किसी आध्यात्मिक गुरु से शिक्षा ग्रहण करना

आध्यात्मिक शिष्यों और आध्यात्मिक गुरुओं की योग्यता के कई स्तर होते हैं। भ्रम की स्थिति तब उत्पन्न हो जाती है जब सम्भावित शिष्य यह मान लेते हैं कि वे और/ या उनके गुरु अपनी वास्तविक योग्यता से अधिक योग्य हैं, या जब वे शिक्षक को किसी चिकित्सक की भूमिका में देखने लगते हैं। यदि हम ईमानदारीपूर्वक आत्मनिरीक्षण करके अपने स्तर को स्पष्ट तौर पर समझ लें तो हम एक लाभप्रद गुरु-शिष्य सम्बंध विकसित कर सकते हैं।

गुरु-शिष्य सम्बंध के बारे में कुछ अनुभव पर आधारित तथ्य

गुरु-शिष्य सम्बंध के बारे में किसी प्रकार के भ्रम की स्थिति से बचने के लिए हमें कुछ आनुभविक तथ्यों को स्वीकार करना होगा:

  1. अध्यात्म के मार्ग पर लगभग सभी आध्यात्मिक साधकों की प्रगति चरणबद्ध होती है।
  2. अधिकांश साधक अपने जीवनकाल में अनेक शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण करते हैं और उनमें से प्रत्येक के साथ अलग-अलग स्तर के सम्बंध विकसित करते हैं।
  3. ऐसा नहीं होता है कि सभी आध्यात्मिक गुरुओं को समान स्तर की सिद्धियाँ प्राप्त हों।
  4. किसी साधक शिष्य और उसके किसी गुरु विशेष के बीच का उपयुक्त सम्बंध उन दोनों के अपने-अपने आध्यात्मिक स्तर पर निर्भर करता है।
  5. सामान्यतः लोग जैसे-जैसे अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ते जाते हैं, वे अपने गुरुओं को और अधिक गहराई से समझते जाते हैं।
  6. चूँकि प्रत्येक साधक के आध्यात्मिक जीवन में एक ही शिक्षक अलग-अलग भूमिकाएं निभा सकता है, इसलिए उस शिक्षक के साथ प्रत्येक साधक का सर्वाधिक उपयुक्त सम्बंध दूसरों से अलग हो सकता है।

आध्यात्मिक गुरुओं और आध्यात्मिक साधकों के स्तर

आध्यात्मिक गुरुओं और आध्यात्मिक साधकों के अनेक स्तर होते हैं। ऐसे गुरुओं में शामिल  होते हैं:

  • किसी विश्वविद्यालय की भांति सूचना और जानकारी देने के लिए बौद्ध धर्म के प्रोफेसर,
  • धर्म को जीवन में लागू करना सिखाने वाले धर्म शिक्षक,
  • ताइ-ची या योग के समान विधियाँ सिखाने वाले ध्यानसाधना प्रशिक्षक
  • शिष्यों को दिए जाने वाले संवरों: गृहस्थ या भिक्षु संवर, बोधिसत्व संवर, या तांत्रिक संवर, के आधार पर विभेदीकृत आध्यात्मिक गुरु।

उसी प्रकार शिष्यों में निम्नलिखित प्रकार के शिष्य शामिल होते हैं:

  • जानकारी हासिल करने के लिए इच्छुक बौद्ध धर्म के छात्र,
  • धर्म को जीवन में लागू करना सीखने के इच्छुक धर्म के छात्र,
  • चित्त को शांत करना या चित्त साधना सीखने के इच्छुक ध्यान साधना के प्रशिक्षु,
  • अपने भविष्य के जन्मों को सुधारने, मुक्ति प्राप्त करने, या ज्ञानोदय प्राप्त करने के इच्छुक और इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सहायक कुछ स्तरों के संवर लेने के लिए प्रवृत्त शिष्य। यदि ये शिष्य इस जीवन को भी सुधारने के इच्छुक हों, तो वे इसे मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति के मार्ग के प्रारम्भिक प्रयास के रूप में देखते हैं।

