अष्टलोकधर्म (आठ सांसारिक धर्म )
ये अष्टलोकधर्म जीवन की आठ क्षणभंगुर वस्तुओं के बारे में हैं। चार जोड़ियों में सूचीबद्ध ये आठ हैं:
- स्तुति या आलोचना
- शुभ या अशुभ समाचार सुनना
- लाभ या हानि
- कार्यों का सुचारु रूप से चलना या गड़बड़ा जाना
इनसे अशांत, उद्विग्न, या असहज होने का अर्थ है प्रत्येक जोड़े के पहले अनुभव से अत्यधिक उत्साहित होना तथा दूसरे के अनुभव से अत्यधिक विषादग्रस्त होना। हम इन्हें इसे चार आर्य सत्यों के संदर्भ में समझ सकते हैं।
पहला आर्य सत्य
- दुःख की समस्या - हमें आलोचना, अशुभ समाचार, हानि, अथवा काम के गड़बड़ा जाने की खबर मिलती है। अपनी उन्नत अथवा हीन आत्म-गरिमा के आधार पर इसका एक और आयाम यह है कि हम इस वाले या पहले वाले - स्तुति आदि - समुच्चय को स्वीकार करते हुए अप्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
- क्षणभंगुर सुख - हमें प्रशंसा, शुभ समाचार, लाभ, या कार्यों का सुचारु रूप से चलने की खबर मिलती है। अपनी उन्नत अथवा हीन आत्म-गरिमा के आधार पर इसका एक और आयाम यह है कि हम इस वाले या दूसरे वाले - आरोप आदि - समुच्चय को स्वीकार करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। किन्तु, पते की बात यह है कि वह सुख सदा के लिए नहीं होता न ही हमें तृप्त कर पाता है और न ही हमारी समस्याओं का समाधान कर पाता है।
- अनियंत्रित रूप से आवर्ती कुल अनुभव - ये आठ क्षणभंगुर बार-बार घटित होती रहती हैं; यह कहा नहीं जा सकता कि इनमें से कौन कब घटित हो जाए; और न ही उनपर हमारा कोई नियंत्रण होता है। हमारे अनुभवों में सदा उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं।
दूसरा आर्य सत्य
समस्याएँ कर्म और क्लेशों से उत्पन्न होती हैं। कर्म का तात्पर्य है एक निश्चित प्रकार से कार्य करने की तीव्र इच्छा जो पूर्व कार्मिक क्रियाओं को दोहराने जैसी भावनाओं पर आधारित है। जब हम "ठोस" (सत्यसिद्ध) अस्तित्व को समझते हुए इसका अनुभव करते हैं - "मैं" ऐसा करना चाहता हूँ - जब हम इस तीव्र इच्छा को एक कार्य रूप में परिणत करते हैं तो वह क्रिया नकारात्मक (पाप) अथवा सकारात्मक (पुण्य) शक्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। परिणामस्वरूप, हमारा मानसिक समतान कार्मिक शक्तियों के संभार से युक्त हो जाता है: कार्मिक शक्तियों का समूह (संचय), कर्म-बीज, तथा वासनाएँ।
सत्यग्राह एवं तृष्णा (लालसा) के निम्नलिखित परिणाम होते हैं:
- कर्म बीज के कारण वे अनुभव विपाक होते हैं जिनके कर्म हमने अतीत में किए थे - प्रशंसा प्राप्त करना या आलोचना का शिकार होना इत्यादि।
- संचित कर्म विपाक होते हैं और हम उनके फल को भोगते हुए सुख या दुःख का अनुभव करते हैं।
- हमारी वासनाएँ आत्मग्राह में विपाक होती हैं। हम उस अनुभव को तीन भागों में बाँटते हैं और प्रत्येक भाग को अतिशय विशालकाय बना देते हैं - ठोस "मैं", ठोस "तुम", ठोस "अनुभव"। उसके पश्चात आसक्ति या वितृष्णा, आसक्ति में लिप्त होकर अधिकाधिक अर्जित करने की तृष्णा, अथवा अलग होने की तृष्णा जैसे क्लेश उत्पन्न होते हैं। इनसे और अधिक कर्मफल विपाक होते हैं।
कर्म की प्रक्रिया
