती है।

यदि हमने इन चरणों का पालन न किया हो, शिक्षा की परख न की हो और अपने जीवन के व्यवहार और अनुभव में उसे शामिल न किया हो, तो फिर हम उसकी ध्यानसाधना कैसे कर सकेंगे? यह वैसा ही है जैसे हम यह विचार किए बिना ही किसी चीज़ को खरीद रहे हों कि हमें उसकी आवश्यता है या नहीं, और वास्तव में उसकी कोई उपयोगिता है या नहीं।

विधिवत ध्यानसाधना

शिक्षाओं के बारे में विचार करना बेशक बहुत उपयोगी होता है, और हो सकता है कि कुछ लोग इसे ही ध्यानसाधना कहते हों। लेकिन जिसे हम औपचारिक “ध्यानसाधना” कह सकते हैं वह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम इस अधिक लाभकारी चित्तावस्था को अपने स्वभाव, अपने सामान्य जीवन में समाहित करते हैं। इसे दो चरणों में किया जाता है:

  • सविवेक ध्यानसाधना – इस पहले चरण को अक्सर “विश्लेषणात्मक ध्यानसाधना” कहा जाता है जहाँ हम समुन्नत दृष्टिकोण की सहायता से सभी प्रकार की जानकारी और सहायक कारकों का विस्तारपूर्वक सविवेक भेद करते हुए अपने ध्यान को केंद्रित करते हैं।
  • स्थिरकारी ध्यानसाधना – दूसरा चरण वह होता है जहाँ हम सभी विवरणों के बीच सूक्ष्म भेद करने के बजाए केवल अपने विश्लेषण के निष्कर्ष को अपना दृष्टिकोण बनाकर अपने ध्यान को और अधिक सघन बनाकर अपने लक्ष्य पर केंद्रित करते हैं।

कई लोग ध्यानसाधना की शुरुआत करते समय अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करने का अभ्यास सीखते हैं। हम अपने चित्त को शांत करके अपने ध्यान को अंदर-बाहर आते-जाते हुए अपने श्वास पर केंद्रित करते हैं। यह बात सुनने में आसान लगती है लेकिन वास्तव में ऐसा करना बहुत कठिन होता है। अपने श्वास पर ध्यान को केंद्रित करने के पीछे हमारा उद्देश्य क्या होता है? सबसे पहले तो हम अपने दिमाग में चल रहे उस कोलाहल को समाप्त करने का प्रयास करते हैं जिसके कारण हमारे भीतर तमाम तरह के अशांतकारी मनोभाव और भावनाएं उत्पन्न होती हैं। यह स्थिर विद्युत के प्रभाव के कारण टेलीफोन या रेडियो जैसे किसी यंत्र में पृष्ठभूमि में सुनाई देने वाली खड़खड़ाहट की आवाज़ को बंद करने के जैसा होता है। लेकिन साथ ही साथ हमने श्वास पर ध्यानसाधना के बारे में जो सुन रखा है, जो चिंतन किया है और समझा है, उसकी सहायता से हम अपने श्वास पर ध्यान को केंद्रित कर सकते हैं। यहाँ से ही सविवेक ध्यानसाधना और स्थिरकारी ध्यानसाधना की भूमिका की शुरुआत होती है। उदाहरण के लिए, हम श्वास को नश्वरता के प्रतीक के रूप में मान सकते हैं: वह हर समय बदलता रहता है। या हम इस तथ्य के बारे में विचार कर सकते हैं कि श्वास से अलग कोई “मैं” नहीं है – आखिर श्वास ले कौन रहा है? लेकिन इस प्रकार का विश्लेषण नवसाधकों के लिए साधना को थोड़ा अधिक जटिल बना सकता है।