प्रत्येक स्तर की अपनी अर्हताएं होती हैं, और एक आध्यात्मिक साधक के रूप में हमें स्वयं अपनी और अपने गुरु की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना चाहिए -  वह एशियाई है या पश्चिम जगत से है, भिक्षु-भिक्षुणी है या गृहस्थ, उसकी शिक्षा, भावनात्मक और नैतिक परिपक्वता, प्रतिबद्धता का स्तर क्या है। इसलिए यह आवश्यक होता है कि इस दिशा में धीरे-धीरे और सावधानी से आगे बढ़ा जाए।

किसी सम्भावित शिष्य और किसी सम्भावित गुरु की अर्हताएं

एक सम्भावित शिष्य के रूप में हमें स्वयं अपने विकास के स्तर को जाँच लेना चाहिए ताकि हम स्वयं को किसी ऐसे सम्बंध के लिए प्रतिबद्ध न कर लें जिसके लिए हम तैयार ही न हों। किसी शिष्य के मुख्य गुण इस प्रकार हैं:

  1. अपनी पूर्वधारणाओं और विचारों से अनुबद्ध हुए बिना उदारचित्त होना,
  2. उचित और अनुचित के बीच भेद कर पाने का सामान्य बोध,
  3. धर्म और सुयोग्य शिक्षकों की खोज करने में गहरी रुचि,
  4. धर्म और सुयोग्य शिक्षकों के प्रति आभार और सम्मान का भाव,
  5. सतर्क बुद्धि
  6. मूलभूत स्तर की भावनात्मक परिपक्वता और स्थिरता,
  7. आधारभूत स्तर के नैतिक दायित्व का भाव।

शिक्षक के स्तर के आधार पर उसमें अधिक से अधिक योग्यताएं होनी चाहिए। सामान्यतया प्रमुख योग्यताएं निम्नानुसार हैं:

  1. अपने आध्यात्मिक गुरुजन के साथ गुणकारी सम्बंध,
  2. धर्म के विषयों का अपने शिष्य से अधिक ज्ञान,
  3. धर्म की विधियों को ध्यानसाधना में और दैनिक जीवन में प्रयोग में लाने का अनुभव और उस दृष्टि से एक निश्चित स्तर की सफलता,
  4. धर्म की शिक्षाओं को प्रयोग में लाने के लाभकारी परिणामों का प्रेरणादायी उदाहरण प्रस्तुत करने की क्षमता। इसका मतलब है कि उसमें ये योग्यताएं हों:
  5. नैतिक आत्मानुशासन,
  6. तुच्छ भावनात्मक समस्याओं से मुक्त रहते हुए भावनात्मक परिपक्वता और स्थिरता,
  7. शिक्षा प्रदान करने की प्रमुख प्रेरणा के रूप में छात्रों की भलाई की ईमानदारी से चिंता करना,
  8. शिक्षण के समय धैर्य,
  9. दिखावे से रहित (जो गुण न हों उनका झूठा प्रदर्शन न करना) और पाखंड रहित (ज्ञान या अनुभव के अभाव जैसे अपने दोषों को न छिपाना)।

हमें अपनी साधना को यथार्थ स्थिति के अनुसार ढालना होगा – हमारे शहर में उपलब्ध शिक्षकों की योग्यता का स्तर क्या है, हम कितना समय दे सकते हैं और हमारी प्रतिबद्धता कितनी है, हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य क्या हैं (व्यावहारिक दृष्टि से, सिर्फ “सभी सत्वों की भलाई करने” की आदर्श स्थिति की दृष्टि से नहीं) आदि। यदि हम अपने आपको किसी आध्यात्मिक सम्बंध में बांधने से पहले सम्भावित गुरु की योग्यताओं की जाँच कर लें तो हम अपने शिक्षक को देवता या शैतान का दर्जा देने की दोनों चरम स्थितियों से बच सकते हैं। जब हम अपने आध्यात्मिक गुरु को देवता बना देते हैं, तो हमारे अज्ञान के कारण हमारे साथ दुर्व्यवहार की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है। यदि हम उसे शैतान बना देते हैं तो हमारे मिथ्याभ्रम के कारण हमें शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता है।