कर्म-बीज के विपाक होने के कारण हम अपने अतीत के कर्मों को पुनः अनुभव करते हैं।
- ठोस अस्तित्व की तृष्णा से युक्त होकर दूसरों की प्रशंसा या आलोचना करने के कारण हम अपनी प्रशंसा और आलोचना या निंदा का अनुभव करते हैं। यह अतर्क्य है कि कभी-कभी हमें प्रशंसा या आलोचना करने की आवश्यकता होती है - परन्तु ध्यान देने की बात यह है कि हमें यह ठोस अस्तित्व की तृष्णा से रहित होकर (बिना अहंकार के) करना चाहिए।
- ठोस अस्तित्व की तृष्णा से युक्त होकर दूसरों को शुभ या अशुभ समाचार सुनाने, या उनपर चिल्लाने या उनसे प्यार से बोलने, या शोर-गुल से दूसरों को सताने अथवा उन्हें कष्ट न पहुँचाने की दृष्टि से शोर न मचाने के द्वारा उन्हें जो भी अनुभव होगा ठीक वैसा ही अनुभव हमारे साथ भी होगा।
- ठोस अस्तित्व की तृष्णा से युक्त होकर पराई वस्तु को लेने से अपनेआप को रोकने, या ठोस अस्तित्व की तृष्णा से युक्त किसी व्यक्ति से चुराने या ज़बरदस्ती ले लेने पर हम लाभ या हानि का अनुभव करते हैं।
- ठोस अस्तित्व की तृष्णा से युक्त होकर हम सामान्यतया कुशल या अकुशल कृत्यों को करने से कार्यों के सुचारु रूप से चलने या गड़बड़ा जाने, अथवा सफलता या असफलता का अनुभव करते हैं।
इन आठ अनुभवों के दौरान ठोस अस्तित्व की तृष्णा से युक्त होकर किए गए संचित पुण्य एवं पाप कर्मों का सुखद एवं दुःखद अनुभूतियों में विपाक होता है। प्रशंसा सुनने पर हम सुख या दुःख का अनुभव कर सकते हैं (अप्रिय, उदाहरण के लिए, "मैं इस लायक नहीं हूँ।"), और यही अनुभव आलोचना या निंदा सुनने पर भी होते हैं।
वासनाओं के कारण हम इन विपाक कर्मों का अनुभव किसी ठोस "मैं" - "मैं" महान हूँ, या "मैं" इसके लायक नहीं हूँ - में विश्वास के रूप में करते हैं। किसी ठोस "तुम" - "तुम" बहुत ही अद्भुत हो या घृणात्मक हो - में विश्वास के रूप में करते हैं। किसी ठोस "अनुभव" - यह प्रशंसा बहुत ही अच्छी है या यह निंदा अत्यंत भयानक है, जो "मुझे" और "मेरी" प्रतिष्ठा इत्यादि को क्षति पहुँचाएगी - में विश्वास के रूप में करते हैं।
फिर, इस ठोस अस्तित्व की तृष्णा के आधार पर हमारे भीतर स्नेह (आसक्ति) एवं अतिशय औद्धत्य (अति उत्साह), या क्रोध एवं निराशा के क्लेश उत्पन्न होते हैं। ये और अधिक कर्मों को विपाक कर देते हैं और, फलस्वरूप, हम संसार तथा उसके उतार चढ़ावों का अधिकाधिक अनुभव करते हैं।
तीसरा आर्य सत्य
सत्य निरोध। सत्य निरोध का वास्तविक अर्थ है संसार से पूर्ण रूप से मुक्ति पा जाना, जैसे संसारी उतार-चढ़ावों से चित्त में किसी प्रकार की कलुषित भावनाओं का अनुभव न होना। बल्कि अपने भीतर ज्ञान का सतत आनंद का अनुभव होते रहना। इसके अतिरिक्त हमें अपने पूर्व कर्म-फलों के उतार-चढ़ावों का भी अनुभव न होना।
फिर भी, सत्य निरोध की प्राप्ति से पहले भी, अर्थात्, उस अवस्था में होते हुए भी जहाँ हम प्रशंसा या निंदा इत्यादि का अनुभव करते हैं, जहाँ काम सुचारु रूप से चल रहा होता है या गड़बड़ा जाता है, और जहाँ इन अनुभवों के कारण स्वाभाविक रूप से सुखी या दु:खी होते हैं, हम स्नेह (आसक्ति) और औद्धत्य (अति उत्साहित होना), अथवा निराश एवं अभागा या क्रोधित होने, के अनुभवों का एक प्रकार से अनंतिम निरोध तो अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। अर्थात्, हम एक प्रकार की उपेक्षा (समचित्तता) एवं मानसिक और भावात्मक स्थिरता (इसे संस्कृत में ध्यान कहा जाता है) प्राप्त कर सकते हैं।
