जोग्चेन क्या है?

जोग्चेन को सरल, सहज और आसान भले ही माना जाता हो, लेकिन इसका सही ढंग से अभ्यास करने के लिए हमें बाह्य और आन्तरिक प्रारम्भिक साधनाओं को समझने के लिए बहुत प्रयास और परिश्रम करने की आवशअयकता होती है। लगन और विवेक की सहायता से किया गया जोग्चेन का अभ्यास दूसरों की भलाई करने की दृष्टि से ज्ञानोदय प्राप्ति का एक बहुत ही सुदृढ़ और प्रभावी तरीका है।

जोग्चेन चित्त के गहनतम, सूक्ष्मतम और आधारभूत स्तरों पर ध्यानसाधना की एक बहुत ही उन्नत पद्धति है। “चित्त” से आशय संज्ञानात्मक तौर पर चीज़ों के साथ जुड़ने के अविरल मानसिक क्रियाकलाप से है, जिसे एक अन्य दृष्टि से प्रतीतियों (मानसिक होलोग्रामों) को उत्पन्न करने का मानसिक क्रियाकलाप कहा जाता है।

“जोग्चेन” का अर्थ “महान सम्पूर्णता” है, यानी बुद्धत्व के सभी गुण रिग्पा (निर्मल बोध) के स्तर पर सम्पूर्ण होते हैं, जोकि गहनतम आधारिक स्तर होता है। हालाँकि अनादि और अनन्त कहे जाने वाले “आधारभूत रिग्पा” में कुछ जोड़े जाने जाने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी अब ये गुण अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं करते हैं। क्यों? क्योंकि भौचकपन का आवरक कारक भी इसके साथ ही उत्पन्न होता है, और वह भी अनादि होता है।

भौचकपन” समस्त परिघटनाओं की शून्यता की प्रकृति – अस्तित्वमान होने के असम्भव तरीकों के पूर्ण अभाव – का स्वतः उद्भूत अज्ञान होता है। यह रिग्पा की अपनी निर्मल प्रकृति जिसे स्वसंवेदन कहा जाता है, को ढक देता है। यह निर्मल प्रकृति तीन प्रकार की होती है:

  • आदि निर्मलता – यह बोध के समस्त निम्तर स्तरों (सीमित बोध) से मुक्त होती है जहाँ वैचारिक बोध, अशांतकारी मनोभाव और सामान्य इंद्रिय बोध घटित होता है। यह भी मूलतः अस्तित्वमान होने के असम्भव तरीकों से मुक्त होती है।
  • सहज प्रमाणनकारी – इससे सभी प्रकार की प्रतीतियों (मानसिक होलोग्रामों) की उत्पत्ति होती है।
  • अनुक्रियाशीलता – यह कारणों, स्थितियों और दूसरों की आवश्यकताओं की प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न होती है। एक प्रकार से यह उन आवश्यकताओं के साथ करुणापूर्वक “संवाद” करती है।

यह तीन प्रकार की प्रकृति हमारे चित्त, शरीर और वाणी के स्वभाव या गुणों के लिए उत्तरदायी होती है।

जब मूल रिग्पा भौचकपन के इस क्षणिक कारक के साथ प्रवाहमान होता है तब मूल रिग्पा स्वभाव के आलय – आधारभूत बोध के रूप में कार्य करता है, जिस पर निम्नलिखित आरूढ़ होते हैं:

  • स्मृतियाँ
  • कार्मिक सम्भाव्यताएं और प्रवृत्तियाँ
  • अशांतकारी मनोभावों और सांकेतिक अशांतकारी दृष्टिकोण
  • असम्भव तरीकों से अस्तित्वमान होने के तरीकों के प्रति आसक्ति।

जोग्चेन ध्यानसाधना का लक्ष्य होता है (1) भौचकपन का यथार्थ निरोध और उसके माध्यम से स्वभाव के आलयों का यथार्थ निरोध और (2) सभी जीवों की अधिक से अधिक भलाई करने के योग्य बनने के लिए रिग्पा के सभी सद्गुणों को पूरी तरह सक्रिय करना।

तिब्बत में जोग्चेन की शिक्षा न्यिंग्मा तथा बॉन परम्पराओं में दी जाती है, और बाद में इसे काग्यू के सभी सम्प्रदायों में भी शामिल कर लिया गया। चित्त के नौ वाहनों के वर्गीकरण की न्यिंग्मा पद्धति में इसे अतियोग कहा जाता है, जोकि तंत्र के सभी छह वाहनों में सर्वोपरि है। लेकिन, आजकल जोग्चेन की शिक्षा अक्सर उसके सूत्रों और तंत्र के संदर्भों के बाहर भी दी जाती है – उदाहरण के लिए, इसकी शिक्षा चित्त को शांत करने और शमथ (चित्त की शांत और स्थिर अवस्था) की पूर्ण एकाग्रता को हासिल करने के लिए भी दी जाती है। यह शिक्षा बहुत प्रभावी हो सकती है। किन्तु मुक्ति और ज्ञानोदय की प्राप्ति के लिए जोग्चेन की साधना केवल निम्नलिखित के विस्तृत अध्ययन और अभ्यास के बाद ही की जाती है:

  • बाह्य प्रारम्भिक तैयारियाँ – बहुमूल्य मानव जीवन, अनित्यता, सांसारिक दुख, कार्मिक कारण और प्रभाव (नीतिशास्त्र), मुक्ति (नैष्काम्य) के लाभ, और किसी योग्य आध्यात्मिक गुरु के साथ गुणकारी सम्बंध
  • आन्तरिक प्रारम्भिक तैयारियाँ – शरणागति (सुरक्षित दिशा) सहित साष्टांग प्रणाम, प्रेम तथा करुणा पर आधारित बोधिचित्त, वज्रसत्व शुद्धि, मंडल का भेंट-चढ़ावा, छेदसाधना के रूप में अपने शरीर का भेंट-चढ़ावा अर्पित करना, और गुरु-योग।

इस सबको पूरा कर लेने के बाद तांत्रिक अभिषेक प्राप्त करने और अपने सभी संवरों का कड़ाई से पालन करने की आवश्यकता होती है। इस आधार पर निम्नलिखित की भी आवश्यकता होती है:

  • महायोग तंत्र साधना – बुद्धाकृतियों तथा मंत्रों सहित देवता-योग
  • अनुयोग तंत्र साधना – सूक्ष्म प्राण, नाड़ियों, और ऊर्जा बिंदुओं के साथ अभ्यास

इन सभी साधनाओं की सहायता से सकारात्मक बल (पुण्य) और गहन बोध विकसित किए बिना और किसी योग्य गुरु की प्रेरणा और गहन मार्गदर्शन के बिना जोग्चेन की साधना में सफलता हासिल करना सम्भव नहीं है; यह साधना बहुत ही सूक्ष्म और कठिन होती है।

किसी भी प्रकार की पूर्वधारणाओं, पूर्वापेक्षाओं या चिन्ताओं से रहित होकर “यह” और “वह” के मौखिक वैचारिक विचारों के बीच अपने मानसिक क्रियाकलाप को शांत करके जोग्चेन की ध्यानसाधना को प्रारम्भ किया जाता है। प्रत्येक क्षण और प्रत्येक ऐसे विचार का प्रत्येक वाचिक शब्दांश एक ही समय पर उत्पन्न होता है, ठहरता और समाप्त हो जाता है। हम इसे केवल तभी पहचान सकते हैं जब हमने उत्पत्ति, ठहराव और समाप्ति की शून्यता के बारे में माध्यमक की प्रस्तुति और इस प्रक्रिया को नियंत्रित या अवलोकन करने वाले ढूँढे जा सकने योग्य “मैं” के बारे में पहले से ही अध्ययन और ध्यानसाधना कर रखी हो। इस तत्क्षण उत्पत्ति, ठहराव और समाप्ति की सचेतनता को सायास बनाए रखने की आवश्यकता नहीं होती है: वाचिक वैचारिक विचार स्वतः ही “स्वयं को मुक्त कर लेता है” – यानी वह स्वतः ही लुप्त हो जाता है – और हम विचारों के बीच की अवस्था में स्थित हो जाते हैं।

इसके बाद हमें अपने निर्वैचारिक इंद्रिय बोध के तत्क्षण उत्पन्न होने, ठहरने और समाप्त हो जाने के हमारे निर्वैचारिक इंद्रिय बोध के माइक्रोसेकंड्स को अलग-अलग पहचानने की आवश्यकता होती है। इन माइक्रोसेकंड्स के दौरान – जिन्हें अलग-अलग पहचानना बहुत ही कठिन होता है – हमें केवल एक ही इंद्रिय से सम्बंधित संवेदी सूचना का बोध होता है (जैसे केवल रंगीन आकृतियाँ) जिसे बाद में दूसरी इंद्रियों से ग्रहण सूचना और आगे के माइक्रोसेकंड्स से प्राप्त सूचना के मानसिक संश्लेषण को “यह” या “वह” पारम्परिक वस्तु के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है। जब हम उन माइक्रोसेकंड्स के भी बीच के मानसिक क्रियाकलाप में स्थित हो जाते हैं तो हम स्वभाव के आलय तक पहुँच जाते हैं। लेकिन अभी भी यह एक तरह का सीमित बोध ही होता है क्योंकि अभी भी इसमें भौचकपन के तत्व मिले हुए होते हैं।