वीडियो: जेट्सुन्मा तेंज़िन पाल्मो — शिक्षक की खोज कैसे करें
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किसी आध्यात्मिक गुरु का शिष्य बनने और किसी चिकित्सक का ग्राहक बनने के बीच अन्तर

आध्यात्मिक गुरु-शिष्य सम्बंध में भ्रम उत्पन्न होने का एक प्रमुख कारण आध्यात्मिक गुरु को किसी चिकित्सक के रूप मे देखना होता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि कोई व्यक्ति अपने बाकी जीवन में भावनात्मक सुख और अच्छे सम्बंधों की कामना रखता है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए किसी आध्यात्मिक गुरु का शिष्य बनना कई प्रकार से इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किसी चिकित्सक के ग्राहक बनने जैसा होता है।

बौद्ध धर्म और चिकित्सा विधान:

  1. दोनों की उत्पत्ति हमारे जीवन में दुख के तथ्य को स्वीकार करने और उसे शांत करने की इच्छा से होती है।
  2. दोनों में ही हमारी समस्याओं और उनके कारणों को स्वीकार करने और उन्हें समझने के लिए किसी के साथ मिलकर काम करने की बात होती है। दरअसल अनेक प्रकार की चिकित्साओं में बौद्ध धर्म की ही तरह यह माना जाता है कि बोध ही आत्मरूपान्तरण की कुंजी है।
  3. दोनों ऐसे दर्शनों को अंगीकार करते हैं जो हमारी समस्याओं के कारणों को गहनता से समझने पर बल देते हैं, इन कारणों को नियंत्रित करने की व्यावहारिक विधियों पर ज़ोर देने वाली परम्पराओं, और ऐसी पद्धतियों को अंगीकार करते हैं जो इन दोनों दृष्टिकोणों के संतुलित मिश्रण के प्रयोग की वकालत करती हैं।
  4. दोनों ही आत्मविकास की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण भाग के रूप में गुरु या चिकित्सक के साथ एक गुणकारी भावनात्मक सम्बंध स्थापित करने की वकालत करते हैं।
  5. हालाँकि अधिकांश पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियाँ ग्राहकों के व्यवहार और उनकी विचार पद्धति को बदलने के लिए नैतिक दिशानिर्देशों के प्रयोग से कतराती हैं, किन्तु कुछ उत्तर-शास्त्रीय पद्धतियों में बौद्ध धर्म में प्रयोग किए जाने वाले नैतिक सिद्धांतों से मिलते-जुलते सिद्धांतों के प्रयोग की वकालत की जाती है। इन सिद्धांतों में किसी बिखरे हुए परिवार के सभी सदस्यों के साथ एक समान अच्छा व्यवहार करने और क्रोध जैसे अपने विनाशकारी आवेगों को क्रियान्वित करने से बचने के सिद्धांत शामिल हैं।

समानताओं के बावजूद किसी बौद्ध गुरु के शिष्य बनने और किसी चिकित्सक का ग्राहक बनने के बीच बड़े प्रमुख अन्तर भी होते हैं:

(1) वह भावनात्मक स्तर जहाँ व्यक्ति सम्बंध स्थापित करता है। सम्भावित ग्राहक सामान्यतया भावनात्मक दृष्टि से अशांत होने की स्थिति में ही किसी चिकित्सक के पास जाते हैं। इनमें ऐसे मनोरोगी भी हो सकते हैं जिनके उपचार के लिए दवाओं के प्रयोग की भी आवश्यकता होती है। वहीं इसके विपरीत सम्भावित शिष्य आध्यात्मिक मार्ग पर अपने पहले कदम के रूप में किसी गुरु के सम्पर्क में नहीं आते हैं। ऐसा करने से पहले वे बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन कर चुके होते हैं और आत्मसुधार के लिए प्रयास प्रारम्भ कर चुके होते हैं। परिणामतः वे पर्याप्त भावनात्मक परिपक्वता और स्थिरता हासिल कर चुके होते हैं ताकि उनके बीच स्थापित होने वाला गुरु-शिष्य सम्बंध बौद्ध दृष्टि से सकारात्मक बन सके। यानी, बौद्ध शिष्यों को पहले से ही मनोरोगी वृत्ति और व्यवहार से अपेक्षाकृत मुक्त होना चाहिए।

(2) सम्बंध में पारस्परिक प्रभाव की अपेक्षा। सम्भावित ग्राहक रोगी अधिकांशतः इस बात में रुचि रखते हैं कि कोई उनकी बात को सुने। इसलिए, समूह में चिकित्सा के संदर्भ में भी उनकी अपेक्षा होती है कि चिकित्सक उनकी निजी समस्याओं पर ही एकाग्रता से ध्यान देगा। वहीं दूसरी ओर, शिष्य सामान्यतया अपने गुरुओं के साथ अपनी निजी समस्याओं की चर्चा नहीं करते हैं, और अलग से अपने ऊपर ध्यान दिए जाने की न तो अपेक्षा रखते हैं और न ही उसकी मांग करते हैं। यदि वे गुरु से निजी विषयों पर सलाह लेने के लिए चर्चा भी करते हैं, तो वे ऐसा नियमित तौर पर नहीं करते हैं। इस सम्बंध में शिक्षाओं के बारे में सुनने पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है। बौद्ध शिष्य अपने गुरुओं से मूलतः उन्हीं विधियों के बारे में सीखते हैं जो सभी के सामने समान रूप से पेश आने वाली समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक होती हैं। उसके बाद वे अपने ऊपर यह जिम्मेदारी लेते हैं कि वे उन विशिष्ट स्थितियों में उन विधियों का प्रयोग करें।

(3) व्यवहार्य सम्बंध से अपेक्षित परिणाम। चिकित्सा का उद्देश्य अपने जीवन की समस्याओं को स्वीकार करना और उनके साथ जीने का ढंग सीखना होता है, या उन्हें कम करके सहन करने योग्य बनाना होता है। यदि हम इस जीवनकाल में अपने भावनात्मक स्वास्थ्य को सुधारने के उद्देश्य से किसी बौद्ध आध्यात्मिक गुरु के पास जाते हैं, तो हम भी यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारी समस्याएं कम हो जाएं। जीवन की कठिनाइयों के बावजूद – बुद्ध ने जीवन के सबसे पहले यथार्थ (आर्य सत्य) के रूप में यह सिखाया था कि हम जीवन की कठिनाइयों को कम कर सकते हैं।

किन्तु, भावनात्मक स्तर पर अपने जीवन की कठिनाइयों को कम करना पारम्परिक बौद्ध मार्ग तक पहुँचने की दिशा में केवल एक प्रारम्भिक कदम है। इससे आध्यात्मिक गुरुओं के शिष्य कम से कम बेहतर पुनर्जन्म, मुक्ति और ज्ञानोदय प्राप्ति के और अधिक पड़े लक्ष्यों की ओर प्रवृत्त तो होते हैं। इसके अलावा, बौद्ध शिष्यों को बौद्ध धर्म में बताए गए अनुसार पुनर्जन्म के बारे में बौद्धिक समझ होती है और वे पुनर्जन्म के अस्तित्व को कम से कम अस्थायी तौर पर स्वीकार तो करते हैं। चिकित्सक के ग्राहकों को पुनर्जन्म या अपनी तात्कालिक स्थिति को सुधारने से आगे के लक्ष्यों के बारे में विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