इसलिए यहाँ स्वयं अपने बारे में विचार करने से शुरुआत करना बेहतर होगा। हम लोग हमेशा बहुत अधिक दबाव में रहते हैं, काम के दबाव, परिवार और समाज का सामान्य दबाव बना रहता है – और इसलिए हमारा चित्त हमेशा चिंताओं और परेशान करने वाले विचारों के कारण व्यग्र रहता है। अपने आपको तनावमुक्त रखना बड़ा कठिन काम है! इसलिए, हमारे लिए यही उपयोगी रहेगा कि हम अधिक से अधिक तनावमुक्त रहें और अपने आपको स्थिर महसूस करें। हालाँकि इससे हमारी समस्याएं हल नहीं होने वाली हैं, लेकिन यह एक पहला सकारात्मक कदम है। अपने श्वास पर ध्यान को केंद्रित करके हम अपने शरीर की वास्तविकता के सम्पर्क में आते हैं – “मैं जीवित हूँ!” श्वास व्यक्ति के जीवित होने का एक अच्छा संकेत है, क्योंकि हमारा श्वास मृत्यु होने तक चलता रहता है। जीवन कितना ही कठिन क्यों न हो, श्वास हमेशा चलता रहता है। यदि हम इसके प्रति और अधिक सचेत हो जाएं तो हमें यह समझने में सुविधा होती है कि जीवन निरंतर चल रहा है; कि चाहे जो भी हो, जीवन चलता रहता है। यह बोध भी लाभकारी है, जैसा मेरे मित्र की मृत्यु हो जाने की स्थिति में हुआ, क्योंकि मैं यह समझ सका कि जो भी हो, जीवन चलता रहता है।

इस प्रकार हमें यह ज्ञान प्राप्त हो चुका है, हमने इसके बारे में चिंतन किया है और इसे समझा है, और हम इस बात के प्रति आश्वस्त हो चुके हैं कि यह ज्ञान सही है। यदि हम यह समझ सकें कि जीवन चलता रहता है, और यदि हम अपने शरीर से और अधिक जुड़े रहें और अपने भय और निराशा के विचारों में पूरी तरह न खोए रहें तो क्या ऐसा करना लाभकारी होगा? हाँ, यह लाभकारी होगा। क्या मैं अपने श्वास पर ध्यान को केंद्रित रखने और उसके प्रति सजग बने रहने की क्षमता रखता हूँ? हाँ, यदि हम एक-दो सेकंड के लिए अपनी दूसरी गतिविधि को बंद भी कर दें, तब भी हम अपने श्वास को अनुभव कर सकते हैं: वह तो हमेशा चलता रहता है। इस प्रकार हमें बहुत गहरे या गूढ़ बोध की आवश्यकता नहीं है। हाँ, यह बोध जितना गहन होगा उतना ही बेहतर होगा, लेकिन शुरुआत के लिए बस बोध का होना ही काफी है।

ध्यानसाधना की प्रक्रिया

हम श्वास पर ध्यान को केंद्रित करने के बोध को हासिल करने की स्थिति में तब पहुँचते हैं जब हम दो मानसिक कारकों से युक्त हो जाते हैं, ये ऐसी चित्तावस्थाएं होती हैं जो हमारे ध्यान के केंद्रित होने से जुड़ी होती हैं:

  • स्थूल पहचान – किसी चीज़ का स्थूल स्तर पहचानना
  • सूक्ष्म विवेक – किसी विषय को बड़े विस्तारपूर्वक समझना

पारम्परिक तौर पर इन दोनों मानसिक अवस्थाओं के बीच के फर्क को समझाने के लिए किसी चित्र को देखने की प्रक्रिया का उदाहरण दिया जाता है। स्थूल पहचान के स्तर पर हमें यही पता चलेगा कि यह एक चित्र है, सम्भवतः किसी व्यक्ति का चित्र है। इस बात को समझते समय चित्त इस बात को कहता हुआ भी महसूस नहीं होता है, उसे बस देखने भर से इस बात का बोध हो जाता है। बहुत सामान्य भाषा में हम इसे “समझ” कहेंगे। सूक्ष्म विवेक के स्तर पर हम चित्र को और अधिक विस्तार से देखेंगे और समझेंगे कि यह चित्र अमुक या अमुक व्यक्ति का है और इसकी अमुक विशेषताएं हैं।

श्वास पर ध्यान केंद्रित करते समय हम ऐसा ही करते हैं। हम श्वास के बारे में यह पहचान करते हैं और समझते हैं कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हर समय चलती रहती है, और उसके बारे में विस्तार से यह बोध हासिल करते हैं कि श्वास हमारी नासिका से अंदर-बाहर आता-जाता है। चाहे कुछ भी हो, जब तक मैं जीवित हूँ तब तक श्वास चलता रहेगा, और इस दृष्टि से श्वास स्थिर, सुरक्षित और विश्वसनीय है। इसीलिए इसे हम “सविवेक ध्यानसाधना” कहते हैं क्योंकि हमें इसका सक्रिय बोध होता है। हम उसका विश्लेषण तो नहीं कर रहे होते हैं, लेकिन हम उसे एक निश्चित दृष्टिकोण से देखते और समझते हैं।

