ऐतिहासिक बुद्ध
अधिकांश पारंपरिक जीवनियों के अनुसार, जो व्यक्ति बाद में बुद्ध बने, उनका जन्म 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में उत्तरी भारत के कुलीन शाक्य वंश में हुआ था। उन्हें सिद्धार्थ गौतम नाम दिया गया, और उनके जन्म के उत्सव में, असित नामक एक बुद्धिमान योगी ने घोषणा की कि यह शिशु या तो एक महान राजा बनेगा या एक महान धार्मिक शिक्षक। सिद्धार्थ के पिता, शुद्धोधन, शाक्य वंश के प्रमुख थे और, अपने बालक पुत्र को अपने पदचिह्नों पर चलाने की उत्कट इच्छा से प्रेरित होकर, उन्होंने उसे हर उस वस्तु या विषय से बचाने का निर्णय किया जिनके प्रभाव-स्वरुप वह एक महान राजा बनने के मार्ग से विचलित हो सकता था।
युवा सिद्धार्थ को राजमहल में अलग-थलग रखा गया और विलास के हर संभव साधन दिए गए: अमूल्य रत्न व आभूषण और सुंदर युवतियाँ, कमल-कुंड, और आह्लादकारी प्राणीशाला। उन्हें हर प्रकार के दुःख या दुर्भाग्य से सुरक्षित रखा गया, क्योंकि रोगग्रस्त तथा वयोवृद्ध लोगों का राजप्रासाद में प्रवेश वर्जित था। समय के साथ, सिद्धार्थ शिक्षण और खेल में उत्कृष्टता प्राप्त की, और यशोधरा से उनका विवाह संपन्न हुआ, जिनसे उन्हें एक पुत्र, राहुल हुआ।
लगभग 30 वर्षों तक, एक बढ़ती जिज्ञासा के साथ, कि राजप्रासाद के बाहर क्या हो सकता है, सिद्धार्थ ने विलासमय जीवन बिताया। उन्होंने सोचा, “यदि यह भूसम्पत्ति मेरी होनी ही है तो निस्संदेह मुझे उसे और अपने लोगों को देखना चाहिए।" अंततः शुद्धोधन ने अपने पुत्र को राजप्रासाद से बाहर भ्रमण पर ले जाने की व्यवस्था की। सड़कों को साफ़ किया गया, रोगग्रस्त एवं बूढ़े लोगों को छिपाया गया, और उनके सारथी, चन्ना ने सिद्धार्थ को सड़कों पर रथ में घुमाया, जहाँ स्थानीय लोगों ने उन्हें देखकर हाथ हिलाए और वे मुस्कराए। परन्तु, फिर भी, सिद्धार्थ ने भीड़ में सड़क के किनारे एक झुके हुए व्यक्ति को देख लिया जिसके शरीर पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। विस्मित एवं स्तंभित होकर उन्होंने चन्ना से पूछा कि इस हतभाग्य को क्या हुआ है। चन्ना ने उत्तर दिया, "जिसे आप अपने सामने देख रहे हैं वह एक बूढ़ा व्यक्ति है, जो अंततः हम सबकी नियति है।" इसके अतिरिक्त, सिद्धार्थ ने एक रोगग्रस्त व्यक्ति और एक शव को भी देखा, जिन दृश्यों ने जीवन की दो ऐसी अपरिहार्य – यद्यपि पूर्णतः सामान्य - अवस्थाओं की ओर उनकी आँखें खोल दीं, जो अंततः उनके साथ भी घटित होने वाली थीं।
अंत में, उनकी भेंट एक संन्यासी से हुई, जो दुख से मुक्ति की खोज में था। पहले तीन दृश्यों से सिद्धार्थ को यह बोध हुआ कि राजप्रासाद में उनसे सभी दुःखों से छिपाकर उनके जावन के साथ छल हुआ है। जब उन्होंने संन्यासी को देखा तो दुःख से बाहर निकलने की संभावना के प्रति वे जागरूक हो गए।
संभवतः ऐसा नहीं हुआ होगा कि सिद्धार्थ ने इससे पहले कभी भी बूढ़े या रोगग्रस्त लोगों को देखा न हो, परन्तु यह प्रतीकात्मक रूप से दिखाता है कि कैसे वे – और वास्तव में हम सभी – साधारणतः दुःखों की उपेक्षा करते हुए अपने जीवन जीते हैं। राजमहल लौटने के बाद सिद्धार्थ बहुत बेचैन रहे। वे अपने प्रियजनों से घिरा हुआ आराम का जीवन व्यतीत कर रहे थे, परन्तु अब वे इसका आनंद कैसे ले सकते थे या इस ज्ञान के साथ कैसे आराम कर सकते थे कि एक दिन वे और अन्य सभी लोग बूढ़े और रोगग्रस्त हो जाएँगे, और अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाएँगे? सबके लिए इस जंजाल से बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ने के दृढ़ संकल्प से एक रात वे एक यायावर तपस्वी का जीवन व्यतीत करने हेतु अपने राजमहल से पलायन कर गए।