(4) आत्मरूपांतरण के लिए प्रतिबद्धता का स्तर। चिकित्सकों के ग्राहक घंटों के हिसाब से चिकित्सक के शुल्क का भुगतान करते हैं, किन्तु वे आजीवन अपने दृष्टिकोण और व्यवहार को बदलने के लिए प्रतिबद्ध नहीं होते हैं। वहीं दूसरी ओर हो सकता है कि बौद्ध शिष्य शिक्षाओं को पाने के लिए भुगतान करते हों या न भी करते हों; किन्तु फिर भी वे विधिवत अपने जीवन की दिशा को बदलते हैं। सुरक्षित दिशा को अपनाकर (शरणागति लेकर) शिष्य आत्मविकास के उस मार्ग पर चलने की प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं जिस पर पूरी तरह चलकर बुद्धजनों ने उसकी शिक्षा दी है, और उच्च सिद्धि प्राप्त आध्यात्मिक जन का समुदाय जिस पर चलने के लिए प्रयासरत रहता है।

इसके अलावा, बौद्ध शिष्य जीवन में मन, वचन और कर्म से नैतिक, सकारात्मक मार्ग पर चलने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। जहाँ तक सम्भव हो सके, वे विनाशकारी व्यवहार से दूर रहने और उसके स्थान पर सकारात्मक व्यवहार को अपनाने का प्रयास करते हैं। जब ये शिष्य अनियंत्रित ढंग से बार-बार घटित होने वाले पुनर्जन्म की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए सचमुच प्रवृत्त हो जाते हैं तो वे विधिवत गृहस्थ या भिक्षु संवर धारण करके और भी गहरी प्रतिबद्धता धारण करते हैं। आत्मविकास के इस चरण में शिष्य प्रतिज्ञा लेते हैं कि वे आजीवन ऐसे आचरणों से दूर रहेंगे जो स्वाभावित तौर पर विनाशकारी हैं या जिनके बारे में बुद्ध ने देशना की कि कुछ लोग विशिष्ट कारणों से उनसे दूर रहें। बुद्ध द्वारा निर्दिष्ट किए गए ऐसे आचरणों का एक उदाहरण यह है कि मठवासी आसक्ति को कम करने के लिए अपनी गृहस्थ वेषभूषा को त्याग कर चीवर धारण करें। शिष्य पूर्ण मुक्ति की कामना विकसित करने से भी पहले अक्सर गृहस्थ या भिक्षु संवर धारण करते हैं।

वहीं दूसरी ओर चिकित्सकों के ग्राहक अपने उपचार अनुबंध के भाग के रूप में पचास मिनट की नियत भेंट जैसे कुछ प्रक्रिया सम्बंधी नियमों के पालन की सहमति देते हैं। किन्तु ये नियम केवल उपचार की अवधि के दौरान ही लागू होते हैं। ये नियम चिकित्सा व्यवस्था के बाहर की स्थितियों में लागू नहीं होते, इनके लिए स्वाभाविक रूप से विनाशकारी व्यवहार से परहेज़ करने की शर्त लागू नहीं होती, और ये आजीवन लागू नहीं होते हैं।

(5) शिक्षक या चिकित्सक के प्रति दृष्टिकोण। शिष्यों की दृष्टि में उनके आध्यात्मिक गुरु उन लक्ष्यों की प्राप्ति के जीते जागते उदाहरण होते हैं जिन्हें वे स्वयं हासिल करने के लिए प्रयासरत होते हैं। वे गुरुओं के सद्गुणों की सही परख के कारण उनके प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं और ज्ञानोदय प्राप्ति के अपने क्रमिक मार्ग पर पूरे समय तक इस दृष्टिकोण को बनाए रखते हैं और उसे सुदृढ़ करते हैं। इसके विपरीत, हो सकता है कि ग्राहक चिकित्सक को भावनात्मक स्वास्थ्य के आदर्श के रूप में देखते हों, किन्तु उनके लिए यह आवश्यक नहीं होता है कि उन्हें चिकित्सक के सद्गुणों का सही बोध हो। इस सम्बंध का उद्देश्य चिकित्सक के जैसा बनना नहीं होता है। उपचार की अवधि के दौरान चिकित्सक अपने ग्राहकों को आदर्शों की कल्पनाओं से परे ले जाते हैं।