इन अनुभवों के प्रति उपेक्षा (समचित्तता) का यह अर्थ नहीं कि हमें कुछ महसूस ही न हो - वेतन वृद्धि पर आह्लादित न हों, या अपने प्रियजन की मृत्यु पर विषादग्रस्त न हों। इसका यह अर्थ नहीं है कि अपनी भावनाओं का दमन किया जाए, यद्यपि भावनाएँ अत्यंत सूक्ष्म हो जाती हैं। दमन तथा संवेदनशून्यता स्वास्थ्यकर नहीं होते। अपितु, इसका अर्थ है भावनाओं से अशांत या उद्विग्न न होना, आसक्त या प्रतिहत न होना, अति उत्साहित या निराश या क्रोधित न होना - अनुभवों या उनसे संलग्न भावनाओं से असहज न होना।
इससे हमारी प्रतिक्रया उपयुक्त हो जाती है। उदाहरण के लिए, हम प्रशंसा या निंदा का शांतचित्त होकर आकलन कर सकते हैं कि क्या वह सही है और क्या उसमें कुछ है जो सीखने योग्य है।
चौथा आर्य सत्य
इस सत्य निरोध की प्राप्ति का सत्य मार्ग शून्यता की समझ के द्वारा होता है, जिससे हम अनुभव के तीनों आयामों को विभाजित कर उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना बंद कर सकें। परन्तु, ऐसे कई तात्कालिक मार्ग हैं जिससे हम अनंतिम निरोध प्राप्त कर सकते हैं - इनमें से कई तो शान्तिदेव के बोधिसत्त्वचर्यावतार में दिए गए हैं।
अनंतिम निरोध किस प्रकार प्राप्त किया जाए: परिप्रेक्ष्य
अनुभवों को परिप्रेक्ष्य में रखें.
- जब हम अपनी प्रशंसा या निंदा सुनते हैं तो हमें स्मरण रहना चाहिए कि हमारे भीतर प्रशंसनीय एवं निंदनीय दोनों ही बातें उपस्थित हैं - ऐसे में एक बात भला दूसरे से अधिक महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकती है? ऐसा क्यों होता है कि हम केवल एक ही पक्ष से जुड़ जाते हैं और दूसरे से नहीं? हमें वितृष्णा एवं विराग का अनुभव करना चाहिए।
- शुभाशुभ समाचार, लाभ-अलाभ, काम का अनुकूल या प्रतिकूल ढंग से चलना इत्यादि स्थितियों का भी इसी प्रकार सामना करें।
अनुभवों को अपने संपूर्ण जीवन के परिप्रेक्ष्य में रखें, न कि केवल वर्तमान सीमित परिप्रेक्ष्य में।
- जब हमारी प्रशंसा की जाती है तो स्मरण रहे कि ऐसे भी कई लोग हैं जो हमारी निंदा करते हैं।
- पहले अतीत की उस घटना को याद करें जब हमने प्रशंसा पाई हो, और उसके बाद निंदा पाने की उस घटना को भी याद करें। ध्यान दें: ऐसे कई और अन्य लोग भी होंगे जो भविष्य में फिर से मेरी निंदा करेंगे। और फिर इस अनुभूति पर ध्यान केंद्रित करें कि ऐसे अनुभवों में कोई विशेष बात नहीं है।
- निंदा सुनने पर भी ऐसा ही करें।
- निस्सरण (वैराग्य) की ओर मुड़ें – अर्थात्, इस प्रकार के भावात्मक उतार-चढ़ाव से घृणा करना तथा और उनसे मुक्त होने की निष्कपट इच्छा करना।
- इन्हीं चरणों को इन बातों के सुनने पर भी दोहराएँ, जैसे, शुभाशुभ समाचार (कोई हमसे संपर्क बनाए हुए है या नहीं, अच्छा व्यवहार कर रहा है या नहीं, इत्यादि), लाभ-अलाभ, और काम का अनुकूल या प्रतिकूल ढंग से चलना।
क्या वर्तमान अनुभव और अधिक सच्चा है?
