मिलरेपा द्वारा एक युवक को चित्त की प्रकृति का अवगाहन करने की और प्रवृत्त करना

एक दिन मिलरेपा एक गुफा में एकांतवास कर रहे थे। दो आगन्तुक आये और इनसे प्रश्न पूछने लगे।
 
“क्या आप अकेले हैं?” “आप एकाकी अनुभव नहीं करते?”

“मैं तो सदा किसी के साथ रहता हूँ, कभी अकेला नहीं होता,”उन्होंने उत्तर दिया।

“परन्तु वह कौन है?” युवतर युवक ने पूछा।

“अपने बोधिचित्त के साथ।”

“वह कहाँ है?”

“मेरी चेतना के घर में।”

“वह किस प्रकार का घर है?” अधिक वय वाले युवक ने पूछा।

“मेरा अपना ही शरीर।”

उस व्यक्ति ने सोचा कि मिलरेपा उपहास कर रहे हैं। उसने अपने युवा साथी से कहा, “चलो चलते हैं, यह तो समय नष्ट करना है – ये तो व्यंग्य कर रहे हैं। युवक ने उत्तर दिया, “संभवत: हम यहाँ कुछ सीख सकते हैं।” उसने फिर मिलरेपा से पूछा।

“क्या आपके अनुसार चेतना चित्त है और शरीर घर है?”

“हाँ मैं बिल्कुल यही कह रहा हूँ।” मिलरेपा ने उत्तर दिया।

“एक सामान्य से घर में कई लोग रह सकते हैं – परन्तु एक शरीर में कितने प्रकार के चित्त निवास कर सकते हैं।”

“सामन्यतया केवल एक चित्त। परन्तु आज की रात ध्यान-साधना करते हुए, अपने शरीर में और अधिक की खोज करना,” मिलरेपा ने कहा। आगंतुक राज़ी हो गए और उन्होंने अपने घर के लिए प्रस्थान किया। युवतर युवक ने उस रात ध्यान-साधना की और अगले दिन सुबह-सुबह मिलरेपा से मिलने भागा हुआ गया।

“हे गुरु! कल रात मैंने ध्यान-साधना की और जैसा कि आप कहते हैं चित्त एक ही होता है परन्तु उसके बारे में कुछ विचित्र है.... मैं इस चित्त के आकार, अथवा रंग को वर्णित नहीं कर सकता। यदि मैं इसके पीछे दौड़ता हूँ, मैं इसे पकड़ नहीं पाता। यदि मैं इसकी हत्या करना चाहता हूँ, तो यह मरता नहीं है। मैं जितना तेज़ दौड़ता हूँ, यह उससे अधिक तेज़ दौड़ता है। इसे पाना असंभव है। जब मैं कल्पना करता हूँ कि मैंने इसे पकड़ लिया तो मैं इसे पददलित नहीं कर पाता। यदि मैं इसे एक स्थान पर रखने का प्रयास करता हूँ तो यह स्थिर नहीं रहता। यदि मैं इसे छोड़ देता हूँ तो यह टस से मस नहीं होता। यदि मैं इसे संयोजित करने का प्रयास करता हूँ, तो यह संयोजित नहीं होता। यदि मैं इसकी प्रकृति को देखना चाहता हूँ, तो यह अदृश्य हो जाता है, तो मैं इसकी प्रकृति के विषय में भ्रमित हूँ। मैं इसकी प्रकृति को नहीं जानता, परन्तु मैं इसकी उपस्थिति को अस्वीकार नहीं कर सकता। कृपया इस चित्त से मेरा परिचय करवाइए।”

“मुझसे यह आशा मत करना कि मैं तुम्हारे लिए चीनी चखकर देखूंगा!” मिलरेपा ने कहा। “ब्राउन शुगर का स्वाद आखों से नहीं देखा जा सकता न ही कानों से सुना जा सकता है। तुम्हें ध्यान-साधना करनी चाहिए और स्वयं उसका पता लगाना चाहिए। याद रखो, चित्त वर्णनातीत है। ये मात्र सामान्य संकेत हैं। चित्त का कभी वर्णन नहीं किया जा सकता। दूसरों से संकेत ग्रहण करके, स्वयं निरीक्षण करो। उसे केवल अपनी सचेतनता से देखा जा सकता है।” युवक ने अधिक शिक्षाओं का अनुरोध किया।