वीडियो: डा. अलेक्ज़ेंडर बर्ज़िन — बौद्ध धर्म बनाम चिकित्सा
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“शिष्य” शब्द का अनुचित प्रयोग

कभी-कभी लोग अपने आपको आध्यात्मिक गुरुओं या उपदेशकों का शिष्य बताते हैं जबकि वास्तविकता यह होती है कि वे स्वयं, उनका शिक्षक या वे दोनों ही इन शब्दों के सही अर्थ की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। अपने अज्ञान के कारण वे अक्सर अव्यावहारिक अपेक्षाएं कर लेते हैं, भ्रम, आहत भावनाओं और यहाँ तक कि दुर्व्यवहार के भी शिकार हो जाते हैं। इस संदर्भ में दुर्व्यवहार से आशय यौन शोषण, भावनात्मक या वित्तीय शोषण से है या शक्ति प्रदर्शन के लिए किसी के द्वारा नियंत्रित किए जाने से है। अब हम पश्चिम जगत में पाए जाने जाने वाले तीन प्रकार के छद्म-शिष्यों के बारे में चर्चा करेंगे जो आध्यात्मिक शिक्षकों के साथ सम्बंध को लेकर समस्याग्रस्त हो सकते हैं:

(1) कुछ लोग अपनी कल्पनाओं की तृप्ति के लिए धर्म केंद्रों में आते हैं। उन्होंने कहीं “रहस्यमय पूर्व” के बारे में या सुपरस्टार गुरुओं के बारे में पढ़ या सुन रखा होता है और वे एक अनोखे विदेशी या आध्यात्मिक अनुभव की सहायता से अपने नीरस लगने वाले जीवन को रोमांचक बनाना चाहते हैं। वे किसी आध्यात्मिक गुरु से मिलते हैं और तुरन्त ही अपने आपको उस गुरु का शिष्य घोषित कर देते हैं, खास तौर पर तब जब वह शिक्षक एशियाई हों और चीवरधारी हो, या दोनों ही शर्तों को पूरा करते हों। एशियाई उपाधियाँ या नाम धारण करने वाले पाश्चात्य शिक्षकों के साथ भी वे ऐसा ही व्यवहार करते हैं, भले ही वे चीवर धारण करते हों या न करते हों।

तंत्र मंत्र की तलाश अक्सर आध्यात्मिक गुरुओं के साथ ऐसे साधकों के सम्बंधों को अस्थिर कर देती है। भले ही वे अपने आपको समुचित योग्यताप्राप्त उपदेशकों का शिष्य घोषित करते हों, ऐसे शिष्य अक्सर इन शिक्षकों को उस स्थिति में छोड़ कर चले जाते हैं जब वे पाते हैं कि उनकी कल्पनाओं के अलावा वास्तविक जीवन में उनके साथ कुछ भी अलौकिक घटित नहीं हो रहा है। इसके अलावा, “तात्क्षणिक शिष्यों” के अव्यावहारिक दृष्टिकोण और ऊँची अपेक्षाएं अक्सर उनकी विवेकक्षमता को धुँधला कर देती हैं। ऐसे लोग आसानी से चालाक आध्यात्मिक पाखंडियों के झांसे में आ जाते हैं।