सिद्धार्थ कई महान शिक्षकों से मिले, और यद्यपि उनके मार्गदर्शन में उन्होंने ध्यान-साधना के माध्यम से अत्यंत उच्च स्तर की एकाग्रता प्राप्त की, फिर भी वे असंतुष्ट थे क्योंकि इन ध्यान साधना की अवस्थाओं से दुःख का अंत नहीं हुआ। उन्होंने तप किया, और अपने शरीर को भोजन और सभी भौतिक सुखों से वंचित करते हुए, अपना अधिकांश समय ध्यान-साधना के अभ्यास में बिताया। छः वर्षों तक इन अभ्यासों में लगे रहने से उनका शरीर इतना दुबला हो गया कि वे त्वचा की सबसे पतली परत में ढके एक कंकाल जैसे हो गए।
एक दिन, नदी के किनारे बैठे हुए उन्होंने एक शिक्षक को एक छोटे बालक को वाद्ययंत्र बजाने का निर्देश देते हुए सुना: “तार बहुत ढीले नहीं होने चाहिए, अन्यथा आप वाद्ययंत्र नहीं बजा सकते। इसी तरह, वे बहुत अधिक कसे हुए भी नहीं होने चाहिए, नहीं तो वे टूट जाएँगे।" तब सिद्धार्थ को यह बोध हुआ कि उनकी वर्षों की तपस्या किसी काम की नहीं थी। महल में उनके विलासमय जीवन की भाँति, तप भी एक अतिवाद था जो दुःख को दूर नहीं कर सकता था। उन्होंने सोचा कि इन दोनों अतिवादों के बीच ही समाधान का वास्तविक मार्ग होना चाहिए।
उसी समय, सुजाता नाम की एक कन्या वहाँ आई और उसने सिद्धार्थ को थोड़ी-सी खीर दी, जो छः वर्षों में उनका पहला सम्पूर्ण भोजन था। अपने साथी तपस्वियों को अचंभित करते हुए उन्होंने उस खीर का उपभोग किया और एक अंजीर के पेड़ के नीचे विश्राम करने चले गए। उन्होंने तत्काल निश्चय किया, "मैं इस आसन से तब तक नहीं उठूँगा जब तक मैं पूर्ण उद्बुद्ध नहीं हो जाता।" इस वृक्ष के नीचे, जो आज बोधिवृक्ष के नाम से जाना जाता है, सिद्धार्थ ने पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया और वे ज्ञानोदय-प्राप्त बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हो गए ।
अपने ज्ञानोदय के तुरंत बाद बुद्ध ने चार आर्य सत्यों और अष्टांग मार्ग पर शिक्षा दी। अगले 40 वर्षों तक उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया था उसकी शिक्षा सबको प्रदान करते हुए उत्तर भारतीय मैदानों की यात्रा की। उन्होंने एक मठीय समुदाय की स्थापना की, जिसे संघ कहा गया, जो पूरे भारत में और अंततः पूरे एशिया और सारे विश्व में बुद्ध की शिक्षाओं के प्रचार का कार्य करेगा।
बुद्ध का देहांत 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में हुआ। इससे पहले उन्होंने संघ से पूछा कि क्या उनकी कोई शंकाएँ हैं या उनकी शिक्षाओं में कुछ ऐसा विषय है जिस पर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। अपने अनुयायियों को धर्म और नैतिक आत्मानुशीलन पर विश्वास करने का परामर्श देते हुए उन्होंने अपने अंतिम शब्द कहे: "देखो, भिक्षुओं, यह आपके लिए मेरा अंतिम परामर्श है। विश्व के सभी घटक परिवर्तनशील हैं। वे स्थायी नहीं हैं। अपने उद्धार के लिए कठिन परिश्रम करो।" इतना कहकर वे दाहिनी करवट लेट गए और उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
बुद्ध क्या हैं?
हमने यह देखा कि ऐतिहासिक बुद्ध कौन थे, परन्तु वास्तव में बुद्ध होने का क्या अर्थ है?