हमें इससे भी अधिक गहराई वाले सूक्ष्मतर स्तर पर जाने की आवश्यकता होती है ताकि हम बीच के उस बीच के उस संज्ञानात्मक अन्तराल की अनुभूति और पहचान कर सकें जो अपनी तीन प्रकार की प्रकृति (आदि निर्मलता, सहज प्रमाणनकारी और अनुक्रियाशीलता) के गहन बोध से युक्त होता है। ऐसा हम अपने जोग्चेन गुरु की सहायता से ऐसी विशेष विधियों का प्रयोग करके करते हैं जो हमें अपने चित्त की प्रकृति को पहचानने के योग्य बनाती हैं। क्योंकि हम अपनी ऊर्जा नाड़ियों के मार्ग को पूर्व में की गई अनुयोग साधना की सहायता से “सुगम” बना चुके होते हैं, इसलिए हमारे मानसिक क्रियाकलाप के निम्नतर स्तर कोई प्रयास किए बिना स्वतः ही विसर्जित हो जाते हैं।

भौचकपन की समाप्ति के साथ ही हमारे स्वभाव का आलय दीप्तिमान रिग्पा बन जाता है, यानी, सक्रियतापूर्वक संज्ञानात्मक प्रतीतियों (मानसिक होलोग्राम्स) को उत्पन्न करने और सक्रियतापूर्क उनका बोध करने वाला रिग्पा बन जाता है, जहाँ संज्ञानात्मक प्रतीतियाँ अधिक प्रमुख होती हैं। किन्तु हमें इससे भी अधिक गहराई में जाने की आवश्यकता होती है। दीप्तिमान रिग्पा की निर्मल प्रतीतियों के एक ही समय पर उत्पन्न होने, ठहरने और समाप्त होने के माइक्रोसेकंड्स पर ध्यान केंद्रित रखते हुए हमें मूलतत्व रिग्पा को पहचानने की आवश्यकता होती है। यह रिग्पा “विवृत्त स्थान” या “संज्ञानात्मक क्षेत्र” के रूप में होता है जो प्रतीतियों की उत्पत्ति और उनके संज्ञान के बारे में विचार करता है, जहाँ संज्ञान अधिक प्रमुख होता है। जब हम इसे पहचान लेते हैं और उस पर ध्यान को केंद्रित रखते हैं, तो हमें एक महत्वपूर्ण खोज, एक दर्शी चित्त मार्ग की प्राप्ति होती है, जोकि ज्ञानोदय के मार्ग के पाँच चित्त मार्गों में से तीसरा चित्त मार्ग होता है।

इसके बाद महायोग में बुद्धाकृतियों के साथ साधना के परिणामस्वरूप दीप्तिमान रिग्पा एक इंद्रधनुषी शरीर को उत्पन्न करता है और स्वयं को साधारण स्कंधों के बजाए उस इंद्रधनुषी शरीर के रूप में पहचानता है। इस प्रकार कुदान अवस्था, जो किसी अभ्यस्त बनाने वाले चित्त मार्ग (ध्यानसाधना मार्ग) के समतुल्य होती है, में दीप्तिमान रिग्पा मूलतत्व रिग्पा की प्रमुखता को बनाए रखते हुए अधिक प्रमुख हो जाता है। जब दीप्तिमान रिग्पा और मूलतत्व रिग्पा समान रूप से प्रमुख हो जाते हैं तो हमें ज्ञानोदय की प्राप्ति हो जाती है और इस साधना के दौरान बना कर रखे गए गहन प्रेम, करुणा और बोधिचित्त लक्ष्य के परिणामस्वरूप हम सभी जीवों की अधिक से अधिक भलाई करने में सक्षम हो जाते हैं।

सारांश

जोग्चेन चित्त की सहज अवस्था में स्थिर होने के एक प्रत्यक्ष और सहज मार्ग के रूप में विख्यात है। हालाँकि यह बात सच है कि हमारे संज्ञानात्मक अनुभव, वैचारिक विचारों और सीमित सचेतनता के सभी स्तरों पर जो कुछ घटित हो रहा होता है वह सब बंद हो जाता है और हमारा चित्त किसी बुद्ध की पूरी क्षमताओं के साथ निर्मल प्रतीतियों को उत्पन्न करने लगता है, लेकिन यदि हमने इस जन्म में और पिछले जन्मों में सूत्र और तंत्र के सभी प्रारम्भिक अभ्यासों में कठोर परिश्रम न किया हो तो सम्भवतः इनमें से कुछ भी नहीं हो सकेगा। हमें नासमझी से जोग्चेन साधना की कठिनाई के स्तर को कम करके नहीं आंकना चाहिए। लेकिन यदि पर्याप्त तैयारी की जाए तो यह सभी की भलाई के लिए ज्ञानोदय प्राप्ति की सबसे प्रगाढ़ विधि है।

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