- जब कोई हमारी आलोचना या निंदा करता है तो हम इस बात पर इस प्रकार सोच-विचार कर सकते हैं कि इस व्यक्ति की बातों में ऐसा क्या है जो मेरी प्रशंसा की तुलना में अधिक सत्य है। ऐसा क्या है जो उसकी बातों को अधिक वास्तविकता और विश्वसनीयता प्रदान करता है? ऐसा क्यों है कि यही व्यक्ति सच्चा है और अन्य कोई भी नहीं?
- उसी व्यक्ति की बातों पर हम इस प्रकार भी विचार कर सकते हैं कि ऐसा क्या है जो उस व्यक्ति की आज की बात हमारे प्रति उसकी सच्ची भावनाओं को प्रतिबिंबित करता है? उसकी वर्तमान निंदा में उसकी विगत प्रशंसा की तुलना में ऐसा क्या है जो और अधिक महत्त्वपूर्ण, सत्य, और वास्तविक है? अथवा यह कि उसमें ऐसा क्या है जो उसकी विगत प्रशंसा की तुलना में कम महत्त्वपूर्ण, सत्य, और वास्तविक है, कि हम उसे अनसुनी कर दें? वितृष्णा और निस्सरण पर ध्यान केंद्रित करते हुए विचार करें।
- प्रशंसा, शुभाशुभ समाचार, लाभ-अलाभ, काम का अनुकूल या प्रतिकूल ढंग से चलना इत्यादि स्थितियों के प्रति भी यही दृष्टिकोण अपनाएँ।
मैं संसार से क्या अपेक्षा रखता हूँ?
- यहाँ तक कि बुद्ध भी सब लोगों को प्रसन्न नहीं कर सके और न ही प्रत्येक व्यक्ति ने बुद्ध की प्रशंसा की या उनसे प्रेम किया, तो मैं अपने लिए क्या अपेक्षा कर सकता हूँ?
- मैं संसार से क्या अपेक्षा रखता हूँ? जब तक मैं अपने कर्मों को शुद्ध नहीं कर लेता तब तक मुझे शुभाशुभ समाचार मिलते रहेंगे, मेरा लाभ-अलाभ होता रहेगा - मेरा काम अनुकूल या प्रतिकूल ढंग से चलता रहेगा। यदि हम इससे दुखी होते हैं तो उस दुःख को वितृष्णा और निस्सरण में परिवर्तित कर दें।
कपोल कल्पना के बुलबुले को फोड़ देना
- प्रशंसा, निंदा, शुभाशुभ समाचार, लाभ-अलाभ, काम का अनुकूल या प्रतिकूल ढंग से चलना इत्यादि सब केवल वायु के कंपन हैं। वे केवल प्रतीतियाँ हैं। ऐसे में उनमें "मुझे" कोई अति उत्कृष्ट या अति दुष्ट व्यक्ति बनाने का सामर्थ्य कैसे हो सकता है?
- इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें यह सामर्थ्य कैसे हो सकता है कि एक ठोस प्रतीत होने वाले "मैं" को कोई अति उत्कृष्ट या अति दुष्ट व्यक्ति बना सके? उदाहरण के लिए, "मैं" इसका अधिकारी हूँ। अंततः, पारंपरिक "मैं" अनुभवों के अनवरत रूप से परिवर्तनीय सातत्य की एक धारा मात्र है, और यही बात पारम्परिक "तुम" के लिए भी सत्य है।
- किसी से प्राप्त किया हुआ उपहार इस प्रकार के "मैं" की स्वायत्तता को कैसे आघात पहुँचा सकता है? यदि कोई काम अपेक्षा के अनुरूप न हो या किसी प्रकार की हानि हो तो यह कैसे प्रमाणित हो जाता है कि प्रकट रूप से ठोस "मैं" पीड़ा या दंड का पात्र है?
- इस बात पर विचार करें कि दिग्भ्रमित विचारों एवं विश्वासों के कारण जब काम सुचारु रूप से चल रहा हो या कोई हमसे प्यार कर रहा हो तब भी इससे जनित सुख से हम अपनेआप को अनजाने में ही कैसे वंचित कर बैठते हैं। इस बात को मान लीजिए कि ये अंतर्दृष्टि ऐसी कपोल कल्पना के बुलबुले को फोड़ देती है ताकि हम उस आनंद को भोग सकें।