सरल भाषा में, बुद्ध वह है जो जाग्रत हो गया है। बुद्ध गहरी नींद से जागे हुए लोग हैं। यह उस प्रकार की गहरी नींद नहीं है जिसमें हम पूरी रात पार्टी करने के बाद सोते हैं, परन्तु यह उस भ्रम की गहरी नींद है जो हमारे जीवन के हर क्षण में व्याप्त है; हमारा भ्रम कि हम किस प्रकार अस्तित्वमान हैं, और, वस्तुतः सबकुछ किस प्रकार विद्यमान है।
बुद्ध देवता नहीं हैं, और न ही वे स्रष्टा हैं। सभी बुद्ध अपनी-अपनी यात्रा हमारी तरह ही प्रारम्भ करते हैं, भ्रम, अशांतकारी मनोभावों, और ढेर सारी समस्याओं से भरे हुए। परन्तु, करुणा और ज्ञान के मार्ग पर शनैः शनैः चलकर, तथा इन दो सकारात्मक गुणों को विकसित करने के लिए कठिन परिश्रम के द्वारा, आत्म-ज्ञानोदय प्राप्त करना संभव है।
बुद्ध के तीन मुख्य गुण होते हैं:
- विवेक - बुद्ध को कोई मानसिक अवरोध नहीं होता, इसलिए वे हर विषय को पूर्ण रूप से और सटीक ढंग से समझते हैं, विशेषकर यह कि दूसरों की सहायता किस प्रकार करनी चाहिए।
- करुणा - उपरोक्त विवेक के कारण, यह देखकर कि हम सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, बुद्धों में अथाह करुणा होती है और वे जानते हैं कि वे सभी जीवों की सहायता करने में सक्षम हैं। करुणा रहित विवेक व्यक्ति को ज्ञानाभिमानी बना सकता है, परन्तु वह समाज के लिए विशेष रूप से उपयोगी नहीं होता। एक करुणा ही है जो उन्हें सभी के लाभ हेतु काम करने के लिए प्रेरित करती है। इसलिए बुद्ध हम सभी के साथ संबंध बनाने के इस दूसरे गुण को प्रजनित करते हैं।
- योग्यताएँ - दुख को दूर करने और दूसरों की सहायता करने की तीव्र इच्छा के युगल गुणों के साथ, बुद्धों के पास भिन्न-भिन्न प्रकार के दक्ष मार्गों से ज्ञानोदय के मार्ग को सिखाकर, वास्तव में दूसरों को पूर्ण रूप से लाभान्वित करने की वास्तविक शक्ति और क्षमता होती है।
बुद्ध समझते हैं कि जिस प्रकार वे दुःख भोगना नहीं चाहते, उसी प्रकार अन्य लोग भी समस्याएँ नहीं चाहते। हर कोई सुखी रहना चाहता है। इसलिए, बुद्ध न केवल अपने लिए, अपितु ब्रह्मांड के प्रत्येक जीव के लिए कार्य करते हैं। वे दूसरों की उतनी ही चिंता करते हैं जितनी स्वयं की।
अपनी अविश्वसनीय परम करुणा से द्रवित, वे सभी दुःखों को समाप्त करने का समाधान सिखाते हैं, जिसे विवेक कहा जाता है - यथार्थ और कल्पना के बीच सटीक भेदभाव करने वाला निर्मल चित्त । इस विवेक के साथ हम अंततः सभी नकारात्मक भावनाओं से मुक्त हो सकते हैं: सभी भ्रम, स्वार्थ, तथा नकारात्मक भावनाएँ। हम भी दक्ष बुद्ध बन सकते हैं, और पूर्ण आंतरिक शांति का अनुभव कर सकते हैं।
सारांश
बुद्ध दक्ष शिक्षक हैं जो कुशल ढंग से हमारी सहायता करना जानते हैं। वे कृपालु हैं और हमें सदा सही मार्ग पर आगे चलाकर हमारी सहायता करने के लिए तैयार और इच्छुक रहते हैं।
सिद्धार्थ की तरह हम भी प्रायः संसार के दुःखों के प्रति अचेतन रहते हैं। परन्तु, हम चाहे जितना भी बचने या उपेक्षा करने का प्रयास कर लें, वृद्धावस्था, रोग, और मृत्यु हम सभी की अनिवार्य नियति है। बुद्ध की जीवन गाथा हमें यह देखने-समझने के लिए प्रेरित करती है कि उनकी तरह दुःख की वास्तविकताओं का सामना करने और उन्हें समझने से हम भी अपने जीवन में जिन हताशाओं का अनुभव कर रहे हैं, उनसे स्वयं को मुक्त करने में सक्षम हो पाएँगे। उनका जीवन और उनकी शिक्षाएँ हमें यह याद दिलाती हैं कि हमें अपने विनाशकारी मनोभावों और भ्रम को दूर करने के लिए भरसक प्रयास करना चाहिए ताकि, उन्हीं की तरह, हम भी स्वयं सभी जीवों के लाभ हेतु काम कर सकें।