स्थिरकारी ध्यानसाधना के दूसरे चरण में हमें इस तरह से सक्रियतापूर्वक विवेकभेद नहीं करना होता है, बस हमें स्वतः ही उसका बोध होता है। यह किसी बात को सायास जानने और स्वतः उसका बोध होने के बीच की एक अलग ही अवस्था होती है। हम ध्यानसाधना करते हैं और उसका परिणाम यह होता है कि हम और अधिक संतुलित होते हैं और अपने आपको अधिक स्थिर और सुरक्षित अनुभव करते हैं। यदि हम अभ्यास करें – बार-बार, और प्रतिदिन अभ्यास करें तो हम इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।

अपनी साधना को दैनिक जीवन के व्यवहार में लागू करना

खास तौर पर हम इस साधना को उस स्थिति में याद करते हैं जब हम बहुत अधिक परेशान होते हैं। हाँ, यह कठिन है, और इसके लिए पहले हमने शारीरिक व्यायाम का उदाहरण दिया था, लेकिन अन्ततोगत्वा यह बोध हमारे भीतर इस तरह समाहित हो जाता है कि हमें हर समय इसकी अनुभूति बनी रहती है। हमें यह बोध बना रहता है कि जीवन चलता रहता है, और एक बहुत गहन स्तर पर यह समझ कायम रहती है कि चाहे कुछ भी हो जाए, परेशान होने की कोई बात नहीं है। हमें इस बात का अहसास इतनी गहराई तक होता है कि यह एक ऐसी आदत बन जाती है जो जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को बदल देती है। यह ध्यानसाधना का ही सुपरिणाम है। यदि हम इसे भूल भी जाएं, तो एक बार फिर हम अपने श्वास पर ध्यान को केंद्रित करके नए सिरे से अपने आपको पुनः इसका स्मरण करा सकते हैं। हम इस दृष्टि से अपने चित्त की अवस्थाओं में वास्तविक बदलाव कर लेते हैं कि हम अपने दैनिक जीवन में किस प्रकार व्यवहार करते हैं। यह अपनी समस्याओं से बचकर किसी कल्पना लोक में चले जाने का पलायन नहीं है, बल्कि यह एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसका उपयोग हम अपनी मानसिक और भावनात्मक अवस्थाओं को बेहतर बनाने, और अन्ततः हमारे जीवन में आने वाली स्थितियों को सुधारने के लिए करते हैं।

हमने अभी जिस साधना के बारे में चर्चा की है उसे एक उन्नत मनोवैज्ञानिक विधि के रूप में भी देखा जा सकता है। इसे मनोविज्ञान की दृष्टि से देखने में तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन सावधानी बरतनी चाहिए कि हम यह न समझने लगें कि यही बौद्ध धर्म है – वह मनोविज्ञान का ही एक स्वरूप मात्र है। बौद्ध धर्म इससे बढ़कर कहीं बहुत कुछ और भी है। बौद्ध धर्म में हमारा लक्ष्य इससे कहीं बहुत आगे का होता है – ज्ञानोदय प्राप्ति, दूसरों की भलाई करना – लेकिन लक्ष्य तक पहुँचने से पहले हमें इस बहुत ही महत्वपूर्ण चरण से होकर गुज़रना होगा।

सारांश

अपनी समस्याओं से पलायन करना बहुत आसान है, उसके लिए दिन भर संगीत सुनते रहने या अपने आपको हर समय लगातार व्यस्त रखने से लेकर नशे में डूब जाने या सब कुछ भुला देने के लिए शराब पीने जैसे कई तरीके उपलब्ध हैं। लेकिन इन अस्थायी उपायों से बहुत ज़्यादा राहत नहीं मिलती है, और हमारी समस्या बार-बार हमारे सामने प्रकट होती रहती है। धर्म के बारे में सच्चे अर्थ में विचार करके और फिर उसकी ध्यानसाधना करके हम स्वयं अपने बारे में, दूसरों के बारे में, और हमें होने वाले अनुभवों के बारे में अपने दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल सकते हैं। यह ठीक है कि इससे हमारी समस्याएं तुरन्त ओझल नहीं होने वाली हैं, लेकिन हमें इस बोध के साथ समस्याओं का मुकाबला करने योग्य बन पाते हैं कि हममें अपनी समस्याओं का सामना करने की सामर्थ्य मौजूद है।

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