(2) कुछ दूसरे लोग सम्भवतः भावनात्मक या शारीरिक पीड़ा को नियंत्रित करने की तीव्र इच्छा लिए धर्म केंद्रों में पहुँचते हैं। हो सकता है कि उन्होंने विभिन्न प्रकार की चिकित्सा को आज़माया हो किन्तु उन्हें फिर भी कोई फायदा न हुआ हो। अब, वे किसी जादूगर/ चिकित्सक से किसी प्रकार के जादुई उपचार की अपेक्षा रखते हैं। वे अपने आपको ऐसे किसी भी व्यक्ति का शिष्य घोषित कर देते हैं जो उन्हें आशीर्वाद के रूप में कोई ऐसी दवा की गोली दे सकता हो, पाठ करने के लिए कोई विशेष प्रार्थना या मंत्र बता सकता हो, या कोई प्रभावशाली साधना – जैसे एक हज़ार बार साष्टांग प्रणाम करने की साधना – हो जिससे उनकी समस्याओं का स्वतः ही समाधान हो जाए। वे खास तौर पर ऐसे ही शिक्षकों के पास जाते हैं जो तंत्र-मंत्र की तलाश करने वाले लोगों को आकर्षित करते हैं। जब योग्यता प्राप्त शिक्षकों की सलाह भी जादुई उपचार नहीं उपलब्ध करा पाती है तो जादुई समाधान तलाशने वाले साधकों की “तुरंत समाधान” की मानसिकता उनके लिए निराशा और मायूसी का कारण बनती है। “तुरंत समाधान” की मानसिकता आध्यात्मिक नीम-हकीमों के हाथों ठगे जाने का भी कारण बन सकती है।

(3) कुछ दूसरे लोग, खास तौर पर मोहभंग के शिकार, बेरोज़गार युवा होते हैं जो अस्तित्वपरक शक्तियाँ पाने की आशा लिए विशेष उपासना पद्धति के धर्म केंद्रों में आते हैं। करिश्माई आकर्षण वाले अहंकारोन्मादी “आध्यात्मिक फासीवाद” के हथकंडे अपना कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। वे अपने सम्प्रदाय के प्रति निष्ठा के एवज़ में अपने तथाकथित शिष्यों को संख्याबल से आश्वस्त करते हैं। वे शिष्यों को प्रचंड रूप से शक्तिशाली ऐसे रक्षकों के बारे में नाटकीय ढंग से बता-बता कर यह प्रलोभन भी देते हैं कि ये रक्षक उनके दुश्मनों, विशेष तौर पर गौण, अशुद्ध बौद्ध परम्पराओं के अनुयायियों को नष्ट कर देंगे। अपने आन्दोलनों के संस्थापकों के बारे में बढ़ाचढ़ा कर सुनाई गई कहानियों की सहायता से वे शिष्यों के ऐसे शक्तिशाली मार्गदर्शक के स्वप्न को साकार करने का प्रयत्न करते हैं जो अपने अनुयायियों का आध्यात्मिक उत्थान करेगा। ऐसे आश्वासनों से प्रभावित होकर इस प्रकार के लोग शीघ्र ही अपने आप को उनका शिष्य घोषित कर देते हैं और आँख मूंद कर अपने सत्तावादी शिक्षकों के निर्देशों या आदेशों का पालन करने लगते हैं। इसकी परिणति अक्सर दुखद होती है।

सारांश

संक्षेप में, जिस प्रकार किसी बौद्ध केंद्र में शिक्षा देने वाला हर व्यक्ति सच्चा आध्यात्मिक गुरु या उपदेशक नहीं होता, उसी प्रकार किसी केंद्र में अध्ययन करने वाला हर व्यक्ति सच्चा शिष्य भी नहीं होता। हमें उपदेशक और शिष्य शब्दों का ठीक-ठीक प्रयोग करने की आवश्यकता है। इसके लिए आध्यात्मिक दृष्टि से ईमानदार और ढोंग से रहित व्यवहार की आवश्यकता होती है।

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