“वह सब व्यर्थ है,” मिलरेपा ने कहा। “घर जाओ और कल लौटकर आना और मुझे अपने चित्त के रंग, आकार के विषय के बारे में बताना और यह भी कि वह तुम्हारे सिर में निवास करता है अथवा पैर की उंगली की नोंक पर।” अगले दिन सूर्योदय काल में वह युवक फिर लौटकर आया।

“तुमने अपने चित्त की जांच की?” मिलरेपा ने पूछा।

“जी मैं कर चूका हूँ।” युवक ने विचारों में डूबकर उत्तर दिया। “चित्त चलायमान है- उसकी प्रकृति गतिशील है। उसकी मूल इयत्ता निर्मल एवं पारदर्शी है। चित्त को किसी रंग अथवा आकार से परिभाषित नहीं किया जा सकता - चित्त को रंग अथवा आकार से पहचानना असंभव है। इन्द्रिय द्वारों के माध्यम से जैसे चक्षु, चित्त देखता है। इन्द्रिय द्वारों के माध्यम से, जैसे कान, चित्त नाद श्रवण करता है। इन्द्रिय द्वारों के माध्यम से, जैसे नासिका, चित्त गंध ग्रहण करता है, जिह्वा के माध्यम से चित्त आस्वादन करता है। पैरों के माध्यम से चित्त चलता है। चित्त ही प्रत्येक वस्तु में हरकत पैदा करता है। चित्त बात करता है। चित्त विवाद उत्पन्न करता है। चित्त ही परिणाम लाता है।”

“तुमने चित्त के परम्परागत पक्ष को देख लिया है।” मिलरेपा ने उससे कहा। “इस परंपरागत चित्त से हम नकारात्मक क्षमता संचित करते हैं और इस प्रकार संसार में भटकते रहते हैं। तुमने परंपरागत चित्त को भली-भांति समझ लिया है, अब, इस बोध के साथ यदि तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें मुक्ति के नगर तक ले जाऊं तो मैं वैसा करूँगा।”

तो इस शिष्य ने मिलरेपा को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। बहुत दिनों बाद, मिलरेपा ने उससे उसका नाम पूछा। उसका नाम उपासक संज्ञेय-क्याब था। वह मात्र 16 वर्ष का था। फिर मिलरेपा ने अपने नए शिष्य को सुरक्षित दिशा(शरणागति) सम्बन्धी पहला उपदेश दिया।

“आज रात से, तीन बहुमूल्य रत्नों से सुरक्षित दिशा प्राप्त करने से अपने प्रगाढ़ सम्बन्ध को कभी खंडित नहीं करना। आज की रात ध्यान-साधन करो और देखो कि क्या चित्त तुम्हारा रक्षक अथवा सहायक है अथवा तुम्हारा शरीर।” अगले दिन शिष्य ने बताया कि शरीर वैसा नहीं करता।

मिलरेपा कुशलतापूर्वक उसे शून्यता एवं अनस्तित्व पर ध्यान लगाने के लिए प्रेरित कर रहे थे, परन्तु वे अपने शिष्य को ध्यान-साधना करने एवं अनुभव अर्जित करने के बाद शून्यता के विषय में बताना चाहते थे, इससे पहले नहीं। यही प्रभावी पद्धति है। यह पूछे जाने पर कि रक्षक शरीर है अथवा चित्त, कोई व्यक्ति गहराई से सोचने पर विवश हो जाता है। कोई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से ठीक अनुभव कर सकता है, परन्तु मानसिक रूप से वह भ्रमित एवं अशांत हो सकता है। यह चित्त है जो इस जीवन में तथा भावी जीवनकालों में रक्षा करता है।

इस प्रकार इन विभिन्न विधियों से मिलरेपा ने लोगों को शिक्षा दी और उनका मार्गदर्शन किया कि वे ध्यान-साधना के माध्यम से अनस्तित्व तक पहुंचें जो कि चित्त की वास्तविक प्रकृति है।

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